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________________ प्रोम् अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यम्बसिन्धुरविषानम् । सकलनवविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष २५ किरण १ वर्ष २५ } मार्च । । बोरसेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-८ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ बीर निर्वाण संवत् २४६८, वि० सं० २०२८ प्रप्रल १६७२ शम्भव-जिन-स्तति न चेनो न च रागादि चेष्टा वा यस्य पापगा। नो वामः श्रीयतेऽपारा नयश्रीवि यस्य च ॥१८ प्रतस्वनमाचारं तन्वावातं भयाद रुचा । स्वया वामेश पायामा नतमेकाचं शंभव ॥१९ -प्राचार्य समन्तभद्र अर्थ-जिनके पाप बन्ध कराने वाली रागादि चेष्टाओं का सर्वथा अभाव हो गया है और जिनकी अपार नय लक्ष्मी को भूमितल पर मिथ्यादष्टि लोग प्राप्त नहीं हो सकते, ऐसे इन्द्र चक्रवर्ती प्रादि प्रधान पुरुषों के नायक ! अद्वितीय पूज्य ! हे शंभवनाथ जिनेन्द्र ! आप सबके स्वामी हैंरक्षक हैं, प्रतः अपने दिव्य तेज द्वारा मेरी भी रक्षा कीजिये। मेरा प्राचार पवित्र और उत्कृष्ट है। मैं संसार के दुखों से डर कर शरीर के साथ आपके समीप पाया है। भावार्थ-मैं किसी का भला या बुरा करूं इस तरह राग द्वेष से पूर्ण इच्छा और तदनुकूलक्रियाएं यद्यपि वीतराग के नहीं होतीं तथापि वीतराग देव की भक्ति से शुभकर्मों में अनुराग (रस) मधिक पड़ता है, फलतः पापकर्मों का रस घट जाता अथवा निर्बल पड़ जाता है और अन्तराय कर्म बाधक न रहकर इष्ट की सिद्धि सहज ही हो जाती है। इसी नय दष्टि को लेकर अलंकार की भाषा में माचार्य समन्तभद्र भगवान शंभवनाथ से प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं संसार से डरकर पापकी शरण में आया हूँ, मेरा माचार पवित्र है और मैं आपको नमस्कार कर रहा हूं। प्रतः पाप शीघ्र मेरी रक्षा कीबिये; क्योंकि पाप इस कार्य में समर्थ हैं-आपकी शरण में पहुंचने से रक्षाकार्य स्वतः ही बिना पापको इच्छा के बन जाता है ॥१८-१६।।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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