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________________ १७२, वर्ष २५, कि०४ अनेकान्त अभिलेखों में १२, १३ वें, १९, २०, २६ वें वर्ष प्रभिलेख है। परन्तु इन अभिलेखों में विषय की दृष्टि से प्रादि का भी उल्लेख है। यह गणना राज्याभिषेक से की सेमानता है। अर्थात गिरनार के प्रथम अभिलेख का जो जाती है। इसी भाषार पर यह गणना भी की जानी विषय है शेष पाँचों शिलाखण्डों के प्रथम अभिलेख का चाहिए । कलिंग विजय से इसकी गणना करने का कोई भी वही विषय है। यही बात मन्य अभिलेखों के सम्बन्ध मौचित्य नहीं है। राज्याभिषेक से गणना करने पर यह में भी चरितार्थ होती है। इनमें से प्रथम चार प्रभिलेख स्पष्ट हो जाता है कि अशोक ने ज्ञन अभिलेखों को उस राज्याभिषेक के १२ वें वर्ष उत्कीर्ण कराए गए हैं। समय उत्कीर्ण कराया था जबकि वह जैनधर्म का अनुयायी कलिंग विजय से सम्बन्धित अभिलेख १३ वा है। यदि था प्रतः ये मभिलेख जैन संस्कृति के प्रतीक हैं। इन समस्त प्रभिलेखों का निर्माता प्रशोक होता तो महत्व देवानांप्रिय शंका-इन सभी अभिलेखों में देवाना तथा समय चक्र की दृष्टि से कलिग विजय अभिलेख को प्रिय का उल्लेख है और यह बौद्ध साहित्य की देन है। प्रथम स्थान मिलता । प्रतः इस अभिलेखका १३वां स्थान वैदिक साहित्य में तो इसका अर्थ 'मूख' है। प्रतः यह बात होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि इनका प्रशो की समझ में नहीं पाती कि जैन होते हुए अशोक ने बौद्ध- अपेक्षा उसके पूर्वजों से कही अधिक सम्बन्ध है । साहित्य के इस शब्द का प्रयोग इन प्रभिलेखों में क्यों प्रथम अभिलेख में यज्ञों मे पश बलि, हिंसात्मक किया ? उत्सवों तथा राजकीय पाकशाला हेतु पशु वध का निषेध समाषान-'देवानां प्रिय' यह शब्द केवल बौद्ध है। यज्ञों में पशुबलि तथा हिंसात्मक कार्यों की तो जैन साहित्य की ही देन नहीं, जैन साहित्य में भी इस मादर मौर बौद्ध दोनों ही धर्मों में समान रूप से निन्दा की गई सूचक शब्द का प्रयोग साधारण जनता से लेकर राजा है । परन्तु बौद्ध धर्म में मास भक्षण का निषेध नहीं है। महाराजामों तक के लिए मिलता है। उदाहरणार्थ महा स्वयं भगवान बुद्ध का शरीरांत भी मांस भक्षण के कारण राजा सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशला को 'देवाणुप्पिया' तथा ही हुआ था । इसके विपरीत जैनधर्म मे मांस भक्षण की भासदों को 'देवाणप्पिए' कह कर सम्बोधित करते है। घोर निन्दा करते हुए मास-भक्षी को नरकगामी की सज्ञा ऋषभ ब्राह्मण भी अपनी पत्नी देवानन्दा के लिए देवाण- दी गई है । अशोक के पूर्वज चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार जैन प्पिया का प्रयोग करता है।' वीर निर्वाण सम्वत १२०६ धर्म के अनुयायी होने से मास भक्षण के विरोधी थे । इस में विरचित पदमपुराण में रविषेणाचार्य ने गौतम गणधर को पुष्टि अरेमाई अभिलेख से होती है। इसमे लिखा है द्वारा राजा श्रेणिक को 'देवानां प्रिय' इस मादर सूचक कि "राजा जीवधारियों को मारकर खाने मे परहेज करता शब्द से सम्बोधित कराया है। इस प्रकार प्रति प्राचीन है।" विद्वान पुरालिपि शास्त्र के प्राधार पर इस अभि. काल से बिक्रम की पाठवीं शताब्दी तक जैन साहित्य में लेख की तृतीय शती ई० पू० के पूर्वार्द्ध अर्थात् चन्द्रगुप्त इस शब्द का प्रयोग मिलता हैं। प्रतः इसे केवल बौद्ध अथवा बिन्दुसार के समय का मानते है।' साहित्य की देन कहना भ्रम है प्रशोक द्वारा अभिलेखों चाणक्य साम्राज्य का महामत्री तथा चन्द्रगुप्त का मे इसका प्रयोग जैन साहित्य के अनुकूल ही है। गुरु था, वह भी पहिसा धर्म में मास्था रखता था, तथा चतुवंश प्रभिलेख-गिरनार, कालसी, शहवाज गढ़ी, मांस भक्षण भौर मृगया का विरोधी था' प्रतः सम्राट मानसेहरा, घोली तथा जोगाढ़ा में से प्रत्येक जगह एक- तथा महामन्त्री द्वारा पारस्परिक विचार विनियम के एक शिलाखंड पर चतुर्दश प्रभिलेख उत्कीर्ण हैं। धौली पश्चात् हिंसात्मक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगाना तथा राज. भोर जौगाहो के शिलाखंड पर एकादश, द्वादश तथा प्रयो- कीय पाकशाला में निमित्त पशुमो के वध को रोकना दश प्रभिलेख नही है। इसके स्थान पर दो पृथक-पृथक ३. डा०राजबलि पाण्डे कृत अशोक मभिलेख प० १९२। १. कल्पसूत्र पृ० १३५, १३६ । ४. चाणक्व प्रणीत सूत्र ५६१ कोटल्य अर्थशास्त्र १० २. वही पु० १३७ । १८२।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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