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________________ मान-दीप जलामो हटाकर ज्योनि का करना, यही बुद्धिमानों का मभीप्सित धनी व्यक्ति जिस पद की वापथ लेता है उसकी योग्यता घन है। के स्वानुभूत बिम्ब देखता है, केवल पद को धर्षित करने घर फूंक तमाशा: के लोभ में मासन रोकने वाले अपने को प्रसारित करते जान के समान पवित्र अन्य कोई वस्तु नहीं है पोर हैं। जिनके प्रादो की छाया में राष्ट्र धर्म पल रहा है ज्ञान ज्योति स्वरूप (प्रकाशमय) है। इस प्रकाश को वह महात्मा गांधी प्रपती भल स्थल रूप से हम स्व-पर प्रकाशक अग्नि ससुत्पन्न देखते को बोषपाठ देते थे। प्राज के नेतामों की प्रवृत्ति है दूसरों है। एतावता अग्नि ज्ञान जैसे स्व-पर प्रकाशक है मार में दोषोभावना। वे स्वयं दूध के धुले रहकर दूसरों को इस ज्ञानाकार उपादान से दाहात्मक क्रिया करते हुए पंक में सना हमा कहते हैं, परन्तु स्वयं की गरिमा के हम प्रज्ञान का दोहन करें, यह कितनी सोचनाय बात हा स्तोत्र पढे वह यशस्वियों के नहीं दम्भ-कूवालों के लक्षण अग्नि से अन्न का परिपाक होता है और उससे जलाया हैं। भी जा सकता है। यह तो प्रभोक्ता की योग्यता पर पहरुए तो सो रहे हैं निर्भर है कि वह अग्नि द्वारा रोटी सेंककर उसे तृप्ति का राष्ट्रव्यापी अन्धकार में जो सुखनिद्रा ले रहे हैं । साधन बनाए, अथवा उसी अग्नि को अपनी झोली मे दमन चक्र को योग्यता पदक समझते हैं और राष्ट्र की टांककर घर कूक तमाशा देखे । यही बात ज्ञानरूप प्रन्नि प्रात्मा मे झांकने का प्रयत्न नहीं करते, वे अपने प्रति, के प्रयोग-विषय मे कही जा सकती है। अपनी शपथ के प्रति, अपनी नैतिकता के प्रति उपेक्षावान् निष्ठा : अपने पति हैं, अनुदार है। शासन यदि नित्य उठकर मुर्दावाद के ___ जनता मान्दोलन करे और पुलिस लाठी चलाये सभाघोष सुनता है, यदि प्रसन्तुष्ट प्रजामों के रोप-अरुण इसमें पुलिस पर पत्थर बरसाना कहाँ की युक्ति है ? नेत्रों की अग्नि-वर्षा में जलता है तो यह उसके लिए क्योंकि पुलिस तो सरकार के हाथ-पैर हैं इन्हें संचालन अक्षुण्य है, प्रकीति शिलालेख है। जो राष्ट्र शत्रुनों से तो मस्तिष्क से प्राप्त होता है; परन्तु कहते हैं ज्वर तो घिरा हो, उसके सैनिक केसरिया बांधकर मरण-व्रत लेते शरीर को चढ़ता है और कड़वी कुनेन जिह्वा को चखनी हैं । जहाँ साधनो की अल्पता को वहाँ राष्ट्रनायक उद्योहोती है। सीताहरण तो रावण ने किया; परन्तु हनुमान गिनः पुरुषासह मुपात लक्ष्मी का प्रातष्ठा करत गिन; पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी की प्रतिष्ठा करते हैं मोर को दुःख हो गया। इसी प्रकार अन्य के दोष अन्य को जहा सच्चारित्र के विपन्न होने की भावना हो वहाँ श्रेष्ठ लग जाते हैं। जब लोकप्रवास भीरु श्रीराम ने सीता का नागरिक माचार-संहितामों की व्यावहारिक रचना में परित्याग किया और सेनापति कृतान्त वक्र सती को तत्पर हो उठत है। भारत का भाग्य एसाह जहा वन में छोड़ने चले तब लोक-समुदाय ने सेनापति को सभी स्थितियां संकटप्रद होकर उपस्थित हैं, परन्तु दुर्भाग्य साक्षात् कृतान्त (यमराज) बताया; परन्तु उस मृत्य का की बात तो यह है कि पहरुए सो रहे हैं, शासक मान्दो का बात ता क्या दोष? अंगुलि घुमाने पर यदि चर्खा घूमता है तो ल्लास के कृत्रिम मायोजन में मग्न है और राष्ट्र दीपक उसकी गति को स्वतन्त्र तो नहीं कहा जा सकता ? में स्नेह पूरने वाला दिखाई नहीं देता। यशस्वी नहीं, बम्भ-कुशल पन के साथ सहिवेक सेवक सो जो करे सेवकाई सेवक तो स्वामी का जलाने की धुन तो प्रायः बहुतों में है परन्तु जलाने माशानुवर्ती मात्र है उसमें स्वचालितता नहीं होती। यदि का विवेक नहीं है। परिणामस्वरूप किसी का तन जल तन्त्र के ताने-बाने प्रपढ़ हैं तो सूत्र और पट कैसे प्रशस्त ___ रहा है, तो किसी का मन जल रहा है। किसी की शांति हो सकते हैं । शासक यदि शासितों के सुख-दुखों का को पाग लगी है तो कोई प्रसन्तोष के अंगारे उछाल रहा 'प्रारमनीव' अनुभव नहीं करते तो उन्हें गृहीत पद के है । इनसे और चाहे जो कुछ हो, मालोक प्राप्ति नही हो प्रति निष्ठावान् कसे कहा जा सकेगा? योग्य तथा मान सकती। मालोक के लिए ज्ञान का सहयोग प्राप्त करना
SR No.538025
Book TitleAnekant 1972 Book 25 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1972
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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