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१५८, वर्ष २५, कि.४
भनेकान्त
जयच. छावड़ा
दीनदयाल परम उपकारी, सुगुरु वचन सुखदाय, जयचन्द्र छावड़ा का जन्म खण्डेलवाल जाति में सं० सुमति कुमति की रीति सबै पब नयन बई रसाय ॥२ १८०५ में जयपुर राज्य के फागी गांव में हुमा । प्रमेयरल- बधजनमाला में प्रापने अपना परिचय इस प्रकार दिया है
कविवर बुधजन का पूरा नाम वषीचन्द था। वह बेश ढुढाहर जयपुर जहां, सुवस बस नहिं दुखी तहाँ । जयपुर के रहने वाले खण्डेलवाल जैन थे। बज इनका नप जगतेश नीति बलवान, साके बड़े बड़े परधान ।। . गोत्र था। इनके पिता का नाम निहालचन्द था। बुधजन प्रजा सुखी तिनके परताप, काह के न वृथा सताप । के पूर्वज पहले भामेर में रहते थे। वहीं से इनके (बुधजन अपने अपने मत सब चलें. जैन धर्म हूं प्रधिको भल ।। के) पिता जी के बाबा शोमचन्द सांगानेर जा बसे । तामें तेरहपंथ सुपंच, शैली बड़ी गुनी गुन ग्रंथ । लेकिन वहां जब जीवन निर्वाह में कठिनाई होने लगी तो तामें मैं जयचन्द्र सुनाम, बंश्य छावड़ा कह सुगाम ।। बुधजन के बाबा पूरनमल जयपुर पाकर रहने लगे। यहाँ
जयचन्द्र के पिता का नाम मोतीराम था। ११ वर्ष सं० १५३० के ग्रासपास बुधजन का जन्म हुमा'। इनके की भवस्था मे ही जयचन्द्र को जिन शासन मे चलने की गुरु का नाम मांगीलाल था। बुधजन बचपन से ही जैनसुबुद्धि मिली । उस समय जयपुर मे टोडरमल, दौलतराम, धर्म के प्रात अगाध श्रद्धा रखत थ भार
धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे और धावक के षट् रायमल्ल भादि प्रसिद्ध पण्डित एवं विद्वान् विद्यमान थे।
प्रावश्यकों का यथाशक्ति पालन करते थे। यह दीवान इनकी सगति करके जिनवाणी में अपनी बद्धि लगाने के अमरचन्द जी के मुख्य मुनीम भी थे। इनका साहित्यिक विचार से जयचन्द्र जयपुर माकर रहने लगे।
जीवन सं० १८५४ से प्रारम्भ होता है जबकि इन्होने पं० जयचन्द्र छावड़ा अल्पायु मे ही पुराण, चरित्र,
__'छहढाला' की रचना की। न्याय, मीमासा, व्याकरण मादि शास्त्रों के ज्ञाता तथा अद्याववि बुधजन की निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध सस्कृत, प्राकृत, अपघ्रश एवं हिन्दीके प्रकाण्ड विद्वान पडित हैं:हो गए । मापने न्याय, मीमांसा एव माध्यात्मिक ग्रन्थो के १. छहढाला' (सं० १८५६) भनुवाद किये । आपके अनुवाद प्रन्थों की संख्या १३ है। २. बुधजन सतसई (जेष्ठ कृ० ११८७६) मापके सभी अनूदित ग्रन्थ प्रौढ़ परिमाजित शुद्ध एवं ३. तस्वार्थ बोध । (१८७६) सरल भाषा में हैं। अनूदित ग्रन्थों के अतिरिक्त मापने ४. बुधजन विलास। (कार्तिक शु. २ सं. १८६१) सैकड़ों पदों की भी रचना की है, जो जयपुर के ५. संबोध पंचाशिका" (१७९२) । प्रायः सभी जैन शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध है। नमूने के - लिए एक पद दृष्टव्य है :
३. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-कामतामोहि उरझाइ रही भव फंव में कुमति नारि,
प्रसाद गुरु पृ० १९७। पाप अनादि मान संग राची, मोकू कलंक लगाय। ४. वीरवाणी। मैं बिन समझयां सारंग राष्यो, भोंदू भरम नसाय, ५. राजस्थान के हिन्दी साहित्यकार पृ० २६१ । कर्म बंध विढ बांषि निरंतर भोगे दुख प्रषिकाय॥१॥ ६. हिन्दी जैन पद सग्रह-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल सुमति नारि जी घर मेरे, तासों विमुख रहाय,
पृ०१८६। हित की बात कभ नहिकीनी, महमनग लुभाय। ७. शास्त्र भंडार, मंदिर श्री संधी जी के वे०सं० २९७
पर उपलब्ध है। १. वीरवाणी वर्ष १, पृ० १०१।
८. शास्त्र भंडार, मंदिर पाटौदी वे० सं० ३६७ । २. हिन्दी जन साहित्य का इतिहास-नाथूराम प्रेमी, ६. शास्त्र भंडार, यशोदानन्द जी वे० सं०५७। ७३-७४ ।
१०. शास्त्र भंडार, मंदिर पाटौदी।