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प्रनेकात
१८०, वर्ष २५, कि.४
साहकार होता था. वहां अभिषेक करने वाले के लिए प्रकार हो सकता है, सदा निस्पृह रहने वाले मनितो. भाभषण प्राप्त करने का एक तरीक बना दिया गया था हम लोगों से घन नहीं लेते हैं, किन्तु जो मणव्रत को कि सेठ जी उसे इन्द्र बनाने के लिए इन पाभूषणों का धारण करने वाले हैं, घीर वीर हैं और गृहस्थों में मुख्य हान एवश्य कर दे। ब्राह्मण कई क्रिया कांडो में विभिन्न हैं। ऐसे पुरुष ही हम लोगों के द्वारा इच्छित धन, सवारी
बतानाम पर वस्त्रादिक का दान यजमान से पादि के द्वारा तर्पण करने योग्य हैं । सत्कार करने योग्य राजिन्हें वे स्वयं ले लेते हैं। जैनियों में भी इस है। व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से भरत ने समस्त परम्परा का प्राविर्भाव इन्द्र बनाने की प्रक्रिया में हुमा हो राजामों को सदाचारी इष्ट मित्रों एवं नौकर-चाकरों तो कोई पाश्चर्य नहीं है। चूंकि उनके देवता वस्त्रा सहित बुलाया । भरत ने उनकी परीक्षा हेत अपने घर के भषणों से रहित हैं। इसलिए उनके नाम पर तो कुछ मांगन में हरे-हरे अंकुर, पुष्प पोर फल खब भरवाहिये। नहीं मांगा जा सकता. तब अभिषेक करने वाले को इन्द्र मागतों में जो प्रवती थे वे सब हरे फल, पुष्पों को करे. रूप में सजाने के नाम पर पाभूषणादि की व्यवस्था की दते हुए मन्दर पा गये एवं जो वतीथे वे दया के विचार गई लगती है। यह ठीक है कि यह परम्परा अभी नही से हरित प्रकुरों से पूर्ण मार्ग से नहीं पाये । भरत ये सब है किन्तकभी रही या नहीं यह अनुसंधान का विषय है। दख रहे थे, उन्होंने उनको दूसरे प्रासक मार्ग होकर
इन तकों के प्राधार पर यह निश्चित हो जाता है अन्दर बुलाया। भरत ने उनसे पहले रास्ते से न माने कि अभिषेक पाठ के उक्त श्लोक एवं मन्त्र से सूत वाला एवं दूसरे रास्ते से पाने का कारण पूछा तब उन्होने कहा यज्ञोपवीत पहनना श्रावक के लिए अनिवार्य तो क्या, "माज पर्व के दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प मादि का विघात विधेय भी नहीं ठहरता है।
नहीं किया जाता और न जो कुछ अपना बिगाड़ ही करते भब जिनसेनाचार्य कृत मादि-पुराण के उन प्रसंगों हैं ऐसे उन कोंपल प्राचि मे उत्पन्न होने वाले जीवों का की समीक्षा करनी है जिनमे यज्ञोपवीत का उल्लेख पाया विनाश किया जाता है । हे देव ! हरे अकुर मादि में है । हम इन प्रसंगों को संक्षिप्त तीन विभागों में विभक्त अनन्त निगोदिया जीव रहते है सर्वज्ञदेव से ऐसा सना करते हैं:
है इसलिए जिस प्रांगन मे गीले-गोले फल, पुष्प मौर (क) भरत चक्रवर्ती द्वारा व्रतों में दृढ़ रहने वालों अंकुर से सजावट की गई है उसे हमने नही खदा है इनका ब्रह्म सूत्र से सत्कार करने का वर्णन।
वचनों से भरत बहुत प्रभावित हुए मोर उन्होंने उन सब (ख) भरत द्वारा नव निर्मित बाह्मण वर्ण को उपदेश की प्रशंसा कर उन्हें दान-मान मादि से सम्मानित किया के प्रसंग में उपनीति, व्रतचर्या एव तावत्तरण क्रिया का पद्म नाम की निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह वर्णन।
तक की संख्या वाले 'ब्रह्मसूत्र' नामक सूत्र से उन सबके (ग) विभिन्न व्यक्तियों की वेश भूषा का वर्णन । चिन्ह किये । (श्वेताम्बर साहित्य में 'कांकणी रत्न' से
कुछ भाई इन वर्णनों के माघार पर यज्ञोपवीत को सम्मान करने का उल्लेख है)। अनिवार्यता सिद्ध करने का प्रयास कर रहे है । मैंने कुछ उक्त प्रसंग के माधार पर यह कहा जाता है कि उपाधिधारी विद्वानों से भी इस प्रसंग में बात की लेकिन ब्रह्म सूत्र या व्रत सूत्र प्रत्येक व्रती श्रावक को धारण करना ज्ञात हमा कि अधिकांश विद्वानो ने इसका गहराई से चाहिए और इसी व्रत सूत्र से यज्ञोपवीत का अर्थ निकालते विचार नहीं किया।
हैं, किन्तु विचार करने से यह मान्यता यथार्थ नहीं लगती (क) यह प्रसंग प्रादि पुराण के ३८ वें पर्व में भाया इसमें कोई सन्द है नहीं है कि राजा भरत ने व्रती है। इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :
दयावान धावको को घनादिक से सम्मानित किया था जब भरत दिग्विजय कर वापस पाये तब उन्हें चिता एवं प्रतिमापारियों को 'पद्य' नाम की निधि से प्राप्त हई कि दूसरे के उपकार में मेरी संपदा का उपयोग किस 'ब्रह्ममूत्र' से सम्मानित किया था। यह 'ब्रह्मसूत्र' एक