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________________ रयणसार प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना १५५ पौर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने द्वादशानुप्रेक्षा में भी पात्रों के टीका युक्त समयसार में २६२ गाथा में वर्णित है। यही इन मेंदों का उल्लेख किया है। उनके ही शब्दों में- नहीं, रयणसार में ज्ञानी कर्ता, कर्म-माव से रहित द्रव्य, उत्समपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण सजुवो साहू। गुण भौर पर्यायों से स्व-पर-समय को जानने वाला कहा सम्माविट्ठो सावय मज्झिमपत्तो विष्णेयो। गया है । समयसार मे भी पत्क र्माधिकार में प्रात्मा के णिहिट्ठो जिणसमये अविरसम्मो जहाणपत्तोत्ति। कर्तृत्व और कर्मत्व का निषेध किया गया है। यथासम्मशरयणरहिमो प्रपत्तमिति संपरिक्खेज्जो ।। दव्वगुणपण्जएहि जाणह परसमय-समयादि विमेयं । द्वादशानुप्रंक्षा, १७१८ प्रप्पाणं जाणह सो सिवगह पहणायगो होह॥ (११) इसी तरह 'मूलाचार' और 'रयणसार' के -समयसार, १३४ भावों मे कही-कहीं साम्य लक्षित होता है। उदाहरण वि परिणमविण गिम्हवि उप्पज्जाविण परदव्यपज्जाए के लिए पाणी जाणतो वि पुग्गलकम्म पणेयर्यावह ।। पुष्वं जो पंचेंदिय तणुमणुवचिहत्थपायमुडाउ । -समयसार, ७६ पच्छा सिरमुंडहरो सिवगइ पहणायगो होई ।। स्वसमय और परसमय का वणन भी दोनों ग्रंथों में -रयणसार,८० पंच विवियन डा वचमडा हत्थपायमणमुंडा । ___समान लक्षित होता है। इसी प्रकार शुद्ध पारिणामिक परमभाव को एवं तण मुंडेण वि सहिया दसमंडा वणिया समये ।। निर्मल मात्मा को "दोनों प्रथों में उपादेय कहा गया है। -(मूलाचार, ३.६) मुनिराज इसी प्रकार के निर्मल स्वभाव से युक्त होते हैं । (१२) भावों की दृष्टि से समयसार और रयणसार ज्ञानी को दोनों ग्रंथों में 'भावयुक्त' एवं 'मात्मस्वभाव में में निम्नलिखित साम्य परिलक्षित होता है। 'ज्ञान के लीन' कहा गया है-दृष्टव्य है, रयणसार, गाथा १०६ बिना मोक्ष नही होता।' यह भाव दोनों में समान रूप से और समयसार जयसेनाचार्य को टोकायुक्त, गाथा ३०३ । वणित होता है। देखिए कहा भी हैजाणम्भासविहीणो सपरं तसचं ण जाणए किपि । गय रायवोसमोहं कुम्वदि णाणी कसायभावं वा। झाणं तस्स ण होइल जाव ण कम्म खवेह ह मोक्खो समयप्पणो सो तेण कारगो तेसि भावाणं ।। -रयणसार, १४ -समयसार, २८० णाणगुणण विहीणा एवं तु पयं वह वि ण लहंते। रयणसार में कहा गया है कि जो विकथामों से त गिह णियवमेवं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ॥ उन्मुक्त प्रधःकर्म मौर उसिक (अध:कम मादि पुदगल -समयसार, २०५ द्रव्य के दोषों को वास्तव में नहीं करता; क्योंकि वे परदोनों ही ग्रंथों में ध्यान को अग्नि रूप कहा गया दृव्य के परिणाम है) से रहित धर्मोपदेश देने में कुशल है। दृष्टव्य है-रयणसार गाथा ६६ मोर भाचार्य जय- और बारह भावनामों से युक्त होता है वह ज्ञानी मुनि सेन की टीका से युक्त समयसार, गाथा २३४ । इसी है। उनके ही शब्दों मेंप्रकार मुनि जब तक जिन लिंग धारण नहीं करता तब विकहाइविप्पमुक्को माहाकम्माइविरहिमो णाणी। तक वह मोक्षमार्ग का नायक नहीं होता। यह भाव धम्मवेसणकुसलो अणुपेहाभावणाजदो जोई।। रयणसार में गा० १, ६, ४ मोर प्रा. जयसेन की टीका तथा । रयणसार,१०० से युक्त समयसार में २४५-२५१ में वणित है। इसी माषाकम्माईया पुग्गलवम्बस्स जे इमे वोसा। प्रकार-सम्यक्त्व के बिना कोरे व्रतादिक करना व्यर्थ हैं। कह ते कुब्वा पाणी परवश्वगुणाउ जे णिच्छ॥ यह भाव रयणसार गा० १२७ में पौर जयसेनाचार्य की -समयसार, २८६
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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