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२३८, वर्ष २५, कि०६
अनेकान्त
कोष को श्रद्धा, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रयनिधि से. वीर शासन की एक विशेष देन जो संसार के दर्शन समुज्ज्वल किया। जीवन के उद्देश्य के लिए उन्होने शास्त्रों मोर विचारधारामों मे अपना अद्वितीय स्थान अभ्युदय की जगह निःश्रेयस, प्रेय के स्थान मे श्रेय, भोग रखती है, वह हैं स्याद्वाद या अनेकान्तवाद । मनुष्य के की जगह योग पोर प्रवृत्ति की जगह निवृत्ति को प्रधा- विचारों में जो विभिन्नता है और सत्य की खोज करने . नतादी।
वाले व्यक्तियों की धारणामों मे कभी-कभी जो स्पष्ट । · भगवान महावीर के लिए प्राचीन प्राचार्यों ने 'परि विरोध दिखाई देता है, उसके मूल मे प्रायः यही कारण यट्टये विशेषण का उपयोग किया है, जो विशेष महत्वपूर्ण होता है कि एकांग सत्य को पूर्ण सत्य मान बैठते हैं। है। परियट्टये' शब्द का अर्थ है परिवर्तक अथवा परि- पदार्थों में अनेक धर्म हैं, सत्य को अनेक दृष्टिकोणों से वर्तम करने वाला या सशोधन करने वाला। वीर शासन देखा जा सकता है, किन्तु भाषा का माध्यम इतना निर्बल अपने युग के लिए क्रान्ति के रूप में अवतरित हमा, है कि वह वस्तु के सब धर्मों को, सत्य के अनेक दृष्टिजिसने समाज की जीर्णशीर्ण व्यवस्था में नये प्राण फूंके, कोणों को, एक साथ व्यक्त नहीं कर सकता। मनुष्य के सहज चैतन्य को जगाया तथा मतान्धता घोर . भगवान महावीर के समय में ६ प्रमुख तत्त्ववेत्ता थे, कट्टरता को हटाकर वैज्ञानिक विचारधारा के सूखे स्रोत उन्होंने वस्त के एक धर्म में ही सम्पूर्ण सत्य की मान्यता को पुन: जीवनदान दिया।
करली थी। सीधे तौर पर हम यह कह सकते हैं किउस समय की सामाजिक व्यवस्था में दलित वर्ग का १. अजित केशकम्बलि भौतिकवादी थे, २. मक्खलि शोषण और जातिवाद का दुरभिमान प्रादि जो दोष मा गोशाल अकर्मण्यतावादी थे, और ३. पूर्णकश्यप प्रक्रियावादी गये थे, उनको दूर करने के लिए भगवान ने वर्णव्यवस्था अथवा नियतिवादी थे, ४. प्रकुध कात्यायन नित्य पदार्थवादी के आधार की स्पष्ट व्याख्या की। उन्होंने कहा :- थे, ५. गौतमबुद्ध क्षणिक पदार्थवादी थे, ६. संजय भेलट्टिपुत्त . । 'कम्मुणा बम्हणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो ।
संशयवादी या अनिश्चिततावादी थे। भगवान महावीर . बासो कम्मुणा होई, सुद्दो हबई कम्मणा ॥' के उप्पन्नेई वा, विगमेई वा, धुवेई वा इस मातृकात्रिपदी । अर्थात, मनुष्य का वर्ण वह नहीं जो उसे जन्म से में वताये गये, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाद या अनेकान्तवाद मिला हो, वल्कि मनुष्य अपने कर्म से ब्राह्मण होता है, दर्शन ने नित्यपदार्थवादो प्रकुध कात्यायन मोर क्षणिक कर्म से क्षत्री होता है और कर्म से ही वैश्य तथा शब्द पदार्थवादी गौतमबुद्ध के दर्शनों का वस्तु स्थिति के प्राधार होता है। महावीर स्वामी ने वर्णव्यवस्था को व्यवहार. पर पूरा-पूरा समन्वय किया। स्याद्वाद की निश्चित शैली मूलक ही माना धर्ममूलक नहीं।
ने संजयवेलट्टिपुत्त के संशयवाद या अनिश्चिततावाद का श्रमण सस्कृति मे समय के उतार-चढ़ावके साथ अनेक निराकरण किया । 'स्यात्' शब्द न तो 'शायद' का पर्यायऐसी धारणाएँ प्रा मिली है, जिन्होंने कहीं-कहीं मूल रूप वाची है और न अनिश्चितता का रूपान्तर । यह तो को ढक दिया है। वीर शासन के अनुयारी जिन्हें अपने 'अमुक सुनिश्चित दृष्टिकोण' के पर्थ में प्रयुक्त होता है। 'घामिक संस्कारों के कारण सत्य का दर्शन सुलम होना धार्मिक सिद्धान्त का प्रभाव यदि हमारे दैनिक जीवन 'चाहिए, इस विषय में देश के प्रति विशेष उत्तरदायित्व पर न पडा, तो फिर उस सिद्धान्त का विशेष लाभ ही रखते है । देशवासियों का एक बड़ा भाग पाज जीवन के क्या हमा? पुरातनवाद पौर सुधारवाद का द्वन्द्व, पूंजी अनेक अधिकारों और मनुष्य के प्रेम से वचित है। भग- वाद और समाजवाद का संघर्ष तथा हिन्दू-मुस्लिम समवान महावीर के शासन मे इन प्राणियों का भी विशेष स्यानों की कटुता, यह सब वस्तुस्थिति के विभिन्न पक्षों 'स्मीन था । अतः हमारा कर्तव्य है कि. हम उन्हें वीर की के एकान्त प्राग्रह के फल हैं। यदि हम अनेकान्त के प्रतिपादित-मानवता और विश्वबन्धुत्व के निकट लाने में सिद्धान्त को अपनाकर विचारों में सामंजस्य उत्पन्न करने प्रयत्नशील हों।
की चेष्टा करें या मन को उदार तथा. हृदय को विशाल