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५८, वर्ष २५, कि०२
अनकान्त
का परित्याग कर । जो तू इसे नहीं छोड़ेगा, तो यह और भूख लगती है कि समुद्र का सब पानी और तीन निश्चित है कि यह तेरे से स्वयं अपना सम्बन्ध विच्छेद लोक का मब अनाज खा जाय तो भी प्यास और भख न कर लेगा। अतएव इस नश्वर पर्याय मे प्रास्था करना मिटे । तब भी वहाँ एक बूंद पानी और अनाज का एक उचित नही है ।
कण भी नहीं मिलता। ऐसे दुःख इस जीव को सागरों जिस तरह चन्द्रमा की कला शुक्ल पक्ष में वृद्धि को । पर्यन्त सहन करने पड़ते है । तब हे साधक ! तुम्हें तो प्राप्त होती है और कृष्ण पक्ष में उसकी कलाए क्रम से यहा कुछ भी वेदना नहीं है। और जो कुछ हो रही है घटती रहती हैं। फिर भी उनसे चन्द्रमा का कुछ नहीं वह मब तेरे ही उपाजित कर्म का फन है। उसे तुम्हे विगडता। और पूर्णिमा के दिन वह षोडश कलामो से भोगना ही पड़ेगा। तुम्हारे पास तो ज्ञान रूप सघारस परिपूर्ण रहता है। इसी तरह जीव जब उत्पन्न होता है माजूद है, उसका उपयोग क्यों नहीं करते। तम्हारे तब उसके शरीर की प्रतिदिन वद्धि होती रहती है, वह चतन्य पन में जो समनारस भरा हमा है उससे अपनी क्रम से युवा और प्रौढावस्था को पा लेता है। किन्तु वृद्ध प्यास क्यो नहीं बुझान ? वेदना तो पल्पकालिक है, और अवस्था पाते ही वह जवानी धीरे-धीरे ढलती जाती है तुम्हारा चैतन्य तो हमेशा रहने वाला है। अनन्त शक्ति पौर मास मे शरीर प्रत्यन्त क्षीणकाय दुर्बल और कार्य का पुंज है, तुम स्वयं ज्ञानी और साहसी हो, अपने परिकरने के अयोग्य बन जाता है। इससे शरीर की अस्थिरमा णामो की पोर तो देखो; जिन्दगी भर जो तुमने व्रतादि निश्चित है। अथवा जिस तरह पानी का बुदबुदा क्षण- के अनुष्ठान द्वारा पुण्य बीज बोया है अब उसका मधुर स्थायी होता है वैसे जीवन भी अपनी स्थिति पर्यन्त रहता फल मिलने वाला है। इतने मातुर क्यो हो रहे हो? है। उससे अधिक रखने के लिए कोई भी समर्थ नहीं है। ज्ञानी के कोई वेदना नहीं होती, तुम तो सच्चिदानन्द ऐसी स्थिति मे शरीरादि पर वस्तुनों से ममता का त्याग हो, कर्म का उदय तो क्षणिक है, उस जड़ कर्म की क्या करना ही कल्याणकारी है।
शक्ति है जो तुम्हें दुखी बना सके । तुम्हारी तो वह शक्ति तृषा को बंदना के जीतने का उपाय :
है जो मन वचन काय की दृढता रूप त्रियोग से कोटि जब साधक का शरीर क्षीण हो जाता है और पाहा- जन्म के पाप भी क्षणमात्र में विनष्ट हो सकते है। तब रादि तथा पेयपदार्थों का परित्याग होने स प्यास की कायर क्यों होते हो, तुम धीर वीर ज्ञानी हो, अपनी वाघा और प्रसातोदय जन्य पीड़ा अपना प्रभाव प्रकित शक्ति की ओर देखो, और दृढता से कर्मपज को जलाने करती है। तब साधक उष्णता की वाघा होने अथवा का पुरुषार्थ करो, तब शीघ्र ही अनत सुख के भोक्ता बन कण्ठ शक होन से पानी की इच्छा करने लगता है। सकते हो। इसी तरह अन्य वेदनाग्रो के सम्बन्ध में विचार वेदना के कारण हेयोपादेय का विवेक जब कुछ शिथिल करना चाहिए और साधक के परिणामो की सम्हाल का हो जाता है, उसी समय उसे वाधक कारण सताने मे यत्न करना चाहिए। उद्यत हो जाते है । उस समय हमे साधक की अवस्था को सल्लेखना का ऐतिहासिक महत्व : देख कर उसे समझा देना चाहिए। उसके हृदय मे प्यास भारतीय क्षितिज पर जैन श्रमण और उनके उपाकी वाधा को दूर कर देना बड़ी सावधानी और पुरुषार्थ सक श्रावक जन प्राचीन काल से ही तपश्चरण करते हुए का कार्य है। हमे साधक की प्यास को बुझाने के लिए अन्त समय में या उपसर्ग, भिक्ष तथा प्रसाध्य रोगादिक समता रस की पोर उसका ध्यान प्राकृष्ट करना चाहिए, के होने पर संयम की रक्षार्थ समता भावो से शरीर का भोर बतलाना चाहिए कि हे भाई ! भाप तो ज्ञानी है, परित्याग करते थे। वे भीषण उपसर्ग परीपहादिक से वस्तु स्वरूप को समझते है। नरकघरा में कितनी अधिक आतंकित होने पर भी कर्मोदय के फल मे राग-द्वेष नही वेदना होती है, जरा उसका ख्याल तो करो। यहां तो करते थे; किन्तु समता भाव से शरीर का परित्याग करना उसका एक अंश भी नही है। वहाँ इतनी अधिक प्यास ही अपना कर्तव्य मानते थे। जैन श्रमणों और श्रावक