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मुक्तक काव्य (अध्यात्म दोहावली)
अध्यात्मी पांडे रूपचन्व
(गत किरण २ से मागे) अपने रस जो (में) लवण ज्यो, विश्व विर्षे चिद्रूप। शुद्ध निरन्जन ज्ञानमय, निहचै नय जो कोय । शुद्ध बुद्ध मानन्द मैं, जानहुँ वस्तु स्वरूप ॥ ६५ प्रकृति मिले व्यवहार के, मगन रूप है सोय ॥ ८० मैन गयो गलि मूसि मैं, वारिषु अंबर होय । निहर्च नय न प्रमत्तजो, अरु अप्रमत्त न होय । पुरुषा कार जु ज्ञान में, वस्तु सुजाने कोय ॥ ६६ गुण संज्ञा व्यवहार सो, पावं जानक सोय ।। ८१ वस्तुत्व-मिव चैतन्य मैं, लिये छिप जो नांहि । निहचं मुकत स्वभाव ते, बन्ध कहयो व्यवहार । जदपि सु नव तत्वनि मिल्यो, मिले न काहू मांहि ।। ६७ एव मादि नय जुगति के, जानह वस्तु विचार ।। ८२ तनु-मन-वचन प्रगम्य है, इन्द्रियनि ते पुनि दूरि । नय-प्रमाण निक्षेप के, परखि गहह निज वस्तु । वस्तु सु अनुभव ज्ञान के, गम्य कहे निज सूरि ।। ६८ चिन्तामणि ज्यों कर चढ़े, त्यो कर चढ़यो समस्त ॥८३ वस्तु सुजानहु जिहि विष, गुन-परजय सहवासु । जिहि देखें सब देखिए, जाये सब जिहि जानि । मरु जिहिं संतत ही घटे, पिति उत्पत्ति विनासु ।। ६६ जिहिं पाये सद पाइये, लेह न तबहि पिछानि ।। ८४ सहभावी गुन जानिए, वस्तु विषानु जु काय। चेतन चित परचय बिना, जप तप सबै निरत्यु। क्रमवर्ती परजय कहपो, वस्तु विकार जो सोय ॥ ७० कण बिनु तुष जिमि फटक रौं, मावै कछु न हत्थु ॥ ८५ उपजे बिनु जो ऊपज, नाशे विनु जु नशाय । चेतन सो परच्यो नही, कहा भर व्रत धारि । जैसो को तैसो रहे, वस्तु सु प्रति परजाय ॥ ७१ सालि विहून खेत की, वृथा बनावत बारि ॥ ८६ नित्या नित्यादिक विविध ! धर्ममय जु नरु पाहि। तो लगि सब रुचत हैं, मरु सब विषय कहानि । झगरत विमल जि रूप के, मंष दन्ति विधि ताहि ॥ ७२ ज्यों लगि चेतन तत्व सौ, नहीं कहूँ वच हानि ॥८७ नय विभाग विनु अन्ध ते, कल्पित जुगति बनाय। बिना तत्त्व परिचै लगत, अपरभाव अभिराम । वस्त स्वरूप न जानहीं, मरत बहिर मुख धाय ।। ७३ ताम मोर रस रुचत हैं, अमृत न चाख्यो ताम || भनेकान्त मत वादिनी, जिन वानी जु रमाय । सुने परिचये अनुभवे, वार-वार परभाव । मित्या नित्यादिक घटा, ताकेबय समाय ॥ ७४ कबहुँ भूलिन परिचये, शायक शुद्ध स्वभाव ||EE जिन वाणी तप भेद के, या दो पक्ष । कहा कहा न भई, तुम्हें, सुर नर पद की रिद्धि । ता बिनु मुनि बित मोह क्यों, लखते बस्तु मलक्ष ॥ ७५ पर कबहूँ भूलि न भई, चेतन के वल सिद्धि ॥६० व्यंजन पर्यय मित्य जो, मिहचं नय समवाय . मनादि दर्शन मोह तै, रही न सम्यक् दृष्टि । भ्यवहार सु वस्तु है, क्षणिक अर्थ परजाय॥ ७६ तात' चेतन तत्व सों, भई न कबहूँ वृष्टि ।। ६१ निहर्ष तप जो वस्तु है, शायक रूप एकु। जो लगि मोह न उपश मैं, सति जति का ले पाय । दर्शन ज्ञान चरित्र के व्यवहारे सु भनेक ।। ७७ तो लगि निर्मल दृष्टि बिनु, तत्त्व न जान्यो जाय ।। ६२ ममूरतीक स्वभाव के, निहंच के यु विचारु। प्रन्थ पढ़े मरु तप तपै, सई परीषह मांहि । मूरतीकु सो बापते, बस्तु कहपो विवहार ।। ७८ केवल तत्व पिछानि बिनु, कह नही निरवाहि ।। ९३ निहचं तप परमाव के, करता भुक्ता नाहिं। चेतन तुम जु मनादि ते' कर्म कर्म यहि फेरि । + METर ज्यौं. सकर भगत नाहिं ।। ७६ समल ममल जल ज्यों भरे, सहत स्वभावहि मेटि ।। ६४
(शेष पृ० ६३ के नीचे)