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________________ १५४, वर्ष २५, कि०४ भनेकान्त दर्शन का व्याख्यान है। जैसे कि : जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥ (प) सम्यग्दर्शन रूपी सुदृष्टिके बिना देव, गुरु, धर्म मादि -मोक्खपाहुड, ३१ का दर्शन नहीं होता, (पा) सम्यक्त्व सूर्य के समान है, अण्णाणीदो विसयविरत्तादो होइ सयसहस्सगुणो। (इ) सम्यक्त्व कल्पतरु के समान है, (ई) सम्यक्त्व औषध णाणी कसाय विरदो विसयासत्तो जिणुद्दिद्रु॥ -रयणसार, ७४ पुव्वं सेवइ मिच्छामलसोहणहेउ सम्मभेसज्ज । पच्छा सेवइ कम्मामयणासणचरियभेसज्जं ।७३। उग्गतवेणण्णाणी जं कम्म खबदि भवहि बहुएहि । -रयणसार तं णाणी तिहिंगतो खवेइ अंतोमुहुत्तण ॥ अर्थात् प्रथम मिथ्यात्वमल की शुद्धि के लिए सम्य -मोक्षपाहुड, ५३ क्त्व रूपी पोषध का सेवन करें, + पश्चात् कर्म रूपी "णाणी खवेइ कम णाणवलेण।" रोग को मिटाने के लिए चारित्र रूपी भौषधि का सेवन -रयणसार करना चाहिए। सम्माण विणारुई भत्तिविणादाण दयाविणा धम्म प्राचार्य जयसेन को टीका से युक्त समयसार की गुरुभत्तिविणा तवचरियं णिप्फलं जाण ॥ गाथा २३३ में लगभग यही भाव व्यक्त किया गया है। -रयणसार,८४ सम्यग्दर्शन के माठ प्रग होते हैं। वह सात व्यसन, इसी प्रकार सात प्रकार के भय, पच्चीस शङ्कादिक दोषो से रहित तच्चरुई सम्मत्तं तच्च गहण च हवइ सण्णाणं । तथा ससार शरीर और भोगों की प्रासक्ति से हट कर चारित्तं परिहारो पयंपियं जिणवरिंदेहि ।। निःशङ्कादिक माठ गुणों से सहित पांच परमेष्ठियो मे -मोक्खपाहुड, ३८ शुद्ध भक्ति भावना रखता है। रयणसार में कहा है- कम्मादविहावमहावगुणं जो भाविऊण भावेण । भयविसणमल विवज्जिय संसारसरीरभोगणिविणो, णियसुद्धप्पा रुच्चइ तस्सय णियमेण होइ णिव्वाणं । अट्ठगुणंगसमग्गो दंसणसुद्धो हु पंचगुरु भत्तो ॥५॥ -रयणसार, १२९ __ समयसार के वचन है तथा सम्मद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। अप्पा अप्पमि रो रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका ।२२८ संसारतरणहेउ धम्मोत्ति जिणेहिं णिहिट्ठो॥ अर्थात् सम्यग्दृष्टि निःशंक एवं निर्भय होते हैं, -भावपाहुड, ८५ क्योंकि वे सात भयों से रहित होते हैं। (E) यही भाव "पअनन्दिपंचविंशतिका" में भी प्राप्त सम्यक्व के बिना दान, पूजा, जप, तप प्रादि सब निर- होता है र्थक हैं । यह भाव "रयणसार" की गाथा ४० और १५४ तत्प्रति प्रीतिचितेन येन वार्तापि हि श्रता। तथा जयसेनाचार्य की टीका से युक्त समयसार की गाथा निश्चितं स भवेद् भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ।२३ सं० २९२ में लगभग समान रूप से वर्णित है। . रयणसार में "पत्तविसेस" का (उत्तम पात्र का) (८) मोक्खपाहुड मौर रयणसार की निम्नलिखित बहुत वर्णन किया गया है। अन्य पात्रों में मविरत, गाथानों मे साम्य लक्षित होता है देश विरत, महाव्रत, तत्त्वविचारक भोर भागमरुचिक देहादिसु अणुरत्ता विषयासत्ताकसायसंजुत्ता। प्रादि कई पात्रों का निवेश किया गया है। कहा हैअप्पसहावे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचता ॥ अविरददेसमहव्वय भागमरुइणं वियारतच्चण्हं । । तथा -रयणसार, १०६ पत्तंतरं सहस्सं णिहिट्ठं जिणवरिंदेहि ॥ जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकज्जम्मि । -रयणसार,१२
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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