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________________ प्राकृत भाषा और नीति डा. बालकृष्ण अकिंचन एम. ए. पो-एच. डी. धार्मिक विश्व में जैन ग्रन्थों और उन जैन ग्रन्थों में "गाहा मत्तमई (गाथा सप्तशती)" जैसा कि ग्रन्थ प्राकृत भाषा का महत्त्व असंदिग्ध है। भारत के प्राचीन के नाम से ही स्पष्ट है। लगभग सात सौ गापामों का भाषा-परिवार में भी प्राकृत का अपना स्थान है। इसके संग्रह है। ये गाथाएं किसी एक कवि की न होकर, केसव, महत्व से न केवल भारतीय अपितु विटरनिट्स तथा पिर्शल गुणाढ्य, मकरन्द, कुमारिल, अवन्तिवम्म, भोज और जैसे विदेशी विद्वान भी प्राकषित हुए हैं। गाथा सप्तशती मल्नमेण प्रादि प्राकृत काव्य के सर्वश्रेष्ठ एवं सफल कवियों तथा वज्जालग्ग जैसे ग्रन्थ विश्व-काव्य माने जाते है। की रचनाएं हैं। कहते है कि प्रारम्भ में इसका नाम सागरदत्त और वेश्या का उदन्त जब राजा को ज्ञात । । जब राजा को जात ‘ग हा कोस' था, इस सग्रह के संकलनकर्ता प्रांध्र प्रदेशीय हुमा, तो वह बहुत क्रुद्ध हुमा । उसने सागरदत्त से सारा सातवाहन राजा हाल थे। वे स्वय भी कवि थे और धन मन्त्री को दिलाया और उसे दण्डित किया। वेश्या को उन्होंने अपनी कुछ गाथाएं इस संग्रह में दी भी है । कहते भी देश से निर्वासित कर दिया गया। है कि उन्होंने 'एक करोड़ प्राकृत पद्यों में से केवल ७०० चारों पत्नियों के साथ मन्त्री मानन्दपूर्वक रह रहा पद्या को चुन कर रख पद्यों को चुन कर रखा था।' ये पर अपनी काव्यमयता था। एक दिन पिछली रात्रि में वह जाग रहा था। सहसा में बेजोड हैं। यदि समूचा प्राकृत काव्य नष्ट हो जाय उसके मध्यवसाय उभरा-पापबुद्धि राजा को शिक्षा देनी और हाल की सतसई बची रहे तो भी प्राकृत भाषा के " चाहिए। तत्काल निर्णय लिया और सदल-बल अपने नगर काव्य सौष्ठव, सम्पन्नता एवं सम्मान पर, कोई अघि को पोर चला। पापबुद्धि राजा असावधान था। बड़ी नहीं पा सकती। जिस प्रकार उपनिषदों के दार्शनिक सना को देखकर उसका साहस टूट गया। नगर-द्वार बंद ज्ञान, अभिज्ञान शाकुन्तल के, काव्योत्कर्ष, हिमालय की कर वह बठ गया। मन्त्री ने दूत को भेज कर कहल. उत्तुंगता, गगा की पावनता तथा ताजमहल की कलात्मवाया-"सोने का समय नहीं है। युद्ध के लिए सन्नद्ध कता पर संसार के सभी विद्वान एकमत है, उमी प्रकार होकर पात्रो। यदि ऐसा साहस न हो, तो मुंह में तृण गाथा सप्तशती के काव्य वैभव की महत्ता पर पौर्वात्य लेकर मेरे सामने प्रायो।' एवं पाश्चात्य सभी विपश्चितों में मतैक्य है। स. जगदीशचन्द्र जैन ने इसे 'पारलौकिकता की पापबद्धि राजा के स्वाभिमान पर ठेस लगी। उसने चिन्ता से मुक्त, संसार के साहित्य की बेजोड़ एवं अनज्यों-त्यों साहस को बटोरा और रण भूमि मे भाया। मत्री ने अपना पौरस दिखलाया और राजा को बांध मोल रचना कहा है'। ५० भगवत् शरण उपाध्याय ने लिया । मन्त्री ने राजा से कहा-"पहचानों, मैं कौन हूँ। इसे 'संसार के जन-साहित्य में प्रणय-संवाद की प्राचीनक्या धर्म का प्रत्यक्ष फल दिखाने के लिए और भी किसी तम और अनुपम' कृति बताया है। वैसे तो यह शृंगार प्रमाण की अपेक्षा है ?" रस की कृति है। किन्तु जीवन के प्रवृत्ति मार्ग में प्रानन्द अनुभव करने वाले ऊंचे कवियों की वाणी से मानव__ राजा अपने ही मन्त्री को समृद्धि-सम्पन्न देखकर व्यवहार-सम्बन्धी सरस उक्तियां न निकलें यह असम्भव बहुत प्रभावित हुआ। उसने अपने दुराग्रह को छोड़ा पोर है। यही कारण है कि गाथा सप्तशती में नीति काम्य भी धर्म के प्रति श्रद्धाशील हुअा। राजा और मंत्री को मात्मी. - यता से नागरिक भी धर्म प्रवण हुए। १.बाकृत साहित्य का इतिहास, पृ.५६६ । (जैन भारती से साभार) २. विश्व साहित्य की रूपरेखा, पृ०५०७ ।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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