________________
१११, वर्ष २५, कि..
भनेकान्त
कवियों ने परिस्थितियों का ताना-बाना बुनकर इनको करते। भोर भी सटीक बना दिया है। कथा के प्रवाह के मध्य से प्राकृत भाषा मे श्रव्य काव्यों के दृश्य काव्य भी नीति कथन मे प्रकृत कवि बहुत ही कुशल है।
प्राकृत में हैं । सस्कृत के दृश्य काव्यों में भी प्राकृत भाषा देव मोर मानव लोक के पात्रों से सवलित 'लीलावई' का प्रचुर प्रयोग हुमा है। वहाँ साधारण विदूषक तथा दिव्य मानुषी प्रबन्ध काव्य, 'कोहल' नामक ब्राह्मण की भत्यादि के द्वारा प्राकृत ही बुलवाने का प्रादेश है' । इन रचना है। इसमे सिंहल देश की राजकुमारी लीलावती स्थानों पर भी प्रसंगवश नीति कथन प्राप्त होते हैं । उदा.
और प्रतिष्ठान के राजा सातवाहन की प्रेम कथा का, हरण-मच्छकटिक मे धन को हरने वाली कुलनाशिनी प्रायः मनुष्टुभ् छन्दों में वर्णन किया गया है। प्रसगवश वश्याओं तथा मुद्राराक्षस मे मोहादि के प्रसंग थे। नीति परक कथन भी आ गये हैं-यथा भाग्यानुसार ही प्रकारान्तर से नैतिक प्रशिक्षण की योजना की गई है। सुख-दुख मिलता है, इस सम्बन्ध में एक उक्ति इस पाखड पर मच्छकटिक के भिक्षु की करारी चोट प्रकार है :
देखिए :तह विमा तम्म तुम मा सुरस मा विमुच प्रत्ताणं । "सिर और गाल तो मुंडित कर लिए हैं, परन्तु को देह हरहको वा सुहासुहं जस्स जं विहियं ।। ५७३ इससे होता क्या है। मुंडवाने की वस्तु तो मन है ।
अर्थात् (मनुष्य को) किसी भी अवस्था में दुखी नही जिसके मन मुंड गया, उसे सिर तथा गाल तो अपने प्राप होना चाहिए, मापने धंयं का परित्याग नही करना चाहिए, हो मुड समझो। क्योंकि जितना सुख-दुख विहित है, उससे अधिक न कोई काव्य के अतिरिक्त व्याकरण, ज्योतिष, रसायन दे सकता है, न छीन सकता है। कवि ने निष्कर्ष निकाला शास्त्र, छन्द शास्त्र, राजनीति तथा अर्थ शास्त्रादि अन्य है कि शक्तिभर प्रयत्न करना मनुष्य का काम है, शेष विद्याए भा प्राकृत में है। इनमे भी प्रसग उपस्थित होने देवाधीन है। इसलिए बहुत दुखी नही होना चाहिए। पर व्यवहार भोर नीति सम्बन्धी कथन प्राये है। उदा. क्योकि ये दुख भी जीवन के अनिवार्य प्रग हैं। कवि ने हरणार्थ-'प्रस्थसत्य' (अर्थ शास्त्र) की गाथा उपस्थित कन्या का उदाहरण दिया है। उनका कथन है कि, 'इस की जा सकती है :संसार मे लोगो को अपनी कन्या जैसी और कोई वस्तु
विसेसेणमायाए सत्येण य हंतव्यो। मन को कष्टदायी नही होती। कन्या के लिए मनचाहा मप्पणो विवड्डमाणो सत्तत्ति ।। वर तीन लोक में भी मिलना दुर्लभ है।' कोहल के
अर्थात् प्रपने बढ़ते हुए शत्रु का विशेष माया से या समान ही अन्य प्राकृत कवियों ने कन्या-सम्बन्धित मार्मिक शस्त्र से (जसे भी बने) संहार करना चाहिए । शास्त्रों उल्लेख किये हैं। हेमचन्द्र ने तो उन्हें दुष्ट पितामों से में इस प्रकार के कथन खोजने पर मिल जाते है। किन्त भी सावधान रहने का सकेत किया है। हेमचन्द्र अपने इनका प्राचुर्य काव्यों में ही है भोर विशेषतः ऐसे काव्यों समय के स्वनामधन्य भाचार्य कवि, वैयाकरण, विद्वान मे जिनका प्राधार धर्म है, धर्म में प्रमुख श्रेय जैन कृत सभी कुछ एक साथ थे। उन्होंने कई चरित काव्यों का धर्मानुयायी कवियों को है। उदाहरण के लिए हम विमल प्रणयन किया था। इनके काव्यों मे नीति कथन पर्याप्त सूरि कृत पउमचरिउ प्राकृत (रामायण) को ले सकते मात्रा में विद्यमान है। उक्त प्रसंग के संदर्भ में 'कुमार हैं। महर्षि वाल्मीकि के कुछ असंगत प्रसंग योजनायों से पाल चरित' का एक कथन उद्धरणीय है :
क्षब्ध हो सूरि ने यह रचना महावीर निर्वाण के ५३० वर्ष जीणन्ति मित्त मज्ज रम्मन्ति सुग्रं बहुं पदमन्ति। पश्चात्-६० ई० के लगभग महाराष्ट्री प्राकृत के प्रार्या णीलुक्कान्त च गुरु गहिणी पि काम-वक्ष-परि लिया।
wिणी पिकाम-व-परिपलिया। छन्द मे की थी। मानवीय जीवन मल्यों की स्थापना अर्थात् कामांध, मित्र-वधू, स्वपुषी (यहाँ तक कि) १. कु. पा. चरित (सं० १९३६, बम्बई) सप्तम सगं Tपहिणी से मी रमण करने में सकोच अनुभव नहीं २. भरत मुनि नाट्य शास्त्र, ११,३१,४३ ।