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प्रसिद्ध उद्योगपति साहू शान्तिप्रसाद नी जंन का उद्घाटन भाषण
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गई। समाज-सुधार कार्य में अधिक प्रगति के लिए ब० गया। दिगम्ब रत्व की रक्षा करने के लिए और दिगम्बशीतलप्रसाद जी, बेरिस्टर चम्पतराय जी, राय बहादुर रत्व की प्रभावना के लिए तमाम दिगम्बर जैन समाज ने जुगमन्दरदास जी, श्री रतनलाल जी, श्री राजेन्द्रकुमार एक होकर एक समिति का गठन दिल्ली मे किया। इस जी प्रादि ने मिलकर परिषद की स्थापना दिल्ली में को। गठन में पहली बार स्थितिपालक और सुधारक एक साथ जिससे समाज-सुधार का कार्य तेजी से हो सके। कार्य कर रहे हैं और इम गठन की नीव इस निश्चय पर
भारत की सामाजिक उन्नति का इतिहास जैन समाज है कि एक दूसरे का कोई विरोध नहीं करे। आज सभी की प्रगति का इतिहास है। महासमा की बागडोर जिस जानते हैं कि यह गठन बहुत सुदृढ़ है और इसकी शाखाएँ समय परिषद् बनी थी सर सेठ हुकमचन्द जी के हाथ भारत के प्रत्येक स्थान में भगवान महावीरोत्सव मनाने के मे रही और उन्होंने अपने को स्थितिपालक कहा। लिए बन गई है। करीब २० वर्ष बाद १९४२ में सर सेठ ने मालबा अहिंसा, अपरिग्रह, स्यावाद शाश्वत सिद्धान्त हैं । प्रान्तिक और खण्देलवाल सभा का अधिवेशन इन्दौर मे वर्तमान कालचक्र के प्रारम्भ मे इन धर्मों का प्रतिपादन बुलाया। और उसके स्वागताध्यक्ष भैया राजकुमार जी भगवान आदिनाथ ने किया। भगवान पार्श्वनाथ के तीर्थ हुए। उसके अध्यक्ष पद के लिए सर सेठ ने मुझे प्राम- के अन्तिम पद में भारतीय समाज मे धर्म के नाम से त्रित किया। सेठ जी मेरे विचारो से पूरे जानकार थे हिंसा बहुत बढ़ गई थी और शूद्र और नारियो का क्रयऔर उन्हे मालूम भी था कि मैं परिषद का अध्यक्ष रह विक्रय एक सामाजिक सस्था बन गई थी। उसे उन्मूलन चुका हूँ और परिषद से मेरा बहुत सबध है। लोहड़साजन करने के लिए भगवान महावीर ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा और बड़साजन की खण्डेलवाल समाज में वही रीति थी भारतीय समाज को अहिंसा और संयम का रास्ता जैसा अग्रवाल समाज मे दस्सा-विस्सा प्रथा थी। लोहड़- बताया। बडसाजन को एक करने का प्रस्ताव हुमा और बराबर भगवान ने मनुष्य को स्वतन्त्रता का उपदेश दिया, अधिकार दिये गये । परिषद बनने का एक कारण दस्सा- उसे उन धार्मिक, सामाजिक और मानसिक रूढि-बन्धनों विस्सा प्रथा भी थी। सर सेठ ने २० वर्ष बाद इन्दौर मे से मुक्त किया, जो उसके मन में अज्ञान, प्रात्मा मे जड़ता, लोहड वड़साजन को मिलाकर समस्त समाज का नेतृत्व उपासना में प्राडम्वर, क्रिया में रूढ़ि, समाज मे कटुता किया।
और विश्व में हिंसा उत्पन्न करते थे। भगवान महावीर भारत की स्वतंत्रता के बाद विदेशों में मूर्तियों तथा की श्रमण सस्कृति का प्राधार मनुष्य का अपना अनुभव, भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों और चिह्नों को बेचकर धन अपना ज्ञान और अपनी प्रात्मसाधना है, इसलिए जैन कमाने के लिए एक बड़ा धन्धा प्रारम्भ हुआ जो अभी भी शासन के प्रवर्तको ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुजारी है। इसी धन्धे के कारण मध्य भारत में प्रतिष्ठित सार ही युगधर्म का उपदेश दिया है। मन्दिरों में प्रतिमानों को खण्डित किया गया और चोरी धार्मिक जगत में परीक्षण, अनुभव और बुद्धिवाद को हुई । इस पर समस्त समाज प्रतिमानो के खण्डित होने आदर देकर भगवान महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन के कारण क्षुब्ध था। इस पर विचार करने के लिए दिल्ली किया है, उसे आप चाहे जैन धर्म कहें, चाहे श्रमण धर्म, में जैन समाज की एक बृहसभा हुई। सर सेठ भागचन्द । वह वास्तव में है मानवधर्म हो है। यह बात नही कि इस जी ने समय को देखा और उन्होने एकता लाने का भरसक धर्म में मनुष्य की श्रद्धा की उपेक्षा की गई हो। वास्तप्रयत्न किया। उनका प्रयत्न आज तक महासभा और विक श्रद्धा के विना मनुष्य की बुद्धि भटक जाती है, और परिषद को मिलाने का जारी है।
बुद्धि के समाधान विना श्रद्धा अन्धविश्वास के स्तर पर तीन वर्ष पहले तमाम भारतवर्ष में भगवान महावीर जा गिरती है। इसीलिए भगवान ने धार्मिक प्राचरण के का २५००वा निर्वाणोत्सव मनाने का निश्चय किया मूल में ज्ञान के साथ भद्धा को रखा और मनुष्य के धर्म