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प्राकृत भाषा और नीति
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समझता है, पर मांगता नही :
करते है । नीतिवान को यह भी जानना प्रावश्यक हैमीण विहयो वि सुयणो, सेवइ रण न पत्थर अन्न । 'जो स्त्रियां विलास भावना से विदग्ध होती है, वे मकमरणं वि प्राइमहग्घ, न, विक्कणइ माण माणिवकं ।।
स्मात् पाये प्रिय को देख कर च चल तो नही हो उठती है । अर्थात सज्जन क्षीण विभव हो जाने पर वन को हों उस समय वे कभी अपने केशों का स्पर्श करती हैं, तो स्थान कर देगा. पर मांगेगा नही। मरने पर भी वह कभी कड़ों को ऊपर-नीचे करती हैं तथा कभी वस्त्रों को मान रूपिणी बहमल्य मणि को बेचना पसन्द नहीं करता। ठीक-ठाक करती हई सखी से झठमठ का वातालाप धनवानों के कजस, शोषक तथा स्वार्थी स्वभाव पर करने लगती है और ये सब उनकी व्यग्रता पूर्ण उत्सूकता कितना जबरदस्त व्यग्य इस प्रार्या मे है :
के ही प्रतीक है' । नवोढायो मे तो ये चिह्न भी स्पष्ट नहीं जम्म विणे थणनिवडण भएण दिज्जन्ति धाइउच्छड़गे। होते । उनको प्रेम क्रीडापो के लिए बड़ी कोमलता से तैयार पहणो जनीयरया मन्ने तं खीरमाहप्पं ॥
करना चाहिए। प्रथम समागम के समय-"नवौढ़ा स्त्री प्रर्थात स्तनों के निचुड़ जाने के भय से बच्चे का प्रिय द्वारा उपस्थित किये हए मुख का पान नहीं करती, उसके जन्मदिन पर ही धाय के सुपूर्द कर दिया जाता है। प्रिय द्वारा याचित किये हुए प्रघर को नहीं झुकाती, प्रिय यदि पैसे वाले नीचगामी हों तो, मैं इसे दूध का हा द्वारा जबरदस्तीमाकृत प्रघरो को छुडाना चाहती है । इस मादाय मानता है। व्यग्यार्थ है कि कमीनापन धनवाना प्रकार प्रथम समागम मे युवतियां बड़ी कठिनता से रति को विरासत में मिलता है। स्वार्थ उनकी फितरत में सम्पन्न कराती है।" समागम अवसरो पर मदिरापान शामिल रहता है।
करके पुरुष प्रपनी कोमल चित्ता प्रेमिकाग्रो के कोपभाजन मक्तक ही नही, महाकाव्य भी अपनी महानतम सज- बनते हैं । अतः मदिग की बडी तीव्र अवमानना है । कुछ घज के साथ प्राकृत मे विद्यमान है। इन महाकाव्यों मे कवियों ने मदिरा के नशे से भी अधिक विनाशक मद, सेत बन्ध, गउडवहो और लीलावई आदि प्रमुख है। धन को माना है। इस सम्बन्ध मे वाक्पति के कथन
ये महाकाव्य विदग्घता में अपना सानी नहीं रखते। बहुत अनठे हैं। इनमे तत्कालीन जन-जीवन और रीति-नीति का जैसा वापति राज का लगभग ७५० ई० मे रचित वर्णन हुआ है वैसा इतिहास-ग्रथो मे भी नही है। इस (सम्भवतः अपूर्ण) काव्य 'गउडवहो' (गोडवघ) महाराष्ट्री दष्टि से 'सेतुबंध' बहुत उपयोगी है। बानर वाहिनी के प्राकृत की सुप्रसिद्ध रचना है। यह प्रबन्ध काव्य १२०९ प्रस्थान से लेकर रावण-वध के अन्त तक होने वाली कथा- गाथाम्रो मे प्राप्त है। इसमे कवि ने अपने प्राश्रयदाता वस्तु में बिखरे नीति-कथन बहुत ही उपयोगी है। सत्पुस्पो कन्नौज के महाराज यशोवर्मा की प्रशस्ति की है। नीति की विरक्तता पर एक कथन इस प्रकार है। "बिना कुछ सम्बन्धी गाथाएं भी प्रसग वशात् पाई है-लक्ष्मी पौर कहे हो कार्य (दूसरों का) सम्पन्न कर डालने वाले सत्पु- मदिरा के नश का यह विरोधाभास कितना सुन्दर वन रुव विरले ही होते है। बिना पुष्पों के ही फल प्रदान पडा है :
पेच्छह विवरीयमिम बहया, महरा मएइण : पोवा। करने वाले वृक्ष उगते ही कितने हैं। अर्थात् थोड़े ही है। समर्थ एवं सक्षम व्यक्तियों का लक्षण देते हुए कहा लच्छो उण थोवा जह, मएइ ण तहा इर बह्मा।
अर्थात् देखो कितनी विपरीत बात है। बहुत मदिरा गया है-सामर्थवान सत्पुरुष संशय की समुपस्थिति मे
पान करने से नशा चढता है, थोड़ी पीने से नहीं। परन्तु धैर्य तथा संग्राम के समय मे वीरता अपनाते हैं । सुख,
थोडी लक्ष्मी मनुष्य को जितना मत्त बना देती है, उतना दुख दोनों की स्थिति में वे अग सम्मान से रहते है और
अधिक लक्ष्मी नही। यह एक अनुभव सिद्ध तथ्य है और जब सकट का समय होता है तब विचार पूर्वक कार्य
२. वही १०७०। १. सेतु बंध ३।२० ।
३. वही १०७८ ।