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________________ ७२, १२५, कि० २ भनेकान्त हन, तब धीरे-धीरे जैन धर्म लुप्त हो गया। ईसा की ऊपर महाविहार का निर्माण किया था, उस समय से यह सातवी शताब्दी मे चीनी परिव्राजक हुएनत्साग जब 'सोमपुर महाबौद्ध विहार' के नाम से इसकी प्रसिद्धि हो बगाल में पाया तब उसने पुण्ड्वर्षन में २. सधारामों गई थी। यहीं पर 'दीपंकर' नाम के बौद्धाचार्य ने भव. और प्रसंख्य जन नियंन्थियों के अस्तित्व का उल्लेख किया विवेक के माध्यमिक रत्नद्वीप का अनुवाद किया था। ससे उस समय मे पुण्ड्वधन में जन प्रभाव के प्राकत गुप्त वर्ष १५९ (सन् ४७८ ७६) मे एक ब्राह्मण नाथ होने का प्रमाण मिलता है। और बटगोहाली का यह शर्मा और उसकी भार्या राम्नी ने बटगोहाली ग्राम मे गुहन्दी का जैन विहार भी पौण्ड्रवर्धन और कोटिवष के पंचस्तूपान्वय निकाय के निर्ग्रन्थ (धमण) प्राचार्य गुह जैन संस्थानों की तरह अति ग्रस्त हो गया। सातवीं नदी के नन्दी के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अधिष्ठित बिहार में भग प्रतियोगी शताब्दी तक जैनियों का प्रभुत्व रहा और पाठवीं शताब्दी वामपनों (जो वान महंतों (जैन तीर्थङ्कगें) की पूजा सामग्री (गन्ध धूप में कल समय ब्राह्मणों का भी अधिकार रहा है। जब आदि) निर्वाहार्थ तथा निग्रंथाचा गृहनन्दि के विहार वहाँ पुनः शान्ति हुई और पाल राज्य प्राठवीं शताब्दी मे मे एक विधाम स्थान निर्माण करने के लिए यह भूमि - स्थित हपा उस समय यह स्थान सोमपुर' के नाम से सदा के लिए इस विहार के अधिष्ठाता बनारस के पंचप्रसिद्ध हो चुका था। स्तूप निकाय संघ के प्राचार्य गुहनन्दि के शिष्य प्रशिष्यो पाल राजामों का अधिकार यहाँ साढ़े तीन सौ वर्षों को प्रदान की गई। तक रहा, पाल नरेश बौद्ध धर्मावलम्बी थे। उनके समय प्रस्तुत गुहनन्दि पवस्तूपान्वय के प्रसिद्ध विद्वान थे। जैनियों की प्रधानता विनष्ट हो गई। जैन विहार पर पचरतुपान्वय की स्थापना पदबली ने की थी। जो उनका अधिकार हो गया, नवमी शताब्दी के प्रारम्भ में पौण्डवर्धन के निवासी थे। पण्डवर्धन जैन परम्परा का पाल वंश के दूसरे सम्राट् धर्मपाल ने इसी विहार के केन्द्र रहा है। अतः गुहनन्दि का समय इस ताम्र शासन १. पहाड़पुर से दक्षिण की भोर एक मील पर अब सोम के काल से पूर्ववर्ती है। सम्भवतः वे दूसरी या तीसरी ग्राम है। वही सोमपुर है। शताब्दी के प्राचार्य होना चाहिए। ★ [पृष्ठ ७० का शेषांस] लगे । कुछ गोत्रों के नाम कालान्तर मे भ्रश हा गये छोटे व्यापारी मोदी कहलाते है। इसी तरह राज्यइस तरह एक ही गोत्र नाम के कई स्वरूप हो गये । बहुत मान्यता के कारण पटवारी होते है। देखिये दुगैले(ज० स० से लोगों को गोत्र नाम का स्मरण ही नही रहा। प्रादि केवल एक) साह हैं । छोड़कटे (ज० स० १६) साह व इनके लिए विशेष अध्ययन को अावश्यकता है। पटवारी हैं। पंचरत्न (ज० सं० १३) पटवारी है। अन्य ___एक विशेष बातका पता चलता है । जो सपन्न रहे है कम जन-संख्या वाले गोत्रों में भी अधिकतर साह या उनकी वंशवृद्धि अधिक हुई है। सिंघई, सवाई सिंघई, मोदी ही कहलाते हैं। [पाकड़े म० भा० दि० गो० सेठ व सबाई सेठ पद क्रमशः एक, दो, तीन व चार गज. डायरेक्टरी के प्राधार पर है] रव-प्रतिष्ठा के बाद प्राप्त होते है ये पद पूर्वजों की साह (या साधु) कहलाने की परपरा तो प्राचीन ही समृद्धि के सूचक है। गोलापूबों में मबसे अधिक फुसकेले है। गोलपूर्व सिंघई का प्राचीनतम उल्लेख धुवारा के स० गोत्र के हैं (जनसंख्या १६८७, सभी प्रांकड़े सन् १९४० १२७२ के लेख में है। [५० भा० दि० गो० डायरेक्टरी] है। सिघई, सवाई सिंघई व सेठ पदों के धारक है। पटवारी व चौधरी के उस्लेख गजबासौदा के १५२४ व बाग (ज० सं० १५०५) सिं० स० सि०, सेट व सवाई स० १५४१ के लेख में है। [भनेकान्त जुलाई '७१] निठहैं। चदेरिया (१२३५) सि० पोर स० सि. है। नोट :-१.कट मे फुटनोट है। डेले (ज. स. १२०४) अधिकलर सि० व सेठ है। २. जहां पर रिफरेश नही दिये मये है वह स्वय उपर सामान्य श्रावक साह (साधु) कहलाते है। को जानकारी के माधार पर लिखा गया है।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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