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________________ ॐ महम अनेकान्त पर परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलमितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ बर्ष २५ } वर्ष २५ किरण ४ । बोरसेवा-मस्बिर, २१ वरियागंज, दिल्ली-६ ।। वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६६, वि० स० २०२६ । सितम्बरअक्टूबर १९७२ आदिनाथ-जिन-स्तवन कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपति भिसूनुर्महात्मा मध्याह्न यस्य भास्वानुपरिपरिगतो राजतिस्मोप्रमूर्तिः । चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहु दहतादरमौदाख्यवातस्फर्जत्सद्ध घानवह्नरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः ॥१॥ -पानन्द्याचार्य काउसग मुद्रा धरि वनमें ठाड़े रिषभ रिद्धि तजि बीनी । निहिल अंग मेरु है मानो दोऊ भुजा छोर जिनि बीनी । फंसे अनन्त जन्तु जग-चहले दुखी देख करुणा चित लोनी। काउन काज तिन्हें समरथ प्रभु, किषों बांह ये दीरघ कोनी।। -भूघरवास अर्थ-कायोत्सर्ग के निमित्त से जिनका शरीर लम्बायमान हो रहा है, ऐसे वे नाभिराय के पुत्र महात्मा प्रादिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें, जिनके ऊपर प्राप्त हुप्रा मध्यान्ह (दोपहर) का तेजस्वी सूर्य ऐसा सुशोभित होता है मानो कर्म रूप ईन्धनों के समूह को अतिशय जलाने वाली एवं उदासीनतारूप वायु के निमित्त से प्रगट हुई समीचीन ध्यान रूपी अग्नि की दैदीप्यमान चिनगारी ही उन्नत हुई हो। विशेषार्थ-भगवान आदिनाथ जिनेन्द्र को ध्यानावस्था में उनके ऊपर जो मध्यान्ह काल का तेजस्वी सूर्य प्राता था उसके विषय में स्तुतिकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि वह सूर्य क्या था मानों समताभाव से पाठ कर्मरूपी ईन्धन को जलाने के इच्छक होकर भगवान प्रादिनाथ जिनेन्द्र द्वारा किये जाने वाले ध्यानरूपी अग्नि का विस्फुलिंग ही उत्पन्न हुआ है।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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