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________________ विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के पुरातत्त्व संग्रहालय की अप्रकाशित जैन प्रतिमाएँ डा. सुरेन्द्रकुमार प्रार्य एम. ए. पी-एच. डी. प्राचीन भारतीय मूर्ति कला के क्षेत्र में मालव भूमि गभ, वाकाट, सोम प्रादि शक नरेश उज्जयिनी में प्रारका विशिष्ट महत्व है। सांची, घार, दशपुर (मंदसौर), म्भिक शक शासक थे जिन्हें कालकाचार्य नामक जैन मुनि बदनावर, कानवन, बड़नगर, उज्जैन, मक्सी, नागदा, ने गर्द भिल्ल नामक इन्द्रियासक्त शासक से अपनी बहन भौंरासा, देवास, आष्टा, कायथा, सीहोर, सोनकच्छ, सरस्वती को बचाने हेतु शक स्थान से निमंत्रण देकर गंधावल, नेवरी कन्नौद, सुन्दरसी' बागली, जावरा, नीम- बुलाया था।' इन्हीं शकों का उच्छेदन विक्रमादित्य नामयूर, बड़वानी, झारड़ा, करेडी, जामनेर, गोंदलमऊ, घारी व्यक्ति ने ५७ ई. पू. में किया था जिसे जैन मागम भागर, नलखेडा, महीदपुर, बिलयांक प्रादि ऐसे कला केन्द्र ग्रन्थों में जैन धर्मानुयायी कहा गया है। हैं जहां ब्राह्मण धर्म की प्रतिमानों के साथ जैन धर्म की सिद्धसेन दिवाकर के विषय में कहा जाता है कि मूर्तियां मिलती हैं। साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर तो इन्होंने उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर की शिव प्रतिमा चंडप्रद्योत ने स्वयं जैनधर्म में दीक्षित होकर महावीर को जिन प्रतिमा में परिवर्तित कर दिया था। क्षपणक की चन्दन निर्मित मूर्तियों को उज्जयिनी, दशपुर एवं को कुछ विद्वानों ने सिखसेन दिवाकर से तदात्म्य किया विदिशा में स्थापित किया था। उज्जैन के गढ़ उत्खनन है। विक्रम नामधारी गुप्त शासकों के ९ रत्नों में ये (१९५३-५४) से प्रद्योत निर्मित काष्ठ प्राचीर के अवशेष प्रसिद्ध थे। परन्तु उज्जैन के जैनावशेषों में १०वीं शताब्दी तो मिले हैं, परन्तु ईसापूर्व की शताब्दियों से सम्बन्धित के पूर्व के किसी भी प्रतिमावशेष के प्रमाण नहीं मिले हैं । किसी जैन प्रतिमा के पुरातात्विक प्रमाण नही मिले। साहित्यिक प्रमाणों मे उज्जैन में जैनधर्म के पर्याप्त सा की प्रथम शताब्दी में मौर्य वंश के कुणाल व विकास के अनेक उल्लेख प्राप्य हैं जिनसे प्राचीन भारत संप्रति नामक शासकों का उज्जयिनी पर माधिपत्य ग्रहण की प्रमख नारियों की भांति उज्जयिनी में भी यह धर्म व तत्पश्चात् यहीं से जैनधर्म के प्रचार को सूचनाएं जन पूर्ण रूपेण प्रचलित था। मागम प्रन्थ देते हैं। डा० देव का कहना है कि जो कार्य परन्तु प्रस्तुत विवरण में उज्जैन के विश्वविलयाय में व श्रम प्रशोक ने बौद्ध धर्म के विस्तार के लिए किया था नवनिर्मित पुरातत्व संग्रहालय की 'तीर्थकर दीर्घा' में वही जैन धर्म के प्रचारार्थ उज्जयिनी के संप्रति ने किया विद्यमान प्राचीन तीर्थकर प्रतिमानों का वर्णन लिया गया या देखें-जैन मोनाकिज्म, पृष्ठ १४) संपति ने उज्ज- है। प्रतः उसी तक सीमित रखा गया है। निमी में अनेक जिन मंदिरों का निर्माण करवाया व विक्रम विश्वविद्यालय का पुरातत्व संग्रहालय प्राचीन मूर्तियों की स्थापना की। जैन पागम ग्रन्थ संपत्ति को मालवा व उज्जयिनी के अवशेषों से सम्पन्न है । नगर के , 'जैन धर्म कुसुम, कहते थे। शकों के साथ कालकाचार्य प्रमुख जनावशेष सुरक्षा प्रेमी व जैन संग्रहालय के उत्साही का प्रसिद्ध कथानक जुड़ा हुआ है, और अब इधर के कार्यकर्ता श्री सत्यंधर कुमार जी सेठी के भाग्रह से संग्रसिक्कों की प्राप्ति से यह प्रमाणित हो चुका है कि हमु- हालय में एक 'तीर्थकर दीर्षा' का निर्माण किया गया १.त्रिषष्ठि शलाका, पुरुष चरित, पर्व १०, सगं २, २. जर्नल मॉफ इण्डियन न्यूमेस्मेटिक सोसाइटी, १९७१, पृ० १५७ । के. डी. वाजपेयी का लेख।
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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