________________
विश्व संस्कृत सम्मेलन में जैन विद्या का प्रतिनिधित्व
४. प्राच्य शोध संस्थान बडौदा के निदेशक प्रो. एव पजाबी की तरह डोगरी का विकास भी बी० जे० सांडेसरा यद्यपि सम्मेलन में उपस्थित नहीं हो शौरसेनी प्राकृन से हुमा है इसकी पुष्टि की है। हा. सके। किन्तु प्रापके द्वारा प्रेषित 'जैनधर्म का सस्कृत मार. एन. डांडेकर ने अपने निबन्ध-'महाराष्ट्र का साहित्य को योगदान' नामक निबन्ध से जैन प्राचार्यों ने सम्कृत साहित्य को योगदान' में, डा. वी. राघवन ने कब से संस्कृत को साहित्य और शास्त्रार्थ की भाषा के अपने निबन्ध तमिलनाडु का संस्कृत साहित्य को योगरूप में अपनाया कैसे उसके प्रचार प्रसार में योगदान दान' में, प्रो० के. टी. पाडुरंगी ने अपने निबन्ध 'कर्नाटक दिया प्रादि के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। का सस्कृत साहित्य को योगदान' तथा श्री बी. एल. शर्मा मापने अपने दूसरे निबन्ध 'गुजरात का सस्कृत साहित्य पिलानी ने अपने निबन्ध 'राजस्थान का संस्कृत साहित्य को योगदान' मे भी अनेक जैन प्राचार्यों के साहित्य का को योगदान' में कुछ प्रमुख जैनाचार्यों एवं उनके ग्रन्थों परिचय दिया है।
का उल्लेख किया है। ५. इसी सस्थान के दूसरे विद्वान डा. उमाकान्त उपयुक्त निबन्धों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि शाह ने 'सस्कृति और विश्व संस्कृति विभाग के अन्तर्गत इस सम्मेलन मे जैन विद्या के सम्बन्ध में जो सामग्री अपना 'अनेकान्तवाद और आधुनिक जगत्' नामक निबन्ध प्रस्तुत की गई है, उससे जैन साहित्य का पूर्ण प्रतिनिधित्व पढा, जिसमे युद्ध की कगार पर बैठे हुए विश्व के लिए नही हो सका है। केवल गुजरात और राजस्थान के जैन अनेकान्तवाद जैसे सहिष्णु सिद्धान्त की उपयोगिता पर सस्कृत साहित्य के सम्बन्ध में सम्मेलन में निबन्ध पढ़े प्रकाश डाला गया है।
गये । जब कि भारत के अन्य प्रान्तों से भी इस प्रकार के ६. डा. इन्द्र चन्द्र शास्त्री दिल्ली का निबन्ध निबन्ध भेजे जा सकते थे। इसमें अधिक प्रमाद उन जैन 'प्रतिक्रमण : जनों की प्राचार सहिता' भी सम्मेलन के विद्वानों का है जो अपने सामाजिक दायरे से चिपके हुए अन्य निबन्धो मे सम्मिलित था। विश्व मैत्री के विस्तार है अथवा उन संस्थानों का, जो ऐसे सम्मेलनों मे विद्वानों में इसकी उपयोगिता पर बल दिया गया है।
के भेजने के खर्च को अपव्यय समझती हैं। दोनों स्थितियां ७. उदयपुर विश्वविद्यालय मे प्राकृत के प्रवक्ता शुभ नही है। मेरे विचार से जैन संस्कृत साहित्य के प्रेम सुमन जैन (लेखक) ने पश्चिमी भारत का जन सम्बन्ध में इस सम्मेलन में इन प्रमुख दो विषयों पर और सस्कृत साहित्य' विषय पर अपना निबन्ध पढ़ा जिसम निबन्ध पढ़े जा सकते थे-(१) जैन ग्रन्थ भण्डारों मे जैन संस्कृत साहित्य के निर्माण की पृष्ठभूमि, प्रचार उपलब्ध संस्कृत ग्रन्थों का विवरण तथा (२) जैन सस्कृत प्रसार के साधन, राजस्थान का जैन सस्कृत साहित्य, साहित्य का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, जब कि इन पर गुजरात का जैन संस्कृत साहित्य, इस साहित्य की प्रमुख कोई प्रकाश नही डाला गया। विधाएं, जैन सन्तों की संस्कृत सेवा, जैनेतर संस्कृत ग्रन्थों इस सम्मेलन मे जैन विद्या के परिप्रेक्ष्य में प्रखरने पर टीका जैन संस्कृत अभिलेख, ग्रन्थ भण्डारो में संस्कृत वाली बात यह थी कि किसी भी विदेशी विद्वान ने अपने साहित्य, जैन सस्कृत साहित्य की विशिष्ट भाषा तथा निबन्ध या भाषण में जैन सस्कृत ग्रन्थों का उल्लेख नहीं वर्तमान में अध्ययन-अनुसन्धान की स्थिति प्रादि के किया। इससे स्पष्ट है कि विदेशों में, जहां संस्कृत का सम्बन्ध में संक्षेप में जानकारी दी गई है। जैन विद्या अध्ययन प्रचुरता से होता है, जैन संस्कृत ग्रन्थों पर कही से सम्बन्धित इन प्रमुख निबन्धों के अतिरिक्त इस सम्मे- कार्य नहीं हो रहा है। लेखक ने जब कुछ विदेशी विद्वानो लन में कुछ विद्वानों द्वारा ऐसे निबन्ध भी पढ़े गये से इस सम्बन्ध में जिज्ञासा की तो गोटिनगेन विश्वविद्याहैं जिनमें प्रसंगवश जैन संस्कृत साहित्य के सम्बन्ध लय जर्मनी के प्रो० रोथ एवं जेना विश्वविद्यालय के प्रा० में चर्चा की गई है। यथा-डा. वेद कुमारी घड स्पिटव ने कुछ ग्रन्थों के नाम गिनाये, जिन पर उधर। ने अपने निबन्ध-'संस्कृत भौर होगरी' में हिन्दी क हो रहा है, किन्तु उनमें से अधिकांश प्राकृत के हैं