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________________ सामान्य रूप से जैनधर्म क्या है ११९ हुपा है जिसके कारण इसके ये गुण बुरी तरह से दबे हुए अपने असली स्वरूप का श्रद्धान होने में देर न लगी यद्यपि है। जैसे खान से निकले सोने में खोट अनादि काल से सिंह के जैसा प्राचरण करने मे उसे समय अवश्य लगा मिला हुमा होता है और उसकी चमक-दमक और सौन्दर्य होगा। इसी प्रकार सच्चे देव-शास्त्र गुरू के द्वारा जब को ढके या कम किए रखता है । साफ तपाया हुमा हम अपने असली स्वरूप का सम्पूर्ण ज्ञान-श्रद्धान कर सोना, जिसमें से खोट सर्वथा निकाल दिया जाता है, लेगे और यह समझ लेंगे कि ज्ञान-दर्शन मात्र कार्य करने अपने स्वाभाविक रूप-गुण को प्राप्त कर लेता है। उसी वाला जो यह जीव है वह तो मैं हूँ शेष समस्त भाव, प्रकार यदि इस प्रात्मा मे से खोट या मिलावट या विकार वे चाहे जो भी हों, विकारी है तथा मेरे अपने नहीं हैं, सर्वथा दूर हो जाए तो इसके जो स्वाभाविक गुण है मोर त्याज्य है। तभी हम अपनी प्रात्मा के कल्याण के वे पूर्ण विकसित हो जाएंगे और यह मात्र अनन्त ज्ञान, मार्ग पर लग सकेंगे। इसी दृढ़ सच्ची श्रद्धा को शास्त्रीय अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य (शक्ति) का भाषा मे सम्यक् दर्शन कहा गया है। प्रखण्ड पिण्ड भर रह जाएगा। ऐसी ही प्रात्मा को परन्तु, जन्म-जन्मान्तर से संचित इन विकारों को सिद्ध परमात्मा कहते हैं और जो इस अवस्था को प्राप्त दूर करने में बहुत समय व पुरुषार्थ लगेगा। शुद्ध अवस्था करने का रास्ता है, वही जैन धर्म है। सिद्ध परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अपनी आत्मा मे ही निर्विकल्प पुन: विकृत अवस्था (संसार) को प्राप्त नहीं होता। ठहर जाना बहुत ही दुर्लभ है। अतः प्रश्न उठता है कि अनादिकाल से यह जीव राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, जब तक वह अवस्था प्राप्त नहीं होती तब तक क्या करें? लोभ प्रादि विकारों से जकड़ा सर्वथा अशुद्ध बना हुमा तो ऐसे ही जीवों के लिए शुभ व अशुभ भावों का है और उसी पुदगल के साथ संयोगी अवस्था को अपनी विवेचन किया गया है। जो भाव या कार्य कषायों को वास्तविक अवस्था मान बैठा है। ठीक उस सिंह के मन्द करे, वीतरागता की पुष्टि करें भोर जीव को बच्चे की भांति जो संयोग से जन्म से ही भेड़ियों के शुद्धता की ओर बढ़ावा दें वे शुभ भाव हैं भोर जब तक बच्चो के बीच पला और अपने पापको उन्ही के अनुरूप शुद्धता प्राप्त नहीं होती, ग्राह्य हैं जैसे दान पूजा मादि मान कर वैसा ही पाचरण करता रहा। उसको अपने और जो भाव या कार्य गग-द्वेष-कषाय के पोषक हों पौर मसली स्वरूप का बोध ही नही था तो फिर वर्तमान उन विकारों को बढावा दें वे प्रशुभ भाव हैं और सर्वथा अवस्या से निकलने का प्रयास कसे करता? भगवान त्याज्य हैं जैसे सप्त व्यसन प्रादि । जिनेन्द्र देव अपनी वीतरागी मुद्रा से सच्चे गुरुत्रों और हमे चाहिए कि हम परम उद्देश्य-शुद्ध परमात्मपद सच्चे शास्त्र के द्वारा हमें यह बोध करा रहे है कि तेरा की प्राप्ति को दष्टि मे रख कर उसके प्राप्त न होने तक असली स्वरूप तो यह है-अनन्त सुख, अनन्त वीर्य बीतरागत्व की प्रागधना करते हुए शुभ भावों को (शक्ति) अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन से युक्त शुद्ध अपनाएं और विकारी प्रशभ भावों से बचें। इससे हम परम चैतन्य मात्र। न सिर्फ अच्छे नागरिक ही बनेगे बल्कि अन्ततोगत्वा सिंह के बच्चे को जब उसकी शक्ल पानी में दिखाई विषय-कषायों पर विजय प्राप्त कर मोक्ष प्रर्थात् सच्चे गई मौर उसने उसका मिलान सिंह से किया तो उसे सुख की प्राप्ति के मार्ग मे लग सकेगे। HTTENSES
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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