________________
मुक्तक-काव्य:
(अध्यात्म दोहावलो)
अध्यात्मी (पांडे रूपचन्द] अपनो पद न विचार हू अहो जगत के राय ।
विषयनिसौं दुख झरतु है, विषय नि [सौं] मनिरंगु । भव-वन छाइ कहा रहे, शिवपुर सुध विसराय ।।१ दीपक देखि सुहावनो, ज्यों हठि जगत पतंगु ॥१७ भव-वन वसत अहो तुम्हे, वीत्यौ काल अनादि । चेतन तुम जो परम दुग्बी तातै विषय सुहाहि । अब किन घरहि मम्हारड, कत मुग्व देखत वादि ॥२ भूख मरत ज्यों स्वादु के, मूढ करेला खाहि ॥१८ परम प्रतीन्द्रिय सुखमनो, तुमहि गयो सु-भुलाइ । विषयन मन मति राखिक, रहै प्रतीति जु मानि । किंचित् इदिय मुख लगे, विषयनि रहे लभाइ ।।३ घर भीतर जिम फनि वसं, जब तब पूरी हानि ॥१६ विषयान सेवत हो भले तृष्णा तो न बुझाइ ।
विषयऽभिलाषन छाड हू क्रिया करत हो वाइ । जिमि जलु खारी पीवतो, बाढ तिस अधिकाइ ॥४ घर महि या वटिया ? परै, बाहर गखहु काइ ॥२० तष्णा उपसम कारने, विषयनि सेवत जाइ।
विषयनि की मनसा किये, हाथ पर कछु नाहि । मृगु वपुरो प्यासनि मर, ज्यौ जल धोखे धाइ ।।५ पंडित हुइ अबका मर, अनवाए गरडाहि ॥२१ तुम चेतन सुख के लिये, रहे विषय-सुख मानि । विषयनि की परतीति करि, सोवहु कहा निचीत । जिम कपि शीत विथा मरे, ताप गुजा पानि ॥६ घरु जो तिहारो मूमिए, जागहु काहि न मीत ।।२२ विषयनि सेवन दुख भले, सुख न तुम्हारे जानु ।
जैसी चेतन तुम करी, ऐमी करइ न कोइ। अस्थि चबत निजरुधिरत, यो सुवमानत श्वानु ॥७
विषय-सुखनि के कारण, सरवस बैठे खोइ ।।२३ जिनही विषयनि दुख दियो, तिनही लागत धाय ।
चेतन मरकट मूठि ज्यो, बाध्यो परसौ मोहु । माता मारिउ बाल जिम उठि पुनि पग लपटाइ । विषय गहनि छूट नही, मुनि कहा ते होह ॥२४ विषयनि सेवत् दुखु बढे, देखह किन जिम जोय । चेतन तुम जो पढे सुवा, रहे जनम-द्रुम-झूलि । खाज खुजावत ही भली, पुनि दुख दूनौ होय ॥ विषय करत किन छाडहू, कहा रहे भ्रमभूलि ॥२५ विषय जु सेवत ही भले,, अन्त कहिं अपकार । सुख लगि विषय भजहु भले, सुग्व की बात अगाध । दुर्जन जन की प्रीत ज्यों, जब तब जाइ विकार ।।१० कांजी पिए न पूजइ, सुरहि दूध को साध ॥२६ सेवत ही जे मधुर विषय, करुए होहि निदान |
निजसुख छत सेवे विपै चेतन यहै सयानु । विष फल मीठे खातके, अन जु हरहि परान ॥११ घर पंचामृत छाडिक, माग भीखु अयानु ।।२७ सेय विषय तुम प्राप्त, लयो अनर्थ विसाहि ।
मुग्व स्वाधीन जु परिहग्यो, विषयनि पर अनुराग । पाहि प्रापून बधिरह्यो, ज्यो कमि कोवा माहिं ॥१२ कमल सरोवर छांडि ज्यौं, घट जल पीव कागु ॥२८ चेतन तुम किन मिख दई, विषय सु ग्वनि बौराइ। सेये विषय अनादित, तृप्ति न कहूं सिराइ । रतन लयो शिशु पास तं, ज्यों कछु करदै नाइ ॥११ ज्यौं जलकै सरिता पती, ई घन सिखि न अघाइ २६ लागत विषय सुहावने, करत जु तिन्ह सौ केलि । चेतन सहज सुखहि बिना, यह तृष्णा न बुझाइ । चाहत हो तुम कुशल ज्यौ, बालक फनिसौ खेलि ।।१४ सहज सलिल विनु कहहु क्यो, प्रोसनि प्यास बुझाइ ॥३० विषयनि सेवत सुख नही, कष्ट भले ही होइ ।
चेतन तुम्हे कहा भयो, घरु छोड बेहाल । चाहत हो कर चोकन, निरवगु सलिलु विलो३ ॥१५ सग पराये फिरत हो, विषय सुखनि के ख्याल ।।३१ देखि जो विषय सुहावन, चाहत है सुख सेइ ।
चेतन तुमहि न बझिए, जाके रतन भंडार । । ज्यौं बालक विष फलु भख, वर परिहंस लेइ ॥१६ बड़े करे तुम थापि यह, करत नोच के काम ॥३२