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________________ सल्लेखना या समाधिमरण ५९ श्राविकानों द्वारा समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर उत्तमार्थ जीवन की सफलता का मापदण्ड है । कष्ट सहिष्णुता और की प्राप्ति करने के अनेक उदाहरण कथा ग्रंथो. पुराणो धीरता की कसौटी है। और चरितग्रथों एव सैकड़ों शिलालेखों में उत्कीर्ण किये पाराधकों के कुछ पुराने उद्धरण हुए मिलते है। भगवती प्रागधना जैसे प्राचीन ग्रथो शिवार्य की भगवती प्राराघना नामक प्राचीन ग्रन्थों मे सल्लेखना का और उसके विधि विधान का और मे अनेक जैन श्रमणों के उपसर्गादि जन्य कष्ट परम्परा विस्तृत स्वरूप दिया हुआ है, जिसे यहाँ लेख वृद्धि को समभाव से सहते हए समाधि पूर्वक शरीर का परि के भय से छोड़ा जाता है। सल्लेखना में सम्यग्दर्शन, त्याग कर उत्तमार्थ की प्राप्ति करने वाले श्रमणों के नामों ज्ञान, चारित्र और तपरूप पाराधना चतुष्टय के अनुष्ठान का उल्लेख किया गया है। जिन्होंने दूसरों के द्वारा कष्ट द्वारा समता भाव को स्थिर करने का प्रयत्न किया दिये जाने पर भी अपने सगना भाव का परित्याग नहीं जाता है। किया, किन्तु अपनी वीतराग परिणति द्वारा उदयागत सल्लेखना प्रात्म-घात का कारण नहीं : कर्म विपाक (फल) में इष्ट अनिष्ट कल्पनामो को भी सल्लेखना से प्रात्मघात नही होता; क्योकि प्रात्म उत्पन्न नहीं होने दिया है, अधीरता मे धीरता को नही घात का कारण कषाय भाव है । किसी से विरोध हो जाने छोडा है, उन श्रमणों का जीवन धन्य है। वे ही अशुभ पर रोष के तीव्र उदय को न सह मकने के कारण, विष कर्म कुंज को ध्यानाग्नि द्वारा जलाकर स्वात्मा.ब्ध भक्षण करना अग्नि मे जल जाना, कुएं या तालाब आदि के स्वामी बने है। उदाहरण मे देखो मुनि पुंगव यशाबर मे गिरकर मर जाना, पर्वत से गिर जाना, रेल की पटरी के गले मे श्रेणिक (बिम्बसार) ने मरा हुमा सप डाला के नीचे दबकर अपने प्रस्तित्व को खो देना, फांसी लगा था । पर समभावी मुनि ने उसके ऊपर जरा भी कोप नही कर मरना अथवा शस्त्रादि के द्वारा अपना घात कर किया और न उसका अनिष्ट ही चिन्तन किया है। मुनि लेना या द्रव्य-भाव प्राणो का विनाश करना प्रात्म-घात ने उस पर करुणा बुद्धि रखी है और उसे अपना अनिष्ट या कषाय मरण कहलाता है। किन्तु जहाँ पर अनेक करने से भी रोका है। चेतना द्वारा उपसर्ग दूर होने पर वाधक कारण-कलापो के उपस्थित होने पर उनसे अपने मनिगज ने श्रेणिक और चेलना दोनों को समान प्राशीसयमधर्म की रक्षार्थ काग और कपायो को कृश किया बर्वाद दिया है कि तुम दोनो के धर्म की वृद्धि हो । श्रेणिक जाता है। कषायों के उदय से होने वाले विभाव भावो ने उस कुकर्म मे मानवे नर्क की वायु का बंध किया था। का शमन किया जाता है, अथवा समता गे शरीर त्यागा यहाँ उन दो-चार माधुषों का सक्षिप्त परिचय दिया जाता है वहां प्रात्मघात का कोई दोष नहीं लगता । जैसे जा रहा है जिन्होने भयानक उपमर्ग जीतकर उत्तपार्थ की कोई डाक्टर करुणाबुद्धि पूर्वक नीरोग बनाने की दृष्टि से प्राप्ति की है। किसी मनुष्य का मापरेशन करता है और किमी वजह से बहुत सावधानी रखने पर भी चीरा अधिक ला जाने पर पाँनों पाण्डव मुनि जब ध्यानस्थ अवस्था मे त पश्च. रण कर रहे थे, तब उन से विरोध रखने वाले ईर्षालु पों यदि रोगी की मृत्यु हो जाती है तो भी डाक्टर हिंसक ने तप से भ्रष्ट करने के लिए उन्हे लोहे के प्राभूषण नही कहलाता और न वह दड का भागी ही होता है। बनवा कर और उन्हे गरम करके पहराये । उनी वेदना उसी प्रकार जीवन भर की प्रात्म-साधना को सफल बनाने महते हुए भी पाण्डव अपने स्वरूप से जग भी विचचित के लिए निकषाय भाव से समाधिपूर्वक देह का त्याग ___ नही हुए, किन्तु समाधि मे निष्ठ रहे। करता है नो उसे भी हिमा का पाप नहीं लगता और न वह दण्ड का भागी ही होता है। इससे स्पष्ट है कि १. लोहमयी प्राभूषण गड के ताते कर पहराये । सल्लेखना समाधि मरण से प्रात्मघात नहीं होता; किन्तु पाँचों पाण्डव मुनि के तन में तो भी नाहिं चिगाये ।। समाधिमरण की क्रिया प्रात्मोत्कर्ष का प्रतीक है। मानव --समाधि मरण पाठ
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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