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________________ उत्तर भारत में जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तिगत अवतारणा मारुति नदन प्रसाद तिवारी जैन देव समुदाय में देवता के तुल्य माने जाने वाले अपने मायुधों और पम्य वि . विष्णु की शक्ति या यक्षिणियों को शासन देवताओं (रक्षक देवता) के चकेश्वरी से तुलनीय है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों रूप में स्वीकार किया गया है। सहायक देवतामों के रूप ही प्रतिमा शास्त्रीय ग्रन्थों में गरुड़ पर मासीन बकेश्वरी में पूजित यक्ष-यक्षिणी का उल्लेख जैन ग्रन्थों में जिन- या अप्रति-चका को मुजामों में चक्र, शंख पोर गदा शासन रक्षाकार-काप', अर्थात जैन धर्म के रक्षक के रूप प्रतिपादित किया गया है। जैन मूर्ति विज्ञान सम्बन्धी में हुपा है। जैन मान्यतामों के अनुसार इन्द्र ने प्रत्येक ग्रंथों में चक्रेश्वरी के द्विभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज, द्वादशतीर्थर के लिए एक यक्ष-यक्षिणी को नियुक्त किया था, भुज और षोडश-भुज स्वरूपों के उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो तीर्थङ्करों के उपासक देव माने जाते थे। प्रारम्भ में जिनका अध्ययन हमारा प्रभीष्ट नहीं है (१५)। इस जंन शिल्प में तीर्थङ्करों के दोनों पाश्वों में उनके यक्ष- लेख में हम मात्र उत्तर भारत से प्राप्त होने वाली पके यक्षिणियों की छोटी भाकृतियाँ उत्कीर्ण की जाती थीं, श्वरी की स्वतन्त्र मूर्तियों का अध्ययन करेंगे। जिनका भाकार समय के साथ-साथ बढ़ता गया। हवी. चतुर्भज चक्रेश्वरीके उत्कीर्ण किये जाने का विधान १०वीं शती तक यक्ष-यक्षिणियों की स्वतन्त्र मूर्तियो यद्यपि केवल दिगम्बर ग्रन्थों में ही वणित है, तथापि निर्मित होने लगीं, जिनमें उनके तीर्थकरों की सक्षिप्त जन शिरूप में चक्रेश्वरी की चतुर्भुज मूर्तियां श्वेताम्बर भाकृति शीर्ष भाग में चित्रित होने लगी। तीर्थहरों दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में समान रूप से प्रचलित थीं। पतिरिक्त अन्य देवों के स्वतन्त्र महत्व स्थापित कर उनके यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जैन यक्षी चकेश्वरी की पूजन की मावश्यकता जैनियों को मात्र इसलिये पड़ी चतुर्भज मतियां ही सर्वाधिक उत्कीर्ण की गई। क्योंकि अपने भौतिक सुख के वीतराग तीर्थङ्करो से कुछ चक्रेश्वरी की एक चतुर्भुज मूर्ति मध्य प्रदेश के भी नहीं प्राप्त कर सकते थे। फलतः उपासकों में भौतिक घबेला राज्य संग्रहालय, नौगांव मे संगृहीत है,(१ ब) सुख की इच्छा की वृद्धि के साथ-साथ इन उपासक देवों जिसमें देवी के शीर्ष भाग में तीर्थकर की एक छोटी (यक्ष-यक्षिणी) का भी महत्त्व बढ़ता गया, जो ग्रन्थों मोर मासीन मति उत्कीर्ण है। देवी के ऊपर की दोनों भुजानों प्रतिमाओं दोनों ही में प्रतिबिम्बित होता है। में चक्र प्रदर्शित है पौर निचले दाहिने व बायें मे क्रमशः यह तथ्य सर्वथा स्वीकार्य है कि जैनियों ने अपने देव वरदमुद्रा और शंख धारण किया हुमा है। ललितासन समुदाय के अनेक ब्राह्मण व कुछ बौद्ध देवी-देवतानों को मुद्रा में प्रासीन देवी के वाम पाद को मानव रूप में स्थान दिया, पर साथ ही यह भ 'निविवाद है कि उन १. (4) देखें शाह, य० पी०, "माइकोनोग्राफी प्रॉफ सबकी स्थिति या महत्व उनके अपने तीर्थङ्करों के साथ चक्रेश्वरी, दे यक्षी पॉफ ऋषममाय", अनल पॉफ मंकित किये जाने में ही होती थी। इस तथ्य के बावजूद प्रोरियण्टल इन्सटीट्यूट, बड़ोदा, वा० २०, नं. ३ बकेश्वरी, पम्बिका, सरस्वती, कुबेर प्रादि कुछ ऐसे मार्च १९७१, पृ० २८०-३११। देव हैं, जिनको जैन शिल्प में काफी महत्व प्रदान किया १. (ब) दीक्षित, एस.के., ए गाइड टू दि स्टेट गया है। जैन यक्षिणी चक्रेश्वरी, जो प्रन्थों में प्रथम म्यूजियम घुबेला, नौगांव (बुन्देलखंड), विध्य प्रदेश, तीर्थकर मादिनाथ के शासन देवी के रूप में वर्णित है, नौगांव, १९६६, पृ० १६-१७ ।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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