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१.,बर्ष २५, कि०२
प्रवन्ति देश के महामुनि सुकमाल जब ध्यान द्वारा 'मोग्गलगिरिम्मि य सुकोसलो बि सिबत्थ बाय भयवंतो। कर्मरूपी ईधन को जलाने का प्रयत्न कर रहे थे, तब वग्घीण वि खजंतो पडिवण्णो उत्तमं अटुं॥१५४ उनके पूर्व वैरानुबन्ध से एक स्यालनी अपने बच्चों के साथ कुम्भकार नगर मे अभिनंदनादि पांच सौ मुनियों तीन दिन तक उनके शरीर को खाती रही। उन मुनि- को मंत्री की दुष्टता से राजा ने रोष वश घानी में पिलवा राज ने प्रपार वेदना सहते हुए भी समता का परित्याग दिया । तो भी मुनियों ने समता का ही पाराधन किया । नहीं किया, प्रत्युत समता एवं विवेक द्वारा वस्तु स्वरूप प्रभिणंदणादिगा पंचसया णयम्मि कुंभकारकडे । का विचार करते हुए समाधि से शरीर का परित्याग पाराषणं पवण्णा पीलिज्जंता वि जंतेण ॥१५५५ किया । जैसा कि हरिषेण कथा कोष के निम्न पद्यों से
___ महामुनि विद्युच्चर जब अपने पांच सौ शिष्यों के स्पष्ट है :
साथ ताम्रलिप्तिनगरी के बाह्य उद्यान मे ध्यान मे स्थित 'पूर्व वैरानुबंधेन तत्पादं रुधिरं तदा ।
थे । तब रात्रि मे चामुंडा देवी के सेवक यक्षों द्वारा की सा शिवा पातु मारब्धा सुकमाल मनेरियम् ॥२४६
जाने वाली दशमशकादिक की भयकर शारीरिक वेदना खावयन्त्या तरां पावं तन्मनेः शिवया तया ।
को साम्यभावसे सहन की और उत्तमार्थ की प्राप्ति की। समाधिमरणेनायं चके कालं विनत्रये । २५०
-हरिषेण कथाकोश
इसी तरह मुनिवर चाणक्य ने, जो चन्द्रगुप्त मौर्य मुनि सुकौशल और इनके पिता सिद्धार्थ सुनि का
का प्रधानमंत्री था। उसने अपने अन्तिम जीवन में शरीर व्याघ्री ने भक्षण किया था। परन्तु श्री मुनि तिर्यच
दिगम्बर दीक्षा ले ली थी और वह अपने शिष्यों के साथ कृत घोर उपसर्गजन्य वेदना सह कर अपने ज्ञान स्वभाव
गोधर के समीप ध्यान मे स्थित थे, तब सुबधु के द्वारा
प्राग लगा दिये जाने पर धीर वीर मुनि चाणक्य समभाव से जरा भी च्युत नहीं हुए। किन्तु तपश्चरण मे निष्ठ
से उस अग्नि में जल गये किन्तु धीरता का परित्याग नही रहने से उन्होंने महमिन्द्र पद प्राप्त किया। जैसा कि
किया। कष्ट सहिष्णु बन कर और उत्तमार्थ की प्राप्ति भगवती पाराधना की निम्नगाथा से प्रकट है :
की। १. भल्लंकीए तिरत्तं खज्जतो घोर वेदणट्टो वि ।
भद्रबाहु अन्तिम श्रुतके वली ने भी अपनी प्रायु को पाराधणं पवण्णो पडिवण्णो उत्तम अट्ठ ।।
अल्प जानकर सघ का सब भार विशाखाचार्य को सौपकर -भगवती माराधना १५३६
अनशन द्वारा-भूख-प्यास की वेदना को-समभावसे सह २. अथ तत्र्वने साधू चातुर्मासोपवासिनी।
कर उत्तमार्थ की प्राप्ति की। तस्थतुर्वक्षमूले तो पिता पुत्रौ घनागमे ।।२६८
इनके सिवाय समतारस के रागी अनेक योगी साधु ततो धनागमातीते पारणार्थ महामुनी। प्रवृत्ती नगरं गन्तुं तो सिद्धार्थ सुकौशलो ॥२६६
हुए हैं जिन्होंने समाधि द्वारा शरीर का परित्याग करते
हए भी धीरता का परित्याग नही किया है। और जो दृष्ट्वा तौ योगिनो तत्र कोपारुणनिरीक्षणा। चुकोप सहसा व्याघ्री स तदा परुषस्वना ॥२७० ३. दसेहिय मसएहिं य खज्जतो वेदण परं घोर । प्रादाय तो निरालम्प प्रत्याख्यान महामुनी।
विज्जुचरोऽधियासिय पडिवष्णो उत्तम प्रट्ट ॥१५५१ ध्यायन्तो परम तत्त्व कायोत्सर्गेण तस्थतुः ।।२७१
-भ.पाराधना सिद्धार्थ प्रथम व्याघ्री विपाद्य नख कोटिभिः । ४. गो? पायोयवादो सुबंधुणा गोचरे पलिवदम्मि । ममार चरम कोपात् तनयं च सुकोशलम् ॥२७२
झंतो चाणक्को पडिवण्णो उत्तम प्र? ॥१५५६ पिता पुत्रौ तदा साघू कालं कृत्वा समाधिना ।
-~-भ० माराधना दिवि सिद्धार्थ सिद्धौ तावहमिन्द्रत्वमापतुः ।।२३३ ५. प्रोमोदरिए तिगिच्छाए पडिवण्णो उत्तमं ठाणं ॥१५४४ -हरिषेण कथाकोष पृ. ३१३
-भ०मा०