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________________ लाडनूं की एक महत्वपूर्ण दिन-प्रतिमा १४७ हार, भुज बन्ध, मणि बन्ध तथा नूपुर पहने प्रत्यन्त पाक- भाव-सौन्दर्य का प्रभाव है तथापि इसमें लय, सन्तुलन, बंक ढंग से त्रिभंग मुद्रा में खड़ी जिन को निहार रही हैं। रेखामों की तीक्ष्णता तथा पंकन की कुशलता स्पष्ट दृष्टिउन्होंने चोली तथा अधोवस्त्र पहन रखे हैं जो सुन्दर कटि- गत होती है तथा मध्य-युगीन प्रतिमामों की निरुद्ध दनं. बन्धों से बद्ध हैं, जानुमों पर प्रधोवस्त्र की प्रन्थियां भी म्यता, कठोरता निर्जीव मावृत्ति, पलङ्कारों की अधिकता. बहुत सुन्दर हैं। बालों को पिंगलोद्ध ढंग से-पीछे को गति-प्लानता मादि भी नही है। प्रचुर कलात्मक उत्कर्ष कंघी कर ऊपर जूड़ा बना कर, संवारा गया हैं । प्रभा- से युक्त यह एक भव्य एवं महिमामय दृष्टान्त है जिसे मण्डल के दोनों पोर छत्र के पीछे छिन्न वृक्ष के पत्रों एव कलात्मक दृष्टि से ७००ई०के पास-पास की कृति माना पुष्पों को बड़ी कुशलता से पङ्कित किया गया है जिन पर जा सकता है। उडीयमान मुद्रा में हाथों मे पुष्प मालाएं लिए वस्त्रा. इस प्रकार हम देखते हैं कि यह प्रतिमा लाडनू के भूषण पहने विद्यारियां दिखाई गई है (चित्र १)। प्रयतन प्राप्त अवशेषों में प्राचीनतम है। इससे सातवीं यद्यपि इस प्रतिमा में गुप्तकालीन प्रतिमानों के पाठवीं शताब्दी में लाइन के अस्तित्व, इस क्षेत्र मे जेन३, इस चित्र के लिए मैं श्री जयन्ती लाल जी (जैन। धर्म की लाकप्रियता, तत्कालीन वस्त्राभूषणों एवं कला का चित्रालय, लाइन का प्राभारी हूँ। पता चलता है पतः यह एक प्रत्यन्त महत्वपूर्ण प्रतिमा है। "जिनो मोर जोने दो" के सिद्धान्त पर एक वैज्ञानिक प्रकाश ___'फूल' भावुक होते हैं "हिन्दुस्तान टाइम्स" अंग्रेजी दैनिक के २७-२-७३ के अंक में प्रकाशित समाचार के अनुसार सोवियत वैज्ञानिकों ने जिरेनियम (एक फूल का नाम) के एक पौधे मे भाबुकता के लक्षण प्रमाणित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। "सोशलिस्ट इण्डस्ट्री" सत्र के अनुसार, उनका कहना है कि पौधे भय, खुशी, दर्द और उल्लास का "अनुभवन कर सकते हैं। डा. वी. पुश्किन ने कहा कि वैज्ञानिकों ने प्रसन्नता तथा दुःख की भावनामों को जागृत करके एक व्यक्ति को सम्मोहित (hypnotize) किया। उन यन्त्रों में भी उसी के अनुरूप प्रतिक्रियाएं पाई गई जो दूर पर विरेनियम को एक पत्ती से जोड़ दिए गए थे। मनोवैज्ञानिकों ने दर्शाया कि यदि पौधों से नम्रता से बात की जाय तो वे अधिक प्रच्छे ढंग से बढ़ सकते है। पाज से बहुत वर्ष पहले भारत के वरिष्ठ वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र वसु ने भी कतिपय प्रयोगो द्वारा वनस्पति मे प्रोत्मा (जीव) होने के सिद्धान्त को सिद्ध किया था। प्रथम प्रयोग उसका यह था कि वह अपने उद्यान मे बैठा था यकायक समीप प्रदेश में स्थित किसी चिमनी का धुमां उसके उद्यान मे पाया और तब उसने देखा कि उसके कतिपय पेड़ों की काया पलट हो गई यानी वे मुरझा गए । घूमां के स्पर्श से पूर्व पेड़ों की जो प्रसन्नमुद्राची वह न रही। वैज्ञानिक को इस परिवर्तन से दुःख हुमा और उसने जिस द्रव्य के धुएं से पेड़ों की यह अवस्था हई उसे अपनी प्रयोगशाला में लाकर उसका प्रयोग किया। फलतः उसको मालूम हुमा कि जैसे मनुष्य व पशु स्वास्थ्यप्रद खराक खाकर पूष्ट पौर विर्षली खुराक खाकर क्षीण होते हैं वही स्थिति पेड़ों की भी है। इसी सिद्धान्त के माघार पर उसने वनस्पति में जीव तत्त्व की स्थिति को सिद्ध किया। जैनधर्म में हजारों वर्ष पूर्व से ही तत्वदर्शी प्राचार्यों ने वनस्पति में जीव तत्त्व को माना है और उसके प्रति सदय एवं सहृदय रहने का उपदेश दिया है । जैनधर्म में वनस्पति को एकेन्द्रिय जीव माना है। -महेन्द्रसेनन
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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