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* महंम
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धजास्यन्वसिन्धुरविधानम् । सालनयविलसिताना विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २५
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बोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९६, वि० सं० २०२६
5
जनवरी
किरण ६
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फरवरी १९७३
धर्म का स्वरूप
धर्मो जीवदया गृहस्थ शमिनोभैदाद्विधा च त्रयं । रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्ट क्षमादिस्ततः । मोहोमूत विकल्पजाल रहिता वागङ्गसंगोज्झिता। शुद्धानन्वमयात्मनः परिगतिधर्माख्यया गीयते ॥१॥ प्राधा सतत संचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपा। मलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहकनिःश्रेणिका। कार्या सद्भिरिहाङ्गि प्रथमतो नित्यं क्या धामिकः ।
घि नामाप्यवयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या विशः ॥२॥ अर्थ-धर्म की आत्मा जीव दया है। यह धर्म पालक गहस्थ व मुनियों के भेद से गृहस्थधर्म तथा मुनिधर्म दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का तथा उत्तम क्षमा, मार्दव पार्जवादि के भेद से १० प्रकार का भी कहा जाता है। यथार्थ में तो मोह से उत्पन्न मन, वचन व काय की परिणतियों से भिन्न शुद्ध एवं मानन्द रूप प्रात्मा की परिणति का नाम ही धर्म है।
धर्म की प्रात्मा जो दया है वही श्रेष्ठ प्राचरण, सुख तथा सम्पत्तियों की जननी है। यह दया धर्म रूपी वृक्ष की जड़ तथा मुक्ति में पहुंचाने की नसैनी है। धार्मिक मनुष्यों को प्रात्मकल्याण के निमित्त सब देहधारियों में दया धारण करनी चाहिए। निर्दय आदमी का नामोच्चारण भी अशुभ माना जाता है उसे संसार में कहीं भी सुख शान्ति प्राप्त नहीं होती। दयाधर्म की सर्वत्र जयजयकार होती है।