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रयणसार प्राचार्य कुन्द कुन्द की रचना
का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ है । अन्य रचनाओं की भांति इसमें भी शुद्ध प्रात्मतत्व को लक्ष्य रखकर गृहस्थ और मुनि के संयमचारित्र का निरूपण किया गया है। मुख्य रूप से यह प्राचारशास्त्र है। निम्नलिखित समानताम्रों के कारण प्राचार्य कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध होती है
(१) पटना की दृष्टि से प्राचार्य कुन्दकुन्द की रच नामों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैसारमूलक रचनाएं और पाहुडमुलक भक्ति और स्तुतिविषयक रचनाए इनसे भिन्न हैं । प्रवचनसार, समयसार और रत्नसार (रमणसार) के अन्त में "सार" शब्द का सयोग दी रचना सादृश्य को सूचित करता है।
(२) प्रवचनसार, नियमसार भौर रयणसार का प्रारम्भ तीर्थंकर महावीर के मंगलाचरण से होता है। "नियमसार" की भांति रयणसार में भी ग्रन्थ का निर्देश किया गया है । निऊजिगं वीरं प्रणतवरणाणदंसणसहावं । वोच्छामि नियमसारं केवलिमुदकेवली भणिदं ॥ १
यथा
-
तथा
णमिण वद्दमाणं परमध्याणं जिणं तिसुद्धेण । वोच्छामि रयणसारं सायारणयारधम्मीणं ॥ २॥
एवम्
उक्त गाथानों में शब्द साम्य भी दृष्टव्य है। समयसार में भी "बोच्यामि समयपा०" कहा गया।
(३) इन सभी ग्रंथों के प्रप्त में रचना का पुनः नामोल्लेख किया गया है और सागार (गृहस्थ ) और अनागर ( मुनि) दोनों के लिए मागम का सार बताया है। कहा हैबुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो । जो सो पवयणसारं लहूणा कालेण पप्पीदि ॥ २७५॥ - प्रवचनसार
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ग्रंथ का भी सूचक हो सकता है। पंचास्तिकाय में भी कहा गया है
एवं पययणसारं पंचत्थिसंग्रहं विषाणिता' । १०३ । (५) रयणसार में कहा गया है किणिच्छयववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणइ सोइ । जं को रद्द तं मिच्छारुवं सम्यं जिणुद्धिं ।। १२५॥
- रयणसार
सम्मं णाणं वेरम्गतवोभावं णिरीहवितिवारितं । गुणसीलसहावं उप्पज्जइ रयणसारमिणं ।। १२५ ।। - रयणंसार (४) इसके प्रतिरिक्त रयणसार में दो-तीन स्थलों पर "प्रवचनसार" के प्रभ्यास का उल्लेख किया गया है जो शुद्ध प्रात्मरूप भागम के सार तत्व मोर प्रवचनसार
समयसार में भीदसणाणचरिताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्च । ताणि पुण जाण तिष्णिवि पप्पाणं चेत्र णिच्छयदो । १६
घाचा मतचन्द्र कहते हैं
"येनेव हि भावेनात्मा साध्यं साधन व स्वातेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां व्यवहारेण साघुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते ।"
अर्थात् साधु को दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रनत्रय को भेद ( साधन) और प्रभेद (साध्य) जिस भाव से भी हो नित्य सेवन करना चाहिए। प्राचार्य जयसेन ने इसका विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। वास्तव में रत्नत्रय मोक्षमार्ग है, जिसका चारित्र के रूप में लगभग सभी रचनाओं में वर्णन किया गया है किन्तु रयणसार में यह वर्णन सरल है ।
(६) रयणसार की अन्तिम गाथा :
इदि सज्जणपुज्जं रयणसारं गंथं निरालसो णिवं । जो पढ़द्द सुणइ भावइ सो पावइ सासयं ठाणं ॥ मोक्षपाहुर के वचन हैं :
जो पढाइ सणइ भावइ सो पावद सासयं सोक्खं । १०७ भावपाहुड में भी कहा गया है :
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं । १६४ द्वादशानुप्रेक्षा का कथन है :
जो भाव सुद्धमणो सो पावइ परमणिव्वाणं |१| उक्त सभी पंक्तियों में एक क्रम तथा शब्द साम्य परिलक्षित होता है ।
(७) सम्यग्दर्शन और सम्यग्दृष्टि की महिमा प्राचार्य कुन्दकुन्द की सभी रचनाम्रो मे प्रकारान्तर से वर्णित मिलती है । रयणसार की अधिकतर गाथानों में सम्यग्