SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पं० दौलतराम कासलीवाल तौर पर उल्नेखनीय है' ! उसमे मे ऋमदास जी के उप. कील बन कर उदयपुर गये । उदयपुर में पडित जी जयदेश से पंडित दौलतराम जी को जैन धर्म की प्रतीति हुई पुर के तत्कालीन राजा सवाई जयसिंह और उनके पुत्र थी और वह मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्वरूप ने परिणित माधवमिह जी के वकील अथवा मत्री थे। उनके संरक्षण हो गई थी। इसी से पडित जी ने भगवान ऋषभदेव का का कार्य भी पाप ही किया करते थे। उस समय उदयजयगान करते हुए उनके दास को सुखी होने की कामना पुर में राणा जगत सिह जी का राज्य था और वे उन्हे व्यक्त की है। जैसा कि पुण्यास्रव कथा कोष टीका प्रशस्ति अपने पास ही रखने थे । जमा कि उनकी सं० १७६८ म गत निम्न दो पद्यों से स्पष्ट है-- रचित 'अध्यात्म बार खडी, की प्रशासक निम्न पद्यों से ऋषभदास के उपदेश सौं, हमें भई परतीत । प्रकट हैमिथ्यामत को त्याग के, लगी धरम सौं प्रीत। वसवा का वासी यहै अनुचर जय को जानि । ऋषभदेव जयवत जग, सुखी होहु तसु दास । मंत्री जय सुत को सही जाति महाजन जानि ।। जिन हमको जिन मत विष, कियौ महा जुगदास । जय को राखै राण पै रहे उदयपुर मांहि । प० दौलत राम जी को प्रागरे मे रामचंद्र मुमुक्षु के जगत सिह कृपा करै राखे अपने पांहि ।। 'पुण्यास्रव कथा कोष' नाम के ग्रन्थ को सुनने का अवसर इसके अतिरिक्त स. १७६५ मे रचित क्रिया कोष मिला था और जिसे सुनकर उन्हे अत्यत सुख हुमा, तथा की प्रशस्ति मे भी वे अपने को जयमुत का मन्त्री और उसकी भाषा टीका बनाई। उक्त कथा कोष की यह जय का अनुचर व्यक्त करते है। चूकि राणा जगत सिंह भाषा टीका स. १७७७ मे समाप्त हुई। इसके पश्चात् जी द्वितीय का गज्य संवत् १८६० से १८०८ तक रहा पं. दौलतराम जी स. १७८६ के पास-पास' जयपुर के है । अतः पडित जी का स०१७६८ मे जगासह जी की १. देखो पुण्डास्रव टीका प्रशस्ति । कृपा का उल्लेख करना समुचित ही है। क्योकि वे वहाँ २. सवत् सत्रह सो विख्यात, सं० १७६५ से पूर्व पहुँच चुके थे। ता ऊपरि धरि सत्तरि अरु सात । उदयपुर मे धान की मडी के अग्रवाल दिगम्बर भादव मास कृष्ण पख जानि, जैन मंदिर मे प्रवचन करते थे । उसमे अनेक साधर्मी जन तिथि पाँचे जानो परवानि ।। २८ पाकर शास्त्र श्रवण करते थे। इससे वहां के निवासी रवि सुत को पहलो दिन जोय, श्रावक-श्राविकानो मे तथा प्रागतुक साधर्मी जनो मे जैन पर सुर गुरु के पीछे होय।। धर्म के प्रति विशेष उल्लास और जिन वाणी के प्रति श्रद्धा वार है गनि लीज्यो महो, का प्रचार हुग्रा। उनके जीवन मे धार्मिक वातावरण बना। तादिन ग्रन्थ ममापत सही ।। २६ सायमियो के धार्मिक बात्मल्य में वृद्धि हुई। वहां ३. सन् १९२६ (वि. स १७८६) मे जयपर नरेश सवाई उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना व टीकादि का निर्माण जयसिंह जी माघोमिह और उनकी माता चंद्रकुवरि को किया । पडित जी वहाँ राजकार्यों का विधिवत् संचालन लेकर उदयपुर गये है और उनके लिये 'रामपुरा' का करते हुए जैन ग्रन्थों के अभ्यास में समय व्यतीत करते परगना दिलाया गया है। देखो; राजपतान का इतिहास थे। और अपने दैनिक नैमित्तिक कार्यों के साथ ग्रहस्थो. चतुर्थ खण्ड । चित देव पूजा और गुरू उपासनादि षट् कमो का भी इससे मालूम होता है कि सवाई जयसिंह ने इसी भली भांति पालन करते थे। जिससे उस समय वहाँ के न हीलत. स्त्री पुरुषों में धर्म का खासा प्रचार हो गया था। और राम जी को भी उदयपर रखा होगा। इससे पूर्व वे अपने प्रावश्यक कर्तव्यों के साथ स्वाध्याय नस र राज्य कार्य और सामायिकादि कार्यों का उत्साह के साथ विधिवत करते रहे होंगे। ४. देखो, रायमल्ल का परिचय, वीर वाणी अंक २.
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy