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________________ मिलकर तृप्त हो जाने है राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनायें शिव रमणी मन मोहोयोजी, रहे जो भाव ज्ञान सरोवर में छकि गये जी, आवागमण निवारि ।। १५ ।। आठ गुणां मडित हुवा जी, सुख को तहां नहीं छोर । प्रभु गुणा गाया तुम तणांजी, श्रजराज करि जोडि ॥ १६ ॥ (३) जिनजी की रसोई -- ५३ छन्दों की यह बहुत सुन्दर बना है। जिसमें वात्सल्य रस का चित्रण हुआ है। इसमे जिनको माता द्वारा परोसे गये विभिन्न खाद्य पदार्थो के नाम गिनाये गये है। भोजन के पश्चात् न-विहार का भी वर्णन है। इस कृति का एक छन्द दृष्टव्य है जिसमे वात्सल्य भाव का चित्रण है 1 यह जिन जी की कहूँ रसोई ताको सुत बहुत सुख होई तुम रूसो मत मेर चमना। खेलो बहु विधि घर के प्रगना । देव अनेक बहुत खिलाब। माता देखि बहुत सुख भासे ॥१॥ (४) बरखा च उपईयह भी एक रूपक काव्य है जिसमे ११ छद है । प्रथम तीन छदो मे जिनेन्द्र की वन्दना, सात पद्योमं चरखे का रूपक और अन्त मे उसकी उपयोगिता का वर्णन है । ६५ चरने का रूपक बापते हुए कवि ने कहा है कि ऐसा चरखा चलाना चाहिए जिसमे खूटे-शील और संयम, लाड़ियां शुभ ध्यान पाया कलध्यान, दामन सेवा, माल दश-धर्म, हामी चारदान, ताकू-पारमासार, सूत-सम्यक्त तथा कूकडी बारह व्रत हो। इस प्रकार यह कृति बहुत ही रुचिकर है और साथ ही रसयुक्त भी। इसके प्रारम्भ की दृष्ट है श्री जिनवर बटू गुणगाय, चतुर नारि वर्षेलाय । रागदोष विगता परिहरं चतुर नारि चरचित परं । प्रथम मूल चरखा को जाणि, देव धर्म गुरु निश्चे आाणि । दोष घठारा रहत सुदेव, गुरु निश्च तिणकरि सेव ।। धर्म जिनेसुर भाषितसार, जयत तत हिरवं धार(?) ज्यौ समकित उपजं सुषकार, ता विन भ्रम्यो भव तू निस्सार ।। (५) का बत्तीसी- इसकी रचना वैसाख सुदि १३ सोमवार सं० १७८३ मे हुई थी। इसमें ४० छद है। नमूने के लिए दो छद दुष्टव्य है नजां निपट नजीक है, निज पद निज घट मांही। जल बीचि मोबनी, त्यो चेतन जड पाही ।। ३४ ।। ससां सो अब पाइयो सो कबहु नहीं जाय । धनि जनेसर धनि गुरु, तिन प्रसाद इन्हें पाय ।। ३६ ।। १. सत्रास तीयासीय रिति ग्रीषम वंशाप | सोमवार तेरसि भली, श्रवर उजालो पाष || - कक्का बत्तीसी अनेकान्त के ग्राहक बनें की 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है । अनेक विद्वानो और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-सस्थाओं, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रुत प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने घर दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। इतनी महगाई में भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है । व्यस्थापक अनेकान्त
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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