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________________ सामान्य रूप से जैनधर्म क्या है ? लाला महेन्द्र सेन जैन कुछ ऐसे पाधारभूत (fundamental) सिद्धांत हैं जो इसी जगह का नाम "माकाश द्रव्य है। न धर्मको समय बमों से भिन्नता अथवा विशिष्ठता (च) काल-तव्य: या जिसको अंग्रेजी मे time दर्शाते हैं : कहते हैं । यह भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य का ज्ञान R) एक वाक्य में : प्रात्मा का शुस होना ही कराता है । और वह हरेक द्रव्य के परिणमन में उदासीन परमात्मपद है पौर प्रात्मा को शुद्ध कराने के विज्ञान रूप से सहायक है। का ही नाम “जैन धर्म ,, है। (ग) धर्म-द्रव्य (Ether): यह वह चीज है जो 12) अन्य धर्म बहुधा एक परमात्मा को सृष्टा वस्तुओं को चलने में उदासीन रूप से (indirectly) मानते हैं । जैन धर्म हर प्रात्मा को परमात्मपद का सहायक होता है। यानी कोई वस्तु चलना चाहे तो इसकी अधिकारी मानता है। जैनधर्म का मत है कि सष्टि को सहायता से चल सकती है। परन्तु यदि कोई वस्त चलना न किसी ने बनाया था, न इसका कभी पन्त होगा। न चाहे तो उसे यह जबरदस्ती चला नहीं सकती। जैसे पह सदा से थी और सदा रहेगी। पानी मछली के चलने में सहायक है परन्तु मछली चलना अब ऊपर जो न० (१) में बात कही गई है उसका न चाहे तो वह उसको जबरदस्ती नही चला सकता। माधार समझ लेना जरूरी है। (घ) अधर्म-द्रव्य (Anti-Ether): यह धर्म-द्रव्य यह समस्त संसार छ: मूल द्रव्यों से भरा हुआ है। का उल्टा ह। मथात् अधम द्रव्य वस्तुओं को रुकने मे उदासीन रूप से (indirectly) सहायक होता है। इन छहों द्रव्यों का अपमा-अपना अलग अस्तित्व है और (ख) प्रजोव-द्रव्य : इसको जड़, अचेतन, पुद्गल, ये कभी, किसी भी अवस्था मे, एक दूसरे से मिलकर एक इत्यादि नामों से भी पुकारा जाता है । इसके असंख्य नहीं हो सकते । यद्यपि एक ही स्थान पर, एक ही समय परमाणु हैं । इसमें जान (soul) या चैतन्य (feeling) मे विभिन्न द्रव्य मिली-जुली अवस्था में पाए जाते हैं, नहीं होती। इस द्रव्य में वर्ण (colour), स्पर्श (shape फिर भी उनका अपना-अपना अस्तित्व (existence) or form which can be felt by touch) रस कभी भी मिट कर दूसरे द्रव्यरूप नही हो सकता (taste) भोर गन्ध (smell) गुण होते हैं। परन्तु यह यदि ऐसा हो जाता तो कोई ऐसा भी समय पा सकता जीव द्रव्य के संयोग (combination) से जामदार था कि छ: में से किसी द्रव्य का सर्वथा प्रभाव हो जाता। मालूम पड़ने लगता है। जैसे हमारा शरीर तो जड़ परन्तु ऐसा कभी नहीं हुमा पोर न होगा, इसका इतिहास (पुदगल) है परन्तु हमारी प्रात्मा के संयोग से चलताव विज्ञान साक्षी है। ये द्रव्य इस प्रकार है: फिरता तथा अन्य क्रियायें करने के योग्य बना हुआ है। प्रकाश-द्रव्य : या जिसको अंग्रेजी में space यदि इससे पात्मा मलग कर दी जाए तो इसका असली कहते है-इसमें प्रवगाहन (accommodation) शक्ति रूप सामने प्रा जाएगा। होती है। यही इसका गुण है पोर इसके सिवा या इसके (क) जीव द्रव्य : या जिसको मात्मा कहते हैं। विपरीत यह प्रौर कोई कार्य नहीं करता । संसार की हर यह द्रव्य अनन्त है । इनका गुण है जानना प्रोर देखना। किसी ...जगह... में है। अगह न हों तो वस्तु भी जिसको पास्त्रीय भाषा में कहते हैं ज्ञान और दर्शन। मही हो सकती।मस्तु की होने के लिए जमा नरूरी है। पल्तु इनमें अनादि काल से जीव 'द्रव्य का खोट' मिला
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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