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पोवनपुर
"तक्खसिलाए महप्पा
सहित बहली देश की सीमा पर पाया। बाहुबली तस्स निच्त्रपडिकूलो। नतो भरतेन बहुविलापदुःखितेन बाहुवलिपुत्राय सोमभरहनरिंदस्स सया
पशसे तक्षशिलाराज्यं दत्त्वा अयोध्यानगर्या समागतम् । न कुणइ प्राणा-पणामं सो॥४३८॥
-कल्पसूत्र पृ. २११, कल्पलता व्याख्या तक्षशिला मे महान बाहुबली रहता था। वह सदा
__अति विलाप से दुखी भरत तब बाहुबली के पुत्र सोमभरत राजा का विरोधो था और उनकी प्राज्ञा का पालन
यग को तक्षशिला का राज्य देकर अयोध्या नगरी मे वापस नही करता था।
श्रा गया। पत्तो तसिलपुरं जयसब्दुग्घटु कलयलारावो । ___ "तक्खसिला-बहलीदेशे बाहुबले गर्याम् ।" जुज्झस्प कारणत्य सन्नद्धो तक्वणं भरहो ॥४॥४०॥
-अभिधान राजेन्द्र कोश भरत नक्षशिला पहुँने और तत्क्षण यद्ध करने के लिए - तक्षशिला बहली देश में बाहुबली की नगरी । तैयार हो गपे। उस समय जय शब्द के उदघोष का कल- 'तक्खसिलाइपुरीए वहलीविसयावयंसभूयाए।" कल शब्द सर्वत्र फैल गया।
-कुमारपाल प्रतिबोध २१२ बाहुबली वि महप्पा
तक्षशिला बहली देश का एक अंगभूत । भरहनरिन्द समागमं साउं ।
"स्वामिशिक्षा दौत्यदीक्षामिवादाप स सौष्ठवाम् । भडचडयरेग महया
सुवेगो रथमारुह्याचलत्तक्षशिलां प्रति ।।१।५।२५।। तक्खसिलामो विणिज्जाम्रो ॥४४१।।
-त्रि.श. पु. च. महागा बाहुबली भी भरत राजा का प्रागमन सुन स्वामी की शिक्षा को दौत्य की दीक्षा के समान कर सुभटो की महनी सेना के साथ तक्षशिला में से बाहर स्वीकार करके वह मुन्दर मुवेग रथ पर चढ़कर तक्षशिला निकला।
के लिए चला। विमलमूरि मानते है कि दोनो मे दृष्टि और मुष्टि
‘षड्भ्यो भरतखण्डेभ्यः युद्ध हुआ।
खण्डान्तरमिव स्थितम् । विमलसूरि ने कई कथानको मे पोदनपुर का उल्लेख
भरताज्ञानाभिज्ञं स किया है। वे कथानक दिगम्बर पुराणो में भी उपलब्ध
वहलीदेशमासदत् ।।" होते है-जैसे मधुपिंगल और कुण्डलमण्डित, गजकुमार
--त्रि. श. पृ. च. ११५:४६ प्रादि । किन्तु यह पाश्चर्यजनक है कि बाहुबली के चरित्र वह भरत के अज्ञान को समझने वाले बहनी देश में मे उन्होने पोदनपुर का उल्न ब नहीं किया । वहां उन्होने पहुंचा जो छह भरत खण्डो से पृथक् खण्ड की तरह पोदनपुर के स्थान पर तक्षशिला का ही उल्लेख किया है। स्थित था।
श्वेताम्बर ग्रन्थो मे जहाँ पर भी बाहुवली का चरित्र- "भरतावरजोत्कर्षाकर्णनाद विस्मतं महः । चित्रण किया है, वहाँ सर्वत्र बहली (वाल्होक) देश और अनुस्मरन् वाचिकं स प्राप तक्षशिलापुरीम् ।। तक्षशिला नगर का उल्लेख मिलता है। एक प्रकार से
--त्रि. श. पु. च. पर्व १६५।५३ श्वेताम्बर साहित्य मे पउमचरिउ की ही परम्परा का वह भरत के लघु भ्राता बाहुबली के उत्कर्ष की बातें अनुसरण मिलता है। यहाँ इस प्रकार के कुछ उद्धरण मुनकर बराबर भरत के दिये हुए प्रादेशों को भूल जाता देना समुचित होगा
था और बराबर वह उन्हे याद करता था। इस प्रकार "बहुलीदेशसोम्नि गतः संन्य च तत्र स्थापितवान् ।" वह तक्षशिला पुरी पहुंचा। -कल्पसूत्र, कल्पलता व्याख्या पृ. २०६ ।
"दिने दिने नरपतिअर्थात् बाहुबली भी भरत को भाया जानकर सेना
गच्छंश्चक्रपदानुगः ।