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१८ वर्ष २५ कि.
प्रनेकान्त
श्यक है। वर्तमान हिन्दी साहित्यकारों ने प्रायः दसवीं हमारे समक्ष प्राई फिर इसी का परिवर्तित संस्करण शताब्दी के पूर्व के साहित्य का पालोड़न नहीं किया है, हिन्दी' नाम रूप में हुमा। इसी कारण पं० नाथूराम जी प्रेमी और पंडित राहुल माननीय विद्वान डा. वासुदेवशरण जी अग्रवाल सांकृत्यायन को हिन्दी भाषा के प्रादि कवि स्वयंभू और लिखते हैं कि-"यह तो सर्वमान्य बात है कि हिन्दीसरहप्पा का इन्हें परिचय देना पड़ा।
भाषा को अपने वर्तमान रूप मे पाने से पूर्व अपभ्रंश युग सर्वमान्य तथ्य यह है कि हिन्दी भाषा का उद्भव सीधे को पार करना पड़ता हैं। वस्तुतः शब्द-शास्त्र और संस्कृत-भाषा से न होकर इसकी सर्जना में 'प्राकन' और साहित्य शैली दोनों को बहुत बड़ा वरदान प्रपद्मश-भाषा अपभ्रंश-भाषा का महत्वपूर्ण योग रहा है । वे लोक भाषाये से हिन्दी को प्राप्त हुमा है । 'तुकान्त-छन्द' और कविता थीं और इनका साहित्य भी गौरवपूर्ण तथा समृद्ध रहा की पद्धति अपभ्रश की ही देन है। हिन्दी काव्य-धाग है। साथ ही प्राचीन हिन्दी साहित्य पर इसकी गहरी मूल निवास अपभ्रंश-काव्य धारा मे ही अन्तनिहित है । और अमिट छाप है। इन भाषाम्रो का जैन और बौद्ध. भाषा, भाव, शैली तीनो ही दृष्टियो से अपभ्रश साहित्य साहित्य में प्रचुर रूप में प्रयोग है और इनसे हिन्दी भाषा की हिन्दी-भाषा प्राभारी है। का सीधा सम्बन्ध भी हैं।
डा० रामचन्द्र शुक्ल ने १०वी शताब्दी से १४वी अधिक विद्वानों ने इन भाषामों का अध्ययन केवल शताब्दी तक के काल को हिन्दी-साहित्य का आदिकाल भाषा के विकास की दृष्टि से ही किया है, आवश्यकता माना है, परन्तु डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी 'शुक्ल' जी की इस बात की है कि इसके अन्वेषक यह शोध करें कि मान्यता का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि-"हिन्दीइनका मानव जीवन से कितना और कैसा सम्बन्ध रहा भाषा दसवी शताब्दी के पूर्व भी प्रचलित थी और उसका था? सामाजिक जीवन पर सामान्य मनोवृत्ति प्रादि रूप अपभ्रश-भाषा का था। प्रापने तथा प. राहल जी इनका कितना मोर कैसा प्रकाश पड़ता रहा है ? उस ने उसे 'पुरानी हिन्दी' कह कर सम्बोधित किया है। युग के वर्धमान लोक जीवन की झांकी क्या भी? वह आप लोगो की मान्यतानुसार महाकवि स्वयभू जिन्होने कैसे विकसित होकर इस युग तक पहुँची है ?
पाठवी शताब्दी में अपभ्रंश-भाषा मे पउमरिउ (रामइतिहास लिखने का प्रयास तो लगभग ईसा की १९वी कथा), रिट्ठणेमि चरिउ, (हरिवंश कथा) प्रादि काव्यों शताब्दी के मध्य से प्रारम्भ होता है, उस समय भी की रचना की है। यह हिन्दी भाषा के प्रादि कवि है। भारम्भ में कवियों की और कवि कृतियों की सूचियों ही मागे 'द्विवेदी' जी ने अपनी रचना "हिन्दी-साहित्य अधिक प्राप्त होती हैं । साहित्यिक-प्रवृत्तियों और विचार. का प्रादिकाल" में लिखा है कि-जैन अपभ्रश मे चरितधारामों का विवेचन उपलब्ध नहीं होता।
काव्यो की जो विपुल सामग्री इधर उपलब्ध हुई है, वह प्राचीन युग के कुछ कवियो ने अपने सम्बन्ध में जा केवल धार्मिक सम्प्रदाय की मुहर लगने गात्र से अलग कुछ थोड़ा सा लिखा है और अपने पूर्ववर्ती अथवा सम- कर दी जाने योग्य नही है। स्वय भू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त कालीन कवियों का भी साधारण रूप में उल्लेख किया है और धनपाल जैसे कवि केवल 'जन' होने के कारण ही तथा कुछ मक्तों की जीवनियां लिखी हैं। उनसे साहित्य काव्य क्षेत्र से बाहर नही चले जाते । धार्मिक-साहित्य की प्रगति या प्रवृत्ति तथा विचारों का परिचय नहीं होने के कारण मात्र से कोई रचना साहित्य की कोटि से मिलता है, कारण यह कार्य भी बहुत ही स्फुट रूप मे प्रयक नहीं की जा सकती है। यदि ऐसा माना जाने लग
माय तो तुलसीदास का 'मानस' भी साहित्य-क्षेत्र में मवि'हिन्दी-भाषा' के जन्म-काल की भोर यदि हम दृष्टि वेच्य हो जायेगा तथा जायसी का 'पद्मावत' भी साहित्यडालें तो हमें पता चलेगा कि हिन्दी का जन्म ७वीं, ८वी सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। केवल नैतिक और शताब्दी में ही हो गया था। यह पहले अपभ्रंश रूप में पार्मिक या अध्यात्मिक उपदेशो को देखकर ही यदि हम