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भाषा की उत्पत्ति व विकास
गरणशप्रसाद जैन
'भाषा' की उत्पत्ति का इतिहास प्रत्यन्त रोचक है। लाते है । भाषा का प्रादुर्भाव कब, किस प्रकार और क्यो हुआ? इन पूर्वजो ने लिखित-भाषा के लिए प्रत्येक शब्द को सब बातों पर अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढग से विचार मूल-ध्वनियो के पृथक्-पृथक् चिन्ह नियुक्त कर किये है किया है। उनकी मीमासा के आधार पर सर्वमान्य जो कुछ जिन्हे-'वर्ण अथवा अक्षर' कहा जाता है। पूर्व-काल मे निष्कर्ष निकले है, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ भाषा में केवल कान का ही प्रयोग होता था, अब वर्णों मे मनुष्य के पास वाणी नही थी, वह सकेतों, अथवा की रचना के कारण प्रॉखों का उपयोग भी लगन भ्र -क्षेपो से काम चला रहा था । क्रम-क्रम से वह ध्वन्या- लगा है। त्मक शब्दों और पशुप्रो की बोली के समान 'शब्द' प्रगट अतीत केवल काल मे 'कथित भाषा' का प्रयोग होने करने लगा। सम्भवत: उसने प्रकृति की ध्वनियों का के कारण 'मावश्यक-विचारों को मेधावी व्यक्ति स्मरण अनुकरण किया हो। इस प्रकरण के अनुकरण के आधार रख परम्परा द्वारा शिष्यों को सौपा करते थे। अब अक्षपर उसके पास कुछ मूल-ध्वनियों का समूह इकट्ठा हो रलिपि के प्रादुर्भाव से वह असुविधा समाप्त हो गई है गया होगा। हो सकता है कि भावावेग के समय भी उसके अव विचार-श्रेणी' को 'स्थायी रूप' दिया जाने लगा है। मनोभावों की व्यञ्जक कुछ ध्वनियाँ सहसा निकल पड़ी इस आविष्कार के योग से ही हम प्राज, वेद, वेदाग, तथा हों, और इस प्रकार से क्रम-क्रम करके भाषा का निर्माण वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि की कृतियो का उपसम्भव हुआ हो। यद्यपि विद्वान लोग इस सम्बन्ध मे योग कर पा रहे है। किसी एक अन्तिम निर्णय अथवा निष्कर्ष पर नही पहुँच भाषा-स्थिर नही रहती, उसमें परिवर्तन अनिवार्य सके है, तथापि यह तो मानना ही पड़ेगा कि भाषा मनुष्य है। आज हजारों वर्ष पूर्व जो भाषा बोली जाती वा कृत, और क्रमशः विकास का परिणाम है ।
लिखी जाती थी, उसका वह प्राचीनतम रूप पाज नही 'भाषा' विचारों का समूह है, उसका साकार रूप है। भाषा-विदों का 'मत' है कि "जब भाषा मे परिवर्तन है। इसके दो भेद किये जा सकते हैं, एक 'व्यक्त' और रुक जाता है, तब उसकी प्रगति भी रुक जाती है । दूसरा 'अव्यक्त' । विचारों को पूर्ण रूप मे प्रगट करने सभ्यता के साथ भाषा का घनिष्ठ सम्बन्ध है । सभ्यता वाली भाषा 'व्यक्त' है, और पश-पक्षियो की बोली की वृद्धि के साथ भाषा भी विकसित होती रहती है। 'अव्यक्त' । अव्यक्त-भाषी सुख, दुख और भय के सिवाय इसमें नये-नये विचार तथा उन विचारों के द्योतक नये
और अन्य भावों को भाषा द्वारा प्रगट करने की सामथ्य नये शब्द मिलते रहते है । इस प्रकार से भाषा का भण्डार नहीं रखते।
वृद्धि पाता रहता है । भाषा मे परिवर्तन माने का मुख्य 'व्यक्त-भाषा' दो भागों में विभाजित है, 'कथित कारण स्थान, जल, वायु और सभ्यता का प्रभाव उच्चारण और लिखित'। जब कोई सामने होता है तब हम अपने प्रादि भेद है। अनेक शब्दों को एक प्रान्त का वासी विचारों को 'कथित-भाषा' द्वारा प्रगट करते है । जब हमें एक ढग से तो दूसरे प्रान्त का वासी दूसरे ढंग से बोलता अपने से किसी दूर वाले व्यक्ति को अपने विचारों से है। शीत-प्रधान देशों की शब्दावली ऐसी है जिसमे मुंह अवगत करना होता है तब हम 'लिखित-भाषा' उपयोग में कम खोलना पड़ता है, किन्तु उष्ण-प्रधान देशों में अधिक