SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्व० श्री राजकिशन जी स जाती येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम भी बन जाता है। साधारण स्तर से ऊचा उठकर वह परिवर्तनि ससारे मनः को वा न जायते । अपने पूर्व कालीन मित्रों एवं सहयोगियों को भूल जाता मरणशील इस संसार मे उन्ही व्यक्तियो का जीवन है लेकिन ये सव दूषित वृत्तियां राजकिशन जी के जीवन अभिनन्दनीय समझा जाता है जिनम जन्म लेने से देश, से सदा दूर रही है और इस रूप में उनका जीवन पादर्श धर्म, जाति व वश की उन्नति हो .कार दिये नीतिहनोक रहा है। में वंश शब्द उपलक्षण सामथ्र्य से देश, धर्म, जाति का भी लक्ष्मी और यश की प्राप्ति पुण्य सम्पदा का फल प्राहक होता है। वैसे तो परिवर्तनशील इम संसार में होते है । इसमे दो राय नहीं हो सकती । सागरण व्यक्ति मरने तथा उत्पन्न होने का नक्र प्रनादिकाल से चला पा जिस पुण्य सम्पदा से लक्ष्मी की प्राप्ति कर लेता है उसकी रहा है। लोग जन्मते संथा मरते है लेकिन सफल जीवन तरफ से उदासीन हो जाता है लेकिन राजकिशन जी का दाले व्यक्ति ही ससार में इलाषा तथा अनुकरण के पात्र जीवन इस विषय मे भी असाधारण ही रहा है उन्होंने बनते हैं। धन कमा कर धर्म को भुलाया नहीं दरियागज क्षेत्र में ऐसे अनेक कार्य हैं जो उनके धर्म प्रेम एवं परोपकार प्रवणता को प्रगट करते हैं । दरियागज न०१ में विशाल जिन भवन, पारमार्थिक प्रौषघालय, अहिंसा भवन, सर. स्वती भवन मादि.ऐसी सस्थाए है जो श्री राजकिशन जी के धर्म प्रेम को प्रगट करती है । ..श्री राजकिशन जी इस विषय में विशेष यशस्वी एव भाग्यशाली रहे कि वे अपने पीछे एक विशाल भरापूरा परिबार छोड़ गये है । मनुष्य जो अपने जीवन मे ही अपने. पुत्र, पौत्र, प्रपोत्र, प्रप्रपौत्र प्रादि को देख लेता है भाग्यशाली समझा जाता है। प्राज श्री राजकिशन जी के परिवार में पुरुष-स्त्री सभी सदस्य उच्च शिक्षा प्राप्त एव धर्मानुयायी हैं। वीरसेवा मन्दिर २१ दरियागज दिल्ली, जिसके प्रसिद्ध पत्र "अनेकान्त" में यह उनकी जीवन सस्तुति प्रकाशित हो रही है, से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध था। इस स्व. श्री राजकिशन जैन सस्था के विशाल भवन निर्माण में उनका क्रियात्मक सहराजधानी के दरियागज क्षत्र में श्री राजकिशन जी योग सदा ही मिलता रहा है। इस विशाल भवन की जिनका निधन ४ फरवरी १६७३ को प्राकसरी निर्माण भूमि उपलब्धि मे भी श्री राजकिशन जी ने विशेष योग दिया है। व्यक्ति थे जिनकी कर्मठता, धम-प्रेम भोर सात्विक " क श्री राजकिशन जो मेरे घनिष्ठ मित्र थे उनके जीवन वृत्ति का स्मरण कर लोग कुछ प्ररणा ले सकत है। श्रा को सस्तुति करता हमा मैं यही माशा करता हूँ कि उनके राजकिशन जी अपनी 47क सम्पत्ति से विशेष धनी नही परिवार के लोगों में उनकी कर्मठता, धर्म प्रेम, पर थे माज जो लाखो रुपयो की सम्पत्ति वे छोड गये हैं वह साहाय्यभावना सदा सजग रहे मोर Worthy, Fathers. सब उनके सतत् श्रम एव व्यापारिक सूझ-बूझ का ही worthy Son को कहावत के अनुसार वे सब योग्य, परिणाम है। सम्पत्ति को पाकर साधारणत: लोगो में योग्यतर एव योग्यतम बने । अभिमान की मात्रा बढ़ जाती है वह व्यसनो का शिकार -मथुरादास जैन एम. ए..
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy