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गुप्तकालीन जैन ताम्र शासन
परमानन्द जैन शास्त्री
बंगाल के राजशाही जिले में बदलगाछी थाने के इस प्रान्त की राजधानी पुण्ड्रवर्धन थी । अाजकल यह अन्तर्गत और कलकत्ता से १८६ मील उत्तर की ओर स्थान महास्थान के नाम से प्रसिद्ध है। प्राचीन काल में जमालगंज स्टेशन से ३ मील पश्चिम की ओर पहाड़पुर उसे ही पौण्ड्रवर्धन कहा जाता था। जो पहाड़पर महाहै। इस प्राचीन मन्दिर के ध्वसावशेष ८१ बीघो मे है। स्थान से उत्तर पश्चिम की ओर २६ मील पर, वानगढ़ उनके चारो ओर इष्ट का निर्मित प्राचीर है। इनके मध्य (प्राचीन कोटि वर्ष) से दक्षिण-पूर्व को मोर ३० मील में एक बहुत बड़ा टीला है, इसी कारण उसे पहाड़पुर पर अवस्थित है। इन दोनो प्रधान नगरो के समीप इस कहा जाने लगा।
मन्दिर को स्थापित करने का यह प्राशय था कि त्यागी इस टीले मे सबसे प्राचीन ध्व सावशेष गुप्ताब्द १५६
गण नगरो से बाहर एकान्त मे रहकर शान्ति से धर्मलाभ का एक ताम्र पत्र प्राप्त हुआ है। यहाँ की उपलब्ध
के साथ विद्याध्ययन करे और नगर-निवासियों को भी
धर्मोपदेश का लाभ मिलता रहे। उस समय पौण्ड्रवर्घन सामग्री की जांच-पड़ताल करने से यह ज्ञात होता है कि
और कोटि वर्ष जैनाचार्यों के प्रधान पट्ट स्थान भी थे । यह पहाड़पुर जैन, ब्राह्मण और बौद्ध इन तीन महान धर्मों का उच्च विवर्धक केन्द्र रहा है । अतएव विभिन्न स्थानो
इस कारण वहाँ जैनियो का पूर्ण प्राधान्य था। वह एक से यात्रियों का दल पाकर अपनी भक्ति प्रदर्शित करता
तरह से जैन केन्द्र बना हुपा था । भद्रबाहु श्रुतकेवली और था। और भारत के विभिन्न स्थानो से अनेक छात्र
अहंदवली प्राचार्य पौण्ड्रवर्धन के ही निवासी थे। मुनि विद्याध्ययन करने के लिए पाते थे। जान पड़ता है यह
यह सघ का वहां पर बराबर आवागमन होता रहता था। स्थान बहुत पुराना है किन्तु पाँचवी शताब्दी के पूर्वार्ध से
गुप्त साम्राज्य के समय यद्यपि जनो की प्रधानता दशवी शताब्दी तक इसकी विशेष ख्याति रही है।
रही, किन्तु धीरे-धीरे ब्राह्मणों का प्रभाव भी बढता रहा ।
हाँ, वौद्धो का प्रभाव वहा उस समय बहुत ही कम था। इस गुप्ताब्द १५६ (सन् ४७८-७६) के इस ताम्र
इसका अनुमान चीनी यात्री के कथन से स्पष्ट हो जाता शासन में बटगोहाली ग्रामस्थ श्री गुहनन्दी के एक जैन
है। उस समय यहाँ का वातावरण पूर्णतः सहिष्णुता का विहार का उल्लेख है । इसमें पूवर्धन के विभिन्न ग्रामों
था, क्योकि यहाँ जैन बोद्ध और हिन्दू तीनों ही सम्प्रदायों में भूमि क्रय कर एक ब्राह्यण दम्पति द्वारा वटगोहाली के
की प्राचीन सामग्री उपलब्ध हुई है। जैन विहार के लिए दान दिया जाना लिपिबद्ध किया गया छठबी शताब्दी में किसी समय इस मन्दिर के बढ़ाने है। लेख उल्लिखित वटगोहाली का जैन विहार निश्चय
की योजना की गई और अट्टालिकाओं की ऊंचाई से पहाड़पुर के इस मूल स्थान पर अवस्थित था।
को बढ़ाया गया, जिससे सम्भवतः प्राचीन अट्टालिका सन् १९०७ में डाक्टर बुकानन हैमिलटन को यह पाच्छादित हो गई। छठी शताब्दी से गुप्तों का प्रभाव टीला गोपाल भीटा का पहाड़ के नाम से बतलाया गया क्षीण होता गया और सातवी शताब्दी के प्रारम्भ में बंगाल था, जिसके अन्दर से यह मन्दिर निकला है।
में महाराजा शशांक का प्राधिपत्य हो गया । शशांक शेव ईस्वी पूर्व तृतीय शताब्दी मे उत्तर बंग मौर्यों के धर्मावलम्बी था, उसने जैन और बौद्धों को बहुत ही शासनाधिकार में था। और पुण्डवर्धन नगर में उनका सताया था। तो भी जैनों के पांव यहाँ से नहीं उखड़े। प्रान्तीय शासक रहता था। गुप्त काल में भी बगाल के इस शताब्दी में ही जव बंगाल मे अराजकता का विस्तार