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________________ धर्म का जीवन में स्थान मथुरादास जैन एम. ए., साहित्याचार्य । संसार के सभी प्राणी सदा सुख की अभिलाषा करते हैं तो हमें अपने व्यवहार एवं कार्यों को ऐसा बनाना है। दुःख किसी को भी इष्ट अथवा प्रिय नहीं है। यही चाहिए जो दूसरों को दुःख पहुँचाने वाले न हों। मौर बात कविवर दौलतराम जी ने अपने छहढाला प्रन्थ के यदि इस प्रकार हर एक व्यक्ति का ध्येय और कार्य प्रारम्भ में ही कही है-'जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, दूसरे को दुःख पहुँचाने का न रहे तो फिर संसार में कोई सुख चाहे दुःख ते भयवन्त' उर्व, मध्य तथा पाताल लोक प्राणी दुःखी कैसे हो सकता है। सुख से सुख तथा दुख में में जितने भी जीव हैं वे सब सुख चाहते हैं पोर दुःख से दुःख की ही उत्पत्ति होती है। इसी लिए शास्त्रकार हरते हैं। संसार में सर्वश्रेष्ठ वस्तु वही मानी जा सकती पुकार पुकार कर कहते हैं कि हमे अपने जीवन को धर्म के है जो हमें सुखी वनावे तथा दु:ख से हमारी रक्षा ढाचे में ढालना चाहिए। धर्माचरण से यदि कभी कष्ट की करे। प्राप्ति हो तो उसे सुखरूप ही मानना चाहिए। धर्म की सुख सव को इष्ट है यह एक सर्वसम्मत तथ्य है महिमा को बतलाते हुए एक कवि ने ठीक ही कहा लेकिन सुख का असली स्वरूप क्या है यह बात विवाद- है किग्रस्त है। कभी-कभी मनुष्य दूसरों को कष्ट देने में ही धर्मः सर्व सुखकरो हितकरो धर्म बुधाः चिन्वते । सुख मान लेता है। चोर दूसरों को सम्पत्ति का हरण धर्मणव समाप्यते शिव सुखं धर्माय तस्मै नमः । करने में अपना सुख मानता है। शिकारी पशुओं का वध धर्मान्मास्त्यपरो सुहवभवभूतां धर्मस्य मूलं वया । करने में अपना सुख समझता है । इस तरह जो एक जीव धर्मे चित्तमहंदधे प्रतिदिनं हे धर्म | मां पालय ।। का सुख है वही दूसरे का दुःख है लेकिन यह सुख की धर्म संसार मे सब सुखो को देने वाला है इस लिए समीचीन परिभाषा नहीं है। जैसे कटक रस मधुर रस बुद्धिमान लोग इसे जानते और माचरण मे लाते हैं। का कारण नही हो सकता। उसी तरह जिस कार्य में धर्म से मोक्ष की भी प्राप्ति होती है, ऐसे धर्म को हम दूसरों को कष्ट मिले वह कार्य सुख का जनक नही हो नमस्कार करते हैं । ससारी जीवों के लिए धर्म से अधिक सकता । चोर चोरी कर अनेक प्रकार के कष्ट पाता है। प्रिय कोई मित्र नहीं । धर्म की जड़ दया है ऐसे धर्म में मैं पकड़े जाने पर सजा भुगतता है भोर समाज में निन्दा का अपना चित्त लगा दूं, हे धर्म तू मेरी रक्षा कर । राष्ट्र पात्र बनता है । यदि कदाचित न भी पकड़ा जाय तो भी भाषा में भी धर्म के महत्त्व पर प्रकाश डालने वाला यह जिस चोरी रूप पृणित कार्य को करते हुए वह प्रशुभ उत्तम पद्य है। कर्म का बन्ध करता है उसकी सजा से वह कभी बच धर्म करत संसार सुख धर्म करत निर्वाण । नहीं सकता। 'कर भला होगा भला' या मात्मन: प्रति- धर्म पंथ साधे बिना नर तिर्यञ्च समान ॥ कूलानि परेषां न समाचरेत्' प्रादि त्रिकालसत्य उक्तियाँ संसार सुख एवं निर्वाण (मोक्षसुख) की प्राप्ति का हमें यही बतलाती हैं कि पाप कभी सुख का देने वाला कारण धर्म ही है। जिस मनुष्य के जीवन में धर्म की नहीं हो सकता । यदि हम सच्चा मोर स्थायी सुख चाहते वासना नहीं वह मनुष्य पशु के तुल्य ही है।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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