SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बौद्धधर्म में ध्यान-चतुष्टय : एक अध्ययन डा. धर्मेन्द्र जैन एम. ए. पो-एच. डी., प्राचार्य प्राध्यापक (पालि-प्राकृत) कुरुक्षत्र विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म मे ध्यान चतुष्टय का महत्वपूर्ण स्थान है। में अधिक मिलता है। ध्यान, योग, समाधि और समापत्ति ये शब्द भारतीय "वेताश्वतरोपनिषद" के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय दर्शन-शास्त्र में प्रायः मिलते है। बौद्धधर्म में ध्यान, में ध्यानयोग का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । जैन धर्म समाधि और समापत्ति एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त हुए है। दर्शन में भी योग ध्यान एवं समाधि की श्रेणियों, शाखाग्री भारतीय ऋषि-महर्षि कन्दरामों मे ध्यान-समाधिस्थ होते एवं उपशाखामों का विस्तृत वर्णन किया गया है और थे और योगादि साधनामों द्वारा अमरत्व, स्वर्गत्व, ईश्व ध्यान का विशिष्ट महत्व बतलाया गया है । अतएव इससे रत्व, प्रात्मत्व एवं ब्राह्मणत्व प्राप्त करना उनका परम इतना तो अवश्य सिद्ध हो ही सकता है कि हमारा भारतीय लक्ष्य होता था। प्रायः सभी भारतीय धर्मों में ध्यानयोग ध्यानयोग साधना अति प्राचीन है। का काफी महत्व है। साधना पद्धति में ध्यान का सर्वोपरि स्थान रहा है। बौद्धधर्म में ध्यानयोग-भगवान बुद्ध ने ध्यानयोग ध्यान प्रादि प्रक्रियाओं का प्रारम्भ पूर्व वैदिक काल में हो को बहुत महत्व दिया था। भगवान् बुद्ध के समय में चुका था। कोई भी प्राध्यात्मिक उपलब्धि बिना साधन आरूढ कलाम, उद्दकरामपुत जैसे दिग्गज ध्यानमार्गी के प्राप्त होना सम्भव नहीं। पवित्र से ही पवित्र साध्य प्राचार्य विद्यमान थे जिनके शिष्य यत्र-तत्र ध्यान की की प्राप्ति होती है। ध्यानयोग का दर्शन हमें बुद्ध पर्व दीक्षा देते थे। "भरण्डुकलामसुत्त" से और भी स्पष्ट हो वैदिक कालीन जातियों में भी मिलता है। "ऋग्वेद," जाता है कि कपिलवस्तु के नागरिक भी ध्यानयोग का "शतपथ ब्राह्मण,""पारण्यक" तथा "उपनिषदों" में योग अभ्यास करते थे। इससे यह भी सम्भव है कि बुद्ध ने शब्द का प्रयोग हुआ है। 'ऋग्वेद' से १०वें मंडल के भी अपने बचपन में उक्त ध्यान का अभ्यास ११४वें सूक्त मे योग शब्द ध्यान, चित्तैकाग्रता और प्राध्या. किया हो। त्मिक साधना की पोर ही संकेत करता है। उपनिषदों त्रिपिटक के अध्ययन से हम पाते है कि भगवान बुद्ध में योग का अध्यात्मयोग से ही भभिहित किया गया है। जब कभी भी थोडा समय खाली पाते थे तभी एकान्त 'कठोपनिषद' में अध्यात्मयोग अन्तर्ज्ञानात्मक पात्म साक्षा चिन्तवन करने लगते थे, ध्यान करत थे, समाधिस्थ हो त्कार के लिए ही प्रयुक्त किया गया है। प्रात्मसाक्षात्कार जाते थे। इसकी पुष्टि "मज्झिमनिकाय," "ललितविके लिए योग शब्द का प्रयोग "बृहदारण्यक,"" "छांदोग्य," तैत्तरीय, ऐतरेय कोषौतिकी और कठोपनिषद" ५. दे० तेतरीय० २।२।३१३, १६१३१२१. १. दे० ऋग्व०१०१११४१६ तथा वही, १३४॥8: ७ ६. द. कोपीति० ४११६. ६७।६; ३।२७।११। ७. दे० स्थानाङ्ग सूत्र ४:१; समवायाङ्ग सूत्र ४, भगवती. २. दे० कठोपनि० श२।१२। २६।७; उत्तराध्ययन सूत्र ३०।१२।३५; तत्त्वार्थसूत्र ३. दे. बृहदा० ३।३।३१७; ४।३।२०, ४।४।२३; ४।५६ ।२७ इत्यादि। ४. दे० छान्दो० ५.१०११, ८६७६ ३३१७१४, ८. धर्मानन्द कोशाम्बी-भगवान् बुद्ध, पृ.१०४ । ६८।६. ६. दे. भ. नि. सुत्त. ३६ ।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy