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४८ वर्ष २५, कि० १
तिण लक्कउ ते प्राणहि उपरवि गवि भरहि । जगतमिति दहिसर । मुनिबर एक पर भोषण देखि पुच्छिउ पनि परवि सिंह संच मुनिवर संपद्दहि दुखर भ्रागमण ।।
जिसुनिवि मुणि जयद वियि परिवि म विवर णं तुम्मि निदिउ तं रोक वि भयो । मुर्णाह वयणु प्रहारिवि सुणहु वि वउगहिउ । पासमा पित हि वीरह पहवण करे | पव पत्र प्रबविजौरा ठविहत भाव परे । मासाहि प्रारंभ व एक बरि किपट || एव भक्ति सह सोले रोड वि सह गयो पुणवरि एउ कहाणउ णयरहि अवहि गयो || गुणधर भागन पासह भोजन बगिय तिमहि भार से भावहिन माह तह ॥
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रत्तणयण जब जंपिउ सप्पधाण गयउ घास ।
पिट से आप दांत विखंडित विवरय हुतउ ।। उगंच दिसि बेडियर परि भाव बने भंछियो ।
बुटु बि पिसुन खल अंकुराजेय प्राणहि ग्रहमर पावखल || एम वचन सुरिया तहि गयो । कालय विसायण फणिवर निहि पिट |
महरवयण बोलेfप्पणु नाम वि लेणिथियो । तहि भवसरि पायाले घरणिहि चित्त ठिउ || पासह सूजा समरवि रयण वि पंच तह । उज्जल मोतीहार वि वि वि दिष्ण लहू ।। लेवि सोवि घर प्रायो बंधव उरय मण | पण विनर कहि जहि देव जिगु ॥ णयरि मज्झ सुणि वत्त वि राइ बोलविया । तुम्म बालिही प्राये लच्छी कहि लहिया || पुष्पाहि फल तहि पक्कि राव विहरसियत । गुणधर मुंह भवलोय वि कष्ण समहियउ || यो हो राय विविनथियो ।
तहि अवसर ते बाल वि बाणारसि गइया |
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बहु दिण मंदिर व सेठि विविध विक्ति पहिया । पंचमहन्वय पालिदि मुसि-रमणि लहिया || कष्णहीण दोष कृष्णा बासी
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अनेकान्त
पोमनंदि उबएस धजण इम कहिये ||
जो इह पढेर पढाइ शिवपुर सो लहिये ॥ १॥ इतिषी भावित्यवार कथा समाप्त ॥
उक्त रचना के लेखक अर्जुन कवि हैं । कवि ने भट्टारक पद्मनन्दि के उपदेश से यह कथा रची थी । कवि के ही शब्दों में :
पोमनदि उसे सजण इम कहिये ।
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अपभ्रंश की रचनाओं में मुनि पद्मनन्दि के नाम से जो उल्लेख मिलते है वे अधिकतर चौदहवीं पन्द्रहवीं शताब्दी के मुनिराज पद्मनन्दिके है कवि हरिचंद ने स्पष्ट रूप से उनका नाम निर्देश किया है :पण मुणिह गणबहु, चरणसरणु गुरु कह हरिइंबहु ( वर्द्धमान चरित)
पडित परमानन्द जी जैन शास्त्री ने उनके समय का विचार करते हुए लिखा है कि वि० सं० १४७४ में पचनन्दि द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति लेख उपलब्ध है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पचनन्दि ने वि० स० १४७४ के याद और वि० सं० १४७९ से पूर्व किसी समय शुभचंद को पट्ट पर प्रतिष्ठित किया था' मूर्ति लेखों में मी १४०५-०६ के कई उल्लेख मिलते हैं, जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में मुनिश्री पचनन्दि जीवित थे। लगभग उसी समय में प्रर्जुन कवि ने उक्त प्रादित्यवार कथा लिखी होगी। यह वही समय है, जब धाधुनिक भारतीय पायें भाषामों में खड़ी बोली मपना रूप ग्रहण कर रही थी। इसके पूर्व खड़ी बोली के निदर्शन रूप में इतने स्पष्ट ध्वनि-रूप परिलक्षित नहीं होते। मतएव भाषा की दृष्टि से यह रचना उन भाषिक रूपों को द्योतित करती है, जिनसे स्पष्ट ही खड़ी बोली और वर्तमान हिन्दी का विकास हुधा । इस प्रकार रचना छोटी होने पर भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
१. पं० परमानन्द जी शास्त्री : राजस्थान के जैन सन्त मुनि पचनम्दी, अनेकान्त वर्ष २२, किरण ६ पृष्ठ २६४ ।
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