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________________ ३४ वर्ष २५, कि०१ अनेकान्त यपि साप्ताहिक हिन्दुस्तान (२ अप्रैल ४२) में धी ऍगर है ? समाज के श्रेष्ठिजन एवं विद्वानों दोनों के लिए ही ने इस सम्मेलन में अमेरिका के प्रो० बाल्टर मारर द्वारा यह विचारणीय प्रश्न है। 'जैन संस्कृत-एक अध्ययन' विषय पर निबन्ध पढ़े जाने इस विश्व संस्कृत सम्मेलन में जैन विद्या के क्षेत्र में की सूचना दी है। किन्तु लेखक को सम्मेलन मे न तो यह महत्वपूर्ण कार्य हमा है कि जैनालाजिकल रिसर्च प्रो० मारर से भेंट हो सकी और न ही सम्मेलन के प्रका. सोसायटी दिल्ली द्वारा प्रायोजित सेमिनार में लगभग सौ शित निबन्ध सार में कही उनके लेख का उल्लेख ही विद्वान एक साथ मिल-बैठ कर जैन विद्या के प्रचारमिला। विदेशों में जैन संस्कृत साहित्य की इस स्थिति प्रसार के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर सके। यह उनके के लिए उन जैन विद्वानों का प्रमाद ही कारण है, जो सामूहिक चितन का ही फल है कि सेमिनार ने निम्न दो अपने लेखन में अभी तक अंग्रेजी के माध्यम को नहीं महत्वपूर्ण निर्णय लिएअपना पाये हैं। उनका प्रध्ययन अनुसन्धान देश के किसी १. भगवान महावीर के पच्चीस सौ निर्वाण महोएक कोने तक ही सीमित है। स्सव के अवसर पर 'अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या सम्मेलन' का जैन विद्या का विदेशों में प्रचार-प्रसार शायद इस- पायोजन किया जाय। तथालिए भी कम है कि विदेशों में स्थित भारतीय विद्या के २. एक ऐसे केन्द्रीय संस्थान की स्थापना की जाय अन्य विद्वानों से जैन विद्या में रुचि रखने वाले विद्वानों जो जैन विद्या के अध्ययन-अनुसंधान एवं प्रचार-प्रसार में का सम्पर्क नहीं हो पाता। दो वर्ष पूर्व भास्ट्रेलिया पूर्ण सहयोग प्रदान करे। (केनबरा) में प्रायोजित अन्तर्राष्ट्रीय प्राच्य विद्या इन सकल्पो को कार्यरूप प्रदान करने का कार्य उस सम्मेलन में सम्मिलित भारतीय विद्वानों के साथ शायद प्रत्येक व्यक्ति का है, जो महावीर के सिद्धान्तो मे पास्था ही कोई जैन विद्या का विद्वान वहाँ गया हो। जैन विद्या रखता है तथा जिसे जैन विद्या के मध्य यन-अनुसन्धान में का एक भी निबन्ध वहां नहीं पढ़ा गया। अब भागामी मभिरुचि है । इस प्रकार यह विश्व संस्कृत सम्मेलन जैन बुलाई ७३ में पेरिस में वही सम्मेलन प्रायोजित है । पता विद्या के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में कार्य करने के लिए नहीं जैन विद्या का इसमें कितना प्रतिनिधित्व हो पाता कई मायाम उद्घाटित करता है। विनम्रता जो नमता है वह मरता है घड़ा अगर अपने मुख को ऊपर रखेगा तो वह कभी भी पानी से भर नहीं सकेगा। विकास को वही देख सकता है, जिसमें नम्रता सिमटी हुई होती है। ऊपर वही जा सकता है, जिसने झुकना सीखा है। इसी के बल से रज कण प्राकाश को माच्छादित कर दिनकर को भी निस्तेज बना देते हैं। पत्थर में कठोरता होने के कारण ही तो ऊँचा नहीं उठ सकता। मित्रवर! वेववती नदी में जब भयंकर बाढ़ पाती है, तव बड़े-बड़े वृक्ष अपनी प्रकर के कारण अपने प्राणों की रक्षा करने में असमर्थ होकर उसके प्रवल प्रवाह में वह जाते हैं। लेकिन वेत्र के वृक्ष उसके क्रूर जाल में नहीं फंसते । जब पानी का पाबेग बढ़ने लगता है, तब वे वृक्ष उस पानी के मागे नम्र बन जाते हैं-नीचे झुक जाते हैं, अतएव उन्हें अपने जीवन की रक्षा में पाशातीत सफलता मिलती है। प्रतएव मित्र ! तुम नम्र बने रहो, जीवन में कभी भी अहंकार को स्थान न दो। नम्रता से वर्षों का वैर भाव भी प्रेम में परिणत हो जायेगा विष पर्वत से भी सुधा के निझर वहने लग जाएंगे। पत्थर भी पिघलकर नवनीत बन जाएंगे।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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