Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित . संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि समवायांगसूत्र (मूल-अजवाद-विवेचन-टिप्पण-पार्टीटष्ट युक्त catoontentionary nakPersonal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्थमाला : प्रन्या-८ [परमश्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित पंचम गणधर भगवत्सुधर्म-स्वामि-प्रणीत चतुर्थ अंग समवायांगसूत्र [मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज प्राद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक श्री स्था. जैन श्रमणसंघ के युवाचार्य (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक-सम्पादक पं. हीरालालजी शास्त्री प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, न्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्थमाला : ग्रन्याङ्क 0 निर्देशन साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' 0 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि 10 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 1) द्वितीय संस्करण : प्रकाशन तिथि वीर निर्वाण सं० 2517 विक्रम सं० 2048 अगस्त 1991 ई० / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ - मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर 305001 0 मूल्य : 50) रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhara Sudharma Swami Compiled Fourth Anga SAMAVAYANGA SUTRA [ Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Lete) Shri Vardhamana Sthanakvasi Jain Sramana Sanghiya Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Translator-Annotator-Editor Pt. Hiralalji Shastri Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 8 Direction Sadhwi Shri Umrav Kunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiya lalji 'Kamal Upacharya Sri Devendra Mudi Shastri Sri Ratan Muni O Promotor Muni Sri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendra Muni 'Dinakar O Second Edition : Date of Publication Vir-Nirvana Samvat 2517 Vikram Samvat 2048, August 1991. publican Pesmi Publishers Sri Agam Prakashan Samiti, Srij-Madhukar Smriti Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukia Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer 0 Price : Rs. 50/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनकी अनिर्वचनीय शान्त मुख-मुद्रा ही भव्य जीवों को परम शान्ति और निश्रेयस् का संदेश संभलाती थी, जिनके संयम-जीवन में अनुपम सरलता, सात्त्विकता, सौम्यता, निरहंकारता और विनम्रता अोतप्रोत हो चुकी थी, जो अपनी परमोदार वृत्ति एवं प्राणीमात्र के प्रति अनन्य वत्सलता के फलस्वरूप जैनजैनेतर धर्मप्रेमी जनता में समान रूप से समादरणीय, श्रद्धेय और महनीय थे, जिनके परोक्ष शुभाशीर्वाद के फलस्वरूप आगमप्रकाशन का यह भगीरथ अनुष्ठान सत्वर गति से सम्पन्न हो रहा है, जिनका मेरे व्यक्तित्व-निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, जिनके असीम उपकारों का मैं सदैव ऋणी हूं, उन श्रमणसंध के मरुधरामंत्री परमपूज्य ज्येष्ठ गुरुभ्राता प्रवर्तकवरमुनिश्री हजारीमलजी महाराज के कर-कमलों में सादर समर्पित / मधुकर मुनि [प्रथम संस्करण से] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायाङ्गसूत्रः प्रथम संस्करण के विशिष्ट अर्थसहयोगी तिबरी मरुधरा का छोटा-सा ग्राम होने पर भी जैनजगत् में अपना एक महत्त्व रखता है। यही वह ग्राम है जहाँ की पुण्यभूमि में अ. भा. श्रमणसंघ के वर्तमान युवाचार्य, जैन संघ की विशिष्ट विभूति विद्वद्रत्न मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज का जन्म हा / और यही वह ग्राम है जिसकी ख्याति में श्रीश्रीमाल-परिवार चार चांद लगा रहा है। __ श्रीश्रीमालजी का मूल प्रतिष्ठान 'श्रीरावतमल हनुतमल' है / इस विशाल परिवार ने दुर्ग (मध्यप्रदेश) को अपनी कर्मभूमि बनाया है। स्व. श्री रावतमलजी सा. के तीन सुपुत्र थे—श्री हनुतमलजी, श्री दीपचंदजी और श्री प्रेमराजजी। आज इस त्रिपुटी में से श्रीमान् सेठ प्रेमराजजी समाज के सद्भाग्य से हमारे बीच विद्यमान हैं। स्व. हनुतमलजी सा. के सुपुत्र श्री भंवरलालजी सा. हैं और उनके भी तीन सुपुत्र-प्रवीणकुमारजी, प्रदीपकुमारजी और प्रफुल्लकुमारजी हैं। स्व. श्री दीपचंदजी सा. के सुपुत्र श्री नेमिचंदजी के दो पुत्र सुरेशकुमारजी और रमेशकुमारजी हैं / श्रीमान् प्रेमराजजी सा. के तीन सुपुत्र श्री मोहनलालजी, श्री शायरमलजी और श्री ताराचंदजी हैं। इनमें से श्री मोहनलालजी के सुपुत्र मदनलालजी, राजेन्द्रकुमारजी, अनिलकुमारजी और सुनीलकुमारजी हैं / श्री ताराचंदजी के भी पन्नालालजी, श्रीपालजी, हरीशकुमारजी और आनन्दकुमारजी, ये चार सुपुत्र हैं। इस प्रकार सेठ प्रेमराजजी साहब का भरा-पूरा विशाल परिवार है। श्रीधीमाल-परिवार केवल संख्या की दष्टि से नहीं, यश-कीर्ति एवं प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी विराट है। दुर्ग नगर की धार्मिक, शैक्षणिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रवृत्तियों में परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने अपने क्षेत्र में पूर्ण प्रभाव रखने वाला है / नगर में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। सार्वजनिक सेवा का कोई भी क्षेत्र इस परिवार में सहयोग से अछूता नहीं है। ___ वयोवृद्ध धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्रीमान् प्रेमराजजी सा. सदैव धार्मिक कार्यों की अभिवृद्धि हेतु तत्पर रहते हैं। आप अनेक ट्रस्टों के स्वामी हैं और विभिन्न संस्थाओं के संरक्षक हैं। श्रीमान् भंवरलालजी सा. श्री व. स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ के अध्यक्ष एवं नगर की अनेक संस्थाओं के ट्रस्टी तथा सक्रिय प्रमुख कार्यकर्ता हैं। आप श्री आगम-प्रकाशनसमिति के उपाध्यक्ष पद पर आसीन रह चुके हैं। "राम-प्रसन्न-ज्ञानप्रसार केन्द्र' के मुख्य ट्रस्टी हैं। श्रीश्रीमाल-परिवार की उदारता की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट करने वाली बात यह है कि इस परिवार से संबंधित नौ व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं तो नौ ही सार्वजनिक संस्थाएँ भी चल रही हैं। प्रतिष्ठान और संस्थाएँ इस प्रकार हैं-- Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापारिक प्रतिष्ठान दुर्ग में संचालित संस्थाएँ .1. प्रेम एण्ड कम्पनी 1. श्री प्रेमजयमाला ट्रस्ट, (रजिस्टर्ड) 2. प्रकाश एण्ड कम्पनी 2. श्री प्रेम पुण्यार्थ फंड 3. प्रदीप एण्ड कम्पनी 3. श्री आयंबिल एकासना ट्रस्ट 4. हुलास एण्ड कम्पनी 4. श्री पायंबिल वर्षगांठनिधि ट्रस्ट 5. रमेश एण्ड कम्पनी 5. श्री नीवीतपनिधि ट्रस्ट 6. जय ज्वेलर्स 6. श्री प्रेमजयमाला ज्ञानभवन 7. जय ट्रेडर्स 7. श्री प्रेमजयमाला होम्योपैथिक औषधालय (राज.) 8. सहेली वस्त्रालय 8. श्री प्राचार्य श्रीजयमल जैन वाचनालय एवं ग्रन्थालय 9. मे. शायरमल जैन 9. श्री सार्वजनिक प्याऊ, राममंदिर दुर्ग, अपनी कर्मभूमि दुर्ग में इन संस्थाओं की स्थापना करने के साथ ही आपने आपनी जन्मभूमि को भुलाया नहीं है। तिवरी में भी आपके आर्थिक अनुदान और सत्प्रेरणा से अनेक पारमार्थिक कार्य योजनाबद्ध स्थायी रूप से चल रहे हैं। सेठ प्रेमराजजी सा. एवं उनके समग्र परिवार में अत्यन्त विनम्रता, सरलता, सात्त्विकता और मिलनसारी के सहज सद्गुण विद्यमान हैं। इस प्रकार श्रीश्रीमाल-परिवार एक आदर्श परिवार है, समाज का गौरव है। युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिजी म. सा. के प्रति परिवार की अनन्य निष्ठा और गहरी श्रद्धा है। 10 [8] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय समवायांगसूत्र जैन सिद्धान्त का कोष-ग्रन्थ है / सामान्य जनों को जैनधर्म से सम्बन्धित विषयों का बोध प्राप्त होता है। शोधाथियों को अपने अपेक्षित विषयों के लिए उपयोगी आवश्यक संकेत उपलब्ध होने से इस प्रागम ग्रन्थ का अध्ययन, चिन्तन, मनन अनिवार्य है। समवायांगसूत्र की प्रतिपादन शैली अनठी है। इसमें प्रतिनियत संख्या वाले पदार्थों का एक से लेकर सौ स्थान पर्यन्त विवेचन करने के बाद अनेकोत्तरिक वृद्धि समवाय का कथन करने के साथ द्वादशांगगणिपिटक एवं विविध विषयों के परिचय का समावेश किया गया है। श्री पागम प्रकाशन समिति ने स्मरणीय उद्देश्य को ध्यान में रखकर आगमों के प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया था। पूज्य स्व. स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. की प्रेरणा और स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. सा. के दिशा-निर्देश एवं अन्यान्य विद्वद्वयं मुनिराजों, विद्वानों के सहयोग से समिति दिनानुदिन अपने लक्ष्य की ओर प्रगति करती रही है। पाठकों की संख्या में वृद्धि होती जाने से अभी तक प्रकाशित अनेक ग्रन्थों के प्रथम संस्करण अप्राप्य जैसे हो गये / अतः पाठकों की उत्तरोत्तर मांग बढ़ते जाने से ग्रन्थों के द्वितीय संस्करण प्रकाशित करने का निश्चय किया गया है। अभी तक प्राचारांगसूत्र भाग-१,२ व ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, अन्त:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपातिक सूत्र के प्रथम संस्करण अप्राप्य हो जाने से पुनर्मुद्रण हो चुका है और समवायांगसूत्र का यह द्वितीय संस्करण है। शेष ग्रन्थों का भी समयानुसार दूसरा संस्करण प्रकाशित किया जायेगा। जिससे पूरी आगम बत्तीसी सभी ग्रन्थ भंडारों प्रादि में संकलित हो सके एवं स्वाध्यायप्रेमी सज्जन लाभ ले सकें। यद्यपि लागत व्यय में वृद्धि होने से ग्रन्थों का मूल्य कुछ बढ़ाना पड़ा है, परन्तु यह मूल्यवृद्धि भी लागत से कम और न कुछ जैसी है। अन्त में हम पागमप्रकाशन कार्य के लिये अपने सभी सहयोगियों का सधन्यवाद आभार मानते हैं / रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष बालबाब मोदी सायरमल चोरडिया महामंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, न्यावर सायरमलम चोरडिया अमरचन्द मोदी अमरचन्द मोदी मंत्री Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष मद्रास ब्यावर ब्यावर मद्रास जोधपुर मद्रास महामंत्री मंत्री मद्रास ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास सहमंत्री कोषाध्यक्ष श्री किशनलालजी बैताला श्री रतनचन्दजी मोदी श्री धनराजजी विनायकिया श्री पारसमलजी चोरड़िया श्री हुक्मीचन्दजी पारख श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया श्री जसराजजी पारख श्री जी. सायरमलजी चोरडिया श्री अमरचन्दजी मोदी श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री ज्ञानचन्दजी विनायकिया श्री जंवरीलालजी शिशोदिया श्री अमरचन्दजी बोथरा श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया श्री मूलचन्दजी सुराणा श्री दुलीचन्दजी चोरडिया श्री प्रकाशचन्दजी चौपड़ा श्री मोहनसिंहजी लोढ़ा श्री सागरमलजी बैताला श्री जतनराजजी मेहता श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल श्री चन्दनमलजी चोरड़िया श्री सुमेरमलजी मेड़तिया श्री आसूलालजी बोहरा श्री जालमसिंहजी मेड़तवाल श्री प्रकाशचन्दजी जैन सदस्य मद्रास नागौर मद्रास ब्यावर ब्यावर इन्दौर मेड़तासिटी दुर्ग भद्रास जोधपुर जोधपुर परामर्शदाता ब्यावर नागौर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन (प्रथम संस्करण से) विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टानों/चिन्तकों, ने "प्रात्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ प्रारम-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है। प्रात्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन अाज अागम/पिटक वेद उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। __ जैन दर्शन की यह धारणा है कि प्रात्मा के विकारों-राग द्वेष आदि को, साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो प्रात्मा की शक्तियां ज्ञान सुख वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित उद्भासित हो जाती हैं / शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ/प्राप्त-पुरुष की वाणी; वचन कथन/प्ररूपणा-"प्रागम" के नाम से अभिहित होती है। आगम अर्थात तत्त्वज्ञान, आत्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र प्राप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्म प्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थंकर देव की जनकल्याकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशय सम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "प्रामम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिनवचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "पागम" का रूप धारण करती है। वही मागम अर्थात् जिन-प्रवचन अाज हम सब के लिए प्रात्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। "पागम" को प्राचीनतम भाग में "गणिपिटक" कहा जाता था / अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्र-द्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/प्राचारांग-सूत्रकृतांम आदि के अंग-उपांग प्रादि अनेक भेदोपभेद विकसित हुए हैं। उस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवां अंग विशाल एवं समग्रश्रुत ज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुआ तथा इसी पोर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब प्रागमों शास्त्रों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था / सम्भवतः इसलिए प्रागम ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसी लिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक प्रागमों का ज्ञान स्मृति/श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा / पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाब प्रादि अनेक कारणों से धीरे-धीरे पागमज्ञान लुप्त होता चला गया। महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया। मुमुक्ष श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु / तभी महान् श्रुतपारगामी देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ने विद्वान श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते पागम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्व-सम्मति से प्रागमों को लिपि-बद्ध किया गया / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी को पुस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुतः आज की समग्र ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिये एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हुमा / संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा आत्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी बलभी (सौराष्ट्र) में प्राचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ। वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / आज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था / पुस्तकारूढ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संघों के प्रान्तरिक मतभेद, स्मृति दुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से पागम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्त्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गूढार्थ का ज्ञान, छिन्नविच्छिन्न होते चले गए / परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो प्रागम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ बाले नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते। इस प्रकार अनेक कारणों से प्रागम की पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया / आगमों के शूद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चाल हुआ / किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये। साम्प्रदायिक विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह, तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विध्न बन गया। आगम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब प्रागम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत्-प्रयासों से आगमों की प्राचीन चूर्णियाँ, नियुक्तियाँ, टीकायें आदि प्रकाश में आई और उनके आधार पर प्रागमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ। इसमें आगम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासुजनों को सूविधा हई / फलतः आगमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में प्रागमों के प्रति आकर्षण व रुचि जागृत हो रही है। इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी आगमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की प्रागम-श्रुत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है। इस महनीयश्रुत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईंट की तरह प्राज भले ही अदृश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के . कुछ विशिष्ट-पागम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहूँगा। आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज ने जैन आगमों-३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर एक अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ़ लगनशीलता, साहस एवं पागम ज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है। वे 32 ही आगम समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे आगमपठन बहुत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हया। [ 12] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातःस्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. के सान्निध्य में प्रागमों का अध्ययन-अनुशीलन करता था तब अागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित प्राचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकाओं से युक्त कुछ प्रागम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव किया-यद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी हैं, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी हैं, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व वत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरूह तो हैं ही। चूकि गुरुदेवश्री स्वयं प्रागमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अतः वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञानवाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें। उनके मन की यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया। इसी अन्तराल में प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनधर्म दिवाकर आचार्य श्री प्रात्माराम जी म०, विद्वद्रत्न श्री घासीलालजी म. प्रादि मनीषी मुनिवरों ने आगमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। ___श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम सम्पादन की दिशा में बहत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा / किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तदपि प्रागमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्त्वावधान में प्रागम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य प्राज भी चल रहा है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय में प्राचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में आगम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो आगम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है। यद्यपि उनके पाठ-निर्णय में काफी मतभेद की गुजाइश है। तथापि उनके श्रम का महत्त्व है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० "कमल" प्रागमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। उनके द्वारा सम्पादित कुछ आगमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। प्रागम साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान् पं० श्री बेचरदास जी दोशी, विश्रुत-मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष प्रागमों के आधुनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का मार्ग दर्शन कर रहे हैं। यह प्रसन्नता का विषय है। इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात् मेरे मन में एक संकल्प उठा / आज प्राय: सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हए है। कहीं आगमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं आगमों की विशाल व्याख्यायें की जा रही हैं। एक पाठक के लिये दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक पागम ज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ मध्यम मार्ग का अनुसरण आवश्यक है। प्रागमों का एक ऐसा संस्करण होना चाहिये जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो। मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा हो आगम-संस्करण चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की थी, [13 ] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान् महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढ़ निश्चय घोषित कर दिया और पागबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी श्री ब्रजलाल जी म. की प्रेरणा/प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है। साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सदगृहस्थी का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिनका नामोल्लेख किये बिना मन सन्तुष्ट नहीं होगा / पागम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म० "कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री, प्राचार्य श्री आत्मारामजी म० के प्रशिष्य भंडारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वद्रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म०; स्व. विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुवरजी म० की सुशिष्याएं महासती दिव्यप्रभाजी, एम. ए. पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजी तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुवरजी म० 'अर्चना', विश्रुत विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, सुख्यात विद्वान् पं. श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, स्व. पं. श्री हीरालालजी शास्त्री, डा. छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा "सरस" आदि मनीषियों का सहयोग पागमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है। इसी के साथ सेवा-सहयोग की दष्टि से सेवाभावी शिष्य मनि विनयकुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानावरजी, महासती श्री झणकारवरजी का सेवा भाव सदा प्रेरणा देता रहा है। इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणा-स्रोत स्व. श्रावक चिमनसिंहजी लोढ़ा, स्व. श्री पुखराजजी सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो पाता है जिनके अथक प्रेरणा प्रयत्नों से आगम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है। दो वर्ष के इस अल्पकाल में ही दस पागम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 आगमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है। मुझे सुदृढ़ विश्वास है कि परम श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज आदि तपोपूत आत्माओं के शुभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत आचार्य श्री प्रानन्दऋषिजी म. आदि मुनिजनों के सद्भाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ........... -~-मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) [14] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमंसि नाम सच्चेव जं 'हतध्वं' ति मग्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं'अज्जावेयध्वं' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं'परितावेयध्वं' ति मग्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं 'परिघेतव' ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं उद्दवेयत्वं' ति मन्नसि / --आचाराङ्ग Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - - - - - - - - तमेव सच्चं नोसंकं जं जिणेहिं पवेइए / -आचाराङ्ग - - - - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना समवायांगसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन (प्रथम संस्करण से) नाम-बोध श्रमण भगवान महावीर की विमल वाणी का संकलन-प्राकलन सर्वप्रथम उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने किया। वह संकलन-पाकलन अंग सूत्रों के रूप में विश्रुत है। अंग बारह हैं-पायार, सूयगड, ठाण, समवाय, विवाहपण्णत्ति, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अणुत्तरोववाइयदसा, पण्हाबागरण, विवागसुय और दिठिवाय।' वर्तमान समय में बारहवाँ अंग दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। शेष ग्यारह अंगों में समवायं का चतुर्थ स्थान है। मागम साहित्य में इसका अनठा स्थान है। जीवविज्ञान, परमाणुविज्ञान, सृष्टिविद्या, अध्यात्मविद्या, तत्त्वविद्या, इतिहास के महत्त्वपूर्ण तथ्यों का यह अनुपम कोष है। आचार्य अभयदेव ने लिखा है-प्रस्तुत प्रागम में जीव, अजीव प्रभूति पदार्थों का परिच्छेद या समवतार है। अतः इस पागम का नाम समवाय या समवानी है। सिद्धान्तचक्रवर्ती प्राचार्य नेमिचन्द्र ने लिखा है कि इस में जीव प्रादि पदार्थों का सादृश्य-सामान्य से निर्णय लिया गया है। अतः इस का नाम "समवाय" है।' विषय-वस्तु प्राचार्य देवबाचक ने समवायांग की विषय-सूची दी है, वह इस प्रकार है(१) जीव, अजीव, लोक, अलोक एवं स्वसमय, पर-समय का-समवतार / (2) एक से लेकर सौ तक की संख्या का विकास / (3) द्वादशांग गणिपिटक का परिचय / समवायांग, द्वादशांगाधिकार / समिति-सम्यक् अवेत्याधिक्येन अयनमयः-परिच्छेदो, जीवा-जीवादिविविधिपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसो समवायः, समवयन्ति वा समवसरन्ति सम्मिलन्ति नानाविधा प्रात्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसी समवाय इति ! -समवायांगवृत्ति, पत्र 1 सं---संग्रहेण सादृश्यसामान्येन अवेयंते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य अस्मिन्निति समवायांगम्। -गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवप्रबोधिनी टीका, गा. 356 से कि तं समावाए ? समवाए णं जीवा समासिज्जति, अजीबा समासिज्जंति, जीवाजीवा समासिज्जंति / ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमयपरसमए समासिज्जइ / लोए समासिज्जइ अलोए समासिज्जइ, लोयालोए समासिज्जइ। समवाए णं एगाइयाणं एगुत्तरियाणं ठाणसयं निडिढयाणं भावाणं परूबणा आपविज्जइ / दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ / नन्दीसूत्र 83 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत मागम में समवाय की भी विषय-सूची दी गई है। वह इस प्रकार है --- (1) जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्व-समय और पर-समय का समवतार (2) एक से सो संख्या तक के विषयों का विकास (3) द्वादशांगी गणिपिटक का वर्णन, (4) आहार (5) उच्छ्वास (6) लेश्या (7) प्रावास (8) उपपात (9) व्यवन (10) अवगाह (11) वेदना (12) विधान (13) उपयोग (14) योग (15) इन्द्रिय (16) कषाय (17) योनि (18) कुलकर (19) तीर्थकर (20) गणधर (21) चक्रवर्ती (22) बलदेव-वासुदेव / दोनों प्रागमों में आयी हुयी विषय-सूचियों का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि नन्दीसूत्र में जो प्रामम-विषयों की सूची पायी है, वह बहुत ही संक्षिप्त है और समवायांग में जो विषय-सूची है, वह बहुत ही विस्तृत है / नन्दी और समवायांग में सौ तक एकोत्तरिका वृद्धि होती है, ऐसा स्पष्ट संकेत किया गया है, किन्तु उन में अनेकोतरिका वृद्धि का निर्देश नहीं है, नन्दीचणि में जिनदास गणि महत्तर ने, नन्दी हरिभद्रीया वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने, और नन्दी की वृत्ति में, प्राचार्य मलयगिरि ने अनेकोत्तरिका वृद्धि का कोई भी संकेत नहीं किया है / प्राचार्य अभयदेव ने समवायांग वृत्ति में अनेकोतरिका वृद्धि का उल्लेख किया है। प्राचार्य अभयदेव के मत के अनुसार सौ तक एकोतरिका वृद्धि होती है और उसके पश्चात् अनेकोतरिका वृद्धि होती है।' विज्ञों का ऐसा अभिमत है कि वत्तिकार ने समवायांग के विवरण के आधार पर यह उल्लेख नहीं किया है। प्रपितु समवायांग में जो पाठ प्राप्त है, उसी के आधार से उन्होंने यह वर्णन किया है। यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि नन्दीसूत्र में समवायांग का जो परिचय दिया गया है, क्या उस परिचय से वर्तमान में समुपलब्ध समवायांग पृथक है ? या--जो वर्तमान में समवायांग है, वह देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की वाचना का नहीं है। यदि होता तो दोनों विवरणों में अन्तर क्यों होता ? समाधान है-नन्दी में समवायांग का जो विवरण है उसमें अन्तिम वर्णन द्वादशांगी का है। परन्तु वर्तमान में जो समवायांग है उसमें द्वादशांगी से भागे अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए नन्दीगत समवायांग के विवरण से वह आकार की दृष्टि से पृथक् है। हमने स्थानांग सूत्र की प्रस्तावना में यह स्पष्ट किया है कि प्रागमों की श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् पांच वाचनाएं हुयी। प्राचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत मागम की वृत्ति में प्रस्तुत प्रागम की बृहद् वाचना का उल्लेख किया है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि नन्दी में समवाय का जो परिचय देववाचक ने दिया है यह लघवाचना की दृष्टि से दिया हो। समवायांग के परिवधित आकार को लेकर कुछ मनीषियों ने दो अनुमान किये हैं। वे दोनों अनुमान कहाँ तक सत्य-तथ्य पर आधत हैं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता / मेरी दृष्टि से यदि समवायांग पृथक् वाचना का होता तो इस सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य में कहीं न कहीं कुछ अनुश्रुतियां अवश्य मिलती। पर समवायांग के सम्बन्ध में कोई भी अनुश्रुति नहीं है। उदाहरण के रूप में ज्योतिषकरण्ड ग्रन्थ माथुरी वाचना का है, पर समवायांग के सम्बन्ध में ऐसा कुछ भी नहीं है। अत: विशों का प्रथम अनुमान केबल अनुमान ही है। उसके पीछे वास्तविकता का अभाव है। दूसरे अनुमान के सम्बन्ध में भी यह नम्र निवेदन है कि भगवती सूत्र में कुलकरों और तीर्थंकरों आदि के पूर्ण विवरण के सम्बन्ध में समवायांग के अन्तिम भाग का अवलोकन 5. समवायांग, प्रकीर्णक 6. च चब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोत्तरिका अने कोतरिका च तत्र शतं यावदेकोतरिका परतोऽनेकोतरिकेति / -समवायांग वृत्ति, पत्र 105 7. भगवतीसूत्र, शतक 5, उ. 5, पृ.८२६ ---भाग 2 सैलाना (म.प्र.) [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का संकेत किया गया है। इसी तरह स्थानांग में भी बलदेव और वासुदेव के पूर्ण विवरण के लिए समवायाग के अन्तिम भाग को अवलोकन करने हेतु सूचन किया है / इस विचार-चर्चा में यह स्पष्ट है कि समवायांग में जो परिशिष्ट विभाग है, वह विभाग देवद्धिगणिक्षमाश्रमण ने समवायांग में जोड़ा है। यह शोधार्थी के लिए अन्वेषणीय है कि नन्दी और समवायांग इन दोनों पागमों के संकलनकर्ता देवद्धि गणिक्षमाश्रमण हैं, तो फिर उन्होंने दोनों प्रागमों में जो विवरण दिया है, उसमें एकरूपता क्यों न रखी? दो प्रकार के विवरण क्यों दिये ? समाधान है कि अनेक वाचनाएं समय-समय पर हुयी हैं। अनेक वाचनाएं होने से बहुविध पाठ भी मिलते हैं / संभव है कि ये वाचनान्तर-व्याख्यांश अथवा परिशिष्ट मिलाने से हुये हों। विज्ञों ने यह कल्पना की है कि समवायांग में द्वादशांगी का जो उत्तरवर्ती भाग है, वह भाग उस का परिशिष्ट विभाग है। परिशिष्ट विभाग का विवरण नन्दीसूत्र की सूची में नहीं दिया गया है / इसलिये समवायांग की सूची विस्तृत हो गयी है। समवायांग के परिशिष्ट भाग में ग्यारह पदों का जो संक्षेप है, वह किस दृष्टि से इसमें संलग्न किया गया है, यह आगममर्मज्ञों के लिये चिन्तनीय है। समवायांग का वर्तमान में उपलब्ध पाठ 1667 श्लोक परिमाण है / इसमें संख्या क्रम से पृथ्वी, प्राकाश, पाताल, तीनों लोकों के जीव आदि समस्त तत्त्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या का परिचय प्रदान किया गया है। इस में प्राध्यात्मिक तत्त्वों, तीर्थकर, गणधर, चक्रवर्ती और वासुदेवों से सम्बन्धित वर्णन के साथ भूगोल, खगोल आदि की सामग्री का संकलन भी किया गया है / स्थानांग के समान ही समवायांग में भी संख्या के क्रम से वर्णन है / दोनों प्रागमों की शैली समान है। समान होने पर भी स्थानांग में एक से लेकर दश तक की संख्या का निरूपण है। जबकि समवायांग में एक से लेकर कोडाकोडी संख्या वाले विषयों का प्रतिपादन है। स्थानांग की तरह समवायांग की प्रकरण-संख्या निश्चित नहीं है। यही कारण है कि प्राचार्य देववाचक ने समवायांग का परिचय देते हुए एक ही अध्ययन का सूचन किया है। यह कोष-शैली अत्यन्त प्राचीन है। स्मरण करने की दृष्टि से यह शैली अत्यन्त उपयोगी रही है। यह शैली अन्य आगमों में भी दृष्टिगोचर होती है / उत्तराध्ययन सूत्र के इकतीसवें अध्ययन में चारित्र विधि में एक से लेकर तेतीस तक की संख्या में वस्तुओं की परिगणना की गयी है। अविवेकपूर्वक प्रवृत्तियां कौन सी हैं ? उनसे किस प्रकार बचा जा सकता है और किस प्रकार विवेकपूर्वक प्रवृत्ति की जा सकती है, आदि / शैली स्थानांग और समवायांग की प्रस्तुत कोष-शैली बौद्ध परम्परा में और वैदिक परम्परा में भी प्राप्त है ! बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपति , महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में इसी तरह विचारों का संकलन किया गया है। महाभारत के वनपर्व के 134 वें अध्याय में नन्दी और अष्टावक्र का संवाद है। उस में दोनों पक्ष वाले एक से लेकर तेरह तक वस्तुओं की परिगणना करते हैं। प्राचीन युग में लेखन सामग्री की दुर्लभता थी। मुद्रण का तो पूर्ण प्रभाव ही था। इसलिये स्मृति की सरलता के लिये संख्याप्रधान शैली अपनायी गयी थी। समवायांग में संग्रहप्रधान कोष-शैली होते हुये भी कई स्थानों पर यह शैली आदि से अन्त तक एकरूपता 8. एवं जहा समवाए निरवसेसं...... / -स्थानाङ्ग 9, सूत्र 672, मुनि कन्हैयालालजी 'कमल' [19] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को लिये हुये नहीं है। उदाहरण के रूप में अनेक स्थानों पर व्यक्तियों के चरित्र मा गये हैं। पर्वतों के वर्णन मा गये हैं तथा संवाद आदि भी। प्रस्तुत प्रागम में एक संख्यक प्रथम सूत्र के अन्त में यह कथन किया गया है / कितने ही जीव एक भव में सिद्धि को वरण करेंगे। उसके पश्चात दो से लेकर तेतीस संख्या तक यह प्रतिपादन किया गया है। इसके बाद कोई कथन नहीं है। जिससे जिज्ञासु के अन्तर्मानस में यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि चौंतीस भव या उससे अधिक भव वाले सिद्धि प्राप्त करेंगे या नहीं ? इसका कोई समाधान नहीं है। हमारी दृष्टि से प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय प्रागमों के संकलन करते हुये ध्यान न रहा हो, या कुछ पाठ विस्मृत हो गये हों, जिसकी पूर्ति उन्होंने अनन्त संसार न बढ़ जाये, इस भय से न की हो। - यह बात हम पूर्व ही बता चुके हैं कि संख्या की दृष्टि से प्रस्तुत भागम में विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इसलिये यह आवश्यक नहीं कि उस विषय के पश्चात् दूसरा विषय उसी के अनुरूप हो। प्रत्येक विषय संख्या दृष्टि से अपने आप में परिपूर्ण है तथापि आचार्य अभयदेव ने अपनी वत्ति में एक विषय का दूसरे विषय के साथ सम्बन्ध संस्थापित करने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं पर उन्हें पूर्ण सफलता मिली है तो कहीं-कहीं पर ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्तिकार ने अपनी ओर से हठात् सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है। वस्तुतः इस प्रकार की शैली में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध हो, यह आवश्यक नहीं। संख्या की दृष्टि से जो भी विषय सामने पाया, उसका इस पागम में संकलन किया गया। चतुष्टय की दृष्टि से वर्णन समवायांग में द्रव्य की दृष्टि से जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, प्राकाश आदि का निरूपण किया गया है / क्षेत्र की दृष्टि से लोक, अलोक, सिद्धशिला, प्रादि पर प्रकाश डाला गया है। काल की दृष्टि से समय, प्रावलिका, मुहूर्त प्रादि से लेकर पल्योपम, सागरोपम, उत्सपिणी, प्रवसर्पिणी, और पुद्गल-परावर्तन, एवं चार गति के जीवों की स्थिति आदि पर चिन्तन किया गया है। भाब की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन चारित्र एवं वीर्य, प्रादि जीव के भावों का वर्णन है और वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान, स्पर्श, आदि अजीव भावों का वर्णन भी किया गया है। प्रथम समवाय : विश्लेषण समवायांग के प्रथम समवाय में जीव, अजीव प्रादि तत्त्वों का प्रतिपादन करते हुये प्रात्मा, अनात्मा, दण्ड, अदण्ड, क्रिया, प्रक्रिया, लोक, अलोक, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष, पाश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, आदि को संग्रह नय की दष्टि से एक-एक बताया गया है। उसके पश्चात लम्बाई-चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप सर्वार्थसिद्ध विमान आदि का उल्लेख है। एक सागर की स्थिति वाले नारक, देव प्रादि का विवरण दिया गया है। प्रथम समवाय में बहुत ही संक्षेप में शास्त्रकार ने जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। भारतीय दर्शनों में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न प्रात्मा का रहा है। अन्य दार्शनिकों ने भी प्रात्मा के सम्बन्ध में चिन्तन किया किन्तु उनका चिन्तन गहराई को लिये हुये नहीं था। विभिन्न दार्शनिकों के विभिन्न मत थे। कितने ही दार्शनिक प्रात्मा को व्यापक मानते हैं तो कितने ही दार्शनिक प्रात्मा को अंगुष्ठप्रमाण या तण्डुलप्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्त दृष्टि से आत्मा का निरूपण किया है। वह जीव को परिणामी नित्य मानता है। द्रव्य की दृष्टि से जीव नित्य है, तो पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। यहाँ पर प्रस्तुत एकस्थानक समवाय में, प्रात्मा [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्त होने पर भी सभी आत्माएँ असंख्यात प्रदेशी होने से और चेतनत्व की अपेक्षा से एक सदृश हैं। सभी आत्माएँ स्वदेहपरिमाण हैं। अतएव यहाँ आत्मा को एक कहा है। सर्वप्रथम प्रात्म तत्त्व का ज्ञान प्रावश्यक होने से स्थानांग और समवायांग दोनों ही आगमों में प्रथम प्रात्मा की चर्चा की है। आत्मा को जानने के साथ ही अनात्मा को जानना भी आवश्यक है / अनात्मा को ही अजीव कहा गया है। अजीव के सम्बन्ध से ही प्रात्मा विकृत होता है। उसमें विभाव परिणति होती है / अतः अजीव तत्त्व के ज्ञान की भी आवश्यकता है। अचेतनत्व सामान्य की अपेक्षा से अजीव एक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल, ये सभी अजीव हैं। इन से आत्मा का अनुग्रह या उपधात नहीं होता। प्रात्मा का उपघात करने वाला पुद्गल द्रव्य है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, वचन, आदि पुद्गल है। ये चेतन के संसर्ग से चेतनायमान होते हैं। विश्व में रूप, रस, गन्ध, और स्पर्शवाले जितने भी पदार्थ हैं, वे सभी पौद्गलिक हैं / शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार, सर्दी-गर्मी सभी पुद्गल स्कन्धों की अवस्थाएँ हैं और वही एक आसक्ति का मल केन्द्र है। शरीर के किसी भी स्नायू-संस्थान के विकृत होने पर उसका ज्ञान-विकास रुक जाता है / तथापि यह सत्य है कि प्रात्मा का सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र अस्तित्त्व है / वह तेल व बत्ती से भिन्न ज्योति की तरह है। जिस शक्ति से शरीर चिन्मय हो रहा है, वह अन्तःज्योति शरीर से भिन्न है / आत्मा सूक्ष्म कार्मण शरीर के कारण स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे स्थूल शरीर को धारण करता है / इसलिये प्रात्मा और अनात्मा का ज्ञान साधना के लिये मावश्यक है। इसी तरह दण्ड, अदण्ड, क्रिया, प्रक्रिया आदि की चर्चा भी मुमुक्षत्रों के लिए उपयोगी है। __भारतीय चिन्तन में लोकवाद की चर्चा बड़े विस्तार के साथ हुयी है। विश्व के सभी द्रव्यों का आधार "लोक" है / लोकवाद में अनन्त जीव भी हैं तो अजीव भी। धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव जहाँ रहते हैं, वह लोक है। लोक को समन भाव से, सन्तति की दृष्टि से निहारें तो वह अनादि अनन्त है। न कोई द्रव्य नष्ट हो सकता और न कोई असत् से सत् बनता है। जो द्रव्यसंख्या है, उसमें एक परमाणु की भी अभिवृद्धि कोई नहीं कर सकता / प्रतिसमय विनष्ट होने वाले द्रव्यगत पर्यायों की दृष्टि से लोक सान्त है। द्रव्य दृष्टि से लोक शाश्वत है / पर्याय दृष्टि से अशाश्वत है। कार्यों की उत्पत्ति में काल एक साधारण निमित्त है, जो प्रत्येक परिणमनशील द्रव्य के परिणाम में सहायक होता है। वह भी अपने आप में अन्य द्रव्यों की भांति परिणमनशील है। आकाश के जितने हिस्से तक छहों द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक है / और उससे परे केवल आकाशमात्र अलोक है। क्योंकि जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में धर्म और अधर्म द्रव्य साधारण निमित्त होते हैं / जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य का सद्भाव है, वहाँ तक जीव और पुद्गल की गति और अवस्थिति सम्भव है। एतदर्थ ही आकाश के उस पुरुषाकार मध्यभाग को लोक कहा है जो धर्म, अधर्म द्रव्य के बराबर है। धर्म, अधर्म, लोक के मापदण्ड के सदृश है। इसीलिये लोक की तरह अलोक भी एक है। जैन आगम साहित्य में जीव और अजीव का जैसा स्पष्ट वर्णन है वैसा बौद्ध साहित्य में नहीं है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में लोक अनन्त है या सान्त है ? इस प्रश्न के उत्तर को तथागत बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास किया है। उन्होंने लोक के सम्बन्ध में इतना ही कहा–रूप, रस, आदि पाँच काम गुण से युक्त हैं। जो मानव इन पाँच कामगुणों का परित्याग करता है, वही लोक के अन्त में विचरण करता है। 8. भायणं सव्वदव्याणं-उत्तराध्ययन 28/9 9. उत्तराध्ययन, सूत्र 28/7 [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य और पाप ये दोनों शब्द भारतीय साहित्य में अत्यधिक विश्रुत हैं / शुभ कर्म पुण्य हैं, अशुभ कर्म पाप हैं। पुण्य से जीव को सुख का और पाप से दुःख का अनुभव होता है / पुण्य और पाप इन दोनों के द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को सुखानुभूति होती है वह द्रव्य कर्म है और जीव के दया, करुणा, दान, भावना आदि शुभ परिणाम भाव पुण्य हैं। उसी तरह जिस कर्म के उदय से जीव को दुःख का अनुभव होता है, वह द्रव्य पाप है और जीव के अशुभ परिणाम भावपाप हैं। सांख्यकारिका में भी पुण्य से ऊर्ध्वगमन और पाप से अधोगमन बताया है। जैनाचार्यों ने भी शुभ अध्यवसाय का फल स्वर्ग और अशुभ अध्यवसाय का फल नरक है" कहा है। पुण्य और पाप की भाँति बन्ध और मोक्ष की चर्चा भी भारतीय साहित्य में विस्तार के साथ मिलती है। दो पदार्थों का विशिष्ट सम्बन्ध बन्ध कहलाता है। यों बन्ध को यहाँ पर एक कहा है। पर उस के दो प्रकार हैं। एक भाव बन्ध और दूसरा द्रव्य बन्ध / जिन राग, द्वेष और मोह प्रभाति विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है वे भाव भावबन्ध कहलाते हैं। और कर्म-पुद्गलों का प्रात्मप्रदेशों के सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। द्रव्यबन्ध प्रात्मा और पुदगल का सम्बन्ध है। यह पूर्ण सत्य है कि दो द्रव्यों का संयोग हो सकता है पर तादात्म्य नहीं। दो मिलकर एक से प्रतीत हो सकते हैं पर एक की सत्ता समाप्त होकर एक शेष नहीं रह सकता। / उमास्वाति१२ ने लिखा है कि योग के कारण समस्त प्रात्मप्रदेशों के साथ सूक्ष्म कर्म-पूदगल एक क्षेत्रावग्राही हो जाते हैं / अर्थात् जिस क्षेत्र में प्रात्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए कर्म-पुद्गल जीव के साथ बद्ध हो जाते हैं। इसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। प्रात्मा और कर्मशरीर का एक क्षेत्रावगाह के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का कोई रासायनिक-मिश्रण नहीं होता / प्राचीन कर्म-पुद्गलों से नवीन कर्म-पुद्गलों का रासायनिक मिश्रण होता है, पर प्रात्मप्रदेशों से नहीं। जीव के रागादि भावों से प्रात्मप्रदेशों में एक प्रकम्पन होता है। उससे कर्म-योग्य पुदगल प्राकर्षित होते हैं। इस योग से उन' कर्म-वर्गणाओं में प्रकृति, यानि एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न होता है। यदि वे कर्मपुद्गल ज्ञान में विघ्न उत्पन्न करने वाली क्रिया से प्राकषित होते हैं तो उनमें ज्ञान के प्राच्छादन करने का स्वभाव पड़ेगा। यदि वे रागादि कषाओं से आकर्षित किये जायेंगे तो कषायों की तीव्रता और मन्दता के अनुसार उस कर्म-पुद्गल में फल देने की प्रकृति उत्पन्न होती है। प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध योग से होता है। पौर स्थिति और अनुभाग-बन्ध कषाय होता है। कर्मबन्ध से पूर्णतया मुक्त होना मोक्ष है। मोक्ष का सीधा और सरल अर्थ है--छटना। पानादिकाल से जिन .. कर्मबन्धनों से प्रात्मा जकड़ा हुआ था, वे बन्धन कट जाने से प्रात्मा पूर्णस्वतन्त्र हो जाता है। उसे मुक्ति कहते हैं। बौद्ध-परम्परा में मोक्ष के अर्थ में “निर्वाण' शब्द का प्रयोग हया है। उन्होंने क्लेशों के बुझने के अर्थ में प्रात्मा का बझना मान लिया है, जिससे निर्वाण का सही स्वरूप प्रोझल हो गया है। कर्मों को नष्ट करने का इतना ही अर्थ है कि कर्मपुद्गल प्रात्मा से पृथक् हो जाते हैं। उन कर्मों का अत्यन्त विनाश नहीं होता। किसी भी सत् का अत्यन्त विनाश तीनों-कालों में नहीं होता। पर्यायान्तर होना ही नाश कहा गया है। जो कर्म 10. धर्मेण गमनमूवं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण / --सांख्य-४४ 11. क—प्रवचनमार 1, 9, 11, 12, 13, 2,89, ख-समयसार-१५५-१६१ 12. नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः --तत्त्वार्थसूत्र 8/14 13. जीवाद् विश्लेषणं भेदः सतो नात्यन्तसंक्षयः / -प्राप्तपरीक्षा-११५ [ 22 ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल प्रात्मा के साथ सम्पृक्त होने से प्रात्मगुणों का हनन करते थे, जिससे वे कर्मत्व पर्याय से युक्त थे, वह कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जाती है। जैसे कर्मबन्धन से मुक्त होकर--आत्मा शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही कर्म पुद्गल भी कर्मत्व-पर्याय से मुक्त हो जाता है / जैन दृष्टि से प्रात्मा और कर्म पुद्गल का सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष है। बन्ध और मोक्ष के पश्चात् एक पाश्रव और एक संवर का उल्लेख किया है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये आश्रव हैं। जिन भावों में कर्मों का प्राश्रव होता है, वह भावाश्रव है और कर्म द्रव्य का आना द्रव्याश्रव है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि पुद्गलों में कर्मत्व पर्याय का विकसित होना द्रव्याश्रव है। से आश्रव के दो प्रकार हैं-एक साम्परायिक प्राश्रव. जो कषायानरञ्जित योग से होने वाले बन्ध का कारण होकर संसार की अभिवद्धि करता है। दूसरा ईर्यापथ आश्रव जो केवल योग से होने वाला है। इसमें कषायाभाव होने से स्थिति एवं विपाक रूप बन्धन नहीं होता। यह आश्रव वीतराग जीवन्मुक्त महात्मानों को ही होता है / कषाय और योग प्रत्येक संसारी आत्मा में रहा हया है। जिससे सप्त कर्मों का प्रतिसमय प्राश्रव होता रहता है। परभव में शरीर आदि की प्राप्ति के लिये प्रायुःकर्म का प्राधव बर्तमान प्रायु के त्रिभाग में होता है, अथवा नौवें भाग में होता है, या सत्तावीसवें भाग में होता है अथवा अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर / ' प्राश्रव से विपरीत संवर है। जिन कारणों से कर्मों का बन्ध होता है, उनका निरोध कर देना 'संवर' है। मुख्य रूप से प्राश्रव योग से होता है। अतः योग की निवत्ति ही संवर है।। तथागत बुद्ध ने संवर का उल्लेख किया है। उन्होंने विभाग कर इस प्रकार प्रतिपादन किया है(१) संबर से इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है और इन्द्रियों का संवर होने से वह गुप्तेन्द्रिय बनता है, जिससे इन्द्रियजन्य आश्रव नहीं होता / (2) प्रतिसेवना--भोजन, पान, वस्त्र, चिकित्सा, आदि न करने पर मन प्रसन्न नहीं रहता और मन प्रसन्न न रहने से कर्मबन्ध होता है। अतः मन को प्रसन्न रखने के लिये इनका उपयोग करना चाहिये जिससे प्राश्रव का निरोध हो। यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि भोगोपभोग की दृष्टि से उसका उपयोग किया जाये तो वह आश्रव का कारण है। (3) अधिवासना-किसी में शारीरिक कष्ट सहन करने की क्षमता है। उसे शारीरिक कष्ट पसन्द है / तो उसे कष्ट सहन से आश्रव-निरोध होता है। (4) परिवर्जन--क्रूर हाथी, घोड़ा, आदि पशु, सर्प बिच्छ प्रादि जन्तु, गर्त कण्टक स्थान, पाप मित्र ये सभी दुःख के कारण हैं। उन दुःख के कारणों को त्यागने से प्राश्रव का निरोध होता है। (5) विनोदना-हिंसावितर्क, पापवितर्क, काम-वितर्क, आदि बन्धक वितर्कों की भंजना न करने से तज्जन्य प्राश्रव का निरुन्धन होता है। (6) भावना----शुभ भावना से आश्रव का निरुन्धन होता है। यदि शुभ भावना न की जायेगी तो अशुभ भावनाएँ उदबूद्ध होंगी। अत: अशुभ भावना का निरोध करने हेतु शुभ भावना भावना आश्रय के निरुन्धन का कारण है। ---अंगुत्तर निकाय 6 / 58 प्राश्रव और संवर के पश्चात्--वेदना और निर्जरा का उल्लेख है। कर्मों का अनुभव करना "वेदन" है। वह दो प्रकार का है। अबाधाकाल की स्थिति पूर्ण होने पर यथाकाल वेदन करना और कितने ही कर्म, जो कालान्तर में उदय में प्राने योग्य हैं, उन्हें जीव अपने अध्यवसाय विशेष से स्थिति का परिपाक होने के पूर्व ही उदयावलि में खींच लाता है, यह उदीरणा है। उदीरणा के द्वारा खींच कर लाये हुये कर्म का वेदन करना यह दूसरा प्रकार है। बौद्धों ने प्राश्रव का कारण अविद्या बताया है। अविद्या का निरोध करना ही प्राश्रव का निरोध करना है। उन्होंने पाश्रव के कामाश्रव और भयाश्रव और अविद्याश्रव ऐसे तीन भेद किये हैं। -अंगुत्तर निकाय 3,58,6,63 1. सोवक्कमाउया पुण, सेसतिभागे अहव नवमभागे / सत्तावीसइमे वा, अंतमुहुत्तं लिमवावि / --संग्रहणी सूत्र, गा. 302 [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेदना के पश्चात निर्जरा का उल्लेख है। निर्जरा का अर्थ है संचित कमों का नाश होना / / 4 प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि भवभ्रमण के बीजभूत कर्म हैं। उन कर्मों का पात्म-प्रदेशों से पृथक हो जाना "निर्जरा" है। वह निर्जरा दो प्रकार की है-सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा। प्रयत्न और ज्ञानपूर्वक तप आदि क्रियाओं के द्वारा कर्मों का नष्ट होना सकामनिर्जरा है। सकामनिर्जरा में प्रात्मा और मोक्ष का विवेक होता है, जिससे ऐसी अल्पतम निर्जरा भी विराट् फल प्रदान करने वाली होती है। अज्ञानी जीव जितने कर्मों को करोड़ों वर्षों में नहीं खपा सकता, उतने कर्म ज्ञानी एक श्वासोच्छ्वास जितने अल्प समय में खपा देता है / अकाम निर्जरा वह है--कर्म की स्थिति पूर्ण होने पर कर्म का वेदन हो जाने पर उनका पृथक हो जाना / परतन्त्रता के कारण भोग उपभोग का निरोध होने से भी प्रकामनिर्जरा होती है। जैसे नारकी या तिर्यञ्च गतियों में जीव असह्य वेदनाएँ, घोरातिघोर यातनाएँ छेदन-भेदन को सहन करता है। और मानव जीवन में भी मजबूरी से अनिच्छापूर्वक कष्टों को सहन करता है। वह दो प्रकार की है। एक औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा, दूसरी अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा। तप आदि से कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल दिये झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक रूप से प्रतिसमय कर्मों का फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। प्रतिपल-प्रतिक्षण प्रत्येक प्राणी को सविपाक निर्जरा होती रहती है। पुराने कर्मों के स्थान को नूतन कर्म ग्रहण करते रहते हैं। तप रूपी अग्नि से—कर्मों को फल देने से पूर्व ही भस्म कर देना प्रौपक्रमिक निर्जरा है। कर्मों का विपाक-फल टल नहीं सकता "नाभक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतरपि" यह नियम प्रदेशोदय पर तो लागू होता है पर विपाकोदय पर नहीं। प्रस्तुत कथन प्रवाहपतित साधारण सांसारिक अात्माओं पर लागू होता है। पुरुषार्थी साधक ध्यान रूपी अग्नि में समस्त कर्मों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं। इस प्रकार प्रथम समवाय में जैनदर्शन के मुख्य तत्व प्रात्मा, अनात्मा, बन्ध, बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण प्रादि पर प्रकाश डाला है / प्रात्मा के साथ अनात्मा का जो निरूपण किया गया है, वह इसलिये आवश्यक है कि अजीव-पौद्गलिक कर्मों के कारण प्रात्मा स्व-स्वरूप से च्युत हो रहा है। संग्रहनय की अपेक्षा से शास्त्रकार ने गुरुगम्भीर-रहस्यों को इसमें व्यक्त किया है। द्वितीय समवाय : विश्लेषण दूसरे समवाय में दो प्रकार के दण्ड, दो प्रकार के बन्ध, दो राशि, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे, नारकीय और देवों की दो पल्यापम और दो सागरोपम की स्थिति, दो भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का वर्णन है। इस में सर्वप्रथम दण्ड का वर्णन है। अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड, ये दण्ड के दो प्रकार हैं / स्वयं के शरीर की रक्षा के लिये कुटुम्ब, परिवार, समाज, देश, और राष्ट्र के पालन-पोषण के लिये जो हिंसादि रूप पाप प्रवृति की जाती है, वह अर्थदण्ड है। अर्थदण्ड में प्रारंभ करने की भावना मुख्य नहीं होती / कर्तव्य से उत्प्रेरित होकर प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए प्रारम्भ किया जाता है। अनर्थदण्ड का अर्थ है--बिना किसी प्रयोजन के-निरर्थक पाप करना / अर्थ और अनर्थ दण्ड को नापने का थर्मामीटर . 14. क-राजवार्तिक 7 / 14 / 40 / 17 ख-द्रव्यसंग्रह 36 / 150 ग-भावनाशतक 67 15. योगशास्त्र 486 16. क-महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक 101 ख-प्रवचनसार 4 / 38 [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेक है। कितने ही कार्य परिस्थिति-बिशेष से अर्थ रूप होते हैं। परिस्थिति परिवर्तन होने पर वे ही कार्य अनर्थ रूप भी हो जाते हैं। प्राचार्य उमास्वाति ने अर्थ और अनर्थ शब्द की परिभाषा इस प्रकार की है-- जिससे उपभोग, परिभोग होता है वह श्रावक के लिये अर्थ है और उससे भिन्न जिसमें उपभोग-परिभोग नहीं होता है, वह अनर्थदण्ड है / प्राचार्य अभयदेव ने लिखा है कि अर्थ का अभिप्राय "प्रयोजन" है। गृहस्थ अपने खेत, घर, धान्य, धन की रक्षा या शरीर पालन प्रभाति प्रवृत्तियां करता है। उन सभी प्रवृत्तियों में प्रारम्भ के द्वारा प्राणियों का उपमर्दन होता है। वह अर्थदण्ड है। दण्ड, निग्रह, यातना और विनाश ये चारों शब्द एकार्थक हैं / अर्थदण्ड के विपरीत केवल प्रमाद, कुतुहल, अविवेक पूर्वक निष्प्रयोजन निरर्थक प्राणियों का विघात करना अनर्थदण्ड है / साधक अनर्थदण्ड से बचता है। अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड के पश्चात् जीवराशि और अजीवराशि का कथन किया गया है। टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने टीका में प्रस्तुत विषय को प्रज्ञापनासूत्र से उसके भेद और प्रभेदों को समझने का सूचन किया है। हम यहाँ पर उतने विस्तार में न जाकर पाठकों को वह स्थल देखने का संकेत करते हुये यह बताना चाहेंगे कि भगवान महावीर के समय जीव और अजीब तत्त्वों की संख्या के सम्बन्ध में अत्यधिक मतभेद थे। एक ओर उपनिषदों का अभिमत था कि सम्पूर्ण-विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के अभिमत से जीव और अजीव एक हैं। बौद्धों का मन्तव्य है कि अनेक चित्त और अनेक रूप हैं। इस दृष्टि से जैन दर्शन का मन्तव्य आवश्यक था। अन्य दर्शनों में केवल संख्या का निरूपण है। जब कि प्रज्ञापना सूत्र में अनेक दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। जिस तरह से जीवों पर चिन्तन है, उसी तरह से अजीव के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। यहाँ तो केवल अति संक्षेप में सूचना दी गई है। 20 बन्ध के दो प्रकार बताये हैं, रागबन्ध और द्वेषबन्ध / यह बन्ध केवल मोहनीय कर्म को लक्ष्य में लेकर के बताया गया है। राग में माया और लोभ का समावेश है और द्वेष में क्रोध और मान का समावेश है। अंगुत्तर निकाय में तीन प्रकार का समुदाय माना है---लोभ से, द्वेष से और मोह से / उन सभी में मोह अधिक प्रबल हैं।" इस प्रकार दो राशि का उल्लेख है। यह विशाल संसार दो तत्त्वों से निर्मित है। सृष्टि का यह विशाल रथ उन्हीं दो चक्रों पर चल रहा है। एक तत्व है चेतन और दूसरा तत्व है जड़। जीव और अजीव ये दोनों संसार नाटक के सूत्रधार हैं। वस्तुतः इनकी क्रिया-प्रतिक्रिया ही संसार है। जिस दिन ये दोनों साथी बिछुड़ जाते हैं उस दिन संसार समाप्त हो जाता है। एक जीव की दृष्टि से परस्पर सम्बन्ध का विच्छेद होता है पर सभी जीवों की अपेक्षा से नहीं। अतः राशि के दो प्रकार बताये हैं। द्वितीय स्थान में दो की संख्या को लेकर चिन्तन है। इसमें से बहुत सारे सूत्र ज्यों के त्यों स्थानांग में भी प्राप्त हैं। तृतीय समवाय : विश्लेषण तृतीय स्थान में तीन दण्ड, तीन गुप्ति, तीन शल्य, तीन गौरव, तीन विराधना, मगाशिर पुष्य, आदि के तीन तारे, नरक, और देवों की तीन पल्योपम, व तीन सागरोपम की स्थिति तथा कितने ही भवसिद्धिक जीव तीन भव करके मुक्त होंगे, प्रादि का निरूपण है। 17. उपभोगपरिभोगी अस्याऽमारिणोऽर्थः / तदव्यतिरिक्तोऽनर्थः / -तत्त्वार्थभाष्य 7-16 18. उपासकदशांग, १-टीका 19. समवायांग सूत्र 149, अभयदेव वृत्ति 20. जैन आगम साहित्य-मनन और मीमांसा, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ. 239 से 241 21. अंगुत्तरनिकाय 3, 97 तथा 6 / 39 [ 25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत समवाय में तीन दण्ड का उल्लेख है। दुष्प्रवृत्ति में संलग्न मन, वचन और काय, ये तीन दण्ड हैं। इन से चारित्र रूप ऐश्वर्य का तिरस्कार होता है। प्रात्मा दण्डित होता है। इसलिये इन्हें दण्ड कहा है। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति जो संसाराभिमुख है, वह दण्ड है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पूर्वक मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को अपने मार्ग में स्थापित करना गुरित है / 22 गुप्ति के तीन प्रकार हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति / मनोगुप्ति का अर्थ है संरम्भ समारम्भ, और प्रारम्भ में प्रवृत्त मन को रोकना / 23 उपर शब्दों में कहा जाये तो राग-द्वेष आदि कषायों से मन को निवृत्त करना मनोगुप्ति है। असत्य भाषण आदि से निवृत्त होना या मौन धारण करना, वचनगुप्ति है।२४ असत्य कठोर प्रात्मश्लाघी वचनों से दूसरों के मन का धात होता है अतः ऐसे बचन का निरोध करना चाहिए / 25 अज्ञानवश शारीरिक क्रियाओं द्वारा बहुत से जीवों का पात होता है। अतः अकुशल कायिक प्रवत्तियों का विरोध करना कायगुप्ति है। साधना की प्रगति में शल्य बाधक है। शल्य अन्दर ही अन्दर कष्ट देता है। वैसे ही माया, निदान और मिथ्यादर्शन ये साधना को विकृत करते हैं। साधक को इन से बचना चाहिये। अभिमान और लोभ से आत्मा भारी बनता है और अपने आप को गौरवशाली मानता है। पर वह अभिमान से उत्तप्त हुए चित्त की एक विकृत स्थिति है / साधना की दृष्टि से वह गौरव नहीं, रौरव है। इसलिये साधक को तीनों प्रकार के गौरव से बचने का संकेत किया है / ज्ञाए, दर्शन और चारित्र ये तीनों मोक्ष-मार्ग हैं। इन्हें रत्नत्रय भी कहा गया है / यहां पर ज्ञान से सम्यग्ज्ञान को लिया गया है जो सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है। जीव मिथ्याज्ञान के कारण अपने स्वरूप को विस्मत होकर, पर द्रव्य में आत्म बद्धि करता है। उस का समस्त क्रियाकलाप शरीराश्रित होता है। लौकिक यश, लाभ, आदि की दृष्टि से वह धर्म का प्राचरण करता है। उसमें स्व और पर का विवेक नहीं होता है / किन्तु सम्यग्दर्शन द्वारा साधक को स्व और पर का यथार्थ परिज्ञान हो जाता है / 27 वह संशय, विपर्यय, और अनध्यवसाय—-इन तीन दोषों को दूर कर प्रात्म-स्वरूप को जानता है।२८ अात्मस्वरूप को जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है / 26 जीव, अजीव, पाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष तत्त्व के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन से यथार्थ, अयथार्थ का बोध उत्पन्न होता है। रागादि कषाय परिणामों के परिमार्जन के लिये अहिंसा, सत्य, आदि व्रतों का पालन “सम्यग-चारित्र" है। इन तीनों की विराधना करने से साधक साधना से च्यत होता है। इस प्रकार ततीय स्थान में तीन संख्या को लेकर अनेक तथ्य उद्घाटित किये गये हैं। 22. (क) उत्तराध्ययन अं. 24, गा. 26 (ख) सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः - तत्त्वार्थमूत्र 9/4 (ग) ज्ञानार्णव 18/4 (4) आर्हत् दर्शन दीपिका 5/642 (ङ) गोपनं गुप्ति:--मन: प्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति 23. रामादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति- मूलाराधना 6/1187 24. योगशास्त्र 1/42 25. उत्तराध्ययन 24/24-25 26. उत्तराध्ययन 24/25 27. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् / --प्रमेयरत्नमाला-१ 28. तातें जिनवर कथित तत्त्व अभ्यास करीजे। संशय विभ्रम मोह त्याग प्रापो लख लीजे।। -छहढाला 4/6 . 29. छहढाला 3/2 / [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ समवाय : विश्लेषण चतुर्थ स्थानक समवाय में चार कषाय, चार ध्यान, चार विकथाएं, चार संज्ञाएं, चार प्रकार के बन्ध, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा के तारों, नारकीय व देवों की चार पस्योपम व सागरोपम स्थिति का उल्लेख करते हुए कितने ही जीवों के चार भव कर मोक्ष जाने का वर्णन है / प्रात्मा के परिणामों को जो कलुषित करता है, वह कषाय है। कषाय से आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप नष्ट होता है / कषाय प्रात्मधन को लटने वाले तस्कर हैं। वे प्रात्मा में छिपे हुए दोष हैं / क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय के चार प्रकार हैं। इन्हें चण्डाल चौकड़ी कहा जाता है / कषाय से मुक्त होना ही सच्ची मुक्ति है। 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव / ' कषाय के अनेक भेद-प्रभेद हैं। कषाय कर्मजनित और साथ ही कर्मजनक वकारिक प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति का परित्याग कर प्रात्मस्वरूप में रमण करना, यह साधक का लक्ष्य होना चाहिए / कषाय के पश्चात् चार ध्यान का उल्लेख है। ध्यान का अर्थ है-चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना। 30 चित्त को किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करना अत्यन्त कठिन है। वह अन्तमुहर्त से अधिक एकाग्र नहीं रह सकता। प्राचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है-जब साधक ध्यान में तन्मय हो जाता है तब उस में Qतज्ञान नहीं रहता। वह समस्त राग-द्वेष से ऊपर उठकर आत्मा स्व-रूप में ही निमग्न हो जाता है। 32 उसे तत्वानुशासन 33 में समरसी भाव, और ज्ञानार्णव में सयोर्य ध्यान कहा है। ध्यान के लिए मुख्य रूप से तीन बातें अपेक्षित हैंध्याता, ध्येय और ध्यान / ध्यान करने वाला ध्याता है। जिसका ध्यान किया जाता है, वह-ध्येय है और ध्याता का ध्येय में स्थिर हो जाना "ध्यान" है / 35 ध्यान-साधना के लिए परिग्रह का त्याग, कषायों का निग्रह, व्रतों का धारण और इन्द्रिय-विजय करना आवश्यक है / स्थानांग, भगवती 7, आवश्यकनियुक्ति३८, आदि में समवायांग की तरह ही आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार भेद प्रतिपादित किये गये हैं / इनमें प्रारम्भ के दो ध्यान अप्रशस्त हैं, और अन्तिम दो प्रशस्त हैं / योगग्रन्थों में अन्य दृष्टियों से ध्यान के भेद-प्रभेदों की चर्चा है / पर हम यहाँ उन भेद-प्रभेदों की चर्चा न कर आग ध्यानों पर ही संक्षेप में चिन्तन करेंगे। आर्ति नाम दुःख या पीड़ा का है उसमें से जो उत्पन्न हो वह प्रात 30. क-प्रावश्यक नियुक्ति 1459 ख-ध्यानशतक-२ ग-नव पदार्थ-पृ० 668 31. के-ध्यानशतक-३, ख-तत्त्वार्थसूत्र 9/28 ग-योगप्रदीप 15/33 32. योगप्रदीप 138 33. तत्त्वानुशासन 60-61 34. ज्ञानार्णव, अध्याय 28 35. योगशास्त्र 7/1 35. तत्त्वानुशासन 67 36. स्थानांग 4/247 37. भगवती श. 25 उद्दे. 7 38. प्रावश्यकनियुक्ति, 1458 [ 27 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है अर्थात् दुःख के निमित्त से या दुःख में होने वाला ध्यान प्रात्तध्यान है / यह ध्यान मनोज्ञ बस्तु के वियोग और अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होता है। राग भाव से मन में एक उन्मत्तता उत्पन्न होती है / फलतः अवांछनीय बस्तु की उपलब्धि और वांछनीय की अनुपलब्धि होने पर जीव दुःखी होता है। अनिष्ट संयोग, इष्टवियोग, रोग चिन्ता, या रोगार्त और भोगात ये चार प्रार्तध्यान के भेद हैं। इस ध्यान से जीव तिर्यञ्च गति को प्राप्त होता है / ऐसे ध्यानी का मन आत्मा से हटकर सांसारिक वस्तुओं में केन्द्रित होता है। रौद्रध्यान वह है जिसमें जीव स्वभाव से सभी प्रकार के पापाचार करने में समुद्यत होता है। क्रूर अथवा कठोर भाववाले प्राणी को रुद्र कहते हैं / वह निर्दयी बनकर ऋर कार्यों का कर्ता बनता है। इसलिए उसे रौद्र ध्यान कहा है। इस ध्यान में हिंसा, झठ चोरी, धन रक्षा व छेदन-भेदन प्रादि दुष्ट प्रवृत्तियों का चिन्तन होता है। इस ध्यान के हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द, संरक्षानन्द, ये चार प्रकार हैं।४१ इसलिए इन दोनों ध्यानों को हेय और अशुभ माना गया है। धर्मध्यान-आत्मविकास का प्रथम चरण है। इस ध्यान में साधक आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होता है। ज्ञानसार२ में बताया गया है कि शास्त्रवाक्यों के अर्थ, धर्ममार्गणाएँ, व्रत, गुप्ति, समिति, प्रादि की भावनाओं का--चिन्तन करना धर्मध्यान है। इस ध्यान के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य 3 अपेक्षित हैं / इनसे सहज रूप से मन स्थिर हो जाता है। प्राचार्य शुभचन्द्र ने धर्मध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं के चिन्तन पर भी बल दिया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण'५ ने स्पष्ट किया है कि धर्मध्यान का सम्यग् अाराधन एकान्त-शान्त स्थान में हो सकता है / ध्यान का प्रासन सुखकारक हो, जिससे ध्यान की मर्यादा स्थिर रह सके / यह ध्यान पद्मासन से बैठकर, खड़े होकर या लेट कर भी किया जा सकता है / मानसिक चंचलता के कारण कभी-कभी साधक का मन ध्यान में स्थिर नहीं होता / इसलिए शास्त्र में धर्मध्यान के चार आलम्बन बताये हैं।४ (1) आज्ञा विचय-सर्वज्ञ के वचनों में किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं है। इसलिए प्राप्त वचनों का पालम्बन लेना। यहाँ "विचय" शब्द का अर्थ "चिन्तन" है। (2) अपायविचय-कर्म नष्ट करने के लिए और आत्म तत्त्व की उपलब्धि के लिए चिन्तन करना / (3) विपाकविचय-कर्मों के शुभ-अशुभ फल के सम्बन्ध में चिन्तन करना अथवा कर्म के प्रभाव से प्रतिक्षण उदित होने वाली प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में विचार करना / (4) संस्थानविचय-यह जगत् उत्पाद और ध्रौव्य युक्त है। द्रव्य की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से उसमें उत्पाद और व्यय होता है। संसार के नित्यअनित्य स्वरूप का चिन्तन होने से वैराग्य भावना सुदढ़ होती है, जिससे साधकः प्रात्म-स्वरूप का अनुभव 39. स्थानांग 4/247 40. क-स्थानांग 4/247 ख-आवश्यक अध्ययन-४ 41. क--तत्त्वार्थ सूत्र 9/36 ख–ज्ञानार्णव 24/3 42. ज्ञानसार, 16 43. ध्यानशतक 30-34 44. चतस्रो भावना धन्याः, पुराणपुरुषाश्रिताः / मैन्यादयश्चिरं चिते विधेया धर्मसिद्धये // ज्ञानार्णव 25/4 45. ध्यानशतक, श्लोक 38, 39 46. क--स्थानाङ्ग, ख--योगशास्त्र 10/7, ग-ज्ञानार्णव 30/5, घ---तत्त्वानुशासन 9/8 47. योगशास्त्र 10-8,9; ख-ज्ञानार्णव-३८ [2] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का प्रयत्न करता है। प्राचार्य हेमचन्द्र, 8 योगीन्दुदेव,४६ अमितगति,५० आचार्य हरिभद्र उपाध्याय यथोविजय प्रादि ने धर्मध्यान के चार ध्येय बताये हैं। वे ये हैं :--(1) पिण्डस्थ (2) पदस्थ (3) रूपस्थ और (4) रूपांतीत / पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ शरीर के विभिन्न भागों पर मन को केन्द्रित करना। पाथिवी, आग्नेयी, मारुती, बारुणी और तत्त्ववती, इन पाँच धारणाओं के माध्यम से साधक उत्तरोत्तर प्रात्म-केन्द्र में ध्यानस्थ होता है / चतुर्विध धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने से मन स्थिर होता है। जिससे शरीर और कर्म के सम्बन्ध को भिन्न रूप से देखा जाता है। कर्म नष्ट कर शुद्ध प्रात्मस्वरूप का चिन्तन इसमें होता है / दूसरा पदस्थ ध्यान अर्थात् अपनी रुचि के अनुसार मन्त्राक्षर पदों का अवलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान है। इस ध्यान में मुख्य रूप से शब्द आलम्बन होता है। अक्षर पर ध्यान करने से प्राचार्य शुभचन्द्र ने इसे वर्णमात्रिका ध्यान भी कहा है। इस ध्यान में नाभि-कमल, हृदयकमल और मुखकमल की कमनीय कल्पना की जाती है। नाभिकमल में सोलह पत्रों वाले कमल पर सोलह स्वरों का ध्यान किया जाता है / हृदयकमल में कणिका व पत्रों सहित चौबीस दल वाले कमल की कल्पना कर उस पर क, ख, प्रादि पच्चीस वर्गों का ध्यान किया जाता है। उसी तरह मुख-कमल पर पाठ वर्गों का ध्यान किया जाता है / मन्त्रों और वर्गों में श्रेष्ठ ध्यान 'अर्हन' का माना गया है, जो रेफ से युक्तकला व बिन्दु से प्राक्रान्त अनाहत सहित-मन्त्रराज है।५3 इस मन्त्रराज पर ध्यान किया जाता है। इनके अतिरिक्त अनेक विधियों का निरूपण योगशास्त्र व ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों में विस्तार के साथ है। इस ध्यान में साधक इन्द्रिय-लोलुपता से मुक्त होकर मन को अधिक विशुद्ध एवं एकाग्र बनाने का प्रयत्न करता है। तीसरा ध्यान "रूपस्थ" है इसमें राग-द्वेष आदि विकारों से रहित, समस्त सदगुणों से युक्त, सर्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान में अहन्त के स्वरूप का अवलम्बन लेकर ध्यान का अभ्यास किया जाता है।५५ ध्यान का चौथा प्रकार "रूपातीत" ध्यान है। रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप, रंग से अतीत, निरञ्जन-निराकार ज्ञानमय आनन्द स्वरूप का स्मरण करना। 5 इस ध्यान में ध्याता और ध्येय में कोई अन्तर नहीं रहता। इसलिये इस अवस्थाविशेष को प्राचार्य हेमचन्द्र ने समरसी भाव कहा है। 56 इन चारों धर्मध्यान के प्रकारों में क्रमशः शरीर, व निरञ्जन सिद्ध का चिन्तन किया जाता है। स्थल से सूक्ष्म की ओर बढ़ा जाता है। यह ध्यान सभी प्राणी नहीं कर सकते / साधक ही इस ध्यान के अधिकारी हैं। धर्मध्यान से मन में स्थैर्य, पवित्रता आ जाने से वह साधक आगे चलकर शुक्लध्यान का भी अधिकारी बन सकता है। ध्यान का चौथा प्रकार "शुक्ल" ध्यान है / यह प्रात्मा की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था है। श्रुत के प्राधार से मन की प्रात्यन्तिक स्थिरता और योग का निरोध शुक्ल ध्यान है। यह ध्यान कषायों के उपशान्त होने पर होता है। यह ध्यान वही साधक कर सकता है जो समताभाव में लीन हों, और बज्र ऋषभ नाराच संहनन 48. योगशास्त्र 7/49. योगसार-९८ 50. योगसार प्राभृत 51. योगशतक 52. ज्ञानार्णव-३५-१,२ 53. ज्ञानार्णव---३५/७-८ 54. अर्हतो रूपमालम्व्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते-योगशास्त्र 9/7 55. क-ज्ञानार्णव 37-16 ख-योगशास्त्र 10/1 56. योगशास्त्र 10/3,4 57. योगशतक 90 [29] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला हो / 56 शुक्ल ध्यान के (1) पृथक्त्व-श्रुत-सविचार (2) एकत्व श्रुत अविचार (3) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपत्ति (4) उत्पन्न क्रियाप्रतिपत्ति, इन प्रकारों में योग की दृष्टि से एकाग्रता की तरतमता बतलाई गयी है। मन, वचन, और काया का निरुन्धन एक साथ नहीं किया जाता / प्रथम दो प्रकार छद्मस्थ साधकों के लिये हैं और शेष दो प्रकार केवल ज्ञानी के लिये। इनका स्वरूप इस प्रकार है (1) पृथक्त्व अत सविचार-इस ध्यान में किसी एक द्रव्य में उत्पाद व्यय और ध्रौव्य आदि पर्यायों का चिन्तन श्रुत को आधार बनाकर किया जाता है। ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करता है, कभी शब्द का चिन्तन करता है। इसी तरह मन, वचन, और काय के योगों में संक्रमण करता रहता है। एक शब्द से दूसरे शब्द पर, एक योग से दूसरे योग पर जाने के कारण ही वह ध्यान "सविचार" कहलाता है।'(२) एकत्वश्रुत अविचार--श्रुत के आधार से अर्थ, व्यञ्जन, योग के संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान। पहले ध्यान की तरह इसमें पालम्बन का परिवर्तन नहीं होता। एक ही पर्याय को ध्येय बनाया जाता है। इसमें समस्त कषाय शान्त हो जाते हैं और आत्मा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय को नष्ट कर केवलज्ञान, केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।६२ (3) सक्ष्मक्रियाप्रतिपात्ति-तेरहवें गुणस्थानवर्ती-अरिहन्त की प्राय यदि केवल अन्तमुहूर्त अवशिष्ट रहती है और नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन कर्मों की स्थिति प्रायुकर्म से अधिक होती है, तब उन्हें समस्थितिक करने के लिये समुद्घात होता है। उससे आयुकर्म की स्थिति के बराबर सभी कर्मों की स्थिति हो जाती है। उसके पश्चात् बादरकाय योग का पालम्बन लेकर बादर मनोयोग एवं बादर वचन योग का निरोध किया जाता है। उसके पश्चात् सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर बादर काययोग का निरोध किया जाता है। उसके बाद सूक्ष्मकाययोग का अवलम्बन लेकर सूक्ष्ममनोयोग और सूक्ष्मवचनयोग का निरोध किया जाता है। इस अवस्था में जो ध्यान प्रक्रिया होती है, वह सूक्ष्म क्रियाप्रतिपत्ति शुक्लध्यान कहलाता है। इस ध्यान में मनोयोग और वचनयोग का पूर्ण रूप से निरोध हो जाने पर भी सूक्ष्म काययोग की श्वासोच्छ्वास आदि क्रिया ही अवशेष रहती है / (4) उत्सन्न क्रियाप्रतिपात्ति--इस ध्यान में जो सूक्ष्म क्रियाएं प्रवशिष्ट थीं, वह भी निवृत्त हो जाती हैं / पाँच ह्रस्व स्वरों के उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय में केवली भगवान् शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं / अघातिया कर्मों को नष्ट कर पूर्ण रूप से मुक्त हो जाते हैं। ध्यान के पश्चात चार विकथाओं का उल्लेख है। संयम बाधक वार्तालाप विकथा है। धर्मकथा से निर्जरा होती है तो विकथा से कर्मबन्धन / इसलिये उसे प्राश्रव में स्थान दिया गया है। भाषासमिति के साधक को विकथा का वर्जन करना चाहिए। जैन परम्परा में ही नहीं, बौद्ध परम्परा में भी विकथा को तिरच्छान कथा कहा है और उनके अनेक भेद बताये हैं-राजकथा, चोरकथा, महामात्यकथा, सेनाकथा, भयकथा, युद्धकथा, अन्नकथा, पानकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालाकथा, गन्धकथा, ज्ञातिकथा, यानकथा, ग्रामकथा, निगमकथा, 58. योगशास्त्र 11/2 59. स्थानांगसूत्र स्था. 4 60. ज्ञानार्णव-४२-१५-१६ 61. क-योगशतक 11/5 ख-ध्यानशतक 7/7/75 62. क-योगशास्त्र 11/12 ख-ज्ञानार्णव 39-26 63. क--योगशास्त्र 11-53 से 55 64. ज्ञानार्णव 39-47,49 65. क- उत्तराध्ययन, प्र. 34 गा. 9 ख-आवश्यकसूत्र प्र. 4 [30] / Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरकथा, जनपदकथा, स्त्रीकथा आदि / प्रस्तुत समवाय में चार विकथाओं का उल्लेख है। स्थानांग में एक एक विकथा के चार-चार प्रकार भी बताये हैं। और सातवें स्थान में सात विकथाओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है। विकथानों के पश्चात् चार संज्ञाओं का उल्लेख है। सामान्यतः अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं। दूसरे शब्दों में आसक्ति संज्ञा है। यहां पर संज्ञा के चार भेदों का निरूपण है। स्थानांगसूत्र में एक-एक संज्ञा के उत्पन्न होने के चार-चार कारण भी बताये हैं / दशवें स्थान में संज्ञा के दश प्रकार भी बताये हैं। बन्ध के चार प्रकारों के सम्बन्ध में हम पूर्व लिख ही चुके हैं / इस तरह चतुर्थ समवाय में चिन्तन की विपुल सामग्री विद्यमान है / पांचवाँ समवाय: एक विश्लेषण वाय में पांच क्रिया, पाँच महाव्रत, पांच कामगुण, पांच पाश्रवद्वार, पांच संवरद्वार, पांच निर्जरास्थान, पांच समिति, पांच' अस्तिकाय, रोहिणी, पूनर्वसु, हस्त, विशाखा धनिष्टा नक्षत्रों के पांच-पांच तारे, नारकों और देवों की पांच पल्योपम, और पांच सागरोपम की स्थिति तथा पांच भव कर मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का उल्लेख है। सर्वप्रथम क्रियाओं का उल्लेख है। क्रिया का अर्थ "करण" और व्यापार" है। कर्म-बन्ध में कारण बनने वाली चेष्टाएं "क्रिया' हैं / दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि मन, वचन और काया के दुष्ट व्यापारविशेष को क्रिया कहते हैं। क्रिया कर्म-बन्ध की मूल है। वह संसार-जन्ममरण की जननी है। जिससे कर्म का प्राश्रव होता है, ऐसी प्रवृत्ति क्रिया कहलाती है। स्थानांगसूत्र में भी क्रिया के जीव-क्रिया, अजीव क्रिया और फिर जीव-अजीव क्रिया के भेद-प्रभेदों की चर्चा है। यहां पर मुख्य रूप से पाँच क्रियाओं का उल्लेख है। प्रज्ञापना-सूत्र मे पच्चीस क्रियाओं का भी वर्णन मिलता है। जिज्ञास को वे प्रकरण देखने चाहिए / क्रियानों से मुक्त होने के लिए महाव्रतों का निरूपण है। महाव्रत श्रमणाचार का मूल है / आगम साहित्य में महाव्रतों के सम्बन्ध में विस्तार से विश्लेषण किया गया है। प्रागमों में महाव्रतों की तीन परम्पराएँ मिलती हैं। प्राचारांग७२ में अहिंसा, सत्य, बहिद्धादान इन तीन महाव्रतों का उल्लेख प्राप्त होता है। स्थानांग,७३ उत्तराध्ययन और दीघनिकाय७५ में चार याम का वर्णन है। वे ये हैं-अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य और बहिद्धादान / बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर चातुर्याम का उल्लेख हुमा है। प्रश्नव्याकरण के संवर प्रकरण में महाव्रतों की चर्चा है। दशवकालिक सूत्र में प्रत्येक महावत का विस्तृत 66. अंगुत्तरनिकाय 10-69 67. स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, सूत्र 282 68. स्थानांग, स्था. 4, सूत्र 569 69. स्थानांग, स्था. 10, सूत्र-७५१ 70. स्थानांग सूत्र-२१, 52 71. प्रज्ञापनासूत्र--२२ 72. प्राचारांग 8 / 15 73. स्थानाङ्ग 266 74. उत्तराध्ययन 23123 75. दीघनिकाय 76. प्रश्नव्याकरण, सूत्र-६/१० 77. दशवकालिक सूत्र, प्र. 4 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्लेषण किया गया है। भगवती सूत्र में प्रत्याख्यान के स्वरूप को बताने के लिये महाव्रतों का उल्लेख है। तत्वार्थसूत्र और उसके व्याख्यासाहित्य में भी महाव्रतों के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जिसे जैन साहित्य में महाव्रत कहा है उसे ही बौद्ध साहित्य में० दश कुशलधर्म कहा है। उन्होंने दश कुशल धर्मों का समावेश इस प्रकार किया हैमहावत कुशलधर्म (1) अहिंसा (1) प्राणातिपात एवं (9) व्यापाद से विरति (2) सत्य (4) मृषावाद (5) पिशुनवचन (6) परुषवचन (7) संप्रलाप से विरति (3) प्रचौर्य (2) अदत्तादान से विरति (4) ब्रह्मचर्य (3) काम में मिथ्याचार से विरति (5) अपरिग्रह (8) अमिथ्या विरति / अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत असंयम के स्रोत को रोककर संयम के द्वार को उद्घाटित करते हैं। हिंसादि पापों का जीवन भर के लिये तीन करण और तीन योग में त्याग किया जाता है। महाव्रतों में सावध योगों का पूर्ण रूप से त्याग होता है। महाव्रतों का पालन करना तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलने के सदृश है। जो संयमी होता है वह इन्द्रियों के कामगुणों से बचता है। आश्रवद्वारों का निरोध कर संवर और निर्जरा से कर्मों को नष्ट करने का प्रयत्न करता है। इसके पश्चात् शास्त्रकार ने पांच समितियों का उल्लेख किया है / सम्यक प्रवृत्ति को समिति कहा गया हैं।८१ मुमुक्षुओं की शुभ योगों में प्रवृत्ति होती है। उसे भी समिति कहा है / ६२र्यासमिति आदि पांच को इसीलिए समिति संज्ञा दी है। उसके पश्चात् पंच अस्तिकाय का निरूपण किया गया है / पंचास्तिकाय जैन-दर्शन की अपनी देन है। किसी भी दर्शन ने गति और स्थिति के माध्यम के रूप में भिन्न द्रव्य नहीं माना है / वैशेषिक दर्शन ने उत्क्षेपण प्रादि को द्रव्य न मानकर कर्म माना है / जैनदर्शन ने गति के लिए धर्मास्तिकाय और स्थिति के लिए अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य माने हैं। जनदर्शन की आकाश विषयक मान्यता भी अन्य दर्शनों से विशेषता लिये हुए है / अन्य दर्शनों ने लोकाकाश को अवश्य माना है पर अलोकाकाश को नहीं माना। अलोकाकाश की मान्यता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है। पुद्गल द्रव्य की मान्यता भी विलक्षणता लिये हए है। वैशेषिक आदि दर्शन पृथ्वी आदि द्रव्यों के पृथक-पृथक जातीय परमाणु मानते हैं / किन्तु जैनदर्शन पृथ्वी आदि का एक पुद्गल द्रव्य में ही समावेश करता है। प्रत्येक पुद्गल परमाणु में स्पर्श, रस, गन्ध और रूप रहते हैं। इसी प्रकार इनकी पृथक-पृथक जातियां नहीं, अपितु एक ही जाति है / पृथ्वी का परमाणु पानी के रूप में बदल सकता है और पानी . णु अग्नि में परिणत हो सकता है / साथ ही जैनदर्शन ने शब्द को भी पौद्गलिक माना है। जीव के सम्बन्ध में भी जैनदर्शन की अपनी विशेष मान्यता है / वह संसारी आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किसी भी दर्शन ने आत्मा को स्वदेह-परिमाण नहीं माना है। इस तरह पांचवें समवाय में जैनदर्शन सम्बन्धी विविध पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। 78. भगवतीसूत्र, शतक 7, उद्दे. 2, पृ. 175 79. तत्वार्थसूत्र-अ. 7 80. मज्झिमनिकाय--सम्मादिट्टो सुत्तन्त 29 81. उत्तराध्ययन २४/गाथा-२६ / 82. स्थानांग स्था. 8, सूत्र 603 की टीका Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा समवाय : एक विश्लेषण छठे समबाय में छह लेश्या, षट् जीवनिकाय, छह बाह्य तप, छह प्राभ्यन्तर तप, छह छायास्थिक समुदघात, छह अर्थावग्रह, कृत्तिका और पाश्लेषा, नक्षत्रों के छह-छह तारे, नारक व देवों की छह पल्योपम तथा छह सागरोपम की स्थिति का वर्णन किया गया है और कितने ही जीव छह भव ग्रहण करके मुक्त होंगे, यह बतलाया गया है। इस समवाय में सर्वप्रथम लेश्या का उल्लेख है / स्थानांग,८३ उत्तराध्ययन४ और प्रज्ञापना८५ में लेश्या के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। प्रागमयुग के पश्चात दार्शनिक युग के साहित्य में भी लेश्या के सम्बन्ध में व्यापक रूप से चिन्तन किया गया है। आधुनिक युग के वैज्ञानिक भी आभामण्डल के रूप में इस पर चिन्तन कर रहे हैं / सामान्य रूप से मन आदि योगों से अनुरञ्जित तथा विशेष रूप से कषायानुरञ्जित प्रात्म-परिणामों से जीव एक विशिष्ट पर्यावरण समुत्पन्न करता है। वह पर्यावरण ही लेश्या है। उत्तराध्ययन में लेश्या के पूर्व कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है अर्थात् कर्म लेश्या / कर्म-बन्ध के हेतु रागादिभाव कर्म लेश्या है। यों लेश्याएं भाव और द्रव्य के रूप से दो प्रकार की हैं। कितने ही प्राचार्य कषायानुरञ्जित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इस दृष्टि से लेश्या छद्मस्थ व्यक्ति को ही हो सकती है पर शुक्ल लेश्या तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली में भी होती है। अतः कोई-कोई योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कषाय से उसमें तीव्रता प्रादि का सन्निवेश होता है। प्राचार्य जिनदास गणि महत्तर ने स्पष्ट कहा है कि लेश्याओं के द्वारा प्रात्मा पर कर्मों का संश्लेष होता है / द्रव्य लेश्या के सम्बन्ध में चिन्तकों के विभिन्न मत रहे हैं। कितने ही विज्ञों के मत से लेश्या द्रव्य कर्मपरमाणु से बना हुआ है। पर बह पाठ कर्म अणुओं से भिन्न है। दूसरे विज्ञों के मत से लेश्या द्रव्य बध्यमान कर्म प्रवाह रूप है। तीसरे अभिमत के अनुसार वह स्वतन्त्र द्रव्य है / प्रस्तुत समवाय में छह बाह्य तप और छह प्राभ्यन्तर तपों का भी उल्लेख है। प्रथम बाह्य तप में अनशन / तपों से अधिक कठोर है। अनशन से शारीरिक, मानसिक विशुद्धि होती है। यह अग्निस्नान की तरह कर्म-मल को दूर कर प्रात्मा रूपी स्वर्ण को चमकाता है। दूसरा बाह्यतप ऊनोदरी है / उसे अवमौदर्य भी कहा है / द्रव्य ऊनोदरी में आहार की मात्रा कम की जाती है और भाव ऊनोदरी में कषाय की मात्रा कम की जाती है। द्रव्य ऊनोदरी से शरीर स्वस्थ रहता है और भाव ऊनोदरी से आन्तरिक गुणों का विकास होता है। विविध प्रकार के अभिग्रह करके आहार की गवेषणा करना भिक्षाचरी है। भिक्षाचरी के अनेक भेद-प्रभेदों का उल्लेख है।८७ भिक्षु को अनेक दोषों को टाल कर भिक्षा ग्रहण करनी होती है / 58 जिससे भोजन में प्रीति उत्पन्न होती हो, वह रस है। मधुर आदि रसों से भोजन में सरसता पाती है। रस उत्तेजना उत्पन्न करने वाले होते हैं / साधक आवश्यकतानुसार आहार ग्रहण करता है किन्तु स्वाद के लिए नहीं ! स्वाद के लिए आहार को चुसना, चबाना दोष है। उन रस के दोषों से बचना रसपरित्याग है। शरीर को कष्ट देना कायक्लेश है। साधक 83. स्थानांगसूत्र--सू. 132, 151, 221, 319, 504 84. उत्तराध्ययनसूत्र-अ. 34 85. प्रज्ञापनासूत्र-पद 17 16. लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्त-पावश्यकचूर्णि क-- उत्तराध्ययन 30/25 ख--स्थानांग-६ 88. कपिण्ड नियुक्ति-९२ से 96 ख-उत्तराध्ययन 24/12 [33] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्मा और शरीर को पृथक मानता है। प्राचार्य भद्रबाह ने कहा है कि यह शरीर अन्य है, आत्मा अन्य है। साधक इस प्रकार की तत्त्वबुद्धि से दुःख और क्लेश को देने वाली शरीर की ममता का त्याग करता है। स्थानांग में कायोत्सर्ग करना, उत्कटुक पासन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना, आदि कायक्लेश के अनेक प्रकार बताये है। 0 यों कायक्लेश के प्रकारान्तर से चौदह भेद भी बताये हैं। परभाव में लीन आत्मा को स्वभाव में लीन बनाने की प्रक्रिया प्रतिसंलीनता है। भगवती में 2 इसके इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता योगप्रतिसंलीनता और विविक्त शयनासनसेवना, ये चार भेद किये हैं। छह बाह्यतप हैं। 3 छह आभ्यन्तर तपों में प्रथम प्रायश्चित्त है। प्राचार्य अकलंक के अनुसार अपराध का नाम “प्रायः" है। और "चित्त" का अर्थ शोधन है। जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो, वह प्रायश्चित्त है।४ "प्रायश्चित्त" से होता है। वह पाप को दूर करता है। प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। प्रायश्चित्त स्वेच्छा से ग्रहण किया जाता है। दण्ड में पाप के प्रति ग्लानि नहीं होती, वह विवशता से लिया जाता है। स्थानांग में प्रायश्चित्त के दश प्रकार बताये हैं। विनय दूसरा प्राभ्यन्तर तप है। यह पात्मिक गुण है। विनय शब्द तीन अर्थों को अपने में समेटे हुए है / अनुशासन, प्रात्मसंयम-सदाचार, नम्रता ! विनय से प्रष्ट कर्म दूर होते हैं / प्रवचनसारोद्धार में लिखा है कि क्लेश समुत्पन्न करने वाले अष्टकर्म-शत्रु को जो दूर करता है, वह विनय है। भगवती 7 स्थानांग८ औपपातिक में विनय के ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, मनोविनय, वचनविनय, कायविनय, लोकोपचार विनय, ये सात प्रकार बताये हैं। विनय चापलसी नहीं, सद्गुणों के प्रति सहज सम्मान है। वैयाक्त्त्य तप धर्मसाधना में प्रवृत्ति करने वाली वस्तुओं से सेवा करना है। भगवत०० में वयावृत्त्य के दश प्रकार बताये हैं। सत् शास्त्रों का विधि सहित अध्ययन करना स्वाध्याय तप है। 101 प्रात्मचिन्तन, मनन भी स्वाध्याय है। शरीर के लिए भोजन आवश्यक है, उसी प्रकार बुद्धि के विकास के लिए अध्ययन आवश्यक है। वैदिक-महषियों ने 02 भी 'तपो हि स्वाध्यायः' कहा है और यह प्रेरणा दी है कि स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करो।103 प्राचार्य पतंजलि कहते हैं-स्वाध्याय से इष्ट देवता का साक्षात्कार होने लगता है। स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा, ये पांच प्रकार बताये हैं / 104 मन की एकाग्र अवस्था 89. आवश्यक नियुक्ति, 1547 90. स्थानांगसूत्र, स्था. 7, सू-५५४ 91. उववाईसूत्र-समवसरण अधिकार 92. भगवती 25/7 93. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 30 94. तत्त्वार्थ राजवात्तिक 9/22/1 95. पंचाशक सटीक विवरण 16/3 96. प्रवचन सारोद्धारवृत्ति 97. भगवती 25/7 98. स्थानांग-स्था. 7 99. औपपातिक-तपवर्णन 100. क. भगवती सूत्र-३५/७ ख. स्थानांग-१० 101. स्थानांग अभयदेववृत्ति 5-3-465 102. तैत्तिरीय प्रारण्यक 2/14 103. तैत्तिरीय उपनिषद्---१-११-१ 104. क. भगवती 25/7 ख. स्थानांग-५ [34] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान है / ध्यान में आत्मा परवस्तु से हटकर स्व-स्वरूप में लीन होता है / व्युत्सर्ग-विशिष्ट उत्सर्ग व्युत्सर्ग है। प्राचार्य अकलंक ०५ने व्युत्सर्ग की परिभाषा करते हुए लिखा है--निःसंगता, अनासक्ति, निर्भयता, और जीवन की लालसा का त्याग, व्युत्सर्ग है / आत्मसाधना के लिए अपने आप को उत्सर्ग करने की विधि व्युत्सर्ग है / व्युत्सर्म के गणव्युत्सर्ग, शरीरव्युत्सर्ग उपधिव्यूत्सर्ग और भक्तपान व्युत्सर्ग ये चार भेद हैं।०६ शरीर-व्युत्सर्ग का नाम ही कायोत्सर्ग है। भगवान् महावीर ने साधक को 'अभिक्खणं काउस्सग्गकारी' अभीक्ष्ण--पुन: पुनः कायोत्सर्ग करने वाला कहा है। जो साधक कायोत्सर्ग में सिद्ध हो जाता है, वह सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में सिद्ध हो जाता है। बाहय और आभ्यन्तर तप के द्वारा शास्त्रकार ने जैन धर्म के तप के स्वरूप को उजागर किया है / इस प्रकार छठे समवाय में विविध विषयों का निरूपण है। सातवां समवाय : एक विश्लेषण सातवें स्थान में सात प्रकार के भय, सात प्रकार के समुद्घात, भगवान महावीर का सात हाथ ऊंचा शरीर, जम्बूद्वीप में सात वर्षधर पर्वत, सात द्वीप, बारहवें गुणस्थान में सात कों का वेदन, मघा, कृतिका, अनुराधा, धनिष्ठा, नक्षत्रों के सात-सात तारे, व नक्षत्र बताये हैं। नारकों और देवों की सात पल्योपम तथा सात सागरोपम स्थिति का उल्लेख है। इसमें सर्वप्रथम सात भय का वर्णन है। इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, भाजीविका भय, मरणभय, और अश्लोकभय / अतीतकाल में विजातीय जीवों का भय अधिक था / पर आज वैज्ञानिक खलनायकों ने मानव के अन्तर्मानस में इतना अधिक भय का संचार कर दिया है कि बड़े-बड़े राष्ट्रनायकों के हृदय भी धड़क रहे हैं कि कब अणुबम, उद्जन बम का विस्फोट हो जाये, या तृतीय विश्वयुद्ध हो जाय ! जैन आगम साहित्य में जिस तरह भयस्थान का उल्लेख हुआ है, उसी तरह बौद्ध साहित्य में भय-स्थानों का उल्लेख है।०७ वहाँ जाति-जन्म, जरा, व्याधि, मरण, अग्नि, उदक, राज, चोर, प्रात्मानुवाद--स्वयं के दुराचार का विचार, परानुवादभय-दूसरे मुझे दुराचारी कहेंगे, आदि विविध भयों के भेद बताये हैं। इस तरह सातवें स्थान में वर्णन है। आठवां समवाय : एक विश्लेषण __ आठवें समवाय में आठ मदस्थान, पाठ प्रवचनमाता, शगव्यन्तर देवों के आठ योजन ऊंचे चैत्य वृक्ष पादि, केवली समुद्घात के पाठ समय, भगवान पार्श्व के पाठ गणधर, चन्द्रमा के पाठ नक्षत्र, नारकों और देवों की पाठ पल्योपम व सागरोपम की स्थिति पाठ भव करके मोक्ष जाने वालों का वर्णन है। सर्वप्रथम इसमें जातिमद, कुलमद आदि मदों का वर्णन है। समयावांग की तरह स्थानांग१०८ में भी आठ मदों का उल्लेख पाया है। प्रावश्यकसूत्र में साधक को यह संकेत किया गया है कि पाठ मद से वह निवृत्त होवे। सूत्रकृतांग१०६ में स्पष्ट निर्देश है कि अहंकार से व्यक्ति दूसरों की अवज्ञा करता है, जिससे उसे संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। भगवान महावीर के जीव ने मरीचि के भव में जाति और कुल मद किया था / फलस्वरूप उन्हें देवानन्दा की कुक्षि में माना पड़ा। अतः मदस्थानों से बचना चाहिए। अंगुत्तरनिकाय में! 105. तत्त्वार्थ राजवातिक 9/26/10 106. भगवती 25/7 107. अंगुत्तरनिकाय 4/119/5-7 108. स्थानांग स्था० 8 109. सूत्रकृतांग- 1/2/1---2 110. अंगुत्तरनिकाय-३/३९ [35] Jain Education international Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन प्रकार के मद बताये हैं-यौवन, आरोग्य और जीवितमद। मद के पश्चात अष्टप्रवचन माताओं का वर्णन है। उत्तराध्ययन का चौबीसवां अध्ययन, प्रवचनमाता के नाम से ही विश्रुत है / भगवतीसूत्र'११ और स्थानांग१२ में भी इन्हें प्रवचनमाता कहा है। इन प्रष्ट प्रवचन माताओं में सम्पूर्ण द्वादशांगी समाविष्ट है।५१३ ये प्रवचनमाताएं चारित्ररूपा हैं / चारित्र बिना ज्ञान, दर्शन के नहीं होता / 114 द्वादशांगी में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ही विस्तृत वर्णन है / अतः द्वादशांगी प्रवचन माता का विराट रूप है। लौकिक जीवन में माता की गरिमा अपूर्व है / वैसे ही यह प्रष्ट प्रवचनमाताएं अध्यात्म जगत् की जगदम्बा हैं।११५ लौकिक जीवन में माता का जितना उपकार है उस से भी अनन्त गुणित उपकार प्राध्यात्मिक जीवन में इन अष्ट प्रवचनमाताओं का है। इनका सविधि पालन कर साधक कर्मों से मुक्त होता है। प्राधुनिक इतिहासकार भगवान् पार्श्व को एक ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं / 116 भगवान् पाश्व के पाठ प्रमुख शिष्यों के नामों का भी इसमें उल्लेख हुन्मा है। इस तरह आठवें समवाय में चिन्तनप्रधान सामग्री का संकलन हया है। नौवा समवायः एक विश्लेषण नौवें समवाय में नव ब्रह्मचर्य गुप्ति, नव ब्रह्मचर्य अध्ययन, भगवान पार्श्व नव हाथ ऊँचे थे, अभिजित नक्षत्र आदि, रत्नप्रभा, वाणव्यन्तर देवों की सौधर्म सभा नौ योजन की ऊंची, दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ नारक व देवों की नौ पल्योपम और नौ सागरोपम की स्थिति, तथा नौ भव कर के मोक्ष जाने वालों का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का उल्लेख है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जिन उपायों और साधनों को भगवान् ने समाधि और मुक्ति कहा है, लोक भाषा में उन्हीं को बाड कहा है। बागवान अपने बाग में पौधों की रक्षा के लिए कांटों की बाड बनाता है वैसे ही साधना के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य रूप पौधे की रक्षा के लिए वाड की नितान्त आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य की महिमा और गरिमा अपूर्व है। 'तं बभं भगवन्त' 117 जैसे सभी श्रमणों में तीर्थकर श्रेष्ठ हैं, वैसे ही सभी व्रतों में ब्रह्मचर्य महान् है / जिस साधक ने एक ब्रह्मचर्य की पूर्ण अाराधना करली, उसने सभी व्रतों की प्राराधना कर ली / एक विद्वान् ने "बस्तीन्द्रियममसामुपशमो ब्रह्मचर्यम्" लिखा है। जननेन्द्रिय. इन्द्रियसमूह और मन की शान्ति को ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्म शब्द के तीन मुख्य अर्थ हैं-वीर्य, प्रात्मा और विद्या / चर्य शब्द के भी तीन अर्थ हैं—चर्या, रक्षण और रमण ! इस तरह ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं। ब्रह्मचर्य से आस्मा स्वरूप में लीन बना जाता है। प्रात्म-स्वरूप में लीन होकर ज्ञानार्जन किया जाता है। ब्रह्मचर्य से प्रात्मशुद्धि होती है। प्राचार्य पतंजलि ने लिखा है-ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां आत्मलाभ:११८ ब्रह्मचर्य की पूर्ण साधना करने से अपूर्व मानसिक शक्ति और शरीरबल प्राप्त होता है / अथर्ववेद 16 के अनुसार ब्रह्मचर्य से तेज, धृति, साहस और विद्या की प्राप्ति होती है। इस तरह आत्मिक, मानसिक और शारीरिक तीनों प्रकार के विकास ब्रह्मचर्य से होते हैं / ब्रह्मचर्य के समाधिस्थान और असमाधिस्थान का सुन्दर वर्णन उत्तराध्ययन 20 111. भगवतीसूत्र-२५६।पृ-७२ 112. स्थानांगसूत्र--स्था० 8 113. उत्तराध्ययन-अ. 24 / 3 114. उत्तराध्ययन- अ. 28 / 29 115. नन्दीसूत्र स्थविरावली गाथा-१ 116. भगवान् पार्श्व-एक समीक्षात्मक अध्ययन, लेखक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री 117. प्रश्नव्याकरणसूत्र--संवरद्वार 118. पातंजल योगदर्शन-२-३८ 119. अथर्ववेद-१५॥५॥१७ 120. उत्तराध्ययन-अ.१६ [ 36 ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में है और बौद्ध ग्रन्थों में भी इस से मिलता-जुलता वर्णन 121 है। यह वर्णन ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। भगवान् पार्श्व का शरीर नौ हाथ ऊँचा था। यह ऐतिहासिक वर्णन भी महत्त्वपूर्ण है। इस तरह नवमें समवाय में विषयों का निरूपण है। दशवां समवाय: एक विश्लेषण दशवें समवाय में श्रमण के दशधर्म, चित्तसमाधि के दश स्थान, सुमेरु पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कंभ वाला है, भगवान् अरिष्टनेमि, कृष्ण वासुदेव, बलदेव दश धनुष ऊँचे थे, दश ज्ञानवृद्धिकारक नक्षत्र, दश कल्पवृक्ष, नारकों व देवों की दश हजार दश पल्योपम व दश सागरोपम की स्थिति और दश भव ग्रहण कर मोक्ष जाने वाले जीवों का कथन है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम श्रमणधर्म का उल्लेख है। केवल वेश-परिवर्तन से कोई श्रमण नहीं बनता। श्रमण बनता है सद्गुणों को धारण करने से। यहाँ शास्त्रकार ने श्रमण के वास्तविक जीवन का उल्लेख किया है। श्रमण का जीवन इन दविध सद्गुणों की सुवास से सुवासित होना चाहिए। जो साधक इन धर्मों को धारण करता है उसी का चित्त समाधि को प्राप्त हो सकता है। यहाँ पर दश प्रकार की चित्त-समाधि का उल्लेख हमा है। दशाश्रुतस्कन्ध में 22 भी समाधि स्थान का उल्लेख हुआ है / जिससे मानसिक स्वस्थता का अनुभव हो, वह समाधि है और जिससे मन में खिन्नता का अनुभव हो, वह असमाधि है। यहाँ दश समाधिस्थान बताये हैं तो दशवकालिक 23 में चार समाधिस्थान कहे गये हैं---विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपःसमाधि और आचारसमाधि / यहाँ जो समाधि के दश भेद हैं उनका समावेश आचारसमाधि में हो सकता है। सूत्रकृतांगसूत्र'२४ के समाधि नामक अध्ययन में नियुक्तिकार भद्रबाह१५ ने संक्षेप में दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र, ये समाधि बतायी है। समाधि शब्द बौद्ध-परम्परा में भी अनेक बार व्यवहृत हुआ है / वहाँ समाधि का अर्थ "चित्त" की एकाग्रता अर्थात् चित्त को एक पालम्बन में स्थापित करना है। 12 बुद्ध के अष्टांग मार्ग में समाधि पाठवां मार्ग' 27 है। योग-परम्परा के ग्रन्थों में समाधि का विस्तार से निरूपण हुअा है। प्राचार्य पतंजलि१२८ ने तृतीय विभूति पाद में ध्यान, धारणा के साथ समाधि का उल्लेख किया है। अष्टांग योग२९ में समाधि अन्तिम है। तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग में लिया है। क्रियायोग से इन्द्रियों का दमन होता है / अभ्यास और वैराग्य के सतत अभ्यास से साधक समाधियोग को प्राप्त करता है। समाधिशतक प्राचार्य पूज्यपाद 130 की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। उसमें ध्यान और समाधि के द्वारा प्रात्मतत्त्व को पहचानने के उपाय हैं। इस तरह दशवें समवाय में महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन है। 121. अंगुत्तर निकाय--१४७ 122. दशाश्रुतस्कन्ध-अ. 5 123. दशवकालिक---अ.९ उद्द. 4 124. सूत्रकृतांगसूत्र-१।१० 125. क-सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा--१०६ ख–उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 384 126. विशुद्धि मार्ग 3 / 2-3 127. विशुद्धि मार्ग---भाग-२, परिच्छेद 16 पृ. 121 128. पातंजल योगदर्शन-विभूति पाद 129. पातंजल योगदर्शन-२-२९ 130. यह ग्रन्थ हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी भाषा में अनेक स्थलों से प्रकाशित है, इस पर अनेक वृत्तियां भी हैं। [ 37] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां समवाय : एक अनुशीलन ग्यारहवें समवाय में ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ, भगवान महावीर के ग्यारह गणधर, मूल नक्षत्र के ग्यारह तारे, प्रैवेयक, तथा नारकों व देवों की ग्यारह पल्योपम व ग्यारह सागरोपम की स्थिति तथा ग्यारह भव कर मोक्ष में जाने वालों का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम श्रावक-प्रतिमाओं का उल्लेख है / प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा-विशेष, व्रतविशेष, तप-विशेष, और अभिग्रह-विशेष 131 / श्रावक द्वादश व्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् प्रतिमाओं को धारण करता है। प्रतिमाओं की संख्या, क्रम, व नामों के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में स्वरूप अन्तर दिखाई देता है। पर वह अन्तर नगण्य है। समवायांग की तरह उपासकदशांग१३ व दशाश्रुतस्कन्ध 133 में भी इनके नाम मिलते हैं। वे इस प्रकार हैं-१ दर्शन, 2 व्रत, 3 सामायिक, 4 पौषधोपवास, 5 नियम, 6 ब्रह्मचर्य, 7 सचित्त-त्याग, 8 प्रारम्भ त्याग, 9 प्रेष्य परित्याग, 10 उद्दिष्ट त्याग और 11 श्रमणभूत ! आचार्य हरिभद्र 134 ने पांचवी प्रतिमा का नियम के स्थान पर केवल 'स्थान' का उल्लेख किया है। दिगम्बर परम्परा के वसुनन्दी श्रावकाचार प्रभृति ग्रन्थों में दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषध, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग एवं उद्दिष्टत्याग इन ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा 34 में सम्यग्दृष्टिनामक एक और प्रतिमा मिलाकर बारह प्रतिमाओं का उल्लेख है। दोनों ही परम्पराओं में प्रथम चार प्रतिमाओं के नाम एक सदृश हैं / सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर परम्परा में पाँचवां है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में सातवाँ है। दिगम्बर परम्परा में रात्रिभक्तित्याग को एक स्वतन्त्र प्रतिमा गिना है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में पांचवीं प्रतिमा-नियम में उसका समावेश हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में अनुमति त्याग का दशवी प्रतिमा के रूप में उल्लेख है, श्वेताम्बर परम्परा में उद्दिष्ट त्याग में इस का समावेश हो जाता है। क्योंकि इस प्रतिमा में श्रावक उद्दिष्ट भक्त ग्रहण न करने के साथ अन्य प्रारम्भ का भी समर्थन नहीं करता / श्वेताम्बर परम्परा में जो श्रमणभूत प्रतिमा है, उसे दिगम्बर परम्परा में उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा कहा है। क्योंकि इसमें श्रावकाचार श्रमण के सदृश होता है। चिन्तनीय है कि प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में व्रत और उसके अतिचारों का निरूपण किया है। पर उन्होंने प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है। तत्त्वार्थ सूत्र के सभी श्वे टीकाकारों ने प्रतिमानों का कोई उल्लेख नहीं किया है / इसी तरह दिगम्बर परम्परा के पूज्यपाद 136 131. (क) प्रतिमा प्रतिपत्ति : प्रतिज्ञेति यावत्-स्थानाङ्गवृत्ति पत्र 61 (ख) प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः-वही पत्र 184 (ग) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा–पृ. 152 श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री 132. उपासकदशांग अ. 1 133. दशाश्रुत स्कन्ध 6-7 134. विशतिविशिका-१०११ 135. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा-३०५-३०६ 136. तत्त्वार्थसूत्र-सर्वार्थसिद्धि [38] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंकलंक 37 विद्यानन्दी,१३८ शिवकोटि,१३६ रविषेण,१४. जटासिंह नन्दी,१४१ जिनसेन१४. पद्मनन्दी१४३ देवसेन, 144 अमृतचन्द्र 145 आदि ने श्रावकों के व्रतों के सम्बन्ध में अवश्य लिखा है, पर प्रतिमाओं के सम्बन्ध में ये मौन रहे हैं। दूसरी परम्परा ऐसे प्राचार्यों की है जिन्होंने केवल प्रतिमाओं का उल्लेख ही नहीं किया है किन्तु का विस्तार से विवेचन भी किया है। उनमें प्राचार्य समन्तभद्र 146 सोमदेव,१४७ अमितगति,१४८ वसुनन्दी,१४६ पण्डित आशाधर,१५० मेधावी,१५१ सकलकीर्ति,१५२ आदि के नाम लिए जा सकते हैं। जिस श्रावक को नवतत्त्व की अच्छी तरह से जानकारी हो, वह प्रतिमा धारण कर सकता है। नवतत्त्व की बिना जानकारी के प्रतिमाओं का सही पालन नहीं हो सकता। कितने ही विचारकों का यह अभिमत है कि प्रथम प्रतिमा में एक दिन उपवास और दूसरे दिन पारणा, द्वितीय प्रतिमा में बेले-बेले पारणा इसी तरह तेले-तेले, चोले-चोले से लेकर ग्यारह तक तप कर पारणा किया जाये। पर उन विचारकों का कथन किसी पागम और परवर्ती ग्रन्थों से प्रमाणित नहीं है। उपासकदशांग सूत्र में आनन्द प्रादि श्रावकों ने प्रतिमाओं के प्राराधन के समय तप अवश्य किया था। पर इतना ही तप करना चाहिए, इसका स्पष्ट निर्देश नहीं है। कितने ही विचारक यह भी मानते हैं कि वर्तमान में कोई भी श्रावक प्रतिमाओं की आराधना नहीं कर सकता। जैसे भिक्षु प्रतिमाओं का विच्छेद हो गया वैसे ही श्रावक प्रतिमाओं का विच्छेद हो गया है। उन विचारकों की बात चिन्तनीय है / प्रतिमाओं के साथ अनशन तप की अनिवार्य शर्त ही सम्भवतः इस विचार का आधार हो। दिगम्बर परम्परा के अनुमार श्रावक-प्रतिमाओं का पालन यावज्जीवन किया जाता है, श्वेताम्बर परम्परा में उनकी कालमर्यादा एक, दो यावत् ग्यारह मास की नियत है / दिगम्बर परम्परा में प्राज भी प्रतिमाधारी श्रावक हैं / इस तरह ग्यारहवें समवाय में विविध-विषयों पर विचार प्रस्तुत किए गये हैं। 137. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 132. तत्त्वार्थसूत्र श्लोकवार्तिक 139. रत्नमाला 140. पद्मचरित 141. वरांगचरित 142. हरिवंशपुराण 143. पंचविंशतिका 144. भावसंग्रह (प्राकृत) 145. पुरुषार्थसिद्धय पाय 146. रत्नकरण्ड श्रावकाचार 147. उपासकाध्ययन 148. श्रावकाचार 149. श्रावकाचार 150. सागारधर्मामृत 151. धर्मसंग्रह श्रावकाचार 152. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार [39] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां समवाय : एक अनुशीलन बारहवें समवाय में बारह भिक्षु प्रतिमाएँ, बारह संभोग, कृतिकर्म के बारह प्रावर्त्त, विजया राजधानी का बारह लाख योजन का मायाम विष्कम्भ बताया गया है। मर्यादापुरुषोत्तम राम की उम्र बारह सौ वर्ष की बतायी है। रात्रि-मान तथा सर्वार्थसिद्ध विमान से ऊपर ईषत प्राग्भार पृथ्वी तथा नारकीय और देवों की तरह बारह पल्योपम व बारह सागर की स्थिति व बारह भव करके मोक्ष जाने वाले जीवों का उल्लेख है। प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम बारह भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख है। यों स्थानांगसूत्र143 में अनेक दृष्टियों से प्रतिमाओं के उल्लेख हुए हैं जैसे समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा / समाधि प्रतिमा के भी दो भेद किये हैंश्रुत समाधि, और चारित्र समाधि, उपधान प्रतिमा में भिक्षु की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख किया है / इसी तरह विवेकप्रतिमा और व्युत्सर्गप्रतिमा का भी उल्लेख हुअा है / भद्रा, सुभद्रा, प्रतिमाओं का भी वर्णन है। महाभद्रा, सर्वतोभद्रा विविध प्रतिमानों के उल्लेख हैं। और उनके विविध भेद-प्रभेद हैं। परन्तु यहाँ पर भिक्षु की जो बारह प्रतिमाएं बतायी हैं, उन्हें विशिष्ट संहनन एवं श्रुत के धारी भिक्षु ही धारण कर सकते हैं। __ संभोग शब्द का प्रयोग यहाँ पारिभाषिक अर्थ में समान समाचारीवाले श्रमणों का साथ मिलकर के खानपान, वस्त्र-पात्र, आदान-प्रदान, दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय-वैयावृत्त्य करना, संभोग है। प्रस्तुत समवाय में संभोग सबम्न्धी जो दो गाथाएँ दी गयी हैं वे निशीथभाष्य 54 में प्राप्त होती हैं। उन का वहाँ पर विस्तार से विवेचन किया गया है / संभोग के बारह प्रकारों में प्रथम प्रकार है-उपधि ! वस्त्र-पात्र रूप उपधि जब तक विशुद्ध रूप से ली जाती है, वहाँ तक सांभोगिक-श्रमणों के साथ उस का सांभोगिक सम्बन्ध रह सकता है / यदि वह दोषयुक्त ग्रहण करता है और कहने पर उसका प्रायश्चित्त लेता है, तो संभोगाह है। तीन बार भूल करने तक वह संभोगाई रहता है / यदि चतुर्थ बार ग्रहण करता है तो उसे समुदाय से पृथक् करना चाहिए, भले ही उसने प्रायश्चित्त लिया हो। उसी प्रकार समुदाय से जो पृथक हो, ऐसे विसंभोगिक पार्श्वस्थ या संयति के साथ शुद्ध या अशुद्ध उपधि की एषणा करने वाले को तीन बार-उसे प्रायश्चित्त दिया जा सकता है, इससे पागे उसे विसंभोगाई गिनना / इसी प्रकार उपधि के ग्रहण की तरह उपधि के परिकर्म और परिभोग के सम्बन्ध में भी सांभोगिक और विसांभोगिक व्यवस्था समझनी चाहिए। दूसरा संभोग श्रुत है। सांभोगिक या दूसरे गच्छ से उपसंपन्न हुये श्रमण को विधिपूर्वक जो वाचना दी जाये, उसकी परिगणना शुद्ध में होती है। जो श्रुत की वाचना प्रविधिपूर्वक साम्भोगिक या उपसंपन्न या अनुपसंपन्न आदि को देता हो तो तीन बार उसे क्षमा दी जा सकती है। उस के पश्चात् यदि वह प्रायश्चित्त भी लेता है तो भी उसे विसंभोगार्ह ही समझना चाहिए। जब तक श्रमण निर्दोष भक्तपान ग्रहण करने की मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह सांभोगिक है। उपधि : व्यवस्था है। उपधि में परिकर्म और परिभोग है तो यहाँ पर भोजन और दान है / चतुर्थ संभोग का नाम अंजलिप्रग्रह है / सांभोगिक और संविग्न असंभोगियों के साथ हाथ जोड़ कर नमस्कार करना उचित है पर पाश्वस्थ को इस प्रकार करना विहित नहीं है। इस प्रकार करने वाले को तीन बार क्षमा किया जा सकता है। दान, निकाचना, अभ्युत्थान, कृतिकर्म, वैयावृत्त्य करण, समवसरण, संनिषद्या कथाप्रबन्ध आदि अन्य संभोग शब्दों की व्याख्या विवेचन में सम्पादक ने अच्छी की है / अतः मूल सूत्र का अवलोकन करें। 153. स्थानांगसूत्र-सू. 84, 151, 237, 251, 352, आदि 154. क-निशीथभाष्य-उद्दे० 5, गाथा 49, 50 ख-~-व्यवहारभाष्य-उद्दे० 5 गाथा-४७ [40] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस के आगे कृतिकर्म के बारह आवर्त बताये गये हैं। किन्तु विवेचन में जैसा चाहिए वैसा विषय को स्पष्ट नहीं किया जा सका है। प्रस्तुत माथा अावश्यकनियुक्ति 157 में इसी प्रकार पायी है, नियुक्ति में विषय को पूर्ण रूप से स्पष्ट किया गया है और कहा गया है कि पच्चीस आवश्यक से परिशुद्ध यदि बन्दना की जाये तो वन्दनकर्ता परिनिर्वाण को प्राप्त होता है या विमानवासी देव होता है। सद्गुरु की बन्दना "इच्छामि खमासमणो" वंदिऊं जावणिज्जाए मिसीहियाए अणजाणह, मे मिउग्गहं निसोहि अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो मे किलामो अप्पकिलंताणं बहसुभेणं भे दिवसो / बइक्कतो? जत्ता भे, जवणिज्जं च भे?" के पाठ से दो बार की जाती है। . 'इच्छामि खमासमणो' से 'मे मिउग्गह' तक के पाठ का अर्थ है-मैं पाप से मुक्त होकर आपको वन्दन करना चाहता है। अतः आप परिमित-अवग्रह यानी स्थान दीजिए। यह पाठ अवग्रह की याचना की क्रिया का सूचक है। प्रस्तुत पाठ में "अणुजाणह" इस पद तक एक बार अपने शरीर को अर्ध अवनत करना होता है। यह एक अवनत है और पूर्ववत् पुनः वन्दन किया जाये तब दूसरा अवनत होता है / इस प्रकार कृतिकर्म में दो नमस्कार होते हैं / दीक्षा ग्रहण करते समय या जन्म ग्रहण करते समय बालक की ऐसी मुद्रा होती है-वह दोनों हाथ सिर पर रख हुआ होता है / उसे यथाजात कहते हैं / वन्दन करते समय भी यथाजात मुद्रा होनी चाहिये। अवग्रह में प्रवेश करने की अनुज्ञा प्राप्त होने पर उभड़क आसन से बैठकर दोनों हाथ गुरु की दिशा में लम्बे कर के दोनों हाथों से गुरु के चरणों का स्पर्श करे। 'अहोकायं" इस पाठ में "" अक्षर मन्द स्वर में कहे। वहाँ से हाथ लेकर पुनः अपने मस्तिष्क के मध्यभाग को स्पर्श करता हुप्रा "हो" अक्षर का उच्च स्वर से उच्चारण करना। इस प्रकार "अहो" शब्द के उच्चारण करने में एक पावर्त हुग्रा / उसी प्रकार--"काय" शब्दोच्चार में भी एक आवर्त करना / उसी तरह "कायसंफास" में काय के उच्चारण में एक आवर्तन करना / इस प्रकार ये तीन आवर्तन हुए। उस के पश्चात् “जत्ता भे" में "ज' अक्षर का मन्दोच्चार कर गुरु के चरण को कर से स्पर्श करना चाहिये। और "ता" का मध्यम उच्चारण करते समय गुरुचरण से दोनों हाथ हटाकर—'अधर" में रखना चाहिये / और 'भे" अक्षर उच्च स्वर से बोलते हुए मस्तिष्क के मध्यभाग को हाथ से स्पर्श करना चाहिये। यह एक प्रावर्त्त हुआ / इसी प्रकार "ज" "व" "णि' इन तीन अक्षरों का उच्चारण करते समय और "जं" "च" "भे" इन तीन अक्षरों को बोलते हुये तीसरा पावर्तन करना / इस प्रकार एक वन्दन करने में सभी प्रावतं मिलकर छह प्रावतं होते हैं। द्वितीय बार वन्दन में भी छह प्रावत होते हैं / इस तरह कृतिकर्म के बारह प्रावत होते हैं। अवग्रह में प्रवेश करने के पश्चात् क्षामणा करते समय शिष्य और प्राचार्य दोनों के मिलकर दो शिरोनमन होते हैं और इसी प्रकार दूसरी वन्दना के प्रसंग पर दो शिरोनमन होते हैं। इस तरह चार शिरोनमन हुये / शिष्य जब वन्दना करता है तब मन, वचन और काया को संयम में रखना चाहिये / ये तीन गुप्ति हैं। प्रथम बंदन के समय अवग्रह-याचना कर प्रवेश करना और इसी प्रकार द्वितीय वन्दन के समय भी। इसी तरह . ये दो प्रवेश होते हैं। आवश्यकीय कर के अवग्रह से प्रथम वन्दन करने के पश्चात् बाहर जाना यह निष्क्रमण है। यह एक ही है। दूसरे वन्दन में बाहर न जाकर गुरु के चरणारविन्दों में रहकर के ही सूत्र समाप्ति करनी होती है। ये वन्दन के पच्चीस आवश्यक हैं।१५८ इस तरह प्रस्तुत ममवाय में भी पूर्व समवायों की तरह ज्ञानवर्धक सामग्री का सुन्दर संकलन है। 157. आवश्यक नियुक्ति गाथा-..-१२०२ 158. स्थानांग-समवायांग, पृ. 810 से ८१२—पं. दलसुख मालवणिया [ 41] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां व चौदहवां समवाय : एक विश्लेषण तेहरवें समवाय में तेरह क्रिया-स्थान, सौधर्म, ईशानकल्प में तेरह विमान प्रस्तट, प्राणायु नामक बारहवें पूर्व में तेरह वस्तुनामक अधिकार, गर्भज तिर्यंच, पंचेन्द्रिय में तेरह प्रकार के योग, सूर्य मण्डल, तथा नारकीय व देवों की तेरह पल्योपम व तेरह सागरोपम स्थिति का निरूपण है। क्रिया आदि के सम्बन्ध में पूर्व पृष्ठों पर विस्तार के साथ लिखा जा चुका है। चौदहवें समवाय में चौदह भूतग्राम, चौदह पूर्व, चौदह हजार भगवान् महावीर के श्रमण, चौदह जीवस्थान, चक्रवती के चौदह रत्न, चौदह महानदियां नारक व देवों की चौदह पल्योपम व चौदह सागरोपम की स्थिति के साथ चौदह भव कर मोक्ष जाने वाले जीवों का वर्णन है। यहां पर सर्वप्रथम चौदह भूतग्राम का उल्लेख हुआ है / भूत अर्थात् जीव और ग्राम का अर्थ है समूह, अर्थात् जीवों के समूह को भूतग्राम कहते हैं। समवायांग की तरह भगवती सूत्र 56 में भी इन भेदों का उल्लेख हुअा है। इन में सात अपर्याप्त हैं और सात पर्याप्त हैं। प्राहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्तियाँ हैं। पृथ्वी ग्रादि एकेन्द्रिय जीवों में चार पर्याप्तियाँ होती हैं। बेन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और समूच्छिम मनुष्य में पांच पर्याप्तियाँ होती हैं। संज्ञी तिर्यञ्च मनुष्य नारक प्रौर देव में छह पर्याप्तियां होती है। जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ सम्भव हैं, उन्हें जब तक पूर्ण न कर ले तब तक बह जीव की अपर्याप्त अवस्था है और उन्हें पूर्ण कर लेना पर्याप्त अवस्था है / इस तरह पर्याप्त और अपर्याप्त के मिलाकर चौदह प्रकार किये गये हैं। इस के बाद चौदह पूर्वो का उल्लेख है। पूर्व श्रुत, विज्ञान का असीम कोष है। पर अत्यन्त परिताप है कि वह कोष श्रमण भगवान महावीर के पश्चात् भयकर द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण, तथा स्मृति दौर्बल्य आदि के कारण नष्ट हो गया। उस के पश्चात् चौदह जीवस्थानों का उल्लेख है। जीवस्थान को ही समयसार में प्राकृत पंचसंग्रह 61 व कर्मग्रन्थ'६२ में 'गुणस्थान' कहा है। प्राचार्य नेमिचन्द्र 113 ने जीवों को गुण कहा है। चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम, आदि भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं। परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने से जीवस्थान को गणस्थान कहा है। गोम्मटसार 164 में गुणस्थान को जीव-समास भी कहा है / षडखण्डागम धवलावत्ति 64 में लिखा है कि जीव गुणों में रहता है, अतः उसे जीवसमास कहते हैं। कर्म के उदय से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह प्रौदयिक हैं / कर्म के उपशम से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह औपशामिक हैं। कर्म के क्षयोपशम से जो गुण उत्पन्न होते हैं, वह क्षायोपमिक हैं / कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले गुण क्षायिक हैं। कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम के बिना जो गुण स्वभावत: पाये जाते हैं, वे पारिणामिक हैं। इन गुणों के कारण जीव को भी गुण कहा गया है। जीवस्थान को समवायांग के बाद के साहित्य में गुणस्थान कहा गया है। प्राचार्य नेमिचन्द्र 166 159. भगवती सूत्र-शतक 25 उद्देश-१, पृ. 350 160. समयसार गाथा 55 161. प्राकृतपंचसंग्रह 1/3-5 162. कर्मग्रन्थ 4/1 163. गोम्मटमार गाथा 7 164. गोम्मटसार गाथा 10 165. षड्खण्डागम धवलावृत्ति, प्रथम खण्ड 2-16-61 166. गोम्मटसार गाथा 3 [ 42] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने संक्षेप और मोघ ये दो गुणस्थान के पर्यायवाची माने हैं / कर्मग्रन्थ 167 में जिन्हें चौदह जीवस्थान बताया है, उन्हें समवाय में चौदह भूतग्राम की संज्ञा दी गई है। जिन्हें कर्मग्रन्थ में गुणस्थान कहा है, उन्हें समवाय में जीवस्थान कहा है। इस प्रकार कर्म ग्रंथ और समवाय में संज्ञाभेद है, अर्थभेद नहीं है। समवायांग में जीवस्थानों की रचना का अाधार कर्म-विशुद्धि बताया है / प्राचार्य अभयदेव१६८ ने गुणस्थानों को मोहनीय कर्मों की दिशुद्धि से निष्पन्न बताया है। नेमिचन्द्र 166 ने लिखा है-प्रथम चार गुणस्थान दर्शन मोह के उदय प्रादि से होते हैं और आगे के पाठ गुणस्थान चारित्र मोह के क्षयोपशम आदि से निष्पन्न होते हैं। शेष दो योग के भावाभाव के कारण / यहाँ पर संक्षेप में गुणस्थानों का स्वरूप उजागर हुमा है / इस तरह चौदहवें समवाय में बहुत ही उपयोगी सामग्री का संयोजन है। पन्द्रहवां व सोलहवां समवाय : एक विश्लेषण पन्द्रहवें समवाय में पन्द्रह परम अधार्मिक देव, नमि अर्हत् की पन्द्रह धनुष की ऊंचाई, राहु के दो प्रकार, चन्द्र के साथ पन्द्रह मुहर्त तक छह नक्षत्रों का रहना, चैत्र और आश्विन माह में पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त के दिन व रात्रि होना, विद्यानुवाद पूर्व के पन्द्रह अर्थाधिकार, मानव के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग तथा नारकों व देवों की पन्द्रह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। सोलहवें समवाय में सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रु तस्कन्ध के सोलह अध्ययन कहे हैं। अनन्तानुबन्धी प्रादि सोलह कषाय हैं। मेरुपर्वत के सोलह नाम, भगवान पार्श्व के सोलह हजार श्रमण, प्रात्मप्रवाद पूर्व के सोलह अधिकार, चमरचंचा और बलीचंचा राजधानी का सोलह हजार योजन का आयाम विष्कम्भ, नारकों व देवों के सोलह पल्योपम तथा सोलह सागरोपम की स्थिति और सोलह भव कर मोक्ष जानेवाले जीवों का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय' में द्वितीय अंग सूत्रकृतांग के अध्ययनों की जानकारी दी गई है। सूत्रकृतांग का दार्शनिक पागम की दृष्टि से गौरवपूर्ण स्थान है। जिसमें परमत का खण्डन और स्वमत का मण्डन किया गया है। सूत्रकृतांग की तुलना बौद्धपरम्परा के अभिधम्म पिटक से की जा सकती है, जिसमें बुद्ध ने अपने युग में प्रचलित बासठ मतों का खण्डन कर स्वमत की संस्थापना की है। वैसे ही सुत्रकृतांग में 363 अन्य यूथिक मतों का खण्डन कर स्वमत की संस्थापना की है। प्रस्तुत समवाय में ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान् पार्व के सोलह हजार श्रमणों का उल्लेख हुअा है। इस तरह प्रस्तुत समवाय का अलग-थलग महत्व है। सत्तरहवां व अठारहवां समवाय : एक विश्लेषण सत्तरहवें समवाय में सत्तरह प्रकार का संयम और असंयम, मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई प्रादि, सत्तरह प्रकार के मरण, दशबे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सत्तरह कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा नारकीय और देवों की सत्तरह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन कर सतरह भव करके मोक्ष में जाने वाले जीवों का वर्णन है। ___ सर्वप्रथम संयम और असंयम की चर्चा है। प्रागम-साहित्य में अनेक स्थलों पर संयम और असंयम 167. कर्मग्रन्थ 4-2 168. समवायांग वृत्ति पत्र-२६ 169. गोम्मटसार गाथा 12, 13 [43] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की चर्चा हुई है। स्थानांग सूत्र१७० में विभिन्न स्थानों पर संयम असंयम के भेद प्रतिपादित किये हैं / वस्तुतः यतनापूर्वक प्रवृत्ति करना, अयतनापूर्वक कोई भी प्रवृत्ति नहीं करना अथवा प्रवृत्तिमात्र से निवृत्त होना तथा अपनी इन्द्रियों एवं मन पर नियंत्रण करना संयम कहलाता है। संयम के चार प्रकार--- मन, वचन, काय और उपकरण संयम / संयम के पाँच, सात, पाठ, दश प्रकार भी हैं। उसी तरह असंयम के भी प्रकार हैं ! संयम के प्रकारान्तर से सराग संयम, और वीतराग संयम, ये दो भेद भी है / उन सभी प्रकार के संयमों का विभिन्न दृष्टियों से निरूपण हुप्रा है। संयम साधना का प्राण है। संयम ऐसा सुरीला संगीत है जिसकी सुरीली स्वर-लहरियों से साधक का जीवन परमानन्द को प्राप्त करता है / प्रस्तुत समवाय में मरण के सत्तरह भेद बताये हैं / जो जीव जन्म लेता है, वह अवश्य ही मृत्यु को वरण करता है / जो फूल' खिला है वह अवश्य मुरझाता है। यह एक ज्वलंत सत्य है कि मृत्यु अवश्यभावी है / सभी महान् दार्शनिकों ने मृत्यु के सम्बंध में चिन्तन किया है। स्थानांग१७१ में-मरण के बालमरण, पण्डितमरण और बालपण्डित मरण ये तीन भेद किये हैं और तीनों के भी तीन तीन अवान्तर भेद किये हैं / भगवती१७२ में प्रावीचिमरण, अवधिमरण, प्रात्यन्तिकमरण, बालमरण, पण्डितमरण, ये पाँच प्रकार बताये हैं / उत्तराध्ययन 173 सूत्र में अकाम और सकाम मरण का वर्णन है। यहां पर मरण के सत्तरह प्रकार बताये हैं। जिसमें सभी प्रकार के मरणों का समावेश हो गया है। इस तरह सत्तरहवें समवाय में विविध विषयों का निरूपण हुआ है। अठारहवें समवाय में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार, अर्हन्त अरिष्टनेमि के अठारह हजार श्रमण, तथा सक्षुद्रका व्यक्त श्रमणों के अठारह स्थान, प्राचारांग सूत्र के अठारह हजार पद ब्राह्मीलिपि के अठारह प्रकार, अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के अठारह अधिकार, पौष व आषाढ़ मास में अठारह मुहूर्त के रात और दिन, नारकों व देवों की अठारह पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन और अठारह भव कर मोक्ष में जाने वाले जीवों का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय में ब्रह्मचर्य आदि का जो निरूपण है, उसके सम्बन्ध में हम पूर्व पृष्ठों में चिन्तन कर चुके हैं। इसमें औदारिक आदि शरीरों की अपेक्षा से उसके विभिन्न प्रकार बताये हैं। भगवान् अरिष्टनेमि के अठारह हजार श्रमणों का उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है / 574 कर्मयोगी श्रीकृष्ण को इतिहासकारों ने ऐतिहासिक पुरुष माना है। इसलिए उस युग में हुए भगवान् अरिष्टनेमि को भी ऐतिहासिक पुरुष मानने में कोई बाधा नहीं है। ब्राह्मीलिपि के लिए ज्ञातासूत्र की प्रस्तावना देखिए / 175 इस प्रकार अठारहवें समवाय में सामग्नी का संकलन हुअा है। 170. स्थानांग सूत्र-४२९, 368, 521, 614, 715, 430 : 72, 310, 428, 517, 647, 709 आदि 171. स्थानांगसूत्र--सूत्र 222 172. भगवती सूत्र-शतक-१३, उद्दे. 7, सू. 496 173. उत्तराध्ययन सूत्र अ-५ 174. भगवान् अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण--एक अनुशीलन 175. ज्ञातासूत्र की प्रस्तावना, पृष्ठ--२२ से 24 तक [44 ] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां और बीसवां समवाय : एक विश्लेषण . उन्नीसवें समवाय में बतलाया है—ज्ञातासूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन, जम्बूद्वीप का सूर्य उन्नीस सौ योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है। शुक्र, उन्नीस नक्षत्रों के साथ अस्त होता है / उन्नीस तीर्थकर अगारवास में रहकर दीक्षित हुए। नारकों व देवों की उन्नीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति / अगार-वास में रहकर उन्नीस तीर्थंकरों ने अनगार धर्म को ग्रहण किया। स्थानांग सूत्र 76 में बासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि पाव और महावीर ने कुमारावस्था में दीक्षा ग्रहण की। आचार्य अभयदेव ने कुमारवास का अर्य किया है—जिन राज्य नहीं किया। प्रस्तुत सूत्र में भी "अगारवासमझे वसित्ता" का अर्थ चिरकाल तक राज्य करने के पश्चात् दीक्षा ग्रहण की, ऐसा किया है / दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से कुमारवास का अर्थ “कुवारा' है / और वे पाँचों को बालब्रह्मचारी मानते हैं / शेष उन्नीस तीर्थंकरों का राज्याभिषेक हुआ उन में से तीन तीर्थंकर तो चक्रवती भी हए / नियुक्तिकार 177 ने यह भी सूचन किया है कि पांच तीर्थंकरों ने प्रथम बय में प्रव्रज्या ग्रहण की थी और उन्नीस तीर्थंकरों ने मध्यम वय में / कल्पसूत्र 178 प्रादि श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् महावीर ने विवाह किया था / इसलिए आवश्यकनियुक्तिकार द्वितीय भद्रबाहु भगवान महावीर को विवाहित मानते हैं / इस तरह उन्नीसवें समवाय में वर्णन है। बीसवें समवाय में बीस असमाधिस्थान, मुनिसुव्रत महत् की बीस धनुष ऊंचाई, धनोदधि वातवलय बीस हजार योजन मोटे, प्राणत देवेन्द्र के बीस हजार सामानिक देव, प्रत्याख्यान पूर्व के बीस अर्थाधिकार एवं बीस कोटाकोटि सागरोपम का कालचक्र कहा है। किन्हीं नारकों व देवों की स्थिति बीस पल्योपम व सागरोपम की बताई है। जिन कार्यों को करने से स्वयं को या दूसरों को चित्त में संक्लेश उत्पन्न होता है, वे असमाधि स्थान हैं। समाधि के सम्बन्ध में हम पहले प्रकाश डाल चुके हैं। इक्कीसवां व बावीसवां समवाय : एक विश्लेषण इक्कीसवें समवाय में इक्कीस शबल दोष, सात प्रकृतियों के क्षपक नियट्टि-वादर गुण में मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा है। अवसपिणी के पांचवें, छठे, आरे तथा उत्सर्पिणी के प्रथम और द्वितीय पारे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के हैं और नारकों व देवों की इक्कीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति बतायी है। यहाँ पर शबल का अर्थ है-कर्बुरित, मलीन, या धब्बों से विकृत जो कार्य चारित्र को मलीन बनाते हों, वे शबल हैं। दशाश्रुतस्कन्ध में भी इन दोषों का निरूपण है। इस प्रकार इक्कीसवें समवाय में दोषों से बचने का संकेत है और कुछ ऐतिहासिक सामग्री भी है। बाईसवें समवाय में बाईस परीषह, दष्टिवाद के बाईस सूत्र, पुद्गल के बाईस प्रकार तथा नारको व देवों की बाईस पल्योपम, व बाईस सागरोपम स्थिति का वर्णन है। प्रस्तुत समवाय में परीषह के बाईस प्रकार बताये हैं। भगवती सूत्र 176 और उत्तराध्ययन सूत्र१८० में परीषह का विस्तार से निरूपण है। परीषह एकः कसौटी है। बीज को अंकुरित होने में जल के साथ चिलचिलाती 176. स्थानांग सूत्र, सूत्र 471 177. पावश्यक नियुक्ति-गाथा 243, 248, 445, 458 178. कल्पसूत्र 179. भगवती सूत्र--शतक 80, उद्दे० 8, पृ. 161 180. उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 2 [ 45 ] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूप की भी आवश्यकता होती है / इसी तरह साधना में निखार लाने के लिये परीषह की उष्णता भी प्रावश्यक है। परीषह आने पर साधक घबराता नहीं है। पर वह सोचता है कि अपने आप को परखने का मुझे सुनहरा अवसर मिला है। उत्तराध्ययननियुक्ति 81 के अनुसार परीषह अध्ययन, कर्मप्रवाद पूर्व के सत्तरहवें प्राभृत से उद्धत हैं / तत्त्वार्थसूत्र 182 में भी परीषहों का निरूपण किया गया है। तेईसवां और चौवीसवां समवाय : एक विश्लेषण तेईसवें समवाय में निरूपित है-तेईस सूत्रकृतांग के अध्ययन, जम्बूद्वीप के इक्कीस तीर्थकरों को सूर्योदय के समय केवलज्ञान समुत्पन्न होना, भगवान् ऋषभदेव को छोड़कर तेईस तीर्थंकर पूर्वभव में ग्यारह अंग के ज्ञाता थे। ऋषभ का जीव चतुर्दश पूर्व का ज्ञाता था। तेईस तीर्थकर पूर्वभव मे माण्डलिक राजा थे। ऋषभ चक्रवर्ती थे। नारकों व देवों की तेईस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति बताई गई है। यहाँ पर सुत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह, और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन मिलाकर कुल तेईस अध्ययनों का निरूपण किया है / प्रस्तुत समवाय में तेईस तीर्थंकरों को सूर्योदय के समय केवलज्ञान उत्पन्न होने की बात कही है / आवश्यकनियुक्ति१८3 में प्रथम तेईस तीर्थंकरों को पूर्वाह्न में और महावीर को पश्चिमाह में केवलज्ञान हुआ, ऐसा लिखा है। टीकाकार ने एक मत यह भी दिया है कि बाईस तीर्थंकरों को दिन के पूर्व भाग में और मल्ली भगवती और श्रमण भगवान् महावीर को दिन के अन्तिम भाग में केवलज्ञान हुआ / दिगम्बर ग्रन्थों में किस समय किस को केवलज्ञान हुआ, इस सम्बन्ध में मतभेद है / आवश्यकनियुक्ति के अनुसार भगवान ऋषभदेव के जीव को बारह अंगों का ज्ञान था, 164 यह स्पष्ट संकेत है। दिगम्बर परम्परा का अभिमत है कि ऋषभ के जीव को ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान था / इस तरह तेइसवें समवाय में सामग्री का चयन हुआ है। चौवीसवें समवाय में निरूपित है---चौबीस तीर्थकर, क्षल्लक हिमवन्त, और शिखरीपर्वत की जीवाएँ, चौबीस अहमिन्द्र, चौवीस अंगुल बाली उत्तरायणगत सूर्य की पौरुषी छाया, गङ्गा सिन्धु महानदियों का उद्गमस्थल पर चौबीस कोस का विस्तार, नारकों व देवों की चौबीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति / पच्चीसवां समवाय : एक विश्लेषण __ पच्चीसवें समवाय में प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों के पंचयाम यानी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ कही गई हैं। मल्ली भगवती पच्चीस धनुष ऊँची थी। वैताढ्य पर्वत पच्चीस योजन ऊँचा है और पच्चीस कोस भूमि में गहरा है। दूसरे नरक के पच्चीस लाख नारकावास हैं। प्राचारांग सूत्र के पच्चीस अध्ययन है / अपर्याप्तक मिथ्यादष्टि विकलेन्द्रिय नाम कर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियाँ बाँधते हैं / लोकबिन्दुसार पर्व के पच्चीस अर्थाधिकार हैं। नारकों और देवों की पच्चीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति है। यहाँ पर सर्वप्रथम पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ बतायी हैं। भावना साधना के लिए आवश्यक है। उसमें अपार बल और असीमित शक्ति होती है। भावना के बल से असाध्य भी साध्य हो जाता है। जिन चेष्टाओं और संकल्पों से मानसिक विचारों को भावित या वासित किया 181. क-उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा 69 ख-उत्तराध्ययन चूणि पृ. 7 182. तत्त्वार्थ सूत्र अ. 8 सू 9 से 17 183. पावश्यकनियुक्ति गाथा 275 184. आवश्यकनियुक्ति गाथा 258 [ 46 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाथे, वह भावना है। प्राचार्य पतंजलि ने भावना और जप में अभेद माना है। 166 भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा है१८७ कि जिसकी भावना शुद्ध है, वह जल में नौका के सदृश है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। भावना के अनेक प्रकार हो सकते हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र, भक्ति प्रभृति ! जितनी भी श्रेष्ठ चेष्टाओं से प्रात्मा को भावित किया जाये वे सभी भावनाएँ हैं। तथापि भावना के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं।८८ जो महाव्रतों की स्थिरता के लिए हैं। 186 प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएँ हैं। प्रागम साहित्य प्राचारांग तथा प्रश्नव्याकरण में भावनाओं के जो नाम आये हैं, वे नाम समवायांग में कुछ पृथकता लिये हये हैं। प्राचारांग१६० में (1) ईर्यासमिति (2) मनपरिज्ञा (3) वचन परिज्ञा (4) आदान निक्षेपण समिति (5) अलोकित पानभोजन, ये अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएँ हैं। प्रश्नव्याकरण 161 में अहिंसा महाव्रत की (1) ईर्यासमिति (2) अपापमन (3) अपापवचन (4) एषणा समिति (5) पादान निक्षेपण समिति , जब कि प्रस्तुत समवाय में अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार पायी हैं- (1) ईर्यासमिति (2) मनोगुप्ति (3) वचनगुप्ति (4) आलोक भाजन भोजन, (5) आदान भाण्डमात्र निक्षेपण समिति / प्राचार्य कुन्दकुन्द 162 ने अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ इसी प्रकार बतायी हैं। तत्वार्थाधिगम भाष्य में भी (1) ईर्यासमिति (2) मनोगुप्ति (3) एषणा समिति (4) प्रादान निक्षेपण समिति (5) आलोकित पान भोजन समिति, तत्त्वार्थ राजवार्तिक 16 3 और सर्वार्थ सिद्धि में 164 एषणा समिति के स्थान पर वाक् गुप्ति बतायी है / इसी तरह सत्यमहाव्रत की पांच भावनाएँ आचारांग 165 में इस प्रकार हैं--(१) अनुवीचि भाषण (2) क्रोध प्रत्याख्यान (3) लोभ प्रत्याख्यान (4) भय प्रत्याख्यान (5) हास्य प्रत्याख्यान, प्रश्नव्याकरण में ये ही नाम मिलते हैं। समवायांग में (1) अनुवीचिभाषण (2) क्रोधविवेक (3) लोभविवेक (4) भयविवेक, और (5) हास्यविवेक है। प्राचारांग१६६ और प्रश्नव्याकरण१६७ में क्रोध आदि का प्रत्याख्यान बताया है। जबकि समवायांग में विवेक शब्द का उल्लेख है। विवेक से तात्पर्य क्रोध आदि के परिहार से ही है। प्राचार्य कुन्दकुन्द 168 ने सत्य महाव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार बतायी हैं (1) अक्रोध (2) अभय (3) अहास्य (4) अलोभ (5) अमोह / उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा में पाये हुए अनुवीचि भाषण के स्थान पर अमोह भावना का उल्लेख किया 185. पासनाहचरियं पृष्ठ 460 186. तज्जपस्तदर्थभाबनम्---पातंजलयोगसूत्रम् 1/28 187. सूत्रकृतांग 1/15/5 188. उत्तराध्ययन, अ. 31 गा. 17 189. तत्त्वार्थ सूत्र 7/3 190. प्राचारांग सूत्र 2/3/15/402 191. प्रश्नव्याकरण---संवरद्वार 192. षट्प्राभृत में चारित्रप्राभूत गा. 31 193. तत्त्वार्थराजवातिक 7/4-5, 537 194. सर्वार्थसिद्धि-७/४ पृ. 345 195. प्राचारांग 1/3/15/402 196. वही 197. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 198. चारित्रप्राभूत 32 [ 47 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। चारित्र प्राभृत की टीका 16 में अमोह का अर्थ अनुवीचि भाषण कुशलता किया है। अनुवीचि भाषणता से तात्पर्य है कि वोचि वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचिभाषा जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवोचिभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमनुल्लंध्य भाषणीयमित्यर्थः / श्वेताम्बर परम्परा में अनुवीचि भाषण का अर्थ "अनुविचित्य भाषणम् अर्थात् चिन्तनपूर्वक बोलना" किया है / तत्त्वार्थराजवार्तिक 200 में दोनों ही अर्थों को ग्रहण किया है / अचौर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) अनुवीचिमितावग्रह याचन (2) अनुज्ञापित पान-भोजन (3) अवग्रह का अवधारण (4) अभीक्ष्ण अवग्रह याचन (5) साधर्मिक से अवग्रह याचन प्रश्नव्याकरण में (1) विविक्त वासवसति (2) अभीक्ष्ण अवग्रह याचन (3) शय्या समिति (4) साधारण पिण्डमात्र लाभ (5) विनय प्रयोग, समवायांग सूत्र में ये नाम हैं—(१) अवग्रहानुज्ञापना (2) अवग्रह सीमापरिज्ञान (3) स्वयं ही अवग्रह अनुग्रहणता (4) सार्मिक अवग्रह अनुज्ञापनता (5) साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्य परिभुञ्जनता / आचार्य कुन्दकुन्द ने अचौर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार दी हैं-(१) शून्यागारनिवास (2) विमोचितावास (3) परउपरोध न करना (4) एषणाशुद्धि (5) सार्मिक-अविसंवाद / प्राचार्य महाव्रत की पांचों भावनाएँ दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों से भिन्न है। जिस प्रकार प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भावनामों का निरूपण किया है वैसी ही सर्वार्थ सिद्धि में भी बतायी गयी हैं। . प्राचारांग में ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं----(१) स्त्रीकथावर्जन (2) स्त्री के अंगप्रत्यंग अवलोकन का वर्जन (3) पूर्वभक्त भोग स्मृति का वर्जन (4) अतिमात्र और प्रणीत पान भोजन का परिवर्जन (5) स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वर्जन / प्रश्नव्याकरण में (1) असंसक्त वास वसति, (2) स्त्रीजन कथा-वर्जन (3) स्त्री के अंग प्रत्यंगों और चेष्टाओं के अवलोकन का वर्जन (4) पूर्व भुक्त भोगों की स्मृति का वर्जन, (5) प्रणीत रस भोजन का वर्जन / समवायांग में (१)स्त्री-पशु और नपुसक से संसक्त शयन, प्रासन का वर्जन (2) स्त्रीकथाविवर्जनता (3) स्त्रियों की इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन (4) पूर्व भुक्त और पूर्व क्रीडित का अस्मरण (5) प्रणीत आहार का विवर्जन / आचार्य कुन्दकुन्द 201 ने ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं ये बताई हैं—(१) महिला अवलोकन विरति (2) पूर्वभुक्त का स्मरण न करना (3) संसक्त वसति विरति (4) स्त्री रागकथा-विरति, (5) पौष्टिक रसविरति / आचार्य उमास्वाति२०२ ने और सर्वार्थ सिद्धि में ब्रह्मचर्य की भावनाएं इस प्रकार हैं- (1) स्त्रीरागकथावर्जन (2) मनोहर अंग निरीक्षण विरति (3) पूर्वरतानुस्मरणपरित्याग (4) वृष्येष्टरस-परित्याग (5) स्वशरीरसंस्कारपरित्याग / / अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं आचारांग में इस प्रकार हैं-(१) मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव (2) मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव / (2) मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव / (4) मनोज्ञ और अनमोज्ञ रस में समभाव। (5) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव और यही नाम प्रश्नव्याकरण में ज्यों के त्यों मिलते हैं / समवायांग में इस प्रकार है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति (2) चक्षुरिन्द्रियरागोपरति (3) घ्राणेन्द्रियरागोपरति (4) रसनेन्द्रियरागोपरति और (5) स्पर्शेन्द्रियरामोपरति / आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह महावत की भावनाओं में प्राचारांग और प्रश्नव्याकरण काही अनुसरण किया है / इस प्रकार पंच महाव्रतों 199. चारित्रप्राभृत 22 की टीका 200. तत्त्वार्थराजवार्तिक 7/5 201. चारित्रप्राभृत-गाथा 34 202. तत्त्वार्थ सूत्र-७/७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भावना के सम्बन्ध में विभिन्न स्थलों पर नामभेद ब क्रमभेद प्राप्त होता है; तथापि आगम और आगमेतर साहित्य का हार्द एक ही है। यहां पर प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के पांच महाव्रतों को लक्ष्य में रखकर पच्चीस भावनाएं निरूपित की गयी हैं। दूसरे तीर्थंकर से लेकर तेईसवें तीर्थकर तक के शासन में चार याम थे / उत्तराध्ययन,२० 3 भगवती२०४ प्रादि इस बात के साक्ष्य हैं। प्रस्तुत समवाय में वैताढ्य पर्वत को पच्चीस योजन ऊँचा कहा है, पर असावधानी से पच्चीस धनुष छपा है, जो सही नहीं है। इस प्रकार पच्चीसवें समवाय में सामग्री का संकलन है। छब्बीसवें से उनतीसवाँ समवाय : एक विश्लेषण छब्बीसवें समवाय में दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र के छब्बीस उद्देशन काल कहे हैं। अभव्य जीवों के मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियां, नारकों व देवों के छब्बीस पत्योपम और सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। सताईसवें समवाय में श्रमण के सत्ताईस गूण, नक्षत्र मास के सत्ताईस दिन, वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस प्रकृतियाँ, श्रावण सूदी सप्तमी के दिन सत्ताईस अंगुल' की पौरुषी छाया और नारकों व देवों की सत्ताईस पल्योपम एवं सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। अट्ठाईसवें समवाय में आचारप्रकल्प के अट्ठाईस प्रकार बताये हैं। भवसिद्धिक जीवों में मोहनीय कम की अट्ठाईस प्रकृतियाँ कही गयी हैं। प्राभिनिबोधिक ज्ञान के अट्ठाईस प्रकार हैं। ईशान कल्प में अट्ठाईस लाख विमान हैं। देव गति बाँधने वाला नामकर्म की प्रवाईस प्रकृतियों को बाँधता है, तो नारकीय जीव भी अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है। अन्तर शुभ व अशुभ का है। नारकों व देवों की अदाईस पल्योपम और सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। यहाँ पर सर्वप्रथम आचारप्रकल्प के अट्ठाईस प्रकार बताये हैं। आचार्य संघदास गणि 204 ने निशीथ के प्राचार, अग्र, प्रकल्प, चूलिका, ये पर्यायवाची नाम माने हैं। उक्त शास्त्र का सम्बन्ध चरणकरणानुयोग से है। अतः इसका नाम “अरचार" है। आचारांगसूत्र के पांच अग्र हैं-चार आचारचलाएँ और निशीथ / इसलिये निशीथ का नाम अग्र है।२०६ निशीथ की नववे पूर्व आचारप्राभत से रचना की गयी है। इसलिये इसका नाम प्रकल्प है। प्रकल्प का द्वितीय अर्थ "छेदन" करने वाला भी है / 207 आगम साहित्य में निशीथ का "आयारकल्प" नाम मिलता है। अग्र और चूला ये दोनों समान अर्थ वाले शब्द हैं। अभिनिबोधिक ज्ञान के अट्राईस प्रकार बताये गये हैं। नन्दीसूत्र 308 में तथा तत्त्वार्थसत्र,२०६ तत्त्वार्थभाष्य,१० तस्वार्थ 203. उत्तराध्ययनसूत्र---प्र. 22 204. भगवतीसूत्र 205. निशीथभाष्य-३ 206. निशीथभाष्य-५७ 207. निशीथचूणि, पृ. 30 208. नन्दीसूत्र--सू. ५९---श्री पुण्यविजय जी म. द्वारा सम्पादित 209. तत्त्वार्थसूत्र-१/१३, 14 210. तत्त्वार्थभाष्य-१/१३, 14 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजवार्तिक,२१. विशेषावश्यकभाष्य 12 आदि में भी ज्ञान की विस्तार से चर्चा की गयी है।113 यहां पर केवल सूचन मात्र किया गया है। इस तरह अट्ठाईसवें समवाय में सामग्री का संकलन हुआ है। उनतीसवें समवाय में पापश्रुत प्रसंग, आषाढ़ मास आदि के उनतीस रात दिन, सम्यग दृष्टि, तीर्थकरनाम सहित उनतीस नामकर्म को प्रकृतियों को बाँधता है। नारकों देवों के उनतीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति आदि का वर्णन है / प्रस्तुत समवाय में सर्वप्रथम पापश्रुत प्रसंगों का वर्णन किया है। स्थानांग 14 में नव पापश्रुत प्रसंग बताये हैं तो समवायांगसूत्र में उनतीस प्रकार बताये हैं। मिथ्या शास्त्र की प्राराधना भी पाप का निमित्त बन सकती है इसलिये यहां पापश्रुत के प्रसंग बताये हैं। पर संयमी साधक, जो सम्यग्दृष्टि है, उसके लिये पापश्रुत भी सम्यक् श्रुत बन जाता है। आचार्य देववाचक ने कहा है कि "सम्मदिट्ठस्स सम्मसुयं, मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छासुयं" सम्यग्दृष्टि असाधारण संयोगों में या अमुक अपेक्षा की दृष्टि से विवेकपूर्वक इनका अध्ययन करता है, तो ये पापश्रुत प्रसंग नहीं हैं। जैन इतिहास में ऐसे अनेकों प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिन्होंने इन विद्याओं के द्वारा धर्म की प्रभावना भी की है। इस तरह उनतीसवें समवाय में सामग्री का संकलन है। तीसवें समवाय से पेंतीसवां समवाय : एक विश्लेषण तीसवें समवाय में मोहनीय कर्म बाँधने के तीस स्थान, मण्डितपुत्र स्थविर की तीस वर्ष श्रमण पर्याय, अहोरात्र के तीस मुहर्त, अट्ठारहवें अर नामक तीर्थंकर की तीस धनुष की ऊंचाई, सहस्रार देवेन्द्र के तीस हजार सामानिक देव, भगवान् पार्श्व व प्रभु महावीर का तीस वर्ष तक गृहवास में रहना, रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नारकावास, नारकों व देवों की तीस पल्योपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। मोहनीय कर्म के तीस निमित्त जो समवायांग में प्रतिपादित किये गये हैं, उनका दशाश्रत स्कन्ध१५ में विस्तार से निरूपण है। आवश्यकसूत्र२१६ में भी संक्षेप में सूचन किया गया है। टीकाकारों ने यह बताया है कि मोहनीय शब्द से सामान्य रूप से प्राठों कर्म समझने चाहिये और विशेष रूप से मोहनीय कर्म ! इस समवाय में 'अर' पार्श्व और महावीर के सम्बन्ध में भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन हुआ। इकतीसवें समवाय में सिद्धत्त्व पर्याय प्राप्त करने के प्रथम समय में होने वाले इकतीस गुण, मन्दर पर्वत, अभिवद्धित मास, सूर्यमास, रात्रि और दिन की परिगणना, और नारकों व देवों की इकत्तीस पल्पोपम व सागरोपम की स्थिति का वर्णन है। बत्तीसवें समवाय में बत्तीस योगसंग्रह, बत्तीस देवेन्द्र, कुन्थु अर्हत् के बत्तीस सो बत्तीस केवली, सौधर्म 211. तत्त्वार्थराजवार्तिक-१/१४/१/५९ आदि 212. विशेषावश्यक भाष्य--वृत्ति 100 213. जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण, श्री देबेन्द्रमुनि शास्त्री 214. स्थानांगसूत्र स्था. 9, सू, 6.78 215. दशाश्रुतस्कन्ध-अ. 9 216. आवश्यकसूत्र-प्र.४ [ 50 ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प में बत्तीस लाख विमान, रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे, बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधि, तथा नारकों व देवों की बत्तीस सागरोपम व पल्योपम की स्थिति का वर्णन है। ___मन, वचन और काया का व्यापार योग कहलाता है। यहां पर बत्तीस योगसंग्रह में मन, वचन और काया के प्रशस्त व्यापार को लिया गया है। आवश्यक बृहद्वत्ति में इस विषय पर चिन्तन किया गया है। तेतीसवें समवाय में तेतीस आशातनाएँ, असुरेन्द्र की राजधानी में तेतीस मंजिल के विशिष्ट भवन तथा नारकों व देवों की तेतीस सागरोपम व पल्योपम की स्थिति का वर्णन है।। यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा Pi जिन देवों की जितनी सागरोपम की स्थिति बतलायी गयी है, वे उतने ही पक्षों में उच्छ्वास और नि:श्वास लेते हैं। और उतने ही हजार वर्ष के बाद उन्हें आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है। प्रस्तुत समवाय में लघुश्रमणों का ज्येष्ठश्रमणों के साथ किस प्रकार का विनयपूर्वक व्यवहार रहना चाहिये, आशातना आदि से निरन्तर बचना चाहिये / जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास होता है वह आशातना-अवज्ञा है। तेतीस आशातनाओं का निरूपण दशाश्रुतस्कन्ध२१८ में विस्तार से पाया है। चौतीसवें समवाय में तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय, चक्रवर्ती के चौतीस विजयक्षेत्र, जम्बूद्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य, जम्बूद्वीप में उत्कृष्ट चौतीस तीर्थंकर उत्पन्न हो सकते हैं, तथा प्रसुरेन्द्र के चौतीस लाख तथा पहली, पाँचवी, छठी और सातवीं नरक में चौतीस लाख नारकाबास कहे हैं। प्रस्तुत समवाय में अतिशयों का उल्लेख है। अतिशयों के सम्बन्ध में प्राचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र 216 और अभिधान चिन्तामणि 20 प्रादि ग्रन्थों में चिन्तन किया है। वह चिन्तन बहृद् वाचना के आधार पर है। यहां पर चौतीस अतिशयों में से दूसरे अतिशय से पांचवें अतिशय तक जन्मप्रत्ययक हैं। इक्कीस से लेकर चौतीस अतिशय व बारहवाँ अतिशय कर्म के क्षय से होता है। शेष अतिशय देवकृत हैं। दिगम्बर परम्परा भी चौतीस प्रतिशय मानती हैं। पर उन अतिशयों में कुछ भिन्नता है। वे दश जन्म प्रत्यय, चौदह देवकृत और दश केवलज्ञान कृत मानते हैं। यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि सभवायांग के टीकाकार आचार्य अभयदेव के मत से आहार निहार, ये आँख से अदृश्य होते हैं। ये जन्मकृत अतिशय हैं। जब कि दिगम्बर मतानुसार आहार का प्रभाव, यह अतिशय माना गया है और वह जन्मकृत नहीं केवलज्ञानकृत है। श्वेताम्बर दृष्टि से भगवान् अर्धमागधी में उपदेश प्रदान करते हैं और वह उपदेश सभी जीवों की भाषा के रूप में परिणत होता है। ये दो अतिशय कर्मक्षयकृत माने गये हैं। आचार्य अभयदेव और आचार्य हेमचन्द्र के अतिशयवर्णन में विभाजन पद्धति में कुछ अन्तर है। पर भाषा के सम्बन्ध में अभयदेव व हेमचन्द्र दोनों का एक ही मत है। आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि से उन्नीस अतिशय देवकृत हैं जब कि अभयदेव की दृष्टि से पन्द्रह अतिशय देवकृत हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि भगवान का चारों 217. आवश्यक बृहद् वृत्ति--- 4, मा 73 से 77 218. दशाश्रुतस्कन्ध-३ दशा (ख) तत्र प्रायः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना खण्डना निरुक्ता आशातना। 219. योगशास्त्र पृ. 130 220. अभिधानचिन्तामणि 56-63 / (ख) स्थानाङ्ग समवायांग-पं. दलसूख मालवणिया Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर मुह दिखायी देता है। वह देवकृत अतिशय है तो दिगम्बर दृष्टि से केवलज्ञान कृत है। तीन कोट की रचना को भी देवकृत अतिशय माना गया है। पर समवायांग में चौतीस प्रतिशयों में उसका उल्लेख नहीं है। चौतीस अतिशयों का जो विभाजन प्राचार्यों ने किया है, उस के सम्बन्ध में सबल-तर्क का अभाव है कि अमुक अतिशय अमुक विभाग में क्यों दिया गया है? समवायांगसूत्र के मूल में किसी भी प्रकार का विभाजन नहीं किया गया है। यह भी स्मरण रखना चाहिये। समवायांग की भांति अंगुत्तरनिकाय (5121) में तथागत बुद्ध के पांच प्रतिशय बताये हैं-वे अर्थज्ञ होते हैं, धर्मज्ञ होते हैं, मर्यादा के ज्ञाता होते हैं, कालज्ञ होते हैं और परिषद् को जानने वाले होते हैं। पैतीसवें समवाय से सौवां समवाय : एक विश्लेषण पंतीसवें समवाय में पैंतीस सत्य वचन के अतिशय, कुन्थु, अर्हत्, दत्त वासुदेव, नन्दन बलदेव, ये पैंतीस धनुष ऊँचे थे तथा दूसरे और चौथे नरक में पैतीस लाख नारकावास हैं, यह निरूपण है। छत्तीसवें समवाय में उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययन, असुरेन्द्र की सुधर्मा-सभा छत्तीस योजन ऊंची भगवान महावीर की छत्तीस हजार प्रायिकाएँ, और चैत्र और आसोज में छत्तीस अंगुल पौरुषी, आदि का वर्णन है। सैतीसवें समवाय में सैतीस गणधर, सैतीस गण, अड़तीसवें समवाय में भगवान् पार्श्व की अड़तीस हजार श्रमणियाँ, उन्तालीसवें समवाय में भगवान् नमिनाथ के उन्तालीस सौ अवधिज्ञानी, चालीसवें समवाय में भगवान अरिष्टनेमि की चालीस हजार श्रमणियां थीं, प्रादि कथन है। इकतालीसवें समवाय में भगवान् नमिनाथ की 41 हजार श्रमणियाँ, बयालीसवें समवाय में नामकर्म के 42 भेद और भगवान् महावीर 42 वर्ष से कुछ अधिक श्रमण पर्याय पालकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। तेतालीसवें समवाय में कर्मविपाक के 43 अध्ययन, चवालीसवें समवाय में ऋषिभाषित के 44 अध्ययन, पैतालीसवें समवाय में मानव क्षेत्र, सीमंतक नरकाबास, उडु विमान और सिद्धशिला, इन चारों को 45 लाख योजन विस्तार वाला बताया है। छियालीसवें समवाय में ब्राह्मीलिपि के 46 मातकाक्षर, सैतालीसवें समवाय में स्थविर अग्निभूति के 47 वर्ष तक गृहवास में रहने का वर्णन है / अड़तालीसवें समवायव में भगवान् धर्मनाथ के 48 गणों, 48 गणधरों का, उनचासवें समवाय में तेइन्द्रिय जीवों की 49 अहोरात्र की स्थिति, पचासवें समवाय में भगवान् मुनिसुव्रत की 50 हजार धमणियां थीं, आदि वर्णन किया गया है। इक्यावनवें समवाय में 1 ब्रह्मचर्य अध्ययन, 51 उद्देशनकाल और बावनवें समवाय में मोहनीय कर्म के 52 नाम बताये हैं। पनवें समवाय में भगवान महावीर के 53 साधुओं के एक वर्ष की दीक्षा के बाद अनुत्तर विमान में जाने का वर्णन है। चौवनवें समवाय में भारत और ऐरवत क्षेत्रों में क्रमश: 54-54 उत्तम पुरुष हुए हैं और भगवान अरिष्टनेमि 54 रात्रि तक छदमस्थ रहे। भगवान् अनन्तनाथ के 54 गणधर थे। पचपनवें समवाय में भगवती-मल्ली 55 हजार वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध हुई। छप्पनवें समवाय में भगवान विमल के 56 गण व 56 गणघर थे / सत्तावनवें समवाय में मल्ली भगवती के 5700 मन:पर्यवज्ञानी थे। अठावनवें समवाय में ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम और अन्तराय इन पांच कर्मों की 58 उत्तर प्रकृतियां बताई हैं। उनसठवें समवाय में चन्द्रसंवत्सर की एक ऋतु 59 अहोरात्रि की होती है। साठवें समवाय में सूर्य का 6 मुहर्त तक एक मंडल में रहने का उल्लेख है। इकसठवें समवाय में एक युग के 61 ऋतु मास बताये हैं। बासठवें समवाय में भगवान् वासुपूज्य के 62 गण और 62 गणधर बताये हैं। प्रेसठवें समवाय में भगवान् ऋषभदेव के 63 लाख पूर्व तक राज्यसिंहासन [ 52 ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर रहने के पश्चात दीक्षा लेने का वर्णन है। चौसठवें समवाय में चक्रवर्ती के बहुमूल्य 64 हारों का उल्लेख है। पैसठवें समवाय में गणधर मौर्यपूत्र ने 65 वर्ष तक गहवास में रह कर दीक्षा ग्रहण की। छयासठवें समवाय में भगवान श्रेयांस के 66 गण और 66 गणधर थे। मतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति 66 सागर बताई है। सड़सठवें समवाय में एक युग में नक्षत्रमास की गणना से 67 मास बताये हैं। ६८वें समवाय में धातकीखण्ड द्वीप में चक्रवर्ती की 68 विजय, 68 राजधानियां और उत्कृष्ट 68 अरिहंत होते हैं तथा भगवान् विमल के 68 हजार श्रमण थे, यह कहा गया है। उनहत्तरवें समवाय में मानवलोक में मेरु के अतिरिक्त 69 वर्ष और 69 वर्षधर पवंत बताए हैं। सत्तरवें समवाय में एक मास और 20 रात्रि व्यतीत होने पर 70 रात्रि अवशेष रहने पर भगवान महावीर ने वर्षावास किया, इस का वर्णन है। यहां पर परम्परा से वर्षावास का अर्थ संवत्सरी किया जाता है। इकहत्तरवें समवाय में भगवान् अजित, चक्रवर्ती सागर 71 लाख पूर्व तक गृहवास में रह कर दीक्षित हुये। 72 वें समवाय में भगवान महावीर और उन के गणधर अचलभ्राता को 72 वर्ष की आयु बतायी है। 72 कलाओं का भी उल्लेख है। तिहत्तरवें समवाय में विजय नामक बलदेव, 73 लाख की आयु पूर्ण कर सिद्ध हुये। 74 वें समवाय में गणधर अग्निभूति 74 वर्ष की आयु पूर्ण कर सिद्ध हये। 75 वें समवाय में भगवान सुविधि के 75 सो केवली थे / भगवान् शीतल 75 हजार पूर्व और भगवान् शान्ति 75 हजार वर्ष गृहबास में रहे। 76 वें समवाय में विद्युत कुमार आदि भवनपति देवों के 76-76 लाख भवन बताये गये हैं। सतहत्तरवें समवाय में सम्राट भरत 77 लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे। 77 राजाओं के साथ उन्होंने संयममार्ग ग्रहण किया। ७८वें समवाय में गणधर अकम्पित 78 वर्ष की आयु में सिद्ध हुये। ७९वें समवाय में छठे नरक के मध्यभाग से छ? घनोदधि के नीचे चरमान्त तक 79 हजार योजन अन्तर है। ८०वें समवाय में त्रिपृष्ठ वासुदेव 80 लाख वर्ष तक सम्राट् पद पर रहे। ८१वें समवाय में 81 सौ मन:पर्यवज्ञानी थे। ८२वें समवाय में 82 रात्रियाँ व्यतीत होने पर श्रमण भगवान महावीर का जीव गर्भान्तर में संहरण किया गया / ८३वें समवाय में भगवान् शीतल के 83 गण और 83 गणधर थे। 84 वें समवाय में भगवान ऋषभदेव की 84 लाख पूर्व की और भगवान् श्रेयांस की 84 लाख वर्ष की आयु थी। भगवान ऋषभ के 84 मण, 84 गणधर और 84 हजार श्रमण थे। ८५वें समवाय में आचारांग के 55 उद्देशन काल बताये हैं। 863 समबाय में भगवान सुविधि के 86 गण और 86 गणधर बताये हैं / भगवान् सुपार्श्व के 86 सौ वादी थे। ८७वें समवाय में ज्ञानावरणीय और अन्तराय कर्म को छोड़ कर शेष 6 कर्मों की 87 उत्तरप्रकृतियां बतायी हैं। ८८वें समवाय में प्रत्येक सूर्य और चन्द्र के 88-88 महाग्रह बताये हैं। ८९वें समवाय में तृतीय आरे के 89 पक्ष अवशेष रहने पर भगवान् ऋषभदेव के मोक्ष पधारने का उल्लेख है। और भगवान् शान्तिनाथ के 89 हजार श्रमणियाँ थीं। ९०वें समवाय में भगवान् अजित और शान्ति इन दोनों तीर्थंकरों के 90 गण और गणधर थे। ९१वें समवाय में भगवान् कुन्थु के 91 हजार अवधिज्ञानी श्रमण थे। ९२वें समवाय में गणधर इन्द्रभूति 92 वर्ष की आयु पूर्ण कर मुक्त हुये। ९३वें समवाय में भगवान् चन्द्रप्रभ के 93 गण और 93 गणधर थे। भगवान् शान्तिनाथ के 93 सो चतुदर्श पूर्वधर थे। ९४वें समवाय में भगवान् अजित के 94 सौ अवधिज्ञानी श्रमण थे। ९५वें समवाय' में भगवान् श्री पार्श्व के 95 गण और 95 गणधर थे। भगवान् कुन्थु की 95 हजार वर्ष की आयु थी। ९६वें समवाय में प्रत्येक चक्रवर्ती के 96 करोड गांव होते हैं। ९७वें समवाय में आठ कर्मों की 97 उत्तर-प्रकृतियां हैं। ९वें समवाय में रेवती व ज्येष्ठा पर्यन्त के 19 नक्षत्रों के 98 तारे हैं। ९९वें [ 53 ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाय में मेरु पर्वत भूमि से 99 हजार योजन ऊँचा है। १००वें समवाय में भगवान पार्श्व की और गणधर सुधर्मा की आयु सौ वर्ष की थी, यह निरूपण है। उपर्युक्त पैतीसवें समवाय से १००वें समवाय तक विपुल सामग्री का संकलन हुआ है। उसमें से कितनी ही सामग्री पौराणिक विषयों से सम्बन्धित है। भूगोल और खगोल, स्वर्ग और नरक आदि विषयों पर अनेक दृष्टियों से विचार हुआ है। आधुनिक विज्ञान की पहँच जैन भौगोलिक विराट क्षेत्रों तक अभी तक नहीं हो पायी है। ज्ञात' से अज्ञात अधिक है। अन्वेषणा करने पर अनेक अज्ञात गम्भीर रहस्यों का परिज्ञान हो सकता है। इन समवायों में अनेक रहस्य आधुनिक अन्वेषकों के लिये उद्घाटित हये हैं। उन रहस्यों को आधुनिक परिपेक्ष्य में खोजना अन्वेषकों का कार्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें चौबीस तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, गणधर, तीर्थंकरों के श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका आदि के सम्बन्ध में भी विपुल सामग्री है। तीर्थंकर जैन शासन के निर्माता हैं। अध्यात्मिक-जगत् के आचारसंहिता के पुरस्कर्ता हैं। उन का जीवन साधकों के लिये सतत मार्गदर्शक रहा है। तीर्थंकरों के विराट् जीवनचरितों का मूल बीज प्रस्तुत समवायांग में है। ये ही बीज अन्य चरित ग्रन्थों में विराट रूप ले सके हैं। तीर्थंकरों के प्राग ऐतिहासिक और ऐतिहासिक विषयों पर विपुल सामग्री है। और अन्य विज्ञों के अभिमतों के आलोक में भी उस पर चिन्तन किया जा सकता है। पर प्रस्तावना की पृष्ठमर्यादा को ध्यान में रखते हुये मैं जिज्ञासु पाठकों को इतना सूचन अवश्य करूगा कि वे मेरे द्वारा लिखित, “भगवान ऋषभदेव : एक परिशीलन', 'भगवान् पाश्वः एक समीक्षात्मक अध्ययन', 'भगवान् अरिष्टनेमि' 'कर्मयोगी श्री कृष्ण: एक अनुशीलन' और 'भगवान महावीरः एक अनुशीलन' ग्रन्थों२२१ का अवलोकन करें। मैंने तीर्थकरों के सम्बन्ध में अनेक तथ्य इन ग्रन्थों में दिये हैं / इसी तरह भगवान महावीर के गणधरों के सम्बन्ध में भी "महावीर अनुशीलन" ग्रन्थ में चिन्तन किया है। लिपि-विचार ४६वें समवाय में ब्राह्मीलिपि के उपयोग में आने वाले अक्षरों की संख्या 46 बतायी है। आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत प्रागम की वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि 46 अक्षर "अकार" से लेकर क्ष सहित हकार तक होने चाहिये। उन्होंने ऋ ऋ ल ल नहीं गिने हैं। शेष अक्षर लिये हैं। अठारहवें समवाय में लिपियों के सम्बन्ध में ब्राह्मीलिपि के नाम बताये हैं। प्राचार्य अभयदेव ने इन लिपियों के सम्बन्ध में यह स्पष्ट लिखा है कि उन्हें इन लिपियों के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का विवरण प्राप्त नहीं हुआ है इसलिये वे उस का विवरण नहीं दे सके हैं। आधुनिक अन्वेषणा के पश्चात् इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि अशोक के लिपि प्रयुक्त हयी है, वह ब्राह्मी लिपि है / यवनों की लिपि यावनीलिपि है, जो आज अर्बी और फारसी आदि के रूप में विश्रुत है। खरोष्टी लिपि गन्धार देश में प्रचलित थी। यह लिपि दाहिनी ओर से प्रारम्भ होकर बाई ओर लिखी जाती थी। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रदेश में अशोक के जो दो शिलालेख प्राप्त हये हैं, उन में प्रस्तुत लिपि का प्रयोग हुआ है। खर और ओष्ट इन दो शब्दों से खरोष्ट बना है। खर गधे को कहते हैं। सम्भव है कि प्रस्तुत लिपि का मोड़ गधे के होठ की तरह हो / इसलिये इस का नाम खरोष्ठी, खरोष्ठिका अथवा खरोष्ट्रिका पड़ा हो / पांचवी लिपि का नाम "खर-श्राविता" है। खर के स्वर की तरह जिस लिपि का उच्चारण कर्णकटु हो, जिस के कारण संभवतः उस का नाम "खरश्राविता" पड़ा हो। छुट्टी लिपि का नाम "पकारादिका" है। जिस का प्राकृत 221. लेखक-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री तारकगुरु जैनग्रन्थालय, शास्त्री सर्कल, उदयपुर (राजस्थान) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप "पहाराइआ" "पाराइआ" हो सकता है। संभव है कि पकार बहुल होने के कारण या पकार से प्रारम्भ होने के कारण इस का नाम "पकारादिका" पड़ा हो। ग्यारहवीं लिपि का नाम "निह्नविका" है। निह्नव शब्द का प्रयोग जैन परम्परा में "छिपाने" के अर्थ में बहुत विश्रुत रहा है। जो लिपि गुप्त हो, या सांकेतिक हो, वह निह्रविका हो सकती है। वर्तमान में संकेत लिपि का प्रचलन अतिशीघ्र लिपि के रूप में है। प्राचीन युग में इसी तरह कोई सांकेतिक लिपि रही होगी, जो निह्रविका के नाम से विश्रुत हो। बारहवीं लिपि का नाम अकलिपि है। अंकों से निर्मित लिपि अंकलिपि होनी चाहिये। आचार्य कुमुदेन्दु ने "भू-वलय" ग्रन्थ का उट्टकन इसी लिपि में किया है। यह ग्रन्थ यलप्पा शास्त्री के पास था, जो विश्वेश्वरम् के रहने वाले थे। वह मैंने देहली में सन् 1954 में देखा था। उस में विविध-विषयों का संकलन-आकलन हुआ है, और अनेक भाषाओं का प्रयोग भी! यलप्पा शास्त्री के कहने के अनुसार उस में एक करोड़ श्लोक हैं और उसे भारत के राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू ने "विश्व का महान् पाश्चर्य" कहा है। तेरहवीं लिपि "गणितलिपि" है। गणितशास्त्र सम्बन्धी संकेतों के आधार पर आधत होने से लिपि "मणितलिपि" के रूप में विश्रुत रही हो। चौदहवीं लिपि का नाम "गान्धर्व" लिपि है। यह लिपि गन्धर्व जाति की एक विशिष्ट लिपि थी। पन्द्रहवीं लिपि का नाम "भूतलिपि" है। भूतान देश में प्रचलित होने के कारण से यह भूतलिपि कहलाती हो। भूतान को ही वर्तमान में भूटान कहते हैं। अथवा भोट या भोटिया, तथा भूत जाति में प्रचलित लिपि रही हो। संभव है कि पैशाचीभाषा की लिपि भूतलिपि कहलाती हो। भूत और पिशाच, ये दोनों शब्द एकार्थक से रहे हैं। इसलिये पैशाचीलिपि को भूतलिपि कहा गया हो। जो लिपि बहुत ही सुन्दर व आकर्षक रही होगी, वह सोलहवीं लिपि “आदर्श लिपि" के रूप में उस समय प्रसिद्ध रही होगी। यह लिपि कहाँ पर प्रचलित थी, यह अभी तक लिपिविशेषज्ञ निर्णय नहीं कर सके हैं। सत्तरहवीं लिपि का नाम "माहेश्वरी" लिपि है। माहेश्वरी वैश्यवर्ण में एक जाति है। संभव है कि इस जाति की विशिष्ट लिपि प्राचीनकाल में प्रचलित रही हो, और उसे माहेश्वरी लिपि कहा जाता हो। अठारहवीं लिपि ब्राह्मीलिपि है। यह लिपि द्राविड़ों की रही होगी। नाम से स्पष्ट है कि पुलिंदलिपि का सम्बन्ध आदिवासी से रहा हो। मगर अभी तक यह सब अनुमान ही है। इनका सही स्वरूप निश्चित करने के लिए अधिक अन्वेषण अपेक्षित है। बौद्ध ग्रन्थ "ललितविस्तरा" में चौंसठ लिपियों के नाम आये हैं। उन नामों के साथ समवायांग में प्राये हये लिपियों के वर्णन की तुलना की जा सकती है। सौंवें समवाय के बाद क्रमशः 150-200-250-300---350-400-450-500 यावत 1000 से 2000 से 10000 से एक लाख, उस से 8 लाख और करोड़ की संख्या वाले विभिन्न विषयों का इन समवायों में संकलन किया गया है। यहाँ पर हम कुछ प्रमुख विषयों के सम्बन्ध में ही चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। भगवान महावीर के तीर्थंकर भव से पूर्व छठे पोट्टिल के भव का वर्णन है। आवश्यक नियुक्ति में प्रभु महावीर के सत्ताईस भवों का सुविस्तृत वर्णन है। वहाँ पर नन्दन के जीव ने पोट्ठिल के पास दीक्षा ग्रहण की। और नन्दन के पहले के भवों में पोटिठल का उल्लेख नहीं है। और न यह उल्लेख अावश्यकचूणि, आवश्यक हरिभद्रीयावत्ति, आवश्यक मलयगिरि बत्ति और महावीरचरियं मादि में कहीं आया है। प्राचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत प्रागम की वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि पोठिल नामक राजकुमार का एक भव, वहाँ से देव हुए, द्वितीय भव / वहाँ से च्युत होकर क्षत्रानगरी में नन्दन नामक राजपुत्र हुए, यह तृतीय भव / वहाँ से देवलोक 222. आवश्यक नियुक्ति-गाथा 448 [ 55 1 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये, यह चतुर्थ भव। वहाँ से देवानन्दा के गर्भ में आये, यह पांचवां भव / और वहां से त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में लाये गये, यह छठा भव ! इस प्रकार परिगणना करने से पोट्ठिल का छठा भव घटित हो सकता है। समवायांगसूत्र में आये तीर्थंकरों की माताओं के नामों से दिगम्बर परम्परा में उनके नाम कुछ पृथक् रूप से लिखे हैं, वे इस प्रकार हैं-मरुदेवी, विजयसेना, सुसेना, सिद्धार्था, मंगला, सुसीमा, पृथ्वीसेना, लक्ष्मणा, जयरामा, (रामा) सुनन्दा, नन्दा (विष्णुश्री) जायावती (पाटला) जयश्यामा (शर्मा) शर्मा (रेवती) सुप्रभा (सुव्रता) ऐरा, श्रीकान्ता (श्रीमती) मित्रसेना, प्रजावती, (रक्षिता) सोमा (पद्मावती) वपिल्ला (वप्रा) शिवादेवी, वामादेवी, प्रियकारिणी त्रिशला / आवश्यक निर्यक्ति५४ में भी उन के नाम प्राप्त हैं। आगामी उत्सर्पिणी के तीर्थंकरों के नाम जो समवायांग में आये हैं, वही नाम प्रवचनसार में ज्यों के त्यों मिलते हैं। किन्तु लोकप्रकाश९३५ में जो नाम आये हैं, वे क्रम की दष्टि से पृथक हैं। जिनप्रभसूरि कृत 'प्राकृत दिवाली कल्प' में उल्लिखित नामों और उनके क्रम में अन्तर है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आगामी चौबीसी के नाम इस प्रकार प्राप्त होते हैं(१) श्री महापद्म (2) सुरदेव (3) सुपाव (4) स्वयंप्रभु (5) सर्वात्मभू (6) श्रीदेव (7) कुलपुत्रदेव (8) उदंकदेव (9) प्रोष्ठिलदेव (10) जयकीति (11) मुनिसुव्रत (12) अरह (13) निष्पाप (14) निष्कषाय (15) विपुल (16) निर्मल (17) चित्रगुप्त (18) समाधिमुक्त (19) स्वयंभू (20) अनिवृत्त (21) जयनाथ (22) श्रीविमल (23) देवपाल (24) अनन्तवीर्य दिगम्बर ग्रन्थों में अतीत चौबीसी के नाम भी मिलते हैं।२६ प्रस्तुत समवायांग में कुलकरों का उल्लेख हुआ है / स्थानांग सूत्र में अतीत उत्सपिणी के दश कुलकरों के नाम आये हैं तो समवायांग में सात नाम हैं और नामों में भेद भी है। कुलकर उस युग के व्यवस्थापक हैं, जब मानव पारिवारिक, सामाजिक, राजशासन और आर्थिक बन्धनों से पूर्णतया मुक्त था। न उसे खाने की चिन्ता थी, न पहनने की ही। वक्षों से ही उन्हें मनोवाञ्छित वस्तुएं उपलब्ध हो जाती थी। वे स्वतन्त्र जीवन जीने वाले थे। स्वभाव की दृष्टि से अत्यन्त अल्पकषायी। उस युग में जंगलों में हाथी, घोड़े, गाय, बैल, पशु थे, पर उन पशुओं का वे उपयोग नहीं करते थे। आर्थिक दृष्टि से न कोई श्रेष्ठी था, न कोई अनुचर ही। प्राज की भाँति रोगों का त्रास नहीं था। जीवन भर वे वासनाओं से मुक्त रहते थे। जीवन की सान्ध्यवेला में वे भाई-बहन मिटकर पति-पत्नी के रूप में हो जाते थे। और एक पुरुष और स्त्री युगल के रूप में सन्तान को जन्म देते थे। उनका वे 49 दिन तक पालन-पोषण करते और मरण-शरण हो जाते थे। उनकी मृत्यु भी उबासी और छौंक आते ही बिना कष्ट के हो जाती। इस तरह योगलिक काल का जीवन था। तीसरे आरे के अन्त 223. उत्तरपुराण व हरिवंश पुराण देखिये 224. आवश्यक नियुक्ति-गाथा 385, 386 225. लोकप्रकाश सर्ग-३८, मलोक 296 226. जैन सिद्धान्त संग्रह, पृ. 19 [ 56 ] Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक तृतीय विभाग में यौगलिक-मर्यादाएँ धीरे-धीरे विनष्ट होने लगती हैं। तृष्णाएँ बढ़ती हैं। और कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होने लगती है। उस समय व्यवस्था करने वाले कुछ विशिष्ट व्यक्ति पैदा होते हैं। उन्हें कुलकर की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। प्रथम कुलकर तृतीय आरा के पल्य जितना भाग अवशिष्ट रहने पर होते हैं। कलकरों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों में मतभेद रहे हैं।२२७ अन्तिम कुलकर नाभि के पुत्र "ऋषभ" हये जो प्रथम तीर्थकर भी थे। उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती हुए। तीर्थकर ऋषभ ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया तो चक्रवर्ती ने राज्य-चक्र का। चतुर्थ आरे में तेवीस तीर्थकर, ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नी वासुदेव और प्रतिवासुदेव आदि महापुरुष उत्पन्न होते हैं / इस प्रकार हम देखते हैं कि समवायांग में जिज्ञासु साधकों के लिए और अनुसंधित्सुओं के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का संकलन है / वस्तु-विज्ञान, जैन-सिद्धान्त, एवं जैन-इतिहास की दृष्टि से यह आगम अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें शताधिक विषय हैं। आधुनिक चिन्तक समवायांग में आये हुए गणधर गौतम की 92 वर्ष की आयु और गणधर सुधर्मा की 100 वर्ष की प्रायू पढ़कर यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि समवायांग की रचना भगवान महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् हुई है। हम उनके तर्क के समाधान में यह नम्र निवेदन करना चाहेंगे कि गणधरों की उम्र आदि विषयों का देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने इसमें संकलन किया है। स्थानाङ्ग की प्रस्तावना में मैंने इस प्रश्न पर विस्तार से चिन्तन भी किया है / यह पूर्ण ऐतिहासिक सत्य है कि यह प्रागम गणधरकृत हैं। मुख्य रूप से यह प्रागम गद्य रूप में है पर कहीं-कहीं बीच-बीच में नामावली व अन्य विवरण सम्बन्धी माथाएं भी आई हैं। भाष्य की दृष्टि से भी यह आगम महत्त्वपूर्ण है। कहीं-कहीं पर अलंकारों का प्रयोग हुआ है / संख्याओं के सहारे भगवान पार्श्व और उनके पूर्ववर्ती चौदहपूर्वी, अवधिज्ञानी, और विशिष्ट ज्ञानी मुनियों का भी उल्लेख है, जो इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। तुलनात्मक अध्ययन समवायांगसूत्र में विभिन्न विषयों का जितना अधिक संकलन हा है, उतना विषयों की दृष्टि से संकलन अन्य आगमों में कम हुआ है। भगवती सूत्र विषय बहल है तो आकार की दृष्टि से भी विराट् है। समवायांग सुत्र आकार की दृष्टि से बहत ही छोटा है। जैसे विष्ण मुनि ने तीन पैर से विराट विश्व को नाप लिया था, वैसे ही समवायांग की स्थिति है। यदि हम समवायांग सूत्र में आये हुये विषयों की तुलना अन्य आगम साहित्य से करें तो सहज ही यह ज्ञात होगा कि व्यवहार सूत्र में यथार्थ ही कहा गया है कि स्थानांग और समवायांग का ज्ञाता ही आचार्य और उपाध्याय जैसे गौरवपूर्ण पद को धारण कर सकता है क्योंकि स्थानांग और समावयांग में उन सभी विषयों की संक्षेप में चर्चाएँ पा गयी हैं, आचार्य व उपाध्याय पद के लिए जिनका जानना अत्यधिक आवश्यक है। संक्षेप में यों कहा जा सकता है कि जिनवाणी रूपी विराट सागर को समवायांग रूपी गागर में भर दिया गया है। यही कारण है कि अन्य आगम साहित्य में इस की स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनाई देती है। अतः हम यहां पर बहुत ही संक्षेप में अन्य आगमों के आलोक में समवायांगगत विषयों की तुलना कर रहे हैं। 227. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वितीय वक्षस्कार में पन्द्रह कुलकर, दिगम्बर ग्रन्थ "सिद्धान्त-संग्रह" में चौदह कुलकर कहे गए हैं। 228. ठाण-समवायधरे कपइ आयरियत्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छे इयत्ताए उद्दिसित्ताए ।--व्यवहारसूत्र उद्देशक 3 [ 57 ] For Private & Personal use only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग और आचारांग जिनवाणी के जिज्ञासुओं के लिए आचारांग का सर्वाधिक महत्त्व है। वह सबसे प्रथम अंग है-रचना की दृष्टि से और स्थापना की दृष्टि से भी। प्राचारांग रचनाशैली, भाषाशैली, व विषयवस्तु की दृष्टि से अद्भुत है / आचार और दर्शन दोनों ही दृष्टि से उसका महत्त्व है। हम समवायांग की आचारांग के साथ संक्षेप में तुलना कर रहे हैं। समवायांग के प्रथम समवाय का तृतीय सूत्र है-एगे दण्डे, आचारांग२२६ में भी इसका उल्लेख है। समवायांग के पांचवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'पंच महव्वया पण्णता...' है तो आचारांग 23 deg में भी यह निरूपण है। समवायांग के पांचवें समवाय का तृतीय सूत्र--'पंच कामगुणा पण्णता........' है तो आचारांग 3' में भी इसका प्रतिपादन हुआ है। समवायांग के पांचवें समवाय में छट्ठा सूत्र-'पंच निजरढाणा पण्णत्ता........' है तो आचारांग२३२ में भी यह वर्णन प्राप्त है / समवायांग के ? समवाय का द्वितीय सूत्र-'छ जीवनिकाय पण्णत्ता........' है तो प्राचारांग:33 में भी इसका निरूपण है। समवायांग के सातवें समवाय का तृतीय सूत्रसमणे भगवं महावीरे सत्तरयणीओ उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था... ...' है तो पाचारांग२३४ में भी महावीर की अवगाहना का यही वर्णन है। ........" है तो समवायांग के नवम समवाय का तृतीय सूत्र--"नव बंभचेरा पण्णत्ता...' आचारांग 235 में भी ब्रह्मचर्य का वर्णन प्राप्त है। समवायांग के पच्चीसवें समवाय का पहला सुत्र-"पुरिम-पच्छिमगाणं तित्थगराणं पंच-जामस्स पणवीसं भावणाओ पण्णत्ताओ..... .." है तो आचारांग 236 में भी पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का उल्लेख हुआ है। समवायांग के तीसवें समवाय में "समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई आगारवासमझे वसित्ता प्रागाराग्रो अणगारियं पम्वइए .............." है तो याचारांग२३७ में भी भगवान महावीर की दीक्षा का यही वर्णन है। 229. आचारांग श्रु. 1 अ. 1 उ. 4 230. आचारांग श्रु. 3 सू. 179 231. प्राचारांग श्रु. 1 अ. 2 उ. 1 सू. 65 232. प्राचाररांग श्र. 3 सू. 179 233. आचारांग श्रु. 1 अ. 1 उ. 1 से 7 234. आचारांग श्रु. 2 श्रः.१५ उ. 1 सू. 166 235. आचारांग श्रु. 1 अ. 1 से 9 / 236. आचारांग श्रु. 2 चु. 3 मू. 179 237. आचारांग श्रु. 2 चु, 3 सू. 179 [ 58 ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के एकावनवें समवाय का प्रथम सूत्र है-'मुणिसुव्वयस्स णं अरहओ पण्णासं अज्जियां साहस्सीओ होत्था...... ....' है तो आचारांग२३८ में भी मुनिसुव्रत की आधिकारों का वर्णन है। समवायांग सूत्र के वियासीवें समवाय का द्वितीय सूत्र है 'समणे भगवं महावीरे बासीए राइदिएहि वीइक्कतेहिं गब्भाओ गब्भं साहरिए 2 3 6..............' तो आचारांग 240 में भी भगवान महावीर के गर्भपरिवर्तन का उल्लेख है। समवायांग के बानवें समवाय का प्रथम सूत्र है-'बाणउई पडिमाग्रो पण्णत्ताओ.......................' तो आचारांग 241 में भी बानवें प्रतिमाओं का उल्लेख हुआ है। समवायांग के सूत्रों के साथ आचारांगगत विषयों का जो साम्य है, वह यहां पर निर्दिष्ट किया गया है। समवायांग और सूत्रकृतांग सूत्रकृतांग द्वितीय अंग है। आचारांग में मुख्य रूप से प्राचार की प्रधानता रही है तो सूत्रकृतांग में दर्शन को प्रधानता है। महावीर युगीन दर्शनों की स्पष्ट झांकी इसमें है। आचारांग की तरह यह भी भाव-भाषा और शैली की दृष्टि से अलग-थलग विलक्षणता लिए हुए है। संक्षेप में यहां प्रस्तुत है समवाययोग के साथ सूत्रकृतांग की तुलना। समवायांग के प्रथम समवाय का नवम सूत्र है-~“एगे धम्मे' तो सूत्रकृतांग 242 में भी इस धर्म का उल्लेख है। समवायांग के प्रथम समवाय का दशवां सूत्र है-'एगे अधम्मे' तो सूत्रकृतांग२४३ में भी यही वर्णन है। समवायांग के प्रथम समवाय का ग्यारहवाँ सूत्र है-"एगे पुण्णे" तो सूत्रकृतांग 244 में भी पुण्य का वर्णन है। समवायांग के प्रथम समवाय का बारहवाँ सूत्र है---"एगे पावे" तो सूत्रकृतांग 245 में भी पाप का निरूपण हुआ है। समवायांग के प्रथम समवाय का तेरहवां सूत्र है "एगे बंधे" तो सूत्रकृतांग 246 में भी बन्ध का वर्णन है। समवायांग के प्रथम समवाय का चौदहवां सूत्र है-"एगे मोक्खे" तो सूत्रकृतांग 247 में भी मोक्ष का उल्लेख है। 238. आचारांग-श्रु. 1 239. आचारांग-श्रु. 2 अ. 24 240. प्राचारांग-श्रु. 2 अ. 24 241. आचारांग-श्रु. 2 242. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 243. सूत्रकृतांग- श्रु. 2 अ. 5 244. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 245. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 246. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 247. सूत्रकृतांग--श्रु. 2 अ. 5 [ 59 ] Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के प्रथम समवाय का पन्द्रहवां सूत्र हैं-"एगे आसवें" तो सुकृतांग 248 में भी आश्रव का निरूपण है। समवायांग के प्रथम समवाय का सोलहवां सूत्र-“एगे संवरे" है तो सूत्रकृतांग 246 में भी संवर की प्ररूपणा हुयी है। समवायांग के प्रथम समवाय का सत्तरहवां सत्र-"एगा वेयणा" है तो सुत्रकृतांग२४० में भी वेदना का वर्णन है। ___ समवायांग के प्रथम समवाय का अठारहवां सूत्र है-"एगा निज्जरा" तो सूत्रकृतांग२५१ में भी निर्जरा का वर्णन है। समवायांग के द्वितीय समवाय का प्रथम सूत्र-"दो दण्डा पण्णत्ता........" है तो सूत्रकृतांग 252 में भी अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड का वर्णन है। समवायांग के तेरहवें समवाय का प्रथम सूत्र-"तेरस किरियाठाणा पण्णत्ता"......" है तो सूत्रकृतांग 253 में भी क्रियाओं का वर्णन है। ___ समवायांग के बावीसवें समवाय का प्रथम सूत्र है-"बावीसं परीसहा पण्णत्ता" तो सूत्रकृतांग२५४ में भी परीषहों का वर्णन है। इस तरह समवायांग और सूत्रकृतांग में अनेक विषयों की समानता है। स्थानाङ्ग और समवायांग ये दोनों आगम एक शैली में निर्मित हैं। अत: दोनों में अत्यधिक विषयसाम्य है। इन दोनों की तुलना स्थानाङ्गसूत्र की प्रस्तावना में की जा चुकी है, अतएव यहाँ उसे नहीं दोहरा रहे हैं। जिज्ञासुजन उस प्रस्तावना का अवलोकन करें। समवायांग और भगवती समवायांग और भगवती इन दोनों आगमों में भी अनेक स्थलों पर विषय में सरशता है। अत: यहां समवायांगगत विषयों का भगवती के साथ तुलनात्मक अध्ययन दे रहे हैं। समवायांग के प्रथम समवाय का प्रथम सूत्र है-"एगे आया" तो भगवती 255 में भी चैतन्य गुण की दृष्टि से आत्मा एक स्वरूप प्रतिपादित किया है। समवायांग के प्रथम समवाय का द्वितीय सूत्र है--"एगे अणाया" तो भगवती 56 सूत्र में भी अनुपयोग लक्षण की दृष्टि से अनात्मा का एक रूप प्रतिपादित है। 248. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 249. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 250. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ.५ 251. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 5 252. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ.२ 253. सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 2 254, सूत्रकृतांग-श्रु. 2 अ. 2 255. भगवती-शतक 12 उद्देशक 10 256. भगवती-शतक 1 उ. 4 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के प्रथम समवाय का चतुर्थ सूत्र है 'एगे अदण्डे' तो भगवती२५७ में भी प्रशस्त योगों का प्रवृत्तिरूप व्यापार-प्रदण्ड को एक बताया है। समवायांग के प्रथम समवाय का पांचवा सूत्र है-'एगा किरिया' तो भगवती२५% में भी योगों की प्रवृत्ति रूप क्रिया एक है। समवायांग के प्रथम समवाय का छठा सूत्र है 'एगा अकिरिया' तो भगवती२५० में भी योगनिरोधरूप अक्रिया एक मानी है। समवायांग के प्रथम समवाय का सातवाँ सुत्र है 'एगे लोए' तो भगवती२६० में भी धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का आधारभुत लोकाकाश एक प्रतिपादित किया है। समवायांग के प्रथम समवाय का आठवां सूत्र है-'एगे अलोए' तो भगवती२६' में भी धर्मास्तिकाय प्रादि द्रव्यों के अभाव रूप अलोकाश का वर्णन है। समवायांग के प्रथम समवाय का छब्बीसवाँ सूत्र है--'इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए... ... ... ...' तो भगवती 12 में भी रत्नप्रभा नामक पृथ्वी के कुछ नारकों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। समवायांग सूत्र के प्रथम समवाय का सत्ताईसवाँ सूत्र है-'इमीसे पं........ ...' तो भगवती२५3 में भी रत्नप्रभा-नारकों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का उनतीसवाँ सुत्र है-'असुरकुमाराणं देवाणं.......' तो भगवती२६४ में भी असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का तीसवाँ सूत्र है--'असुरकुमाराणं........' तो भगवती२६५ में भी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की बतायी है। समवायांग के प्रथम समवाय का इकतीसवाँ सूत्र है--'असुरकुमारिंद.. .....' तो भगवती२६६ में भी असुरकुमारेन्द्र को छोड़कर कुछ भवनपति देवों की स्थिति एक पल्योपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का बत्तीसवां सूत्र है-'असं खिज्जवासाउय......' तो भगवती२६७ में भी असंख्य वर्ष की आयु वाले कुछ गर्भज तिर्यंचों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। 257. भगवती--शत. 11 उ. 11 258. भगवती-श. 1 उ.६ 259. भगवती-श. 25 उ. 7 260. भगवती-श. 12 उ. 7 261. भगवती-श. 12 उ. 7 262. भगवती-श. 1 उ. 1 263. भगवती-श. 1 उ. 1 264. भगवती---श. 1 उ.१ 265. भगवती-श. 1 उ. 1 266. भगवती-श. 1 उ.१ 267. भगवती-श. 1 उ. 1 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के प्रथम समवाय का तेतीसवां सूत्र है—'असंखिज्ज वासाउय........' तो भगवती में भी असंख्य वर्षों को प्रायुवाले कुछ गर्भज मनुष्यों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। समवायांम के प्रथम समवाय का चौतीसवाँ सूत्र है-'वाणमंतराणं देवाणं........' तो भगवती२६६ में भी वाणव्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का पैतीसवाँ सूत्र है 'जोइसियाणं.......... .' तो भगवती२७० में भी ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम अधिक लाख वर्ष की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का छत्तीसवाँ सूत्र--सोहम्मे कप्पे देवाण...........' है तो भगवतीसूत्र 271 में भी सौधर्मकल्प के देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का सेंतीसवाँ सूत्र है-'सोहम्मे कप्पे.......' तो भगवती२७२ में भी सौधर्म कल्प के कुछ देवों की स्थिति एक सागरोपम की कही है। समवायांग के प्रथम समवाय का अड़तीसवां सूत्र है-'ईसाणे कप्पे देवाण.........' तो भगवती७३ में भी ईशान कल्प के देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम की कही है। समवायांग सूत्र के प्रथम समवाय का उनचालीसवाँ सूत्र है-'ईसाणे काप्पे देवाण सूत्र में भी ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति एक सागरोपम की कही है। समवयांग के प्रथम समवाय का तयालीसवाँ सूत्र है.-'संतेगइया भवसिद्धिया.......' तो भगवती७५ में भी इस का वर्णन है। समवायांग के तृतीय समवाय का तेरहवां सूत्र है-'इमीसे णं रयणप्पहाए...' है तो भगवती 76 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति तीन पल्योपम की बतायी है। ___ समवायांग के तृतीय समवाय का चौदहवां सूत्र है-'दोच्चाए णं पुढवीए........' तो भगवती२७७ में भी शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की बतायी है। समवायांग के तृतीय समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र है -'तच्चाए णं पूढवीए........' तो भगवती२७८ में भी बालुकाप्रभा पृथ्वी के नरयिकों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की बतायी है। 268. भगवती-श.१ उ.१ 269. भगवती-श. 1 उ. 1 270. भगवती-श. 1 उ. 1 271. भगवती-श, 1 उ. 1 272. भगवती-श. 1 उ. 1 273. भगवती-श. 1 उ. 1 274. भगबती-श. 1 उ. 1 275. भगवती-श. 6, 12, उ.१०, 2 276. भगवती-श. 1 उ. 1 277. भगवती-श.१ उ. 1 278, भगवती-श.१ उ.१ [ 62 ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के तृतीय समवाय का सोलहवा सूत्र है---'प्रसुरकुमाराणं देवाणं.......' इसी तरह भगवती२७६ में भी कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तीन पल्योपम की कही है। - समवायांग सूत्र के तृतीय समवाय का सत्तरहवाँ सूत्र है-'प्रसंखिज्जवासाउय""".' तो भगवती२८० में भी असंख्य वर्ष की आयु वाले संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की बतायी है। समवायांग सूत्र के तृतीय समवाय का अठारहवां सूत्र-'असंखिज्जवासाउय.......है तो भगवती२५१ में भी असंख्य वर्ष की आय वाले गर्भज मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम को बतायी है। समवायांग के तृतीय समवाय का उन्नीसवां सूत्र है-'सोहम्मीसाणेसु.......' तो भगवती२८२ में भी सौधर्म और ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति यही कही है। समवायांग के तृतीय समवाय का बीसवाँ सूत्र –'सणंकुमार-माहिदेसु......' है तो भगवती२८३ में भी सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के कुछ देवों की स्थिति तीन सागरोपम की कही है। समवायांग के तृतीय समवाय का इकवीसवाँ सूत्र है-'जे देवा आभंकरं पभकर' है तो भगवती२८४ में आभंकर प्रभंकर देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की बतायी है। समवायांग के तृतीय समवाय का चौवीसवां सूत्र-'संतेगइया भवसिद्धिया.......' है तो भगवती२८५ में भी कुछ जीव तीन भव कर मुक्त होंगे, ऐसा वर्णन है। __समवायांग के चतुर्थ समवाय का दशवां सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए......" है तो भगवती२८६ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चार पल्योपम की बतायी है। समवायांग के चतुर्थ समवाय का ग्यारहवां सूत्र-'तच्चाए णं पुढवए........' है तो भगवती२८७ में भी बालुका पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चार सागरोपम की कही है। समवायांग के चतुर्थ समवाय का बारहवाँ सूत्र--'असुरकुमाराणं देवाण........' है तो भगवती 288 में भी असुरकुमार देवों की चार पल्योपम की स्थिति प्रतिपादित है। ___ समवायांग सूत्र के चतुर्थ समवाय का तेरहवां सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु...........' है तो भगवती२८ में भी सौधर्म ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही है। 279. भगवती-श. 1 उ. 1 280. भगवती-श. 1 उ. 1 281. भगवती-श. 1 उ.१ 282. भगवती-श. 1 उ.१ 283. भगवती-श. 1 उ. 1 284. भगवती-श. 1 उ. 1 285. भगवती-श. 6, 12 उ. 10,2 286. भगवती-श. 1 उ. 1 287. भगवती-श.१ उ. 1 288. भगवती-श. 1 उ. 1 289. भगवती-श.१ उ. 1 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के चौथे समवाय का चौदहवाँ सुत्र--सणंतकुमार-माहिंदेसु...........' है तो भगवती२६० में भी सनत्कुमार और माहेन्द्र कुमार के कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही है। समवायांग के चतुर्थ समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र-जे देवा किटिंठ सूकिटिंठ........' है तो भगवती२६१ में भी कृष्टि, सुकृष्टि, आदि वैमानिक देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम की कही है। ___ समवायांग के पाँचवे समवाय का छठा सूत्र-'पंच निज्जरट्ठाणा पण्णत्ता' है तो-भगवती२६२ में भी निर्जरा के प्राणातिपातविरति आदि पाँच स्थान बताये हैं। समवायांग के पांचवें समवाय का आठवाँ सुत्र --'पंच अस्थिकाया पण्णत्ता.......' है तो भगवती२६३ में भी धर्मास्तिकाय आदि पांच अस्तिकाय बताये हैं। समवायांग के पांचवें समवाय का चौदहवां सूत्र--'इमोसे रयणपहाए'....' है तो भगवती२६४ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति पाँच पल्योपम की कही है। समवायांग के पाँचवें समवाय का पन्द्रहवां सूत्र –'तच्चाए णं पुढवीए........' है तो भगवती२६५ में भी बालुकाप्रभा पृथ्वी के कुछ नरकियों की स्थिति पांच पल्योपम की कही है। समवायांग के पांचवें समवाय का सोलहवां सूत्र--'असुरकुमाराणं देवाणं........' है तो भगवती२६६ में भी असुरकुमार देवों की स्थिति पाँच पल्योपम की कही है। समवायांग के पांचवें समवाय का सत्तरहवाँ सूत्र- 'सौहम्मीसाणेसु........' है तो भगवती२६७ में भी सौधर्म, ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति पाँच पल्योपम की बतायी है। समवायांग के पांचवें समवाय का अठारहवाँ सूत्र-'सणं कुमार-माहिंदेसु.......' है तो भगवती२६८ में भी सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के कुछ देवों की स्थिति पाँच सागरोपम की कही है। समवायांग के पांचवें समवाय का उन्नीसवाँ सुत्र-'जे देवा वायं सूवायं.......' है तो भगवती 6 में भी वात-सुवात आदि वैमानिक देवों की उत्कृष्ट स्थिति पाँच सागर की कही है। समवायांग के छठे समवाय का तृतीय सूत्र है—'छविहे बाहिरे तवोकम्मे पण्णते.... ...' तो भगवती 300 में भी बाह्यतप के अनशन आदि छः भेद बताये हैं। 290. भगवती-श. 1 उ. 1 291. भगवती-श. 1 उ. 1 292. भगवती--श. 7 उ. 10 293. भगवती-श. 2 उ. 10 294. भगवती-श. 1. उ. 1 295. भगवती-श. 1 उ. 1 296. भगवती-श. 1 उ.१ 297. भगवती-श.१ उ.१ 298. भगवती-श. 1 उ.१ 299. भगवती-श.१ उ. 1 300. भगवती-श. 25 उ. 7 [ 64 / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के छठे समवाय का चौथा सूत्र--'छविहे अभितरे तबोकम्मे पण्णत्ते........' है तो भगवती30" में भी छः आभ्यन्तर तप का वर्णन है / समवायांग के छठे समवाय का पांचवां सूत्र-'छ छा उमत्थिया समुग्घाया.......' है तो भगवती 302 में भी छाद्यस्थिकों के छः समुद्घात बताए हैं। यांग के छठे समवाय का दसवां मत्र_तच्चाए पढवीए ........है तो भगवती 303 में भी बालुकाप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति छ: सागरोपम की बतायी है। समवायांग के छठे समवाय का ग्यारहवाँ सूत्र--'असुरकुमाराणं........' है तो भगवती 3 04 में भी कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति छः पल्योपम की प्रतिपादित है। समवायांग के छठे समवाय का बारहवां सूत्र---'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु.......' है तो भगवती३०५ में भी सौधर्म व ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति छः पल्योपम को बतायी है। समवायांग सूत्र के छठे समवाय का तेरहवाँ सूत्र-'सणंकुमारमाहिदेसु ......' है तो भगवती 06 में भी सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के कुछ देवों की स्थिति छ: पल्योपम की बतायी है। समवायांग के छठे समवाय का चौदहवां सुत्र-'जे देवा सर्वभूरमणं.......' है तो भगवती 3 07 में भी स्वयंभू स्वयंभूरमण विमान में उत्पन्न होने वालों को उत्कृष्ट स्थिति छः सागर की कही है। समवायांग के छठे समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र—'तेणं देवा, छह अद्धमासाणं.....' है तो भगवती 308 में भी स्वयंभू आदि विमानों के देव छः पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेते हैं, ऐसा वर्णन है। समवायांग के छटे समवाय का सोलहवां सूत्र—'तेसि णं देवाणं .......' है तो भगवती 306 में भी स्वयंभू यावत् विमानवासी देवों की इच्छा आहार लेने की छः हजार वर्ष के बाद होती है।। समवायांग सूत्र के सातवें समवाय का तृतीय सूत्र- 'समणे भगवं....... ' है तो भगवती.. में भी श्रमण भगवान महावीर सात हाथ के ऊँचे कहे गए हैं। समवायांग के सातवें समवाय का बारहवां सूत्र-'इमोसे गं रयणप्पहाए ........' है तो भगवती" में भी रत्नप्रभा पृथ्बी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सात पल्योपम की प्रतिपादित है। 301. भगवती श. 25 उ. 7 302. भगवती श. 13 उ. 10 303. भगवती श. 1 उ.१ 304. भगवती श. 1 उ. 1 305. भगवती श. 1 उ. 1 306. .भगवती श. 1 उ. 1 07. भगवती श. 1 उ. 1 08. भगवती श. 1 उ. 1 309. भगवती श. 1 उ. 1 310. भगवती श. 1 उ. 1 311. भगवती श. 1 उ. 1 الله الله [ 65 } Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के सातवें समवाय कर तेरहवाँ सूत्र-तच्चाए ण पुढवीए.......' है तो भगवती 12 में भी बालुकाप्रभा के कुछ नैरयिकों की स्थिति सात सागरोपम की वणित है / समवायांग के सातवें समवाय का चौदहवाँ सूत्र---'चउत्थीए णं पुढवीए'......' है तो भगवती312 में भी पंकप्रभा नैरयिकों की जघन्य स्थिति सात सागरोपम की कही है। समवायांग के सातवें समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र--'असुरकुमाराण.......' है तो भगवती3 14 में भी कुछ कुमारों की स्थिति सात पत्योपम की वणित है। समवायांग के सातवें समवाय का सोलहवां सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु.......' है तो भगवती 15 में सौधर्म ईशान कल्प की स्थिति सात पल्योपम की बतायी है। समवायांग के सातवें समवाय का सत्तरहवां सूत्र--'सणंकमारे कप्पे देवाणं....' है तो भगवती१६ में भी सनत्कुमार देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की बतायी है। समवायांग के सातवें समवाय का अठारहवाँ सुत्र-'माहिंदे कप्पे देवाणं ........' है तो भगवती१७ में भी माहेन्द्र कल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम की बतायी है। समवायांग के सातवें समवाय का उन्नीसवां सूत्र-'बभलोए कप्पे.......' है तो भगवती3 18 में भी ब्रह्म लोक के देवों की स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम की कही है।। समवायांग के सातवें समवाय का बीसा सूत्र-'जे देवा समं समप्पभं...' है तो भगवती398 में भी सम, समप्रभ, महाप्रभ, आदि देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम की कही है। समवायांग के सातवें समवाय का इक्कीसवा सूत्र---'ते णं देवा सत्तण्ह....' है तो भगवती3२० में भी सनत्कुमारावतंसक विमान में जो देव उत्पन्न होते हैं, वे सात पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते हैं, ऐसा कथन है। समवायांग से सातवें समवाय का बावीसवां सूत्र--'तेसि णं देवाणं .......' है तो भगवती 321 में भी सनत्कुमारावतंसक देवों की आहार लेने की इच्छा सात हजार वर्ष से होती कही है। समवायांग के आठवें समवाय का दशवां सूत्र-'इमोसे णं रयणप्पभाए........' है तो भगवती 322 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति आठ पल्योपम की कही है। 312. भगवती श. 1 उ. 1 313. भगवती श. 1 उ. 1 314. भगवती श. 1 उ. 1 315. भगवती श. 1 उ.१ 316. भगवती श. 1 उ. 1 317. भगवती श. 1 उ.१ 318. भगवती श. 1 उ. 1 319. भगवती श. 1 उ. 1 320. भगवती श. 1 उ. 1 321. भगवती श. 1 उ. 1 322. भगवती श. 1 उ. 1 [ 66 ] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के आठवें समवाय का म्यारहवां सूत्र-'चउत्थीए पुढवीए.....' है तो भगवती323 में भी पंकप्रभा नैरयिकों की स्थिति आठ सागरोपम की है। / समवायांग के पाठवें समवाय का बारहवां सूत्र--'असुर कुमाराणं देवाणं .......' है तो भगवती३ 24 में भी असुरकुमारों की स्थिति आठ पल्योपम की कही है। समवायांग के आठवें समवाय का तेरहवा सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु.....' है तो भगवती२५ में भी मोधर्म और ईशान कल्प के देवों की स्थिति आठ पल्योपम की कही है। समवायांग के आठवें समवाय का चौदहवां सूत्र-'बंभलोए कप्पे........' है तो भगवती3 26 में भी ब्रह्मलोक कल्प के देवों की स्थिति पाठ सागरोपम की प्रतिपादित है। समवायांग के आठवें समवाय का पन्द्रहवां सूत्र-जे देवा अच्चि........' है तो भगवती 32" में भी अचि, अचिमाली आदि की उत्कृष्ट स्थिति पाठ सागर की कही है। समवायांग के आठवें समवाय का सोलहवाँ सूत्र-'ते णं देवा अट्ठाह........' है तो भगवती३२८ में भी अचि आदि देव पाठ पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। समवायांग के पाठवें समवाय का सत्तरहवां सूत्र-'तेसिं णं देवाणं अहिं ........' है तो भगवती 326 में भी अचि, प्रादि देवों को आहार लेने की इच्छा आठ हजार वर्ष से होती कही है। समवायांग नबमें समवाय का ग्यारहवाँ सूत्र-'दंसणावरणिज्जस्स...."कम्मस्स' है तो भगवती33° में भी निद्रा, प्रचला आदि दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियां कही हैं। समवायांग से नवमें समवाय का बारहवां सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए... ...' है तो भगवती33' में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति नौ पल्योपम को बतायी है। समवायांग के नवमें समवाय का तेरहवा सूत्र--'चउत्थीए पुढवीए.......' है तो भगवती 332 में भी पंकप्रभा के कुछ नैरयिकों की स्थिति नो सागर की बतायी है। समवायांग के नवमें समवाय का चौदहवा सूत्र-"असुरकूमाराण देवाणं ......." है तो भगवती 333 में भी असुरकुमार देवों की स्थिति नो पल्योपम की कही है। - 323. भगवती-श. 1 उ. 1 324. भगवती--श. 1 उ. 1 325. भगवती-श. 1 उ. 1 326. भगबती-श. 1 उ.१ 327. भगवती-श. 1 उ. 1 328. भगवती-श.१ उ. 1 329. भगवती--श. 1 उ. 1 330. भगवती--श. 1 331. भगवती-श. 1 उ. 1 332. भगवती-श. 1 उ.१ 333. भगवती-श. 1 उ. 1 [ 67 ] Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के नबम समवाय का पन्द्रहवां सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु........' है तो भगवती33 4 में भी सौधर्म व ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति नौ पल्योपम की कही है। समवायांग के नवम समवाय का सोलहवां सूत्र--भलोए कप्पे ... ...' है तो भगवती 335 में भी ब्रह्मलोक कल्प के कुछ देवों की स्थिति नौ सागरोपम की कही है। समवायांग के नवम समवाय का सत्तरहवां सूत्र---'जे देवा पम्हं सूपम्ह........' है तो भगवती3 34 में भी पक्षम, सुपक्षम, पक्ष्मावर्त आदि देवों की उत्कृष्ट स्थिति नौ सागरोपम की बतायी है। समवायांग के नवम समवाय का अठारहवा सूत्र-'ते णं देवा नवण्हं........' है तो भगवती 3 3 7 में भी पक्षम, आदि देव नौ पक्ष में श्वासोच्छवास लेते हैं ऐसा कथन है। समवायांग के नवम समवाय का उन्नीसवाँ सूत्र--'तेसि णं देवाणं......' है तो भगवती 335 में भी पक्षम, सुपक्ष्म आदि देवों को आहार लेने की इच्छा नौ हजार वर्ष से होती कही है। समवायांग के दशम समवाय का नौवां सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए.......' है तो भगवती 338 में भी रत्नप्रभा नैरयिकों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। समवायांग के दशम समवाय का दशम सूत्र-'इमीसे णं रयणपहाए...' है तो भगवती 340 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरविकों की स्थिति दश पल्योपम की कही है। समवायांग के दशम समवाय का ग्यारहवां सूत्र–चउत्थीए पुढवीए .......' है तो भगवती 341 में पंकप्रभा पृथ्वी में दस लाख नारकावास कहे हैं, ऐसा वर्णन है। समवायांग के दशवें समवाय का बारहवां सूत्र--'चउत्थीए पुढवीए.......' है तो भगवती 342 में भी पंकप्रभा पृथ्वी के नरयिकों की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम की बतायी है। समवायांग के दशवें समवाय का तेरहवां सूत्र-'पंचमीए पुढवीए.......' है तो भगवती 3 4 3 में भी धमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की जघन्य स्थिति दश सागरपोम की कही है। समवायांग के दशवें समवाय का चौदहवाँ सुत्र--'असुरकुमाराणं देवाणं.......' है तो भगवती३४४ में भी असुरकुमार देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की प्ररूपित है। 334. भगवती-श. 1 उ. 1 335. भगवती-श. 1 उ.१ 336. भगवती-श. 1 उ. 1 337. भगवती-श. 1 उ. 1 338. भगवती-श. १.उ.१ 339. भगवती-श. 1 उ.१ 340. भगवती-श.१ उ. 1 341. भगवती-श. 1 उ. 1 342. भगवती-श. 1 उ.१ 343. भगवती–श. 1 उ. 1 344. भगवती-श. 1 उ. 1 [ 68 ] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के दशवें समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र- 'असुरिंदवज्जाणं .......' है तो भगवती 345 में भी असुरेन्द्र को छोड़कर शेष भवनपति देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही है। - समवायांग के दशवें समवाय का सोहलवां सूत्र—'असुरकूमाराणं देवाण.... 'है तो भगवती 42 में भी असुरकुमार देवों की स्थिति कही है। समवायांग के दशवें समवाय का सत्तरहवां सूत्र-'बायरवणस्सइकाइए".....' है तो भगवती३४७ में भी प्रत्येक वनस्पति की उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्ष की कही है। समवायांग के दशवें समवाय का अठारहवां सूत्र--'वाणमंतराणं देवाणं........' है तो भगवती३४८ में भी व्यन्तरदेवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की बतायी है। समवायांग के दश समवाय का उन्नीसवाँ सूत्र-'सोहम्मीसासु कप्पेसु........' है तो भगवती 346 में भी सौधर्म और ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति दश पल्योपम की कही है। ___ समवायांग के दशवें समवाय का बीसवाँ सूत्र-'बंभलोए कप्ये........' है तो भगवती 5 * में भी ब्रह्मलोक देव की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम की बतायी है। समवायांग सूत्र के दशवें समवाय का इकवीसवां सूत्र-'लंतए कप्पे देवाणं....' है तो भगवती३५१ में भी लान्तक देवों की जघन्य स्थिति दश सागर की बतायी है। समवायांग के दशवें समवाय का बावीसवाँ सूत्र--'जे देवा धोसं सुघोसं........' है तो भगवती 352 में भी घोष, सुघोष आदि देवों को उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम की कही है। समवायांग के दशवें समवाय का तेवीसवाँ सूत्र-'ते णं देवा णं अद्धमासाणं.......' है तो भगवती३५3 में भी घोष यावत ब्रह्मलोकावतंसक विमान के देव दश पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते कहे हैं। समवायांग के दशवें समवाय का चौबीसवाँ सुत्र--'तेसिं णं देवाण.... ...' है तो भगवती 354 में भी धोष, यावत् ब्रह्मलोकावतंसक के देवों की आहार लेने की इच्छा दश हजार वर्ष में कही है। समवायांग के ग्यारहवें समवाय का आठवाँ सूत्र---'इमीसे गं रयणप्पहाए........' है तो भगवती३५५ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की कही है। 345. 346. 347. 348. 349. 350. 351. 352. 353. 354. 355. भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती--श. 1 उ. 1 भगवती----श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 भगवती-श. 1 उ. 1 [ 69 ] Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के ग्यारहवें समवाय का नवम सूत्र-'पंचमीए पुढवीए.......' है तो भगवती५६ में भो धूमप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति ग्यारह सागरोपम की बतायी है। समवायांग के ग्यारहवें समवाय का दशवा सूत्र—'असुरकुमाराण देवाण.......' है तो भगवती 357 में भी कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति ग्यारह पत्योपम की बतायी है। समवायांग के ग्यारहवें समवाय का ग्यारहवाँ सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु.......' है तो भगवती५६ में भी सौधर्म ईशानकल्प के कुछ देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम की प्ररूपित है। समवायांग के ग्यारहवें समवाय का बारहवां सूत्र-'लंतए कप्पे......' है तो भगवती3५६ में भी लांतक कल्प के कुछ देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम की कही है। समवायांग के ग्यारहवें समवाय का तेरहवां सूत्र--'जे देवा बभं सुबंभं.....' है तो भगवती में भी ब्रह्म, सुब्रह्म प्रादि देवों की उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागरोपम की बतायी है। समवायांग के ग्यारहवें समवाय का चौदहवां सूत्र-'ते णं देवा.......' है तो भगवती३६' में भी ब्रह्म यावत् ब्रह्मोत्तरावतंसक देव ग्यारह पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते कहे हैं / समवायांग के ग्यारहवें समवाय का पन्द्रहवां सूत्र-'तेसि देवाणं ........' है तो भगवती 362 में भी ब्रह्म ब्रह्मोत्तरावतंसक देवों की आहार लेने की इच्छा ग्यारह हजार वर्ष से होती बतलाई है। समवायांग के बारहवें समवाय का बारहवां सूत्र- 'इमीसे ण रयणपहाए.......' है तो भगवती३६३ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति बारह सागरोपम की कही है। समवायांग के बारहवें समवाय का तेरहवाँ सूत्र– 'पंचमीए पुढवीए........ ' है तो भगवती 334 में भी धूमप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति बारह सागरोपम की बतायी है। समवायांग के बारहवें समवाय का चौदहवां सूत्र-'असुरकूमाराणं देवाणं' ...' है तो भगवती 365 में भी कुछ भसुरकुमार देवों की स्थिति बारह पल्योपम की बतायी है। समवायांग के बारहवें समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र--'सोहम्मीसाणेसु कप्पेस ........' है तो भगवती 366 में भी सौधर्म ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति बारह पल्योपम की बतायी है। 356. भगवती–श. 1 उ.१ 357. भगवती.श. 1 उ. 1 358. भगवती-श. 1 उ. 1 359. भगवती-श. 1 उ. 1 360. भगवती-श. 1 उ. 1 361. भगवती-श. 1 उ. 1 362. भगवती-श. 1 उ. 1 363. भगवती--श. 1 उ. 1 364. भगवती-श. 1 उ. 1 365. भगवती--श. 1 उ. 1 366. भगवती-श. 1 उ. 1 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के बारहवें समवाय का सोलहवाँ सूत्र-'लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं........' है तो भगवती६७ में भी लांतक कल्प के कुछ देवों की स्थिति बारह पत्योपम की बतायी है। समवायांग के बारहवें समवाय का सत्तरहवाँ सूत्र--'जे देवा माहिंद.......' है तो भगवती3६८ में भी माहेन्द्रध्वज, आदि देवों की उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम की कही है। समवायांग के तेरहवें समवाय का नवमा सूत्र---'इमीसे णं रयणप्पहाए ......' है तो भगवती 66 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति तेरह पल्योपम की कही है। समवायांग के तेरहवें समवाय का दशमां सूत्र--पंचमीए पुढवीए......' है तो भगवती 370 में भी धमप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति तेरह मागरोपम प्रतिपादित है। समवायांग के तेरहवें समवाय का ग्यारहवाँ सूत्र---'असुरकुमारणं देवाणं ...' है तो भगवती 371 में भी कुछ असुरकुमार देवों की स्थिति तेरह पल्योपम की बतायी है / समवायांग के तेरहवें समवाय का बारहवाँ सूत्र - 'सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु.......' है तो भगवती३७२ में भी सौधर्म व ईशान कल्प' के कुछ देवों की स्थिति तेरह पत्योपम की कही है। समवायांग के तेरहवें समवाय का तेरहवां सूत्र---'लंतए कप्पे.......' है तो भगवती3७३ में भी लांतक कल्प के कुछ देवों की स्थिति तेरह सागरोपम की कही है। समवायांग के तेरहवें समवाय का चौदहवाँ सूत्र-'जे देवा वज्ज सुवज्जं........' है तो भगवती 74 में भी वज्र-सुवज्र आदि देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम की बतायी है। समवायांग के तेरहवें समवाय का पन्द्रहवाँ सूत्र-'ते णं देवा....' है तो भगवती३७५ में भी वज्र आदि लोकावतंसक देव तेरह पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते कहे हैं। समवायांग के चौदहवें समवाय का प्रथम सूत्र-'चउद्दस भूयग्गामा.......' है तो भगवती 376 में भी सूक्ष्मअपर्याप्त पर्याप्त आदि चौदह भूतग्राम बताये हैं / समवायांग के चौदहवें समवाय का नवमा सूत्र--'इमीसे ण रयणप्पहाए......' है तो भगवती 377 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरपिकों की स्थिति चौदह पल्योपम की कही है। 367. भगवती-श. 1 उ. 1 368. भगवती---श. 1 उ. 1 369. भगवती---श. 1 उ. 1 370. भगवती-श. 1 उ.१ 371. भगवती- श. 1 उ. 1 372. भगवती-श. 1 उ. 1 373. भगवती-श. 1 उ. 1 374. भगवती--श. 1 उ. 1 375. भगवती---श. 1 उ. 1 376. भगवती-श. 25 उ. 1 377. भगवती--श. 1 उ.१ [ 71 ] Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के चौदहवें समवाय का दशा सूत्र-'पंचमीए पुढवीए...' है तो३७८ भगवती में भी धूमप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चौदह सागरोपम की कही है। समवायांग के चौदहवें समवाय का ग्यारहवां सूत्र-'असुरकूमाराणं देवाण......'है तो भगवती 376 में भी असुरकुमारदेवों की स्थिति चौदह पल्योपम की बतायी है। समवायांग के चौदहवें समवाय का बारहवाँ सूत्र--'सोहम्मीसाणेसू...' है तो भगवती3८० में भी सौधर्म और ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति चौदह पल्योपम की कही है। समवायांग के चौदहवें समवाय का तेरहवां सूत्र-'लंतए कप्पे...' है तो भगवती3८1 में भी लांतक कल्प के देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपम की बतायी है। समवायांग के चौदहवें समवाय का चौदहवाँ सूत्र-'महासुक्के कप्पे...' है तो भगवती3८२ में भी महाशुक्र कल्प के देवों की जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम को बतायी है। समवायांग के चौदहवें समवाय का पन्द्रहवां सूत्र-'जे देवा...' है तो भगवती३८3 में भी श्रीकान्त देवों के चौदह सागर की स्थिति कही है। समवायांग के पन्द्रहवे समवाय का पांचवाँ सूत्र-'चेत्तासोएसु ण मासेसु...' है तो भगवती 84 में भी छः नक्षत्र चन्द्र के साथ पन्द्रह मुहूर्तपर्यन्त योग करते हैं। समवायांग के पन्द्रहवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'मणसाणं....' है तो भगवती3८५ में भी मनुष्य के पन्द्रह योग कहे हैं। समवायांग के पन्द्रहवें समवाय का आठवाँ सूत्र—'इमीसे णं रयणप्पहाए...' है तो भगवती3८६ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की बतायी है। समवायांग के पन्द्रहवें समवाय का नवमा सूत्र-'पंचमीए पुढवीए..' है तो भगवती३८७ में भी धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम की कही है। समवायांग के पन्द्रहवें समवाय का सूत्र-'असुरकुमाराणं देवाणं...' है तो भगवती3८८ में भी कुछ असुर कुमार देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की कही है। 378. भगवती-श. 1 उ. 1 379. भगवती-श. 1 उ. 1 380. भगवती-श. 1 उ. 1 381. भगवती--श. 1 उ. 1 382. भगवती-श. 1 उ. 1 383. भगवती--श. 1 उ. 1 384. भगवती-श. 11 उ. 11 385. भगवती-श. 1 उ. 1 386. भगवती–श. 1 उ. 1 387. भगवती-श. 1 उ. 1 388. भगवती-श. 1 उ. 1 [ 72 ] Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के पन्द्रहवें समवाय का म्यारहवा सूत्र--'सोहम्मीसाणेसु......' है तो भगवती३८६ में भी सौधर्म और ईशान कल्प के कुछ देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की कही है। समवायांग के पन्द्रहवें समवाय का बारहवां सुत्र-~'महासुक्के कप्पे.......' है तो भगवती38 में भी महाशुक्र काल्प के कुछ देवों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही है। समवायांग के सोलहवें समवाय का आठवाँ सूत्र-इमीसे णं रयणप्पहाए........' है तो भगवती ' में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सोलह पल्योपम की कही है। समवायांग के सोलहवें समवाय का नवम सूत्र--'पंचमीए पुढवीए...' है तो भगवती3.२ में भी धमप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सोलह सागरोपम की बतायी है। समवायांग के सत्तरहवें समवाय का छट्टा सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए........' है तो भगवती 363 में रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूभाग से कुछ अधिक सत्तरह हजार योजन की ऊँचाई पर अंधाचारण और विद्याचारण मुनियों की तिरछी गति कही है। समवायांग के सत्तरहवें समवाय का सातवां सूत्र--'चमरस्स णं असुरिंदस्स.......' है तो भगवती 364 में भी चरम असुरेन्द्र के तिगिच्छकट उत्पात पर्वत की ऊँचाई सत्तरह सौ इक्कीस योजन की है। समवायांग के सत्तरहवें समवाय का पाठवां सूत्र—'सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते........' है तो भगवती३६५ में भी मरण के सत्तरह प्रकार बताये हैं। समवायांग के सत्तरहवें समवाय' का ग्यारहवां सूत्र--'इमीसे णं रयणप्पहाए... ...' है तो भगवती 366 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति सत्तरह पल्योपम की बतायी है। समवायांग के अठारहवें समवाय का आठवां सूत्र-पोसाऽऽ साढेस्... ...' है तो भगवती36 में भी पौष और आषाढ़ मास में एक दिन उत्कृष्ट अठारह मुहर्त का होता है तथा एक रात्रि अठारह महतं की होती कही है। समवायांग के अठारहवें समवाय का नवमा सूत्र-'इमीसे गं रयणप्पहाए......' है तो भगवतो 368 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति अठारह पल्योपम की कही है। - --------- -- - 389, भगवती श. 1 उ. 1 390. भगवती श. 1 उ. 1 391. भगवती श. 1 उ. 1 392. भगवती श.१ उ.१ 393. भगवती श. 20 उ. 1 394: भगवती श. 3 उ. 1 395. भगवती श. 13 उ. 7 396. भगवती श. 1 उ. 1 397. भगवती श. 11 उ. 1 398. भगवती श. 1 उ. 1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के उन्नीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'जंबूद्दीवेणं दीवे........' है तो भगवती366 में भी जम्बूद्वीप में सूर्य ऊँचे तथा नीचे उन्नीस सौ योजन तक ताप पहुंचाते कहे हैं। समवायांग के उन्नीसवें समवाय का छठा सूत्र--'इमीसे णं रयणप्पहाए........' है तो भगवती०० में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति उन्नीस पल्योपम की बतायी है। समवायांग के बीसवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'उस्सप्पिणी प्रोसप्पिणी........' है तो भगवती' में भी उत्सपिणी प्रवसर्पिणी मिलकर बीस कोटाकोटि सागरोपम का काल-चक्र कहा है। समवायांग सूत्र के इक्कीसवें समवाय का पाँचवाँ सूत्र-'इमीसे ण रयणप्पहाए......' है तो भगवती'७२ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की बतायी है। समवायांग के बावीसवें समवाय का प्रथम सूत्र-'बावीस परीसहा पण्णत्ता'.......' है तो भगवती४०3 में भी बावीस परीषहों का उल्लेख है। समवायांग के बावीसवें समवाय का छठा सूत्र--'बावीसविहे पोग्गलपरिणामे.......' है तो भगवती:०४ में भी कृष्ण, नील आदि पुद्गल के बाईस परिणाम कहे हैं / समवायांग के बावीसवें समवाय का सातवां सूत्र--'इमीसे गं रयणप्पहाए पुढवोए...' है तो भगवती४०५ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों की बावीस पल्योपम की स्थिति बतायी है / समवायांग के तेवीसवे समवाय का छठा सूत्र—'अहे सत्तमाए पुढवीए .......' है तो भगवती 06 में भी तमस्तमा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति तेवीस सागरोपम की कही है। समवायांग के तेवीसवें समवाय का सातवां सूत्र-'असुरकुमाराणं देवाण........' है तो भगवती 407 में भी असुरकुमार देवों की स्थिति तेवीस पल्योपम की बतायी है। समवायांग के चौवीसवें समवाय का प्रथम सूत्र-'चउवीसं देवाहिदेवा........' है तो भगवती०८ में भी ऋषभ, अजित, संभव, आदि ये चौवीस देवाधिदेव कहे हैं। समवायांग के चौवीसवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'इमोसे णं रयणप्पहाए........' है तो भगवती४०६ में भो रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति चौवीस पल्योपम की बतायी है। 399. भगवती श. 8 उ. 8 400. भगवती श. 1 उ. 1 401. भगवतो श. 6 उ. 7 402. भगवती श.१ उ. 1 403. भगवती श. 8 उ. 8 404. भगवती श. 8 उ. 10 405. भगवती श. 1 उ. 1 406. भगवती श. 1 उ.१ 407. भगवती श. 1 उ. 1 408. भगवती श. 2 उ. 8 409. भगवती श. 1 उ.१ [ 74 ] Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के पच्चीसवें समवाय का दशवाँ सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए""...' है तो भगवती४१°में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति पच्चीस पल्योपम की कही है। समवायांग के छब्बीसवें समवाय का दूसरा सूत्र-'अभवसिद्धिया ......' है तो भगवती 11 में भी अभवसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियाँ सत्ता में कही हैं / समवायांग के छब्बीसवें समवाय का तीसरा सुत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए........' है तो भगवती 12 में भी रत्नप्रभा-नैरयिकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम की प्रतिपादित है। समवायांग के अट्ठाईसवें समवाय का तृतीय सूत्र--'प्राभिणिबोहियनाणे........' है तो भगवती13 में भी आभिनिबोधिक ज्ञान 28 प्रकार का बताया है। समवायांग के अट्ठाईसवें समवाय का छठा सूत्र-'इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए...' है तो भगवती 14 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नैरपिकों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम की बतायी है। समवायांग के उनतीसवें समवाय का दशवाँ सूत्र-'इमीसे गं.....' है तो भगवती१४ में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नरयिकों की स्थिति उनतीस पल्योपम की बतायी है। समवायांग के तीसवें समवाय का मातवाँ सूत्र-'समणे भगवं महावीरे........' है तो भगवती४१६ में भी कहा है कि श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष गृहवास में रहकर प्रव्रजित हुये थे। समवायांग के इकतीसवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'अहेसत्तमाए पुढवीए.........' है तो भगवती४१७ में भी तमस्तमा पृथ्वी के कुछ नैरयिकों की स्थिति इकतीस सागरोपम की बतायी है। समवायांग के बत्तीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र–'बत्तीसं देविदा पण्णत्ता........' है तो भगवती 18 में भी भवनपतियों के बीस, ज्योतिष्कों के दो, वैमानिकों के दश, इस तरह बत्तीस इन्द्र कहे हैं। समवायांग के तेतीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र--'चमरस्स.णं असुरिदस्स........' है तो भगवती/१६ में भी चमरेन्द्र की चमरचंचा राजधानी के प्रत्येक द्वार के बाहर तेतीस-तेतीस भौम नगर कहे हैं। समवायांग के पैतीसवें समवाय का पांचवा सूत्र-'सोहम्मे कप्पे सभाए.........' है तो भगवती४२० में भी यही वर्णन है। 410. भगवती-श. 1 उ. 1 411. भगवती-श. 1 उ. 1 412. भगवती---श. 1 उ. 1 413. भगवती-श. 8 उ. 2 414. भगवती-श. 1 उ. 1 415. भगवती-श. 1 उ. 1 416. भगवती-श. 15 417. भगवती-श. 1 उ. 1 418. भगवती-श. 3 उ. 8 419. भगवती-श. 8 उ. 2 420. भगवती-श. 1 उ. 1 [ 75 ] Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के छत्तीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र--'चमरस्स णं असुरिदस्स......' है तो भगवती४२१ में भी चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन ऊँची बतायी है। समवायांग के बियालिसवें समवाय का नवमां सूत्र--'एगमेगाए प्रोसप्पिणीए .......' है तो भगवती 22 में भी यही वर्णन है। समवायांग के छियालिसवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'बंभीए णं लिबीए... ....' है तो भगवती४२३ में भी ब्राह्मी लिपि के छियालिस' मात्रिकाक्षर कहे हैं ! समवायांग के एकावनवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'चमरस्स णं असुरिंदस्स ......' है तो भगवती 24 में भी चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा के एकावन सौ स्तम्भ कहे गये हैं। समवायांग के बावनवें समवाय का प्रथम सूत्र---'मोहणिज्जस्स कम्मस्स........' है तो भगवती४२५ में भी क्रोध, कोप, आदि मोहनीय कर्म के बावन नाम हैं / समवायांग के छासठवें समवाय का छठा सूत्र-'आभिणिबोहिनाणस्स.......' है तो भगवती 426 में भी अभिनिबोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति छासठ सागरोपम कही है। ___ समवायांग के अठहत्तरवें समवाय का प्रथम सूत्र-'सक्कस्स णं देविंदस्स .....' है तो भगवती४२७ में भी कहा है कि शक्र देवेन्द्र के वैश्रमण, सेनानायक के रूप में आज्ञा का पालन करते हैं। समवायांग के इकासीवें समवाय का तीसरा सूत्र-'विवाहपन्नीए एकासीति........' है तो भगवती४२६ में भी प्रस्तुत आगम के इक्यासी महायुग्म शतक कहे गये हैं। इस तरह भगवती सूत्र में अनेक पाठों का समवायांग के साथ समन्वय है। कितने ही सूत्रों में नारक व देवों की स्थिति के सम्बन्ध में अपेक्षाष्टि से पुनरावृत्ति भी हुयी है अतः हमने जानकर उसकी तुलना नहीं की है। समवायांग और प्रश्नव्याकरण समवायांग और प्रश्नव्याकरण ये दोनों ही अंग सूत्र हैं। समवायांग में ऐसे अनेक स्थल हैं जिन की तुलना प्रश्नव्याकरण के साथ की जा सकती है। प्रश्नव्याकरण का प्रतिपाद्य विषय पांच आश्रव और पाँच संवर है / इसलिये विषय की दृष्टि से यह सीमित है। समवायांग के द्वितीय समवाय का तृतीय सूत्र-'दुविहे बंधणे............' है तो इसको प्रतिध्वनि प्रश्नव्याकरण२६ में भी मुखरित हुयी है। 421. भगवती-श, 8 उ. 2 422. भगवती-श. 3 उ. 7 423. भगवती-श. 1 उ.१ 424. भगवती-श. 13 उ. 6 425. भगवती--श. 12 उ. 5 426. भगवती--श. 7 उ. 2 सू. 110 427. भगवती-श. 3 उ. 7 428. भगवती-उपसंहार 429. प्रश्नव्याकरण-५ संवरद्वार [ 76 ] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के तृतीय समवाय का प्रथम सूत्र--'तओ दंडा पणत्ता..' है तो प्रश्नव्याकरण 3 * में भी तीन दण्ड का उल्लेख है। . समवायांग के तृतीय समवाय' का द्वितीय सूत्र--'तओ गुत्तीग्रो पण्णता...' है तो प्रश्नव्याकरण 39 में भी तीन गुप्तियों का उल्लेख हुआ है। समवायांग के तृतीय समवाय का तृतीय सूत्र---'तओ सल्ला पण्णत्ता..' है तो प्रश्नव्याकरण 32 में भी तीत शल्यों का वर्णन है। समवायांग के तृतीय समवाय का चतुर्थ सूत्र-'तओ मारवा पण्णता...' है तो प्रश्नव्याकरण 33 में भी गर्व के तीन भेद बताये हैं। समवायांग सूत्र के तृतीय समवाय का पांचवां सूत्र--'तओ विराहणा पण्णत्ता...' है तो प्रश्नव्याकरण 34 में भी तीन विराधनाओं का उल्लेख है। समवायांग सूत्र के चतुर्थ समवाय का चतुर्थ सूत्र-'चत्तारि सण्णा पण्णत्ता..' है तो प्रश्नव्याकरण 35 में भी चार संज्ञाओं का वर्णन है। समवायांग के पांचवें समवाय का दूसरा सूत्र--'पंच महब्बया पण्णत्ता..' है तो प्रश्नव्याकरण 36 में भी पांच महाव्रतों का वर्णन है। समवायांग के पांचवें समवाय का चतुर्थ सूत्र- 'पंच आसक्दारा पण्णत्ता...' है तो प्रश्नव्याकरण 3 9 में भी पांच प्राथवद्वारों का निरूपण हुआ है। समवायांग के पांचवें समवायांग का पांचां सूत्र-'पंच संवरदारा पण्णत्ता...' है तो प्रश्नव्याकरण 4 38 भी पांच संवरद्वारों का विश्लेषण है। ___ समवायांग के सातवें समवाय का पहला सूत्र--‘सत्त भयाणा पण्णत्ता......' है तो प्रश्नव्याकरण 36 में भी सात भयस्थान बताये हैं / समवायांग के आठवें समवाय का पहला सूत्र-'अठ मयठाणा पण्णत्ता..' है तो प्रश्नव्याकरण 4deg में में भी आठ मदस्थान बताये हैं। समवायांग के नौवें समवाय का प्रथम सूत्र--'नव बंभचेरगुत्तीग्रो पण्णत्ताओ' है तो प्रश्नव्याकरण:४१ में भी नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियों का उल्लेख है। 430. प्रश्नव्याकरण 5 संवरद्वार 431. प्रश्नव्याकरण 5 संवरद्वार 432. प्रश्नव्याकरण 5 संवरद्वार 433. प्रश्नव्याकरण 5 संवरद्वार 434. प्रश्नव्याकरण 5 वां संवरद्वार 435. प्रश्नव्याकरण 5 वां संवरद्वार 436. प्रश्नव्याकरण 5 वां संवरद्वार 437. प्रश्नव्याकरण 5 वां पाश्रवद्वार 438. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 439. प्रश्नव्याकरण 5 वां संवरद्वार 440. प्रश्नव्याकरण 5 वा सवरद्वार 441. प्रश्नव्याकरण 5 संवरद्वार [ 77 ] . Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग सूत्र के नौवें समवाय का द्वितीय सूत्र--'नव बंभचेर-अगुत्तीओ पण्णत्ताओ' है तो प्रश्नव्याकरण४४२ में भी नौ ब्रह्मचर्य की अगुप्तियों का वर्णन है। समवायांग सूत्र के दशवें समवाय का पहला सूत्र---'दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते' है तो प्रश्नव्याकरण 43 में भी श्रमणधर्म के दस प्रकार बताये हैं। समवायांग सूत्र के ग्यारहवें समवाय का पहला सूत्र--'एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णताओ' है तो प्रश्नव्याकरण 44 में भी उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख है। समवायांग सूत्र के बारहवें समवाय का पहला सूत्र-'बारस भिक्खपडिमाओ पण्णत्तायो' है तो प्रश्नव्याकरण 45 में भी बारह प्रकार की भिक्षुप्रतिमाओं का उल्लेख हुआ है। समवायांग के सोलहवें समवाय का पहला सूत्र-'सोलस या गाहासोलसगा पणत्ता' है तो प्रश्नव्याकरण 46 में सूत्रकृतांग के सोलहवें अध्ययन का नाम गाथाषोडशक बताया है। समवायांग के सत्तरहवें समवाय का पहला सूत्र--सत्तरसविहे असंजमे पण्णत्ते' है तो प्रश्नव्याकरण'४" में भी सत्तरह प्रकार के असंयम का प्रतिपादन है। समवायांग सूत्र के अठारहवें समवाय का पहला सूत्र--- 'अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते' है तो प्रश्नव्याकरण 448 में भी ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार बताये हैं। समबायांग सूत्र के उन्नीसवें समवाय का पहला सूत्र—'एगूणवीसं णायज्झयणा पण्णत्ता' है तो प्रश्नव्याकरण 46 में भी ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययन बताये हैं। समवायांग के तेईसवें समवाय का पहला सूत्र--'तेवीसं सूयगडझयणा पश्णत्ता' है तो प्रश्नव्याकरण४५० में भी सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों का सूचन है। समवायांग के पच्चीसवें समवाय का पहला सूत्र-'पूरिम-पच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाश्रो पण्णत्ताओ' है तो प्रश्नव्याकरण४५१ में भी प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं बताई हैं। समयायांग के सत्तावीसवें समवाय का पहला सूत्र--सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णता' है तो प्रश्नव्याकरण 42 में भी श्रमणों के सत्तावीस गुणों का प्रतिपादन किया है। समवायांग के अठाईसवें समवाय का प्रथम सूत्र-- 'अटठावीसविहे आयारपकप्पे पण्णत्ते' है तो प्रश्नव्याकरण४४3 में भी आचारप्रकल्प के अटठावीस प्रकार बताये हैं। . ...-- -.442. प्रश्नव्याकरण पाश्रवद्वार 4 443. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 444. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 445. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 446. . प्रश्न व्याकरण संवरद्वार 5 447, प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 448. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 4 449, प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 450. प्रश्न व्याकरण संवरद्वार 5 451. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 452. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 5 453. प्रश्नव्याकगण संवरद्वार 5 [ 78 ] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के उन्तीसवें समवाय का पहला सूत्र-'एगणतीसविहे पावसुयपसंगे' है तो प्रशनव्याकरण में भी पापश्रुत के उन्तीस प्रसंग बताये हैं। समवायांग के तीमवें समवाय का प्रथम सूत्र---'तीसं मोहणीयठाणा पण्णत्ता' है तो प्रश्नव्याकरण 55 में भी मोहनीय के तीस स्थानों का उल्लेख है। समवायांग के इकतीसवें समवाय का पहला सूत्र-'एक्कतीसं मिद्धाइगुणा पण्णत्ता' है तो प्रश्नव्याकरण 56 में भी सिद्धों के एकत्तीस गुण कहे हैं। समवायांग के तेतीसवें समवाय का पहला सूत्र--'तेत्तीसं आमायणाओ पण्णत्ताओ ......' है तो प्रश्नव्याकरण'५७ में भी तेतीस आशातना का उल्लेख है। इस तरह समवायांग और प्रश्न व्याकरण के अनेक स्थलों पर ममान विषयों का निरूपण हुआ है। समवायांग और औपपातिक उपांग साहित्य में प्रथम उपांग सूत्र "औपपातिक" है। समवायांग में कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनकी सहज रूप से तुलना प्रौपपातिक के साथ की जा सकती है। हम उन्हीं पर यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं। समवायांग के प्रथम समवाय का छठा सुत्र—'एगा अकिरिया' है तो औपपातिक 458 में भी इसका वर्णन प्राप्त है। समवायांग के प्रथम समवाय का सातवाँ सूत्र--'एगे लोए' है तो औपपातिक 456 में भी लोक के स्वरूप का प्रतिपादन है। ममवायांग के प्रथम समवाय का आठवाँ सूत्र--'एगे अलोए' है तो औपपातिक 460 में भी अलोक का वर्णन है। ममवायांग के प्रथम समवाय का म्यारहवां सूत्र- 'एगे पुण्णे' है तो औपपातिक 461 में भी पुष्य के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। समवायांग के प्रथम समवाय का बारहवाँ सूत्र--'एगे पावे' है तो औपपातिक 462 में भी पाप का वर्णन है। समवायांग के प्रथम समवाय के बन्ध, मोक्ष,आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा का कथन है तो प्रोपपातिक 46 में भी उक्त विषयों का निरूपण हुआ है। समवायांग के चतुर्थ समवाय का दूसरा सत्र-'चत्तारि भाणा पण्णत्ता' है तो औपपातिक' में भी ध्यान के इन प्रकारों का निरूपण हुआ है। 454. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 455. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 456. प्रश्तव्याकरण संवरद्वार 457. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 458, मोपपातिक 20 459. औपपातिक 56 460. औपपातिक 56 461. औपपातिक 34 462. प्रौपपातिक 34 463. प्रोपपातिक 34 464. औपपातिक 30 [ 79 ] Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के छठे समवाय का तीसरा सूत्र--'छब्बिहे बाहिरे तवोकम्मे' है और चौथा सुत्र 'छविहे अम्भितरे तवोकम्मे..' है तो औपपातिक 65 में छह बाह्य और छह आभ्यंतर तपों का उल्लेख है। समवायांग के सातवें समवाय का तीसरा सूत्र-'समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीमो उड्ढ़ उच्चत्तेणं होत्था' है तो आपपातिक 66 में भी महावीर के सात हाथ ऊंचे होने का वर्णन है। समवायांग के आठवें समवाय का सातवां सूत्र-'असामइए केवलिसमुग्घाए...' है तो औषपातिक 67 में भी केवलीसमुद्घात का उल्लेख है। समवायांग के बारहवें समवाय का दसवां सूत्र---'सम्वट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्य...' है और ग्यारहवां सूत्र 'ईसिपब्भाराए णं पुढवीए' है तो औपपातिक 68 में भी ईषतप्रारभारा पृथ्वी का वर्णन है और उसके बारह नाम बताये हैं। समवायांग के चौतीसवें समवाय का पहला सूत्र- 'चौत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता' है तो औपपातिक 466 में भी बुद्धातिशय के चौतीस भेद बताये हैं। समवायांम के पैतीसवें समवाय का पहला सूत्र-'पणतीसं सच्चवयणाइसेमा पण्णत्ता' है तो औपपातिक 70 में भी सत्य-वचनातिशय पैतीस बताये हैं। ममवायांग पैतासीसवें समवाय का चतुर्थ सूत्र---'ईसियभारा णं पुढवी एवं चेव' है तो प्रोपपातिक" में भी 'ईषत प्रारभारा' पृथ्वी का आयाम-विज्कंभ पैतालीस लाख योजन का बताया है। समवायांग सूत्र के एक्कानवेवां समवाय का पहला सत्र-'एकाण उई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ पण्णत्ताओ' है तो औपपातिक 72 में भी दूसरे की वैयावत्य करने की प्रतिज्ञाएं एक्कानबें बताई हैं। इस तरह समवायांग और औपपातिक में विषयसाम्य है। समवायांग और जीवाभिगम समवायांग में आये हुए कुछ विषयों की तुलना अब हम तृतीय उपाङ्ग जीवाभिगम सूत्र के साथ करेंगे। समवायांग के द्वितीय समवाय का दूसरा सत्र-'दुवे रासी पण्णत्ता' है तो जीवाभिगम७3 में भी दो राशियों का उल्लेख है / समवायांग के छठे समवाय का द्वितीय सत्र-'छ जीव-निकाया पण्णत्ता' है तो जीवाभिगम७४ में भी यह वर्णन है। समवायांग के नौवें समवाय का नौवां सत्र-'विजयस्स णं दारस्म एगमेगाए बाहाए नव-नव भोमा पण्णता' है तो जीवाभिगम 75 में भी विजयद्वार के प्रत्येक पार्श्वभाग में नौ नौ भौम नगर हैं, ऐमा उल्लेख है / 465. औपपातिक सूत्र 30 466. औपपातिक सूत्र 10 467. औषपातिक सूत्र 42 468. औपपातिक सूत्र 43 469. औपपातिक सूत्र 10 470. औपपातिक सूत्र 10 471. औपपातिक सूत्र 43 472. औपपातिक सूत्र 20 473. जीवाभिगम प्र. 1, सूत्र 1 474. जीवाभिगम प्र. 5, सूत्र 228 475. जीवाभिमम प्र. 3, सूत्र 132 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के नौवें समवाय में दर्शनावरण की नौ प्रकृत्तियाँ कही हैं तो जीवाभिगम४७६ में भी दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियां कही हैं। . समवायांग के बारहवें समवाय का चौथा सूत्र-'विजया णं रायहाणी दुवालस........' है तो जीवाभिगम 77 में भी विजया राजधानी का आयाम विष्कम्भ बारह लाख योजन का प्रतिपादन किया है। ___ समवायांग के तेरहवें ममवाय का पांचवां सुत्र—'जलयर-पंचिदियतिरिक्खजोणिआणं".....' हैं तो जीवाभिगम४७८ में भी जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की साढे तेरह लाख कुलकोटियां कही हैं / सत्तरहवें समवाय का तृतीय सूत्र-'माणसुत्तरे पव्वए मत्तरस ... ... ' है तो जीवाभिगम४७६ में भी मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई सत्तरह सो इक्कीस योजन की कही है। सत्तरहवें समवाय का चौथा सूत्र--'मवेसि पिणं वेलंधर...... ' है तो जीवाभिगम४५० में भी सर्व बेलंधर और अणवेलंधर नागराजों के प्रावासपर्वतों की ऊंचाई सत्तरह सौ इक्कीस योजन की बतायी है। समवायांग के सत्तरहवें समवाय का पांचवां सूत्र-'लवणे गं समुद्दे ......' है तो जीवाभिगम ' में भी लवणसमुद्र के पेंदे से ऊपर की सतह की ऊंचाई सत्तर हजार योजन की बताई है। अठारहवें ममवाय का सातवां सूत्र-धमपहाए णं.......' है तो जीवाभिगम८२ में भी धमप्रभा पृथ्वी का विस्तार एक लाख अठारह योजन का बताया है। पच्चीसवें समवाय का चौथा सुत्र---'दोच्चाए णं पुढवीए........' है तो जीवाभिगम:53 में भी शर्कराप्रभा पृथ्वी में पच्चीस लाख नारकादास बताये हैं। सत्तावीसवें समवाय का चौथा स्त्र--'मोहम्मीसास कप्पेम्......' है तो जीवाभिगम४८४ में भी सौधर्म और ईशान कल्प में सत्ताईस पल्योपम स्थिति बताई है। चौतीसवें समवाय का छठा सुत्र- 'पढम-पंचम...' है तो जीवाभिगम४८५ में भी पहली, पांचवी, छठी और सातवीं इन चार पृथ्बियों में चौंतीस लाख नारकावाम बताये हैं। पैतीसवें समवाय का छठा सूत्र--'बितिय-च उत्थीमु ......' है तो जीवाभिगम४८६ में भी दूसरी और चौथीइन दो वृध्वियों में पैतीस लाख नारकाबास बताये हैं। संतीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'सव्वासु णं विजय ......' है तो जीवाभिगम४८७ में भी विजयवैजयन्त और अपराजिता इन सब राजधानियों के प्राकारों की ऊंचाई सैतीस योजन को बतायी है। 476. जीवाभिगम---प्र. 3, सू. 132 477. जीवाभिगम -प्र. 3, सू. 135 476. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 97 479. जीवाभिगम-प्र. 3, मू. 178 480, जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 159 451. जीवाभिगम-प्र. 3, मू. 173 482. जीवाभिगम--प्र. 3, सू. 68 483. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 70 484. जीवाभिगम-प्र. 2, सू. 210 485. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 51 486. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 81 487. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 135 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैतीसवें समवाय का चतुर्थ सत्र-'खड्डियाए णं विमाणं........' है तो जीवाभिगम४८८ में भी क्षद्रिका विमान प्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में संतीस उद्देशन काल कहे हैं। उनचालीसवें समवाय का तृतीय मूत्र-'दोच्च-चउत्थ......' है तो जीवाभिगम४८६ में भी दूसरी, चौथी पाँचमी, छठी और सातवीं इन पांच पृथ्वियों में उनचालीस लाख नारकावास बताये हैं। इकतालीसवें समवाय का द्वितीय सत्र-'चउसु-पुढवीसु.......' है तो जीवाभिगम * में भी चार पृथ्वियों में इकतालीस लाख नारकावास बताये हैं। बयालीसवें समवाय' का चौथा सूत्र ---'कालोए णं समुद्दे .......' है तो जीवाभिगम में भी कालोद समुद्र में बयालीस चन्द्र और बयालीस सयं बताये हैं। बयालीसवें समवाय का सातवां सूत्र-'लवणे णं समुद्दे.......' है तो जीवाभिगम 12 में भी लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को बयालीस हजार नागदेवता धारण करते बताये हैं। तयालीसवें समवाय का द्वितीय सत्र-'पढम-चउत्थ......' है तो जीवाभिगमः। 3 में भी पहली, चौथी और पांचमी इस तीन पृथ्वियों में तयालीस लाख नारकावास बताये हैं। पैतालीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र--'सीमंतए णं नरए.......' है तो जोवाभिगम६४ में भी सीमान्तक नारकावास का आयाम-विष्कम्भ पंतालीस लाख योजन का बताया है। पचपनवें समवाय का द्वितीय सत्र-'मदरस्स ण पब्बयरस.......' है तो जीवाभिगम५ में भी मेरु पर्वत के पश्विमी चरमान्त से विजय द्वार के पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पचपन हजार योजन का बताया है। साठवें समवाय का द्वितीय सत्र-'लवणस्स समुहस्स... ...' है तो जीवाभिगम में भी लवण समुद्र के अग्रोदक को साठ हजार नागदेवता धारण करते हैं ऐसा उल्लेख है / चौसठवें समवाय का चौथा सूत्र-सवे विणं दहीमुहा पब्बया......' है तो जीवाभिगम४६७ में भी सभी दधिमुख पर्वत माला के प्राकार वाले हैं / अतः उन का विष्कम्भ सर्वत्र समान है, उन की उंचाई चौसठ हजार योजन की है। छासठवें समवाय का प्रथम सूत्र है-दाहिणड्ढ-माणुस्स-खेत्ताणं, द्वितीय सूत्र है-छाठि सूरिया तर्विसु, तृतीत सूत्र है--उत्तरड्ढ माणुस्स खेताणं...', 'चतुर्थसूत्र है-छावठि सूरिया तविसु वा 3, तो जीवाभिगम६८ में भी दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्र में छासठ-छासठ चन्द्र और सर्य बताये हैं। 486. जीवाभिगम-प्र. 3, स. 137 489. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 81 490. जीवाभिगम---प्र. 3, स. 51 491. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 175 492. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 158 493. जीवाभिगम---प्र. 3, सू. 8 494. जीवाभिगम-प्र.३ 495. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 129 496. जीवाभिगम--प्र. 3, सू. 158 497. जीवाभिगम-प्र. 3, स. 183 498. जीवाभिगम-प्र. 3, स. 177 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सठसठवें समवाय का तृतीय सत्र-'मंदरस्स णं पव्वयस्स........' है तो जीवाभिगम४.६ में भी मेरुपर्वत के चरमान्त से गौतमद्वीप के पूर्वी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सड़सठ हजार योजन का कहा है। . उनहत्तरवें समवाय का प्रथम सत्र-समयखित्ते णं मंदरवज्जा... ...' है तो जीवाभिगम०० में भी लिखा है 'समयक्षेत्र में मेरु को छोड़कर उनहत्तर वर्ष और बर्षधर पर्वत हैं, जैसे-पैतीस वर्ष, तीस वर्षधर पर्वत और चार इपुकार पर्वत / बहत्तरवें समवाय का दूसरा सूत्र-'बाबरि सुवन्नकुमारावास.......' है तो जीवाभिगम५०' में भी सुवर्ण कुमाराबास बहत्तर लाख बताये हैं __ बहत्तरवें समवाय का पांचवां सूत्र--'अभितरपुक्खरद्धे गं........' है तो जीवाभिगम०२ में भी बहत्तर चन्द्र और सूर्य का वर्णन प्राप्त है। उनासीवें समवाय का पहला सत्र---'वलयामुहस्स.....' दूसरा सत्र ‘एवं के उस्मवि......' तृतीय सत्र छठ्ठीए पुढवीए..."और चतुर्थ सूत्र---'जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स ........' है तो जीवाभिगम'०3 में भी वडवामूख पातालकलश का एवं केतुक यूपक आदि पाताल कलशों का छठी पृथ्वी के मध्यभाग से छठे घनोदधि तक का वर्णन और जम्बूद्वीप के प्रत्येक द्वार का अव्यवहित अन्तर उन्नासी हजार योजन का है, यह वर्णन मिलता है। अस्सीवें समवाय का पांचवा सूत्र-'जम्बुद्दीवे णं दीवे.......' है तो जीवाभिगम५०४ में भी जम्बूद्वीप में एक मो अस्सी योजन जाने पर सर्वप्रथम आभ्यंतर मण्डल में सर्योदय होता है, यह वर्णन है। चौरासीदें समवाय का पहला सूत्र ...'चउरासीइ निरयावास........' है तो जीवाभिगम०५ में भी नारकावास चौरासी लाख बताये हैं। चौरासीबें समवाय का सातवां सत्र—'सब्वेवि णं अजंणगपव्यया......' है तो जीवाभिगम०६ में भी सर्व प्रजनग पर्वतों की ऊंचाई चौरासी-चौरासी हजार योजन की है। चौरासीदें समवाय' का आठवां सत्र-'हरिवास-रम्यवासियाणं........' है तो जीवाभिगम५२७ में भी 'सर्व अंजनगपर्वतों की ऊंचाई चौरासी हजार योजन की कही है। चौरासीवें समवाय का दसवां सूत्र-'विवाहपन्नतीए णं भगवतीए......' है तो जीवाभिगम५०८ में भी विवाहप्रज्ञप्ति के चौरासी हजार पद हैं। पचासौवें समवाय का दूसरा सूत्र-'धायइसंडस्स णं मंदरा.......' है तो जीवाभिगम०६ में भी धातकी खण्ड के मेरुपर्वत पंचासी हजार योजन ऊंचे हैं, यह वर्णन है। 492. जीवाभिगम-प्र. 3, सूत्र 161 500, जीवाभिगम--प्र. 3, सूत्र 177 501. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 2, सूत्र 176 502. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 2, सूत्र 158 503. जीवाभिगम--प्र. 3, उद्दे. 2, मूत्र 156, उद्दे. 1, मूत्र. 76, उद्दे. 2, सूत्र 145 504. जीवाभिगम----प्र. 3, उद्दे. 1, सूत्र 72 505. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 1, सूत्र 81 506. जीवाभिगम---प्र. 3, उद्दे. 2 507. जीवाभिगम--प्र. 3, उद्दे. 2, सूत्र 183 508. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 1, मूत्र 79 509. जीवाभिगम-प्र.३ [ 83 ] Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छियासीवें समवाय का तृतीय सूत्र--'दोच्चाए पुढबीए... ...' है तो जीवाभिगम'१० में भी दूसरी पृथ्वी के मध्यभाग से दूसरे घनोदधि के नीचे के चरमान्त का अव्यवहित अंतर छियासी हजार योजन का कहा है। अठासीवें समवाय का पहला सूत्र--'एगमेगस्स पं चंदिमरियस्स' है तो जीवाभिगम११ में प्रत्येक चन्द्र सूर्य का अठासी-अठासी ग्रहों का परिवार बताया है। ___ इक्कानवेवें समवाय का दूसरे सूत्र—'कालोए णं समुद्दे' है तो जीवाभिगम५१२ के अनुसार भी कालोद समुद्र की परिधि कुछ अधिक इक्कानवे लाख योजन की है। पंचानवें समवाय का दूसरा मूत्र-'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स ......' है तो जीवाभिगम५१3 में भी जम्बूद्वीप के चरमान्त से चारों दिशाओं में लवणसमुद्र में पचान-पंचानवें हजार योजन अन्दर जाने पर चार महापाताल कलश कहे हैं। सौवें समवाय का आठवां मूत्र-'सब्वेवि णं कंचणखपव्वया .......' है तो 'जीवाभिगम५१४ में भी सर्व कांचनक पर्वत सौ-मौ योजन ऊंचे हैं, सौ-सौ कोश पृथ्वी में गहरे हैं और उनके मूल का विष्कम्भ सौ-सौ योजन का कहा है। पांचसौवें समवाय का पाठवां सूत्र--सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा........' है तो जीवाभिगम५१५ में सौधर्म और ईशानकल्प में सभी विभान पांच सौ-पांच सौ योजन ऊंचे कहे हैं। छहसौवें समवाय का पहला सूत्र--'सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु........' है तो जीवाभिगम'१६ में भी सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में सभी विमान छह सो योजन ऊंचे कहे हैं। सातसौवें समवाय का प्रथम सूत्र-'बंभलंतयकप्पेसु......' है तो जीवा भिगम 10 में भी ब्रह्म और लान्तक कल्प के सभी विमान सात सौ योजन ऊंचे बतलाए हैं। आठसौवें समवाय का प्रथम सत्र--- 'महासुक्क-सहस्सारेसु.....' है तो जीवाभिगम" में भी यही है। नव सौवें समवाय का प्रथम मूत्र-'प्राणय-पाणय......' है हजारवें समवाय का प्रथम सूत्र है-सब्वेवि णं गेवेज्ज....."नौ ग्यारह सौवें समवाय का प्रथम सूत्र है-प्रण त्तरोववाइयाणे देवाणं-.."तीन हजारवें...समवाय काइमीसे रयणप्पहाए..."तो इन सूत्रों जैसा वर्णन जीवाभिगम५१६ में भी प्राप्त है। समवायांग सूत्र के सात हजारबें समवाय का प्रथम सूत्र-'इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए... ..' है तो जीवाभिगम५२० में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकाण्ड के ऊपर के चरमान्त से पुलक काण्ड के नीचे के चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सात हजार योजन का बताया है। 510. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 79 511. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 194 512. जीवाभिगम---प्र. 3, उ, 2, सू. 175 513. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 156 514. जीवाभिगम---प्र. 3, उ. 2, सू. 150 515. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 516. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 517. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 518. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 519. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211, 195 520. जीवाभिगम-प्र. 3 [ 84 ] Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो लाख वें समवाय का प्रथम सूत्र-'लवणे णं समुद्दे... ...' है तो जीवाभिगम५२ ' में भी लवण समुद्र का चक्रबाल-विष्कम्भ दो लाख योजन का बताया है। - चार लाख समवाय का प्रथम सूत्र-'धायइखंडे गं दीवे........' है तो जीवाभिमम५ 2 2 में भी धातकीखण्ड का चक्रवाल-विष्कम्भ चार लाख योजन का बताया है। पाँच लाख वें ममवाय का प्रथम सूत्र—'लवणस्स णं समुदस्स......' है तो जीवाभिगम५२3 में भी लवण समुद्र के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पांच लाख योजन का बतलाया है। इस तरह जीवाभिगम में, समवायांग में आये अनेक विषयों की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। समवायांग और प्रज्ञापना प्रज्ञापना चतुर्थ उपांग है / प्रज्ञापना का अर्थ है -जीव, अजीव का निरूपण करने वाला शास्त्र। प्राचार्य मलय गिरि प्रज्ञापना को समवाय का उपांग मानते हैं। प्रज्ञापना का समवायांग के साथ कब से सम्बन्ध स्थापित हुग्रा, यह अनुसन्धान का विषय है। स्वयं श्मामाचार्य प्रज्ञापना को दृष्टिवाद से लिया सूचित करते हैं। किन्तु आज दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। इसलिए स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि दृष्टिवाद में से कितनी सामग्री इसमें ली गई है। दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दृष्टि याने दर्शन का ही वर्णन है। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव अजीव आदि तत्त्वों का प्रतिपादन है। तो प्रज्ञापना में भी वही निरूपण है। अतः प्रज्ञापना को समवायांग उपांग मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है / अतएव समवायांग में आये हुये विषयों की तुलना प्रज्ञापना के साथ सहज रूप से की जा सकती है। प्रथम समवाय का पांचवा सूत्र है----'एगा किरिया' तो प्रज्ञापना५२४ में भी क्रिया का निरूपण हआ है। प्रथम समवाय का बीसवां सूत्र-'अप्पइठाणे नरए.......' है तो प्रज्ञापना५२५ में भी अप्रतिष्ठान नरक का प्रायाम विष्कम्भ प्रतिपादित है। प्रथम समवाय का बावीसवाँ सूत्र--'सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे........' है तो प्रज्ञापना५२६ में भी सर्वार्थसिद्ध विमान का आयाम विष्कम्भ एक लाख योजन का बताया है। प्रथम समवाय का छब्बीसवाँ सूत्र-'इमीसे णं रयणपहाए णं........' है तो प्रज्ञापना५२ में भी रत्नप्रभा के कुछ नारकों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। प्रथम समवाय के सत्तावीसवें सूत्र से लेकर चालीसवें सूत्र तक जो वर्णन है वह प्रज्ञापना२८ के चतुर्थ पद में उसी तरह से प्राप्त होता है। 521. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 173 522. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 174 523. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 154 524. प्रज्ञापना---पद 22 525. प्रज्ञापना--पद 2 526. प्रज्ञापना—पद 2 527. प्रज्ञापना- पद 4, सु. 94 528. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र-९४, 95, 98, 99, 100, 101, 102, 103 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग के प्रथम समवाय का इकतालीसवां सूत्र-'ते णं देवा........' है तो प्रज्ञापना५२१ में भी सागर यावत् लोकहितविमानों में जो देव उत्पन्न होते हैं, वे एक पक्ष से श्वासोच्छवास लेते कहे हैं। प्रथम समवाय का बयालीसा सूत्र---'तेसि ण देवाणं........' है तो प्रज्ञापना 5.3 deg में उन देवों की प्राहार लेने की इच्छा एक हजार वर्ष से होती है / दूसरे समवाय का दूसरा सूत्र-'दुविहा रासी पण्णत्ता... ...' है तो प्रज्ञापना५३१ में भी दो राशियों का उल्लेख है। दूसरे समवाय के आठवें सूत्र से लेकर बाईसवें सूत्र तक का वर्णन प्रज्ञापना५३२ में भी इसी तरह प्राप्त है। तृतीय समवाय के तेरहवें सूत्र से तेवीसवें सूत्र तक का वर्णन प्रज्ञापना४३३ में भी इसी तरह संप्राप्त है / चतुर्थ समवाय के दशवें सूत्र से सत्तरहवें सूत्र तक का विषय प्रजापना 34 में भी इसी तरह उपलब्ध होता है। पाँचवें समवाय के चौदहवें सूत्र से इक्कीसवें सूत्र तक जिस विषय का प्रतिपादन हुअा है वह प्रज्ञापना५३५ में भी निहारा जा सकता है / छठे समवाय का पहला मूत्र--'छ लेसानो पत्ताओ.......' है तो प्रज्ञापना३६ में भी छह लेश्याओं का वर्णन प्राप्त है। छठे समवाय का दूसरा सूत्र-'छ जीवनिकाया पण्णत्ता........' है तो प्रज्ञापना 30 में भी वह वर्णन उपलब्ध होता है। छठे समवाय का पांचवां सूत्र--'छ छाउपस्यिया समुग्धाया पण्णसा........' है तो प्रज्ञापना५८ में भी छाद्मस्थिक समुद्घात के छह प्रकार बताये हैं। छठे समवाय के दशवें सूत्र से सत्तरहवें सूत्र तक का वर्णन प्रज्ञापना५३६ में भी प्राप्त है। सातवें समवाय का द्वितीय मूत्र--सत्त समुग्घाया पण्णत्ता".....' है तो प्रज्ञापना५४० में भी सात समुद्घात का उल्लेख हुआ है। 529. प्रज्ञापना—पद 7, सूत्र 146 530. प्रज्ञापता-पद 28, सू. 304 531. प्रज्ञापना-पद 1, सू. 1 532. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 98, 99, 102, 103; पद 7, मूत्र 146; पद 28, मूत्र 303 533. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 98, 99, 102, पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 534. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सूत्र 146 ; पद 28, सूत्र 306 535. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 536. प्रज्ञापना--पद 17, सूत्र 214 537. प्रज्ञापना--पद 1, सूत्र 12 538. प्रजापना ----पद 36, सूत्र 331 539. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 102, 103; पद 7; सूत्र 146, पद 28, मू. 306 540. प्रज्ञापना-पद 36, मू. 331 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवें समवाय के बारहवें सत्र से लेकर बाबीसवें सत्र तक जिन विषयों का उल्लेख हमा है, वे विषय प्रज्ञापना५४१ में भी उसी तरह प्राप्त हैं। - आठवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'असामइए केवलीसमुग्घाए........' है तो प्रज्ञापना५४ 2 में भी केवली समुद्घात के आठ समय बताये है / पाठवें समवाय के दशवें मूत्र से लेकर सत्तरहवें सूत्र तक जिन विषयों की चर्चाएं हुयी हैं, वे प्रज्ञापना५४३ में भी इसी तरह प्रतिपादित हैं / नवमें समवाय के ग्यारहवें सूत्र से लेकर उन्नीसवें सूत्र तक जिन विषयों पर चिन्तन किया गया है वे, प्रज्ञापना५४४ में भी निहारे जा सकते हैं। दशवें समवाय के नवम सूत्र से लेकर चौवीसवें मूत्र तक जिन-जिन विषयों पर विचारणा हुयी है, वे प्रज्ञापना 145 में भी चचित हैं। ग्यारहवें समवाय का छठा सूत्र---'हेद्विमगे विजजाण .......' है तो प्रज्ञापना५४६ में भी नीचे के तीन वेयक देवों के एक सौ ग्यारह विमान बताये हैं। ग्यारहवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर पन्द्रहवें सूत्र तक जिन चिन्तनबिन्दुओं का उल्लेख है, प्रज्ञापना५४' में भी उन सभी पर प्रकाश डाला गया है। बारहवें समवाय के बारहवें सूत्र से उन्नीसवें सूत्र तक जिन विषयों के सम्बन्ध में विवेचन हुआ है, प्रज्ञापना४८ में भी उन सब पर चिन्तन हुआ है। तेरहवें समवाय का सातवाँ सत्र-'गब्भं वक्कंति य.......' है तो प्रज्ञापना.४ में भी गर्भजतिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के तेरह योग प्रतिपादित हैं / तेरहवें समवाय के नवमें सूत्र से लेकर सोलहवें सूत्र तक जिन पहलुनों पर विचार किया गया है, बे विषय प्रज्ञापना५० में भी प्रज्ञापित हैं। चौदहवें समवाय के नवमें सूत्र से लेकर सत्तरहवें समवाय तक जिन विषयों को उजागर किया गया है, वे प्रज्ञापना५५१ में भी अपने ढंग से विवेचित हये हैं। 541. प्रज्ञापना-पद 4, सू. 94, 95, 102, 103; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 306 542. प्रज्ञापना-पद 36, सू. 331 543. प्रज्ञापना-पद 4, सू. 94, 95, 102, 103; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 304 544. प्रज्ञापना—पद 23, पद 4, सू. 94, 95. 102, 103; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 304 545. प्रज्ञापना-पद 4, सू. 94, 95, 96, 100, 102; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 306 546. प्रज्ञापना-पद 2, सु. 53 547. प्रज्ञापना--पद 4, सू. 94, 95, 102; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 306 548. प्रज्ञापना--पद 4, सू. 94, 95, 102; पद 7, सू. 146; पद 29, सू. 304 549. प्रज्ञापना---पद 16, सू. 202 550. प्रज्ञापना--पद 4, सू. 94, 95, 102; पद 7, सू. 146 ; पद 28, सू. 306 551. प्रज्ञापना-पद 4, सू. 94, 95, 102; पद 7, स. 146; पद 28, स. 304 { 87 / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर सोलहवें सूत्र तक जिन पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, वे प्रज्ञापना 452 में भी हैं। सोलहवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'सौलस कसाया पण्णत्ता".......' है तो प्रज्ञापना५५३ में भी अनन्तानुवन्धी प्रादि सोलह कषाय चचित हुये हैं / सोलहवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर पन्द्रहवें सूत्र तक जिन बातों पर प्रकाश डाला है, वे प्रज्ञापना५ 54 में भी विश्लेषित हैं। सत्तरहवें समवाय के ग्यारहवें सत्र से लेकर बीसवें सुत्र तक जिन विषयों पर चिन्तन-मनन किया गया है, उन विषयों पर प्रज्ञापना५५ में भी प्रकाश डाला गया है। अठारहवें समवाय का पांचवां सूत्र- 'बंभीए णं लिवीए........' है तो प्रज्ञापना५५६ में भी ब्राह्मी लिपी का लेखन अठारह प्रकार का बताया है। अठारहवें समवाय के नौवें सूत्र से लेकर सतरहवें सूत्र तक जिन विषयों को प्रकाशित किया गया है, वे विषय प्रज्ञापना५५७ में भी विस्तार से निरूपित हैं। उन्नीसवें समवाय में छठे सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक जिन विषयों की चर्चा की गई है, वे विषय प्रज्ञापना५५८ में भी आये हैं। बीसवें समवाय का चौथा सूत्र--'पाणयस्स णं देविदस्स.......' है तो प्रज्ञापना५५६ में भी प्राणत कल्पेन्द्र के बीस हजार सामनिक देव बताये हैं। बीसवें समवाय के आठवें सत्र से सत्तरहवें सूत्र तक जो वर्णन है वह प्रज्ञापना 560 में भी मिलता है। इक्कीसवें समवाय में पांचवें सूत्र से लेकर चौदहवें समवाय तक जिन विषयों की चर्चा है, वे प्रज्ञापना५६ . में भी चर्चित हुए हैं। बावीसवें समवाय में सात सूत्र से लेकर सोलहवे सूत्र तक जिन विषयों पर चिन्तन हुआ है, उन विषयों पर प्रज्ञापना'६२ में भी विश्लेषण प्रा है। 552. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 304 553. प्रज्ञापना-पद 14, सूत्र 188 554. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सू. 146, पद 29, मू. 304 555. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद सू. 146; पद 28, सू. 304 556. प्रज्ञापना--पद 1, सूत्र 37 557. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 304 558. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सू. 146 ; पद 28, सू. 304 559. प्रज्ञापना-पद 5, सूत्र 53 560. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 304 561. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सू. 146; पद 28, सू. 304 562. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सू. 146; पद 29, सू. 304 [ 88 ] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवें समवाय के पांचवें सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक जिन भावों की प्ररूपणा हुई है वे भाव प्रज्ञापना 563 में भी इसी तरह प्ररूपित हैं। चौबीसवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक जिन विचारों को गुम्फित किया गया है, वह प्रज्ञपना६४ में भी उसी रूप में व्यक्त हुए हैं। पच्चीसवें समवाय के दशवे सूत्र से लेकर सत्तरहवें सूत्र तक जो वर्णन है वह प्रज्ञापमा 65 में भी उसी तरह मिलता है। छब्बीसवें समवाय के दूसरे सूत्र से दशवें सूत्र तक जो विचारसूत्र आये हैं वे प्रज्ञापना५६६ में भी देखे जा सकते हैं। सत्ताईसवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक जिन विचारों को निरूपित किया है वे प्रज्ञापना६७ में भी उसी तरह मिलते हैं। अठाईसवें समवाय का चौथा सूत्र-'ईसाणे गं कप्पे अठ्ठावीसं विमाण-सय-सहस्सा पण्णत्ता' है तो प्रज्ञापन 598 में भी ईशान कल्प के अठावीस लाख विमान बताये हैं। अठाईसवें समवाय के छठे सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक, उनतीसवें समवाय के दसवें सूत्र से लेकर सत्तरहवें सूत्र तक, तीसवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर पन्द्रहवें सूत्र तक, एकतीसवें समवाय के छठे सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक, बत्तीसवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक, तेतीसवें समवाय के पांचवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक जिन विषयों पर चिन्तन हुआ है, वे विषय प्रज्ञापना५६६ में भी अच्छी तरह से चर्चित किये गये हैं। ___ चौतीसवें समवाय का पांचवां सूत्र---'चमरस्स णं असुरिंदस्स........' है तो प्रज्ञापना'७० में भी चमरेन्द्र के चौतीस लाख भवनावास बताये हैं। उनचालीसवें समवाय का चौथा सूत्र-'नाणावरणिज्जस्स........' है तो प्रज्ञापना५७१ में भी ज्ञानावरणीय, मोहनीय, गोत्र, और आयु-इन चार मूल कर्म प्रकृतियों की उनचालीस उत्तरकर्म प्रकृतियां बताई हैं। चालीसवें समवाय का चौथा सूत्र-----'भूयाणंदस्स' णं नागकुमारस्स नागरण्णो........' है तो प्रज्ञापना५७२ में भी भूतानन्द नागकूमारेन्द्र के चालीस लाख भवनावास बताये हैं। चालीसवें समवाय का पाठवां सूत्र-'महासुक्के कप्पे........' है तो प्रज्ञापना५७3 में भी महाशुक्र कल्प में चालीस हजार विमानावास का वर्णन है। 563. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 564. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 565. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 566. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 567. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 568. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 569. प्रज्ञापमा-पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सूत्र 146, पद 28, सूत्र 306 570. प्रज्ञापना-पद 2, सुत्र 46 571. प्रज्ञापना-पद 23, सूत्र 293 572. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 132 573. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 132 [ 89 ] Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियालीसवें समवाय का पांचवां सूत्र--समुच्छिम-भयपरिसप्पाणं......." है तो प्रज्ञापना७४ में भी सम्मूछिम भुजपरिसर्प की उत्कृष्ट स्थिति बियालीस हजार वर्ष की बताई है। बियालीसवें समवाय का छठा सूत्र-'नामकम्मे बायालीसविहे पण्णत्ते......' है तो प्रज्ञापना में भी नामकर्म की बियालीस प्रकृतियां बताई हैं। पैंतालीसवें समवाय का चौथा सूत्र-'ईसिपन्भारा णं पुढवी एवं चेव......' है तो प्रज्ञापना५७६ में ईषत प्रारभारा पृथ्वी के आयाम-विष्कम्भ का वर्णन है। छियालीसवें समवाय का तीसरा सूत्र- 'पभंजणस्स णं वाउकुमारिदस्स........' है तो प्रज्ञापना५७७ में भी वायुकूमारेन्द्र प्रभंजन के छियालीस लाख भवनावास' बताये हैं। उनपचासवें समवाय का तृतीय सूत्र--'तेइंदियाणं उक्केसेणं........' है तो प्रज्ञापना५७६ में भी त्रीन्द्रियों की उत्कृष्ट स्थिति उनपचास अहोरात्रि की बताई है। पचासवें समवाय का पांचवां सूत्र-'लंतए काष्पे पन्नासं........' है तो प्रज्ञापना५७६ में भी लांतक कल्प में पचास हजार विमान बताये हैं। ___एकावनवें समवाय का पांचवां सूत्र-'दसणावरण-नामाणं. ...' है तो प्रज्ञापना५८० में भी ऐसा ही कथन है। बावनवें समवाय का चौथा सूत्र---'नाणावरणिज्जस्स, नामस्स......." है तो प्रज्ञापना५८१ में भी ज्ञानावरणीय, नाम और अन्तराय इन तीन मूल प्रकृतियों की बावन उत्तर प्रकृतियां बताई हैं। बावनवें समवाय का पांचवाँ सूत्र-'सोहम्म-सणंकुमार.....' है तो प्रज्ञापना५८२ में भी सौधर्म सनत्कुमार और माहेन्द्र इन तीन देवलोकों में बावन लाख विमानावास कहे हैं। अपनवें समवाय का चौथा सूत्र-'सम्मुच्छिम-उरपरिसप्पाणं........' है तो प्रज्ञापना"८3 में भी सम्मछिम उरपरिस की उत्कृष्ट स्थिति त्रेपन हजार वर्ष की कही है। पचपनवें समवाय का पांचवां सूत्र-'पढम-विइयासु दोसु.......' है तो प्रज्ञापना५६४ में भी प्रथम और द्वितीय इन दो पृथ्वियों में पचपन लाख नरकावास बताये हैं। पचपनवें समवाय का छठा सूत्र-'दसणावरणिज्जनामाउयाणं........' है तो प्रज्ञापना८५ में भी दर्शनावरणीय, नाम और आयु इन तीन मूल प्रकृतियों की पचपन उत्तर प्रकृतियाँ हैं। 574. प्रज्ञापना पद 4 575. प्रज्ञापना पद 13, सूत्र 293 576. प्रज्ञापना पद 2 577. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 132 578. प्रज्ञापना पद 4, सूत्र 97 579. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 53 580. प्रज्ञापना पद 23, सूत्र 293 581. प्रज्ञापना पद 23, सूत्र 293 582. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 43 583. प्रज्ञापना पद 4, सूत्र 17 584. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 81 585. प्रज्ञापना पद 23, सूत्र 293 [ 90 ] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठावनवें समवाय का पहला सूत्र-'पढम-दोच्च-पंचमासु.......' है तो प्रज्ञापना५८६ में भी पहली, दूसरी और पांचवीं इन तीन प्रध्वियों में अठावन लाख नारकावास' बताए हैं। अठावनवें समवाय का दूसरा सूत्र-'नाणावरणिज्जस्स वेयणिय......' है तो प्रज्ञापना५८७ में ज्ञानावरणीय, वेदनीय आयु, नाम और अन्तराय इन पांच मूल कर्मप्रकृतियों की अठावन उत्तर प्रकृतियां कही हैं। साठवें समवाय का चतुर्थ सूत्र-'बलिस्स णं बइरोणिदस्स .......' है तो प्रज्ञापना५०८ में भी बलेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव बताये हैं। साठवें समवाय का पांचवां सूत्र-'बंभस्स देविदस्स.......' है तो प्रज्ञापना५८६ में भी ब्रह्म देवेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव बताये हैं। साठवें समवाय का छठा सूत्र-'सोहम्मीसाणेसु दो.......' है तो प्रज्ञापना५६ 0 में भी सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में साठ लाख विमानावास कहे हैं। बासठवं समवाय का चौथा सत्र-'सोहम्मीसाणेस कप्पेस"""' है तो प्रज्ञापना में भी सोधम और ईशान कल्प के प्रथम प्रस्तट की प्रथम आवलिका एवं प्रत्येक दिशा में बासठ-बासठ विमान हैं। बासठवें समवाय का पांचवां सत्र-'सब्वे वेमाणियाणं बासटिठ......' है तो प्रज्ञापना५६२ में भी सर्व वैमानिक देवों के बासठ विमान प्रस्तट कथित हैं। चौसठवें समवाय का दूसरा सूत्र-'चउदिठ असुरकूमाराणं........' है तो प्रज्ञापना3 में भी चौसठ लाख असुरकुमारावास बताये हैं। बहत्तरवें समवाय का प्रथम सूत्र-'बावतरि सुवन्नकुमारावासा......' है तो प्रज्ञापना५६४ में भी सुवर्णकुमारावास बहत्तर लाख बताये हैं। बहत्तरवें समवाय का आठवां सूत्र--'सम्मच्छिम-खहयर.......' है तो प्रज्ञापना में भी समूच्छिम खेचर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय की उत्कृष्ट स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की बतायी है। चौहत्तरवें समवाय का चतुर्थ सूत्र--'चउत्थवज्जासु छसु........' है तो प्रज्ञापना६ में भी चौथी पृथ्वी को छोड़कर शेष छह पृथ्वियों में चौहत्तर लाख नरकावास कहे हैं। छिहत्तरहवें समवाय का पहला सूत्र--'छावतरि विज्जुकुमारावास........' है तो प्रज्ञापना में भी विद्युत कुमारावास छिहत्तर लाख बताये हैं। 586. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 81 587. प्रज्ञापना पद 23, सूत्र 81 588. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 31 589. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 53 590. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 33 591. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 47 592. प्रज्ञापना पद 2 593. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 47 594. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 46 595. प्रज्ञापना पद 4, सूत्र 98 596. प्रज्ञापना पद 2 597. प्रज्ञापना पद 2, सूत्र 46 [ 91 ] Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिहत्तरहवें समवाय का दूसरा संत्र-'एवं दीव-दिसा-उदहीणं .......' है तो प्रज्ञापना५६८ में भी द्वीपमार दिशाकुमार आदि के छिहत्तर लाख भवन बताये हैं। अस्सीवें समवाय का छठा सत्र--'ईसाणस्स देविंदस्स......' है तो प्रज्ञापना५६६ में भी ईशान देवेन्द्र के अस्सी हजार सामानिक देव बताये हैं। चौरासीवें समवाय का छठा सूत्र-'सब्वेवि गं बाहिरया मंदरा.......' है तो प्रज्ञापना६०० में भी ऐसा ही वर्णन है। चौरासीवें समवाय का बारहवां सूत्र--'चोरासीइ पइन्नग'.......' है तो प्रज्ञापना 01 में भी ऐसा ही कथन है। छियानवेवें समवाय का दूसरा सूत्र-'वायुकुमाराणं छष्णउइ.......' है तो प्रज्ञापना६ 0 2 में भी वायुकुमार के छानवे लाख भवन बताये हैं। निन्यानवेवें समवाय का सातवां सत्र-'दक्खिना ओ पं कट्ठामो....' है तो प्रज्ञापना 03 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के अंजनकाण्ड के नीचे के चरमान्त से व्यन्तरों के भौमेय विहारों के ऊपरी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर निन्यानवे सौ योजन का है। डेढ़सौवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'आरणे कप्पे........' है तो प्रज्ञापना०४ में भी आरण कल्प के डेढ़ सौ विमान बताये हैं। ढाई सौवें समवाय' का द्वितीय सूत्र-'असुरकुमाराणं........' है तो प्रज्ञापना 05 में भी असुरकुमारों के प्रासाद ढाई सौ योजन ऊँचे बताये हैं। चार सौवें समवाय का चतुर्थ सूत्र-'आणयपाणएसु.......' है तो प्रज्ञापना३०६ में भी प्रानत और प्राणत इन दो कल्पों में चार सौ विमान बताये हैं। पाठ सौवें समवाय का द्वितीय सूत्र-'इमीसे रयणप्पहाए.......' है तो प्रज्ञापना 07 में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रति सम रमणीय भूभाग से आठ सौ योजन के ऊपर सूर्य गति करता कहा गया है। छह हजारवें समवाय का प्रथम सत्र-'सहस्सारे णं कप्पे......' है तो प्रज्ञापना६०८ में भी सहस्रार कल्प में छह हजार विमान बताये हैं। ___ आठ लाखवें समवाय का प्रथम सूत्र---'माहिदे णं कप्पे........' है तो प्रज्ञापना६०६ में भी माहेन्द्र कल्प में पाठ लाख विमान बताये हैं। 598. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 46 599. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 600. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 52 601. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 46 602. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 37 603. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 28 604. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 605. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 28 606. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 53 607. प्रज्ञापना--पद 2, सूत्र 47 608. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 609. प्रज्ञापना-पद 2, सूत्र 53 [ 92 ] Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह प्रज्ञापना में समवायांग के अनेक विषय प्रतिपादित हैं। कितने ही सूत्र तो समवायांगगत सूत्रों से प्रायः मिलते हैं। समवायांग में जिन विषयों के संकेत किये गये हैं, उन विषयों को श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना में विस्तार से निरूपित किया है। अत्यधिक साम्य होने के कारण ही इसे समवायांग का उपांग माना गया लगता है। समवायांग और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प्राचीन जैन भूगोल का महत्त्वपूर्ण प्रागम है। इस आगम में जैन दृष्टि से सष्टिविद्या के बीज यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। भगवान् ऋषभदेव का प्राग ऐतिहासिक जीवन भी इसमें मिलता है। प्रस्तुत आगम के साथ अनेक विषयों की तुलना सहज रूप से इसके साथ की जा सकती है। पाठवें समवाय का चौथा सुत्र-'जंबू णं सुदंसणा अह........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सुदर्शन वृक्ष की आठ योजन की ऊँचाई कही है। आठवें समवाय का पांचवा सूत्र-'कूडस्स' सालमलिस्स ........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी गरुडावास कूट शल्मली वृक्ष आठ योजन के ऊँचे बताये हैं। आठवें समवाय का छठा सूत्र-'जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति णं........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 12 में भी जम्बद्वीप की जगती पाठ योजन ऊँची बतायी है। नवमें समवाय का नवमां सूत्र-'विजयस्स णं दारस्स .....' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६.३ में भी विजय द्वार के प्रत्येक पार्श्व भाग में नौ-नौ भौम नगर कहे हैं। दशवें समवाय का तृतीय सूत्र-'मंदरे णं पब्बए ......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 14 में भी मेरु पर्वत के मूल का विष्कम्भ दश हजार योजन का बताया है। दशवें समवाय का पाठवां सूत्र-'अकम्मभूमियाणं......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 15 में भी अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपयोग के लिये कल्पवृक्षों का वर्णन है। ___ ग्यारहवें समवाय का द्वितीय सूत्र--- 'लोगंतानो इक्कारसएहि........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 16 में भी लोकान्त से अव्यवहित ग्यारह सौ ग्यारह योजन दूरी पर ज्योतिषकचक्र प्रारम्भ होता है। ग्यारहवें समवाय का तीसरा सूत्र---'जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 617 में भी जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से अव्यवहित म्यारह सौ ग्यारह योजन की दूरी पर ज्योतिष्कचक्र प्रारम्भ होता है। ग्यारहवें समवाय का सातवां सूत्र-'मंदरे णं पव्वए........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी मेरु पर्वत के पृथ्वीतल के विष्कम्भ से शिखर तल का विष्कम्भ ऊँचाई की अपेक्षा ग्यारह भाग हीन है। बारहवें समवाय का चतुर्थ सूत्र-'विजया णं रायहाणी........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 16 में भी विजया राजधानी का आयाम-विष्कम्भ बारह लाख योजन का बताया है। 610. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-बक्षस्कार 4, सू. 90 611. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सू. 100 612. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 1, सू. 4 613. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 1, सू. 4 614. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सू. 103 615. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 2, स. 130 616. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 7, सू. 164 617. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 7, स. 164 618. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति--वक्ष. 4, सू. 103 619. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 1, सू.८ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवें समवाय का छठा सूत्र-'मंदरस्स ण पव्वयस्स".....' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६२० में भी मेरु पर्वत की चूलिका के मूल का विष्कम्भ बारह योजन बताया है। बारहवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'जम्बूदीवस्स णं दीवस्स""...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति'२१ में भी जम्बूद्वीप की बेदिका के मूल का विष्कम्भ बारह योजन का बताया है। तेरहवें समवाय का आठवां सूत्र ---- 'सूरमंडलं जोयणेणं........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 22 में भी एक योजन के इकसठ भागों में से तेरह भाग कम करने पर जितना रहे उतना सूर्यमंडल है। चौदहवें समवाय का छठा सूत्र-'भरहेरवयायो णं जीवाओ"......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 23 में भी भरत और ऐरवत की जीवा का आयाम चौदह हजार चार सौ इकहत्तर एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग का कहा है। ___चौदहवें समवाय का सातवाँ सूत्र-'एगमेगस्स गं रन्नो .......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 24 में प्रत्येक चक्रवर्ती के चौदह रत्न बताये हैं। चौदहवें समवाय का आठवां सूत्र- 'जंबुद्दीवे णं दीवे......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 25 में भी कहा है कि मंगा, सिन्धु, रोहिता, रोहितांशा आदि चौदह मोटी नदियां पूर्व पश्चिम से लवण समुद्र में मिलती हैं / सोलहवें समवाय का तीसरा सूत्र-'मंदरस्स गं पव्वयस्स.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६२६ में भी मेरु पर्वत के सोलह नाम बताये हैं। अठारहवें समवाय का पांचवां सूत्र- 'बंभीए णं लिवीए.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 627 में भी ब्राह्मी लिपि के अठारह प्रकार बताये हैं। उन्नीसवें समवाय का दूसरा सूत्र--'जम्बूद्दीवे णं दीवे सूरिआ"...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६२८ में 'जम्बूद्वीप में सूर्य ऊंचे तथा नीचे उन्नीस सौ योजन ताप पहुंचाते हैं।' बीसवें समवाय का सातवां सूत्र–'उस्सप्पिणि-ओसप्पिणिमंडले........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 126 में भी कालचक्र को बीस कोटाकोटी सागरोपम का बताया है। इक्कीसवें समवाय का तीसरा सत्र-'एकमेक्काए णं प्रोसप्पिणीए........' है तो जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति३० में अवसर्पिणी का पांचवां दुषमा और छठा दुषम-दुषमा आरा इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष का कहा है। 620. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 106 621. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 125 622. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 7, सूत्र 130 623. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 1, सूत्र 16 624. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-चक्ष. 3, सूत्र 68 625. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-बक्ष. 6, सूत्र 125 626. जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 109 627. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 2, सूत्र 37 628. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 7, सूत्र 139 629. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 2, सूत्र 19 630. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 2, सूत्र 35-36 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवें समवाय का चौथा सूत्र--'एगमेगाए णं उस्स प्पिणीए.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 31 में भी प्रत्येक उत्सर्पिणी का पहला दुषमा और दूसरा दुषम-दुषमा आरा इकबीस-इकबीस हजार वर्ष का है। - चौबीसवें समवाय का दूसरा सूत्र-'चुल्लहिमवंत-सिहरीणं......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति३२ में लघुहिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वतों की जीवा का आयाम चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन तथा एक योजन के अड़तीसवें भाग से कुछ अधिक कहा है। चौबीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'चउवीसं देवठाणा........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 33 में भी देवताओं के चौबीस स्थान इन्द्रवाले शेष अहमिन्द्र---अर्थात् इन्द्र और पुरोहित रहित कहे गए हैं। चौबीसवें समवाय का पांचवां सूत्र-'मंगा-सिंधूओ णं महाणदीओ.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 34 में भी महानदी गंगा और सिन्धु का प्रवाह कुछ अधिक चौवीस कोश का चौड़ा बतलाया है / चौबीसवें समवाय का छठा सूत्र-~-'रत्तारत्तवतीओ पं........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 235 में भी यही विषय वर्णित है। पच्चीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'सब्वे वि दोहवेयड्ढपब्वया......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 3 में भी सर्वदीर्घ वैताढय पर्वत इसी प्रकार के कहे हैं। पच्चीसवें समवाय का सातवां सूत्र- 'गंगासिंधूप्रो णं महाणदीयो.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 39 में भी वर्णन है कि महानदी गंगा-सिंधु का मुक्तावली हार की आकृतिवाला पच्चीस कोश का विस्तृत प्रवाह पूर्व-पश्चिम दिशा में घटमुख से अपने-अपने कुण्ड में गिरता है। इकतीसवें समवाय का दूसरा सूत्र--'मंदरे पव्वए.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 238 में भी लिखा है 'पृथ्वीतल पर मेरु की परिधि कुछ कम इकतीस हजार छह सौ तेईस योजन की है।' इकतीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'जया णं सूरिए ...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी सूर्यदर्शन का वर्णन है। तेतीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'महाविदेहे णं वासे ...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६४० में महाविदेह का विष्कम्भ कुछ अधिक तेतीस हजार योजन का बताया है। ---- -- --- - 631. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 2, सूत्र 37 632. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 72 633. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 5, सूत्र 115 634. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 5, सूत्र 74 635. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 74 636. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 1, सूत्र 12 637. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 74 638. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सुत्र 103 639. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 7, सूत्र 133 640. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 85 [ 95 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवें समवाय का चौथा सूत्र-'जया णं सूरिए......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति४' में जम्बूद्वीप में कुछ न्यून तेतीस हजार योजन दूर से सूर्य-दर्शन होता कहा है / चौतीसवें समवाय का दूसरा सूत्र--'जंबुद्दीवे णं दीवे.....' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६४२ में भी जम्बूद्वीप में चौतीस चक्रवर्तीविजय कहे हैं। चौतीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दीहवेयड्ढा.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी जम्बूद्वीप६४3 में चौतीस दीर्घ वताढ्य पर्वत बतलाए हैं। चौतीसवें समवाय का चौथा सूत्र-'जंबुद्दीवे णं दीवे........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 44 में भी जम्बूद्वीप में उत्कृष्ट चौतीस तीर्थंकर उत्पन्न होना कहा है।। सेंतीसवें समवाय का दूसरा सूत्र-'हेमवय-हेरण्णवयाओ ........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति४५ में भी हेमवन्त और हेरण्यवंत की जीवा के आयाम का वर्णन है। अड़तीसवें समवाय या दूसरा सूत्र- 'हेमवए-एरण्णवईमाणं...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 46 में भी हेमवन्त और हेरण्यवंत की जीवा के मायाम का वर्णन है। अड़तीसवें समवाय का तीसरा सूत्र--'प्रत्थस्स णं पव्वयरण्णो ...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 647 में भी मेरुपर्वत के द्वितीय काण्ड की ऊंचाई अड़तीस हजार योजन की बताई है। उनचालीसवें समवाय का दूसरा सूत्र—'समयखेत्ते एगूणचत्तालीसं........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६४८ में भी समयक्षेत्र में उनचालीस कुल-पर्वत बताये हैं। चालीसवें समवाय का दूसरा सूत्र–'मंदरचूलिया गं.....' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 46 में भी वर्णन है कि मेरु की चूलिका चालीस योजन ऊंची है / पैतालीसवें समवाय का पहला सूत्र--समयखेत्तं णं पणयालीस .......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति५५० में भी समयक्षेत्र का आयाम-विष्कम्भ पैंतालीस लाख योजन का बताया है / पैतालीसवें समवाय का छठा सूत्र--..'मंदरस्सणं पव्वयस्स........' तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी मेरुपर्वत एवं लवण समुद्र का अव्यवहित अन्तर चारों दिशाओं में पैंतालीस-पैतालीस हजार योजन का बताया है। 641. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 7, सूत्र 133 642. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 95 643. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 6, सूत्र 125 644. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 95 645. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 79 646. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 111 647. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 108 646. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 6, सूत्र 125 649. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 106 650. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-बक्ष. 4, सूत्र 177 651. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष. 4, सूत्र 103 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैतालीसवें समवाय का पहला सूत्र-'जया णं सूरिए सवभितर... ...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 52 में भी सूर्यदर्शन का इसी तरह वर्णन प्राप्त है। अड़तालीसवें समवाय का पहला सूत्र-- एगमेगस्स णं रन्नो.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 53 में भी प्रत्येक चक्रवर्ती के अड़तालीस हजार पट्टण बताये हैं। अड़तालीसवें समवाय का तीसरा सूत्र- 'सूरमंडले णं अडयालीसं....' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 54 में भी मूर्यविमान का विष्कम्भ एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना है। उनपचासवें समवाय का दूसरा सूत्र-'देवकुरु-उत्तरकुरुएसु णं .......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः५५ में भी देवकुरु और उत्तरकुरु के मनुष्य उनपचास अहोरात्रि में युवा हो जाते कहे हैं / पचासवें समवाय का चौथा सूत्र--'सबेवि णं दोहवेयड्ढा मूले .......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 256 में भी सर्वदीर्घ वैताढ्य पर्वतों के मूल का विष्कंभ पचास योजन का है। पचासवें समवाय का छठा मूत्र-सव्वाओ णं तिमिस्सगुहाओ......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 657 में भी सर्व तिमिश्र गुफा और खण्डप्रपात गुफाओं का आयाम पचास-पचास योजन का है। पनवें समवाय का पहला सूत्र –'देवकुरु-उत्तरकुरुयाओ......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति३५८ में भी देव कुरु और उत्तरकुरु की जीवा का आयाम पन हजार योजन का बताया है। पनवें समवाय का दूसरा सूत्र—'महाहिमवंतरुप्पोणं........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 656 में भी महाहिमवंत और रुक्मी आदि के आयाम का वर्णन है। पचपनवें समवाय का दूसरा सूत्र-'मन्दरस्स णं पब्वयस्स........ ' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी मेरुपश्चिमी चरमान्त से विजयद्वार के पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पचपन हजार योजन का है। सत्तावनवें समवाय का पांचवा सूत्र-'महाहिमवंत-रुप्पीणं .......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी महाहिमवंत जौर रुक्मी वर्षधर पर्वतों की जीवा का वर्णन है। साठवें समवाय का पहला सूत्र-'एग मेगे णं मंडले........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 62 में भी वर्णन है कि प्रत्येक मण्डल में सूर्य साठ-साठ मुहूर्त पूरे करता है। 652. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7 सूत्र 133 653. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 3 सूत्र 69 654. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7 सूत्र 130 655. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2 सूत्र 25 656. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 1 सूत्र 12 657. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-बक्ष 1 सूत्र 12 658. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4 सूत्र 87 659. जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4 सूत्र 79 660. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 1 सूत्र 8 661. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4 सूत्र 79 662. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 6 सूत्र 127 [ 97 ] Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकसठवें समवाय का तीसरा सूत्र-'चंदमंडलेणं एगसछि......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति५६३ में भी चन्द्रमण्डल का समांश एक योजन के इकसठ विभाग करने पर (45 समांश) होता है / बासठवें समवाय का तीसरा सूत्र--'सुक्कपक्खस्स णं चंदे.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 64 में शुक्लपक्ष में चन्द्र बासठ भाग प्रतिदिन बढ़ता है और कृष्ण पक्ष में उतना ही घटता है, यह कथन है। त्रेसठवें समवाय के चारों सूत्रों में जो वर्णन है वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६६५ में ज्यों का त्यों मिलता है। चौसठवें समवाय का छठा सूत्र--सव्वस्स वि य रन्नो.......' है तो जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति 266 में भी वर्णन है कि सभी चक्रवर्तियों का मुक्तामणिमय हार महामूल्यवान् एवं चौसठ लड़ियों वाला होता है / पैसठवें समवाय का पहला सूत्र--'जंबुद्दीवे णं दीवे पणसट्ठि सूरमंडला........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 667 में भी जम्बूद्वीप में सूर्य के पंसठ मंडल बताये हैं। सड़सठवें समवाय का दूसरा सूत्र--'हेमयवएरनवयाओ...' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६६८ में भी हेमवत और एरण्यवत की बाहा का आयाम सड़सठ सौ पंचावन योजन तथा एक योजन के तीन भाग जितना है / अड़सठवें समवाय के दूसरे, तीसरे और चौथे सूत्र-'उक्कोसपए असदिछ अरहता......' 'चक्कवट्टी बलदेवा ..... 'पुक्ख रवरदीवड्ढे णं' वर्णन है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 66 में भी 'उत्कृष्ट अड़सठ तीर्थकर, चक्रवर्ती बलदेव और वासुदेव होते हैं वैसे ही पुष्करार्धद्वीप में भी होते कहे हैं। बहत्तरवें समवाय का छठा सूत्र ---'एगमेगस्स णं रनो........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी यह वर्णन है कि प्रत्येक चक्रवर्ती के बहत्तर हजार श्रेष्ठ पुर होते हैं। बहत्तरवें समवाय का सातवाँ सुत्र-'बावत्तरि कलाओ पण्णत्ताओ.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति७१ में भी बहत्तर कलाओं का उल्लेख है। तिहत्तरवें समवाय का प्रथम सूत्र-'हरिबास-रम्मयवासयाओ.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष की जीवा के आयाम का वर्णन है / चौहत्तरवें समवाय का दूसरा सूत्र-'निसहाओ णं वासहर........' है तो तीसरा सूत्र है--'एवं सीताबि...' इसी तरह जम्बूद्वीप 72 प्रज्ञप्ति में भी निषध पर्वत और सीतोदा महानदी का वर्णन है। सतहत्तरवें समवाय का पहला सूत्र--'भरहे राया चाउरंत-चक्कवट्टी .......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६७3 663. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7, सूत्र 144-145 664. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7, सूत्र 134 665. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2, सूत्र 3, व 4, सू. 82, वक्ष 7, सू. 127 666. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 3, सूत्र 68 667. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7, सूत्र 127 668. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, सूत्र 76 669. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7, 670. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 3, सूत्र 69 671. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 3, सूत्र 30 672. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, सूत्र 82 673. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-बक्ष 2, सूत्र 70 [ 98 ] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भी भरत चक्रवर्ती सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमार पद में रहने के पश्चात् राजपद को प्राप्त हुए, यह उल्लेख है। अठहत्तरबें समवाय का तीसरा सूत्र-'उत्तरायणनियट्रे णं सूरिए.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 74 में उत्तरायण से लौटता हुप्रा सूर्य प्रथम मंडल से उनचालीसवें मंडल तक एक मुहर्त के इकस ठिए अठहत्तर भाग प्रमाण दिन तथा रात्रि को बढाकर गति करता कहा है। उन्नीसवें समवाय का चतुर्थ सूत्र-'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६७५ में भी वर्णन है कि जम्बूद्वीप के प्रत्येक द्वार का अव्यवहित अन्तर उन्नासी हजार योजन का है। बियामी समवाय का पहला सूत्र- 'जंबुद्दीवे दीवे बासीयं.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति७६ में कहा है--जम्बूद्वीप में एक सौ बियासीवें सर्यमण्डल में सर्य दो बार गति करता है। तियासीवें समवाय का चौथा सूत्र--'उसभे णं अरहा कोसलिए.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 77 में भी लिखा है अरहंत कौमलिक ऋषभदेव तियासी लाख पूर्व गृहवास में रहकर मुडित यावत् प्रवजित हुए। तियासीवें समवाय का पांचवां सत्र--'भरहे णं राया चाउरतचक्कवठी........' है तो जम्बूद्वीप६७८ प्रज्ञप्ति में भी वर्णन है कि भरत चक्रवर्ती तियासी लाख पूर्व गृहवास में रहकर जिन हुए। चौरासीवें समवाय का दूसरा सत्र-'उसभे णं अरहा कोसलिए"......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति७६ के अनुसार भी परहंत कोसलिक ऋषभदेव चौरासी लाख पूर्व का आयु पूर्ण करके सिद्ध यावत् सर्व दु:खों से मुक्त हुए। चौरासीवेंसमवाय का तीसरा सत्र 'सिज्जसे गं अरहा चउरासीई........' है तो जम्बदीप में भी उल्लेख है कि ऋषभदेव जी भी तरह भरत बाहुबली ब्राह्मी और सुन्दरी भी सिद्ध हुए / चौरासीवें समवाय का पन्द्रहवांसूत्र—उसभस्स ण अरहो......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६८१ में अरहंत ऋषभदेव के चौरासी गण और चौरासी गणधरों का उल्लेख है। अठासीवें समवाय का तीसरा सूत्र...'मंदरस्स णं पब्वयस्स.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति६८३ में भी मेरु पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर अठासी हजार योजन का बताया है। 674. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7, सूत्र 131 675. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 1, सूत्र 9 676. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 7, सूत्र 134 677. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2, सूत्र 30, 31 678. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 3, सूत्र 70 679. जम्बूदीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2, सूत्र 33 680. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2, सूत्र 33 681. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2, सूत्र 18 682. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, सूत्र 103 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवासीवें समवाय का पहला सूत्र---'उसभे परहा........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति५८३ में भी अरहंत कौसलिक ऋषभदेव इस अवसपिणो के तृतीय सुषम-दुषमा काल के अन्तिम भाग में नवासी पक्ष शेष रहने पर कालधर्म को प्राप्त हुए। नब्बेवें समवाय का पांचवां सत्र-'सव्वेसि णं वट्टवेयड्ढपव्वयाणं........' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति८४ में भी सर्ववत्तवैताढ्य पर्वतों के शिखर के ऊपर से सौगंधिक काण्ड के नीचे के चरमान्त का अव्यवहित अन्तर नब्बे सौ योजन कहा है। छियानवेवें समवाय का पहला सूत्र--'एगमेगस्स गं रन्नो चाउरत-चक्कवट्टिस्स... ....' है तो जम्बूद्वीप९८५ प्रज्ञप्ति में भी प्रत्येक चक्रवर्ती के छानवे-छानवे करोड़ ग्राम बताये हैं। निन्यानवेवें समवाय के पहले सूत्र से लेकर छ8 सूत्र तक जो वर्णन है वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 86 में भी ज्यों का त्यों मिलता है। सौवें समवाय का छठा सत्र---'सब्वेवि णं दीहवेयड्ढपब्वया"......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति८७ में सर्व दीर्घवंताढय पर्वत सौ-सौ कोश ऊँचे प्ररूपित हैं। दो सौवें समवाय का तीसरा सूत्र-'जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपब्वय-सया पणत्ता.......' है तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 668 में भी जम्बूद्वीप में दो सौ कांचनक पर्वतों का वर्णन है। पांच सौवें समवाय में प्रथम सूत्र से लेकर सातवें सूत्र तक जो वर्णन है वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी इसी तरह मिलता है। हजारवें समवाय में दूसरे सत्र से लेकर छठे सत्र तक जो वर्णन है, वह जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में भी इसी तरह देखा जा सकता है। इस तरह समवायांग और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अनेक स्थलों पर विषयसाम्य है। विस्तारभय से कूछ सत्रों की तुलना जानकर हमने यहाँ पर छोड़ दी है / समवायांग और सूर्यप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति छठा उपांग है / डॉ. विन्टर नित्ज ने सूर्यप्रज्ञति को एक वैज्ञानिक ग्रन्थ माना है। डॉ. शुकिंग ने जर्मनी की हेम्बर्ग यूनिवसिटी में अपने भाषण में कहा था कि 'जंन विचारकों ने जिन तर्कसम्मत एवं सुसंगत सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है वे आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की दृष्टि से भी अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण 683. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 2, सूत्र 31, 33 684. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, सूत्र 82 685. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 3, सूत्र 67 686. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, 7, सूत्र 103, 134 657. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति--वक्ष 1, सत्र 12 688. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 6, सूत्र 125 689. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, 3 सूत्र 125, 33, 70, 86, 91, 97, 75 690. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-वक्ष 4, सूत्र 88, 72 [ 100 ] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। विश्व रचना के सिद्धान्त के साथ उसमें उच्चकोटि का गणित एवं ज्योतिषविज्ञान भी मिलता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में गणित और ज्योतिष पर गहराई से विचार किया गया है, प्रतः सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता / हम यहां पर संक्षेप में समवायांग में आये हुए विषयों के साथ सूर्यप्रज्ञप्ति की तुलना करेंगे। समवायांग के प्रथम समवाय में तेवीस, चौवीस और पच्चीसवें मूत्र में जिन आर्द्रा, चित्रा और स्वाति नक्षत्रों का वर्णन है, वह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति में भी है। दूसरे समवाय के चौथे से सातवें समवाय तक पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तराभद्रपदा के तारों का वर्णन है। वह सूर्यप्रज्ञप्ति 6 3 में भी प्राप्त है। तीसरे समवाय के छठे सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक मृगशिर, पुष्य, जेष्ठा, अभिजित, श्रवण, अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्रों का वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति में भी मिलता है। चौथे समवाय के सातवें, आठवें और नौवें सूत्र में अनुराधा, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढा नक्षत्रों के चार तारों का वर्णन है, सूर्यप्रज्ञप्ति६६५ में भी उन तारों का वर्णन दर्शनीय है। पांचवें समवाय के नौवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक रोहिणी, पूनर्वसू, हस्त, विशाखा, धनिष्ठा नक्षत्रों के पांच-पांच तारों का वर्णन है, सूर्यज्ञप्रप्ति में भी वह वर्णन इसी तरह मिलता है। छठे ममवाय के सातवें एवं आठवें सूत्र में कृत्तिका, अश्लेषा नक्षण के छह-छह तारे बताये हैं तो सूर्यप्रज्ञप्ति में भी उनका उल्लेख है। सातवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर ग्यारहवें सूत्र तक मघा, कृत्तिका, अनुराधा और धनिष्ठा नक्षत्रों के तारे तथा उनके द्वारों का वर्णन है तो सूर्यप्रज्ञप्ति में भी बह मिलता है। आठवें समवाय के नौवें सूत्र में "अनवखत्ता चंदेणं......."है तो सूर्यप्रज्ञप्ति६६६ में भी चन्द्र के साथ प्रमर्द योग करने वाले कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्ता, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा इन आठ नक्षत्रों का वर्णन है / नोवें समवाय के पांचवें, छठे, और सातवें सूत्र में अभिजित नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने का वर्णन है तथा रत्नप्रभा पृथ्वी से नौ सौ योजन ऊँचे तारा है, यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति७०० में भी है / समवायांग और सूर्यप्रज्ञप्ति 691. He who has a thorough knowledge of the structure of the world cannot but admire the inward logic and harmony of Jain ideas. Hand in hand with refined casmographical ideas goes a high standard of Astronomy and Mathematics. A history of Indian Astronomy is not conceivable without the famous "Surya Pragyapati." --Dr. Schubring. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभत 10, प्रा. 9 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 695. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 696. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 697. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 698. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 699. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभृत 10, प्रा. 9, सूत्र 42 700. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत 10, प्रा. 11, सूत्र 44 [ 101 ] .. 694. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अन्तर इतना ही है कि समवायांग में अभिजित् का चन्द्र के साथ योगकाल 9 मुहर्त का बताया है तो सूर्यप्रज्ञप्ति.' में 12 मूहूर्त का बताया है। ग्यारहवें समवाय के दूसरे, तीसरे और पांचवें सूत्र में ज्योतिष चक्र के प्रारंभ का वर्णन है और मूल नक्षत्र के ग्यारह तारे बताये हैं, यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति में भी मिलता है / में समवाय के आठवें और नौवें सूत्र में जघन्य रात और दिन बारह महतं के बताये हैं तो सूर्यप्रज्ञप्ति.३ में भी उसका निरूपण हुआ है। पंद्रहवें समवाय के तीसरे और चौथे सूत्र में ध्र वराहु का चन्द्र को आवत और अनावृत करने का वर्णन है तो सूर्यप्रज्ञप्ति७०४ में भी बह वर्णन द्रष्टव्य है। अठारहवें समवाय के आठवें सूत्र में पौष और आषाढ़ मास में एक दिन उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का होता है तथा एक रात्रि अठारह मूहूर्त की होती है / सूर्यप्रज्ञप्ति७०५ में भी यही वर्णन उपलब्ध है। मवाय के द्वितीय सूत्र में जम्बूद्वीप में सूर्य ऊँचे और नीचे उन्नीस सौ योजन ताप पहुंचाता है। यही वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति७०६ में भी है। चोवीसवें समवाय के चौथे सूत्र में वर्णन है-उत्तरायण में रहा हया मूर्य चौबीस अंगुल प्रमाण प्रथम प्रहर की छाया करके पीछे मुड़ता है। यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति७०७ में भी है। सत्तावीसवें समवाय के दूसरे और तीसरे सूत्र में क्रमश: यह वर्णन है कि जम्बूद्वीप में अभिजित को छोड़कर सत्तावीस नक्षत्रों से व्यवहार होता है और नक्षत्र माम सत्तावीस अहोरात्रि का होता है / यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति 08 में भी है। उनतीसवें समवाय के तीसरे से सातवें तक जो वर्णन है, वह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति 06 में भी उपलब्ध है। तीसवें समवाय के तीसरे सूत्र में तीस मुहर्तों के नाम बताये हैं, वे नाम सूर्यप्रज्ञप्ति 10 में भी मिलते हैं / इकतीसवें समवाय के चौथे और पांचवें सूत्र में क्रमशः अधिक मास कुछ अधिक इकतीस रात्रि का बताया है / और सूर्यमास कुछ न्यून इकतीस अहोरात्रि का बताया है। सूर्यप्रज्ञप्ति में यही है। बत्तीसवें ममवाय के पांचवें सत्र में रेवती नक्षत्र के बत्तीस तारे बताये हैं तो सूर्यप्रज्ञप्ति 12 में भी यह वर्णन है। 701. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभत 10, प्रा. 11, सूत्र 44 702. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत 18, सूत्र 92 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत 1 प्रा. 1 सूत्र 11 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभत 20, प्रा. 3, प्रा. सूत्र 105, सू. 35 5. सूर्यप्रज्ञप्ति --प्राभत 1, प्रा. 6, सू. 18 706. सूर्यप्रज्ञप्ति--प्राभूत 4 प्रा. सू. 25 सूर्यप्रज्ञप्ति--प्राभत 10 प्रा. सू. 46 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्राभूत १०,१२,प्रा. १सू. 32, 72 709. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 12 स., 72 710. सूर्यप्रज्ञप्तिप्रा , 10, पा. 13, सू. 47 711. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 12, सू. 72 सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. प्रा. 10, 9, सू. 72 . Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवें समवाय के चौथे सूत्र में चैत्र और आश्विन मास में एक दिन पौरुषी छाया का प्रमाण छत्तीस अंगुल का होता कहा है तो सूर्यप्रज्ञप्ति७१३ में भी यही वर्णन है। संतीसवें समवाय के पांचवें सूत्र में कार्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्य सैतीस अंगुलप्रमाण पौरुषी छाया करके गति करता है। यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति७१४ में है। चालीसवें समवाय के छठे सुत्र में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सूर्य चालीस अंगुलप्रमाण पौरुषी छाया करके गति करता है। यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति.१५ में भी है। पैतालीसवें समवाय के सातवें सूत्र में डेढ़ क्षेत्र वाले सभी नक्षत्र चन्द्र के साथ पैतालीस मुहर्त का योग करते हैं। यह वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति७१६ में भी है। ___ छप्पनवें समवाय के प्रथम सूत्र में जम्बूद्वीप में छप्पन नक्षत्रों ने चन्द्र के साथ योग किया व करते हैं, यही वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति०१७ में भी उपलब्ध होता है। बासठवें समवाय के प्रथम सूत्र में वर्णन है कि पांच संवत्सर वाले युग की बासठ पूर्णिमाएँ और बासठ अमावस्याएँ होती हैं, यह वर्णन सूत्रप्रज्ञप्ति में भी है। इकहत्तरवें समवाय के प्रथम सूत्र में वर्णन है कि नौथे चन्द्र-संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर अहोरात्रि व्यतीत होने पर सर्वबाह्य मण्डल से सूर्य पुनरावृत्ति करता है। यही वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति में प्राप्त है। बहसरवें समवाय का पांचवां सूत्र है, पृष्कराध द्वीप में बहत्तर चन्द्र व सूर्य प्रकाश करते हैं। यही वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति 20 में भी है। अठासीवें समवाय के प्रथम सूत्र में वर्णन है कि प्रत्येक चन्द्र, सूर्य का अठासी-अठासी ग्रह का परिवार है / यही वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति 21 में भी प्राप्त होता है। अठानवें वें समवाय के चतुर्थ सूत्र से लेकर सातवें सूत्र तक जो वर्णन है, वह सूर्यप्रज्ञप्ति 22 में भी इसी तरह मिलता है। इस तरह सूर्यप्रज्ञप्ति के साथ समवायांग के अनेक सूत्र मिलते हैं। समवायांग और उत्तराध्ययन मूल सूत्रों में उत्तराध्ययन का प्रथम स्थान है। यह प्रागम भाव-भाषा और शैली की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है / इसमें धर्म, दर्शन, अध्यात्म, योग आदि का सुन्दर विश्लेषण हुआ है। हम यहाँ पर संक्षेप में 713. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 10, प्रा. 2., सू. 43 714. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 10, सू. 43 715. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 10, सू. 43 716. सूर्यप्रज्ञप्ति--प्रा. 3, सू. 35 717. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 10, प्रा. 22, सू. 60 718. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 13, सू. 80 719. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 11 720. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 19 721. सूर्यप्रज्ञप्ति--प्रा. 18, सू. 51 722. सूर्यप्रज्ञप्ति-प्रा. 1, 10, प्रा. 9, सू. 42 [ 103 ] Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवायांग में आये हुये विषयों का उत्तराध्ययन में आये हये विषयों के साथ दिग्दर्शन करेंगे, जिससे समवायांग की महत्ता का सहज ही प्राभास हो सके / दूसरे समवाय के तीसरे सूत्र में बन्ध के राग और द्वेष ये दो प्रकार बताये हैं / तो उत्तराध्ययन७२3 में भी उनका निरूपण है। तीसरे समवाय के प्रथम सत्र में तीन दण्डों का निरूपण है तो उत्तराध्ययन 24 में भी वह वर्णन है। तीसरे समवाय के दूसरे सत्र में तीन गुप्तियों का उल्लेख है तो उत्तराध्ययन७२५ में भी गुप्तियों का वर्णन प्राप्त है। तीसरे समवाय के तीसरे सुत्र में तीन शल्यों का वर्णन है तो उत्तराध्ययन७२६ में भी शल्यों का वर्णन प्राप्त है। पांचवें समवाय के सातवें सत्र में पांच समिति के नाम दिये गये हैं। उत्तराध्ययन७२७ में उन पर विस्तार से निरूपण है। छठे समवाय का तीसरे और चौथे सूत्र में बाह्य और आभ्यन्तर तप का वर्णन है। उत्तराध्ययन 28 में भी वह प्राप्त है। सातवें समवाय के प्रथम सत्र में सप्त भयस्थानों का निरूपण किया गया है, उत्तराध्ययन 26 में भी उनके सम्बन्ध में संकेत है। पाठवें समवाय के प्रथम सूत्र में पाठ मदस्थानों की चर्चा है तो उत्तराध्ययन७३° में उनका सूचन है। आठवें समवाय के दूसरे सूत्र में अष्ट प्रवचनमाताओं के नाम हैं, उत्तराध्ययन 31 में भी उनका निरूपण है। नत्र में समवाय के प्रथम सूत्र में नव ब्रह्मचर्य-गुप्तियाँ निरूपति हैं तो उत्तराध्ययन७३२ में भी यह विषय चचित है। नवमें समवाय केग्यारहवें सूत्र में दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ बतायी हैं तो उत्तराध्ययन 33 में भी उनका कथन है / दशवें समवाय के प्रथम सत्र में श्रमण के दश धर्मों का वर्णन है, तो उत्तराध्ययन 3 में भी उनका संकेत है। --- 723. उत्तराध्ययन-अ. 21 724. उत्तराध्ययन--अ. 31 725. उत्तराध्ययन-अ. 24 726. उत्तराध्ययन-अ.३१ 727. उत्तराध्ययन-अ. 24 728. उत्तराध्ययन-अ. 30 729. उत्तराध्ययन-अ. 31 730. उत्तराध्ययन-अ. 31 731. उत्तराध्ययन–प्र. 24 732. उत्तराध्ययन-अ. 36 733. उत्तराध्ययन-अ. 33 734. उत्तराध्ययन-अ.३१ [ 104 ] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवें समवाय के प्रथम सूत्र में उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का निरूपण है तो उत्तराध्ययन 35 में भी संक्षेप में सूचन है। बारहवें समवाय के पहले सूत्र में भिक्ष की बारह प्रतिमाएँ गिनाई हैं तो उत्तराध्ययन 736 में भी उनकी संक्षेप में सूचना है। सोलहवें समवाय के पहले सूत्र में सूत्रकृतांग के सोलह अध्ययनों के नाम निर्दिष्ट हैं तो उत्तराध्ययन७३७ में भी उनका संकेत है। सत्तरहवें समवाय के प्रथम सूत्र में सत्तरह प्रकार के असंयम बताये हैं, उनका निर्देश उत्तराध्ययन७३८ में भी है। अठारहवें समवाय के प्रथम सूत्र में ब्रह्मचर्य के अठारह प्रकार बताये हैं, इनका संकेत उत्तराध्ययन 36 में भी प्राप्त होता है। उन्नीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों के नाम आये हैं तो उत्तराध्ययन 40 में उनका संकेत है। बावीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में बावीस-परीषहों के नाम निदिष्ट हैं तो उत्तराध्ययन 41 में उनका विस्तार से निरूपण है। तेवीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में सूत्रकृतांग के तेईस अध्ययनों के नाम हैं, उत्तराध्ययन 42 में भी उनका संकेत है। चौबीसवें समवाय के चौथे सूत्र के अनुसार उत्तरायण में रहा हुआ सूर्य चौवीस अंगुल प्रमाण प्रथम प्रहर की छाया करता हुआ पीछे मुड़ता है, यह वर्णन उत्तराध्ययन७४३ में भी है। सत्तावीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में अनगार के सत्तावीस गुण प्रतिपादित हैं, तो उत्तराध्ययन७४४ में भी उनका सूचन है। तीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में मोहनीय के तीस स्थान बताये हैं, उत्तराध्ययन 45 में भी इसका निर्देश है। इकतीसवें समवाय के प्रथम मूत्र में सिद्धों के इकतीस गुण कहे हैं, तो उत्तराध्ययन 746 में भी इनका संकेत है। 735. उत्तराध्ययन-अ. 41 736. उत्तराध्ययन-प्र. 31 737. उत्तराध्ययन-अ. 31 738. उत्तराध्ययन-प्र.११ 739. उत्तराध्ययन-अ. 31 740. उत्तराध्ययन-अ.३१ 741. उत्तराध्ययन-अ. 2 742. उत्तराध्ययन-अ. 31 743. उत्तराध्ययन-अ. 26 744. उत्तराध्ययन-अ. 31 745. उत्तराध्ययन---अ. 31 746. उत्तराध्ययन-अ. 31 [ 105 ] Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में योगसंग्रह के बत्तीस प्रकार बताये हैं, उत्तराध्ययन७४७ में भी उनकी सूचना है। तेतीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में तेतीस आशातनाओं का नाम-निर्देश है तो उत्तराध्ययन 748 में भी इनका सुचन किया गया है। छत्तीसवें समवाय के प्रथम सूत्र में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के नाम आये हैं / 746 उनहत्तरवें समवाय के तीसरे सूत्र में मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात मूल कर्म-प्रकृतियों की उनहत्तर उत्तर कर्म-प्रकृतियाँ बतायी हैं / यह वर्णन उत्तराध्ययन७५० में भी प्राप्त है। सत्तरहवें समवाय के चौथे सूत्र के अनुसार मोहनीय कर्म की स्थिति, अबाधाकाल सात-हजार वर्ष छोड़कर सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की बतायी है। उत्तराध्ययन में यही वर्णन मिलता है। सत्तासीवें समवाय के पांचवें सूत्र के अनुसार प्रथम और अन्तिम को छोड़कर छह मूल कर्मप्रकृतियों की सत्तासी उत्तरप्रकृतियां होती हैं, यही वर्णन उत्तराध्ययन 752 में भी है। सत्तानवें समवाय के तीसरे सूत्र के अनुसार आठ मूल कर्म-प्रकृतियों की सत्तानवे उत्तरकर्म-प्रकृतियाँ हैं, यही वर्णन उत्तराध्ययन७५३ में प्राप्त है। इस तरह उत्तराध्ययन में समवायांमगत ऐसे अनेक विषय हैं, जिनकी उत्तराध्ययन में कहीं संक्षेप में और कहीं विस्तार से चर्चा मिलती है। समवायांग और अनुयोगद्वार __ मूल सूत्रों की परिगणना में अनुयोगद्वार का चतुर्थ स्थान है / अनुयोग का अर्थ है-शब्दों की व्याख्या या विवेचन करने की प्रक्रिया-विशेष / समवायांग में आये हुए अनेक विषय अनुयोगद्वार में भी प्रतिपादित हुये हैं। प्रथम समवाय के छब्बीसवें सूत्र से लेकर चालीसवें सूत्र तक जिन विषयों की चर्चा है, वे विषय अनुयोगद्वार 754 में भी चचित हैं। दूसरे समवाय के आठवें सूत्र से लेकर बीसवें समवाय तक जिन-जिन विषयों की चर्चा की गयी है, वे अनुयोगद्वार 715 में चर्चित हुये हैं। तृतीय समवाय के तेरहवें सूत्र से लेकर इक्कीसवें सूत्र तक जिन विषयों का उल्लेख किया गया है वे विषय अनुयोगद्वार 56 में भी आये हैं। 747. उत्तराध्ययन-अ. 31 748. उत्तराध्ययन-अ. 31 749. उत्तराध्ययन-अ.१ से 36 तक 750. उत्तराध्ययन-अ.३३ 751. उत्तराध्ययन-अ. 33 गा. 31 752. उत्तराध्ययन-अ. 33 753. उत्तराध्ययन-अ. 33 754. अनुयोगद्वार सूत्र-सू. 139 755. अनुयोगद्वार सूत्र--सू. 139 756. अनुयोगद्वार सूत्र-सू. 139, 140 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथे समवाय के दसवें सूत्र से लेकर सत्तहरवें सूत्र तक के विषयों पर अनुयोगद्वारसूत्र७५७ में भी चिन्तन किया गया है। पाँचवें समवाय के चौदहवें सूत्र से लेकर उन्नीसवें सूत्र तक जो भाव प्रज्ञापित हुये हैं, वे अनुयोगद्वार में भी द्रष्टव्य हैं। छठे समवाय के दसवें सूत्र से लेकर पन्द्रहवें सूत्र तक, और सातवें समवाय के बारहवें सूत्र से लेकर बीसवें सूत्र तक, आठवें समवाय के दसवें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक, नौवें समवाय के बारहवें सत्तरहवें सूत्र तक, दसवें समवाय के दसवें सूत्र से लेकर बावीसवें सूत्र तक, ग्यारहवें समवाय के पाठवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक, बारहवें समवाय के बारहवें सूत्र तक, तेरहवें समवाय के नवमें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक, चौदहवें समवाय के नवमें सूत्र से लेकर पन्द्रहवें सुत्र तक, पन्द्रहवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक, सोलहवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक, सत्तरहवें समवाय के ग्यारहवें सूत्र से लेकर अठारहवें सूत्र तक, अठारहवें ममवाय के नवम सूत्र से लेकर, पन्द्रहवें सूत्र तक, उन्नीसवें समवाय के छठे सूत्र से लेकर बारहवें मूत्र तक, बीसवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक, इक्कीसवें समवाय के पांचवें सूत्र से लेकर ग्यारहवें मुत्र तक, बावीसवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर चौदहवें सूत्र तक, तेवीसवें समवाय के पांचवें सूत्र से लेकर दसवें सूत्र तक, चौवीसवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक, पच्चीसवें समवाय के दशवे सूत्र से लेकर पन्द्रहवें मूत्र तक, छब्बीसवें समवाय के दुसरे सूत्र से लेकर आठवें सूत्र तक, सत्तावीसवें समवाय के सातवें सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक अठावीसवें समवाय के छठे सुत्र से लेकर ग्यारहवें सूत्र तक, उनतीसवें समवाय के दशवें सूत्र से लेकर पन्द्रहवें सूत्र तक, तीसवें समवाय के आठवें सूत्र से लेकर तेरहवें सूत्र तक, इकतीसवें समवाय के छठे सूत्र से लेकर ग्यारहवें सूत्र तक, बत्तीसवें समवाय के सातवें सूत्र लेकर ग्यारहवें सूत्र तक, तेतीसवें समवाय' के पांचवें सूत्र से लेकर ग्यारहवें सूत्र तक, जिन-जिन विषयों का वर्णन आया है वे विषय अनुयोगद्वार७५८ में भी कहीं संक्षेप में तो कहीं विस्तार से चचित हैं। इस तरह समवायांग का विषय-वर्णन इतना अधिक व्यापक है कि आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर उस सम्बन्ध में विचारचर्चाएं की गई हैं। आगमों में कहीं पर सूत्र शैली का उपयोग हुआ है तो कहीं पर जिज्ञासुओं को समझाने के लिए व्यासशैली का उपयोग भी हुआ है। हमने उपर्युक्त पंक्तियों में मुख्य रूप से समवायांगगत विषय जिन प्रागमों में आये हैं, उन पर सप्रमाण चिन्तन किया है। यों दशवकालिक, नन्दी, दशाश्रुतस्कन्ध व कल्पसूत्र के विषय भी कुछ ममवायांग के साथ मिलते हैं पर उनकी संख्या अधिक न होने से हमने उनका यहाँ पर उल्लेख नहीं किया है और न आगमेतर ग्रन्थों के साथ विषयों की तुलना की है। वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों के विषयों के साथ भी समवायांगगत विषयों की तुलना सहजरूप से की जा सकती है। यों संक्षेप में यथास्थान उनका उल्लेख किया गया है। आज आवश्यकता है आगम साहित्य की अन्य साहित्य के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने की। मुर्धन्य मनीषियों का ध्यान इस ओर केन्द्रित हो तो समन्वय और सत्य के अनेक द्वार उद्घाटित हो सकते हैं। व्याख्या-साहित्य समवायांम सूत्र में न दर्शन सम्बन्धी गहन गुत्थियाँ हैं और न अध्यात्म सम्बन्धी गंभीर विवेचन ही हैं / जो भी विषय निरूपित हैं वे सहज, सुगम और सुबोध हैं, जिसके कारण इस पर न निर्यक्तियां लिखी गईं और न 757. अनुयोगद्वार सूत्र--सूत्र 139 758. अनुयोगद्वार सूत्र--सूत्र 139 [ 107 ] Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य का निर्माण ही किया गया, और न चणियां ही रची गई। सर्वप्रथम नवाङी-टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने इस पर वत्ति का निर्माण किया। यह वत्ति न अतिसंक्षिप्त है और न अतिविस्तृत ही। वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्य ने श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार किया है, क्योंकि प्रस्तुत आगम के अर्थ-प्ररूपक भगवान महावीर हैं। आचार्य अभयदेव ने विज्ञों से यह अभ्यर्थना की है कि मेरे सामने आगम के गुरुगंभीर रहस्यों को उद्घाटित करने वाली अर्थपरम्परा का अभाव है, अत: कहीं पर विपरीत अर्थप्ररूपणा हो गई हो तो विज्ञगण परिष्कृत करने का अनुग्रह७५६ करें। वृत्ति में आचार्य ने समवाय शब्द की व्याख्या भी की है। व्याख्या करते हुए अनेक स्थलों पर पाठान्तरों के उल्लेख भी किये हैं। 760 प्रज्ञापना सूत्र तथा गन्धहस्ती के भाष्य का भी उल्लेख है। यह वृत्ति वि. सं. 1120 में अणहिल पाटण में लिखी गयी है। इस का ग्रन्थमान 3575 श्लोक-प्रमाण है। इस अागम पर दूसरी संस्कृत टीका करने वाले पूज्य श्री घासीलालजी म. हैं।७६१ उन्होंने प्राचार्य अभयदेव का अनुसरण करते हये टीका का निर्माण किया है। यह टीका अपने ढंग की है। कहीं-कहीं पर टीकाकार ने अपनी दृष्टि से अर्थ की संगति के लिये पाठ में भी परिवर्तन कर दिया है। जैसे आगामी काल के उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थंकरों के नामों में परिवर्तन हुआ है।०६२ हमारी दृष्टि से, टीका या विवेचन में लेखक अपने स्वतन्त्र विचार दें, इस में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, किन्तु मूल पाठों में परिवर्तन करने से उनकी प्रामाणिकता लुप्त हो जाती है। अत: पाठों को परिवर्तित करना उचित नहीं। समवायांगसूत्र पर सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद करने वाले आचार्य अमोलक ऋषि जी म. हये हैं। उन्होंने बत्तीस आगमों का हिन्दी में अनुवाद कर महान श्रुतसेवा की है। 763 गुजराती भाषा में पण्डितप्रवर दलसुखभाई मालवणिया७६४ ने महत्त्वपूर्ण अनुवाद किया है। यह अनुवाद अनुवाद न होकर एक विशिष्ट रचना हो गई है। सर्वत्र मालवणियाजी का पाण्डित्य छलकता है। उन्होंने अनुवाद के साथ जो टिप्पण दिये हैं वे उनके गम्भीर अध्ययन के द्योतक हैं। अनुसन्धानकर्ताओं के लिये यह संस्करण अत्यन्त उपयोगी है। पण्डितप्रवर मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने हिन्दी अनुवाद के साथ समवायांग का प्रकाशन किया है। ग्रन्थ का परिशिष्ट विभाग महत्त्वपूर्ण है। यह संस्करण जिज्ञासुओं के लिए श्रेयस्कर है।७६५ 759. समवायांग वृत्ति 1-2 760. "जंबुद्दीवे दीवे एग जोयणसयसहस्सं पायायविक्खंभेणं" के स्थान पर "जंबुद्दीवे देवे एग जोयणसयसहस्स चक्कवालविखंभेण" आदि पाठ मिलता है 'नवरं जंबुद्दीवे इह सूत्रे' 'आयायविक्खंभेणं' ति क्वचित पाठो दृश्यते क्वचित्तु "चक्कवालविक्भेणं ति......" --समवायांग वृत्ति--अहमदाबाद संस्करण, पृ. 5 761. जैनशास्त्रोद्धार समिति, राजकोट सन् 1962 762. श्रीकृष्ण के आगामी भव—एक अनुचिन्तन / लेखक-देवेन्द्र मुनि शास्त्री लाला सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जी, हैदराबाद वी. सं. 2446 764. गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद सन् 1955 765. आगम अनुयोग प्रकाशन, पोस्ट बॉक्स नं. 1141, दिल्ली 7 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य अभयदेव वृत्ति सहित सर्वप्रथम सन् 1880 में रायबहादुर धनपतसिंह जी ने एक संस्करण प्रकाशित किया और उसके पश्चात सन 1919 में आगमोदय समिति सूरत से उसका अभिनव संस्करण प्रकाशित हुया। उसके पश्चात् सन् 1938 में मफतलाल झवेरचन्द ने अहमदाबाद से वृत्ति सहित ही एक संस्करण मुद्रित किया। विक्रम संवत 1995 में जैनधर्म प्रचारक सभा भावनगर से गुजराती अनुवाद सहित संस्करण भी प्रकाशित हुमा है। केवल मूलपाठ के रूप में "सुत्तागमे"७६६ अंगसुत्ताणि,७५° अंगपविट्ठाणि७६८ आदि अन्य अंग-आगमों के साथ यह पागम भी प्रकाशित है। इन संस्करणों के अतिरिक्त स्थानकवासी जैन समाज के प्रबुद्ध आचार्य श्री धर्मसिंह मुनि ने समवायांग पर मूलस्पर्शी शब्दार्थ को स्पष्ट करने वाला टब्वा लिखा था पर वह अभी तक अप्रकाशित है। प्रस्तुत संस्करण इस तरह समय-समय पर समवायांग सूत्र के संस्करण प्रकाशित होते रहे हैं। प्रस्तुत संस्करण के प्रधान सम्पादक हैं—श्रमणसंघ के तेजस्वी युवाचार्य श्रीमधुकर मुनि जी म. I आपके कुशल नेतृत्व में आगम-प्रकाशनसमिति आगमों के शानदार संस्करण प्रकाशित करने में संलग्न है। स्वल्पावधि में अनेक आगम प्रकाशित हो चुके हैं। प्रत्येक आगम के सम्पादक और विवेचक पृथक-पृथक व्यक्ति होने के कारण ग्रन्थमाला में जो एकरूपता आनी चाहिये थी वह नहीं आ सकी है। वह आ भी नहीं सकती है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की स्वतन्त्र लेखन व सम्पादन शैली होती है। तथापि युवाचार्यश्री ने यह महान भगीरथ कार्य उठाया है। श्रमणसंघ के सम्मेलनों में तथा स्थानकवासी कान्स दीर्घकाल से यह प्रयत्न कर रही थी कि आगम-बत्तीसी का अभिनव प्रकाशन हो। मुझे परम आह्लाद है कि मेरे परम श्रद्धेय सद्गुरुवयं राजस्थानकेशरी अध्यात्मयोगी उपाध्यायप्रवर श्री पुष्करमुनि जी म. के सहपाठी व स्नेही सहयोगी युवाचार्यप्रवर ने दत्तचित्त होकर इस कार्य को अतिशीत्र रूप से सम्पन्न करने का दृढ़ संकल्प किया है। यह गौरव की बात है। हम सभी का कर्तव्य है कि उन्हें पूर्ण सहयोग देकर इस कार्य को अधिकाधिक मौलिक रूप में प्रतिष्ठित करें। समवायांग के सम्पादक व विवेचक पण्डितप्रवर श्री हीरालाल जी शास्त्री हैं। पण्डित हीरालाल जी शास्त्री दिगम्बर जैन परम्परा के जाने-माने प्रतिष्ठित साहित्यकार थे। उन्होंने अनेक दिगम्बर-ग्रन्थों का सम्पादन कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था / जीवन की साध्यवेला में उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा के महनीय आगम स्थानांग और समवायांग का सम्पादन किया। स्थानांग इसी आगममाला से पूर्व प्रकाशित हो चुका है। अब उनके द्वारा सम्पादित समवायांग सूत्र प्रकाशित हो रहा है। वृद्धावस्था के कारण जितना चाहिये, उतना श्रम वे नहीं कर सके हैं। तथा कहीं-कहीं परम्पराभेद होने के कारण विषय को पूर्ण स्पष्ट भी नहीं कर सके हैं। मैंने अपनी प्रस्तावना में उन सभी विषयों की पूर्ति करने का प्रयास किया है / तथापि मूलस्पर्शी भावानुवाद और जो यथास्थान संक्षिप्त विवेचन दिया है, वह उन के पाण्डित्य का स्पष्ट परिचायक है। सम्पादनकलामर्मज्ञ कलमकलाधर पण्डित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल, जो श्वेताम्बर आगमों के तलस्पर्शी 766. धर्मोपदेष्टा फलचन्द जी म. सम्पादित, गुडगांव-पंजाब 767. मुनि श्री नथमल जी सम्पादित, जैन विश्वभारती, लाडनं 765. जैन संस्कृति रक्षक संघ-सैलाना (मध्यप्रदेश) [ 109 ] Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् हैं, उनकी सम्पादनकला का यत्र-तत्र सहज ही दिग्दर्शन होता है। वस्तुतः भारिल्ल जी आगमों को सर्वाधिक सुन्दर व प्रामाणिक बनाने के लिये जो श्रमसाध्य कार्य कर रहे हैं, वह उन की आगम-निष्ठा का द्योतक है। समवायांग की प्रस्तावना का आलेखन करते समय अनेक व्यवधान उपस्थित हुये। उन में सबसे बड़ा व्यवधान प्रकृष्ट प्रतिभा की धनी आगम व दर्शन की गम्भीर ज्ञाता पूज्य मातेश्वरी साध्वीरत्न महासती श्री प्रभावती जी का संथारे के साथ अकस्मात् दि. 27 जनवरी 1982 को स्वर्गवास हो जाना रहा। माँ की ममता निराली होती है। माता-पिता के उपकारों को भुलाया नहीं जा सकता। जिस मातेश्वरी ने मुझे जन्म ही नहीं दिया, अपितु साधना के महामार्ग पर बढ़ने के लिये उत्प्रेरित किया, उसके महान् उपकार को कैसे भुलाया जा सकता है, तथापि कर्तव्य की जीती जागती प्रतिमा का यही हादिक आशीर्वाद था कि 'वत्स करो!' उसी संबल' को लेकर मैं प्रस्तावना की ये पंक्तियाँ लिख गया हूँ। आशा है प्रस्तुत प्रागम अत्यधिक लोकप्रिय होगा और स्वाध्यायप्रेमियों के लिये यह संस्करण प्रत्यन्त उपयोगी रहेगा। ब श्रुतसेवा जैन स्थानक मोकलसर (राज.) दि. 26 फरवरी, 1982 - देवेन्द्रमुनि शास्त्री [ 110 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका प्रस्तावना लोक, धर्म, अधर्म, पुण्य, पापबन्ध एकस्थानक समवाय आत्मा, अनात्मा, दंड, अदंड, क्रिया, प्रक्रिया, लोक, अलोक, धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा / पालक यान विमान, सर्वार्थसिद्धविमान, आनिक्षत्र, चित्रानक्षत्र, स्वातिनक्षत्र, स्थिति, आहार, श्वासोच्छ्वास, सिद्धि / द्विस्थानक समवाय दंड, राशि, बन्धन, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / त्रिस्थानक समवाय दंड, गुप्ति, शल्यं, गारव, विराधना, मृगशिर-पुष्य-ज्येष्ठा-अभिजित-श्रवण-अश्विनी-भरणी नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, पाहार, सिद्धि / चतु:स्थानक समवाय कषाय, ध्यान, विकथा, संज्ञा, बन्ध, अनुराधा-पूर्वाषाढा-उत्तराषाढा नक्षत्र, स्थिति, श्वासो च्छ्वास, सिद्धि। पंचस्थानक समवाय क्रिया, महाव्रत, कामगुण, आस्रवद्वार, संवरद्वार, निर्जरास्थान, समिति, अस्तिकाय, रोहिणी पुनर्वसु-हस्त-विशाखा-धनिष्ठा नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / षट्स्थानक समवाय लेश्या, जीवनिकाय, तप, छाद्मस्थिक समुदधात, अर्थावग्रह, कृत्तिका-पाश्लेषानक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / सप्तस्थानक-समवाय भयस्थान, समुद्घात, भ. महावीर की अवगाहना, वर्षधर पर्बत, वर्ष, कर्मप्रकृतिवेदन, मघानक्षत्र, पूर्व-दक्षिण, पश्चिम-उत्तरद्वारिक नक्षत्र-निरूपण, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, माहार, सिद्धि / अष्ट स्थानक-समवाय मदस्थान, प्रवचनमाता, वाणव्यन्तरों के चैत्यवृक्ष, जंबू सुदर्शन, कदशाल्मली, जम्बूद्वीपजगती, केवलिसमुद्घात, पार्श्वनाथ के गण-गणधर नक्षत्र, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / . Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवस्थानक-समवाय ब्रह्मचर्यगुप्तियां, अगुप्तियां, ब्रह्मचर्य-अध्ययन, पार्श्वनाथ की अवगाहना, नक्षत्र, तारा-संचार, जम्बूद्वीप में मत्सप्रवेश, विजयद्वार, वाण-व्यन्तरों की सुधर्मा सभा, दर्शनावरण की प्रकृतियाँ, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / दशस्थानक-समवाय श्रमणधर्म, समाधिस्थान, मन्दर पर्वत, अरिष्टनेमि-अवगाहना, ज्ञानवृद्धिकारी नक्षत्र, कल्पवृक्ष, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, प्राहार, मिद्धि / एकादशस्थानक-समवाय उपासकप्रतिमा, ज्योतिश्चक्र, भ. महावीर के गणधर, मूलनक्षत्र, ग्रैवेयक, मंदर पर्वत, स्थिति श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / द्वादशस्थानक-समवाय भिक्षप्रतिमा, संभोग, कृतिकर्म, विजया राजधानी, राम बलदेव, मन्दर-चलिका, जम्बूद्वीपवेदिका, जघन्य रात्रि-दिवस, ईषत्प्रारभार पृथ्वी, स्थिति, श्वासोच्छवास, पाहार, सिद्धि / त्रयोदशस्थानक-समवाय क्रियास्थान, विमानप्रस्तट, जलचरपंचेन्द्रिय जीवों की कुलकोटि, प्राणायुपूर्व की वस्तु, प्रयोग, सूर्यमंडल का विस्तार, स्थिति, आहार, सिद्धि / चतुर्दशस्थानक-समवाय भूतग्राम, पूर्व, जीवस्थान, भरत-ऐरवत-जीवा, चक्रवर्तीरत्न, महानदी, स्थिति, श्वासोच्छ्वास आहार, सिद्धि। पञ्चदशस्थानक-समवाय परमाधार्मिक देव, नमि अर्हत की अवगाहना, ध्र वराहु, नक्षत्र, 15 मुहुर्त के दिन-रात्रि, विद्यानुवादपूर्व के वस्तु, मनुष्य प्रयोग, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / षोडशस्थानक-समबाय गाथाषोडशक, कषाय, मन्दर-नाम, पावं की श्रमणसंपदा, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, स्थिति / सप्तदशस्थानक-समवाय असंयम, संयम, मानुषोत्तर पर्वत, आवासपर्वत, चारणगति, चमर का उत्पातपर्वत, मरण, कर्मप्रकृतिवेदन, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / अष्टादशस्थानक-समवाय ब्रह्मचर्य, अरिष्टनेमि कीश्रमणसम्पदा, निर्ग्रन्थस्थान, आचारांग-पद,ब्राह्मीलिपि के लेखविधान, अस्तिनास्तिप्रवाद के वस्तु, धूमप्रभा पृथ्वी, उत्कृष्ट रात-दिन, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि। [ 112 ] Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतिस्थानक समवाय ज्ञाता-अध्ययन, जम्बूद्वीप में सूर्य, शुक्र महाग्रह, जम्बूद्वीप, तीर्थंकरों का अगारवास, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / विशतिस्थानक समवाय असमाधिस्थान, मुनिसुव्रत की अवगाहना, घनोदधि का बाहल्य, प्राणतेन्द्र के सामानिक देव, कर्मस्थिति, प्रत्याख्यानपूर्व के वस्तु, कालचक्र, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / एकविंशतिस्थानक समवाय शबल दोष, कर्मप्रकृति, पंचम-षष्ठ आरक का कालप्रमाण, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / द्वाविंशतिस्थानक समवाय परीषह, दृष्टिवाद, पुद्गलपरिणाम, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / त्रयोविंशतिस्थानकः समवाय सूत्रकृतांग के अध्ययन, तेईस तीर्थकरों को सूर्योदयकाल में केवलज्ञान, पूर्वभव में एकादशांगी, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, पाहार, सिद्धि / चतुविशतिस्थानक समवाय देवाधिदेव (तीर्थ कर), चुल्लहिमवंत-शिखरिजीवा, स-इन्द्र देवस्थान, उत्तरायणसुर्य, गंगा, गंगा सिन्धु महानदी, रक्ता-रक्तोदा महानदी, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / पंचविशतिस्थानक समवाय पंच यामों की भावनाएं, मल्लिनाथ की अवगाहना, दीर्घवैताढय पर्वत, दूसरी पृथ्वी के नारकावास, आचारांग के अध्ययन, मिथ्याष्टि-विकलेन्द्रिय का कर्मप्रकृतिबंध, मंगा-सिन्धु, रक्ता रक्तवती महानदी, लोकविन्दुसार के वस्तु, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / षविंशतिस्थानक समवाय दशाकल्प-व्यवहार के उद्देशनकाल, कर्मप्रकृतिसत्ता, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / सप्तविंशतिस्थानक समवाय अनगार-गुण, नक्षत्रों से व्यवहार, नक्षत्रमास, सौधर्म-ईशान कल्प की पृथ्वी का बाहल्य, कर्म प्रकृति, सूर्य का चार, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / अष्टाविंशतिस्थानक समवाय आचारप्रकल्प, मोहकर्म की सत्ता, आभिनिबोधिक ज्ञान, ईशान कल्प में विमानों की संख्या, कर्मप्रकृतिबन्ध, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / एकोन त्रिंशत्स्थानक समवाय पापश्रुतप्रसंग, आषाढ आदि मासों में रात्रि-दिवस की संख्या, देवों में उत्पत्ति, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 103 त्रिंशस्थानक समवाय मोहनीय-स्थान, मंडितपुत्र की श्रमणपर्याय, तीस मुहतों के तीस नाम, अर तीथंकर की प्रवगाहना, सहस्रारेन्द्र के सामानिक देव, पाश्वनाथ का गृहवास, महावीर का गृहवास, रत्नप्रभापृथ्वी के नारकावास, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, आहार, सिद्धि। एकत्रिशत्स्थानक समवाय सिद्धों के आदिगुण, मंदरपर्वत, सूर्य का संचार, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / द्वात्रिंशत्स्थानक समवाय योगसंग्रह, दवेन्द्र, कुन्थ, अर्हत् के केवली, सौधर्मकल्प में विमान, रेवती नक्षत्र के तारे, नाटय के प्रकार, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / त्रयस्त्रिशत्स्थानक समवाय आसातनाएँ, चमरेन्द्र के भोम, स्थिति, श्वासोच्छवास, आहार, सिद्धि / चतुस्त्रिशकस्थानक समवाय तीर्थंकरों के अतिशय, चक्रवर्ती-विजय, चमरेन्द्र के भवनावास, नारकावास। पंचत्रिंशत्स्थानक समवाय सत्यवचन के अतिशय, कुन्थु अर्हत की अवगाहना, दत्त वासुदेव की अवगाहना, नन्दन बलदेव की अवगाहना, माणवक चैत्यस्तंभ, नारकावाससंख्या। षत्रिंशत्स्थानक समवाय उत्तराध्ययन, चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा, महावीर की प्रायिकाएँ, सूर्य की पौरुषी-छाया / सप्तस्त्रिशत्थानक समवाय कुत्थनाथ के गणधर, हैमवत-हैरण्यक की जीवा, विजयादि विमानों के प्राकार, क्षद्रिका विमान विभक्ति के उद्देशनकाल, सूर्य की छाया। अष्टत्रिशत्स्थानक समवाय पार्श्व जिन की आर्यिकाएँ, हैमवत-ऐरण्यवत की जीवाओं का धनुःपृष्ठ, मेरु के दूसरे काण्ड की ऊंचाई, विमानविभक्ति के उद्देशनकाल / एकोनचत्वारिंशस्थानक समवाय नमि जिन के अवधिज्ञानी मुनि, नारकावास, कर्मप्रकृतियाँ / चत्वारिंशत्स्थानक समवाय अरिष्टनेमि की आयिकाएँ, मंदरचलिका, भूतानन्द के भवनावास, विमानविभक्ति के तृतीय वर्ग के उद्देशनकाल, सूर्य की छाया, महाशुक्र कल्प के विमानावास / एकचत्वारिंशत्स्थानक समवाय नमि जिन की आपिकाएं, नारकावास, महाविमानविभक्ति के प्रथम वर्ग के उद्देशनकाल / द्विचत्वारिंशत्स्थानक समवाय महावीर की श्रामण्यपर्याय, आवासपर्वतों का अन्तर, कालोद समुद्र में चन्द्र-सूर्य, भजपरिसों 105 107 वाय 107 सापाय 108 109 [ 114 ] Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की स्थिति, नाम कर्म की प्रकृतियाँ, लवणसमुद्र की वेला, विमानविभक्ति के द्वितीय वर्ग के उद्देशनकाल, पंचम-षष्ठ आरों का कालपरिमाण / त्रिचत्वारिंशत्स्थानक समवाय कर्मविपाक अध्ययन, नारकावास, धर्म जिन की अवगाहना, मंदर पर्वत का अन्तर, नक्षत्र, महा विमानविभक्ति के पंचम वर्ग के उद्देशनकाल / षट्चत्वारिंशत्स्थानक समवाय दष्टिवाद के मातृकापद, प्रभंजनेन्द्र के भवनावास / सप्तचत्वारिंशत्स्थानक समवाय सूर्य का इष्टिगोचर होना, अग्निभूति का गृहवास / अष्टचत्वारिंशस्थानक समवाय चक्रवर्ती के पट्टन, धर्म जिन के गण और गणधर, सूर्यमंडल का विस्तार / एकोनपंचाशत्स्थानक समवाय भिक्षुप्रतिमा, देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्य, त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति / पंचाशत्स्थानक समवाय मुनिसुव्रत जिन की आर्याएँ, दीर्घवताढयों का विष्कंभ, लान्तककल्प के विमानावास, तिमिस्र खण्डप्रपात गुफाओं की लम्बाई, कांचनक पर्वतों का विस्तार / एकपंचाशत्स्थानक समवाय आचारांग-प्रथम श्रृतस्कन्ध के उद्देशनकाल, चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा, सुप्रभ बलदेव का प्रायुष्य, उत्तर कर्मप्रकृतियाँ। द्विपंचाशत्स्थानक समवाय मोहनीय कर्म के नाम, गोस्तुभ ग्रादि पर्वतों का अन्तर, कर्मप्रकृतियाँ, सौधर्म-सनत्कुमारमाहेन्द्र के विमानावास। 114 त्रिपंचाशत्स्थानक समवाय 118 देवकुरु प्रादि की जीवाएँ, भ० महावीर के श्रमणों का अनुत्तरविमानों में जन्म, संमृछिम उरपरिसों की उत्कृष्ट स्थिति। चतु:पंचाशत्स्थानक समवाय महापुरुषों का जन्म, अरिष्टनेमि की छमस्थपर्याय, भ. महावीर द्वारा एक दिन में 54 व्याख्यान, अनन्त जिन के गुण, गणधर / पंचपंचाशत्स्थानक समवाय मल्ली अर्हत् का आयुष्य, मन्दर और विजयादि द्वारों का अन्तर, भ० महावीर द्वारा पुण्यपापविपाकदर्शक अध्ययनों का प्रतिपादन, नारकावास, कर्मप्रकृतियाँ। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 120 121 122 123 षट्पंचाशत्स्थानक समवाय नक्षत्रयोग, विमल जिन के गण और गणधर / सप्तपंचाशत्स्थानक समवाय तीन गणिपिटक के अध्ययन, मोस्तुभ पर्वत और महापाताल का अन्तर, मल्ली जिन के मन: पर्यवज्ञानी, महाहिमवन्त और रुक्मि पर्वतों की जीवा का धनु : पृष्ठ / अष्टपंचाशत्स्थानक समवाय नारकावास, कर्मप्रकृतियाँ, गोस्तूभ और वडवामुख महापाताल आदि का अन्तर / एकोनषष्ठिस्थानक समवाय चन्द्रसंवत्सर, संभव जिन का गृहवास, मल्ली जिन के अवधिज्ञानी मुनि / षष्टिस्थानक समवाय सूर्य की मण्डलपूत्ति, लवणसमुद्र का अग्रोदक, विमल जिन की अवगाहना, बलीन्द्र के और ब्रह्म देवेन्द्र के सामानिक देव, सौधर्म-ईशान कल्प के विमानावास / एकषष्टिस्थानक समवाय ऋतुमास, मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड, चन्द्रमण्डल / द्विषष्टिस्थानक समवाय पंचसांवत्सरिक युग में पूणिमाएँ-अमावस्याएँ, वासुपूज्य जिन के गण-गणधर, चन्द्र-कलानों की वद्धि-हानि, सौधर्म-ईशान कल्प के विमानावास, वैमानिक-विमानप्रस्तट / त्रिषष्टिस्थानक समवाय ऋषभ जिन का महाराज-काल, हरिवास-रभ्यकवास के मनुष्यों का यौवन, निषध-नीलवन्त पर्वत पर सूर्योदय / चतुःषष्टिस्थानक समवाय अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा, असुरकुमारावास, दधिमुख पर्वत, विमानावास / पंचषष्टिस्थानक समवाय जम्बूद्वीप में सूर्यमण्डल, मौर्यपुत्र का गृहवास, सौधर्मावतंसक विमान की एक-एक दिशा में भवन / षट्षष्टिस्थानक समवाय मनुष्यक्षेत्र में चन्द्र-सूर्य, श्रेयांस जिन के गण और गणधर, ग्राभिनिबोधिक ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति। सप्तषष्टिस्थानक समवाय नक्षत्रमास, हैमवत-ऐरण्यवत की भुजाएँ, मन्दर पर्वत, नक्षत्रों का सीमा विष्कम्भ / अष्टषष्टिस्थानक समवाय धातकीखण्ड में विजय, राजधानियां, तीर्थकर, चक्रवती, बलदेव, वासुदेव, विमल जिन की श्रमणसम्पदा / 123 125 125 127 [ 116 ] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 130 130 134 एकोनसप्ततिस्थानक समवाय समयक्षेत्र में वर्ष और वर्षधर पर्वत, मंदर पर्वत का अन्तर, कर्म-प्रकृतियाँ। सप्ततिस्थानक समवाय श्रमण भ. महावीर का वर्षावास, पावं जिन की श्रमण पर्याय, वासुपूज्य, जिन की अवगाहना, मोहनीय कर्म की स्थिति, माहेन्द्र देवराज के सामानिक देव / एकसप्ततिस्थानक ममवाय चन्द्रमा का अयन-परिवर्तन, दीर्यप्रवाद पूर्व के प्राभत, अजित जिन का गृहवासकाल, सगर चक्रवर्ती का गहवासकाल और श्रामण्य / द्विसप्ततिस्थानक समवाय सुपर्णकुमारों के आवास, लवणसमुद्र की वेला का धारण, महावीर जिन का आयुष्य, आभ्यन्तर पुष्करार्ध में चन्द्र-सूर्य, बहत्तर कलाएँ, खेचरों की स्थिति। त्रिसप्ततिस्थानक समवाय हरिवास-रम्यकवास की जीवाएँ, विजय बलदेव की सिद्धि / चतुःसप्ततिस्थानक समवाय अग्निभूति की आयु, सीतोदा तथा सीता महानदी, नारकावाम / पञ्चसप्ततिस्थानक समवाय सुविधि जिन के केवली, शीतल और शान्तिनाथ का गृहवाम / षटसप्ततिस्थानक समवाय विद्युत्कुमार आदि भवनपतियों का आवास / सप्तसप्ततिस्थानक समवाय भरत चक्रवर्ती, अंगवंश के राजाओं की प्रव्रज्या, गर्दतोय तुषित लोकान्तिकों का परिहार, मुहर्त का परिमाण / अष्ट्सप्ततिस्थानक समवाय वैश्रमण लोकपाल, स्थविर अकंपित, सूर्य-संचार से दिन रात्रि के वृद्धि-हास का नियम / एकोनाशीतिस्थानक समवाय रत्नप्रभा पृथ्वी से वलयामुख पाताल का तथा अन्य पातालों का अन्तर, छठी पृथ्वी और घनोदधि का अन्तर, जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर / अशीतिस्थानक समवाय श्रेयांस जिन की अवगाहना, त्रिपृष्ठ वासुदेव की अवगाहना, अचल बलदेव की अवगाहना, त्रिपृष्ठ वासुदेव का राजकाल, अप-बहुल काण्ड की मोटाई, ईशानेन्द्र के सामानिक देव, जम्बूद्वीप में प्रथम मंडल में सूर्योदय / [ 117 ] Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "40 एकाशीतिस्थानक समवाय भिक्षुप्रतिमा, कुन्थु जिन के मनःपर्यवज्ञानी, व्याख्याप्रज्ञप्ति के महायुग्मशत / द्वि-अशीतिस्थानक समवाय सूर्य-संचार, भ. महावीर का गर्भापहरण, महाहिमवन्त एवं रुक्मि पर्वत के सौगंधिक काण्ड का अन्तर / त्रि-प्रशीतिस्थानक समवाय भ. महावीर का गर्भापहार, शीतल जिन के गण और गणधर, स्थ. मंडितपुत्र का आयुष्य, ऋषभ का गृहवासकाल, भरत राजा का गहस्थकाल / चतुरशीतिस्थानक समवाय नारकावास, ऋषभ जिन का आयुष्य, भरत, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी का प्रायुष्य, श्रेयांस जिन का प्रायु, त्रिपृष्ठ वासुदेव का नरक में उत्पाद, देवेन्द्र शक के सामानिक देव, जम्बूद्वीप के बाहर के मंदिरों और अंजनक पर्वतों की ऊंचाई, हरिवषं एवं रम्यक वर्ष की जीवाओं के धनुः पृष्ठ का परिक्षेप, पंकबहल काण्ड के चरमान्तों का अन्तर, व्याख्याप्रज्ञप्ति के पद, नागकुमारावास, प्रकीर्णक, जीवयोनियाँ, पूर्वादि संख्याओं का गुणाकार, ऋषभ जिन को श्रमणसम्पदा, विमानावास। पञ्चाशीतिस्थानक समवाय आचारांग के उद्देशनकाल, धातकीखंड के मंदर रुचकद्वीप के माण्डलिक पर्वतों की ऊंचाई, मन्दनवन / षडशीतिस्थानक समवाय सुविधि जिन के गण और गणधर, सुपार्श्व जिन की बादी-सम्पदा, दूसरी पृथ्वी से घनोदधि का अन्तर। सप्ताशीतिस्थानक समवाय मन्दर पर्वत, कर्मप्रकृति, महाहिमवन्तपर्वत एवं सोगंधिक कूट का अन्तर / अष्टाशीतिस्थानक समवाय सूर्य-चन्द्र के महाग्रह, दृष्टिवाद के सूत्र, मन्दर एवं गोस्तुभ पर्वत का अन्तर, सूर्यसंचार से दिवस-रात्रिक्षेत्र का वृद्धि-हास / एकोनमवतिस्थानक समवाय ऋषभ जिन का सिद्धिकाल, महावीर जिन का निर्वाणकाल, हरिषेण चक्रवर्ती का राजकाल, शान्ति जिन की आर्याएँ / नवतिस्थानक समवाय शीतलनाथ की अवगाहना, स्वयंभू वासुदेव का विजयकाल, वैतादय पर्वत और सौगंधिक काण्ड का अन्तर / 144 145 146 149 149 [ 118 ] Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकनवतिस्थानक समवाय परवैयावृत्यकर्म, कालोद समुद्र की परिधि, कुन्थुनाथ के अवधिज्ञानी श्रमण, कर्मप्रकृतियां / द्विनवतिस्थानक समवाय प्रतिमा, इन्द्रभूति का आयुष्य, मंदर और गोस्तुभ पर्वत का अन्तर / विनवतिस्थानक समवाय चन्द्रप्रभ जिन के गण और गणधर, शान्तिनाथ के चतुर्दशपूर्वी मुनियों की संख्या, सूर्यसंचार। चतुर्नवतिस्थानक समवाय निषध-नीलवन्त पर्वतों की जीवाएँ, अजितनाथ के अवधिज्ञानी मुनियों की संख्या। पंचनवतिस्थानक समवाय 153 153 154 सुपार्श्वनाथ के गण और गणधर, चार महापाल, लवण-समुद्र के पाश्वों की गहराई और ऊंचाई कुन्थुनाथ की आयु, स्थविर मौर्यपुत्र की प्रायु / षण्णवतिस्थानक समवाय चक्रवर्ती के ग्राम, वायूकुमारों के आवास, व्यावहारिक दंड, धनुष, नालिका, युग, अक्ष और मुसल का माप, सूर्यसंचार। सप्तनवतिस्थानक समवाय मन्दर और गोस्तुभ पर्वत का अन्तर, उत्तर कर्मप्रकृतियाँ, हरिषेण चक्रवर्ती का गृहवासकाल। अष्टानवतिस्थानक समवाय नन्दनवन-पाण्डकवन का अन्तर, मन्दर-गोस्तूभ पर्वत का अन्तर, दक्षिण भरत का धनुपृष्ठ, सूर्य संचार, रेवती आदि नक्षत्रों के तारे। नवनवतिस्थानक समवाय मंदर पर्वत की ऊंचाई, नन्दन बन के पूर्वी-पश्चिमी चरमान्त का तथा दक्षिण-उत्तरी चरमान्त का अन्तर, सूर्यमंडल का पायाम-विष्कम्भ, रत्नप्रभा पृथ्वी और वानव्यन्तरों के आवासों का अन्तर। 158 शतस्थानक समवाय 159 161 दशदशमिका भिक्षुप्रतिमा, शतभिषा नक्षत्र के तारे, सुविधि-पुष्पदन्त की अवगाहना, पाश्वं जन का आयुष्य, विभिन्न पर्वतों की ऊँचाई। अनेकोतरिकावृद्धि-समवाय तीर्थकर-देवलोक-तीर्थकर-वर्षधरपर्वत--कांचनक पर्वत-तीर्थकर-~-देव-तीर्थकरदेव-महाबीर-जीवप्रदेशावगाहना-पार्श्वनाथ--तीर्थकर-वर्षधर पर्वत-बक्षार---पर्वतदेवलोक-महावीर-तीर्थकर-चक्रवर्ती--वक्षारपर्वत-वर्षधर पर्वत, तीर्थंकर-चक्रवर्ती वक्षारपर्वत-नन्दन-कट-विमान–अन्तर---पार्श्व-कुलकर--तीर्थकर-विमान---महावीरतीर्थंकर--अन्तर–विमान- भौमेयविहार - महावीर - सूर्य- तीर्थंकर-विमान-अन्तर [ 119 ] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलकर-तारारूप - अन्तर - विमान-यमकपर्वत-चित्र-विचित्रकट-वृत वैताढ्य--- हरि-हरिस्सहकूट--बलकूट-तीर्थंकर-पार्श्व-द्रह--विमान-पाव - द्रह–अन्तर - द्रह--- मन्दर-पर्वत--आवास-अन्तर-हरिबास-रम्यकवास-जीवा-मन्दर-पर्वत - जम्बूद्वीपलवणसमुद्र-पाय---धातकीखण्ड-अन्तर–चक्रवर्ती-अन्तर-आवास-तीर्थकर-वासूदेवमहावीर-ऋषभ-महावीर / द्वादशाङ्ग गणिपिटक 171 173 द्वादशांग-नाम प्राचारांग सूत्रकृत-अंग स्थानांम समवायांग व्याख्याप्रज्ञप्ति जाताधर्मकथा अन्तकृद्दशा अनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरण विपाकश्रुत दृष्टिवाद गणिपिटक' को विराधनाआराधना का फल गणिपिटक को नित्यता 177 179 180 182 उपासकदशा 196 197 199-243 विविधविषय निरूपण राशि-पर्याप्तापर्याप्त--आवास--स्थिति-शरीर-अवधि-वेदना-लेश्या-याहारआयुबन्ध-उत्पाद-उद्वर्तनाविरह--आकर्ष-संहनन-संस्थान-वेद-समवसरण-कुलकर तीर्थंकर-चक्रवर्ती--बलदेव-वासुदेव-ऐश्वततीर्थंकर.....भावी तीर्थकरभावी-चक्रवर्ती--भावी बलदेव-वासुदेव-ऐरवत क्षेत्र के भावी तीर्थकर-चक्रवर्ती बलदेव-वासुदेव। [ 120 ] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं चउत्थं अंग समवायंगसुत्तं पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्मस्वामि-विरचितं चतुर्थम् अङ्गम् समवायांगसूत्रम् Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमनायाडगसूत्रम् १-सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-[इह खलु समणेणं भगक्या महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयसंबुद्धणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससोहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपज्जोअगरेणं अभयदएणं चवखुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं बोहिदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिय-वर-नाण-दसणधरेणं वियदृछउमेणं जिणेणं जावएणं तिन्नेणं तारएणं बुद्धणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सब्वन्नुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नते / तं जहा आयारे 1. सूयगडे 2. ठाणे 3. समवाए 4. विवाहपन्नतो 5. नायाधम्मकहाओ 6. उवासगदसाओ 7. अंतगडदसाओ 8. अणुत्तरोववाइदसाओ 9. पण्हावागरणं 10. विवागसुयं 11. दिट्टिवाए 12 / हे आयुष्मन् ! उन भगवान् ने ऐसा कहा है, मैंने सुना है। [इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे के अन्तिम समय में विद्यमान उन श्रमण भगवान महावीर ने द्वादशांग गणिपिटक कहा है / वे भगवान-प्राचार आदि श्रुतधर्म के प्रादिकर हैं, (अपने समय में धर्म के प्रादि प्रणेता हैं)। तीर्थकर हैं, (धर्मरूप तीर्थ के प्रवर्तक हैं) स्वयं सम्यक् बोधि को प्राप्त हुए हैं। पुरुषों में रूपातिशय आदि विशिष्ट गुणों के धारक होने से, एवं उत्तम वृत्ति वाले होने से पुरुषोत्तम हैं / सिंह के समान पराक्रमी होवे से पुरुषसिंह हैं, पुरुषों में उत्तम सहस्र पत्र वाले श्वेत कमल के समान श्रेष्ठ होने से पुरुषवरपुण्डरीक हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती जैसे हैं, जैसे गन्धहस्ती के मद की गन्ध से बड़े-बड़े हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार आपके नाम की गन्धमात्र से बड़े-बड़े प्रवादी रूपी हाथी भाग खड़े होते हैं / वे लोकोत्तम हैं, क्योंकि ज्ञानातिशय आदि असाधारण गुणों से युक्त हैं और तीनों लोकों के स्वामियों द्वारा नमस्कृत हैं, इसलिए तीनों लोकों के नाथ हैं और अधिप अर्थात् स्वामी हैं क्योंकि जो प्राणियों के योग-क्षेम को करता है, वही नाथ और स्वामी कहा जाता है / लोक के हित करने से उनका उद्धार करने से लोकहि हैं। लोक में प्रकाश और उद्योत करने से लोक-प्रदीप और लोक-प्रद्योतकर हैं। जीवमात्र को अभयदान के दाता हैं, अर्थात प्राणिमात्र पर अभया (दया और करुणा) के धारक हैं, चक्षु (नेत्र) का दाता जैसे महान् उपकारी होता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर अज्ञान रूप अन्धकार में पड़े प्राणियों को सन्मार्ग के प्रकाशक होने से चक्षु-दाता हैं और सन्मार्ग पर लगाने से मार्गदाता हैं, बिना किसी भेद-भाव के प्राणिमात्र के शरणदाता हैं, जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाने के कारण अक्षय जीवन के दाता हैं, सम्यक् बोधि प्रदान करने वाले हैं, दुर्गतियों में गिरते हुए जीवों को बचाने के कारण धर्म-दाता हैं, सद्धर्म के उपदेशक हैं, धर्म के नायक हैं, धर्मरूप रथ के संचालन करने से धर्म के सारथी हैं। धर्मरूप चक्र के चदिशाओं में और चारों गतियों में प्रवर्तन करने चातुरन्त चक्रवती हैं। प्रतिघात-रहित निराव रण श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवल-दर्शन के धारक हैं / छद्म अर्थात् आवरण और छल-प्रपंच से सर्वथा निवृत्त होने के कारण व्यावृत्तछद्म हैं—सर्वथा निर्दोष Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र हैं / विषय-कषायों को जीतने से स्वयं जिन हैं, और दूसरों के भी विषय-कषायों को छुड़ाने से और उन पर विजय प्राप्त कराने का मार्ग बताने से ज्ञापक हैं या जय-प्रापक हैं। स्वयं संसार-सागर से उत्तीर्ण हैं और दूसरों के उत्तारक हैं / स्वयं बोध को प्राप्त होने से बुद्ध हैं और दूसरों को बोध देने से बोधक हैं / स्वयं कर्मों से मुक्त हैं और दूसरों के भी कर्मों के मोचक हैं। जो सर्व जगत के जानने से सर्वज्ञ और सर्वलोक के देखने से सर्वदर्शी हैं। जो अचल, अरुज, (रोग-रहित) अनन्त, अक्षय, अव्याबाध (बाधाओं से रहित) और पुनः आगमन से रहित ऐसी सिद्ध-गति नाम के अनुपम स्थान को प्राप्त करने वाले हैं / ऐसे उन भगवान् महावीर ने यह द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक कहा है / वह इस प्रकार है-पाचाराङ्ग 1, सूत्रकृताङ्ग 2, स्थानाङ्ग 3, समवायाङ्ग 4, व्याख्याप्रज्ञप्ति-अङ्ग 5, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग 6, उपासकदशाङ्ग 7, अन्तकृतदशाङ्ग 8, अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग 9, प्रश्नव्याकरणांग 10, विपाक-सूत्रांग 11, और दृष्टिवादांग 12 / विवेचन–श्रमण भगवान महावीर ने अपनी धर्मदेशना में जिस बारह अंगरूप गणिपिटक का उपदेश दिया, उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 1. आचाराङ्ग–में साधुजनों के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, इन पांच प्रकार के आचारधर्म का विवेचन है। 2. सूत्रकृताङ्ग-में स्वमत, पर-मत और स्व-पर-मत का विवेचन किया गया है, तथा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नौ पदार्थों का निरूपण है / 3. स्थानाङ्ग–में एक से लेकर दश स्थानों के द्वारा एक-एक, दो-दो आदि की संख्या वाले पदार्थों या स्थानों का निरूपण है। 4. समवायाङ्ग–में एक, दो आदि संख्यावाले पदार्थों से लेकर सहस्रों पदार्थों के समुदाय का निरूपण है। 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति-अंग- में गणधर देव के द्वारा पूछे गये 36 हजार प्रश्नों का और भगवान् के द्वारा दिये गये उत्तरों का संकलन है। 6. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में परीषह-उपसर्ग-विजेता पुरुषों के अर्थ-गभित दृष्टान्तों एवं धार्मिक पुरुषों के कथानकों का विवेचन है। 7. उपासकदशाङ्गा-में उपासकों (श्रावकों) के परम धर्म का विधिवत् पालन करने और अन्त समय में संलेखना की आराधना करने वाले दश महाश्रावकों के चरित्रों का वर्णन है / 8. अंतकृत्दशाङ्ग-के महाघोर परीषह और उपसर्ग सहन करते हुए केवल-ज्ञानी हो अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही कर्मों का अन्त करने वाले महान् अनगारों के चरितों का वर्णन है। 9. अनुत्तरौपपातिकदशाङ्ग–में घोर-परीषह सहन कर और अन्त में समाधि से प्राण त्याग कर पंच अनुत्तर महाविमानों में उत्पन्न होने वाले अनगारों का वर्णन है। 10. प्रश्नव्याकरणाङ्ग–में स्वसमय, पर-समय, और स्व-परसमय-विषयक प्रश्नों का, मन्त्रविद्या प्रादि के साधने का और उनके अतिशयों का वर्णन है। 11. विपाकसूत्राङ्ग–में महापाप करने वाले और उसके फलस्वरूप घोर दुःख पाने वाले Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्यानक समवाय] पापी पुरुषों का, तथा महान् पुण्योपार्जन करनेवाले और उसके फलस्वरूप सांसारिक सुखों को पाने वाले पुण्यात्मा जनों का चरित्र-वर्णन है। 12. दृष्टि वादाङ्ग-में परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग और चूलिका नामक पांच महा अधिकारों के द्वारा गणितशास्त्र का, 363 अन्य मतों का, चौदह पूर्वो का, महापुरुषों के चरितों का एवं जलगता, अाकाशगता आदि पांच चलिकामों का बहुत विस्तृत विवेचन किया गया है। वस्तुतः द्वादशाङ्ग श्रुत में यह दृष्टि वाद अंग ही सबसे बड़ा है। ___ इस द्वादशांग श्रुत को 'गणिपिटक' कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे 'पिटक' पिटारी, पेटी, मंजूषा या आज के शब्दों में सन्दूक या बॉक्स में कोई भी व्यापारी अपनी मूल्यवान् वस्तुओं को सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार गणी अर्थात् साधु-साध्वी-संघ के स्वामी आचार्य का यह भगवान् के द्वादशांग श्रुतरूप अमूल्य प्रवचनों को सुरक्षित रखने वाला पिटक या पिटारा है। 2. तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिते तस्स णं अयमढे पन्नते / तं जहा उस द्वादशांग श्रुतरूप गणिपिटक में यह समवायांग चौथा अंग कहा गया है, उसका यह अर्थ इस प्रकार है विवेचन---प्रतिनियत संख्या वाले पदार्थों के सम्-सम्यक् प्रकार से अवाय-निश्चय या परिज्ञान कराने से इस अंग का 'समवाय' यह सार्थक नाम है। एकस्थानक-समवाय ३–एगे प्राया, एगे अणाया। एगे दंडे, एगे अदंडे / एगा किरिया, एगा अकिरिया। एगे लोए, एगे अलोए। एगे धम्मे, एगे अधम्मे। एगे पुण्णे, एगे पावे / एगे बंधे, एगे मोक्खे / एगे आसवे, एगे संवरे / एगा वेयणा, एगा णिज्जरा। अात्मा एक है, अनात्मा एक है, दंड एक है, अदंड एक है, क्रिया एक है, प्रक्रिया एक है, लोक एक है, अलोक एक है, धर्मास्तिकाय एक है, अधर्मास्तिकाय एक है, पुण्य एक है, पाप एक है, बन्ध एक है, मोक्ष एक है, प्रास्त्रब एक है, संवर एक है, वेदना एक है और निर्जरा एक है। विवेचन यद्यपि प्रात्मा-अनात्मा आदि (अचेतन पुद्गलादि) पदार्थ अनेक हैं, किन्तु द्रव्यार्थिक-संग्रह नय की अपेक्षा उनकी एकता उक्त मूत्रों में प्रतिपादित की गई है। इसका कारण यह है कि सभी जीव प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी जीव द्रव्य की अपेक्षा एक हैं / अथवा त्रिकाल अनुगामी चेतनत्व की अपेक्षा एक हैं। इसी प्रकार अनात्मा-आत्मा से भिन्न घट-पटादि अचेतन पदार्थ अचेतनत्व सामान्य की अपेक्षा एक हैं / दण्ड अर्थात् हिंसादि सभी प्रकार के पाप, मन, वचन, काय की खोटी प्रवृत्ति रूप हैं अतः दण्ड भी एक है / अहिंसक या प्रशस्त मन, वचन, काय की प्रवृत्तिरूप होने से अदण्ड भी एक है। इसी प्रकार क्रिया-प्रक्रिया, लोक-अलोक, धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, आस्रव-संवर, वेदना और निर्जरा इन सभी परस्पर प्रतिपक्षी या Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र सापेक्ष पदार्थों को भी संग्रह नय की अपेक्षा समान धर्मवाले होने से एक-एक जानना चाहिए / जैन सिद्धान्त में सभी कथन नयों की अपेक्षा से किया जाता है / समवायाङ्ग के इस प्रथम स्थानक में सर्व कथन संग्रह नय की अपेक्षा से एक रूप में किया गया है / ४–जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते। पालए जाणविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं पन्नत्ते / सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एग जोयणसयसहस्सं अायामविक्खंभेणं पन्नते। जम्बूद्वीप नामक यह प्रथम द्वीप पायाम (लम्बाई) और विष्कम्भ (चौड़ाई) की अपेक्षा शतसहस्र (एक लाख) योजन विस्तीर्ण कहा गया है। सौधर्मेन्द्र का पालक नाम का यान (यात्रा के समय उपयोग में आने वाला पालक नाम के अाभियोग्य देव की वित्रिया से निर्मित विमान) एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला कहा गया है। सर्वार्थ सिद्ध नामक अनुत्तर महाविमान एक लाख योजन अायाम-विष्कम्भ वाला कहा गया है / भावार्थ-जम्बूद्वीप, पालक यान-विमान और सर्वार्थ सिद्ध अनुत्तर महाविमान एक एक लाख योजन रूप समान विस्तार वाले हैं / 5- अद्दानवखत्ते एगतारे पन्नत्ते / चित्तानक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते / सातिनखत्ते एगतारे पन्नत्ते। प्रार्द्रा नक्षत्र एक तारा वाला कहा गया है। चित्रा नक्षत्र एक तारा वाला कहा गया है। स्वाति नक्षत्र एक तारा वाला कहा गया है। ६.-इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगं पलिम्रोवमं ठिई पन्नत्ता। इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं एग सागरोवमं ठिई पन्नत्ता / दोच्चाए पुढवीए नेरइयाणं जहन्नेणं एग सागरोवमं ठिई पन्नत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगं पलिप्रोवमं ठिई पन्नत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं उक्कोसेणं एगं साहियं सागरोवमं ठिई पन्नता / असुरकुमारिदवज्जियाणं भोमिज्जाणं देवाणं अत्थेगइयाणं एग पलिग्रोवमं ठिई पन्नता। असंखिज्जवासाउअसन्निपंचिदिय-तिरिक्ख-जोणियाणं अत्थेगइयाणं एवं पलिग्रोवमं ठिई पन्नत्ता। असंखिज्जवासाउय-गब्भवक्कंतियसन्निमणुयाणं अत्थेगइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नता। इसी रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों को स्थिति एक पल्योपम कही गई है। इसी रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम कही गई है / दूसरी शर्करा पृथिवी में नारकियों की जघन्य स्थिति एक सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है / असुरकुमार देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक एक सागरोपम कही गई है / असुरकुमारेन्द्रों को छोड़ कर शेष भवनवासी कितनेक देवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है / कितनेक असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है। कितनेक असंख्यात वर्षायुष्क गर्भोपक्रान्तिक संज्ञो मनुष्यों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है। ७-वाणमंतराण देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिप्रोवमं ठिई पन्नता। जोइसियाणं देवाणं उक्कोसेणं एगं पलिओवमं वाससयसहस्समन्भहियं ठिई पन्नत्ता। सोहम्मे कप्पे देवाणं जहन्नेणं एग Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विस्थानक समवाय] 17 पलिग्रोवमं ठिई पन्नत्ता। सोहम्मे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाण एग सागरोवमं ठिई पन्नत्ता / ईसाणे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगं एग पलिओवमं ठिई पन्नता। ईसाणे कप्ये देवाणं अत्थेगइयाणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता। वानव्यन्तर देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्योपम कही गई है। ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष से अधिक एक पल्योपम कही गई है। सौधर्मकल्प में देवों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम कही गई है / सौधर्मकल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम कही गई है। ईशानकल्प में देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम कही गई है। ईशानकल्प में कितनेक देवों की स्थिति एक सागरोपम कही गई है। 8 -जे देवा सागरं सुसागरं सागरकत भवं मणु माणुसोतरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववन्ना, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता। तेणं देवा एकस्स अद्धमासस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति या नीससंति वा / तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगेणं भवग्रहणणं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। जो देव सागर, सुसागर, सागरकान्त, भव, मनु मानुषोत्तर और लोकहित नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम कही गई है / वे देव एक अर्धमास में (पन्द्रह दिन में) प्रान-प्राण अथवा उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के एक हजार वर्ष में प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो एक मनुष्य भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ।एकस्थानक समवाय समाप्त। द्विस्थानक-समवाय ९-दो दंडा पन्नता / तं जहा-अद्वादंडे चेव, अणत्थादंडे चेव / दुवे रासी पण्णत्ता / तं जहा-जीवरासी चेव, अजीवरासी चेव / दुविहे बंधणे पन्नते / तं जहा--रागबंधणे चेव, दोसबंधणे चेव। दो दण्ड कहे गये हैं, जैसे—अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड / दो राशि कही गई हैं, जैसे-जीवराशि और अजीवराशि / दो प्रकार के बंधन कहे गये हैं, जैसे-रागबंधन और द्वषबंधन / विवेचन-हिंसादि पापरूप प्रवृत्ति को दंड कहते हैं / जो दंड अपने और पर के उपकार के लिए प्रयोजन-वश किया जाता है, उसे अर्थदंड कहते हैं / किन्तु जो पापरूप दंड विना किसी प्रयोजन के निरर्थक किया जाता है, उसे अनर्थदंड कहते हैं। कर्मों का बन्ध कराने वाले बन्धन रागरूप भी होते हैं और द्वेषरूप भी होते हैं / कषायों से कर्मबन्ध होता है / क्रोध और मान कषाय द्वेष रूप हैं और माया तथा लोभकषाय रागरूप हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र १०-पुवा फग्गुणी नक्खत्ते दुतारे पन्नते / उत्तराफरगुणो नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते / पुब्वाभद्दक्या नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते / उत्तराभवया नक्खत्ते दुतारे पन्नत्ते / पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र दो तारा वाला कहा गया है। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र दो तारा वाला कहा गया है / पूर्वाभाद्रपदा नक्षत्र दो तारा वाला कहा गया है और उत्तराभाद्रपदा नक्षत्र दो तारा वाला कहा गया है। ११-इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता / दुच्चाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति दो पल्योपम कही गई है। दूसरी पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति दो सागरोपम कही गई है। १२-असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता। असुरकुमारिदवज्जियाणं भोमिज्जाणं देवाणं उक्कोसेणं देसणाई दोपलिप्रोवमाइंठिई पन्नत्ता / असंक्खिज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अत्थेगइयाणं दो पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। असंखिज्जवासउयगब्भवक्कंतियसन्निचिदिय-मणुस्साणं अत्थेगइयाणं, दो पलिग्रोवमाई ठिई पन्नत्ता। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति दो पल्योपम कही गई है। असुरकुमारेन्द्रों को छोड़कर शेष भवनवासी देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ कम दो पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तियंग्योनिक कितने ही जीवों की स्थिति दो पत्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क गर्भोपक्रान्तिक पंचेन्द्रिय संशी कितनेक मनुष्यों की स्थिति दो पल्योपम कहो गई है। १३–सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता / ईसाणे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता / सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / ईसाणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साहियाइं दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहण्णणं दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। माहिदे कप्पे देवाणं जहण्णेणं साहियाई दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। सौधर्म कल्प में कितनेक देवों की स्थिति दो पल्योपम कही गई है। ईशान कल्प में कितनेक देवों की स्थिति दो पल्योपम कही गई है। सौधर्म कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम कही गई है। ईशान कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम कही गई है। सनत्कुमार कल्प में देवों की जघन्य स्थिति दो सागरोपम कही गई है। माहेन्द्रकल्प में देवों की जघन्य स्थिति कुछ अधिक दो सागरोपम कही गई है। १४--जे देवा सुभं सुभकतं सुभवणं सुभगंधं सुभलेस्सं सुभफास सोहमडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / ते णं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं दोहि वाससहस्सेहि आहार? समुपज्ज। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिस्थानक समवाय] अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दोहि भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / जो देव शुभ, शुभकान्त, शुभवर्ण, शुभगन्ध, शुभलेश्य, शुभस्पर्शवाले सौधर्मावतंसक विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम कही गई है / वे देव दो अर्धमासों में (एक मास में) पानप्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन दो देवों के दो हजार वर्ष में ग्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो दो भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // द्विस्थानक समवाय समाप्त // त्रिस्थानक-समवाय १५-तम्रो दंडा पण्णत्ता, तं जहा-मणदंडे क्यदंडे कायदंडे / तओ गुत्तीरो पन्नत्ताओ, तं जहा-मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती / तओ सल्ला पन्नत्ता / तं जहा--- मायासल्ले णं नियाणसल्ले णं मिच्छादसणसल्ले णं / तमो गारवा पन्नत्ता, तं जहा-इद्धीगारवे णं रसगारवे णं सायागारवे णं / तओ विराहणा पन्नत्ता, तं जहा-नाणविराहणा दंसणविराहणा चरित्तविराहणा। तीन दंड कहे गये हैं, जैसे—मनदंड, वचनदंड, कायदंड / तीन गुप्तियाँ कही गई हैं, जैसेमनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति / तीन शल्य कही गई हैं, जैसे-मायाशल्य, निदानशल्य, मिथ्यादर्शनशल्य / तोन गौरव कहे गये हैं, जैसे-ऋद्धिगौरव, रसगौरव, सातागौरव / तीन विराधना कही गई हैं, जैसे-ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना, चारित्रविराधना / विवेचन --जिसके द्वारा चारित्र रूप ऐश्वर्य निःसार किया जावे, उसे दंड कहते हैं। मन, वचन, काय की खोटी प्रवृत्ति के द्वारा चरित्र नष्ट होता है, अतः दंड के तीन भेद कहे गये हैं / यतः मन वचन काय की अशुभ प्रवृत्ति के रोकने को, एवं शुभ प्रवृत्ति के करने को गुप्ति कहते हैं, अतः गुप्ति के भी तीन भेद कहे गये हैं। जो शरीर में चभे हए-भीतर ही भीतर प्रविष्ट वाण आदि के समान अन्तरंग में दुःख का वेदन करावें उन्हें शल्य कहते हैं। मायाचारी की माया उसे भीतर पीड़ित करती रहती है कि कहीं मेरी माया या छल-छद्म प्रकट न हो जावे। दूसरी शल्य निदान है। देवादिक के ऋद्धि-वैभवादि को देख कर अपनी तपस्या के फलस्वरूप उनकी कामना करने को निदान कहते हैं / निदान करने वाले का चित्त सदा उन सुखादि को पाने की लालसा से निरन्तर सन्तप्त रहता है, इसलिए निदान को भी शल्य कहा है। तीसरी शल्य मिथ्यादर्शन है। इसके प्रभाव से जीव सदा ही परवस्तुओं को प्राप्त करने की अभिलाषा से बेचैन रहता है। पर-वस्तु की चाह करना मिथ्यादर्शन है इसीलिए इसे शल्य कहा गया है। अभिमान, लोभ आदि के द्वारा अपनी आत्मा को गुरु या भारी बनाने को गौरव कहते हैं। ऋद्धि-वैभवादि के द्वारा अपने को गौरवशाली मानना ऋद्धिगौरव कहलाता है / घी, दूध, मिष्ट आदि रसों के खाये विना मैं नहीं रह सकता, अत: उनके खाने-पीने में गौरव का Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [समवायाङ्गसूत्र अनुभव करना, उनके प्राप्त होने से अभिमान करना रसगौरव कहलाता है। मेरे से ये परीषहउपसर्गादि नहीं सहे जाते, मैं शीत-उष्ण की बाधा नहीं सह सकता, इत्यादि प्रकार से अपनी सुखशीलता को प्रकट करना या साता प्राप्त होने पर अहंकार करना सातागौरव है / ज्ञान, दर्शन और मोक्ष के मार्ग हैं, उनकी विराधना करने से विराधना के भी तीन भेद हो जाते हैं। १६-मिगसिरनवखत्ते तितारे पन्नत्ते / पुस्सनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते / जेद्वानवखत्ते तितारे पन्नत्ते / अभीइनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते / सवणनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते। अस्सिणिनक्खत्ते तितारे पन्नत्ते / भरणीनक्खत्ते तितारे पन्नते। मृगशिर नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। पुष्य नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है / ज्येष्ठा नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है / अभिजित् नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है / श्रवण नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। अश्विनी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। भरणी नक्षत्र तीन तारावाला कहा गया है। १७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं रइयाणं तिणि पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता / दोच्चाए णं पुढवीए रइयाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / तच्चाए णं पुढवीए रइयाणं जहण्णणं तिण्णि सागरोवमाइं ठिई पन्नता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है / दूसरी शर्करा पृथिवी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है / तीसरी वालुका पृथिवी में नारकियों की जघन्य स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। १८-असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तिणि पलिओवमाई ठिई पन्नता। असंखिज्जवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिग्णि पलिग्रोवमाडं ठिई पन्नत्ता। असंखिज्जवासाउयसन्निगब्भवक्कंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिणि पलिनोवमाइं ठिई पन्नत्ता। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। असंख्यात वर्षायुष्क संज्ञी गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम कही गई है। १९-सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं तिणि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। जे देवा आभंकरं पभंकरं आभंकर-पभंकरं चंदं चंदावत्तं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्झयं चंदसिंग चंदसिटुं चंदकडं चंदुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाइं ठिई पन्नता, ते गं देवा तिण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति बा, नीससंति वा, तेसि णं देवाणं तिहि वाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहहिं सिज्झिस्संति, बुज्झिस्संति, मुच्चिस्संति, परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तीन सागरोपम कही गई है। जो देव Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुःस्थानक समवाय ] आभंकर, प्रभंकर, प्राभंकर-प्रभंकर, चन्द्र, चन्द्रावर्त, चन्द्रप्रभ, चन्द्रकान्त, चन्द्रवर्ण, चन्द्रलेश्य, चन्द्रध्वज, चन्द्रशृग, चन्द्रसुष्ट, चन्द्रकट और चन्द्रोत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम कही गई है / वे देव तीन अर्धमासों में (डेढ़ मास में) प्रान-प्राण अर्थात् उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों को तीन हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीन भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // त्रिस्थानक समवाय समाप्त // चतु:स्थानक-समवाय २०-चत्तारि कसाया पन्नता, तं जहा--कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए / चत्तारि झाणा पन्मत्ता, तं जहा—अदृज्झाणे रुद्दज्झाणे धम्मज्झाणे सुक्कज्झाणे। चत्तारि विकहाओ प्रो. तं जहा-इथिकहा भत्तकहा रायकहा देसकहा / चत्तारि सण्णा पन्नता, तं जहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा / चउविहे बंधे पन्नत्ते, तं जहा-पगइबंधे ठिइबंधे अणुभावबंधे पएसबंधे / चउगाउए जोयणे पन्नते। चार कषाय कहे गये हैं-क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय, लोभकषाय / चार ध्यान कहे गये हैं --प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान / चार विकथाएं कही गई हैं / जैसे-- स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, देशकथा / चार संज्ञाएं कही गई हैं। जैसे-पाहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा / चार प्रकार का बन्ध कहा गया है। जैसे-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभावबन्ध, प्रदेशबन्ध / चार गव्यूति का एक योजन कहा गया है। विवेचन-जो आत्मा को कसे, ऐसे संसार बढ़ाने वाले विकारी भावों को कषाय कहते हैं। चित्त को एकाग्रता को ध्यान कहते हैं / यह एकाग्रता जब इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोगादि के होने पर उनके दूर करने के रूप में होती है, तब उसे प्रार्तध्यान कहते हैं। जब वह एकाग्रता हिंसादि पाप करने में होती है, तब उसे रौद्रध्यान कहते हैं / जब वह एकाग्रता जिन-प्रवचन के प्रचार, दया, दान, परोपकार ग्रादि करने में होती है, तब उसे धर्म्यध्यान कहते हैं और जब यह एकाग्रता सर्वशुभ-अशुभ भावों से निवत्त होकर एकमात्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थिरता रूप होती है, तब उसे शूक्लध्यान कहते हैं / शुक्लध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण है और धर्म्यध्यान परम्परा कारण है / आर्तध्यान और रौद्रध्यान संसार-बन्धन के कारण हैं। राग-द्वेषवर्धक निरर्थक कथाओं को विकथा कहते हैं। इन्द्रियों की विषय-प्रवृत्ति को संज्ञा कहते हैं। कर्मों के स्वभाव, स्थिति, फल-प्रदानादि रूप से प्रात्मा के साथ संबद्ध होने को बंध कहते हैं / प्रस्तुत सूत्रों में इनके चार-चार भेदों को गिनाया गया है। चार कोश या गव्यूति को योजन कहते हैं। 21-- अणुराहानक्खत्ते चउत्तारे पन्नत्ते, पुन्धासाढानक्खत्ते चउत्तारे पन्नत्ते / उत्तरासादानक्खत्ते चउत्तारे पन्नते। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [समवायाङ्गसूत्र अनुराधा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है। पूर्वाषाढा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है / उत्तराषाढा नक्षत्र चार तारावाला कहा गया है। २२–इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता / तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं चत्तारि पलिनोवमाइं ठिई पानत्ता / सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिश्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चार सागरोपम कही गई है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। सौधर्म-ईशानकल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार पल्योपम की है। २३-सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / जे देवा किट्टि सुकिट्रि किट्टियावत्तं किट्रिप्पभं किद्विजुत्तं किट्टिवणं किट्टिलेस किट्टिज्झयं किदिसिंग किट्टिसिट्ठ किटिकूडं किठ्ठत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववष्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। ते णं देवा चउण्हं अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा / तेसि देवाणं चहि वाससहस्सेहि आहार? समुप्पज्जइ। ___ अत्थेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चार सागरोपम है। इन कल्पों के जो , सुकृष्टि, कृष्टि-ग्रावर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, कृष्टिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिशृग, कृष्टिसृष्ट, कृष्टिकूट, और कृष्टि-उत्तरावतंसक नाम वाले विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपम कही गई है। वे देव चार अर्धमासों (दो मास) में प्रान-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं / उन देवों के चार हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य-सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चार भवग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // चतुःस्थानक समवाय समाप्त // पंचस्थानक-समवाय 25 –पंच किरिया पन्नत्ता, तं जहा-काइया अहिंगरणिया पाउसिया पारितावणिआ पाणाइवायकिरिया। पंच महव्वया पन्नत्ता, तं जहा-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वानो अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं / देव कृष्टि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचस्थानक समवाय] . क्रियाएं पांच कही गई हैं। जैसे - कायिकी क्रिया, प्राधिकरणिकी क्रिया, प्राद्वेषिकी क्रिया, पारितापनिकी क्रिया, प्राणातिपात क्रिया। पांच महाव्रत कहे गये हैं। जैसे—सर्व प्राणातिपात से विरमण, सर्वमृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व मैथुन से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण / विवेचन–मन वचन काय के व्यापार-विशेष को क्रिया कहते हैं। शरीर से होने वाली चेष्टा को कायिकी क्रिया कहते हैं। हिंसा के अधिकरण खङ्ग, भाला, बन्दूक आदि के निर्माण प्रादि करने की क्रिया को प्राधिकरणिकी क्रिया कहते हैं / प्रद्वेष या मत्सरभाव वाली क्रिया को प्राद्वेषिकी क्रिया कहते हैं। प्राणियों को ताड़न-परितापन प्रादि पहुंचाने वाली क्रिया को पारितापनिकी क्रिया कहते हैं / जीवों के प्राण-घात करने वाली क्रिया को प्राणातिपातिकी क्रिया कहते हैं। सर्व प्रकार की हिंसा का त्याग करना पहला महाव्रत है / सर्व प्रकार के असत्य बोलने का त्याग करना दूसरा महावत है / सर्व प्रकार के प्रदत्त का त्याग करना अर्थात् बिना दी हुई किसी भी वस्तु का ग्रहण नहीं करना तीसरा महावत है / देव, मनुष्य और पशु सम्बन्धी सर्व प्रकार के मैथुन-सेवन का त्याग करना चौथा महाव्रत है / सभी प्रकार के परिग्रह (ममत्व) का त्याग करना पांचवां महाव्रत है / 26 - पंच कामगुणा पन्नत्ता, तं जहा. - सद्दा रूवा रसा गंधा फासा। पंच आसवदारा पन्नता, तं जहा-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा। पंच संवरदारा पन्नत्ता, तं जहा-सम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया। पंच णिज्जरट्ठाणा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं, मुसावायाओ वेरमणं, अदिन्नादाणाओ वेरमणं, मेहुणाओ वेरमणं, परिग्गहाओ वेरमणं / पंच समिईओ पन्नत्ताओ, तं जहा-ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई, उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्लपारिट्ठावणियासमिई। इन्द्रियों के विषयभूत कामगुण पांच कहे गये हैं / जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द, चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप, रसनेन्द्रिय का विषय रस, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध और स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श। कर्मबंध के कारणों को प्रास्रवद्वार कहते हैं। वे पांच हैं / जैसे---मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग / कर्मों का प्रास्रव रोकने के उपायों को संवरद्वार कहते हैं। वे भी पांच कहे गये हैं—सम्यक्त्व, विरति, अप्रमत्तता अकषायता और अयोगता या योगों की प्रवृत्ति का निरोध / संचित कर्मों की निर्जरा के स्थान, कारण या उपाय पांच कहे गये हैं / जैसे-प्राणातिपात-विरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादान-विरमण, मैथन-विरमण, परिग्रह-विरमण / संयम की साधक प्रवत्ति या यतनापूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। वे पांच कही गई हैं--गमनागमन में सावधानी रखना ईर्यासमिति है। वचन-बोलने में सावधानी रखकर हित मित प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है। गोचरी में सावधानी रखना और निर्दोष, अनुद्दिष्ट भिक्षा ग्रहण करना एषणासमिति है / संयम के साधक वस्त्र, पात्र, शास्त्र आदि के ग्रहण करने और रखने में सावधानी रखना आदानभांड-मात्र निक्षेपणा समिति है। उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), श्लेष्म (कफ), सिंघाण (नासिकामल) और जल्ल (शरीर का मैल) परित्याग करने में सावधानी रखना पांचवीं प्रतिष्ठापना समिति है। २७—पंच अस्थिकाया पन्नत्ता, तं जहा -धम्मस्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र पाच अस्तिकाय द्रव्य कहे गये हैं। जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / विवेचन-बहुप्रदेशी द्रव्य को अस्तिकाय कहते हैं / स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन करने में सहकारी द्रव्य को धर्मास्तिकाय कहते हैं / स्वयं ठहरनेवाले जीव और पुद्गलों के ठहरने में सहकारी द्रव्य को अधर्मास्तिकाय कहते हैं / सर्व द्रव्यों को अपने भीतर अवकाश प्रदान करने वाले द्रव्य को प्राकाशास्तिकाय कहते हैं / चैतन्य गुण वाले द्रव्य को जीवास्तिकाय कहते हैं। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाले द्रव्य को पुद्गलास्तिकाय कहते हैं / इनमें से प्रारम्भ के दो द्रव्य असंख्यात प्रदेश वाले हैं। आकाश अनन्तप्रदेशी है / एक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं। पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। २८-रोहिणीनवखत्ते पंचतारे पन्नत्ते / पुणव्वसुनक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते / हत्थनक्खत्ते पंचतारे पन्नते, विसाहानक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते, धणिट्ठानक्खत्ते पंचतारे पन्नत्ते / रोहिणी नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है। पुनर्वसु नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है / हस्त नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है / विशाखा नक्षत्र पांच तारावाला कहा गया है, धनिष्ठा नक्षत्र पांच तारावाला कहा २९-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच पलिओव माई ठिई पन्नत्ता / तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं पंच पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं / पंच पलिओवमाइंठिई पन्नत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पांच पल्योपम कही गई है। तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पांच सागरोपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पांच पल्योपम कही गई है। ३०–सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वायप्पभं वायकंतं वायवण्णं वायलेसं वायज्झयं वायसिंगं वायसिह्र वायकूडं वाउत्तरडिसगं सूरं सुसूरं सूरावत्तं सूरप्पभं सूरकंतं सूरवण्णं सूरलेसं सूरज्झयं सूरसिंग सूरसिठं सूरकडं सूरुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पंच सागरोवमाइं ठिई पन्नत्ता / ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं पंचहि वाससहस्सेहिं आहारठे समुप्पज्जइ। ___ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहि भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पांच सागरोपम कही गई है / जो देव वात, सुवात, वातावर्त, वातप्रभ, वातकान्त, वातवर्ण, वातलेश्य, वातध्वज, वातशृग, वातसृष्ट, वातकूट, वातोत्तरावतंसक, सूर, सुसूर, सूरावर्त, सूरप्रभ, सूरकान्त, सूरवर्ण, सूरलेश्य, सूरध्वज, सूरशृग, सूरसृष्ट, सूरकूट और सूरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्स्थानक समवाय] [15 देवों की उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम कही गई है / वे देव पांच अर्धमासों (ढाई मास) में उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों को पांच हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक ऐसे जीव हैं जो पांच भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // पंचस्थानक समवाय समाप्त / / पदस्थानक-समवाय ३१-छ लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा। छ जीवनिकाया पण्णत्ता, तं जहा--पुढवीकाए पाऊकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए / छविहे बाहिरे तबोकम्मे पण्णते, तं जहा-अणसणे ऊणोयरिया वित्तीसंखेवो रसपरिच्चाओ कायकिलेसो संलोणया / छविहे भितरे तवोकम्मे पण्णत्ते, तं जहा-पायच्छित्तं विणओ वेयावच्वं सज्झाओ झाग उस्सग्गो। छह लेश्याएं कही गई हैं / जैसे—कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या। विवेचन -तीव्र-मन्द आदि रूप कषायों के उदय से, कृष्ण आदि द्रव्यों के सहकार से प्रात्मा की परिणति को लेश्या कहते हैं / कषायों के अत्यन्त तीव्र उदय होने पर जो अतिसंक्लेश रूप रौद्र परिणाम होते हैं, उन्हें कृष्णलेश्या कहते हैं / इससे उतरते हुए संक्लेशरूप जो रौद्र परिणाम होते हैं, उन्हें नीललेश्या कहते हैं। इससे भी उतरते हुए प्रार्तध्यान रूप परिणामों को कापोतलेश्या कहते हैं। कषायों का मन्द उदय होने पर दान देने और परोपकार प्रादि करने के शूभ परिणामों को तेजोलेश्या कहते हैं / कषायों का और भी मन्द उदय होने पर जो विवेक, प्रशम भाव, संवेग आदि जागृत होते हैं, उन परिणामों को पद्मलेश्या कहते हैं / कषायों का सर्वथा मन्द उदय होने पर जो निर्मलता पाती है, उसे शुक्ललेश्या कहते हैं / मनुष्य और तिथंच जीवों में अन्तर्मुहर्त के भीतर ही भावलेश्याओं का परिवर्तन होता रहता है। किन्त देव और नारक जीवों की लेश्याएं अवस्थित रहती हैं। फिर भी वे अपनी सीमा के भीतर उतार-चढ़ाव रूप होती रहती हैं। शरीर के वर्ण को द्रव्यलेश्या कहते हैं। इसका भावलेश्या से कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है। (संसारी) जीवों के छह निकाय (समुदाय) कहे गये हैं / जैसे—पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। छह प्रकार के बाहिरी तपःकर्म कहे गये हैं / जैसे--अनशन, ऊनोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसपरित्याग, कायक्लेश और संलीनता / छह प्रकार के प्राभ्यन्तर तप कहे गये हैं / जैसे—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग / विवेचन-छह जीवनिकायों में से आदि के पांच निकाय स्थावरकाय और एकेन्द्रिय जीव हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य और देवगति नरकगति के जीव त्रसकाय कहे जाते हैं। जिन तपों से बाह्य शरीर के शोषण-द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है, उन्हें बाह्य तप कहते हैं। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र यावज्जीवन या नियतकाल के लिए चारों प्रकार के प्राहार का त्याग करना अनशन तप है। भूख से कम खाना ऊनोदर्य तप है। गोचरी के नियम करना और विविध प्रकार के अभिग्रह स्वीकार करना वत्तिसंक्षेप तप है। छह प्रकार के रसों का या एक, दो आदि रसों का त्याग करना रस-परित्याग तप है / शीत, उष्णता की बाधा सहना, नाना प्रकार के आसनों से अवस्थित रह कर शरीर को कृश करना कायक्लेश तप है / एकान्त स्थान में निवास कर अपनी इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकना संलीनता तप है। भीतरी मनोवृत्ति के निरोध द्वारा जो कर्मों की निर्जरा का साधन बनता है, उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं / अज्ञान, प्रमाद या कषायवेश में किये हुए, अपराधों के लिए पश्चात्ताप या यथायोग्य तपश्चर्या आदि करना प्रायश्चित्त तप है। अहंकार और अभिमान का त्याग कर विनम्र भाव रखना विनय तप है। गुरुजनों की भक्ति करना, रुग्ण होने पर सेवा-टहल करना और उनके द करना वैयावृत्त्य तप है। शास्त्रों का वाँचना, पढ़ना, सुनना, उसका चिन्तन करना और धर्मोपदेश करना स्वाध्याय तप है / आर्त और रौद्र विचारों को छोड़कर धर्म-अध्यात्म में मन की एकाग्रता करने को ध्यान कहते हैं। बाहिरी शरीरादि के और भीतरी रागादि भावों के परित्याग को व्युत्सर्गतप कहते हैं / बाह्य तप अन्तरंग तपों की वृद्धि के लिए किए जाते हैं और बाह्य तपों की अपेक्षा अन्तरंग तप असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा के कारण होते हैं। ३२--छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा—वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए मारणंतिअसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्धाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्धाए। छह छाअस्थिक समुद्घात कहे गये हैं—जैसे वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात, तैजस समुद्घात और पाहारक-समुद्धात / विवेचन-केवलज्ञान होने के पूर्व तक सब जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थों के समुद्घात को छानस्थिक समुद्धात कहा गया है। किसी निमित्त से जीव के कुछ प्रदेशों के बाहिर निकलने को समुदघात कहते हैं। समुदघात के सात भेद पागम में बताये गये हैं। उनमें केवलि-समुदघात को छोड़कर शेष छह समुद्धात छमस्थ जीवों के होते हैं। वेदना से पीड़ित होने पर जीव के कुछ प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना-समुद्घात है। क्रोधादि कषाय की तीव्रता के समय कुछ जीव-प्रदेशों का बाहर निकलना कषायसमुद्घात है। मरण होने से पूर्व कुछ जीवप्रदेशों का बाहर निकलना मारणान्तिकसमुद्घात है / देवादि के द्वारा उत्तर शरीर के निर्माण के समय या अणिमा-महिमादि विक्रिया के समय जीव प्रदेशों का फैलना वैक्रिय-समुद्घात है। तेजोलब्धि का प्रयोग करते हुए जीवप्रदेशों का बाहर निकालना तेजससमुद्धात है / चतुर्दश पूर्वधर महामुनि के मन में किसी गहन तन्व के विषय में शंका होने पर और उस क्षेत्र में केवली का अभाव होने पर केवली भगवान के समीप जाने के लिए मस्तक से जो एक हाथ का पूतला निकलता है, उसे आहारक-समुदघात कहते हैं। वह पुतला केवली र उन मुनि के शरीर में वापिस प्रविष्ट हो जाता है और उनकी शंका का समाधान हो जाता है। उक्त सभी समुद्घातों का उत्कृष्ट काल एक अन्तर्मुहूर्त ही है और उक्त समुद्घातों के समय बाहर निकले हुए प्रदेशों का मूल शरीर से बराबर सम्बन्ध बना रहता है। ३३.--छविहे अत्थुग्गहे पण्णते, तं जहा-सोइंदियअत्थुम्गहे चक्खुइंदियअत्थुग्गहे घाणिदियअत्थग्गहे जिभिदियप्रत्थुग्गहे फासिदियअत्थुग्गहे नोइंदियअत्युग्गहे / Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटस्थानक समवाय] [17 अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, जिह्वन्द्रिय-अर्थावग्रह, स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह / विवेचन -किसी पदार्थ को जानने के समय दर्शनोपयोग के पश्चात् जो अव्यक्त रूप सामान्य बोध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। उसके तत्काल बाद जो अर्थ का ग्रहण या वस्तु का सामान्य ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं / यह अर्थावग्रह श्रोत्र आदि पांच इन्द्रियों से और नोइन्द्रिय अर्थात् मन से उत्पन्न होता है, अत: उसके छह भेद हो जाते हैं। किन्तु व्यजनावग्रह चार प्रकार का ही होता है, क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय और मन से नहीं होता क्योंकि यह दोनों अप्राप्यकारी हैं, इनका ग्राह्य पदार्थ के साथ संयोग नहीं होता है। अर्थावग्रह के पश्चात् ही ईहा, अवाय आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं। ३४–कत्तियाणक्खत्ते छतारे पण्णत्ते / असिलेसानखत्ते छतारे पण्णत्ते / कृत्तिका नक्षत्र छह तारा वाला कहा गया है / प्राश्लेषा नक्षत्र छह तारा वाला कहा गया है। 35.- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाण छ पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। तच्चाए णं पुढवीए प्रत्येगइयाणं नेरइयाणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अस्थेगइयाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। तीसरी बालुका प्रभा पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुर कुमारों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। सौधर्म ईशान कल्पों में कितने देवों की स्थिति छह पल्योपम कही गई है। ३६-सणंकुमार-माहिदेसु [कप्पेसु] अत्थेगइयाणं देवाणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा सयंभुसयंभुरमणं घोसं सुघोसं महाघोस किट्रिघोसं वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं वीराक्तं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवण्णं वीरलेसं वीरज्झयं वीरसिंग वीरसिळं वोरकूडं वीरुत्तरडिसंगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसिं गं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / तेणं देवा छण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पागसंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा, सि णं देवाणं हि वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुपज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति छह सागरोपम कही गई है। उनमें जो देव स्वयम्भू, स्वम्भूरमण, घोष, सुघोष, महाघोष, कृष्टिघोष, वीर, सुवीर, वीरगत, वीरश्रेणिक, वीरावर्त, वीरप्रभ, वीरकांत, वीरवर्ण, वीरलेश्य, वीरध्वज, वीरग, वीरसृष्ट, वीरकूट और वोरोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [समवायाङ्गसूत्र स्थिति छह सागरोपम कही गई है। वे देव छह अर्धमासों (तीन मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के छह हजार वर्षों के बाद अाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे / ॥षस्थानक समवाय समाप्त / / सप्तस्थानक-समवाय ३७-सत्त भयदाणा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए प्राजीवभए मरणभए असिलोगभए / सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा---वेयणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्धाए वेउब्वियसमुग्घाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्घाए केवलिसमुग्घाए / सात भयस्थान कहे गये हैं। जैसे—इहलोकभय, परलोकभय, प्रादानभय, अकस्मात् भय, आजीवभय, मरणभय और अश्लोकभय / सात समुद्घात कहे गये हैं, जैसे-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिक-समुद्धात वैक्रियसमुद्घात, आहारकसमुद्घात और केव लिसमुद्घात / विवेचन—सजातीय जीवों से होने वाले भय को इहलोकभय कहते हैं, जैसे--मनुष्य को मनुष्य से होने वाला भय / विजातीय जीवों से होने वाले भय को परलोकभय कहते हैं। जैसेमनुष्य को पशु से होने वाला भय / उपाजित धन की सुरक्षा का भय आदानभय कहलाता है / बिना किसी बाह्य निमित्त के अपने ही मानसिक विकल्प से होने वाले भय को अकस्मात्भय कहते हैं। जीविका सम्बन्धी भय को आजीवभय कहते हैं / मरण के भय को मरणभय कहते हैं अश्लोक का अर्थ है-निन्दा या अपकीत्ति / निन्दा या अपकीत्ति के भय को अश्लोकभय कहते हैं / समुद्घात के छह भेदों का स्वरूप पहले कह पाये हैं / केवलीभगवान् के वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म की स्थिति को आयुकर्म की शेष रही अन्तर्मुहूर्त प्रमाणस्थिति के बराबर करने के लिए जो दंड, कपाट, मन्थान और लोकपूरण रूप आत्म-प्रदेशों का विस्तार होता है, उसे केवलिसमुद्घात कहते हैं / ३८-समणे भगवं महाबीरे सत्त रयणीयो उड्ढं उच्चत्तेण होत्था। श्रमण भगवान् महावीर सात रत्नि-हाथ प्रमाण शरीर से ऊंचे थे। ३९–इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपव्वया पण्णता, तं जहा-चुल्लहिमवंते महाहिमवंते निसढे नीलवंते रुप्पी सिहरी मन्दरे / इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासा पण्णता, तं जहा - भरहे हेमवते हरिवासे महाविदेहे रम्मए एरण्णवए एरवए / इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सात वर्षधर पर्वत कहे गये हैं। जैसे—क्षुल्लक हिमवंत, महाहिमवंत, निषध, नोलवंत, रुक्मी, शिखरी और मन्दर (सुमेरु पर्वत)। इस जंबूद्वीप नामक द्वीप में सात क्षेत्र कहे गये हैं। जैसे---भरत, हैमवत, हरिवर्ष, महाविदेह, रम्यक, ऐरण्यवत और ऐरवत / ४०-खोणमोहेणं भगवया मोहणिज्जवज्जाओ सत्त कम्पपगडीओ वेए (ज्ज) ई। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तस्थानक समवाय ] [ 19 बारहवें गुणस्थानवर्ती क्षीणमोह वीतराग मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का वेदन करते हैं। ४१-महानक्खत्ते सत्ततारे पण्णत्ते। कत्तिआइआ सत्तनक्खता पूव्वदारिआ पणत्ता / [पाठा० अभियाइया सत्त नक्खत्ता] महाइया सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिआ पण्णत्ता / अणुराहाइआ सत नक्खत्ता अवरदारिआ पण्णत्ता / धणिट्ठाइया सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिमा पपणत्ता। मघानक्षत्र सात तारावाला कहा गया है। कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा की ओर द्वारवाले कहे गये हैं। पाठान्तर के अनुसार-अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं / मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं। अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं। धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा की ओर द्वार वाले कहे गये हैं। 42- इमीसे णं रयणप्पभाए युढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्त पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। चउत्थोए णं पुढवीए नेरइयाणं जहण्णणं सत्त सागरोवमाई ठिई पग्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्त पलिप्रो. वमाई ठिई पण्णता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / सणंकुमारे कप्पे प्रत्येगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / माहिदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है / तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई है। चौथी पंकप्रभा पृथिवी में नारकियों की जघन्य स्थिति मात मागरोपम कही गई है। कितनेक असुर कुमार देवों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सात पल्योपम कही गई है। सनत्कुमार कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई है। माहेन्द्र कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम कही गई है। 43 -बंभलोए कप्पे अत्यंगइयाणं देवाणं सत्त साहिया सागरोवमाइं ठिई पण्णता / जे देवा समं समप्पभं महापभं पभासं भासुरं विमलं कंचणकूडं सणंकुमारडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई पणत्ता। ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा, पागमति वा, ऊससंति वा, नोससंति वा, तेसि गं देवाणं सहि वाससहस्सेहि आहारट्ठ समुप्पज्जा। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे णं सत्तहिंभवगहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / ब्रह्मलोक में कितनेक देवों को स्थिति कुछ अधिक सात सागरोपम कही गई है / उनमें जो देव सम, समप्रभ, महाप्रभ, प्रभास, भासुर, विमल, कांचनकूट और सनत्कुमारावतसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति सात सागरोपम कही गई Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] [ समवायाङ्गसूत्र है / वे देव सात अर्धमासों (साढ़े तीन मासों) के बाद प्राण-प्राण-उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं / उन देवों को सात हजार वर्षों के बाद ग्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। . कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सात भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / / सप्तस्थानक समवाय समाप्त // अष्टस्थानक-समवाय ४४–अढ मयट्ठाणा पण्णता, तं जहा-जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुयमए लाभमए इस्सरियमए / अट्ठ पवयणमायाओ पण्णत्तानो, तं जहा ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई प्रायाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिई उच्चार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणपारिट्ठावणियासमिई मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती / पाठ मदस्थान कहे गये हैं। जैसे-जातिमद (माता के पक्ष की श्रेष्ठता का अहंकार), कुलमद (पिता के वंश की श्रेष्ठता का अहंकार), बलमद, रूपमद, तपोमद, श्रुतमद (विद्या का अहंकार) लाभमद और ऐश्वर्यमद (प्रभुता का अभिमान)। पाठ प्रवचन-माताएं कही गई है। जैसेईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-भांड-मात्र निक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल सिंघाण-परिष्ठापनासमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति / विवेचन-मनुष्य जिन स्थानों या कारणों से अहंकार या अभिमान करता है उनको मदस्थान कहा जाता है / वे पाठ हैं। विभिन्न कलाओं की प्रवीणता या कुशलता का मद भी होता है, उसे श्रुतमद के अन्तर्गत जानना चाहिए। प्रवचन का अर्थ द्वादशाङ्ग गणिपिटक और उसका अाधारभूत संघ है / जैसे माता बालक की रक्षा करती है, उसी प्रकार पांच समितियां और तीन गुप्तियां द्वादशाङ्ग प्रवचन की और संघ की, संघ के संयमरूप धर्म की रक्षा करती हैं, इसलिए उनको प्रवचनमाता कहा जाता है। ४५–वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। जंबू णं सुदंसणा अटु जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। कूडसामली णं गरुलावासे अट्ठ जोयणाई उद उच्चत्तेणं पण्णते / जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। वानव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष पाठ योजन ऊंचे कहे गये हैं। (उत्तरकुरु में स्थित पाथिव) जंवूनामक सुदर्शन वृक्ष पाठ योजन ऊंचा कहा गया है। (देवकुरु में स्थित) गरुड का प्रावासभूत पार्थिव कूटशाल्मली वृक्ष पाठ योजन ऊंचा कहा गया है। जम्बूद्वीप की जगती (प्राकार के समान पाली) पाठ योजन ऊंची कही गई है। ४६-अट्ठसामइए केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते, तं जहा.- पढमे समए दंडं करेइ, बोए समए कवाडं करेइ, तइयसमए मंथं करेइ, चउत्थे समए मंथंतराई पूरेइ, पंचमे समए मंयंतराई पडिसाहरइ, छ? समए मंथं पडिसाहरइ / सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरइ / ततो पच्छा सरीरस्थे भवइ। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टस्यानक समवाय] [21 केवलि समुद्घात पाठ समयवाला कहा गया है जैसे--- के बली भगवान् प्रथम समय में दंड समुद्घात करते हैं, दूसरे समय में कपाट समुद्घात करते हैं, तीसरे समय में मन्थान समुद्घात करते हैं, चौथे समय में मन्थान के अन्तरालों को पूरते हैं, अर्थात् लोकपुरण समुद्घात करते हैं / पांचवें समय में मन्थान के अन्तराल से प्रात्मप्रदेशों का प्रतिसंहार (संकोच) करते हैं, छठे समय में मन्थानसमुद्घात का प्रतिसंहार करते हैं, सातव समय में कपाट समुद्घात का प्रतिसंहार करते हैं और आठवें समय में दंडसमुद्घात का प्रतिसंहार करते हैं। तत्पश्चात् उनके आत्म-प्रदेश शरोरप्रमाण हो जाते हैं। ४७-पासस्स णं अरहनो पुरिसादाणिअस्स अट्ट गणा अट्ठ गणहरा होत्था, तं जहा--- सुभे य सुभघोसे य वसिठे बंभयारि य। सोमे सिरिधरे चेव वीरभद्दे जसे इ य // 1 // पुरुषादानीय अर्थात पुरुषों के द्वारा जिनका नाम अाज भी श्रद्धा और पादार-पूर्वक स्मरण किया जाता है, ऐसे पार्श्वनाथ तीर्थकर देव के पाठ गण और पाठ गणधर थे। जैसे-शुभ, शुभघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यश // 1 // 48 -अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सद्धि पमई जोगं जोएंति, तं जहा-कत्तिया 1, रोहणी 2, पुणव्वसू 3, महा 4, चित्ता 5, विसाहा 6, अणुराहा 7, जेट्ठा 8 / आठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ प्रमर्द योग करते हैं। जैसे—कृत्तिका 1, रोहिणी 2, पुनर्वसु 3, मघा 4, चित्रा 5, विशाखा 6, अनुराधा, 7, और ज्येष्ठा 8 / विवेचन-जिस समय चन्द्रमा उक्त पाठ नक्षत्रों के मध्य से गमन करता है, उस समय उसके उत्तर और दक्षिण पार्श्व से उनका चन्द्रमा के साथ जो संयोग होता है, वह प्रमर्दयोग कहलाता है। 49 --इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ट पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठ पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पाठ पल्योपम कही गई है। चौथी पंकप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पाठ सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति आठ पल्योपम कही है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पाठ पल्योपम कही गई है। 50- बंभलोए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा अच्चि 1, अच्चिमालि 2, वइरोयणं 3, पभंकरं 4, चंदाभं 5, सूराभं 6, सुपइट्राभं 7, अग्गिच्चाभं 8, रिट्ठाभ 9, अरुणाभं 10, अणुत्तरडिसगं 11, विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा अट्टण्हं अद्धमासाणं प्राणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नोससंति वा / तेसि णं देवाणं अहि वाससहस्सेहि आहारट्टे समुप्पज्जइ / Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [समवायाङ्गसूत्र ___ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। वहां जो देव प्रचि 1, अचिमाली 2, वैरोचन 3, प्रभंकर 4, चन्द्राभ 5, सूराभ६, मुप्रतिष्ठाभ 7, अग्नि-प्राभ 8, रिष्टाभ 9, अरुणाभ 10, और अनुत्तरावतंसक 11, नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति आठ सागरोपम कही गई है। वे देव पाठ अर्धमासों (पखवाड़ों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों के पाठ हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव आठ भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और र का अन्त करेंगे। // अष्टस्थानक समवाय समाप्त / / नवस्थानक-समवाय 51 ---नव बंभचेरगुत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- नो इत्थि-पसु-पंडगसंसत्ताणि सिज्जासणाणि सेवित्ता भवइ 1, नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ 2, नो इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवइ 3, नो इत्थीणं इंदियाणि मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ 4, नो पणीयरसभोई भवइ 5, नो पाणभोयणस्स अइमायाए प्राहारइत्ता भवइ 6, नो इत्थीणं पुश्वरयाई पुवकोलिआई समरइत्ता भवइ 7, नो सदाणुवाई, नो रूवाणुवाई, नो गंधाणुवाई, नो रसाणुवाई, नो फासाणुवाई, नो सिलोगाणुवाई भवइ 8, नो सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ 9 / / ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियां (संरक्षिकाएं) कही गई हैं। जैसे--स्त्री, पशु और नपुसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन नहीं करना 1, स्त्रियों की कथानों को नहीं कहना 2. स्त्रीगणों का उपासक नहीं होना 3, स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों और रमणीय अंगों का द्रष्टा और ध्याता नहीं होना 4, प्रणीत-रस-बहुल भोजन का नहीं करना 5, अधिक मात्रा में खान-पान या ग्राहार नहीं करना 6, स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण नहीं करना 7, कामोद्दीपक शब्दों को नहीं सुनना, कामोद्दीपक रूपों को नहीं देखना, कामोद्दीपक गन्धों को नहीं सूघना, कामोद्दीपक रसो का स्वाद नहीं लेना, कामोद्दीपक कोमल मदुशय्यादि का स्पश नहीं सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुख में प्रतिबद्ध (पासक्त) नहीं होना 9 / / विवेचन--ब्रह्मचारी पुरुषों को अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए उक्त नौ प्रकार के कार्यों का सेवन नहीं करना चाहिए, तभी उनके ब्रह्मचर्य को रक्षा हो सकती है / आगम में ये शील की नौ वाड़ों के नाम से भी प्रसिद्ध हैं / जिस प्रकार खेत की वाड़ उसकी रक्षक होती है, उसी प्रकार उक्त नौ वाड़ें ब्रह्मचर्य की रक्षक हैं, अतएव इन्हें ब्रह्मचर्य-गुप्तियां कहा गया है। ५२-नव बंभचेर-अगुत्तीओ पण्णत्ताओ। तं जहा-इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताणं सिज्जासणाणं सेवित्ता भवइ 1, इत्थीणं कहं कहिता भवइ 2, इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवइ 3, इत्थीणं इंदियाणि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवस्थानक समवाय] [23 मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता भवइ 4, पणीयरसभोई भवति 5, पाण-भोयणस्स अइमायाए आहारइत्ता भवइ 6, इत्थोणं पुवरयाई पुवकोलियाई समरइत्ता भवइ 7, सद्दाणुवाई रूवाणुवाई गंधाणुवाई रसाणुवाई फासाणुवाई सिलोगाणुवाई भवइ 8, सायासुक्खपडिबद्धे यावि भवइ 9 / ब्रह्मचर्य को नौ अगुप्तियाँ (विनाशिकाएं) कही गई हैं। जैसे-स्त्री, पशु और नपुसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन करना 1, स्त्रियों की कथा त्रों को कहना-स्त्रियों सम्बन्धी बातें करना 2, स्त्रीगणों का उपासक होना 3, स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों और मनोरम अंगों को देखना और उनका चिन्तन करना 4, प्रणीत-रस-बहुल गरिष्ठ भोजन करना 5, अधिक मात्रा में प्राहारपान करना 6, स्त्रियों के साथ की गई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरण करना 7, कामोद्दीपक शब्दों को सुनना, कामोद्दीपक रूपों को देखना, कामोद्दीपक गन्धों को सूचना, कामोद्दीपक रसों का स्वाद लेना, कामोद्दीपक कोमल मृदुशय्यादि का स्पर्श करना 8, और सातावेदनीय के उदय से प्राप्त सुख में प्रतिबद्ध (आसक्त) होना 9 / ___ भावार्थ-इन उपर्युक्त नवों प्रकार के कार्यों के सेवन से ब्रह्मचर्य नष्ट होता है, इसलिए इनको ब्रह्मचर्य की अगुप्ति कहा गया है / ५३-नव बंभचेरा पण्णत्ता तं जहा सत्थपरिण्णा' लोगविजयो२ सीओसणिज्जं सम्मत। आवंति' धुत विमोहा"[यणं] उवहाणसुयं महापरिण्णा // 1 // नो ब्रह्मचर्य अध्ययन कहे गये हैं / जैसे शस्त्रपरिज्ञा 1, लोकविजय 2, शीतोष्णीय 3, सम्यक्त्व 4, आवन्ती 5, धूत 6, विमोह 7, उपधानश्रुत 8, और महापरिज्ञा 9 / / विवेचन-कुशल या प्रशस्त पाचरण करने को भी ब्रह्मचर्य कहते हैं। उसके प्रतिपादक अध्ययन भी ब्रह्मचर्य कहलाते हैं / आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में ऐसे कुशल अनुष्ठानों के प्रतिपादक नौ अध्ययनों का उक्त गाथासूत्र में नामोल्लेख किया गया है / तात्पर्य यह है कि आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कध में नो अध्ययन हैं। ५४-पासे णं अरहा पुरिसादाणीए नव रयणीओ उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। पुरुषादानीय पार्श्वनाथ तीर्थकर देव नौ रत्नि (हाथ) ऊँचे थे। ५५-अभीजीनक्खत्ते साइरेगे नव महत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएइ / अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, तं जहा- अभीजीसवणो जाव भरणी। अभिजित् नक्षत्र कुछ अधिक नौ मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करता है। अभिजित् आदि नौ नक्षत्र चद्रमा का उत्तर दिशा की ओर से योग करते हैं। वे नौ नक्षत्र अभिजित् से लगाकर भरणी तक जानना चाहिए। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन -जो नक्षत्र जितने समय तक चन्द्र के साथ रहता है, वह उसका चन्द्र के साथ योग कहलाता है / अभिजित् आदि जो नौ नक्षत्र उत्तर की ओर रहते हुए चन्द्र के साथ योग का अनुभव करते हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं- अभिजित्, रेवती, उत्तराभाद्रपदा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक, पूर्वाभाद्रपदा, अश्विनी, भरणी / ___५६-इमोसे णं रयणप्पभाए बहुसमरमणिज्जाम्रो भूमिभागापो नव जोयणसए उद्धं अबाहाए उरिल्ले तारारूवे चारं चरई। जम्बुद्दीवे गं दीवे नवजोयणिया मच्छा पविसिसु वा पविसंति वा पविसिस्संति वा / विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव नव भोमा पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से नौ सो योजन ऊपर अन्तर करके उपरितन भाग में ताराएं संचार करती हैं। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में नौ योजन वाले मत्स्य भूतकाल में नदीमुखों से प्रवेश करते थे, वर्तमान में प्रवेश करते हैं और भविष्य में प्रवेश करेंगे। जम्बूद्वीप के विजय नामक पूर्व द्वार की एक-एक बाहु (भुजा) पर नौ-नौ भौम (विशिष्ट स्थान या नगर) कहे गये हैं। ५७–वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्मानो नव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णत्तानो। वानव्यन्तर देवों को सुधर्मा नाम की सभाएं नौ योजन ऊंची कही गई हैं / 58. -दसणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स नव उत्तरपगडीओ पण्णत्तानो, तं जहा-निद्दा पयला निद्दानिहा पयलापयला थोणद्धी चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदसणावरणे। दर्शनावरणीय कर्म की नौ उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं। जैसे—निद्रा, प्रचला, निद्वानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवल दर्शनावरण / 59- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं नव पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं नव पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ___ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति नो पल्योपम है। चौथी पकप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति नौ सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति नौ पल्योपम है। ६०–सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं नव पलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। बंभलोए कप्पे अस्थेगइयाणं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावतं पम्हप्पभं पम्हकंतं पम्हवणं पम्हलेसं पम्हज्शयं पम्हसिगं पम्हसिट्ठ पम्हकडं पम्हुत्तरवडिसगं, सुज्जं सुसुज्ज सुज्जावात्तं सुज्जपभं सुज्जकंतं सुज्जवण्णं सुज्जलेसं सुज्जज्झयं सुज्झसिगं सुज्जसिटु सुज्जकूडं सुज्जुत्तरडिसगं, [रुइल्लं] रुइल्लावत्तं रुइल्लप्पभं रुइल्लकंतं रुइल्लवण्णं रुइल्लेसं रुइल्लज्झयं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशस्थानक समवाय] [25 रुइल्लसिंग रुइल्लसिटु रुइल्लकूड रुइल्लुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेति णं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई पग्णता, ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं नहिं वाससहस्सेहिं आहार? समुपज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्सति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / ___ सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देत्रों की स्थिति नौ पल्योपम है / ब्रह्मलोक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति नौ सागरोपम है / वहां जो देव पक्षम, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकान्त, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्मध्वज, पक्ष्मशृग, पक्ष्मसृष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक, तथा सूर्य, मुसूर्य, सूर्यावर्त, मूर्यप्रभ, सूर्यकान्त, सूर्यवर्ण, सूर्य लश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृग, सूर्यसृष्ट, सूर्यकूट सूर्योत्तरावतसक, [रुचिर] रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकान्त रुचिरवर्ण, रुचिरलेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृग, रुचिरसृष्ट, रुचिरकुट और रुचिरोत्तरावतंसक नामवाले विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति नौ सागरोपम कही गई है / वे देव नो अर्धमासों (साढ़े चार मासों) के बाद पानप्राण-उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों को नौ हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा होती है / कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो नो भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे। नवस्थानक समवाय समाप्त / दशस्थानक समवाय 61. दसविहे समणधम्मे पण्णते, तं जहा-खंती 1, मुत्ती 2, अज्जवे 3, मद्दवे 4, लाघवे 5, सच्चे 6, संजमे 7, तवे 8, चियाए 9, बंभचेरवासे 10 / / श्रमण धर्म दस प्रकार का कहा गया है। जैसे--क्षान्ति 1, मुक्ति 2, आर्जव 3, मार्दव 4, लाघव 5, सत्य 6, संयम 7, तप 8, त्याग 9, ब्रह्मचर्यवास 10 / विवेचन -जो प्रारम्भ-परिग्रह एवं घर-द्वार का परित्याग कर और संयम धारण कर उसका निर्दोष पालन करने के लिये निरन्तर श्रम करते रहते हैं, उन्हें 'श्रमण' कहते हैं। उनको अपने विषयकषायों को जोतने के लिए क्षान्ति आदि दश धर्मों के परिपालन का उपदेश दिया गया है। कषायों में सबसे प्रधान कषाय क्रोध है। उसके जीतने के लिए क्षान्ति, सहनशीलता या क्षमा का धारण करना अत्यावश्यक है। द्वोपायन जैसे परम तपस्वियों के जीवन भर को संयम-साधना क्षण भर के क्रोध से समाप्त हो गई और वे अधोगति को प्राप्त हए। दमरी प्रबल कषाय लोभ है, उसके त्याग के लिए मुक्ति अर्थात निर्लोभता धर्म का पालन करना आवश्यक है। इसी प्रकार माया कषाय को जीतने के का और मान कषाय को जीतने के लिए मार्दव धर्म को पालने का विधान किया गया है। मान कषाय को जीतने से लाघव धर्म स्वत: प्रकट हो जाता है / तथा माया कषाय को जीतने से सत्यधर्म भी प्रकट हो जाता है / पांचों इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को रोकने के लिये संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इन चार धर्मों के पालने का उपदेश दिया गया है / यहाँ त्याग धर्म से Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [समवायाङ्गसूत्र अभिप्राय अन्तरग-बहिरंग सभी प्रकार के संग (परिग्रह) के त्याग से है। दान को भी त्याग कहते हैं / अतः संविग्न मनोज्ञ साधुओं को प्राप्त भिक्षा में से दान का विधान भी साधुओं का कर्तव्य माना गया है / ब्रह्मचर्य के धारक परम तपस्वियों के साथ निवास करने पर ही श्रमणधर्म का पूर्ण रूप से पालन सम्भव है, अत: सबसे अन्त में उसे स्थान दिया गया है / ६२---दस चित्तसमाहिट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा-धचिता वा से असमुप्पण्णपुवा समुप्पज्जिज्जा सव्वं धम्म जाणित्तए 1, सुमिणदसणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुपज्जिज्जा अहातच्चं सुमिणं पासित्तए 2, सण्णिणाणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पज्जिज्जा पुत्वभवे सुमरित्तए 3, देवदंसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुपज्जिज्जा दिव्वं देविद्धि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पासित्तए 4, ओहिनाणं // से असमप्पणपव्वे समयज्जिज्जा ओहिणा लोग जाणित्तए 5, प्रोहिदसणे वा से असमुप्पण्णपुग्वे समुप्पज्जिज्जा प्रोहिणा लोगं पासित्तए 6, मणपज्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्पज्जिज्जा जाव [अद्धतईअदीवसमुद्देसु सण्णीणं पंचिदियाणं पज्जत्तगाणं] मणोगए भावे जाणित्तए 7, केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुटवे समुप्पज्जिज्जा केवलं लोगं जाणित्तए 8, केवलदंसणे वा से असमुप्पण्णपुवे समुप्पज्जिज्जा केवलं लोगं पासित्तए 9, केवलिमरणं वा मरिज्जा सव्वदुक्खप्पहीणाए 10 / चित्त-समाधि के दश स्थान कहे गये हैं / जैसे-जो पूर्व काल में कभी उत्पन्न नहीं हुई, ऐसी सर्वज्ञ-भाषित श्रुत और चारित्ररूप धर्म को जानने की चिन्ता का उत्पन्न होना यह चित की समाधि या शान्ति के उत्पन्न होने का पहला स्थान है (1) / धर्म-चिन्ता को चित्त-समाधि का प्रथम स्थान कहने का कारण यह है कि इसके होने पर ही धर्म का परिज्ञान और पाराधन सम्भव है / जैसा पहले कभी नहीं देखा, ऐसे याथातथ्य (भविष्य में यथार्थ फल को देने वाले) स्वप्न का देखना चित्त-समाधि का दूसरा स्थान है (2) / जैसा पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा पूर्व भव का स्मरण करने वाला संज्ञिज्ञान (जातिस्मरण) होना यह चित्त-समाधि का तीसरा स्थान है। पूर्व भव का स्मरण होने पर संवेग और निर्वेद के साथ चित्त में परम प्रशममाव जागृत होता है (3) / जैसा पहले कभी नहीं हुआ, ऐसा देव-दर्शन होना, देवों की दिव्य वैभव-परिवार पादिरूप ऋद्धि का देखना, देवों की दिव्य द्युति (शरीर और प्राभूषणादि की दीप्ति) का देखना, और दिव्य देवानुभाव (उत्तम विक्रियादि के प्रभाव) को देखना यह चित्त-समाधि का चौथा स्थान है, क्योंकि ऐसा देव-दर्शन होने पर धर्म में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होतो है (4) / जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक (मूर्त पदार्थों को) प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का पांचवा स्थान है। अवधिज्ञान के उत्पन्न होने पर मन में एक अपूर्व शान्ति और प्रसन्नता प्रकट होती है (5) / ___ जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा लोक को प्रत्यक्ष देखने वाला अवधिदर्शन उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का छठा स्थान है (6) / Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशस्थानक समवाय [27 जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐमा [अढ़ाई द्वीप-समुद्रवर्ती संजी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का सातवां स्थान है (7) / जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष [त्रिकालवी पर्यायों के साथ जानने वाला केवलज्ञान उत्पन्न होना यह चित्त-समाधि का आठवां स्थान है (8) / जो पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ, ऐसा [सर्व चराचर] लोक को देखने वाला केवल-दर्शन उत्पन्न होना, यह चित्त-समाधि का नौंवा स्थान है (9) / सर्व दुःखों के विनाशक केवलिमरण से मरना यह चित्त-समाधि का दशवां स्थान है (10) / इसके होने पर यह प्रात्मा सर्व सांसारिक दुःखों से मुक्त हो सिद्ध बुद्ध होकर अनन्त मुख को प्राप्त हो जाता है। ६३----मंदरे णं पव्वए मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते / मन्दर (सुमेरु) पर्वत मूल में दश हजार योजन विष्कम्म (विस्तार) वाला कहा गया है / ६४–परिहा णं अरिट्टनेमि दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। कण्हे णं वासुदेवे दस धणइं उड्ड उच्चत्तेणं होत्था / रामे णं बलदेवे दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था। अरिष्टनेमि तीर्थकर दश धनुष ऊँचे थे। कृष्ण वासुदेव दश धनुष ऊँचे थे। राम बलराम दश धनुष ऊँचे थे। ६५-दस नक्खत्ता नाणबुट्टिकरा पण्णत्ता, तं जहा मिगसिर अद्दा पुस्सो तिणि य पुवा य मूलमस्सेमा / हत्थो चित्तो य तहा दस बुट्टिकराई नाणस्स // 1 // दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करने वाले कहे गये हैं यथा--मृगशिर, ग्रा, पुष्य, तीनों पूर्वाएं (पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वा भाद्रपदा) मूल, आश्लेषा, हस्त और चित्रा, ये दश नक्षत्र ज्ञान की वृद्धि करते हैं / अर्थात् इन नक्षत्रों में पढ़ना प्रारम्भ करने पर ज्ञान शीघ्र और विपुल परिमाण में प्राप्त होता है। ६६-अकम्मभूमियाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवस्थिया पण्णत्ता, तं जहा मत्तंगया य भिगा, तुडिअंगा दीव जोइ चित्तंगा। चित्तरसा मणि अंगा, गेहागारा अनिगिणा य // 1 // अकर्मभूमिज मनुष्यों के उपभोग के लिए दश प्रकार के वृक्ष (कल्पवृक्ष) उपस्थित रहते हैं। जैसे -- मद्यांग, भृग, तूर्यांग, दीपांग, ज्योतिरंग, चित्रांग, चित्तरस, मण्यंग, गेहाकार और अनग्नांग Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन–जहाँ पर उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को असि मषि, कृषि अदि किसी भी प्रकार का आजीविका-सम्बन्धी कार्य नहीं करना पड़ता है, किन्तु जिनकी सभी आवश्यकताएं वृक्षों से पूर्ण हो जाती हैं, ऐसी भूमि को अकर्मभूमि या भोगभूमि कहते हैं और जिन वृक्षों से उनकी अावश्यकताएं पूरी होती हैं, उन्हें कल्पवृक्ष कहा जाता है / मद्यांग जाति के वृक्षों से अकर्मभूमि के मनुष्यों को मधुर मदिरा प्राप्त होती है। भृग जाति के वृक्षों से उन्हें भाजन पात्र प्राप्त होते हैं। तूर्यांग जाति के वृक्षों से उन्हें वादित्र प्राप्त होते हैं / दीपांग जाति के वृक्षों से दीप-प्रकाश मिलता है। ज्योतिरंग वृक्षों से अग्नि के सदृश प्रकाश प्राप्त होता है। चित्रांग वृक्षों से नाना प्रकार के पुष्प प्राप्त होते हैं / चित्ररस जाति के वृक्षों से अनेक रसवाला भोजन प्राप्त होता है। मण्यंग जाति के वृक्षों से प्राभूषण प्राप्त होते हैं / गेहाकार वृक्षों से उनको निवासस्थान प्राप्त होता है और अनग्न वृक्षों से उन्हें वस्त्र प्राप्त होते हैं। ६७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहणणं दस वासासहस्साइं ठिई पण्णत्ता / इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं दस पलिओवमाइं ठिई पण्णता। चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससयसहस्साई पण्णत्ताई। चतुत्थीए पुढवीए अस्थेगइयाणं नेरइयाणं दस सारागोवमाइं ठिई पण्णत्ता / पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहणणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है। इस रत्नप्रभा पृथ्वी के कितनेक नारकों की स्थिति दस पल्योपम की कही गई है। चौथी नरक पृथ्वी में दस लाख नारकावास हैं / चौथी पृथ्वी में कितनेक नारकों की स्थिति दस सागरोपम की होती है। पांचवी पृथ्वी में किन्हीं-किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति दस सागरोपम कही गई है। ६८-असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। असुरिंद. वज्जाणं भोमिज्जाणं देवाणं अत्थेगइयाणं जहष्णणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। असुरकूमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं दस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / वायरवणस्सइकायाणं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ठिई पन्नत्ता। वाणमंतराणं देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। कितनेक असुरकुमार देवों की जघन्यस्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। असुरेन्द्रों को छोड़कर कितनेक शेष भवनवासी देवों को जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति दश पल्योपम कही गई है। बादर वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। कितनेक वान व्यन्तर देवों की जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की कही गई है। ६९–सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं दस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / बंभलोए कम्पे देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोबमाई ठिई पण्णत्ता। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति दश पल्योपम कही गई है / ब्रह्मलोक कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशस्थानक समवाय] [29 ७०.-लंतए कप्ये देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोस सुसरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिज्ज मंगलावतं बंभलोगडिसगं विमाण देवत्ताए उववण्णा तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति बा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा, तेसि णं देवाणं दसहिं वाससहस्सेहि आहार? समुप्पज्जइ। __ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिसंति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / __ लान्तककल्प में कितने क देवों की जघन्य स्थिति दश सागरोपम कही गई है। वहां जो देव घोष, सुघोष, महाघोष, नन्दिघोष, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, मगलावर्त और ब्रह्मलोकावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोपम कही गई है। वे देव दश अर्धमासों (पांच मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं, उन देवों के दश हजार वर्षों के बाद प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो दश भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण प्राप्त करेंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // दशस्थानक समवाय समाप्त / / एकादश स्थानक-समवाय ७१-एक्कारस उवासगपडिमाओ पण्णत्तानो, तं जहा-दसणसावए 1, कयव्वयकम्मे 2, सामाइयकडे 3, पोसहोववासनिरए 4, दिया बंभयारी रत्ति परिमाणकडे 5, दिआ वि राओवि बंभयारी असिणाई वियडभोजी मोलिकडे 6, सचित्तपरिणाए 7, आरंभपरिणाए 8, पेसपरिणाए 9, उद्दिट्ठभत्तपरिणाए 10, समणभूए 11, आवि भवइ समणाउसो! हे आयुष्मान् श्रमणा ! उपासकों श्रावकों को ग्यारह प्रतिमाएं कही गई हैं। जैसे-दर्शन श्रावक 1, कृतव्रतकर्मा 2, सामायिककृत 3, पौषधोपवास-निरत 4, दिवा ब्रह्मचारी, रात्रि-परिमाणकृत 5, दिवा ब्रह्मचारी भी, रात्रि-ब्रह्मचारी भी, अस्नायो, विकट-भोजी और मौलिकृत 6, सचित्तपरिज्ञात 7, प्रारम्भपरिज्ञात 8. प्रेष्य-परिज्ञात 9, उद्दिष्टपरिज्ञात 10, और श्रमणभूत 11 / विवेचन--जो श्रमणों-साधुजनों-की उपासना करते हैं, उन्हें श्रमणोपासक या उपासक कहते हैं। उनके अभिग्रहरूप विशेष अनुष्ठान या प्रतिज्ञा को प्रतिमा कहा जाता है। उपासक या श्रावक की ग्यारह प्रतिमानों का स्वरूप इस प्रकार है-- 1. दर्शनप्रतिमा-- में उपासक को शंकादि दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करना आवश्यक है, क्योंकि यह सर्व धर्मों का मूल है, इसके होने पर ही व्रतादि का परिपालन हो सकता है, अन्यथा नहीं। ___ यहां यह ज्ञातव्य है कि उत्तर-उत्तर प्रतिमाधारियों को पूर्व-पूर्व प्रतिमानों के प्राचार का परिपालन करना आवश्यक है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र 2. व्रतप्रतिमा- में निरतिचार पांच अणुव्रतों और उनकी रक्षार्थ तीन गुणवतों का परिपालन करना चाहिए। ___3. सामायिकप्रतिमा--में नियत काल के लिए प्रतिदिन दो वार---प्रातः सायंकाल सर्व सावद्ययोग का परित्याग कर सामायिक करना आवश्यक है / 4. पौषधोपवासप्रतिमा--में अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वो के दिन सर्व प्रकार के पाहार का त्याग कर उपवास के साथ धर्मध्यान में समय बिताना आवश्यक है। 5. पांचवी प्रतिमा का धारक उपासक दिन को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है और रात्रि में भी स्त्री अथवा भोग का परिमाण करता है और धोती की कांछ (लांग) नहीं लगाता है। 6. छठी प्रतिमा का धारक दिन और रात्रि में ब्रह्मचर्य का पालन करता है, अर्थात् स्त्रीसेवन का त्याग कर देता है, यह स्नान भी नहीं करता, रात्रि-भोजन का त्याग कर देता है और दिन में भो प्रकाश-युक्त स्थान में भोजन करता है। 7. सातवी प्रतिमा का धारक सचित्त वस्तुओं के खान-पान का त्याग कर देता है। 5. आठवों प्रतिमा का धारक खेती. व्यापार आदि सर्व प्रकार के प्रारम्भ का त्याग कर देता है। 9. नवमी प्रतिमा का धारक सेवक-परिजनादि से भी प्रारम्भ-कार्य कराने का त्याग कर देता है। 10. दशवी प्रतिमा को धारक अपने निमित्त से बने हुए भक्त-पान के उपयोग का त्याग करता है / आधार्मिक भोजन नहीं खाता और क्षुरा से शिर मुडाता है / 11. ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक उपासक घर का त्यागकर, श्रमण–साधु जैसा वेष धारण कर साधुओं के समीप रहता हुआ साधुधर्म पालने का अभ्यास करता है, ईर्यासमिति आदि का पालन करता है और गोचरी के लिए जाने पर 'ग्यारहवीं श्रमणभूत प्रतिमा-धारक श्रमणोपासक के लिए भिक्षा दो ऐसा कह कर भिक्षा की याचना करता है। यह कदाचित् शिर भी मुडाता है और कदाचित् केशलोंच भी करता है। ___ संस्कृत टीकाकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए प्रारम्भपरित्याग को नवमी, प्रेष्यारम्भपरित्याग को दशमी और उद्दिष्ट भक्तत्यागी श्रमणभूत को ग्यारहवीं प्रतिमा का निर्देश किया है। तथा पांचवी प्रतिमा में पर्व के दिन एकरात्रिक प्रतिमा-योग का धारण करना कहा है। ___ दिगम्बर शास्त्रों में सचित्तत्याग को पांचवीं और स्त्रीभोग त्याग कर ब्रह्मचर्य धारण करने को सातवी प्रतिमा कहा गया है। तथा नवमी प्रतिमा का नाम परिग्रहत्याग और दशमी प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग प्रतिमा कहा गया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रतिमाओं के धारण-पालन की परम्परा विच्छिन्न हो गई है / किन्तु दि० सम्प्रदाय में वह आज भी प्रचलित है / इन श्रावक प्रतिमाओं का काल एक, दो, तीन प्रादि मासों का है। अर्थात् पहली प्रतिमा का काल एक मास, दूसरी का दो मास, तीसरी का तीन मास, चौथी का चार यावत् ग्यारहवीं का ग्यारह मास का काल है / दिगम्बर परम्परा के अनुसार इन का पालन प्राजीवन किया जाता है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशस्थानक समवाय] [31 - 72-- लोगताओ इक्कारसएहि एक्कारेहि अबाहाए जोइसते पणते / जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स एक्कारसहि एक्कवीसेहिं जोयणसएहि जोइसे चारं चरइ / लोकान्त से ग्यारह सौ ग्यारह योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र अवस्थित कहा गया है। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (1121) योजन के अन्तराल पर ज्योतिश्चक्र संचार करता है। ७३-सणमस्स णं भगवओ महावीरस्स एक्कारस्स गणहरा होत्था / तं जहा-इंदभूई अग्गिभूई वायुभूई विप्रत्ते सोहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकंपिए अयलभाए मेअज्जे पभासे / श्रमण भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे---इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्म, मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास / ७४-मूले नवखत्ते एक्कारस तारे पण्णत्ते / हेडिमगेविज्जयाणं देवाणं एवकारसमुत्तरं गेविज्जविमाणसतं भवइत्ति मक्खायं / मंदरे णं पव्वए धरणितलानो सिहरतले एक्कारस भागपरिहाणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते। मूल नक्षत्र ग्यारह तारावाला कहा गया है। अधस्तन ग्रेवेयक-देवों के विमान एक सौ ग्यारह (111) कहे गये हैं। मन्दर पर्वत धरणी-तल से शिखर तल पर ऊंचाई की अपेक्षा ग्यारहवें भाग से हीन विस्तार वाला कहा गया है। विवेचन-मन्दर मेरु एक लाख योजन ऊंचा है, उसमें से एक हजार योजन भूमि के भीतर मूल रूप में और भूमितल से ऊपर निन्यानवे (99) हजार योजन ऊंचा है तथा वह धरणीतल पर दश हजार योजन विस्तृत है और शिखर पर एक हजार योजन विस्तृत है। यतः 1149-91 निन्यानवे होते हैं, अतः भूमितल के दश हजार योजन विस्तार वाले भाग से ऊपर ग्यारह योजन जाने पर उसका विस्तार एक योजन कम हो जाता है, इस नियम के अनुसार निन्यानवे योजन ऊपर जाने पर सुमेरु पर्वत का शिखरतल एक हजार योजन विस्तृत सिद्ध हो जाता है। इसी नियम को ध्यान में रखकर मन्दर पर्वत के धरणीतल के विस्तार से शिखरतल का विस्तार ग्यारहवें भाग से हीन कहा गया है। ७५-इमोसे णं रयणपभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई पण्णता। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कारस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति ग्यारह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति ग्यारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों को स्थिति ग्यारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह पल्योपम कह गई है। ७६---लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं एकारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा बंभं सुबंभं बंभावत्तं बंभप्पमं बंभकंतं बंभवण्णं बंभलेसंबंभज्झयं बसिगं बंभसिट तरडिसगं Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [समवायाङ्गसूत्र विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं एक्कारस सागरोवमाइं ठिई पण्णता। ते गं देवा एक्कारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, ऊससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं एक्कारसण्हं वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जइ।। _____ संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कारसहि भवग्गहहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम है। वहां पर जो देव ब्रह्म, सुब्रह्म, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मप्रभ, ब्रह्मकान्त, ब्रह्मवर्ण, ब्रह्मलेश्य, ब्रह्मध्वज, ब्रह्मशृग, ब्रह्मसृष्ट, ब्रह्मकुट और ब्रह्मोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति ग्यारह सागरोपम कही गई है / वे देव ग्यारह अर्धमासों (साढ़े पांच मासों) के बाद अान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों को ग्यारह हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा होती है / कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो ग्यारह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे / // एकादशस्थानक समवाय समाप्त / / द्वादशस्थानक-समवाय ७७-बारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-मासिआ भिक्खुपडिमा, दो मासिआ, भिक्खुपडिमा, तिमासिआ भिक्खुपडिमा, चउमासिआ भिक्खुपडिमा, पंचमासिआ भिक्खुपडिमा, छमासिआ भिक्खुपडिमा, सत्तमासिआ भिक्खुपडिमा, पढमा सत्तराइंदिया भिक्खुपडिमा, दोच्चा सत्तराईदिया भिक्खुपडिमा, तच्चा सत्तराईदिया भिक्खुपडिमा, अहोराइया भिक्खुपडिमा, एगराइया भिक्खुपडिमा। बारह भिक्षु-प्रतिमाएं कही गई हैं। जैसे--एकमा सिकी भिक्षु-प्रतिमा, दो मासिकी भिक्षुप्रतिमा, तीन मासिकी भिक्षुप्रतिमा, चार मासिकी भिक्षुप्रतिमा, पांच मासिकी भिक्षुप्रतिमा, छह मासिकी भिक्षुप्रतिमा, सात मासिकी भिक्षुप्रतिमा, प्रथम मप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमा, द्वितीय सप्तरात्रिदिवा प्रतिमा, तृतीय सप्तरात्रिदिवा प्रतिमा, अहोरात्रिक भिक्षुप्रतिमा और एकरात्रिक भिक्षुप्रतिमा। विवेचन--भिक्षावत्ति से गोचरी ग्रहण करने वाले साधुनों को भिक्षु कहा जाता है। / सामान्य भिक्ष जनों में जो विशिष्ट संहनन और श्रतधर साधू होते हैं, वे संयम-विशेष की साधना करने लिए जिन विशिष्ट अभिग्रहों को स्वीकार करते हैं, उन्हें भिक्षुप्रतिमा कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में उनके बारह होने का उल्लेख किया गया है। संस्कृत टोकाकार ने उनके ऊपर कोई खास प्रकाश नहीं डाला है, अतः दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा के अनुसार उनका संक्षेप से वर्णन किया जाता है--- __ एकमासिको भिक्षुप्रतिमा—इस प्रतिमा के धारी भिक्षु को काय से ममत्व छोड़कर एक मास तक पानेवाले सभी देव, मनुष्य और नियंच-कृत उपसर्गों को सहना होता है। वह एक मास तक शुद्ध निर्दोष भोजन और पान की एक-एक दत्ति ग्रहण करता है / एक वार में अखंड धार से दिये गये भोजन या पानी को एकदत्ति कहते हैं। वह गर्भिणी, अल्पवयस्क बच्चे वाली, बच्चे को दूध पिलाने Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशस्थानक समवाय] [33 वाली, रोगिणी आदि स्त्रियों के हाथ से भक्त-पान को ग्रहण नहीं करता। वह दिन के प्रथम भाग में ही गोचरी को निकलता है और पेडा-अर्धपेडा आदि गोचर-चर्या करके वापिस आ जाता है। वह कहीं भी एक या दो रात से अधिक नहीं रहता। विहार करते हुए जहां भी सूर्य अस्त हो जाता है, वहीं किसी वृक्ष के नीचे, या उद्यान-गृह में या दुर्ग में या पर्वत पर, सम या विषम भूमि पर, पर्वत की गुफा या उपत्यका आदि जो भी समीप उपलब्ध हो, वहीं ठहर कर रात्रि व्यतीत करता है। मार्ग में चलते हए पैर में कांटा लग जाय या आंख में किरकिरी चली जाय, या शरीर में कोई अस्त्र-वाण आदि प्रवेश कर जाय, तो वह अपने हाथ से नहीं निकालता है। वह रात्रि में गहरी नींद नहीं सोता है, किन्तु बैठे-बैठे ही निद्रा-प्रचला द्वारा अल्पकालिक झपाई लेते हुए और आत्म-चिन्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करता है और प्रातःकाल होते ही आगे चल देता है। वह ठंडे या गर्म जल से अपने हाथ पैर मुख, दांत अांख आदि शरीर के अंगों को नहीं धोता है, विहार करते हुए यदि सामने से कोई शेर, चीता, व्याघ्र प्रादि हिंसक प्राणी, या हाथी, घोड़ा, भैंसा आदि कोई उन्मत्त प्राणी पा जाता है तो वह एक पैर भी पोछे नहीं हटता, किन्तु वहीं खड़ा रह जाता है। जब वे प्राणी निकल जाते हैं, तब आगे विहार करता है। वह जहां बैठा हो वहां यदि तेज धूप आ जाय तो उठकर शीतल छाया वाले स्थान में नहीं जाता / इसी प्रकार तेज ठंड वाले स्थान से उठकर गर्म स्थान पर नहीं जाता है / इस प्रकार वह आगमोक्त मर्यादा से अपनी प्रतिमा का पालन करता है। दूसरी से लेकर सप्तमासिकी भिक्षुप्रतिमा तक के धारी साधुत्रों को भी पहली मासिकी प्रतिमाधारी के सभी कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है / अन्तर यह है कि दूसरी भिक्षुप्रतिमा वाला दो मास तक प्रतिदिन भक्त-पान की दो-दो दत्तियां ग्रहण करता है। इसी प्रकार एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए सप्तमासिको भिक्षुप्रतिमा बाला सात मास तक भक्त-पान की सात-सात दत्तियों को ग्रहण करता है। प्रथम सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमावाला साधु चतुर्थ भक्त का नियम लेकर ग्राम के बाहर खड़े या बैठे हुए ही समय व्यतीत करता है / दूसरी सप्तरात्रिदिवा भिक्षुप्रतिमावाला षष्ठभक्त का नियम लेकर उत्कुट (उकडू) आदि प्रासन से अवस्थित रहता है। तीसरी सप्तरात्रिक प्रतिमावाला अष्टम-भक्त का नियम लेकर सात दिन-रात तक गोदोहन या वीरासनादि से अवस्थित रहता है। अहोरात्रिक प्रतिमा वाला अपानक षष्ठ भक्त का नियम लेकर 24 घंटे कायोत्सर्ग से ग्रामादि के बाहर अवस्थित रहता है। एकरात्रिक भिक्ष प्रतिमावाला अपानक अष्टम भक्त का नियम लेकर अनिमिष नेत्रों से प्रतिमायोग धारण कर कायोत्सर्ग से अवस्थित रहता है। ७८–दुवालसविहे सम्भोगे पण्णत्ते, तं जहा उवही सुन भत्त पाणे अंजली पग्गहे ति य / दायणे य निकाए अ अन्भुट्ठाणे ति आवरे // 1 // किइकम्मस्स य करणे यावच्चकरणे इ / समोसरणं संनिसिज्जा य कहाए अपबंधणे // 2 // Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायानसूत्र सम्भोग बारह प्रकार का कहा गया है / यथा--- 1. उपधि-विषयक सम्भोग, 2. श्रुत-विषयक सम्भोग, 3. भक्त-पान-विषयक सम्भोग, 4. अंजली-प्रग्रह सम्भोग, 5. दान-विषयक सम्भोग, 6. निकाचन-विषयक सम्भोग, 7. अभ्युत्थानविषयक सम्भोग, 8. कृतिकर्म-करण सम्भोग, 9. वैयावृत्त्य-करण सम्भोग. 10. समवसरण-सम्भोग, 11. संनिषद्या सम्भोग और 12. कथा-प्रबन्धन सम्भोग / / 1-2 // विवेचन-समान समाचारी वाले साधुओं के साथ खान-पान करने, वस्त्र-पात्रादि का आदानप्रदान करने और दीक्षा-पर्याय के अनुसार विनय, वैयावृत्त्य आदि करने को सम्भोग कहते हैं। वह उपधि आदि के भेद से बारह प्रकार का कहा गया है। साधु को अनुद्दिष्ट एवं निर्दोष वस्त्र-पात्रतथा भक्त-पानादि के ग्रहण करने का विधान है / यदि कोई साधु अशुद्ध या सदोष उपधि (वस्त्रपात्रादि) को एक, दो या तीन वार तक ग्रहण करता है, तब तक तो वह प्रायश्चित्त लेकर सम्भोगिक बना रहता है। चौथी वार अशुद्ध वस्त्र-पात्रादि के ग्रहण करने पर वह प्रायश्चित्त लेने पर भी विसम्भोग के योग्य हो जाता है। अर्थात् अन्य साधु उसके साथ खान-पान बन्द कर देते हैं और उसे अपनी मंडली से पृथक् कर देते हैं / ऐसे साधु को विसम्भोगिक कहा जाता है। (1) जब तक कोई साधु उपधि (वस्त्र-पात्रादि) विषयक मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह साम्भोगिक है और उपर्युक्त मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह पूर्वोक्त रीति से विसम्भोगिक हो जाता है / यह उपधि-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (2) जब तक कोई साधु अन्य सम्भोगिक साधु को श्रुत-विषयक वाचनादि निर्दोष विधि से देता है, तब तक वह सम्भोगिक है और यदि वह उक्त मर्यादा का उल्लंघन कर पाश्वस्थ आदि साधुओं को तीन वार से अधिक श्रुत की वाचनादि देता है, तो वह पूर्ववत् विसम्भोगिक हो जाता है / यह श्रुत-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (3) जब तक कोई साधु भक्त-पान-विषयक निर्दोष मर्यादा का पालन करता है, तब तक वह साम्भोगिक और पूर्ववत् मर्यादा का उल्लंघन करने पर विसम्भोग के योग्य हो जाता है / यह भक्तपान-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (4) साधुओं को दीक्षा-पर्याय के अनुसार परस्पर में वन्दना करने और हाथों की अंजलि जोड़कर नमस्कारादि करने का विधान है। जब कोई साधु इसका उल्लंघन नहीं करता है, या पार्श्वस्थ आदि साधुओं की बन्दनादि नहीं करता है, तब तक वह साम्भोगिक है और उक्त मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह विसम्भोगिक कर दिया जाता है / यह अंजलि-प्रग्रह-विषयक सम्भोगविसम्भोग है। (5) साधु अपने पास के वस्त्र, पात्रादि को अन्य साम्भोगिक साधु के लिए दे सकता है, या देता है, तब तक वह साम्भोगिक है। किन्तु जब वह अपने वस्त्र-पात्रादि उपकरण उक्त मर्यादा का उल्लघन कर अन्य विसम्भोगिक या पार्श्वस्थ आदि साधु को देता है तो वह पूर्वोक्त रोति से विसम्भोग के योग्य हो जाता है / यह दान-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (6) निकाचन का अर्थ निमंत्रण देना है। जब कोई साधु यथाविधि अन्य साम्भोगिक साधु को शुद्ध वस्त्र, पात्र या भक्त-पानादि देने के लिए निमंत्रण देता है, तब तक वह साम्भोगिक है / Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशस्थानक समवाय] [35 जब वह मर्यादा का उल्लंघन कर अन्य विसम्भोगिक या पार्श्वस्थ प्रादि साधुको वस्त्रादि देने के लिए निमंत्रण देता है तो वह पूर्ववत् विसम्भोग के योग्य हो जाता है। यह निकाचन-विषयक सम्भोगविसम्भोग है। (7) साधू को गुरुजन या अधिक दीक्षापर्यायवाले साधु के आने पर अपने आसन से उठकर उसका यथोचित अभिवादन करना चाहिए। जब कोई साधु इस मर्यादा का उल्लंघन करता है, अथवा पार्श्वस्थ आदि साधु के लिए अभ्युत्थानादि करता है, तब वह पहले कहे अनुसार विसम्भोग के योग्य हो जाता है / यह अभ्युत्थान-विषयक सम्भोग-विसम्भोग है। (8) कृतिकर्म वन्दनादि यथाविधि करने पर साधु साम्भोगिक रहता है और उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। (9) वैयावृत्त्यकरण—जब तक साधु वृद्ध, बाल, रोगी आदि साधुओं की यथाविधि वैयावृत्त्य करता है तब तक वह साम्भोगिक है। उसकी मर्यादा का उल्लंघन करने पर वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। (10) प्रवचन-भवन आदि जिस स्थान पर अनेक साधु एक साथ मिलते और उठते-बैठते हैं, उस स्थान को समवसरण कहते हैं। वहां पर मर्यादापूर्वक साम्भोगिक साधुनों के साथ उठनासमवसरण-विषयक सम्भोग है। तथा वहाँ असम्भोगिक या पार्श्वस्थादि साधनों के साथ बैठ कर मर्यादा का उल्लंघन करता है तो वह पूर्ववत् विसम्भोग के योग्य हो जाता है। (11) अपने पासन से उठकर गुरुजनों से प्रश्न पूछना, उनके द्वारा पूछे जाने पर प्रासन ठकर उत्तर देना संनिषद्या-विषयक सम्भोग है। यदि कोई साधू गुरुजनों से कोई प्रश्न अपने आसन पर बैठे-बैठे ही पूछता है, या उनके द्वारा कुछ पूछे जाने पर आसन से न उठकर बैठे-बैठे ही उत्तर देता है, तो यह मर्यादा का उल्लंघन करने से पूर्ववत् विसंभोग के योग्य हो जाता है। (12) गुरु के साथ तत्त्व-चर्चा या धर्मकथा के समय वाद-कथा सम्बन्धी नियमों का पालन करना कथा-प्रबन्धन-सम्भोग है / जब कोई साधु कथा-प्रबन्ध के नियमों का उल्लंघन करता है, तब वह विसम्भोग के योग्य हो जाता है। यह कथा-प्रबन्ध-विषयक संभोग है। कहने का सारांश यह है कि साधु जब तक अपने संघ की मर्यादा का पालन करता है, तब तक साम्भोगिक रहता है और उसके उल्लंघन करने पर विसम्भोग के योग्य हो जाता है / ७९--दुवालसावत्ते कितिकम्मे पण्णत्ते, तं जहा दुग्रोणयं जहाजायं कितिकम्मं बारसावयं / चउसिरं तिगुतं च दुपवेसं एगनिक्खमणं // 1 // कृतिकर्म बारह आवर्त वाला कहा गया है / जैसे कृतिकर्म में दो अवनत (नमस्कार), यथाजात रूप का धारण, बारह आवर्त, चार शिरोनति, तीन गुप्ति, दो प्रवेश और एक निष्क्रमण होता है // 1 // विवेचन--कृतिकर्म की निरुक्ति है-'कृत्यते छिद्यते कर्म येन तत् कृतिकर्म' अर्थात् परिणामों की जिस विशुद्धिरूप मानसिक क्रिया से शब्दोच्चारण रूप वाचनिक क्रिया से और नमस्कार रूप Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र कायिक क्रिया से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का कर्त्तन या छेदन किया जाय, उसे कृतिकर्म कहते हैं। अतः देव और गुरु की वन्दना के द्वारा भी पापकर्मों की निर्जरा होती है, अतः वंदना को कृतिकर्म कहा गया है। प्रकृत में यह गाथा इस बात की साक्षी में दी गई है कि कृतिकर्म में बारह आवर्त किये जाते हैं। पावर्त का क्या अर्थ है, इसके विषय में संस्कृतटीकाकार ने केवल इतना ही लिखा है'द्वादशावर्ताः सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा:' अर्थात् साधुजन प्रसिद्ध, सूत्रकथित प्राशयवाले शरीर के व्यापार-विशेष को आवर्त कहते हैं / पर इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि शरीर का वह व्यापार-विशेष क्या है, जिसे कि आवर्त कहते हैं। दि० परम्परा में दोनों हाथों को मुकुलित कर दाहिनी ओर से बायीं ओर घुमाने को प्रावर्त कहा गया है। यह आवर्त मन वचन काय की क्रिया के परावर्तन के प्रतीक माने जाते हैं, जो सामायिक दंडक और चतुर्विंशतिस्तव के आदि और अन्त में किये जाते हैं।' जो सब मिलकर बारह हो जाते हैं। ___ आवर्त और कृतिकर्म का विशेष रहस्य सम्प्रदाय-प्रचलित पद्धति से जानना चाहिए। उक्त गाथा स्वल्प पाठ-भेद के साथ दि० मूलाचार में भी पाई जाती है / ८०-विजया णं रायहाणी दुवालस जोयणसयसहस्साइं पायामविखंभेणं पण्णत्ता। रामे गं बलदेवे दुवालस वाससयाई सव्वाउयं पालिता देवत्तं गए / मंदरस्स णं पन्वयस्स चूलिया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइया मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। जम्बूद्वीप के पूर्व दिशावर्ती विजयद्वार के स्वामी विजय नामक देव की विजया राजधानी (यहाँ से असंख्यात योजन दूरी पर) बारह लाख योजन अायाम-विष्कम्भ वाली कही गई है। राम नाम के बलदेव बारह सौ (1200) वर्ष पूर्ण प्रायु का पालन कर देवत्व को प्राप्त हुए। मन्दर पर्वत की चूलिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन विस्तार वाली है। ८१-सव्वजहणिया राई दुवालसमुहुत्तिया पण्णत्ता / एवं दिवसोवि नायव्यो। सर्व जघन्य रात्रि (सब से छोटी रात) बारह मुहूर्त की होती है। इसी प्रकार सबसे छोटा दिन भी बारह मुहूर्त का जानना चाहिए। ८२–सम्वसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिल्लायो थुभिन्नग्गाओ दुवालस जोयणाई उद्धं उप्पइया ईसिपब्भार नाम पुढवी पण्णत्ता / ईसिपल्भाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेज्जा पण्णत्ता। तं 1. कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचेतसाम् / स्तव-सामायिकाद्यन्तपरावर्तन लक्षणा: / / 13 / / त्रिःसम्पुटीकृतौ हस्तौ भ्रामयित्वा पठेत्पुनः / साम्यं पठित्वा भ्रामयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् // 14 // (क्रियाकलाप) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशस्थानक समवाय] जहा-ईसि त्ति वा, ईसिपब्भारा ति वा, तणू इ वा, तणुयतरि ति वा, सिद्धि त्ति वा, सिद्धालए त्ति वा, मुत्ती त्ति वा, मुत्तालए त्ति वा, बंभे ति वा बंभडिसए ति वा, लोकपडिपूरणे ति वा लोगगचूलिपाई वा। ___ सर्वार्थसिद्ध महाविमान की उपरिम स्तूपिका (चूलिका) से बारह योजन ऊपर ईषत् प्राग्भार नामक पृथिवी कही गई है / ईषत् प्राम्भार पृथिवी के बारह नाम कहे गये हैं / जैसे—ईषत् पृथिवी, ईषत् प्रारभार पृथिवी, तनु पृथिवी, तनुतरी पृथिवी, सिद्धि पृथिवी, सिद्धालय, मुक्ति, मुक्तालय, ब्रह्म, ब्रह्मावतंसक, लोकप्रतिपूरणा और लोकाग्रचूलिका। ८३--इभीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस पलिअोवमाई ठिई पण्णत्ता। पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बारस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बारस पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बारह पल्योपम कही गई है। ८४-लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा महिंद महिंदज्शयं कंबुकंबुग्गीयं पुखं सुपुखं महापुखं पुंडं सुपुडं महापुडं नारदं नरिंदकतं नरिंदुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बारस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं बारसहि वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति / लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति बारह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव माहेन्द्र, माहेन्द्रध्वज, कम्बु, कम्बुग्रीव, पुख, सुपुख महापुख, पुंड, सुपुड, महाड नरेन्द्र, नरेन्द्रकान्त और नरेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम कही गई है / वे देव बारह अर्धमासों (छह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनि:श्वास लेते हैं / देवों के बारह हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥द्वादशस्थानक समवाय समाप्त 12 // Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [समवायानसूत्र त्रयोदशस्थानक-समवाय ८५-तेरस किरियाठाणा पण्णत्ता, तं जहा अत्थादंडे अणत्थादंडे हिसादण्डे अकम्हादंडे दिद्धिविपरिमासियादंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादाणवत्तिए अज्झस्थिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरियावहिए नाम तेरसमे / तेरह क्रियास्थान कहे गये हैं। जैसे--अर्थदंड, अनर्थदंड, हिंसादंड, अकस्माद् दंड, दृष्टिविपर्यास दंड, मृषावाद प्रत्यय दंड, अदत्तादान प्रत्यय दंड, आध्यात्मिक दंड, मानप्रत्यय दंड, मित्रद्वेषप्रत्यय दंड, मायाप्रत्यय दंड, लोभप्रत्यय दंड और ईपिथिक दंड / विवेचन-कर्म-बन्ध की कारणभूत चेष्टा को क्रिया कहते हैं। उसके तेरह स्थान या भेद कहे गये हैं। अपने शरीर, कुटुम्ब आदि के प्रयोजन से जीव-हिंसा होती है, वह अर्थदंड कहलाता है / विना प्रयोजन जीव-हिंसा करना अनर्थदंड कहलाता है। संकल्पपूर्वक किसी प्राणी को मारना दंड है। उपयोग के विना अकस्मात् जीव-घात हो जाना अकस्माद् दंड है / दृष्टि या बुद्धि के विभ्रम से जीव-घात हो जाना दृष्टिविपर्यास दंड है, जैसे मित्र को शत्रु समझ कर मार देना। असत्य बोलने के निमित्त से होने वाला जीव-धात मृषाप्रत्यय दंड है / अदत्त वस्तु के आदान से--चोरी के निमित्त से होने वाले जीव-घात को अदत्तादानप्रत्यय दंड कहते हैं। अध्यात्म का अर्थ यहां मन है / बाहरी निमित्त के विना मन में हिंसा का भाव उत्पन्न होना या शोकादिजनित पीड़ा होना आध्यात्मिक दंड है / अभिमान के निमित्त से होने वाला जीव-घात मानप्रत्यय दंड है। मित्रजन-माता पिता आदि का-अल्प अपराध होने पर भी अधिक दंड देना मित्रद्वेषप्रत्यय दंड है। मायाचार करने से उत्पन्न होने वाला मायाप्रत्यय दंड कहलाता है। लोभ के निमित्त से होने वाला लोभप्रत्यय दण्ड कहलाता है / कषाय के अभाव में केवल योग के निमित्त होने वाला कर्मबन्ध ईर्यापथिक दंड कहलाता है। ८६-सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणपत्थडा पण्णत्ता। सोहम्मवडिसगे णं विमाणे अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / एवं ईसाणवडिसगे वि / जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिग्राणं अद्धतेरस जाइकल-कोडीजोणीयमहसयसहस्साई पण्णत्ता। सौधर्म-ईशान कल्पों में तेरह विमान-प्रस्तट (प्रस्तार, पटल या पाथड़े) कहे गये हैं / सौधर्मावतंसक विमान अर्ध-त्रयोदश अर्थात् साढ़े बारह लाख योजन अायाम-विष्कम्भ वाला है। इसी प्रकार ईशानावतंसक विमान भी जानना चाहिए। जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की जाति कूलकोटियां साढ़े बारह लाख कही गई हैं / ८७–पाणाउस्स णं पुवस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता। प्राणायु नामक बारहवें पूर्व के तेरह वस्तु नामक अधिकार कहे गये हैं / ८८-गम्भवक्कंतिअपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं तेरसविहे पोगे पण्णत्ते, तं जहासच्चमणपनोगे मोसमणपनोगे सच्चामोसमणपयोगे असच्चामोसमणपयोगे सच्चवइपोगे मोसवह Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोदशस्थानक समवाय] [39 कप्पेस पओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालियसरीरकायपओगे ओरालियमोससरीरकायपोगे वेउब्वियसरीरकायपओगे वेउग्वियमीससरीकायपोगे कम्मइयसरीरकायपओगे। गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों में तेरह प्रकार के योग या प्रयोग होते हैं। जैसे-सत्य मनःप्रयोग, मृषामनःप्रयोग, सत्यमृषामनःप्रयोग, असत्यामृषामनःप्रयोग, सत्यवचनप्रयोग भूषावचनप्रयोग, सत्यमृषावचनप्रयोग, असत्यामृषावचनप्रयोग, औदारिकशरीरकाय प्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियशरीरकायप्रयोग, वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोग, और कार्मणशरीरकायप्रयोग। 89 -सूरमंडलं जोयणेणं तेरसेहि एगसटिभागेहि जोयणस्स ऊणं पण्णत्ते / सूर्यमंडल एक योजन के इकसठ भागों में से तेरह भाग (13) से न्यून अर्थात् (16) योजन के विस्तार वाला कहा गया है। ९०-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइमाणं नेरइयाणं तेरसपलिओवमाइं ठिई पण्णता / पंचमीए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु थेगइमाणं देवाणं तेरस पलिओवमाडं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों को स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेरह पल्योपम कही गई है। ९१-लंतए कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं तेरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा वज्जं सुवज्जं वज्जावत्तं [वज्जप्पभं] वज्जतं वज्जवणं वज्जलेसं वज्जरूवं बज्जसिंगं वज्जसिलैं वज्जकूडं वज्जत्तरडिसगं वइरं वइरावत्तं वइरप्पभं वइरकंतं वइरवण्णं वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिटठं वइरकूडं वइरुत्तरडिसगं लोग लोगावत्तं लोगप्पभं लोगकंतं लोगवणं लोगलेसं लोगरूवं लोगसिंग लोगसिट्ठे लोगकडं लोगुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा तेरसहि अद्धमासेहि आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं तेरसहि वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुष्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेरसहि भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त [वज्रप्रभ] वज्रकान्त, बज्रवर्ण, वज्रलेश्य, वज्ररूप, वज्रशृग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वज्रोत्तरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकान्त, वइरवर्ण, वइरलेश्य वइग्रूप, वइरशृग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक ; लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककान्त. लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोकशृग, लोकसृष्ट, लोककूट और लोकोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम कही गई है। वे तेरह अर्धमामों (साढ़े छह मासों) के बाद प्रान-प्राण-उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के तेरह हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तेरह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / / त्रयोदशस्थानक समवाय समाप्त / / Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 [समवायाङ्गसूत्र चतुर्दशस्थानक-समवाय ९२-चउद्दस भूअग्गामा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमा अपज्जत्तया, सुहमा पज्जत्तया, बादरा अपज्जत्तया, बादरा पज्जत्तया, बेइंदिया अपज्जत्तया, बेइंदिया पज्जत्तया, तेइंदिया अपज्जत्तया, तेइंदिया पज्जत्तया, चउरिदिया अपज्जत्तया, चारिदिया पज्जत्तया, पंचिदिया असन्नि-अपज्जत्तया, पंचिदिया असन्नि-पज्जत्तया, पंचिंदिया सन्नि-अपज्जत्तया, पंचिदिया सन्निपज्जत्तया। चौदह भूतग्राम (जीवसमास) कहे गये हैं। जैसे--सूक्ष्म अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, सूक्ष्म पर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर अपर्याप्तक एकेन्द्रिय, बादर पर्याप्तक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय असंज्ञी पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय संज्ञी अपर्याप्तक और पंचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्तक / विवेचन--पर्याप्ति शब्द का अर्थ पूर्णता है। आहार, शरीर, इन्द्रियादि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें तद्रूप परिणत करने की योग्यता की पूर्णता पर्याप्ति कहलाती है। वे छह है-पाहार शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति / जिन जीवों में जितनी पर्याप्तियां संभव हैं, उनकी पूर्णता जिन्होंने प्राप्त करली है वे पर्याप्त कहलाते हैं। जिन्हें वह पूर्णता प्राप्त नहीं हुई हो उन्हें अपर्याप्त कहते हैं / इनकी पूर्ति का काल अन्तर्मुहूर्त है / ९३–चउद्दस पुव्वा पण्णत्ता, तं जहा उप्पायपुस्चयग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुवं / प्रत्थीनस्थिपवायं तत्तो नाणप्पवायं च // 1 // सच्चप्पवास पुव्वं तत्तो प्रायप्पवायपुव्वं च / कम्मप्पवायपुव्वं पच्चक्खाणं भवे नवमं // 2 // विज्जाअनुप्पवायं अबंझपाणाउ बारसं पुव्वं / तत्तो किरियविसालं पुवं तह बिंदुसारं च // 3 // चौदह पूर्व कहे गये हैं जैसे उत्पाद पूर्व, अमायणीय पूर्व, वीर्यप्रवाद-पूर्व, अस्तिनास्ति प्रवाह-पूर्व, ज्ञानप्रवाद-पूर्व, सत्यप्रवाद-पूर्व, प्रात्मप्रवाद-पूर्व, कर्मप्रवाद-पूर्व, प्रत्याख्यानप्रवाद-पूर्व, विद्यानुवाद-पूर्व, अबन्ध्य-पूर्व, प्राणावाय-पूर्व, क्रियाविशाल-पूर्व तथा लोकबिन्दुसार-पूर्व / विवेचन-बारहवें अंग दृष्टिवाद का एक विभाग पूर्व कहलाता है। पूर्व चौदह हैं। उनमें से उत्पाद-पूर्व में उत्पाद का प्राश्रय लेकर द्रव्यों के पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। अनायणोय-पूर्व में द्रव्यों के अग्र-परिमाण का आश्रय लेकर उनका निरूपण किया गया है / वीर्यप्रवाद-पूर्व में जीवादि द्रव्यों के वीर्य-शक्ति का निरूपण किया गया है। अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व में द्रव्यों के स्वद्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की अपेक्षा अस्तित्व का और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा नास्तित्व धर्म का प्ररूपण किया गया है / ज्ञानप्रवादपूर्व में मतिज्ञानादि ज्ञानों के भेद-प्रभेदों का सस्वरूप निरूपण किया है। सत्यप्रवादपूर्व में सत्य-संयम, सत्य वचन तथा उनके भेद-प्रभेदों का और उनके प्रति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्थानक समवाय] पक्षी असंयम, असत्य वचनादि का विस्तृत निरूपण किया गया है। आत्मप्रवाद-पूर्व में प्रात्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर उसके भेद-प्रभेदों का अनेक नयों से विवेचन किया गया है। कर्मप्रवाद-पूर्व में ज्ञानावरणादि कर्मों का अस्तित्व सिद्धकर उनके भेद-प्रभेदों एवं उदय-उदीरणादि विविध दशाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है / प्रत्याख्यानपूर्व में अनेक प्रकार के यम-नियमों का, उनके अतिचारों और प्रायश्चित्तों का विस्तृत विवेचन किया गया है। विद्यानुवादपूर्व में अनेक प्रकार के मंत्र-तंत्रों का, रोहिणी आदि महाविद्याओं का, तथा अंगुष्ठप्रश्नादि लघुविद्यानों की विधिपूर्वक साधना का वर्णन किया गया है / अवन्ध्यपूर्व में कभी व्यर्थ नहीं जाने वाले अतिशयों का, चमत्कारों का तथा जीवों का कल्याण करने वाली तीर्थकर प्रकृति के बांधने वाली भावनाओं का वर्णन किया गया है। दि० परम्परा में इस पूर्व का नाम कल्याणवाद दिया गया है / प्राणायु या प्राणावाय-पूर्व में जीवों के प्राणों के रक्षक आयुर्वेद के अष्टांगों का विस्तृत विवेचन किया गया है / क्रियाविशाल-पूर्व में अनेक प्रकार की कलाओं का तथा मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया का सभेद विस्तृत निरूपण किया गया है। लोकबिन्दुसार में लोक का स्वरूप, तथा मोक्ष के जाने के कारणभूत रत्नत्रयधर्म का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। ९४-अग्गेणिग्रस्स णं पुवस्स चउद्दस वत्थू पण्णत्ता। समणस्स णं भगवो महावीरस्स चउद्दस समणसाहस्सीमो उक्कोसिया समणसंपया होत्था / अग्रायणीय पूर्व के वस्तु नामक चौदह अर्थाधिकार कहे गये हैं। श्रमण भगवान् महावीर की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा चौदह हजार साधुओं की थी। ९५--कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा–मिच्छादिट्टी, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्ठी, अविरयसम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजय, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहमसंपराए--उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली। कर्मों की विशुद्धि(निराकरण) को गवेषणा करने वाले उपायों की अपेक्षा चौदह जीवस्थान कहे गये हैं / जैसे—मिथ्यादृष्टि स्थान, सासादन सम्यग्दृष्टि स्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि स्थान, विरताविरत स्थान, प्रमत्तसंयत स्थान, अप्रमत्तसंयत स्थान, निवृत्तिबादर स्थान, अनिवृत्तिवादर स्थान, सूक्ष्ममाम्प राय उपशामक और क्षपक स्थान, उपशान्तमोह स्थान, क्षीणमोह स्थान, सयोगिकेवली स्थान, और अयोगिकेवली स्थान / विवेचन--सूत्र-प्रतिपादित उक्त चौदह जीवस्थान गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध हैं / उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 1. मिथ्यादष्टि गुणस्थान-अनादिकाल से इस जीव की दृष्टि, रुचि, प्रतीति या श्रद्धा मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्या या विपरीत चली आ रही है। यद्यपि इस गुणस्थान वाले जीवों के कषायों की तीव्रता और मन्दता की अपेक्षा संक्लेश की हीनाधिकता होती रहती है, तथापि उनकी दृष्टि मिथ्या या विपरीत ही बनी रहती है। उन्हें आत्मस्वरूप का कभी यथार्थ भान नहीं होता। और जब तक जीव को अपना यथार्थ भान (सम्यग्दर्शन) नहीं होगा, तब तक वह मिथ्यादृष्टि ही बना Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [समवायाङ्गसूत्र रहेगा। फिर भी इसे गुणस्थान संज्ञा दी गई है, इसका कारण यह है कि इस स्थान वाले जीवों के यथार्थ गुणों का विनाश नहीं हुआ है, किन्तु कर्मों के प्रावरण से उनका वर्तमान में प्रकाश नहीं हो रहा है। 2. सासादन या सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान --जब कोई भव्य जीव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का और अनन्तानुबंधी कषायों का उपशम करके सम्यग्दृष्टि बनता है, तब वह उस अवस्था में अन्तर्मुहूर्त काल ही रहता है। उस काल के भीतर कुछ समय शेष रहते हुए यदि अतन्तानुबन्धी कषाय का उदय आ जावे, तो वह नियम से गिरता है और एक समय से लेकर छह प्रावली काल तक वमन किये गये सम्यक्त्व का कुछ आस्वाद लेता रहता है। इसी मध्यवर्ती पननोन्मुख दशा का नाम सास्वादन गुणस्थान है। तथा यह जीव सम्यक्त्व की प्रासादना (विराधना) करके गिरा है, इसलिए इसे सासादान सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं। 3. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-प्रथम वार उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करते हुए जीव मिथ्यात्व कर्म के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिरूप तीन विभाग करता है। ता है। इनमें से उपशम सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय हो जाता है, तो वह अर्धसम्यक्त्वी और अर्धमिथ्यात्वी जैसी दृष्टिवाला हो जाता है / इसे ही तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान कहते हैं। इसका काल अन्तर्मुहूर्त ही है / अत: उसके पश्चात् यदि सम्यक्त्वप्रकृति का उदय हो जाय तो वह ऊपर चढ़कर सम्यक्त्वो बन जाता है। और यदि मिथ्यात्व कर्म का उदय हो जाय, तो वह नीचे गिरकर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आ जाता है। 4. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-दर्शन मोहनीयकर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके जीव सम्यग्दृष्टि बनता है। उसे प्रात्मस्वरूप का यथार्थ भान हो जाता है, फिर भी चरित्रमोहनीय कर्म के उदय से वह सत्य मार्ग पर चलने में असमर्थ रहता है और संयमादि के पालन करने की भावना होने पर भी व्रत, संयमादि का लेश मात्र भी पालन नहीं कर पाता है / विरति या त्याग के अभाव से इसे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है / इस गुणस्थान को चारों गतियों के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव प्राप्त कर सकते हैं।। 5. विरताविरत गुणस्थान--जब उक्त सम्यग्दृष्टि जीव के अप्रत्याख्यान कषाय का उपशम या क्षयोपशम होता है, तब वह त्रसहिंसादि स्थूल पापों से विरत होता है, किन्तु स्थावरहिंसादि सूक्ष्म पापों से अविरत ही रहता है। ऐसे देशविरत अणुव्रती जीव को विरताविरत गुणस्थान वाला कहा जाता है। इस गुणस्थान को केवल मनुष्य और कर्मभूमिज कोई सम्यक्त्वी तिर्यंच प्राप्त कर सकते हैं। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थान जब उक्त सम्यग्दष्टि जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम पशम होता है, वह स्थल और सूक्ष्म सभी हिंसादि पापों का त्याग कर महाव्रतों को अर्थात सकलसंयम को धारण करता है। फिर भी उसके संज्वलन और नोकषायों के तीव्र उदय होने से कुछ प्रमाद बना ही रहता है। ऐसे प्रमाद-युक्त संयमी को प्रमत्तसंयत गुणस्थानवाला कहा जाता है। 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-जब उक्त जीव के संज्वलन और नोकषायों का मन्द उदय होता है, तब वह इन्द्रिय-विषय, विकथा, निद्रादिरूप सर्व प्रमादों से रहित होकर प्रमादहीन संयम का पालन करता है / ऐसे साधु को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान वाला कहा जाता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्थानक समवाय] [43 यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि पाचवें से ऊपर के सभी गुणस्थान केवल मनुष्यों के ही होते हैं और सातवें से ऊपर के सभी गुणस्थान उत्तम संहनन के धारक तद्भव मोक्षगामी को होते हैं / हां, ग्यारहवें गुणस्थान तक निकट भव्य पुरुष भी चढ़ सकता है। किन्तु उसका नियम से पतन होता है और अपार्ध पुद्गल परावर्तन काल तक वह संसार में परिभ्रमण कर सकता है। सातवें गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणी होती हैं-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी / जो जीव चारित्रमोहकर्म का उपशम करता है, वह उपशम श्रेणी चढ़ता है। जो जीव चारित्रमोहकर्म का क्षय करने के लिए उद्यत होता है, वह क्षपक श्रेणी चढ़ता है। दोनों श्रेणी वाले गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है। ___8. निवृत्तिबादर उपशामक क्षपक गुणस्थान-अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शनमोहत्रिक इन सात प्रकृतियों का उपशमन करने वाला जीव इस आठवें गुणस्थान में प्राकर अपनी अपूर्व विशुद्धि के द्वारा चारित्रमोह की शेष रही 21 प्रकृतियों के उपशमन की, तथा उक्त सात प्रकृतियों का क्षय करने वाला क्षायिक सम्यग्दष्टि जीव उक्त प्रकृतियों के क्षपण की आवश्यक तैयारी करता है / अतः इस गुणस्थानवाले सम समयवर्ती जीवों के परिणामों में भिन्नता रहती है और बादर संज्वलन कषायों का उदय रहता है, अतः इसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं। 9. अनिवृत्तिबादर उपशामक-क्षपक गुणस्थान–इस गुणस्थान में आने वाले एक समयवर्ती सभी जीवों के परिणाम एक से होते हैं, उनमें निवृत्ति या भिन्नता नहीं होती, अतः इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में उपशम श्रेणीवाला जीव सूक्ष्म लोभ को छोड़कर शेष सभी चारित्रमोह प्रकृतियों का उपशम और क्षपक श्रेणीवाला जीव उन सभी का क्षय कर डालता है और दशवें गुणस्थान में पहुंचता है। 10. सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक-क्षपक गुणस्थान--इस गुणस्थान में पाने वाले दोनों श्रेणियों के जीव सूक्ष्मलोभकषाय का वेदन करते हैं, अतः इसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान कहते हैं। सम्पराय नाम कषाय का है / उपशम श्रेणीवाला जीव उस सूक्ष्मलोभ का उपशम करके ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंचता है और क्षपक श्रेणी वाला उसका क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है। दोनों श्रेणियों के इसी भेद को बतलाने के लिए इस गुणस्थान का नाम 'सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक-क्षपक' दिया गया है। 11. उपशान्तमोह गुणस्थान--उपशम श्रेणीवाला जीव दश गुणस्थान के अन्तिम समय में सूक्ष्म लोभ का उपशमन कर इस गुणस्थान में आता है और मोह कर्म की सभी प्रकृतियों का पूर्ण उपशम कर देने से यह उपशान्तमोह गुणस्थान वाला कहा जाता है। इस गुणस्थान का काल लधु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसके समाप्त होते ही वह नीचे गिरता हुप्रा सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। यदि उसका संसार-परिभ्रमण शेष है, तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी प्राप्त हो जाता है। 12. क्षीणमोह गुणस्थान-क्षपक श्रेणी पर चढ़ा हुअा दशवें गुणस्थानवर्ती जीव उसके अन्तिम समय सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके क्षीणमोही होकर बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है। यतः उसका मोहनीयकर्म सर्वथा क्षीण या नष्ट हो चुका है, अतः यह गुणस्थान 'क्षीणमोह' इस सार्थक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] [समवायानसूत्र नाम से कहा जाता है। इस गुणस्थान का काल भी लघु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उसके भीतर यह ज्ञानावरण कर्म को पांच, दर्शनावरण कर्म की नो और अन्तराय कर्म की पांच इन उन्नीस प्रकृतियों के सत्त्व की असंख्यात गुणी प्रतिसमय निर्जरा करता हुअा अन्तिम समय में सबका सर्वथा क्षय करके केवलज्ञान-दर्शन को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। 13. सयोगिकेवली गुणस्थान-इस गुणस्थान में केवली भगवान् के योग विद्यमान रहते हैं, अत: इसका नाम सयोगिकेवली गुणस्थान है। ये सयोगिजिन धर्मदेशना करते हुए विहार करते रहते हैं। जीवन के अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर ये योगों का निरोध करके चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। 14. अयोगिकेवलो गुणस्थान--इस गुणस्थान का काल 'अ, इ, उ, ऋ, लु' इन पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारणकाल-प्रमाण है। इतने ही समय के भीतर वे वेदनीय, प्रायू, नाम और गोत्रकर्म की सभी सत्ता में स्थित प्रकृतियों का क्षय करके शुद्ध निरंजन सिद्ध होते हुए सिद्धालय में जा विराजते हैं और अनन्त स्वात्मोत्थ सूख के भोक्ता बन जाते हैं। ९६-भरहेरवयानो णं जीवाश्रो चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साइं चत्तारि अ एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगणवीसे भागे जोयणस्स प्रायामेणं पण्णत्तायो। भरत और ऐरवत क्षेत्र की जीवाएं प्रत्येक (144016) चौदह हजार चार सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण लम्बी कही गई हैं। विवेचन–डोरी चढ़े हुए धनुष के समान भरत और ऐरवत क्षेत्र का प्राकार है। उसमें डोरी रूप लम्बाई को जीवा कहते हैं / वह उक्त क्षेत्रों की (144016) योजन प्रमाण लम्बी है / ९७–एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउद्दस रयणा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थीरयणे, सेणावइरयणे, गाहावइरयणे, पुरोहियरयणे, बडइरयणे, प्रासरयणे, हत्थिरयणे, असिरयणे, दण्डरयणे चक्करयणे, छत्तरयणे, चम्मरयणे, मणिरयणे, कागिणिरयणे। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के चौदह-चौदह रत्न होते हैं। जैसे-स्त्रीरत्न, सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्न, पुरोहितरत्न, वर्धकीरत्न, अश्वरत्न, हस्तिरत्न, असिरत्न, दंडरत्न, चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और काकिणिरत्न।। विवेचन-चेतन या अचेतन वस्तुओं में जो वस्तु अपनी जाति में सर्वोत्कृष्ट होती है, उसे रत्न कहा जाता है। प्रत्येक चक्रवर्ती के समय में जो सर्वश्रेष्ठ सुन्दर स्त्री होती है, वह उसकी पट्टरानी बनती है और उसे स्त्रीरत्न कहा जाता है। इसी प्रकार प्रधान सेना-नायक को सेनापतिरत्न, प्रधान कोठारी या भंडारी को गृहपतिरत्न, शान्तिकर्मादि करानेवाले पुरोहित को पुरोहितरत्न, रथादि के निर्माण करने वाले बढ़ई को वर्धकिरत्न, सर्वोत्तम घोड़े को अश्वरत्न और सर्वश्रेष्ठ हाथी को हस्तिरत्न कहा जाता है। ये सातों चेतन पंचेन्द्रिय रत्न हैं / शेष सात एकेन्द्रिय कायवाले रत्न हैं। कहा जाता है कि प्रत्येक रत्न की एक-एक हजार देव सेवा करते हैं। इसीसे उन रत्नों की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशस्थानक समवाय] [45 ९८-जंबुद्दीवे णं दीवे चउद्दस महानईग्रो पुवावरेण लवणसमुह समपंति, तं जहा---गंगा, सिंधू, रोहिआ, रोहिअंसा, हरी, हरिकता, सोमा, सीग्रोदा, नरकंता, नारीकता, सुवष्णकूला, रुप्प. कूला, रत्ता, रत्तवई। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौदह महानदियां पूर्व और पश्चिम दिशा से लवणसमुद्र में जाकर मिलती हैं। जैसे -गंगा-सिन्धु, रोहिता-रोहितांसा, हरी-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नरकान्तानारीकान्त।, सुवर्ण-कूला-रुप्यकुला, रक्ता और रक्तवती। विवेचन-उक्त सात युगलों में से प्रथम नाम वाली महानदी पूर्व की ओर से और दूसरे नाम वाली महानदी पश्चिम की ओर से लवणसमुद्र में प्रवेश करती है / नदियों का एक-एक युगल भरत आदि सात क्षेत्रों में क्रमशः प्रवहमान रहता है। ९९-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउद्दस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / पंचमीए णं पढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चउस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्थेगइयाणं देवाणं चउद्दस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। लंतए कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। __ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति चौदह पल्योपम कही गई है। पांचवीं पृथिवी में किन्हीं-किन्हीं नारकों की स्थिति चौदह सागरोपम की है। किन्हीं-किन्हीं असुरकुमार देवों की स्थिति चौदह पल्योपम को है। सौधर्म और ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति चौदह पल्योपम कही गई है / लान्तक कल्प में कितनेक देवों की स्थिति चौदह सागरोपम कही गई है। १००-~-महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णण चउद्दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा सिरिकंतं सिरिमहिअं सिरिसोमनसं लंतयं काविट्ठ महिंदं महिंदकतं महिंदुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिं णं देवाणं उवकोसेणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा चउद्दसहि अद्धमासेहि आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं चउद्दसहि वाससहस्सेहिं प्राहारट्टे समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउद्दसहि भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति चौदह सागरोपम कही गई है / वहां जो देव श्रीकान्त श्रीमहित, श्रीसौमनस, लान्तक, कापिष्ठ, महेन्द्र महेन्द्रकान्त और महेन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौदह सागरोपम कही गई है / वे देव चौदह अर्धमासों (सात मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों को चौदह हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चौदह भव ग्रहण कर सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // चतुर्दशस्थानक समवाय समाप्त // Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र पञ्चदशस्थानक समवाय १०१-पन्नरस परमाहम्मिना पण्णत्ता, तं जहा-- अंबे २अंबरिसी चेव सामे "सबलेत्ति पावरे / "रुद्दो विरुद्द "काले अ महाकालेत्ति पावरे // 1 // 'असिपत्ते 'धणु ''कुम्भे 1 वालुए वे 'अरणी ति प्र। १४खरस्सरे "महाघोसे एते पन्नरसाहिया // 2 // पन्द्रह परम अधामिक देव कहे गये हैं - अम्ब 1, अम्बरिषी 2, श्याम 3, शबल 4, रुद्र 5, उपरुद्र 6, काल 7, महाकाल 8, असिपत्र 9, धनु 10, कुम्भ 11, वालुका 12, वैतरणी 13, खरस्वर 14, महाघोष 15 // 1-2 // विवेचन-यद्यपि ये अम्ब आदि पन्द्रह असुरकुमार जाति के भवनवासी देव हैं, तथापि ये पूर्व भव के संस्कार से अत्यन्त क्रूर संक्लेश परिणामी होते हैं और इन्हें नारकों को लड़ाने-भिड़ाने और मार-काट करने में ही आनन्द प्राता है, इसलिए ये परम-अधार्मिक कहलाते हैं। इनमें जो नारकों को खींच कर उनके स्थान से नीचे गिराता है और बाँधकर खुले अम्बर (आकाश) में छोड़ देता है, उसे अम्ब कहते हैं / अम्बरिषि असुर उस नारक को गंडासों से काट-काट कर भाड़ में पकाने के योग्य टुकड़े-टुकड़े करते हैं। श्याम असुर कोड़ों से तथा हाथ के प्रहार आदि से नारकों को मारते-पीटते हैं। शबल असर चीर-फाड कर नारकियों के शरीर से अांतें, चर्बी, हृदय ग्रादि निकालते हैं। रुद्र और उपरुद्र असुर भाले बर्छ आदि से छेद कर ऊपर लटकाते हैं। काल असुर नारकों को कण्डु आदि में पकाते हैं। महाकाल उनके पके मांस को टुकड़े-टुकड़े करके खाते हैं। असिपत्र असुर सेमल वृक्ष का रूप धारण कर अपने नोचे छाया के निमित्त से आने वाले नारकों को तलवार की धार के समान तीक्ष्ण पत्ते गिरा कर उन्हें कष्ट देते हैं / धनु असुर धनुष द्वारा छोड़े गये तीक्ष्ण नोक वाले वाणों से नारकियों के अंगों का छेदन-भेदन करते हैं / कुभ उन्हें कुभ आदि में पकाते हैं। वालुका जाति के असुर कार कदम्ब पुष्प के आकार और वज्र के प्राकार रूप से अपने शरीर की विक्रिया करके उष्ण वालु में गर्म भाड़ में चने के समान नारकों को भूनते हैं / वैतरणी नामक असुर पीव, रक्त प्रादि से भरी हुई तप्त जल वाली नदी का रूप धारण करके प्यास से पीड़ित होकर पानी पीने को पाने वाले नारकों को अपने विक्रिया वाले क्षार उष्ण जल से पीड़ा पहुँचाते हैं और उनको उसमें डुबकियां लगवाते हैं / खरस्वर वाले असुर वज्रमय कंटकाकीर्ण सेमल वृक्ष पर नारकों को बार-बार चढ़ाते-उतारते हैं। महाधोष असुर भय से भागते हुए नारकियों को बाड़ों में घेर कर उन्हें नाना प्रकार की यातनाएं देते हैं / इस प्रकार ये क्रूर देव तीसरी पृथिवी तक जा करके वहाँ के नारकों को भयानक कष्ट देते हैं। १०२–णमी णं अरहा पन्नरस धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्या / नमि अर्हन् पन्द्रह धनुष ऊंचे थे। १०३-धुवराहू गं बहुलपक्खस्स पडिवए पन्नरसभागं पन्नरस भागेणं चंदस्सलेसं पावरेत्ताण चिट्ठति / तं जहा—पढमाए पढमं भागं, बोलाए दुभागं, तइयाए तिभागं, चउत्थीए चउभागं, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 47 पञ्चदशस्थानक समवाय ] पंचमीए पंचभाग, छट्ठीए छभाग, सत्तमोए सत्तभागं, अट्ठमीए अट्ठभागं, नवमीए नवभाग, दसमीए दसभागं, एक्कारसीए एक्कारसभागं, बारसीए बारसभागं, तेरसीए तेरसभागं, चउद्दसोए चउद्दसभाग, पन्नरसेसु पन्नरसभागं, [आवरेत्ताण चिट्ठति तं चेव मुक्कपक्खस्स य उवदंसेमाणे उबदंसेमणे चिट्ठति / तं जहा–पढमाए पढमभागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसभागं उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति / ध्र वराहु कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन से चन्द्र लेश्या के पन्द्रहवें-पन्द्रहवें दीप्तिरूप भाग को अपने श्यामवर्ण से प्रावरण करता रहता है / जैसे--प्रतिपदा के दिन प्रथम भाग को, द्वितीया के दिन द्वितीय भाग को, तृतीया के दिन तीसरे भाग को, चतुर्थी के दिन चौथे भाग को, पंचमी के दिन पांचवें भाग को, पष्ठी के दिन छठे भाग को, सप्तमी के दिन सातवें भाग को, अष्टमी के दिन पाठवें भाग को, नवमी के दिन नौवें भाग को, दशमी के दिन दशव भाग को, एकादशी के दिन ग्यारहवें भाग को, द्वादशी के दिन बारहवें भाग को, त्रयोदशी के दिन तेरहवें भाग को, चतुर्दशी के दिन चौदहवें भाग को और पन्द्रस (अमावस) के दिन पन्द्रहवें भाग को आवरण करके रहता है / वही ध्र वराहु शुक्ल पक्ष में चन्द्र के पन्द्रहवें-पन्द्रहवें भाग को उपदर्शन कराता रहता है। जैसे प्रतिपदा के दिन पन्द्रहवें भाग को प्रकट करता है, द्वितीया के दिन दूसरे पन्द्रहवें भाग को प्रकट करता है। इस प्रकार पूर्णमासी के दिन पन्द्रहवें भाग को प्रकट कर पूर्ण चन्द्र को प्रकाशित करता है। विवेचन-राहु दो प्रकार के माने गये हैं-एक पर्वराहु और दूसरा ध्र वराहु। इनमें से वराह तो पणिमा के दिन छह मास के बाद चन्द्र-विमान का आवरण करता है और ध्र वराह चन्द्रविमान से चार अंगुल नीचे विचरता हुआ चन्द्र की एक-एक कला को कृष्ण पक्ष में आवृत करता और शुक्ल पक्ष में एक-एक कला को प्रकाशित करता रहता है / चन्द्रमा की दीप्ति या प्रकाश को चन्द्रलेश्या कहा जाता है। १०४-छ णक्खता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता, तं जहा--- सतभिसय भरणि अद्दा असलेसा साई तहा जेट्ठा। एते छण्णक्खता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता // 1 // छह नक्षत्र पन्द्रह मुहर्त तक चन्द्र के साथ संयोग करके रहने वाले कहे गये हैं। जैसेशतभिषक्, भरणी, प्रार्दा, आश्लेषा, स्वाति और ज्येष्ठा / ये छह नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त तक चन्द्र से संयुक्त रहते हैं / / 1 / / १०५-चेत्तासोएसु णं मासेसु पन्नरसमुहुत्तो दिवसो भवति / एवं चेत्तासोयमासेसु पण्णरसमुहुत्ता राई भवति / चैत्र और प्रासौज मास में दिन पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त का होता है। इसी प्रकार चैत्र और प्रासौज मास में रात्रि भी पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त की होती है। १०६---विज्जाअणुप्पवायस्स णं पुवस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता। विद्यानुवाद पूर्व के वस्तु नामक पन्द्रह अर्थाधिकार कहे गये हैं। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [समवायाङ्गसूत्र १०७-मणूसाणं पण्णरसविहे पओगे पण्णत्ते, तं जहा---सच्चमणपओगे (1), मोसमणपओगे (2), सच्चमोसमणपओगे (3), असच्चामोसमणपनोगे (4), सच्चवइपओगे (5), मोसवइपओगे (6), सच्चमोसवइपओगे (7), असच्चामोसवइपओगे (8), ओरालिअसरीरकायपओगे (9), ओरालिअमीससरीरकायपओगे (10), वेउब्वियसरीरकायपओगे (11), वेउस्विमीससरीकायपओगे (12), आहारयसरीरकायप्पओगे (13), आहारयमोससरीरकायप्पओगे (14), कम्मयसरीरकायप्पओगे (15) / ___मनुष्यों के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गये / जैसे—१. सत्यमनःप्रयोग, 2. मृषामन: प्रयोग, 3. सत्यमृषामनःप्रयोग, 4. असत्यमृषामनःप्रयोग, 5. सत्यवचनप्रयोग, 6. मृषावचनप्रयोग, 7. सत्यमृषावचनप्रयोग, 8. असत्यमृषावचनप्रयोग, 9. औदारिक शरीरकाय प्रयोग, 10. औदारिक मिश्र शरीरकायप्रयोग, 11. वैक्रिय शरीरकायप्रयोग, 12. वैक्रियमित्र शरीरकायप्रयोग, 13. आहारक शरीरकायप्रयोग, 14. आहारकमिश्र शरीरकायप्रयोग और 15. कार्मण शरीरकायप्रयोग। विवेचन--प्रात्मा के परिस्पन्द क्रियापरिणाम या व्यापार को प्रयोग कहते हैं। अथवा जिस क्रियापरिणाम रूप योग के साथ आत्मा प्रकर्ष रूप से सम्बन्ध को प्राप्त हो उसे प्रयोग कहते हैं / सत्य अर्थ के चिन्तन रूप व्यापार को सत्यमनःप्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार मृषा (असत्य) अर्थ के चिन्तनरूप व्यापार को मृषामनःप्रयोग, सत्य असत्य रूप दोनों प्रकार के मिश्रित अर्थ-चिन्तन रूप व्यापार को सत्य-मृषामनःप्रयोग, तथा सत्य-मृषा से रहित अनुभय अर्थ रूप चिन्तन को असत्यामृषामन:प्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार से सत्य, मृषा ग्रादि चारों प्रकार के वचन-प्रयोगों का अर्थ जानना चाहिए / प्रौदारिक शरीर वाले पर्याप्तक मनुष्य-तिर्यचों के शरीर-व्यापार को ग्रौदारिकशरीर कायप्रयोग और अपर्याप्तक उन्हीं मनुष्य-तिर्यंचों के शरीर-व्यापार को औदारिक मिश्र शरीरकायप्रयोग कहते हैं। इसी प्रकार से पर्याप्तक देव-नारकों के वैक्रिय शरीर के व्यापार को वैक्रियशरीर कायप्रयोग और अपर्याप्तक उन्हीं देव-नारकों के शरीरव्यापार को वैक्रिय मिश्र शरीर कायप्रयोग कहते हैं। अहारकशरीरी होकर औदारिक शरीर पुन: ग्रहण करते समय के व्यापार को ग्राहारक मिश्रशरीर कायप्रयोग और आहारकशरीर के व्यापार के समय पाहारक शरीरकायप्रयोग होता है। एक गति को छोड़कर अन्य गति को जाते हुए विग्रहगति में जीव के जो योग होता है, उसे कार्मण शरीरकायप्रयोग कहते हैं। केवली भगवान् के समुद्घात करने की दिशा में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में भी कार्मणशरीर काययोग होता है / १०८-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइआणं नेरइयाणं यन्नरस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / पंचमीए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं पन्नरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंग इआणं पन्नरस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइप्राणं देवाणं पन्नरस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। सौधर्म ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम कही गई है। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षोडशस्थानक समवाय] [49 - १०९-महासुक्के कप्पे अत्थेगइआणं देवाणं पन्नरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा णंदं सणंदं गंदावत्त गंदप्पभं गंदकंतं गंदवणं गंदलेसं णंदज्झयं णंदसिंगं गंदसिटठं गंदकडं गंदत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पन्नरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तेणं देवा पण्णरसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा. उस्ससंति वा. नीससंति वा / तेसि णं देवाणं पण्णरसहि वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ / / संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे पण्णरसहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / महाशुक्र कल्प में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही गई है। वहाँ जो देव नन्द, सुनन्द, नन्दावर्त, नन्दप्रभ, नन्दकान्त, नन्दवर्ण, नन्दलेश्य, नन्दध्वज, नन्दशृग, नन्दसृष्ट, नन्दकूट और नन्दोत्तरावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह सागरोपम कही गई है। वे देव पन्द्रह अर्धमासों (साढ़े सात मासों) के बाद पान-प्राण उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों को पन्द्रह हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो पन्द्रह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / / पंचदशस्थानक समवाय समाप्त // षोडशस्थानक-समवाय ११०--सोलस य गाहा-सोलसगा पण्णत्ता। तं जहा—'समए 'वेयालिए उवसग्गपरिन्ना "इत्थोपरिण्णा 'निरयविभत्ती महावीरथुई "कुसोलपरिभासिए वोरिए धम्मे '"समाही "मग्गे १२समोसरणे आहातहिए 'गंथे ''जमईए गाहासोलसमे "सोलसगे। सोलह गाथा-षोडशक कहे गये हैं / जैसे-१ समय, 2 वैतालीय, 3 उपसर्ग परिज्ञा, 4 स्त्रीपरिज्ञा, 5 नरकविभक्ति, 6 महावीरस्तुति, 7 कुशीलपरिभाषित, 8 वीर्य, 9 धर्म, 10 समाधि, 11 मार्ग, 12 समवसरण, 13 याथातथ्य, 14 ग्रन्थ, 15 यमकीय और 16 सोलहवाँ गाथा / विवेचन -सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में 'समय' आदि नाम वाले सोलह अध्ययन हैं, इसलिए वे 'गाथा-षोडशक' के नाम से प्रसिद्ध हैं / पहले अध्ययन में नास्तिक आदि के समयों (सिद्धान्तों या मतों) का प्रतिपादन किया गया है। दूसरे अध्ययन की रचना वैतालीय छन्दों में की गई है, अतः उसे वैतालीय कहते हैं। इसी प्रकार शेष अध्ययनों का कथन जान लेना चाहिए / समवसरण-अध्ययन में तीन सौ तिरेसठ मतों का समुच्चय रूप से वर्णन किया गया है। सोलहवें अध्ययन को पूवोक्त पन्द्रह अध्ययनों के अर्थ का गान करने से, गाथा नाम से कहा गया है। १११-सोलस कसाया पण्णता / तं जहा-अणंताणुबंधी कोहे, अणंताणुबंधी माणे, अणंताणुबंधी माया, अणंताणुबंधी लोभे; अपच्चक्खाणकसाए कोहे, अपच्चक्खाणकसाए माणे, अपच्चक्खाण Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र कसाए माया अपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, पच्चक्खाणावरणे माणे, पच्चक्खाणावरणा माया, पच्चक्खाणावरणे लोभे; संजलणे कोहे, संजलणे माणे, संजलणा माया, संजलणे लोभे। कषाय सोलह कहे गये हैं। जैसे—अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी लोभ ; अप्रत्याख्यानकषाय क्रोध, अप्रत्याख्यानकषाय मान, अप्रत्याख्यानकषाय माया, अप्रत्याख्यानकषाय लोभ ; प्रत्याख्यानावरण क्रोध प्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण लोभ; संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ / ११२---मंदरस्स णं पव्वयस्स सोलस नामधेया पण्णत्ता, तं जहा मंदर' मेरु' मणोरण सुदंसण सयंपभेय गिरिराया। रयणुच्चय' पियदसण मज्झे लोगस्स: नाभीय // 1 // प्रत्थे'अ सूरिसावत्ते'२ सूरिआ 3 वरण ति अ / उत्तरे'४ अ दिसाई अ५ डिसे'६ इअ सोलसे // 2 // मन्दर पर्वत के सोलह नाम कहे गये हैं / जैसे 1 मन्दर, 2 मेरु, 3 मनोरम, 4 सुदर्शन, 5 स्वयम्प्रभ, 6 गिरिराज, 7 रत्नोच्चय, 8 प्रियदर्शन, 9 लोकमध्य, 10 लोकनाभि, 11 अर्थ, 12 सूर्यावर्त, 13 सूर्यावरण, 14 उत्तर, 15 दिशादि और 16 अवतंस / / 1-2 / / ११३-पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स सोलस समणसाहस्सीमो उक्कोसिआ समणसंपदा होत्था / आयप्पवायस्स णं पुध्वस सोलस वत्थू पण्णत्ता। चमरबलोणं ओवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णते। लवणे णं समुद्दे सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा सोलह हजार श्रमणों की थी। प्रात्मप्रवाद पूर्व के वस्तु नामक सोलह अर्थाधिकार कहे गये हैं। चमरचंचा और बलीचंचा नामक राजधानियो के मध्य भाग में उतार-चढ़ाव रूप अवतारिकालयन वत्ताकार वाले होने से सोलह हजार आयाम-विष्कम्भ वाले कहे गये है। लवणसमुद्र के मध्य भाग में जल के उत्सेध की वृद्धि सोलह हजार योजन कही गई है। ११४--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। पंचमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सोलस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं अत्थेगइमाणं सोलस पलिओवमाई ठिई पण्णता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सोलस पलिग्रोवमाइंठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है। पाँचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति सोलह सागरोपम की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सोलह पल्योपम कही गई है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशस्थानक समवाय] ११५.-महासुक्के कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं सोलस सागरोवमाई ठिई पण्णता। जे देवा आवत्तं विप्रावत्तं नंदिआवत्तं महाणंदिआवत्तं अंकुसं अंकुसपलंबं भदं सुभदं महाभद्दे सव्वओभई भद्दुत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाई ठिई पण्णता / ते णं देवा सोलसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं सोलसवाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ। ___ संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे सोलसहि भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / महाशूक्र कल्प में कितनेक देवों की स्थिति सोलह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव आवर्त, व्यावर्त, नन्द्यावर्त, महानन्द्यावर्त, अंकुश, अंकुशप्रलम्ब, भद्र, सुभद्र, महाभद्र, सर्वतोभद्र और भद्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सोलह सागरोपम कही गई है / वे देव सोलह अर्धमासों (आठ मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। उन देवों को सोलह हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है / कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सोलह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे / // षोडशस्थानक समवाय समाप्त // सप्तदशस्थानक-समवाय ११६-सत्तरसविहे असंजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकायअसंजमे आउकायअसंजमे तेउकायअसंजमे बाउकायअसंजमे वणस्सइकायप्रसंजमे बेइंदियअसंजमे तेइंदियअसंजमे चारदियघसंजमे पंचिदिअअसंजमे अजीवकाय प्रसंजमे पेहाप्रसंजमे उबेहाअसंजमे अवहट्टुअसंजमे अप्पमज्जणाअसंजमे मणअसंजमे व इअसंजमे काय प्रसंजमे / सत्तरह प्रकार का असंयम कहा गया है। जैसे-१. पृथिवीकाय-असंयम, 2. अप्काय-असंयम, 3. तेजस्काय-असंयम, 4. वायुकाय-प्रसंयम, 5. वनस्पतिकाय-असंयम, 6. द्वीन्द्रिय-असंयम, 7. त्रीन्द्रिय-असंयम, 8. चतुरिन्द्रिय-असंयम, 9. पंचेन्द्रिय-असंयम, 10, अजीवकाय-असंयम, 11. प्रेक्षाअसंयम, 12. उपेक्षा-प्रसंयम, 13. अपहृत्य-असंयम, 14. अप्रमार्जना-प्रसंयम, 15. मनः-असंयम, 16. वचन-असंयम, 17. काय-असंयम / 117-- सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा--पुढविकायसंजमे आउकायसंजमे तेउकायसंजमे वाउकायसंजमे वगस्सइकायसंजमे बेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे चउरिदियसंजमे पंचिदियसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उवेहासंजमे अवहटुसंजमे पमज्जणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे / सत्तरह प्रकार का संयम कहा गया है / जैसे-१. पृथिवीकाय-संयम, 2. अप्काय-संयम, ३.तेजस्काय-संयम, 4. वायकाय-संयम, 5. वनस्पतिकाय-संयम, ६.द्वीन्द्रिय-संयम, 7. श्रीन्द्रिय-संयम न्द्रिय-संयम, 9. पंचेन्द्रिय-संयम, 10. अजीवकाय-संयम, 11. प्रेक्षा-संयम, 12. उपेक्षा Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र संयम, 13. अपहृत्य-संयम, 14. प्रमार्जना-संयम, 15. मनः-संयम, 16. वचन-संयम, 17. कायसंयम। विवेचन--समिति या सावधानीपूर्वक यम-नियमों के पालन करने को संयम कहते हैं और संयम का पालन नहीं करना असंयम है / एकेन्द्रिय पृथिवीकाय आदि जीवों की रक्षा करना, उनको किसी प्रकार से बाधा नहीं पहुँचाना पृथिवीकायादि जीवविषयक संयम है और उनको बाधादि पहुँचाना उनका असंयम है। अजीव पौद्गलिक वस्तुओं सम्बन्धी संयम अजीव-संयम है और उनकी अयतना करना अजीव-असंयम है / स्थान, उपकरण, वस्त्र-पात्रादि का विधिपूर्वक पर्यवेक्षण करना प्रेक्षासंयम है और उनका पर्यवेक्षण नहीं करना, या अविधिपूर्वक करना प्रेक्षा-असंयम है। शत्रु-मित्र में, और इष्ट-अनिष्ट वस्तुनों में राग-द्वेष नहीं करना, किन्तु उनमें मध्यस्थभाव रखना उपेक्षासंयम है / उनमें राग-द्वेषादि करना उपेक्षा-असंयम है / संयम के योगों की उपेक्षा करना अथवा असंयम के कार्यों में व्यापार करना उपेक्षा असंयम है / जीवों को दूर कर निर्जीव भूमि में विधिपूर्वक मल-मूत्रादि का परठना अपहृत्य-संयम है और प्रविधि से परठना अपहृत्य-असंयम है / पात्रादि का विधिपूर्वक प्रमार्जन करना प्रमार्जना संयम है और प्रविधिपूर्वक करना या न करना अप्रमार्जना-असंयम है / मन, वचन, काय का प्रशस्त व्यापार करना उनका संयम है और अप्रशस्त व्यापार करना उनका असंयम है। ११८–माणुसुत्तरे णं पव्वए सत्तरस एक्कवीसे जोयणसए उडुढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते / सम्वेसि पि णं वेलंधर-अणुवेलंधरणागराईणं आवासपव्वया सत्तरसएक्कवीसाइं जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता / लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साई सव्वागणं पण्णत्ते। मानुषोत्तर पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस (1721) योजन ऊंचा कहा गया है। सभी वेलन्धर और अनुवेलन्धर नागराजों के आवास पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस योजन ऊंचे कहे गये हैं / लवणसमुद्र को सवोग्र शिखा सत्तर हजार योजन ऊंची कही गई है। ११९--इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सातिरेगाइं सत्तरस जोयणसहस्साई उड्ढं उप्पतित्ता ततो पच्छा चारणाणं तिरिआ गती पवत्तति / इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमि भाग से कुछ अधिक सत्तरह हजार योजन ऊपर जाकर (उठ कर) तत्पश्चात् चारण ऋद्धिधारी मुनियों की नन्दीश्वर, रुचक आदि द्वीपों में जाने के लिए तिझै गति होतो है। 120. --चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो तिगिछिकूडे उप्पायपव्वए सत्तरस एक्कवीसाई जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते / बलिस्स णं असुरिंदस्स अगिदे उप्पाययव्वए सत्तरस एक्कवीसाई जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते। असुरेन्द्र असुरराज चमर का तिगिछिकूटनामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस (1721) योजन ऊंचा कहा गया है। असुरेन्द्र बलि का रुचकेन्द्रनामक उत्पात पर्वत सत्तरह सौ इक्कीस (1721) योजन ऊंचा कहा गया है / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशस्थानक समवाय] १२१.-सत्तरसविहे मरणे पण्णत्ते / तं जहा--प्रावीईमरणे अोहिमरणे आयंतियमरणे बलायमरणे वसट्टमरणे अंतोसल्लमरणे तब्भवमरणे बालमरणे पंडितमरणे बालपंडितमरणे छउमत्थमरणे केवलिमरणे वेहाणसमरणे गिद्धपिट्ठमरणे भत्तपच्चक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पायोवगमणमरणे। मरण सत्तरह प्रकार का कहा गया है। जैसे—१. प्रावीचिमरण, 2. अवधिमरण, 3. प्रात्यन्तिकमरण, 4. वलन्मरण, 5. वशार्तमरण, 6. अन्तःशल्यभरण, 7. तद्भवमरण, 8. बालमरण, 9. पंडितमरण, 10. बालपंडितमरण, 11. छद्मस्थमरण, 12. केवलिमरण, 13. वैहायसमरण, 14. मृद्धस्पृष्ट या गृध्रपृष्ठमरण, 15. भक्तप्रत्याख्यानमरण, 16. इंगिनीमरण, 17. पादपोपगमनमरण / विवेचन-विवरण इस प्रकार है 1. प्रावीचिमरण-जल की तरंग या लहर को वीचि कहते हैं। जैसे जल में वायु के निमित्त से एक के बाद दूसरी तरंग उठती रहती है, उसी प्रकार आयुकर्म के दलिक या निषेक प्रतिसमय उदय में आते हुए झड़ते या विनष्ट होते रहते हैं / प्रायुकर्म के दलिकों का झड़ना ही मरण है / अतः प्रतिसमय के इस मरण को आवीचिमरण कहते हैं। अथवा वीचि नाम विच्छेद का भी है। जिस मरण में कोई विच्छेद या व्यवधान न हो, उसे प्रावीचिमरण कहते हैं। ह्रस्व प्रकार के स्थान पर दीर्घ आकार प्राकृत में हो जाता है। 2. अवधिमरण-अवधि सीमा या मर्यादा को कहते हैं। मर्यादा से जो मरण होता है, उसे अवधिमरण कहते हैं। कोई जीव वर्तमान भव की आयु को भोगता हुअा अागामी भव की भी उसी आयु को बाँधकर मरे और आगामी भव में भी उसी आयु को भोगकर मरेगा, तो ऐसे जीव के वर्तमान भव में मरण को अवधिमरण कहा जाता है / तात्पर्य यह कि जो जोव आयु के जिन दलिकों को अनुभव करके मरता है, यदि पुनः उन्हीं दलिकों का अनुभव करके मरेगा, जो वह अवधिमरण कहलाता है। 3. आत्यन्तिकमरण--जो जीव नारकादि के वर्तमान प्रायुकर्म के दलिकों को भोगकर मरेगा और मर कर भविष्य में उस प्रायु को भोगकर नहीं मरेगा, ऐसे जीव के वर्तमान भव के मरण को प्रात्यन्तिकमरण कहते हैं। 4. वलन्मरण-संयम, व्रत, नियमादि धारण किये हुए धर्म से च्युत या पतित होते हुए अवतदशा में मरने वाले जीवों के मरण को वलन्मरण कहते हैं। 5. वशार्तमरण- इन्द्रियों के विषय के वश होकर अर्थात् उनसे पीड़ित होकर मरने वाले जीवों के मरण को वशार्तमरण कहते हैं / जैसे रात में पतंगे दीपक की ज्योति से आकृष्ट होकर मरते हैं, उसी प्रकार किसी भी इन्द्रियों के विषय से पीड़ित होकर मरना वशार्तमरण कहलाता है / 6. अन्तःशल्यमरण-मन के भीतर किसी प्रकार के शल्य को रख कर मरने वाले जीव के मरण को अन्तःशल्यमरण कहते हैं / जैसे कोई संयमी पुरुष अपने व्रतों में लगे हुए दोषों की लज्जा, अभिमान आदि के कारण पालोचना किये विना दोष के शल्य को मन में रखकर मरे। 7. तद्भवमरण--जो जीव वर्तमान भव में जिस आयु को भोग रहा है, उसी भव के योग्य प्रायु को बाँधकर यदि मरता है, तो ऐसे मरण को तद्भवमरण कहा जाता है। यह मरण Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [समवायाङ्गसूत्र मनुष्य या तिथंच गति के जीवों का हो होता है / देव या नारकों का नहीं होता है, क्योंकि देव या नारकी मर कर पुन: देव या नारकी नहीं हो सकता, ऐसा नियम है। उनका जन्म मनुष्य या तियंच पंचेन्द्रियों में ही होता है। 8. बालमरण-पागम भाषा में अविरत या मिथ्यादृष्टि जीव को 'बाल' कहा जाता है। मिथ्यादष्टि और असंयमी जीवों के मरण को बालमरण कहते हैं। प्रथम गुणस्थान के जीवों का मरण बालमरण कहलाता है। 9. पंडितमरण-संयम सम्यग्दृष्टि जोव को पंडित कहा जाता है। उसके मरण को पंडितमरण कहते हैं। छठे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक का मरण पंडितमरण कहलाता है। 10. बालपंडितमरण-देशसंयमी पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावकव्रती मनुष्य या तिर्यंच पंचेन्द्रिय जोव के मरण को वाल-पंडितमरण कहते हैं / 11. छद्मस्थमरण-केवलज्ञान उत्पन्न होने के पूर्व बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं। छद्मस्थों के मरण को छद्मस्थमरण कहते हैं। 12. केवलिमरण केवलज्ञान के धारक अयोगिकेवली के सर्व दुःखों का अन्त करने वाले मरण को केवलिमरण कहते हैं / तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगिजिन भी केवलो हैं, किन्तु तेरहवें गुणस्थान में मरण नहीं होता है। 13. वैहायसमरण-विहायस् नाम अाकाश का है / गले में फांसी लगाकर किसी वृक्षादि से अधर लटक कर मरने को वैहायसमरण कहते हैं / 14. गुद्धस्पृष्ट या गिद्धपृष्ठमरण-'गिद्धपिटु' इस प्राकृत पद के दो संस्कृत रूप होते हैंगृध्रस्पृष्ट और गृध्रपृष्ठ / प्रथम रूप के अनुसार गिद्ध, चील आदि पक्षियों के द्वारा जिसका मांस नोंचनोंच कर खाया जा रहा हो, ऐसे जीव के मरण को गृध्रस्पृष्टमरण कहते हैं। दूसरे रूप के अनुसार मरे हुए हाथी ऊंट आदि के शरीर में प्रवेश कर अपने शरीर को गिद्धों आदि का भक्ष्य बनाकर मरने वाले जीवों के मरण को गृद्धपृष्ठमरण कहते हैं। 15. भक्तप्रत्याख्यानमरण--उपसर्ग पाने पर, दुष्काल पड़ने पर, असाध्य रोग के हो जाने पर या जरा से जर्जरित शरीर के हो जाने पर यावज्जीवन के लिए त्रिविध या चतुर्विध आहार का यम नियम रूप से त्याग कर संल्लेखना या संन्यास धारण करके मरने वाले मनुष्य के मरण को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं / इस मरण से मरने वाला अपने आप भी अपनी वैयावृत्त्य (सेवा-टहल) करता है और यदि दूसरा व्यक्ति करे तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। 16. इंगिनीमरण--जो भक्तप्रत्याख्यानी दूसरों के द्वारा की जाने वाली वेयावृत्त्य का त्याग कर देता है और जब तक सामर्थ्य रहती है, तब तक स्वयं ही प्रतिनियत देश में उठता-बैठता और अपनो सेवा-टहल करता है, ऐसे साधु के मरण को इंगिनोमरण कहते हैं / 17. पादपोपगममरण-पादप नाम वृक्ष का है, जैसे वृक्ष वायु आदि के प्रबल वेग से जड़ से उखड़ कर भूमि पर जैसा पड़ जाता है, उसी प्रकार पड़ा रहता है, इसी प्रकार जो महासाधु भक्तपान का यावज्जीवन परित्याग कर और स्व-पर की वैयावृत्त्य का भी त्याग कर, कायोत्सर्ग, पद्मासन Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तदशस्थानक समवाय] [55 या मृतकासन आदि किसी आसन से प्रात्म-चिन्तन करते हुए तदवस्थ रहकर प्राण त्याग करता है, उसके मरण को पादपोपगमनमरण कहते हैं / १२२---सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुमसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति / तं जहा-आभिणिबोहियणाणावरणे सुयणाणावरणे प्रोहिणाणावरणे मणपज्जवणाणावरणे केवलणाणावरणे चक्खुदंसणावरणे अचवखुदंसणावरणे ओहिदसणावरणे केवलदसणावरणे सायावेयणिज्जं जसोकित्तिनाम उच्चागोयं दाणंतरायं लाभतरायं भोगतरायं उवभोगंतरायं वीरिअअंतरायं। सूक्ष्मसाम्पराय भाव में वर्तमान सूक्ष्मसाम्पराय भगवान् केवल सत्तरह कर्म-प्रकृतियों को बाँधते हैं। जैसे-.१. ग्राभिनिबोधिज्ञानावरण, 2. श्रतज्ञानावरण, 3. अवधिज्ञानावरण, 4. मनःपर्ययज्ञानावरण, 5. केवलज्ञानावरण, 6. चक्षुर्दर्शनावरण, 7. अचक्षुर्दर्शनावरण, 8. अवधिदर्शनावरण, 9. केवलदर्शनावरण, 10. सातावेदनीय, 11. यशस्कीर्तिनामकर्म, 12. उच्चगोत्र, 13. दानान्त राय, 14. लाभान्तराय, 15. भोगान्तराय, 16. उपभोगान्तराय और 17. वीर्यान्तराय। १२३–पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहण्णणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। महासुक्के कप्पे देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ___ पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की जघन्य स्थिति सत्त रह सागरोपम कही गई है। छठी पृथ्वी तमःप्रभा में किन्हीं-किन्हीं नारकों की जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोपम है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्तरह पत्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्तरह पल्योपम कही गई है / महाशुक्र कल्प में देवों को उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम कही १२४-सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णणं सत्तरस सागरोषमाइं ठिई पण्णता / जे देवा सामाणं सुसामाणं महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअं महापोंडरीअं सुक्कं महासुक्कं सोहं सोहकतं सीहवीअं भावि विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा सत्तरसहि अद्धमासेहिं प्राणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा / तेसि णं देवाणं सत्तरसहि वाससहस्सेहिं आहारट्ठ समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तरसहि भवग्गहर्णेहि सिमिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / सहस्रार कल्प में देवों को जघन्य स्थिति सत्तरह सागरोषम है। वहां जो देव, सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौण्डरीक, महापौण्डरीक, शुक्र, महाशुक्र, सिंह, सिंहकान्त, सिंहबीज, और भावित नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरह सागरोपम की होती है / वे देव सत्तरह अर्धमासों (साढ़े Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र अाठ मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों के सत्तरह हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्तरह भवग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // सप्तदशस्थानक समवाय समाप्त / / अष्टादशस्थानक-समवाय १२५–अट्ठारसविहे बंभे पण्णत्ते, तं जहा–ोरालिए कामभोगे व सयं मणेणं सेवइ 1, नोवो अण्णं मणणं सेवावेइ 2, मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 3, ओरालिए कामभोगे व सयं वायाए सेवइ 4, नोवि अण्णु बायाए सेवावेइ 5, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 6 / ओरालिए कामभोगे णेव सयं कारणं सेवइ 7, णोवि य अण्णं कारणं सेवावेइ 8, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समाजाणाइ 9 / दिव्वे कामभोगे व सयं मणणं सेवइ 10, गोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ 11 मणणं सेवंतं पि अण्णं न समणजाणाइ१२। दिब्वे कामभोगे व सयं वायाए सेवइ 13, णोवि अण्णं वायाए सेवावेइ 14, वायाए सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 15 / दिब्वे कामभोगे व सयं काएणं सेवइ 16, णोवि अण्णं काएणं सेवावेइ 17, काएणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ 18 / ब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का कहा गया है। जैसे—औदारिक (शरीर वाले मनुष्य-तियंचों के) काम-भोगों को न हो मन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को मन से सेवन कराता है और न मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है 3 / औदारिक-कामभोगों को न हो वचन से स्वयं सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की बचन से अनुमोदना करता है 6 / औदारिक-कामभोगों को न हो स्वयं काय से सेवन करता है, न हो अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करता है, न ही अन्य की अनुमोदना करता है 9 / दिव्य (देव-देवी सम्बन्धी) काम-भोगों को न ही स्वयं मन से सेवन करता है, न ही अन्य के कराता है और न ही मन से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है 12 / दिव्य-काम भोगों को न हो स्वयं वचन से सेवन करता है, न ही अन्य को वचन से सेवन कराता है और न ही सेवन करते हुए अन्य की वचन से अनुमोदना करता है 15 / दिव्य-कामभोगों को न ही स्वयं काम से सेवन करता है, न ही अन्य को काय से सेवन कराता है और न ही काय से सेवन करते हुए अन्य की अनुमोदना करता है 18 / १२६-अरहतो णं अरिटुनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्था / समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिगंथाणं सखुड्डविअत्ताणं प्रद्वारस ठाणा पण्णत्ता / तं जहा वयछक्कं 6 कायछक्कं 12 अकप्पो 13 गिहिभायणं 14 / पलियंक 15 निसिज्जा 16 य सिणाणं 17 सोभवज्जणं 18 // 1 // अरिष्टनेमि अर्हत् की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा अठारह हजार साधुओं की थी। श्रमण भगवान् महावीर ने सक्षुद्रक-व्यक्त-सभी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अठारह स्थान कहे हैं। जैसव्रतषट्क 6, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादशस्थानक समवाय] कायषट्क 12, प्रकल्प 13, (वस्त्र, पात्र, भक्त-पानादि) गृहि-भाजन 14, पर्यङ्क (पलंग आदि) 15, निषद्या (स्त्री के साथ एक प्रासन पर बैठना) 16, स्नान 17 और शरीर-शोभा का त्याग 18 / विवेचन–साधु दो प्रकार के होते हैं-वय (दीक्षा पर्याय) से और श्रुत (शास्त्रज्ञान) से अव्यक्त ----अपरिपक्व और वय तथा श्रुत दोनों से व्यक्त-परिपक्व / इनमें अव्यक्त साधु को क्षुद्रक या क्षुल्लक भी कहते हैं। ऐसे क्षुद्रक और व्यक्त साधुओं के 18 संयमस्थान भगवान् महावीर ने कहे हैं / हिंसादि पांचों पापों का और रात्रि भोजन का यावज्जीवन के लिए सर्वथा त्याग करना व्रतषट्क है। पृथिवी आदि छह काया के जीवों को रक्षा करना कायषट्कवर्जन है / अकल्पनीय भक्त-पान का त्याग, गृहस्थ के पात्र का उपयोग नहीं करना, पलंगादि पर नहीं सोना, स्त्री-संसक्त आसन पर नहीं बैठना, स्नान नहीं करना और शरीर की शोभा-शृगारादि नहीं करना / इन अठारह स्थानों से साधुओं के संयम की रक्षा होती है। १२७-आयारस्स णं भगवतो सचूलियागस्स अट्ठारस पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। चूलिका-सहित भगवद्-प्राचाराङ्ग सूत्र के पद-प्रमाण से अठारह हजार पद कहे गये हैं। 128 बंभीए णं लिवोए अद्वारसविहे लेखविहाणे पण्णत्ते / तं जहा-बंभी 1, जवणालिया 2, दोसऊरिया 3, खरोट्टिया 4, खरसाविआ 5, पहाराइया 6, उच्चत्तरिआ 7, अक्खरपुट्ठिया 8, भोगवइता 9, वेणतिया 10, णिण्हइया 11, अंकलिवी 12, गणिअलिवी 13, गंधबलिवी [भूयलिवी] 14, आईसलिवी 15, माहेसरीलिवी 16, दामिलिवी 17, वोलिदलिवी 18 / ब्राह्मी लिपि के लेख-विधान अठारह प्रकार के कहे गये हैं। जैसे--१. ब्राह्मीलिपि, 2. यावनीलिपि, 3. दोषउपरिकालिपि, 4. खरोष्ट्रिकालिपि, 5. खर-शाविका लिपि, 6. प्रहारातिकालिपि, 7. उच्चत्तरिका लिपि, 8. अक्षरपृष्ठिकालिपि, 9. भोगवतिकालिपि, 10. वैण कियालिपि, 11. निह्नविकालिपि, 12. अंकलिपि, 13. गणितलिपि, 14. गन्धर्व लिपि, [भूतलिपि] 15. प्रादर्श लिपि, 16. माहेश्वरी लिपि, 17. दामिलिपि, 18. पोलिन्दीलिपि / विवेचन संस्कृत टीकाकार ने लिखा है कि इन लिपियों का स्वरूप दष्टिगोचर नहीं होता है। फिर भी वर्तमान में प्रचलित अनेक लिपियों का बोध होता है। जैसे—यावनीलिपि अर्बी-फारसी, उड़ियालिपि, द्राविड़ीलिपि आदि / अागम-ग्रन्थों में भी लिपियों के नामों में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। 129 ---अत्थिनस्थिप्पवायस्स णं पुवस्स अट्ठारस वत्थू पण्णत्ता / अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व के अठारह वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गये हैं। १३०–धूमप्पभा णं पुढवी अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता। पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ता रातो भव। धूमप्रभा नामक पांचवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन कही गई है। पौष और प्राषाढ़ मास में एक बार उत्कृष्ट रात और दिन क्रमशः अठारह मुहूर्त के होते हैं। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन–पौष मास में सबसे बड़ी रात अठारह मुहूर्त की होती है और आषाढ़ मास में सबसे बड़ा दिन अठारह मुहूर्त का होता है, यह सामान्य कथन है / हिन्दू ज्योतिष गणित के अनुसार आषाढ़ में कर्क संक्रान्ति को सबसे बड़ा दिन और मकर संक्रान्ति के दिन पौष में सबसे बड़ी रात होती है / अंग्रेजी ज्योतिष के अनुसार 23 दिसम्बर को सबसे बड़ी रात और 21 जून को सबसे बड़ा दिन अठारह मुहूर्त का होता है / एक मुहूर्त में 48 मिनिट होते हैं / १३१-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठारस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं अट्ठारस पिलओवमाई ठिई पण्णत्ता। सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई पग्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितने क नारकों को उत्कृष्ट स्थिति अठारह पल्योपम कही कई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति अठारह पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अठारह पल्योपम कही गई है। सहस्रार कल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम कही गई है। १३२-आणए कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं अद्वारस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिठे सालं समाणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्म कुमुदं कुमुदगुम्म नलिणं नलिणगुम्मं पुडरीअं पुंडरीयगुम्मं सहस्सारडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाइं ठिई पण्णता। ते णं देवाणं अट्ठारसहिं अद्धमासेहि प्राणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं अट्ठारस वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठारसहि भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / / आनत कल्प में कितनेक देवों को जघन्य स्थिति अठारह सागरोपम कही गई है। वहां जो देव काल, सुकाल, महाकाल, अंजन, रिष्ट, साल, समान, द्रुम, महाद्रुम, विशाल, सुशाल, पद्म, पद्मगुल्म, कुमुद, कुमुदगुल्म, नलिन, नलिनगुल्म, पुण्डरीक, पुण्डरीकगुल्म और सहस्रारावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति अठारह सागरोपम कही गई है। वे देव अठारह अर्धमासों (नौ मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों के अठारह हजार वर्ष के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। __कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अठारह भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥अष्टादशस्थानक समवाय समाप्त // Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनविंशतिस्थानक समवाय] [59 एकोनविंशतिस्थानक-समवाय १३३---एगूणवीसं णायज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा 'उक्खितणाए, 'संधाडे, अंडे, 'कुम्भे अ, 'सेलए। तुबे, अ, 'रोहिणी, मल्ली, 'मागंदी, चंदिमाति अ॥१॥ १'दावद्दवे, ''उदगणाए, १३मंडुक्के, "तेतली इ अ। १५नंदिफले, अवरकंका, आइण्णे, १सुसुमा इअ॥२॥ अवरे अ, "पोण्डरोए णाए एगूणवीसइमे / ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के (प्रथम श्रुतस्कन्ध के) उन्नीस अध्ययन कहे गये हैं। जैसे—१. उत्क्षिप्तज्ञात. 2. संघाट, 3. अंड, 4. कर्म, 5. शैलक, 6. तुम्ब, 7. रोहिणी, 8. मल्ली , 9. माकंदी, 1. दावद्रव, 12. उदकज्ञात, 13. मंडक, 14. तेतली, 15. नन्दिफल, 16. अपरकंका, 17. पाकीर्ण, 18. सुसुमा और पुण्डरीकज्ञात // 1-2 / / १३४--जंबूदीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं एगूणवीसं जोयणसयाइं उडमहो तवयंति / जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में सूर्य उत्कृष्ट रूप से एक हजार नौ सौ योजन ऊपर और नीचे तपते हैं। विवेचन--रत्नप्रभा पृथिवी के उपरिम भूमिभाग से ऊपर आठ सौ योजन पर सूर्य अवस्थित है और उक्त भूमिभाग से एक हजार योजन गहरा लवणसमुद्र है। इसलिए सूर्य अपने उष्ण प्रकाश से पर सो योजन तक—जहां तक कि ज्योतिश्चक्र अवस्थित है, तथा नीचे अठारह सौ योजन अर्थात् लवणसमुद्र के अधस्तन तल तक इस प्रकार सर्व मिलाकर उन्नीस सौ (1900) योजन के क्षेत्र को संतप्त करता है। 135 ---सुक्के णं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीसं णक्खत्ताई समं चारं चरिता प्रवरेणं अत्थमणं उवागच्छइ / शुक्र महाग्रह पश्चिम दिशा से उदित होकर उन्नीस नक्षत्रों के साथ सहगमन करता हुआ पश्चिम दिशा में अस्तंगत होता है। १३६.---जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलानो एगूणवीसं छेप्रणाम्रो पण्णतायो। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप को कलाएं उन्नीस छेदनक (भागरूप) कही गई हैं। विवेचन-जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। उसके भीतर जो छः वर्षधर पर्वत और सात क्षेत्र हैं, वे भारतवर्ष से मेरु पर्वत तक दूने-दूने विस्तार वाले हैं और मेरु से आगे ऐरवत वर्ष तक आधे-आधे विस्तार वाले हैं। इन सबका योग (1+2+4+8+16+32+64+32+ 16+6+4+2+1= 190) एक सौ नव्वे होता है / इस (190) का भाग एक लाख में देने पर 5266, प्राता है / ऊपर के शून्य का नीचे के शून्य के साथ अपवर्तन कर देने पर रह जाता है। प्रकृत सूत्र में इसी उन्नीस भागरूप कलाओं का उल्लेख किया गया है, क्योंकि 190 भागों में जिस Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] [समवायाङ्गसूत्र क्षेत्र या कुलाचल (वर्षधर) की जितनी शलाकाएं हैं, उनसे इसे गुणित करने पर उस विवक्षित क्षेत्र या कुलाचल का विस्तार निकल पाता है / १३७-एगूणवीसं तित्थयरा अगारवासमझे वसित्ता मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअं पव्वइआ। उन्नीस तीर्थकर अगार-वास में रह कर फिर मुडित होकर अगार से अनगार प्रव्रज्या को प्राप्त हुए–गृहवास त्याग कर दीक्षित हुए। विवेचन-वासुपूज्य, मल्ली, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर, ये पांच तीर्थंकर कुमार अवस्था में ही प्रवजित हुए / शेष उन्नीस तीर्थंकरों ने गृहवास छोड़ कर प्रव्रज्या ग्रहण की। १३८--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं एगूणवीसपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणवीसपलिओबमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कम्पेसु अत्थेगइयाण देवाणं एगूणवीसपलिओवमाई ठिई पण्णत्ता प्राणयकप्पे अत्थेगइयाण देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति उन्नीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उन्नीस पल्यापम कही गई है। प्रानत कल्प में कितनेक देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। १३९-पाणए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं जहण्णणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई पण्णता / जे देवा आणतं पाणतं गतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकतं इंदुत्तरवडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा एगणवीसाए अद्धमासाणं प्राणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं एगूणवोसाए वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुपज्जइ / ___ संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बज्झिस्संति मुच्चि. स्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / प्राणत कल्प में कितनेक देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। वहां जो देव आनत, प्राणत, नत, विनत, घन, सुषिर, इन्द्र, इन्द्रकान्त और इन्द्रोत्तरावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उन्नीस सागरोपम कही गई है। वे देव उन्नोस अर्धमासों (साढ़े नौ मासों) के बाद ग्रान-प्राण या उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के उन्नीस हजार वर्षों के बाद प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है / कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उन्नीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥एकोनविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशतिस्थानक समवाय] विंशतिस्थानक-समवाय १४०-वीसं असमाहिठाणा पण्णत्ता, तं जहा–दवदवचारि यावि भवइ 1, अपमज्जियचारि यावि भवइ 2, दुप्पमज्जियचारि यावि भवइ 3, अतिरित्तसेज्जाणिए 4, रातिणियपरिभासी 5, थेरोवघाइए 6, भूओवघाइए 7, संजलणे 8, कोहणे 9, पिट्टिमंसिए 10, अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारइत्ता भवइ 11, णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाएत्ता भवइ 12, पोराणाणं अधिकरणाणं खामिन विउसविआणं पुणोदीरत्ता भवइ 13, ससरक्खपाणिपाए 14, अकालसज्झायकारए यावि भवई 15, कलहकरे 16, सद्दकरे 17, झंझकरे 16, सूरप्पमाणभोई 19, एसणाऽसमिते आवि भव।२०। बोस असमाधिस्थान कहे गये हैं। जैसे---१. दव-दव या धप-धप करते हुए जल्दी-जल्दी जलना, 2. अप्रमाजितचारी होना, 3. दुष्प्रमार्जितचारी होना, 4. अतिरिक्त शय्या-ग्रासन रखना 5. रानिक साधुओं का पराभव करना, 6. स्थविर साधुओं को दोष लगाकर उनका उपघात या अपमान करना, 7. भूतों (एकेन्द्रिय जीवों) का व्यर्थ उपघात करना, 8. सदा रोषयुक्त प्रवृत्ति करना, 9. अतिक्रोध करना, 10. पीठ पीछे दूसरे का अवर्णवाद करना, 11. निरन्तर-सदा ही दूसरों के गुणों का विलोप करना, जो व्यक्ति दास या चोर नहीं है, उसे दास या चोर आदि कहना, 12. नित्य नये अधिकरणों (कलह अथवा यन्त्रादिकों) को उत्पन्न करना, 13. क्षमा किये हुए या उपशान्त हुए अधिकरणों (लड़ाई-झगड़ों) को पुन: पुन: जागृत करना, 14. सरजस्क (सचेतन धूलि आदि से युक्त हाथ-पैर रखना, सरजस्क हाथ वाले व्यक्ति से भिक्षा ग्रहण करना और सरजस्क स्थंडिल आदि पर चलना, सरजस्क आसनादि पर बैठना, 15. अकाल में स्वाध्याय करना और काल में स्वाध्याय नहीं करना, 16. कलह करना, 17. रात्रि में उच्च स्वर से स्वाध्याय और वार्तालाप करना, 18. गण या संघ में फूट डालने वाले वचन बोलना, 19. सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त होने तक खाते-पीते रहना तथा 20. एषणासमिति का पालन नहीं करना और अनेषणीय भक्त-पान को ग्रहण करना / विवेचन-जिन कार्यों के करने से अपने या दूसरे व्यक्तियों के चित्त में संक्लेश उत्पन्न हो उनको असमाधिस्थान कहते हैं। सूत्र-प्रतिपादित सभी कार्यों से दूसरों को तो संक्लेश और दुःख होता ही है, साथ ही उक्त कार्यों के करने वालों को भी विना देखे, शोधे धप-धप करते हुए चलने पर ठोकर आदि लगने से, तथा साँप, बिच्छू आदि के द्वारा काट लिए जाने पर महान् संक्लेश और दुःख उत्पन्न होता है। साधु मर्यादा से अधिक शय्या-पासनादि के रखने पर, दूसरों का पराभव करने पर, गुरुजनादिकों का अपमान करने पर और नित्य नये झगड़े-टंटे उठाने पर संघ में विक्षोभ उत्पन्न होता है और संघ द्वारा बहिष्कार कर दिये जाने पर तथा दिन भर खाने से रोगादि हो जाने पर स्वयं को भी भारी दुःख पैदा होता है / इसलिए उक्त सभी बीसों कार्यों को असमाधिस्थान कहा गया है। १४१----मुणिसुब्बए णं अरहा वीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। सब्वेवि अ घणोदही बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता। पाणयस्स णं देविंदस्स देवरण्णो वीसं सामाणिअसाहस्सीओ पण्णताओ। णपुसयवेयणिज्जस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधनो बंधठिई पण्णत्ता। पच्चक्खाणस्स णं पुवस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता। उस्सप्पिणिओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवम कोडाकोडीओ कालो पण्णत्तो। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [समवायाङ्गसूत्र मुनिसुव्रत अर्हत् बीस धनुष ऊंचे थे / सभी घनोदधिवातवलय बीस हजार योजन मोटे कहे गये हैं। प्राणत देवराज देवेन्द्र के सामानिक देव बीस हजार कहे गये हैं। नपुसक वेदनीय कर्म की, नवीन कर्म-बन्ध की अपेक्षा [उत्कृष्ट ] स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागरोपम कही गई है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु नामक अर्थाधिकार कहे गये हैं। उत्सपिणी और अवसर्पिणी मंडल (पार-चक्र) कोड़ी सागरोपम काल परिमित कहा गया है। अभिप्राय यह है कि दस कोडाकोड़ी सागरोपम का उत्सपिणोकाल और दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का अवसर्पिणीकाल मिल कर बोस कोडाकोड़ी सागरोपम का एक कालचक्र कहलाता है। १४२--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णता / छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं णेरइयाणं वीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं वीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है। छठी तमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बीस सागरोपम कही गई है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बीस पल्योपम कही गई है। प्राणत कल्प में देवों को उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम कही गई है। १४३--प्रारणे कप्पे देवाणं जहण्णणं वीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं भित्तिलं, तिगिच्छ दिसासोवत्थियं पलंबं रुइलं पुप्फ सुपुप्फ पुष्फावत्तं पुप्फपभं पुप्फकंतं पुप्फवण्णं पुष्फलेसं पुष्फज्झयं पुसिंगं पुप्फसिद्धं पुष्फत्तरडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं बीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नोससंति वा, तेसिं ण देवाणं वीसाए वाससहस्सेहि आहारट्ठे समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे वीसाए भवम्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / पारण कल्प में देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम कही गई है। वहां जो देव सात, विसात, सुविसात, सिद्धार्थ, उत्पल, भित्तिल, तिगिछ, दिशासौवस्तिक, प्रलम्ब, रुचिर, पुष्प, सुपुष्प, पुष्पावर्त, पुष्पप्रभ पुष्पदकान्त, पुष्पवर्ण, पुष्पलेश्य, पुष्पध्वज, पुष्पशृग, पुष्पसिद्ध (पुष्पसृष्ट) और रावतंसक नाम के विशिष्ट विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बोस सागरोपम कही गई है। वे देव बीस अर्धमासों (दश मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं / उन देवों को बीस हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परमनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥विंशतिस्थानक समवाय समाप्त। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकविंशतिस्थानक समवाय] एकविंशतिस्थानक-समवाय 144-- एक्कवीसं सबला पण्णत्ता, तं जहा—हत्थकम्मं करेमाणे सबले 1, मेहुणं पडिसेवमाणे सबले 2, राइभोअणं भुजमाणे सबले 3, आहाकम्मं भुजमाणे सबले 4, सागारियं पिंडं भुजमाणे सबले 5, उद्देसियं कीयं आहटु दिज्जमाणं भुजमाणे सबले 6, अभिक्खणं पडियाइक्खेत्ता णं भुजमाणे सबले 7, अंतो छण्हं मासाणं गणाम्रो गणं संकममाणे सबले 8, अंतो मासस्स तो दगलेवे करेमाणे सबले 9, अंतो मासस्स तओ माईठाणे सेवमाणे सबले 10, रायपिडं भुजमाणे सबले 11, पाउट्टिआए पाणाइवायं करेमाणे सबले 12, आउट्टिाए मुसावायं वदमाणे सबले 13, आउट्टियाए आदिण्णादाणं गिण्हमाणे सबले 14, आउट्टियाए अणंतरहिआए पुढवीए ठाणं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले 15, एवं आउट्टिआ चित्तमंताए पुढवीए, एवं आउट्टिआ चित्तमंताए सिलाए कोलावासंसि वा दारुए अण्णयरे वा तहप्पगारे ठाणं वा सिज्जं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले 16, जीवपइदिए सपाणे सबीए सहरिए सत्तिगे पणग-दग-मट्टी-मक्कडासंताणए तहप्पारे ठाणं वा सिज्ज वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले 17, आउट्टिआए मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा तयाभोयणं वा, पवालभोयणं वा पुप्फभोयणं वा फलभोयणं वा हरियभोयणं वा भुजमाणे सबले 18, अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले 19, अंतो संवच्छरस्स दस माइठाणाई सेवमाणे सबले 20, अभिक्खणं अभिक्खणं सीतोदयवियडवग्धारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा पडिगाहित्ता भुजमाण सबले 21 / इक्कीस शबल कहे गये हैं (जो दोषरूप क्रिया-विशेषों के द्वारा अपने चारित्र को शबल (कर्बु रित, मलिन या धब्बों से दूषित करते हैं) जैसे-१. हस्त-मैथुन करने वाला शबल, 2. स्त्री आदि के साथ मैथुन सेवन करने वाला शबल, 3. रात में भोजन करने वाला शबल, 4. आधाकर्मिक भोजन को सेवन करने वाला शबल, 5. सागारिक (शय्यांतर स्थान-दाता) का भोजन-पिंड ग्रहण करने वाला शबल, 6. प्रौद्देशिक, बाजार से क्रीत और अन्यत्र से लाकर दिये गये (अभ्याहृत) भोजन को खाने वाला शबल, 7. बार-बार प्रत्याख्यान (त्याग) कर पुनः उसी वस्तु को सेवन करने वाला शबल, 8. छह मास के भीतर एक गण से दूसरे गण में जाने वाला शबल, 9. एक मास के भीतर तीन वार नाभि-प्रमाण जल में प्रवगाहन या प्रवेश करने वाला शबल, 10. एक मास के भीतर तीन वार मायास्थान को सेवन करने वाला शबल, 11. राजपिण्ड खाने वाला शबल, 12. जान-बूझ कर पृथिवी प्रादि जीवों का घात करने वाला शबल, 13. जान-बूझ कर असत्य वचन बोलनेवाला शबल, 14. जान-बूझकर विना दी (हुई) वस्तु को ग्रहण करनेवाला शबल, 15. जान-बूझ कर अनन्तहित (सचित्त) पृथिवी पर स्थान, प्रासन, कायोत्सर्ग आदि करने वाला शबल, 16. इसी प्रकार जान-बूझ कर सचेतन पृथिवी पर, सचेतन शिला पर और कोलावास (घुन वाली) लकड़ी आदि पर स्थान, शयन आसन आदि करने वाला शबल, 17. जीव-प्रतिष्ठित, प्राण-युक्त, सबीज, हरित-सहित, कीड़े-मकोड़े वाले, पनक, उदक, मृत्तिका कीड़ीनगरा वाले एवं इसी प्रकार के अन्य स्थान पर अवस्थान, शयन, आसनादि करने वाला शबल, 18. जान-बूझ कर मूल-भोजन, कन्द-भोजन, त्वक-भोजन, प्रबाल-भोजन, पुष्प-भोजन, फल-भोजन और हरित-भोजन करने वाला शबल, 19. एक वर्ष के भीतर दश बार जलावगाहन या जल में प्रवेश करने वाला शबल, 20. एक वर्ष के भीतर दश वार मायास्थानों का सेवन करने वाला शबल और 21. वार-वार शीतल जल से व्याप्त हाथों से अशन, पान, खादिम और स्वादिम वस्तुओं को ग्रहण कर खाने वाला शबल / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र १४५–णिअट्टिबादरस्स णं खवितसत्तयस्स मोहणिज्जस्स कम्मस्स एक्कवीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहा-अपच्चवखाणकसाए कोहे, अप्पच्चक्खाणकसाए माणे, अप्पच्चक्खाणकसाए माया, अपच्चक्खाणकसाए लोभे, पच्चक्खाणावरणकसाए कोहे, पच्चक्खाणावरणकसाए माणे, पच्चक्खाणावरणकसाए माया पच्चक्खाणावरणकसाए लोहे, [संजलणकसाए कोहे, संजलणकसाए माणे, संजलणकसाए माया, संजलणकसाए लोहे,] इस्थिवेदे पुबेदे णपु वेदे हासे परति-रति-भय-सोगदुगु छा। जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहत्रिक (मिथ्यात्व, मिथ एवं सम्यक्त्वमोहनीय) इन सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि अष्टम गुणस्थानवर्ती निवृत्तिबादर संयत के मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का सत्त्व कहा गया है / जैसे--१. अप्रत्याख्यान क्रोधकषाय, 2. अप्रत्याख्यान मानकषाय, 3. अप्रत्याख्यान माया कषाय, 4. अप्रत्याख्यान लोभकषाय, 5. प्रत्याख्यानावरण क्रोधकषाय, 6. प्रत्याख्यानावरण मानकषाय, 7. प्रत्याख्यानावरण मायाकषाय, 8. प्रत्याख्यानावरण लोभकषाय, [9. संज्वलन क्रोधकषाय, 10. संज्वलन मानकषाय, 11. संज्वलन मायाकषाय, 12. संज्वलन लोभकषाय 13. स्त्रीवेद, 14. पुरुषवेद, 15. नपुसकवेद, 16. हास्य, 17. अरति, 18. रति, 19. भय, 20. शोक और 21. दुगुछा (जुगुप्सा)। 146 -एक्कमेक्काए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठामो समाओ एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तायो, तं जहा---दूसमा, दूसमदूसमा, एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-वितिमाओ समाओ एक्कवीसं एक्कवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्ताओ, तं जहा-दूसमदूसमाए, दूसमाए य / प्रत्येक अवसर्पिणी के पांचवें और छठे पारे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के काल वाले कहे गये हैं / जैसे—दुःषमा और दुःषम-दुःषमा / प्रत्येक उत्सर्पिणी के प्रथम और द्वितीय पारे इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष के काल वाले कहे गये हैं। जैसे-दुःषम-दुःषमा और दुःषमा। १४७-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कवीच पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / छट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगवीसपलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इक्कीस पल्योपम की कही गई है। छठी तमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम कही गई है। १४८-सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एक्कवीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। प्रारणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एक्कवीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इक्कीस पल्योपम कही गई है। प्रारणकल्प में देवों की उत्कृष्ट स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। १४९--अच्चुते कप्पे देवाणं जहणेणं एक्कवीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा सिरिवच्छं सिरिदामकंडं मल्लं किटें चावोण्णतं अरण्णवडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाविंशतिस्यानक समवाय] देवाणं एक्कवोसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / ते गं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नोससंति वा / तेसि णं देवाणं एक्कवीसाए वाससहस्सेहि आहारट्ठे समपज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / अच्युत कल्प में देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है / वहाँ जो देव श्रीवत्स, श्रीदामकाण्ड. मल्ल, कृष्ट, चापोन्नत और आरणावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम कही गई है। वे देव इक्कीस अर्धमासों (साढे दश मासों) के बाद आन-प्राण या उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। उन देवों के इक्कीस हजार वर्षों के बाद प्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इक्कीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे, और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // एकविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / द्वाविंशतिस्थानक-समवाय १५०.-वावीसं परीसहा पण्णत्ता, तं जहा-दिगिछापरीसहे 1, पिवासापरीसहे 2, सोतपरीसहे 3, उसिणपरोसहे 4, दंसमसगपरोसहे 5, अचेलपरोसहे 6, अरइपरोसहे 7, इत्थोपरीसहे 8, चरिआपरीसहे 9, निसीहिनापरीसहे 10, सिज्जापरीसहे 11, अक्कोसपरोसहे 12, वपरोसहे 13, जायणापरीसहे 14, अलाभपरीसहे 15, रोगपरीसहे 16, तणफासपरीसहे 17, जल्लपरोसहे 18, सक्कारपुरक्कारपरीसहे 19, पण्णापरोसहे 20, अग्गाणपरोसहे 21, अदंसणपरीसहे 22 / बाईस परीषह कहे गये हैं / जैसे--१. दिगिछा (बुभुक्षा) परीषह, 2. पिपासापरोपह, 3. शीतपरीषह, 4. उष्णपरीषह, 5. दंशमशक परीषह, 6. अचेल परीषह, 7. अरतिपरीषह, 8. स्त्रीपरीषह, 9. चर्यापरोषह, 10. निषद्यापरीषह, 11. शय्यापरीषह, 12. प्राक्रोशपरीषह, 13. वधपरीषह, 14, याचनापरीषह, 15. अलाभपरोषह, 16. रोगपरीषह, 17. तृणस्पर्शपरीषह, 18. जल्लपरीषह, 19. सत्कार-पुस्कारपरीषह, 20. प्रज्ञापरीषह, 21. अज्ञानपरीषह और 22. अदर्शनपरोषह / / विवेचन--मोक्षमार्ग से पतन न हो और पूर्व संचित कर्मों को निर्जरा हो, इस भावना से भूख. प्यास शीत, उष्ण, डांस-मच्छर आदि की जो बाधा या कष्ट स्वयं समभावपूर्वक सहन किये जाते हैं, उन्हें परीषह कहा जाता है / वे बाईस हैं, जिनके नाम ऊपर गिनाये गये हैं। 151 --दिदिवायस्त णं वावीसं सुत्ताई छिन्नछेयणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताई अच्छिन्नछेयणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताइं तिकणइयाइं तेरासियसुतपरिवाडीए, वावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई समयसुत्तपरिवाडीए। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में बाईस सूत्र स्वसमयसूत्रपरिपाटी से छिन्न-छेदनयिक हैं। बाईस सूत्र प्राजीविकसूत्रपरिपाटी से अच्छिन्न-छेदनयिक हैं / बाईस सूत्र त्रैराशिकसूत्रपरिपाटी से नयत्रिक-सम्बन्धी हैं। बाईस सूत्र चतुष्कनयिक हैं जो चार नयों की अपेक्षा से कहे गये हैं। विवेचन-जो नय छिन्न सूत्र को छेद या भेद से स्वीकार करता है, अर्थात् दूसरे श्लोकादि की अपेक्षा नहीं रखता है, वह छेदनय स्थित कहलाता है। जैसे 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' इत्यादि श्लोक अपने अर्थ को प्रकट करने के लिए अन्य श्लोक को अपेक्षा नहीं रखता / इसी प्रकार जो सूत्र छिन्नछेदनय वाले होते हैं उन्हें छिन्नछेदनयिक कहा जाता है। दृष्टिवाद अंग में ऐसे बाईस सूत्र हैं जो जिनमत की परिपाटी या पद्धति से निरूपण किये हैं / जो नय अच्छिन्न (अभिन्न) सूत्र की छेद से अपेक्षा रखता है, वह अच्छिन्नछेदनक कहलाता है अर्थात् द्वितीय आदि श्लोकों की अपेक्षा रखता है / ऐसे बाईस सूत्र प्राजीविक गोशालक के मत की परिपाटी से कहे गये हैं। जो सूत्र द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक और उभयास्तिक इन तीन नयों की अपेक्षा से कहे गये हैं, वे त्रिकनयिक या त्रैराशिक मत को परिपाटी से कहे गये हैं। जो सुत्र संग्रह, व्यवहार, ऋजु-सूत्र और शब्दादित्रक, इन चार को अपेक्षा से कहे गये हैं वे चतुष्कन यिक कहे जाते हैं। वे स्वसमय से सम्बद्ध हैं। १५२--वावीसविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-कालवण्णपरिणामे, नीलवण्णपरिणामे, लोहियवण्णपरिणामे, हलिवण्णपरिणामे, सुविकल्लवण्णपरिणामे, सुन्भिगंधपरिणामे, दुखिभगंधपरिणामे, तित्तरसपरिणामे, कडुयरसपरिणामे, कसायरसपरिणामे, अंविलरसपरिणामे, महुररसपरिणामे, कक्खडफासपरिणामे, मउयफासपरिणामे, गुरुफासपरिणामे, लहफासपरिणामे, सोतफासपरिणामे, उसिणफासपरिणामे, णिद्धफासपरिणामे, लुक्खफासपरिणामे, अगुरुलहुफासपरिणामे, गुरुलहुफासपरिणामे। पुद्गल के परिणाम (धर्म) बाईस प्रकार के कहे गये हैं। जैसे—१. कृष्णवर्णपरिणाम 2. नीलवर्णपरिणाम, 3. लोहितवर्णपरिणाम, 4. हारिद्रवर्णपरिणाम, 5. शुक्लवर्णपरिणाम, 6. सरभिगन्धपरिणाम, 7. दरभिगन्धपरिणाम, 8. तिक्तरसपरिणाम, 9. कटकरसपरिणाम 10. कषायरसपरिणाम, 11. आम्लरसपरिणाम, 12. मधुररसपरिणाम, 13. कर्कशस्पर्श परिणाम, 14. मृदुस्पर्शपरिणाम, 15. गुरुस्पर्शपरिणाम, 16. लघुस्पर्शपरिणाम, 17. शीतस्पर्शपरिणाम, 18. उष्ण स्पर्शपरिणाम, 19. स्निग्धस्पर्शपरिणाम 20. रूक्षस्पर्शपरिणाम, 21. अगुरुल घुस्पर्शपरिणाम और 22. गुरुलघुस्पर्शपरिणाम / 153-- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं वावीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावोसं सागरोवमाई ठिई पग्णता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहणणं वावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वावीस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं वावीस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति बाईस पल्योपम कही गई है / छठी तमःप्रभा पृथिवी में नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है / अधस्तन सातवीं तमस्तमा पृथिवी में कितनेक नारकियों को जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। कितनेक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रयोविशतिस्थानक समवाय ] [67 असुरकुमार देवों की स्थिति बाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बाईस पल्योपम कही गई है। १५४—अच्चुते कप्पे देवाणं [उक्कोसेणं] वासोसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / हेट्ठिम-हेटिमगेवेज्जगाणं देवाणं जहणणं वावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा महियं विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अच्चुतडिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि गं देवाणं उक्कोसेणं वावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा [वावीसं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा, उस्ससंति वा नीससंति वा।] तेसि णं देवाणं वावोसवाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भविसिद्धिया जीवा जे वावोसं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति। अच्युत कल्प में देवों की [उत्कृष्ट] स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। अधस्तन-अधस्तन को जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। वहां जो देव माहित. विसहित (विश्रत). विमल, प्रभास, वनमाल और अच्युतावतंसक नाम के विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम कही गई है। वे देव बाईस अर्धमासों (ग्यारह मासों) के बाद प्रानप्राण या उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के वाईस हजार वर्षों के बाद आहार को इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव बाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // द्वाविंशतिस्थानक समवाय समाप्त // त्रयोविंशतिस्थानक-समवाय १५५–तेवीसं सूयगडज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा—समए 1, वेतालिए 2, उवसग्गपरिण्णा 3, थोपरिणा 4, नरयविभत्ती 5, महावीरथुई 6, कुसीलपरिभासिए 7, विरिए 8, धम्मे 9, समाही 10, मग्गे 11, समोसरणे 12, पाहत्तहिए 13, गंथे 14, जमईए 15, गाथा 16, पुण्डरीए 17, किरियाठाणा 18, आहारपरिण्णा 19, अपच्चक्खाणकिरिआ 20, अणगारसुयं 21, अद्दइज्ज 22, णालंदइज्ज 23 / सूत्रकृताङ्ग में तेईस अध्ययन कहे गये हैं। जैसे-१. समय, 2. वैतालिक, 3. उपसर्गपरिजा, 3. स्त्रोपरिज्ञा, 5. नरकविभक्ति, 6. महावीरस्तुति, 7. कुशोलपरिभाषित, 8. वीर्य, 9. धर्म, 10. समाधि, 11. मार्ग, 12. समवसरण, 13. याथातथ्य (प्राख्यातहित) 14. ग्रन्थ, 15. यमतीत, 16. गाथा, 17. पुण्डरीक, 18. क्रियास्थान, 19. पाहारपरिज्ञा, 20. अप्रत्याख्यानक्रिया, 21. अनगारश्रुत, 22. प्राीय, 23. नालन्दीय / १५६-जम्बुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमोसे णं ओसप्पिणोए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुहतंसि केवलवरनाण-वंसणे समुप्पण्णे / जंबुद्दीवे णं दीवे इमीसे णं ओस प्पिणीए तेवीसं तित्थकरा Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [समवायाङ्गसूत्र पुन्वभवे एक्कारसंगिणो होत्था / तं जहा-अजित-सम्भव-अभिणंदण-सुमई जाव पासो बद्धमाणो य / उसभे णं अरहा कोसलिए चोद्दसपुग्वी होत्था। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में, इसी भारतवर्ष में, इसी अवपिणी में तेईस तीर्थकर जिनों को सूर्योदय में मुहूर्त में केवल-वर-ज्ञान और केवल-वर-दर्शन उत्पन्न हुए। जम्बूद्वीपनामक इसी द्वीप में गोकाल के तेईस तीर्थंकर पूर्वभव में ग्यारह अंगश्रुत के धारी थे। जैसे-अजित, सभव, अभिनन्दन, सुमति यावत् पार्श्वनाथ, महावीर / कौशलिक ऋषभ अर्हत् चतुर्दशपूर्वी थे। १५७--जम्बुद्दीवे णं दोवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थंकरा पुत्वभवे मंडलियरायाणो होत्था / तं जहा-अजित-सम्भव-अभिणंदण जाव पासो वद्धमाणो य / उसभे णं अरहा कोसलिए पुवभवे चक्कवट्टी होत्था। जम्बूद्वीप नामक द्वीप में इस अवसर्पिणी काल के तेईस तीर्थंकर पूर्वभव में मांडलिक राजा थे। जैसे--अजित, संभव, अभिनन्दन यावत् पार्श्वनाथ तथा वर्धमान / कौशलिक ऋषभ अर्हत् पूर्वभव में चक्रवर्ती थे। १५८-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए प्रथेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। अहे सत्तमाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोक्माई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेवीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणाणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेवीसं पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तेईस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तेईस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तेईस पल्योपम कही गई है / सौधर्म ईशान कल्प में कितनेक देवों की स्थिति तेईस पल्योपम कही गई है। १५९-हेटिममज्झिमगेविज्जाणं देवाणं जहण्णणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा हेछिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा तेवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं तेवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जई। संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति / अधस्तन-मध्यमवेयक के देवों की जघन्य स्थिति तेईस सागरोपम कही गई है / जो देव अधस्तन ग्रैवेयव विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेईस सागरोपम कही गई है / वे देव तेईस अर्धमासों (साढ़े ग्यारह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के तेईस हजार वर्षों के बाद ग्राहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं, जो तेईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ॥त्रयोविशतिस्थानक समवाय समाप्त / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिस्थानक समवाय] चतुविंशतिस्थानक-समवाय १६०–चउव्वीसं देवाहिदेवा पण्णत्ता / तं जहा-उसभ-अजित-संभव-अभिणंदण-सुमइपउमपह-सुपास-चंदप्पह-सुविधि-सीअल-सिज्जंस - बासुपुज्ज-विमल-अणंत-धम्म-संति-कुथु - अर-मल्लीमुणिसुन्वय-नमि-नेमी-पास-बद्धमाणा। चौबीस देवाधिदेव कहे गये हैं / जैसे--ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, सुविधि (पुष्पदन्त) शीतल, श्रेयान्स, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ और वर्धमान / १६१-चुल्लहिमवंत-सिहरोणं वासहरपव्वयाणं जीवानो चउच्चीसं चउच्वोसं जोयणसहस्साई णव-वत्तीसे जोयणसए एग अदृत्तीसह भागं जोयणस्स किचि विसेसाहियाम्रो आयामेणं पण्णत्ता। क्षुल्लक हिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वतों की जीवाएं चौबीस-चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन और एक योजन के अड़तीस भागों में से एक भाग से कुछ अधिक (2493238 साधिक) लम्बी कही गई है। १६२---चउवीसं देवट्ठाणा सइंदया पण्णत्ता, सेसा अहमिदा अनिदा अपुरोहिया। चौबीस देवस्थान इन्द्र-सहित कहे गये हैं। शेष देवस्थान इन्द्र-रहित, पुरोहित-रहित हैं और वहां के देव अहमिन्द्र कहे जाते हैं। विवेचन-जो चौबीस देवस्थान इन्द्र-सहित कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं—दश जाति के भवन दश स्थान. पाठ जाति के व्यन्तर देवों के पाठ स्थान, पांच प्रकार के ज्योतिष्क देवों के पाँच स्थान और सौधर्मादि कल्पवासी देवों का एक स्थान / इस प्रकार ये सब मिलकर (10+8+ 5+1=24) चौबीस होते हैं। इन सभी स्थानों में राजा-प्रजा आदि जैसी व्यवस्था है, अत: उनके अधिपतियों को इन्द्र कहा जाता है। किन्तु नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में राजा प्रजा आदि की कल्पना नहीं है, किन्तु वहाँ के सभी देव समान ऐश्वर्य एवं वैभववाले हैं, वे सभी अपने को 'अहम् + इन्द्र:' 'मैं इन्द्र हूँ' इस प्रकार अनुभव करते हैं, इसलिये वे 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं और इसी कारण उन चौदह ही स्थानों को अनिन्द्र (इन्द्र-रहित) और अपुरोहित (पुरोहित-रहित) कहा गया है / यह अपुरोहित शब्द उपलक्षण है, अतः जहाँ इन्द्र होता है, वहाँ उसके साथ सामानिक, त्रायस्त्रिश, आत्म-रक्षक, पुरोहित और लोकपालादि भी होते हैं। किन्तु जहाँ इन्द्र की कल्पना नहीं है, उन देवस्थानों को 'अनिन्द्र, अपुरोहित' आदि शब्दों से कहा गया है। १६३--उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलिए पोरिसिछायं णिवत्तइत्ता णं णित्ति / गंगासिंधूनो णं महाणदीओ पवहे सातिरेगेणं चउधीसं कोसे वित्थारेणं पण्णते। रत्ता-रत्तवतीनो णं महाणदीग्रो पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे विस्थारेणं पण्णत्ते। उत्तरायण-गत सूर्य चौबीस अंगुलवाली पौरुषी छाया को करके कर्क संक्रान्ति के दिन सर्वाभ्यन्तर मंडल से निवृत्त होता है, अर्थात् दूसरे मंडल पर आता है। गंगा-सिन्धु महानदियाँ प्रवाह Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] [समवायाङ्गसूत्र (उद्गम-) स्थान पर कुछ अधिक चौबीस-चौबीस कोश विस्तार वाली कही गई हैं। [इसी प्रकार] रक्ता-रक्तवती महानदियाँ प्रवाह-स्थान पर कुछ अधिक चौबीस-चौबीस कोश विस्तारवाली कही १६४--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं ठिई चउवोसं पलिग्रोवमाई पण्णत्ता। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइआणं नेरइयाणं चउबीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीसं पलिओवभाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं चउवीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णता / रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति चौबीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति चौबीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों को स्थिति चौबीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्प में कितनेक देवों को स्थिति चौबीस पल्योपम कही गई है। १६५--हेट्ठिम-उवरिमगेवेज्जाणं देवाणं जहण्णेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा हेद्विममज्झिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा चउवीसाए अद्धमासाणं प्राणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा णीससंति वा / तेसि णं देवाणं चउवीसाए वाससहस्सेहिं पाहारट्टे समुप्पज्जा / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चउवीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / अधस्तन-उपरिम ग्रेवेयक देवों की जघन्य स्थिति चौबीस सागरोपम कही गई है। जो देव अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति चौबीस सागरोपम कही गई है। वे देव चौबीस अर्धमासों (बारह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छवासनिःश्वास लेते हैं। उन देवों को चौबीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो चौबीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मो से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। स्थानक समवाय समाप्त / / पंचविंशतिस्थानक-समवाय १६६--पुरिम-पच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणासो पण्णत्तामो, तं जहाईरिग्रासमिई मणगुत्ती क्यगुत्ती आलोयपाणभोयणं आदाण-भंड-मत्तणिक्खेवणामिई 5, अणुवीतिभासणया कोहविवेगे लोभविवेगे भयविवेगे हासविवेगे 5, उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमजाणणया सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया साहम्मिय उग्गहं अणुण्णविय परिभुजणया साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुजणया 5, इत्थी-पसु-पंडगसंसत्तगसयणासणवज्जणया इत्थीकहविवज्जणया इत्थीणं इंदियाण Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविंशतिस्थानक समवाय] मालोयणवज्जणया पुव्वरय-पुत्व-कोलिग्राणं अणणुसरणया पणीताहारविवज्जणया 4, सोइंदियरागोवरई चक्खिदियरागोवरई घाणिदियरागोवरई जिभिदियरागोवरई फासिदियरागोवरई 5 / प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के (द्वारा उपदिष्ट) पंचयाम की पच्चीस भावनाएं कही गई हैं / जैसे-[प्राणातिपात-विरमण या अहिंसा महावत की पांच भावनाएं-] 1. ईर्यासमिति, 2. मनोगुप्ति, 3. वचन गुप्ति, 4. आलोकितपान-भोजन, 5. आदानभांड-मात्रनिक्षेपणासमिति / [मृषावाद-विरमण या सत्य महाव्रत की पांच भावनाएं--] 1. अनुवीचिभाषण, 2. क्रोध-विवेक, 3. लोभ-विवेक, 4. भयविवेक, 5. हास्य-विवेक / [अदत्तादान-विरमण या अचौर्य महाव्रत की पांच भावनाएं---] 1. अवग्रहअनुज्ञापनता, 2. अवग्रहसीम-ज्ञापनता, 3. स्वयमेव अवग्रह-अनुग्रहणता, 4. सार्मिक अवग्रह नता, 5. साधारण भक्तपान-अनज्ञाप्य परिभ जनता, [मैथन-विरमण या ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं-] 1. स्त्री-पशु-नपुसक-संसक्त शयन-पासन वर्जनता, 2. स्त्रीकथाविवर्जनता, 3. स्त्री इन्द्रिय-[मनोहराङ्ग] आलोकनवर्जनता, 4. पूर्वरत-पूर्वक्रीडा-अननुस्मरणता, 5. प्रणीत-पाहारविवर्जनता। [परिग्रह-वेरमण महाव्रत की पांच भावनाएं-] 1. श्रोत्रेन्द्रिय-रागोपरति, 2. चक्षरिन्द्रिय-रागोपरति, 3. घ्राणेन्द्रिय-रागोपरति, 4. जिह्वन्द्रिय-रागोपरति, और 5. स्पर्शनेन्द्रियरागोपरति। विवेचन- मध्य के बाईस तीर्थंकरों के शासन में पंचमहाव्रत के स्थान पर चातुर्याम धर्म प्रचलित था, अतएव यहाँ प्रथम और चरम तीर्थकर का ग्रहण किया गया है / :प्रादितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव और चरम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी ने जिन पंचयाम व्रतों का उपदेश दिया तथा उनकी रक्षा के लिए प्रत्येक व्रत को पांच-पांच भावनाओं के चिन्तन, मनन और आचरण करने का भी विधान किया है / यावज्जीवन के लिए स्वीकृत अहिंसा महाव्रत तभी सुरक्षित रह सकता है जबकि भूमि पर दष्टि रख कर जीवों की रक्षा करते हए गमन किया जाए, मन की चंचलता पर नियन्त्रण रखा जाए, बोलते समय नियन्त्रण रखते हुए हित, मित, प्रिय वचन बोले जाएं, सूर्य से प्रकाशित स्थान पर भली-भांति देख-शोध कर खान-पान किया जाए और वस्त्र-पात्र आदि को उठाते और रखते समय सावधानी रखो जाए / ये ही प्रथम महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। ___ सत्य महाव्रत की रक्षा के लिए आवश्यक है कि खूब सोच-विचार करके बोला जाए, क्रोध का त्याग किया जाए, लोभ का त्याग किया जाए, भय का त्याग किया जाए, और हास-परिहास का त्याग किया जाए। विचार किये विना बोलने से असत्य वचन का मुख से निकलना सम्भव है, क्रोध के आवेश में भी प्रायः असत्य वचन मुख से निकल जाते हैं, लोभ से तो मनुष्य प्रायः झठ बोलते ही हैं, भय से भी व्यक्ति असत्य बोल जाता है और हंसी में भी दूसरे को अपमानित करने या उसका मजाक उड़ाने के लिए असत्य बोलना प्राय: देखा जाता है। अत: सत्य महाव्रत की पूर्ण रक्षा के लिए अनुवीचिभाषण और क्रोध, लोभ, भय और हास्य का परित्याग आवश्यक है। अचौर्य महाव्रत की रक्षा के लिए आवश्यक है कि किसी भी वस्तु को ग्रहण करने से पहले उसके स्वामी से अनुज्ञा या स्वीकृति प्राप्त कर ली जाए, अपनी सीमा या मर्यादा के ज्ञानपूर्वक ही वस्तु ग्रहण की जाय, स्वय याचना करके वस्तु ग्रहण की जाए, अपने सार्मिकों को प्राहार-पानी के लिए ग्रामन्त्रण देकर खान-पान किया जाए और याचना करके लाये हए भक्त-पानादि को गूरुजनों के आगे निवेदन कर और उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर आहार किया जाय / संस्कृतटीकाकार ने परिजनता की Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [समवायाङ्गसूत्र व्याख्या करते हुए अथवा कह कर उसका निवास अर्थ भी किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि जिस स्थानक या उपाश्रय आदि में निवास किया जाए, उसके स्वामी से स्वीकृति प्राप्त करके ही निवास किया जाय। ब्रह्मचर्य महाव्रत की रक्षा के लिए स्त्री, पशु, नपुसक दुराचारी मनुष्यों के सम्पर्क वाले स्थान पर सोने या बैठने का त्याग किया जाए, स्त्रियों की राग-वर्धक कथाओं का और उनके मनोहर अंगोपांगों को देखने का त्याग किया जाए, पूर्वकाल में स्त्री के साथ भोगे हुए भोगों को और काम-क्रीड़ाओं को याद न किया जाए तथा पौष्टिक गरिष्ठ और रस-बहुल आहार-पान का त्याग किया जाए। परिग्रह-त्याग महावत की रक्षा के लिए पांचों इन्द्रियों के शब्दादि इष्ट विषयों में राग का और अनिष्ट विषयों में द्वेष का त्याग अावश्यक है। इन भावनाओं के करने पर ही उक्त महाव्रत स्थिर और दृढ़ रह सकते हैं, अन्यथा नहीं। अतः उक्त भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र में भी उक्त व्रतों की 25 भावनाएं कही गई हैं, किन्तु श्वे० और दि० सम्मत पाठों में तीसरे अचौर्य महाव्रत की भावनाओं में कुछ अन्तर है, प्रकरण-संगत होने एवं कुछ महत्त्वपूर्ण होने से उनका यहाँ निर्देश किया जाता है श्वे० तत्त्वार्थाधिगम भाष्य के अनुसार१. अनुवीचि-अवग्रह-याचन-हिंसादि दोषों से रहित निर्दोष अवग्रह का ग्रहण करना और उसी की याचना करना। 2. अभीक्ष्णावग्रहयाचन-निरन्तर उसी प्रकार से ग्रहण और याचन करना / 3. एतावदित्यवग्रहावधारण--- मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है, ऐसा कह कर उतनी ही वस्तु को और भक्त-पान को ग्रहण करना / 4. समानधार्मिकों से अवग्रह-याचन–अपने ही समान समाचारी वालों से याचना करना और उन्हीं के पदार्थों को ग्रहण करना। 5. अनुज्ञापित पान-भोजन-अनुज्ञा या स्वीकृति मिलने पर भोजन-पान करना / दि० तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार१. शून्यागार-पावास-जिनका कोई स्वामी नहीं रहा है और जो सर्वसाधारण लोगों के ठहरने के लिए घोषित कर दिये गये हैं, ऐसे सूने घर, मठ आदि में निवास करना / 2. विमोचितावास-जिन घरों के स्वामियों को राजा आदि ने निकाल कर देश से बाहर कर दिया और उन्हें सर्वसाधारण के रहने या ठहरने के लिए घोषित कर दिया ऐसे घरों में निवास करना / 3. परोपरोधाकरण---जहां स्वयं निवास कर रहे हों, उस स्थान पर यदि कोई साधर्मी ठहरने को आवे तो उसे मना नहीं करना / 4. भैक्ष्यशुद्धि-भिक्षा-सम्बन्धी सर्व दोषों और अन्तरायों को टाल भिक्षा ग्रहण करना। 5. सधर्माविसंवाद-साधर्मी जनों से विसंवाद या कलह नहीं करना / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविशतिस्थानक समवाय] [73 १६७--मल्लो णं अरहा पणवीसं धणुइं उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। सव्वे वि दीहवेयडपव्वया पणवीसं जोयणाणि उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। पणवीसं पणवीसं गाउप्राणि उन्विद्वेणं पण्णता। दोच्चाए णं पुढवीए पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। मल्ली अर्हन् पच्चीस धनुष ऊंचे थे। सभी दोघ वैताढय पर्वत पच्चीस धनुष ऊंचे कहे गये हैं / तथा वे पच्चीस कोश भूमि में गहरे कहे गये हैं। दूसरी पृथिवी में पच्चीस लाख नारकावास कहे गये हैं। १६८--आयारस्स णं भगवो सचूलिग्रायस्स पणवीसं अज्झयणा पण्णता, तं जहा--- सस्थपरिणा' लोगविजओ' सीओसणीअ सम्मत्तं / आवंति' धुय विमोह उवहाण सुयं महपरिण्णा // 1 // पिंडेसण'" सिज्जिरि'' आ२ भासज्झयणा' य वत्थ'४ पाएसा'५ / उग्गहपडिमा६ सत्तिक्कसत्तया१७-२3 भावण 24 विमुत्ती२५ // 2 // णिसीहज्झयणं पणुवीसइमं / चूलिका-सहित भगवद्-प्राचाराङ्ग सूत्र के पच्चीस अध्ययन कहे गये हैं। जैसे-१. शस्त्रपरिज्ञा, 2. लोकविजय, 3, शीतोष्णीय, 4. सम्यक्त्व, 5. यावन्ती, 6. धूत, 7. विमोह, 8. उपधानश्रुत, 9. महापरिज्ञा, 10. पिण्डैषणा, 11. शय्या, 12. ईर्या, 13, भाषाध्ययन, 14. वस्त्रैषणा, 15. पात्रैषणा, 16. अवग्रहप्रतिमा, 17-23 सप्तकक (17. स्थान, 18. निषीधिका, 19. उच्चारप्रस्रवण, 20. शब्द, 21. रूप, 22. परक्रिया, 23. अन्योन्य क्रिया) 24. भावना अध्ययन और 25. विमुक्ति अध्ययन / / 1-2 // अन्तिम विमुक्ति अध्ययन निशीथ अध्ययन सहित पच्चीसवां है। १६९-मिच्छादिदिविलिदिए णं अपज्जत्तए णं संकिलिट्ठपरिणामे णामस्स कम्मस्स पणवीस उत्तरपयडीओ णिबंधति-तिरियगतिनाम 1. विलिदियजातिनामं 2. अोरालियसरीरणाम 3. तेअगसरीरणामं 4, कम्मणसरीरनामं 5, हुंडगसंठाणनामं 6, पोरालियसरीरंगोवंगणामं 7, छेवट्ठसंघयणनामं 8, वण्णनामं 9, गंधनामं 10, रसनामं 11, फासनामं 12, तिरिआणुपुग्विनामं 13, अगुरुलहुनामं 14, उवधायनामं 15, तसनामं 16, बादरनामं 17, अपज्जत्तयनामं 18, पत्तेयसरीरनाम 19, अथिरनामं 20, असुभनाम 21, दुभगनाम 22, अणादेज्जनामं 23, अजसोकित्तिनामं 24, निम्माणनामं 25 / संक्लिष्ट परिणामवाले अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) जीव नामकर्म की पच्चीस उत्तर प्रकृतियों को बांधते हैं / जैसे-१. तिर्यग्गतिनाम, 2 विकलेन्द्रिय जातिनाम, 3. प्रौदारिकशरीरनाम, 4. तैजसशरीरनाम, 5. कार्मणशरीरनाम, 6. हंडकसंस्थान नाम, 7. औदारिकशरीराङ्गोपाङ्गनाम, 8. सेवार्तसंहनननाम, 9. वर्णनाम, 10. गन्धनाम, 11. रसनाम 12. स्पर्शनाम, 13. तिर्यंचानुपूर्वीनाम, 14. अगुरुलघुनाम, 15. उपघातनाम, 16. त्रसनाम, 17. बादरनाम, 18. अपर्याप्तकनाम, 19. प्रत्येकशरीरनाम, 28. अस्थिरनाम, 21. अशुभनाम, 22. दुर्भगनाम, 23. अनादेयनाम, 24. अयशस्कोत्तिनाम और 25, निर्माणनाम / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन--प्रत्यन्त संक्लेश परिणामों से युक्त अपर्याप्तक विकलेन्द्रिय जीव नामकर्म की उक्त 25 प्रकृतियों को बाँधता है / यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि विकलेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के भेद से तीन प्रकार के होते हैं / अत: जब कोई जीव द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक के योग्य उक्त प्रकृतियों का बन्ध करेगा, तब वह विकलेन्द्रियजातिनाम के स्थान पर द्वीन्द्रियजाति नामकर्म का बन्ध करेगा। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जाति के योग्य प्रकृतियों को बांधने वाला त्रीन्द्रिय या चतुरिन्द्रिय जाति नाम कर्म का बन्ध करेगा / इसका कारण यह है कि जातिनाम कर्म के 5 भेदों में विकलेन्द्रिय जाति नाम का कोई भेद नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में पच्चीस-पच्चीस संख्या के अनुरोध से और द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रियों के तीन वार उक्त प्रकृतियों के कथन के विस्तार के भय से 'विकलेन्द्रिय' पद का प्रयोग किया गया है। 170 --गंगा-सिंधूनो णं महानदीनो पणवीसं गाउयाणि पुहुत्तेणं दुहनो घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडति / रत्ता-रत्तावईनो णं महाणदोनो पणवीसं गाउयाणि पुहत्तेणं मकरमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति / गंगा-सिन्धु महानदियाँ पच्चीस कोश पृथुल (मोटी) घड़े के मुख-समान मुख में प्रवेश कर और मकर (मगर) के मुख को जिह्वा के समान पनाले से निकल कर मुक्तावली हार के प्राकार से प्रपातद्रह में गिरती हैं। इसी प्रकार रक्ता-रक्तवती महान दियाँ भी पच्चीस कोश पृथुल घड़े के मुखसमान मुख में प्रवेश कर और मकर के मुख की जिह्वा के समान पनाले से निकलकर मुक्तावली-हार के आकार से प्रपातद्रह में गिरती हैं। विवेचन--क्षुल्लक हिमवंत कुलाचल या वर्षधरपर्वत के ऊपर स्थित पद्मद्रह के पूर्वी तोरण द्वार से गंगा महानदी और पश्चिमी तोरणद्वार से सिन्धुमहानदी निकलती है / इसी प्रकार शिखरी कुलाचल के ऊपर स्थित पुंडरीकद्रह के पूर्वी तोरणद्वार से रक्तामहानदी और पश्चिमी तोरणद्वार से रक्तवती महानदी निकलतो है। ये चारों ही महानदियाँ द्रहों से निकल कर पहले पांच-पांच सौ योजन पर्वत के ऊपर ही बहती हैं। तत्पश्चात् गंगा-सिन्धु भरतक्षेत्र की ओर दक्षिणाभिमुख होकर और रक्ता-रक्तवती ऐरवतक्षेत्र की अोर उत्तराभिमुख होकर भूमि पर अवस्थित अपने-अपने नाम वाले गंगाकूट आदि प्रपात कूटों में गिरती हैं / पर्वत से गिरने के स्थान पर उनके निकलने के लिए एक बड़ा वज्रमयी पनाला बना हुआ है उसका मुख पर्वत की अोर घड़े के मुख समान गोल है और भरतादि क्षेत्रों की अोर मकर के मुख की लम्बी जीभ के समान है / तथा पर्वत से नीचे भूमि पर गिरतो हुई जलधारा मोतियों के सहस्रों लड़ीवाले हार के समान प्रतीत होती है। यह जलधारा पच्चीस कोश या सवा छह योजन चौड़ी होती है / १७१-लोबिंदुसारस्स णं पुवस्स पणवीसं वत्थू पण्णता। लोकविन्दुसार नामक चौदहवें पूर्व के वस्तुनामक पच्चीस अर्थाधिकार कहे गये हैं। १७२–इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पणवीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं पणवीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं पणवीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं पणवीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विंशतिस्थानक समवाय] [75 इस रत्नप्रभापृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति पच्चीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं महातमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति पच्चीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पच्चोस पल्योपम कही गई है / सौधर्म-ईशान कल्प में कितने क देवों को स्थिति पच्चीस पल्योपम कही गई है। १७३–मज्झिमहेटिमगेवेज्जाणं देवाणं जहणणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / जे देवा हेट्ठिमउवरिमगेवेज्जगविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा पणवीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा / तेसि णं देवाणं पणवीसं वाससहस्सेहिं आहारठे समुपज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गहहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / मध्यम-अधस्तनप्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस सागरोपम कही गई है। जो देव अधस्तन-उपरिमवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पच्चोस सागरोपम कही गई है / वे देव पच्चीस अर्धमासों (साढ़े बारह मासों) के बाद प्रान-प्राण या श्वासोच्छवास लेते हैं। उन देवों के पच्चीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो पच्चीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // पंचविशतिस्थानक समवाय समाप्त // षड्विंशतिस्थानक-समवाय १७४-छव्वीस दसकप्पक्वहाराणं उद्देसणकाला पण्णत्ता, तं जहा-दस दसाणं छ, कप्पस्स, दस ववहारस्स। दशासूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध) कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र के छब्बीस उद्देशनकाल कहे गये हैं। जैसे—दशासूत्र के दश, कल्पसूत्र के छह और व्यवहारसूत्र के दश। विवेचन–पागम या शास्त्र की वाचना देने के काल को उद्देशन-काल कहते हैं। जिस श्रुतस्कन्ध अथवा अध्ययन में जितने अध्ययन या उद्देशक होते हैं, उनके उद्देशनकाल या अवसर भी उतने ही होते हैं। १७५-अभवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिज्जस्त कम्मस्स छन्वीसं कम्मंसा संतकम्मा पण्णत्ता, तं जहा--मिच्छत्तमोहणिज्जं, सोलस कसाया, इत्थीवेदे पुरिसवेदे नपुंसकवेदे हासं परति रति भयं सोगं दुगुछा। अभव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय, कर्म के छब्बीस कर्मांश (प्रकृतियाँ) सत्ता में कहे गये हैं। जैसे-१. मिथ्यात्व मोहनीय, 17. सोलह कषाय, 18. स्त्रीवेद, 19. पुरुषवेद, 20. नपुसकवेद, 21. हास्य, 22. अरति, 23. रति, 24. भय, 25. शोक और 26. जुगुप्सा / Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र विवेचन-दर्शनमोह का जब कोई जीव सर्वप्रथम उपशमन करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तब वह अनादिकाल से चले आ रहे दर्शनमोहनीय कर्म के तीन विभाग करता है / तब बह चारित्रमोह के उक्त पच्चीस भेदों के साथ अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है / परन्तु अभव्य जीव कभी सम्यग्दर्शन को प्राप्त ही नहीं करते, अतः अनादि मिथ्यात्व के वे तीन विभाग भी नहीं कर पाते हैं। इससे उनके सदा ही मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियाँ ही सत्ता में रहती हैं। मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता उनमें नहीं होती। १७६-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छन्वीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छब्बीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छन्वीसं पलिमोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्थेगइयाणं छठवीसं पलिप्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। __इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है / अधस्तन सातवीं महातमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्प में रहनेवाले कितनेक देवों की स्थिति छब्बीस पल्योपम कही गई है। १७७–मज्झिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णणं छव्वीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता जे देवा मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छब्बीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा छब्बीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं छव्वीसं वाससहस्सेहि आहारट्टे समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छब्बीसेहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिसंति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / मध्यम-मध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। जो देव मध्य-अधस्तनप्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति छब्बीस सागरोपम कही गई है। वे देव छब्बीस अर्धमासों (तेरह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं / उन देवों के छब्बीस हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। ___ कितनेक भवसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो छब्बीस भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्वदुःखों का अन्त करेंगे। ॥षड्विंशतिस्थानक समवाय समाप्त // सप्तविंशतिस्थानक-समवाय १७८-सत्तावीसं अणगारगुणा पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं 1, मुसावायायो वेरमणं 2, प्रदिन्नादाणाओ वेरमणं 3, मेहुणानो वेरमणं 4, परिग्गहाम्रो वेरमणं 5, सोइंदियनिग्गहे 6, चविखदियनिग्गहे 7, घाणिदियणिग्गहे 8, जिभिदियणिग्गहे 9, फासिदियनिग्गहे 10, कोहविवेगे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविंशतिस्थानक समवाय] [77 11, माणविवेगे. 12, मायाविवेगे 13, लोभविवेगे 14, भावसच्चे 15, करणसच्चे 16, जोगसच्चे 17, खमा 18, विरागया 19, मणसमाहरणया 20, वयसमाहरणया 21, कायसमाहरणया 22, णाणसंपण्णया 23, दंसणसंपण्णया 24, चरित्तसंपण्णया 25, वेयण अहियासणया 26, भारतिय अहियासणया 27 / अनगार-निर्ग्रन्थ साधुओं के सत्ताईस गुण हैं। जैसे-१ प्राणातिपात-विरमण, 2 मृषावादविरमण, 3 अदत्तादान-विरमण, 4 मैथुन-विरमण, 5 परिग्रह-विरमण, 6 श्रोत्रेन्द्रिय-निग्रह, 7 चक्षुरिन्द्रिय-निग्रह, 8 घ्राणेन्द्रिय-निग्रह, 9 जिह्वन्द्रिय-निग्रह, 10 स्पर्शनेन्द्रिय-निग्रह, 11 क्रोधविवेक, 12 मानविवेक, 13 मायाविवेक, 14 लोभविवेक, 15 भावसत्य, 16 करणसत्य, 17 योगसत्य, 15 क्षमा, 19 विरागता, 20 मनःसमाहरणता, 21 वचनसमाहरणता, 22 कायसमाहरणता, 23 ज्ञानसम्पन्नता, 24 दर्शनसम्पन्नता, 25 चारित्रसम्पन्नता, 26 वेदनातिसहनता और मारणान्तिकातिसहनता। विवेचन-अनगार श्रमणों के प्राणातिपात-विरमण आदि पाँच महाव्रत मूलगुण हैं / शेष बाईस उत्तर गुण हैं / जिनमें पाँचों इन्द्रियों के विषयों का निग्रह करना, अर्थात् उनकी उच्छृखल प्रवृत्ति को रोकना और क्रोधादि चारों कषायों का विवेक अर्थात् परित्याग करना आवश्यक है। अन्तरात्मा की शुद्धि को भावसत्य कहते हैं। वस्त्रादि का यथाविधि प्रतिलेखन करते पूर्ण सावधानी रखना करणसत्य है / मन वचन काय की प्रवृत्ति समीचीन रखना अर्थात् तीनों योगों की शुद्धि या पवित्रता रखना योगसत्य है। मन में भी क्रोध भाव न लाना, द्वेष और अभिमान का भाव जागत न होने देना क्षमा गुण है / किसी भी वस्तु में प्रासक्ति नहीं रखना विरागता गुण है / मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करना उनकी समाहरणता कहलाती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से सम्पन्नता तो साधुनों के होना ही चाहिए / शीत-उष्ण आदि वेदनाओं को सहना वेदनातिसहनता है। मरण के समय सर्व प्रकार के परीषहों और उपसर्गों को सहना, तथा किसी व्यक्ति के द्वारा होने वाले मारणान्तिक कष्ट को सहते हुए भी उस पर कल्याणकारी मित्र की बुद्धि रखना मारणान्तिकातिसहनता है। यहां यह विशेष ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-परम्परा में साधुओं के 28 गुण कहे गये हैं। उनमें पाँच महाव्रत और पाँचों इन्द्रियों का निरोध रूप 10 गुण तो उपर्युक्त ही हैं। शेष 18 गुण इस प्रकार हैं-पाँच समितियों का परिपालन, तीन गुप्तियों का पालन, सामायिक वन्दनादि छह अावश्यक करना, अचेल रहना, एक बार भोजन करना, केश लुच करना, और स्नान-दन्त-धावनादि का त्याग करना। __ दोनों में एक अचेल या नग्न रहने का ही मौलिक अन्तर है / शेष गुणों का परस्पर एक-दूसरे गुणों में अन्तर्भाव हो जाता है। 179 -जंबुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खतेहिं संववहारे वट्टति / एगमेगे गं णक्खत्तमासे सत्तावीसाहिं राइंदियाहिं राइंदियग्गेणं पण्णत्ते / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। जम्बूद्वीपनामक इस द्वीप में अभिजित् नक्षत्र को छोड़कर शेष नक्षत्रों के द्वारा मास आदि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [समवायाङ्गसूत्र का व्यवहार प्रवर्तता है। (अभिजित् नक्षत्र का उत्तराषाढा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में प्रवेश हो जाता है / ) नक्षत्र मास सत्ताईस दिन-रात की प्रधानता वाला कहा गया है / अर्थात् नक्षत्र मास में 27 दिन होते हैं / सौधर्म-ईशान कल्पों में उनके विमानों की पृथिवी सत्ताईस सौ (2700) योजन मोटी कही गई है। 180 --वेयगसम्मतबंधोवरयस्स णं मोहणिज्जस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडोओ संतकम्मंसा पण्णत्ता। सावणसुद्धसत्तमोसु णं सूरिए सत्तावीसंगुलियं पोरिसिच्छायं णिवत्तइत्ता णं दिवसखेतं नियट्टमाणे रयणिखेत्तं अभिणिवट्टमाणे चारं चरइ। वेदक सम्यक्त्व के बन्ध रहित जीव के मोहनीय कर्म की सत्ताईस प्रकृतियों की सत्ता कही गई है / श्रावण सुदो सप्तमी के दिन सूर्य सत्ताईस अंगुल की पौरुषी छाया करके दिवस क्षेत्र (सूर्य से प्रकाशित आकाश) की ओर लौटता हुआ और रजनी क्षेत्र (प्रकाश को हानि करता और अन्धकार को) बढ़ता हुमा संचार करता है। १८१--इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत्तावीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है / अधस्तन सप्तम महातमःप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति सत्ताईस पल्योपम की है।। १८२-मज्झिम-उधरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। जे देवा मज्झिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उपवण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तावोस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा। तेसि गं देवाणं सत्तावीसं वाससहस्सेहि आहार? समुप्पज्जइ। संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / मध्यम-उपरिम अवेयक देवों की जघन्य स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। जो देव मध्यम प्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों को उत्कृष्ट स्थिति सत्ताईस सागरोपम की है। ये देव सत्ताईस अर्धमासों (साढ़े तेरह मासों) के बाद प्रान-प्राण अर्थात् उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं / उन देवों को सत्ताईस हजार वर्षों के बाद अाहार की इच्छा उत्पन्न होती है / कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो सत्ताईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। / सप्तविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / / Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविंशतिस्थानक-समवाय १८३-अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे पणते, तं जहा-मासिया प्रारोवणा 1, सपंचराई मासिआ आरोवणा 2, सदसराईमासिया प्रारोवणा 3 / [सपण्णरसराइ मासिआ आरोवणा 4, सबीसइ राई मासिआ आरोवणा 5, सपंचवीसराइ मासिमा पारोवणा 6,] एवं चेव दो मासिया प्रारोवणा सपंचराई दो मासिया आरोवणा०६ / एवं तिमासिया आरोवणा 6, चउमासिया प्रारोवणा 6, उवधाइया आरोवणा 25, अणुवघाइया प्रारोवणा 26, कसिणा प्रारोवणा 27, अकसिणा आरोवणा 28, / एतावता आयारपकप्पे एताव ताव पायरियन्वे / आचारप्रकल्प अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है। जैसे--१ मासिकी अारोपणा, 2 सपंचरात्रिमासिकी आरोपणा, 3 सदशरात्रिमासिकी ग्रारोपणा, 4 सपंचदशरात्रिमासिकी प्रारोपणा, सर्विशतिरात्रिकीमासिको पारोपण, 5 सपंचविंशतिरात्रिमासिकी प्रारोपणा 6 इसी प्रकार द्विमासिकी अारोपणा, 6 त्रिमासिकी आरोपणा, 6 चतुमासिकी प्रारोपणा, 6 उपघातिका अारोपणा, 25 अनुपघातिका प्रारोपणा, 26 कृत्स्ना प्रारोपणा, २७अकृत्स्ना प्रारोपणा, 28 यह अट्राईस प्रकार का आचारप्रकल्प है। यह तब तक आचरणीय है / (जब तक कि प्राचरित दोष की शुद्धि न हो जावे।) विवेचन-'प्राचार' नाम का प्रथम अंग है। उसके अध्ययन-विशेष को प्रकल्प कहते हैं / उसका दूसरा नाम 'निशीथ' भी है / उसमें अज्ञान, प्रमाद या आवेश आदि से साधु-साध्वी द्वारा किये गये अपराधों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। इसको प्राचारप्रकल्प कहने का कारण यह है कि प्रायश्चित्त देकर साधु-साध्वी को उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप प्राचार में पुनः स्थापित किया जाता है / इस प्राचारप्रकल्प या प्रायश्चित्त के प्रकृत सूत्र में अट्ठाईस भेद कहे गये हैं, उनका विवरण इस प्रकार है किसी अनाचार का सेवन करने पर साधु को उसकी शुद्धि के लिए कुछ दिनों तक तप करने का प्रायश्चित्त दिया गया / उस प्रायश्चित्त की अवधि पूर्ण होने के पहले ही उसने पूर्व से भी बड़ा कोई अपराध कर डाला, जिसकी शुद्धि एक मास के तप से होना सम्भव हो, तब उसे उसी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में एक मास के वहन-योग्य जो मास भर का प्रायश्चित्त दिया जाता है, उसे मासिकी पारोपणा कहते हैं / 1 / / कोई ऐसा अपराध करे जिसकी शुद्धि पाँच दिन-रात्रि के तप के साथ एक मास के तप से हो, तो ऐसे दोषी को उसी पूर्वदत्त प्रायश्चित्त में पांच दिन-रात सहित एक मास के प्रायश्चित्त को पूर्वदत्त प्रायश्चित्त में सम्मिलित करने को 'सपंचरात्रिमासिको पारोपणा' कहते हैं / / 1 / / ___ इसी प्रकार पूर्व से भी कुछ बड़ा अपराध होने पर दश दिन-रात्रि सहित एक मास के तप द्वारा शुद्धि योग्य प्रायश्चित्त देने को सदशरात्रिमासिकी प्रारोपणा कहते हैं / / 3 / इसी प्रकार मास सहित पन्द्रह, बीस और पच्चीस दिन रात्रि के वहन योग्य प्रायश्चित्त मासिक प्रायश्चित्त में प्रारोपण करने पर क्रमश: पंचदशरात्रमासिकी प्रारोपणा 4, विशतिरात्र मासिकी अारोपणा 5 और पंचविंशतिरात्रमासिकी 6, प्रारोपणा होती है। जैसे मासिकी प्रारोपणा के छह भेद ऊपर बतलाये गये हैं, उसी प्रकार द्विमासिकी प्रारोपणा Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [समवायानसूत्र के 6 भेद, त्रिमासिकी प्रारोपणा के 6 भेद और चतुर्मासिकी आरोपणा के 6 भेद जानना चाहिए / इस प्रकार चारों मासिकी प्रारोपणा के 24 भेद हो जाते हैं। 27 दिन-रात के दिये गये प्रायश्चित्तों को लघुमासिक प्रायश्चित्त कहते हैं / ऐसे डेढ़ मास के प्रायश्चित्त को लघु द्विमासिक प्रायश्चित्त कहते हैं / ऐसे लघु त्रिमासिक, लघु चतुर्मासिक प्रायश्चित्तों को उपघातिक आरोपणा कहते हैं / यही पच्चीसवीं आरोपणा है। इसे उद्घातिक ग्रारोपणा भी कहते हैं। पूरे मास भर के प्रायश्चित्त को गुरुमासिक कहा जाता है / इसके साथ अर्धपक्ष, पक्ष आदि के प्रायश्चित्तों के प्रारोपण करने को अनुपातिक प्रारोपण कहते हैं / इसे अनुद्घातिक मासिक प्रायश्चित्त भी कहा जाता है / यह छब्बीसवीं आरोपणा है। साधु ने जितने अपराध किये हैं, उन सब के प्रायश्चित्तों को एक साथ देने को कृत्स्ना अारोपणा कहते हैं / यह सत्ताईसवीं अारोपणा है / बहुत अधिक अपराध करनेवाले साधु को भी प्रायश्चित्तों को सम्मिलित करके छह मास के तपप्रायश्चित्त को अकृत्स्ना पारोपणा कहते हैं। यह अट्ठाईसवीं आरोपणा है / इसमें सभी छोटेमोटे प्रायश्चित्त सम्मिलित हो जाते हैं। कितना ही बड़ा अपराध किया हो, पर छह मास से अधिक तप का विधान नहीं है / १८४---भवसिद्धियाणं जीवाणं अत्थेइगइयाणं मोहणिज्जस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसासंतकम्मा पण्णत्ता / तं जहा—सम्मत्तवेयणिज्ज मिच्छत्तवेयणिज्जं सम्मामिच्छत्तवेयणिज्ज, सोलस कसाया, णव णोकसाया / कितनेक भव्यसिद्धिक जीवों के मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता कही गई है। जैसे-सम्यक्त्व वेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय, सम्यग्मिथ्यात्व वेदनीय, सोलह कषाय और नौ नोकषाय / 185 -आभिणिबोहियाणाणे अट्ठावीसविहे पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियाप्रत्थावग्गहे 1, चक्खिदियअत्थावरगहे 2, घाणिदियअत्थावग्गहे 3, जिभिदियग्रत्थावग्गहे 4, फासिदियप्रत्थावग्गहे 5, णोइंदियनत्थावग्गहे 6, सोइंदियवंजणोग्गहे 7, घाणिदियवंजणोग्गहे 8, जिभिदियवंजणोवग्गहे 9, फासिदियवंजणोग्गहे 10, सोतिदियईहा 11, चक्खिदियईहा 12, घाणिदियईहा 13, जिभिदियईहा 14, फासिदियईहा 15 णोइंदियईहा 16, सोतिदियावाए 17, चक्खिदियावाए 18, घाणिदियावाए, 19, जिभिदियावाए 20, फासिदियावाए 21, गोइंदियावाए 22 / सोइंदियधारणा 23, चक्खिदियधारणा 24, घाणिदियधारणा 25, जिभिदियधारणा 26, फासिदियधारणा 27, गोइंदियधारणा 28 / प्राभिनिवोधिकज्ञान अट्ठाईस प्रकार का कहा गया है / जैसे-१ श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह, 2 चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, 3 घ्राणेन्द्रिय-अर्थावग्रह, 4 जिह्वन्द्रिय-अर्थावग्रह, 5 स्पर्शनेन्द्रिय-अर्थावग्रह 6 नोइन्द्रिय-अर्थावग्रह, 7 श्रोत्रेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, 8 घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, 9 जिह्वन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, 10 स्पर्शनेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, 11 श्रोत्रेन्द्रिय-ईहा, 12 चक्षुरिन्द्रिय-ईहा, 13 घ्राणेन्द्रिय-ईहा, 14 जिह्वन्द्रिय-ईहा, 15 स्पर्शनेन्द्रिय-ईहा, 16 नोइन्द्रिय-ईहा, 17 श्रोत्रेन्द्रिय-अवाय, 18 चक्षुरि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाविशतिस्थानक समवाय ] [81 न्द्रिय-प्रवाय, 19 घ्राणेन्द्रिय-अवाय, 20 जिहन्द्रिय-प्रवाय, 21 स्पर्शनेन्द्रिय-अवाय, 22 नोइन्द्रियअवाय, 23 श्रोत्रेन्द्रिय-धारणा, 24 चक्षुरिन्द्रिय-धारणा, 25 घ्राणेन्द्रिय-धारणा, 26 जिह्वेन्द्रियधारणा, 27 स्पर्शनेन्द्रिय-धारणा और 28 नोइन्द्रिय-धारणा। विवेचन --किसी भी पदार्थ के जानने के पूर्व 'कुछ है' इस प्रकार का अस्पष्ट पाभास होता है, उसे दर्शन कहते हैं / उसके तत्काल बाद ही कुछ स्पष्ट किन्तु अव्यक्त बोध होता है, उसे व्यंजनावग्नह कहते हैं। उसके बाद 'यह मनुष्य है' ऐसा जो सामान्य बोध या ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं / तत्पश्चात् यह जानने की इच्छा होती है कि यह मनुष्य बंगाली है, या मद्रासी ? इस जिज्ञासा को ईहा कहते हैं / पुन: उसकी बोली आदि सुनकर निश्चय हो जाता है कि यह बंगाली नहीं किन्तु मद्रासी है, इस प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं / यही ज्ञान जब दृढ हो जाता है, तब धारणा कहलाता है / कालान्तर में वह स्मरण का कारण बनता है। स्मरण स्वयं भी धारणा का एक अंग है। इनमें व्यंजनावग्रह मन और चक्षुरिन्द्रिय से नहीं होता क्योंकि इनसे देखी या सोचीविचारी गई वस्तु व्यक्त ही होती है, किन्तु व्यंजनावग्रह ज्ञान अव्यक्त या अस्पष्ट होता है / अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के चारों ज्ञान पांचों इन्द्रियों और छठे मन से होते हैं / अतः चार को छह से गुणित करने पर (4 x 6 = 24) चौबीस भेद अर्थावग्रह सम्बन्धी होते हैं। और व्यंजनावग्रह मन और चक्षु के सिवाय शेष चार इन्द्रियों से होता है अत: उन चार भेदों को ऊपर के चौबीस भेदों में जोड़ देने पर (24+4=28) अट्ठाईस भेद आभिनिबोधिक ज्ञान के होते हैं। इसको ही मतिज्ञान कहते हैं / मन को 'नोइन्द्रिय' कहा जाता है, क्योंकि वह बाहर दिखाई नहीं देता। पर सोच-विचार से उसके अस्तित्व का सभी को परिज्ञान अवश्य होता है। १८६-ईसाणे णं कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ईशान कल्प में अट्ठाईस लाख विमानावास कहे गये हैं। १८७---जीवे णं देवगइम्मि बंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसं उत्तरपगडीओ निबंधति / तं जहा-देवगतिनाम १,पंचिदियजातिनामं 2, वेउस्वियसरीरनामं 3, तेयगसरीरनामं 4, कम्मणसरीरनामं 5, समचउरंससंठाणनामं 6, वेउव्वियसरीरंगोवंगणामं 7, वण्णनामं 8, गंधनामं 9, रसनामं 10, फासनामं 11, देवाणुपुस्विनामं 12, अगुरुलहुनामं 13, उवधायनामं 14, पराघायनामं 15, उस्सासनामं 16, पसस्थविहायोगइनामं 17, तसनामं 18, बायरनामं 19, पज्जत्तनाम 20, पत्तेयसरीरनामं 21, थिराथिराणं सुभासुभाणं आएज्जाणाएज्जाणं दोण्हं अण्णयरं एग नामं 24, निबंधइ / [सुभगनामं 25, सुस्सरनामं 26,] जसोकित्तिनामं 27, निम्माणनामं 28 / देवगति को बांधने वाला जीव नामकर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियों को बांधता है / वे इस प्रकार हैं-१ देवगतिनाम, 2 पंचेन्द्रियजातिनाम, 3 वैक्रियकशरीरनाम, 4 तेजसशरीरनाम, 5 कार्मणशरीरनाम, 6 समचतुरस्रसंस्थाननाम, 7 वैक्रियकशरीराङ्गोपाङ्गनाम, 8 वर्णनाम, 9 गन्धनाम, 10 रसनाम, 11 स्पर्शनाम, 12 देवानुपूर्वीनाम, 13 अगुरुलघुनाम, 14 उपघातनाम, 15 पराघातनाम, 16 उच्छ्वासनाम, 17 प्रशस्त विहायोगतिनाम, 18 त्रसनाम, 19 बादरनाम, 20 पर्याप्तनाम, 21 प्रत्येकशरीरनाम, 22 स्थिर-अस्थिर नामों में से कोई एक, 23 शुभ-अशुभनामों में से कोई एक, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [ समवायाङ्गसूत्र 24 प्रादेय-अनादेय नामों में से कोई एक, [25 सुभगनाम, 26 सुस्वरनाम, 17 यशस्कोत्तिनाम और 28 निर्माण नाम, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है / १८८-एवं चेव नेरइया वि, णाणतं-अप्पसत्थविहायोगइनामं हुंडगसंठाणणामं अथिरणाम दुब्भगणामं असुभणामं दुस्सरणामं अणादिज्जणामं अजसोकित्तिणामं निम्माणणाम / इसी प्रकार नरकगति को बांधनेवाला जीव भी नामकर्म की अट्राईस प्रकृतियों को बांधता है / किन्तु वह प्रशस्त प्रकृतियों के स्थान पर अप्रशस्त प्रकृतियों को बांधता है। जैसे-अप्रशस्त विहायोगतिनाम, हुंडकसंस्थाननाम, अस्थिरनाम, दुर्भगनाम, अशुभनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम, अयशस्कोत्तिनाम और निर्माणनाम / इतनी मात्र ही भिन्नता है। १८९-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोधमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णता। सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पथिवी में कितनेक नारकों को स्थिति पटाईस पल्योषम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति अट्ठाईस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमारों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति अट्ठाईस पल्योपम कही गई है। १९०---उवरिमहेद्विमगेवेज्जयाणं देवाणं जहणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेज्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति बा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गहणेहि सिन्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानवासी देवों की जघन्य स्थिति अट्ठाईस सागरोपम की है। जो देव मध्यम-उपरिम ग्रेवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति अट्ठाईस सागरोपम होती है / वे देव अट्ठाईस अर्धमासों (चौदह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों को अट्ठाईस हजार वर्षों के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो अट्ठाईस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // अष्टाविंशतिस्थानक समवाय समाप्त / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिंशत्स्थानक-समवाय १९१-एगणतोसइविहे पावसुयपसंगे णं पण्णत्ते / तं जहा–भोमे उपाए सुमिणे अंतलिखे अंगे सरे वंजणे लक्खणे 8 / भोमे तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--सुत्ते वित्ती वत्तिए 3 / एवं एक्केवकं तिविहं 24 / विकहाणुजोगे 25, विज्जाणुजोगे 26, मंताणुजोगे 27, जोगाणुजोगे 28, अण्ण तिथियपवत्ताणुजोगे 29 / पापश्रुतप्रसंग-पापों के उपार्जन करनेवाले शास्त्रों का श्रवण-सेबन उनतीस प्रकार का कहा गया है / जैसे-- 1. भौमश्रुत-भूमि के विकार, भूकम्प आदि का फल-वर्णन करनेवाला निमित्त-शास्त्र। 2. उत्पातश्रुत--अकस्मात् रक्त-वर्षा आदि उत्पातों का फल बतानेवाला निमित्तशास्त्र / 3. स्वप्नश्रुत-शुभ-अशुभ स्वप्नों का फल वर्णन करनेवाला श्रुत। 4. अन्तरिक्षश्रुत-आकाश में विचरनेवाले ग्रहों के युद्धादि होने, तारात्रों के टूटने और सूर्यादि के ग्रहण, ग्रहोपराग आदि का फल बतानेवाला श्रुत / 5. अंगश्रुत-शरीर के विभिन्न अंगों के हीनाधिक होने और नेत्र, भुजा आदि के फड़कने का फल बताने वाला श्रुत / 6. स्वरश्रुत-मनुष्यों, पशु-पक्षियों एवं अकस्मात् काष्ठ-पाषाणादि-जनित स्वरों (शब्दों) को सुनकर उनके फल को बतानेवाला श्रुत / 7. व्यंजनश्रुत--शरीर में उत्पन्न हुए तिल, मषा आदि का फल बतानेवाला श्रुत / 8. लक्षणश्रुत-शरीर में उत्पन्न चक्र, खङ्ग, शंखादि चिह्नों का फल बतानेवाला श्रुत। भीमश्रुत तीन प्रकार का है, जैसे-सूत्र, वति और वात्तिक / 1. अंगश्रुत के सिवाय अन्य मतों की सहस्र पद-प्रमाण रचना को सूत्र कहते हैं / 2. उन्हीं सूत्रों की लक्ष-पद-प्रमाण व्याख्या को वृत्ति कहते हैं / . 3. उस वृत्ति की कोटि-पद प्रमाण व्याख्या को वात्तिक कहते हैं। इन सूत्र, वृत्ति और वात्तिक के भेद से उपर्युक्त भौम, उत्पात आदि पाठों प्रकार के श्रुत के (843 = 24) चौवीस भेद हो जाते हैं। अंगश्रुत की लक्ष-पद-प्रमाण रचना को सूत्र, कोटि-पद प्रमाण व्याख्या को वृत्ति और अपरिमित पद-प्रमाण व्याख्या को वात्तिक कहा जाता है / 25. विकथानुयोगश्रुत्र-स्त्री, भोजन-पान आदि की कथा करनेवाले तथा अर्थ-काम आदि की प्ररूपणा करनेवाले पाकशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र आदि / ___26. विद्यानुयोगश्रुत-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, अंगुष्ठप्रसेनादि विद्याओं को साधने के उपाय और उनका उपयोग बतानेवाले शास्त्र। 27. मंत्रानुयोगश्रुत -लौकिक प्रयोजनों के साधक अनेक प्रकार के मंत्रों का साधन बताने वाला मंत्रशास्त्री Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [समवायाङ्गसूत्र 28. योगानुयोगश्रत---स्त्री-पुरुषादि को वश में करनेवाले अंजन, गुटिका आदि के निरूपक शास्त्र। 29. अन्यतीथिकप्रवृत्तानुयोग-कपिल, बौद्ध आदि मतावलम्बियों के द्वारा रचित शास्त्र / / उक्त प्रकार के शास्त्रों के पढ़ने और सुनने से मनुष्यों का मन-इन्द्रिय-विषयों की ओर आकृष्ट होता है और भौम, स्वप्न आदि का फलादि बतानेवाले शास्त्रों के पठन-श्रवण से मुमुक्षु साधक अपनी साधना से भटक सकता है, अतः मोक्षाभिलाषी जनों के लिए उक्त सभी प्रकार के शास्त्रों को पापश्रुत कहा गया है। १९२-आसाढे णं मासे एगणतोसराइंदिग्राइं राइंदियग्गेणं पण्णत्ता। [एवं चेव] भद्दवए णं मासे, कत्तिए णं मासे, पोसे णं मासे, फग्गुणे णं मासे, वइसाहे णं मासे / चंददिणे णं एगूणतीसं मुहत्ते सातिरेगे मुहत्तग्गेणं पण्णत्ते। प्राषाढ़ मास रात्रि-दिन की गणना की अपेक्षा उनतीस रात-दिन का कहा गया है। इसी प्रकार] भाद्रपद मास, कात्तिक मास, पौषमास, फाल्गुणमास, और वैशाखमास भी उनतीस-उनतीस रात-दिन के कहे गये हैं / चन्द्र दिन मुहूर्त्तगणना की अपेक्षा कुछ अधिक उनतीस मुहूर्त का कहा गया है। १९३-जीवे णं पसत्थज्यवसाणजुत्ते भविए सम्मदिट्ठी तित्थकरनामसहिनाओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीअो णिबंधित्ता वेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववज्जइ / प्रशस्त अध्यवसान (परिणाम) से युक्त सम्यग्दष्टि भव्य जीव तीर्थकरनाम-सहित नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों को बांधकर नियम से वैमानिक देवों में देवरूप से उत्पन्न होता है। १९४--इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगणतीसं पलियोधमाई ठिई पण्णत्ता / अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति उनतीस पत्योपम की है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति उनतीस सागरोपम की है। कितनेक असुर कुमार देवों की स्थिति उनतीस पल्योपम की है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति उनतीस पल्योपम की होती है। १९५-उबरिममज्झिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णेणं एगणतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एगूणतीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ते णं देवा एगणतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं एगूणतीसं वाससहस्सेहि आहारठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगूणतीसभवग्गणेहि सिज्झेिस्सति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिशत्स्थानक समवाय] [85 उपरिम-मध्यम ग्रेवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम कही गई है। वे देव उनतीस अर्धमासों (साढ़े चौदह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वासनि:श्वास लेते हैं / उन देवों के उनतीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्य सिद्धिक जीव ऐसे हैं जो उनतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे , परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे / // एकोनत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // त्रिंशत्स्थानक-समवाय १९६-तीसं मोहणीयठाणा पण्णता / तं जहा जे यावि तसे पाणे वारिमझे विगाहिया / उदएण क्कम्म मारेइ महामोहं पकुव्वइ // 1 // सीसावेढेण जे केई आवेढेइ अभिक्खणं / तिब्वासुभसमायारे महामोहं पकुब्वइ // 2 // पाणिणा संपिहिताणं सोयमावरिय पाणिणं / अंतोनदंतं मारेई महामोहं पकुव्वइ // 3 // जायतेयं समारब्भ बहुं प्रारंभिया जणं / अंतोधूमेण मारेई महामोहं पकुव्वइ // 4 // सिस्सम्मि [सीसम्मि] जे पहणइ उत्तमंगम्मि चेयसा / विभज्ज मत्थयं फाले महामोहं पकुव्वद // 5 // पुणो पुणो पणिधिए हणित्ता उवहसे जणं / फलेणं अदुवा दंडेणं महामोहं पकुव्वइ // 6 // गढायारी निगहिज्जा मायं मायाए छायए। असच्चवाई णिहाई महामोहं पकुव्वइ / / 7 / / घंसेइ जो अभूएणं अकम्मं अत्तकम्मुणा / अदुवा तुम कासि त्ति महामोहं पकुवइ / / 8 / / जाणमाणो परिसपो सच्चामोसाणि भासइ / अक्खीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वइ // 9 // अणागयस्स नयवं दारे तस्सेव धंसिया। विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं // 10 // उवगसतं पि झंपित्ता पडिलोमाई वहि / भोगभोगे वियारेई मोहमाहं पकुव्वइ // 11 // अकुमारभूए जे केई कुमारभूए ति हं वए। इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वइ // 12 // Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86] [समवायाङ्गसूत्र प्रबंभयारी जे केई बंभयारि ति हं वए। गद्दहे व्व गवां मज्झे विस्सरं नयई नदं // 13 // अप्पणो अहिए बाले मायामोसं बहुं भसे। इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वइ // 14 // 12 // जं निस्सिए उन्वहइ जससाहिगमेण वा। तस्स लुब्भइ वित्तम्मि महामोहं पकुव्वइ // 15 // 13 // ईसरेण अदुवा गामेणं अणिसरे ईसरीकए। तस्स संपयहीणस्स सिरी अतुलमागया // 16 // ईसादोसेण प्राविट्ठे कलुसाविलचेयसे / जे अंतरायं चेएइ महामोहं पकुम्वइ // 17 // 14 // सप्पी जहा अंडउडे भत्तारं जो विहिसइ / सेणावई पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ // 18 // 15 // जे मायगं च रस्स नेयारं निगमस्स वा। सेट्टि बहुरवं हंता महामोहं पकुव्वइ // 19 // 16 // बहुजणस्स यारं दीवं ताणं च पाणिणं / एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वइ // 20 // 17 // उवट्ठियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सियं / बुक्कम्म धम्मानो भंसेइ महामोहं पकुव्वइ // 21 // 18 // तहेवाणतणाणीणं जिणाणं वरदंसिणं / तेसि अवण्णवं बाले महामोहं पकुव्वई // 22 // 19 // नेयाउअस्स मग्गस्स दुठे अवयरई बहुं / तं तिप्पयंतो भावेई महामोहं पकुव्वइ // 23 // 20 // आयारिय-उवज्झाएहि सूय विणय च गाहिए। ते चेव खिसई बाले महामोहं पकुव्वइ // 24 // 21 // आयरिय-उवज्झायाणं सम्म नो पडितप्पइ / अप्पडिपूयए थद्ध महामोहं पकुम्बइ // 25 // 22 // अबहुस्सुए य जे केई सुएणं पविकत्थई / सज्झायवायं वयइ महामोहं पकुव्वइ // 26 // 23 // अतवस्सीए य जे केई तवेण पविकत्थइ / सव्वलोयपरे तेणे महामोहं पकुव्वइ // 27 // 24 // साहारणदा जे केई गिलाणम्मि उवटिए / पभू ण कुणई किच्चं मझं पि से न कुव्वइ // 28 // सढे नियडोपण्णाणे कलुसाउलचेयसे / अप्पणो य अबोही य महामोहं पकुम्वइ // 29 // 25 // जे कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो पुणो। सम्वतित्थाण भेयाणं महामोहं पकुव्वइ // 30 // 26 // Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशत्स्यानक समवाय] [87 जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो। सहाहेउं सहोहेउं महामोहं पकुव्वइ // 31 // 27 // जे अ माणुस्सए भोए अदुवा पारलोइए। तेऽतिप्पयंतो आसयइ महामोहं पकुव्वइ // 32 // 28 // इड्डी जुई जसो वण्णो देवाणं बल-वीरियं / तेसि अवण्णवं बाले महामोहं पकुव्वइ // 33 // 29 // अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे। अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वइ // 34 // 30 // मोहनीय कर्म बंधने के कारणभूत तीस स्थान कहे गये हैं। जैसे (1) जो कोई व्यक्ति स्त्री-पशु आदि त्रस-प्राणियों को जल के भीतर प्रविष्ट कर और पैरों को नीचे दबा कर जलके द्वारा उन्हें मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है / यह पहला मोहनीय स्थान है। (2) जो व्यक्ति किसी मनुष्य आदि के शिर को गीले चर्म से वेष्टित करता है, तथा निरन्तर तीव्र अशुभ पापमय कार्यों को करता रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। यह दूसरा मोहनीय स्थान है। (3) जो कोई किसी प्राणी के मुख को हाथ से बन्द कर उसका गला दबाकर धुरधुराते हुए उसे मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / वह तीसरा मोहनीय स्थान है। (4) जो कोई अग्नि को जला कर, या अग्नि का महान् प्रारम्भ कर किसी मनुष्य-पशु आदि को उसमें जलाता है या अत्यन्त धूमयुक्त अग्निस्थान में प्रविष्ट कर धुंए से उसका दम घोंटता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / यह चौथा मोहनीय स्थान है। (5) जो किसी प्राणी के उत्तमाङ्ग-शिर पर मुद्गर आदि से प्रहार करता है अथवा अति संक्लेश युक्त चित्त से उसके माथे को फरसा आदि से काटकर मार डालता है, वह महामहोनीय कर्म का बन्ध करता है / वह पाँचवां मोहनीय स्थान है। (6) जो कपट करके किसी मनुष्य का घात करता है और प्रानन्द से हंसता है, किसी मंत्रित फल को खिला कर अथवा डंडे से मारता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है / यह छठा मोहनीय स्थान है। (7) जो गूढ (गुप्त) पापाचरण करने वाला मायाचार से अपनी माया को छिपाता है, असत्य बोलता है और सूत्रार्थ का अपलाप करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। यह सातवाँ मोहनीय स्थान है। (8) जो अपने किये ऋषिघात आदि घोर दुष्कर्म को दूसरे पर लादता है, अथवा अन्य व्यक्ति के द्वारा किये गये दुष्कर्म को किसी दूसरे पर आरोपित करता है कि तुमने यह दुष्कर्म किया है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / यह पाठवाँ मोहनीय स्थान है / (9) 'यह बात असत्य है' ऐसा जानता हुआ भी जो सभा में सत्यामृषा (जिसमें सत्यांश कम Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र है और असत्यांश अधिक है ऐसी) भाषा बोलता है और लोगों से सदा कलह करता रहता है, वह महा मोहनीय कर्म का बन्ध करता है / यह नवां मोहनीय स्थान है। (10) राजा का जो मंत्री--- अमात्य-अपने ही राजा की दाराओं (स्त्रियों) को, अथवा धन पाने के द्वारों को विध्वंस करके और अनेक सामन्त आदि को विक्षुब्ध करके राजा को अनधिकारी करके राज्य पर, रानियों पर या राज्य के धन-प्रागमन के द्वारों पर स्वयं अधिकार जमा लेता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / यह दशवाँ मोहनीय स्थान है। (11) जिसका सर्वस्व हरण कर लिया है, वह व्यक्ति भेंट आदि लेकर और दीन वचन बोलकर अनुकूल बनाने के लिय यदि किसी के समीप पाता है, ऐसे पुरुष के लिए जो प्रतिकूल वचन बोलकर उसके भोग-उपभोग के साधनों को विनष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / यह ग्यारहवाँ मोहनीय स्थान है। (12) जो पुरुष स्वयं अकुमार (विवाहित) होते हुए भी 'मैं कुमार-अविवाहित हूँ,' ऐसा कहता है और स्त्रियों में मृद्ध (प्रासक्त) और उनके अधीन रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / जो कोई पुरुष स्वयं अब्रह्मचारी होते हुए भी 'मैं ब्रह्मचारी हूँ' ऐसा बोलता है, वह बैलों के मध्य में गधे के समान विस्वर (बेसुरा) नाद (शब्द) करता रेंकता-हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / तथा उक्त प्रकार से जो अज्ञानी पुरुष अपना ही अहित करनेवाले मायाचार-युक्त बहत अधिक असत्य वचन बोलता है और स्त्रियों के विषयों में प्रासक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / यह बारहवाँ मोहनीय स्थान है। (13) जो राजा आदि की ख्याति से अर्थात् 'यह उस राजा का या मंत्री आदि का सगा ऐसी प्रसिद्धि से अपना निर्वाह करता हो अथवा प्राजीविका के लिए जिस राजा के आश्रय में अपने को समर्पित करता है, अर्थात् उसकी सेवा करता है और फिर उसी के धन में लुब्ध होता है, वह पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 15 / / यह तेरहवाँ मोहनीय स्थान है। (14) किसी ऐश्वर्यशाली पुरुष के द्वारा, अथवा जन-समूह के द्वारा कोई अनीश्वर (ऐश्वर्यरहित निर्धन) पुरुष ऐश्वर्यशाली बना दिया गया, तब उस सम्पत्ति-विहीन पुरुष के अतुल (अपार) लक्ष्मी हो गई। यदि वह ईर्ष्या द्वेष से प्रेरित होकर, कलुषता-युक्त चित्त से उस उपकारी पुरुष के या जन-समूह के भोग-उपभोगादि में अन्तराय या व्यवच्छेद डालने का विचार करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 16-17 / / यह चौदहवाँ महामोहनीय स्थान है। (15) जैसे सर्पिणो (नागिन) अपने ही अंडों को खा जाती है, उसी प्रकार जो पुरुष अपना ही भला करने वाले स्वामी का, सेनापति का अथवा धर्मपाठक का विनाश करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 18 / / वह पन्द्रहवां मोहनीय स्थान है। (16) जो राष्ट्र के नायक का या निगम (विशाल नगर) के नेता का अथवा, महायशस्वी सेठ का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 19 / / यह सोलह्वाँ मोहनीय स्थान है। (17) जो बहुत जनों के नेता का, दीपक से समान उनके मार्ग-दर्शक का और इसी प्रकार के अनेक जनों के उपकारी पुरुष का घात करता है, वह महामहोनीय कर्म का बन्ध करता है / / 20 / / यह सत्तरहवाँ मोहनीय स्थान है। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिंशत्स्थानक समवाय] [89 (18) जो जो दीक्षा लेने के लिए उपस्थित या उद्यत पुरुष को, भोगों से विरक्त जन को, संयमी मनुष्य को या परम तपस्वी व्यक्ति को अनेक प्रकारों से भड़का कर धर्म से भ्रष्ट करता है, वह महामोहनीयकर्म का बन्ध करता है / / 21 / यह अठारहवाँ मोहनीय स्थान है / (19) जो अज्ञानी पुरुष अनन्तज्ञानी अनन्तदर्शी जिनेन्द्रों का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 22 // यह उन्नीसवाँ मोहनीयस्थान है। (20) जो दृष्ट पुरुष न्यायन्यूक्त मोक्षमार्ग का अपकार करता है और बहत जनों को उससे च्युत करता है, तथा मोक्षमार्ग की निन्दा करता हुआ अपने आपको उससे भावित करता है, अर्थात् उन दुष्ट विचारों से लिप्त करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 22 / / यह बीसवाँ मोहनीय स्थान है। (21) जो अज्ञानी पुरुष, जिन-जिन प्राचार्यों और उपाध्यायों से श्रुत और विनय धर्म को प्राप्त करता है, उन्हीं की यदि निन्दा करता है, अर्थात् ये कुछ नहीं जानते ये स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हैं, इत्यादि रूप से उनकी बदनामी करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। 24 / / यह इक्कीसवाँ मोहनीय स्थान है। (22) जो प्राचार्य, उपाध्याय एवं अपने उपकारक जनों को सम्यक् प्रकार से सन्तृप्त नहीं करता है अर्थात् सम्यक् प्रकार से उनकी सेवा नहीं करता है, पूजा और सन्मान नहीं करता है, प्रत्युत अभिमान करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 25 / / यह बाईसवाँ मोहनीयस्थान है / (23) अबहुश्रुत (अल्प श्रुत का धारक) जो पुरुष अपने को बड़ा शास्त्रज्ञानी कहता है, स्वाध्यायवादी और शास्त्र-पाठक बतलाता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 26 / / यह तेईसवां मोहनीय स्थान है। (24) जो अतपस्वी (तपस्या-रहित) होकर के भी अपने को महातपस्वी कहता है, वह सब से महा चोर (भाव-चोर होने के कारण) महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 27 / / यह चौबीसवां मोहनीय स्थान है। (25) उपकार (सेवा-शुश्रूषा) के लिए किसी रोगी, आचार्य या साधु के आने पर स्वयं समर्थ होते हुए भी जो 'यह मेरा कुछ भी कार्य नहीं करता है, इस अभिप्राय से उसकी सेवा आदि कर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है, इस मायाचार में पटु, वह शठ (धूर्त) कलुषितचित्त होकर (भवान्तर में) अपनी अबोधि (रत्नत्रयधर्म की अप्राप्ति) का कारण बनता हा महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 28-29 / / यह पच्चीसवाँ महामोहनीय स्थान है। (26) जो पुनः पुनः (वार-वार) स्त्री-कथा, भोजन-कथा आदि विकथाएं करके मंत्र-यंत्रादि प्रयोग करता है या कलह करता है, और संसार से पार उतारनेवाले सम्यग्दर्शनादि सभी तीर्थों के भेदन करने के लिए प्रवृत्ति करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 30 / / यह छब्बीसवाँ मोहनीय स्थान है। (27) जो अपनी प्रशंसा के लिए मित्रों के निमित्त अधार्मिक योगों का अर्थात् वशीकरणादि प्रयोगों का वार-बार उपयोग करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 31 // यह सत्ताईवाँ मोहनीय स्थान है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [समवायाङ्गसूत्र (28) जो मनुष्य-सम्बन्धी अथवा पारलौकिक देवभव सम्बन्धी भोगों में तृप्त नहीं होता हुमा वार-वार उनकी अभिलाषा करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 32 / / यह अट्ठाईसवां मोहनीय स्थान है / (29) जो अज्ञानी देवों की ऋद्धि (विमानादि सम्पत्ति), द्युति (शरीर और आभूषणों की कान्ति), यश और वर्ण (शोभा) का, तथा उनके बल-वीर्य का अवर्णवाद करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 33 / / यह उनतीसवाँ मोहनीय स्थान है। (30) जो देवों, यक्षों और गुह्यकों (व्यन्तरों) को नहीं देखता हुआ भी 'मैं उनको देखता हूँ ऐसा कहता है, वह जिनदेव के समान अपनी पूजा का अभिलाषी अज्ञानी पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है / / 34 / / यह तीसवाँ मोहनीय स्थान है। १९७-थेरे णं मंडियपुत्ते तीसं वासाई सामण्णपरियायं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सम्वदुक्खप्पहोणे। _ स्थविर मंडितपुत्र तीस वर्ष श्रमण-पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध हुए, यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। १९८-एगमेगे णं अहोरत्ते 'तीसमूहत्ते महत्तग्गेणं पण्णते। एएसि णं तीसाए महत्ताणं तीसं नामधेज्जा पण्णत्ता। तं जहा-रोहे सत्ते मित्ते वाऊ सुपीए 5, अभिचंदे माहिदे पलंबे बंभे सच्चे 10, आणंदे विजए विस्ससेणे पायावच्चे उसमे 15, ईसाणे तळे भाविअप्पा वेसमणे वरुणे 20, सतरिसभे गंधम्वे अग्गिवेसायणे प्रातवे पावत्ते 25, तटवे भूमहे रिसभे सव्वट्ठसिद्ध रक्खसे 30 / / एक-एक अहोरात्र (दिन-रात) मुहूर्त-गणना की अपेक्षा तीस मुहूर्त का कहा गया है / इन तीस मुहतों के तीस नाम हैं / जैसे- -1 रौद्र, 2 शक्त, 3 मित्र, 4 वायु, 5 सुपीत, 6 अभिचन्द्र, 7 माहेन्द्र, 8 प्रलम्ब, 9 ब्रह्म, 10 सत्य, 11 अानन्द, 12 विजय, 13 विश्वसेन, 14 प्राजापत्य, 15 उपशम, 16 ईशान, 17 तष्ट, 18 भावितात्मा, 19 वैश्रवण, 20 वरुण.२१ शतऋषभ.२२ ग वैशायन, 24 पातप, 25 पावर्त, 26 तष्टवान, 27 भूमह (महान), 28 ऋषभ 29 सर्वार्थसिद्ध और 30 राक्षस। विवेचन-इन मुहूर्तों की गणना सूर्योदय काल से लेकर क्रम से की जाती है। इनके मध्यवर्ती छह मुहूर्त कभी दिन में अन्तर्भूत होते हैं और कभी रात्रि में होते हैं / इसका कारण यह है कि जब ग्रीष्म ऋतु में अठारह मुहूर्त का दिन होता है, तब वे दिन में गिने जाते हैं और जब शीत काल में रात्रि अठारह मुहर्त की होती है, तब वे रात्रि में गिने जाते हैं। 199 --अरे णं परहा तीसं धण्इं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / अठारहवें अर अर्हन् तीस धनुष ऊंचे थे। 200 सहस्सारस्स णं देविदस्स देवरण्णो तीसं सामाणियसाहस्सोमो पण्णत्तायो। सहस्रार देवेन्द्र देवराज के तीस हजार सामानिक देव कहे गये हैं। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकत्रिंशत्स्थानक समवाय] [91 २०१-पासे णं अरहा तीसं वासाइं अगारवासमक्ष वसित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए। समणे णं भगवं महावीरे तीसं बासाइं अमारवासमझे वसित्ता अगाराओ प्रणगारियं पव्बइए। पार्श्व अर्हन् तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हुए। श्रमण भगवान् महावीर तीस वर्ष तक गृह-वास में रहकर अगार से अनगारिता में प्रवजित २०२–रयणप्पभाए णं पुढवीए तीसं निरयावासयसहस्सा पण्णता / इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीसं पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता। अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्थेगडयाणं तीस पलिम्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। रत्नप्रभा पृथिवी में तीस लाख नारकावास हैं। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति तीस पल्योपम कही गई है / अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति तीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तीस पल्योपम कही गई है। २०३-उवरिमउवरिमगेवेज्जयाणं देवाणं जहण्णणं तीस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / जे देवा उरिममज्झिमगेवेज्जएसु विमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तीस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा तीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, नीससंति वा। तेसि णं देवाणं तीसाए वाससहस्सेहिं आहार? समुप्पज्जइ / ___संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाए भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / उपरिम-उपरिम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम कही गई है / जो देव उपरिममध्यम वेयक विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम कही गई है / वे देव तीस अर्धमासों (पन्द्रह मासों) के बाद प्रान-प्राण और उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के तीस हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। // त्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // एकत्रिंशत्स्थानक-समवाय २०५–एकत्तीस सिद्धाइगुणा पण्णत्ता / तं जहा–खोणे आभिनिबोहियणाणावरणे 1, खीणे सुयणाणावरणे 2, खीणे ओहिणाणावरणे 3, खीणे मणपज्जवणाणावरणे 4, खीणे केवलणाणावरणे 5, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [समवायाङ्गसूत्र खोणे चक्खुदंसणावरणे 6, खीणे अचक्खुदसणावरणे 7, खोणे ओहिदसणावरणे 8, खीणे केवलदसणावरणे 9, खोणे गिद्दा 10, खोणे णिहाणिद्दा 11, खोणे पयला 12, खीणे पयलापयला 13, खीणे थीणद्धी 14, खोणे सायावेयणिज्जे 15, खोणे असायावेयणिज्जे 16, खीणे दंसणमोहणिज्जे 17, खोणे चरित्तमोहणिज्जे 18, खोणे नेरइआउए 29, खोणे तिरिआउए 20, खीणे मणुस्साउए 21, खोणे देवाउए 22, खीणे उच्चागोए 23, खीणे नीयागोए 24, खीणे सुभणामे 25, खीणे असुभणामे 26, खीणे दाणंतराए 27, खोणे लाभंतराए 28, खीणे भोगंतराए 29, खीणे उवभोगतराए 30, खीणे वीरिअंतराए 31 / सिद्धों के आदि गुण अर्थात सिद्धत्व पर्याय प्राप्त करने के प्रथम समय में होने वाले गुण इकत्तीस कहे गये हैं। जैसे--१ क्षीण आभिनिबोधिकज्ञानावरण, 2 क्षीणश्रुतज्ञानावरण, 3 क्षीणअवधिज्ञानावरण, 4 क्षीणमन:पर्यवज्ञानावरण, 5 क्षीणकेवलज्ञानावरण, 6 क्षीणचक्षुदर्शनावरण, 7 क्षीण अचक्षुदर्शनावरण, 8 क्षोण अवधिदर्शनावरण, 9 क्षीण केवलदर्शनावरण, 10 क्षीण निद्रा, 11 क्षीण निद्रानिद्रा, 12 क्षीण प्रचला, 13 क्षोण प्रचलाप्रचला, 14 क्षीणस्त्यानद्धि, 15 क्षीण सातावेदनीय. 16 क्षीण असातावेदनीय, 17 क्षीण दर्शनमोहनीय, 18 क्षीण चारित्रमोहनीय, 19 क्षीण नरकायु, 20 क्षीण तिर्यगायु, 21 क्षीण मनुष्यायु, 22 क्षीण देवायु, 23 क्षीण उच्चगोत्र, 24 क्षीण नीचगोत्र, 25 क्षीण शुभनाम, 26 क्षीण अशुभनाम, 27 क्षीण दानान्तराय, 28 क्षीण लाभान्तराय, 29 क्षीणभोगान्त राय, 30 क्षीण उपभोगान्तराय, और 31 क्षीण वीर्यान्तराय / २०६–मंदरे णं पव्वए धरणितले एक्कत्तीस जोयणसहस्साइं छच्चेव तेवोसे जोयणसए किंचि दसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते। जया णं सूरिए सव्वबाहिरियं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स एक्कत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एकत्तीसेहिं जोयणसएहि तीसाए सट्ठिभागे जोयणस्स सूरिए चक्खुप्कासं हव्वमागच्छइ / अभिवडिए णं मासे एक्कत्तीसं सातिरेगाई राइंदियाई राइंदियग्गेण पण्णत्ते / प्राइच्चे णं मासे एक्कत्तीसं राइंदियाई किचि विसेसूणाई राइंदियग्गेणं पण्णत्ते। मन्दर पर्वत धरती-तल पर परिक्षेप (परिधि) की अपेक्षा कुछ कम इकत्तीस हजार छह सौ तेईस योजन कहा गया है / जब सूर्य सब से बाहरी मंडल में जाकर संचार करता है, तब इस भरतक्षेत्र-गत मनुष्य को इकत्तीस हजार आठ सौ इकत्तीस और एक योजन के साठ भागों में से तीस भाग (3183130) की दूरी से वह सूर्य दृष्टिगोचर होता है / अभिवधित मास में रात्रि-दिवस की गणना से कुछ अधिक इकत्तीस रात-दिन कहे गये हैं / सूर्यमास रात्रि-दिवस की गणना से कुछ विशेष हीन इकत्तीस रात-दिन का कहा गया है / २०७-इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए प्रथेगइयाणं नेरइयाणं एकत्तीस पलिग्रोवमाइं ठिई पण्णत्ता / अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एक्कत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कत्तीस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु प्रत्थेगइयाणं देवाणं एक्कत्तीस पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम है / अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति इकत्तीस सागरोपम की है / कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्स्थानक समवाय] [93 इकत्तीस पल्योपम की है / सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति इकत्तीस पल्योपम कही २०८-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिआणं देवाणं जहण्णणं एकत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। जे देवा उवरिम-उवरिमगेवेज्जयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एकत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / ते णं देवा एक्कत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा / तेसि णं देवाणं एक्कत्तीसं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एक्कत्तीसेहिं भवग्गहहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरोपम कही गई है। जो देव उपरिम-उपरिम अवेयक विमानों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति इकत्तीस सागरोपम कही गई है / वे देव इकत्तीस अर्धमासों (साढ़े पन्द्रह मासों) के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के इकत्तीस हजार वर्ष के बाद पाहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो इकत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दु:खों का अन्त करेंगे। // एकत्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त // द्वात्रिंशत्स्थानक-समवाय २०९-बत्तीसं जोगसंगहा पण्णता / तं जहा--- आलोयण 1, निरवलावे 2, आवईसु दढधम्मया 3 / अणिस्सिओवहाणे 4, य, सिक्खा 5, निप्पडिकम्मया 6 // 1 // अण्णायया अलोमे 8, य, तितिक्खा 9, अज्जवे 10, सुई 11 / सम्मदिट्ठी 12, समाही 13, य, आयारे 14, विणग्रोवए 15 // 2 // धिइमई 16, य, संवेगे 17, पणिही 18, सुविहि 19, संवरे 20 / अत्तदोसोवसंहारे 21, सव्वकामविरत्तया 22 // 3 // पच्चक्खाणे 23-24, विउस्सग्गे 25, अप्पमादे 26, लवाववे 27 / झाणसंवरजोगे 28, य, उदए मारणंतिए 29 // 4 // संगाणं च परिण्णाया 30, पायच्छित्तकरणे वि य 31 / पाराहणा य मरणते 32, बत्तीसं जोगसंगहा // 5 // बत्तीस योग-संग्रह (मोक्ष-साधक मन, वचन, काय के प्रशस्त व्यापार) कहे गये हैं। इनके द्वारा मोक्ष की साधना सुचारु रूप से सम्पन्न होती है / वे योग इस प्रकार हैं-- 1. पालोचना - व्रत-शुद्धि के लिए शिष्य अपने दोषों की गुरु के आगे पालोचना करे। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] सिमवायाङ्गसूत्र 2. निरपलाप- --शिष्य-कथित दोषों को आचार्य किसी के प्रागे न कहे। 3. आपत्सु दृढधर्मता-- आपत्तियों के आने पर साधक अपने धर्म में दृढ रहे। 4. अनिश्रितोपधान--दूसरे के प्राश्रय की अपेक्षा न करके तपश्चरण करे। 5. शिक्षा-सूत्र और अर्थ का पठन-पाठन एवं अभ्यास करे। निष्प्रतिकर्मता-शरीर की सजावट-शृगारादि न करे। 7. अज्ञातता-यश, ख्याति, पूजादि के लिए अपने तप को प्रकट न करे, अज्ञात रखे / 8. अलोभता-भक्त-पान एवं वस्त्र, पात्र आदि में निर्लोभ प्रवृत्ति रखे। 9. तितिक्षा---भूख, प्यास प्रादि परीषहों को सहन करे।। 10. प्रार्जव-अपने व्यवहार को निश्छल और सरल रखे। 11. शुचि-सत्य बोलने और संयम-पालने में शुद्धि रखे। 12. सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शन को शंका-कांक्षादि दोषों को दूर करते हुए शुद्ध रखे। 13. समाधि-चित्त को सकल्प-विकल्पों से राहत शान्त रखे / 14. आचारोपगत-अपने आचरण को मायाचार रहित रखे। 15. विनयोपगत-विनय-युक्त रहे, अभिमान न करे / 16. धृतिमति-अपनी बुद्धि में धैर्य रखे, दीनता न करे। 17. संवेग-संसार से भयभीत रहे और निरन्तर मोक्ष की अभिलाषा रखे / 18. प्रणिधि हृदय में माया शल्य न रखे। 19. सुविधि-अपने चारित्र का विधि-पूर्वक सत्-अनुष्ठान अर्थात् सम्यक परिपालन करे। 20. संवर-कर्मों के आने के द्वारों (कारणों) का संवरण अर्थात् निरोध करे। 21. आत्मदोषोपसंहार-अपने दोषों का निरोध करे--दोष न लगने दे। 22. सर्वकामविरक्तता-सर्व विषयों से विरक्त रहे। 23. मूलगुण-प्रत्याख्यान-अहिंसादि मूल गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे। 24. उत्तर-गुण-प्रत्याख्यान-इन्द्रिय-निरोध प्रादि उत्तर गुण-विषयक प्रत्याख्यान करे / 25. व्युत्सर्ग-वस्त्र-पात्र आदि बाहरी उपधि और मूर्छा आदि आध्यन्तर उपधि का परित्याग करे। 26. अप्रमाद-अपने देवसिक और रात्रिक आवश्यकों के पालन आदि में प्रमाद न करे। 27. लवालव-प्रतिक्षण अपनी सामाचारी के परिपालन में सावधान रहे। 28. ध्यान-संवरयोग-धर्म और शुक्लध्यान की प्राप्ति के लिए प्रास्रव-द्वारों का संवर करे। 29. मारणान्तिक कर्मोदय के होने पर भी क्षोभ न करे, मनमें शान्ति रखे / 30. संग-परिज्ञा–संग (परिग्रह) की परिज्ञा करे अर्थात् उसके स्वरूप को जान कर त्याग करे। 31. प्रायश्चित्तकरण-अपने दोषों की शुद्धि के लिए नित्य प्रायश्चित्त करे। 32. मारणान्तिक-आराधना-मरने के समय संलेखना-पूर्वक ज्ञान-दर्शन, चारित्र और तप की विशिष्ट आराधना करे / २१०-बत्तीसं देविदा पण्णता / तं जहा-चमरे बली धरणे भूप्राणदे जाव घोसे महाघोसे, चंदे सूरे सक्के ईसाणे सणंकुमारे जाव पाणए अच्चुए। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वात्रिंशत्स्थानक समवाय] . बत्तीस देवेन्द्र कहे गये हैं / जैसे----१. चमर, 2. बली, 3. धरण, 4. भूतानन्द, यावत् (5. वेणुदेव, 6 वेणुदाली, 7. हरिकान्त, 8. हरिस्सह, 9. अग्निशिख, 10. अग्निमाणव, 11. पूर्ण, 12. वशिष्ठ, 13. जलकान्त, 14. जलप्रभ. 15. अमितगति, 16. अमितवाहन, 18. प्रभंजन) 19. घोष, 20. महाघोष, 21. चन्द्र, 22. सूर्य, 23, शक्र. 24. ईशान, 25. सनत्कुमार, यावत् (26. माहेन्द्र, 27. ब्रह्म, 28. लान्तक, 29. शुक्र, 30. सहस्रार) 31. प्राणत, 32. अच्युत / विवेचन-भवनवासी देवों के दश निकाय हैं और प्रत्येक निकाय के दो दो इन्द्र होते हैं, अतः चमर और बली से लेकर घोष और महाघोष तक के बीस इन्द्र भवनवासी देवों के हैं / ज्योतिष्क देवों के चन्द्र और सूर्य ये दो इन्द्र हैं। शेष शक्र आदि दश इन्द्र वैमानिक-देवों के हैं। व्यन्तर देवों के आठों निकायों के सोलह इन्द्रों की अल्प ऋद्धिवाले होने से यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। २११-कुथुस्स गं अरहालो बत्तीसहिआ बत्तीसं जिणसया होत्था / कुन्थु अर्हत् के बत्तीस अधिक बत्तीस सौ (3232) केवलि जिन थे। २१२-सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। रेवइणक्खत्ते बत्तीसइतारे पण्णत्ते / बत्तीसतिविहे गठे पण्णत्ते / सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं। रेवती नक्षत्र बत्तीस तारावाला कहा गया है। बत्तीस प्रकार के नृत्य कहे गये हैं। २१३-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। अहे सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता / असुरकुमाराणं देवाणं प्रत्येगइयाणं बत्तीसं पलिओवमाणं ठिई पण्णत्ता / सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीस पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। _ इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितनेक नारकों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी में कितनेक नारकियों की स्थिति बत्तीस सागरोपम कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस पल्योपम कही गई है। २१४–जे देवा विजय-वेजयंत-जयंत-अवराजियविमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता / ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति चा, नीससंति वा / तेसि णं देवाणं बत्तीसवाससहस्सेहिं प्राहारट्ठे समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति / जो देव विजय, वैयजन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं, उनमें से कितनेक देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम कही गई है। वे देव बत्तीस अर्धमासों (सोलह मासों) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र के बाद प्रान-प्राण या उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं। उन देवों के बत्तीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव ऐसे हैं जो बत्तीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मो से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व कर्मों का अन्त करेंगे। // द्वात्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // त्रयरिंत्रशत्स्थानक-समवाय 215 तेत्तीसं आसायणाओ पण्णत्तानो / तं जहा१. सेहे राइणियस्स आसन्नं गंता भवइ आसायणा सेहस्स / 2. सेहे राइणियस्स परओ गंता भवइ प्रासायणा सेहस्स / 3. सेहे राइणियस्स सपक्खं गंता भवइ पासायणा सेहस्स / 4. सेहे राइणियस्स आसन्नं ठिच्चा भवइ प्रासायणा सेहस्स जाब 5. [सेहे रायणियस्स पुरओ ठिच्चा भवइ, आसायणा सेहस्स। 6. सेहे रायणियस्स सपक्खं ठिच्चा भवइ, आसायणा सेहस्स / 7. सेहे रायणियस्स आसन्न निसीइत्ता भवइ, प्रासायणा सेहस्स / 8. सेहे रायणियस्स पुरओ निसीइत्ता भवइ, अासायणा सेहस्स / 9. सेहे रायणियस्स सद्धि सपक्खं निसीइत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स / 10. सेहे रायणियस्स सद्धि बहिया वियारभूमि निक्खते समाणे पुवामेव सेहतराए आयामेइ पच्छा रायणिए, आसायणा सेहस्स / 11. सेहे रायणिए सद्धि बहिया विहारमि वा वियारभमि वा निक्खंते समाणे तत्थ पुवामेव सेहतराए बालोएति पच्छा रायणिए, प्रासायणा सेहस्स। 12. सेहे रायणियस्स रातो वा वियाले वा वाहरमाणस्स अज्जो ! के सुत्ते ? के जागरे ? तत्थ सेहे जागरमाणे रायणियस्स अपडिसुणेत्ता भवति, प्रासायणा सेहस्स / 13. केइ रायणियस्स पुवं संलवित्तए सिया, तं सेहे पुव्वतरांग पालवेति पच्छा रायणिए, प्रायायणा सेहस्स। 14. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं पुव्वमेव सेहतरागस्स पालोएइ, पच्छा रायणियस्स, पासायणा सेहस्स / सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं पुत्वमेव सेहतरागस्स उवदंसेति, पच्छा रायणियस्स, आसायणा सेहस्स / 16. सेहे असणं पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं पुवामेव सेहतरागं उणि मंतेइ, पच्छा रायणियं, आसायणा सेहस्स। 17. सेहे रायणिएण सद्धि असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता तं रायणियं अणापुच्छित्ता जस्स-जस्स इच्छइ तस्स-तस्स खद्ध-खद्धं दलयइ, आसायणा सेहस्स / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रर्यात्रिशत्स्थानक समवाय] | 97 18. सेहे असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता रायणिएण सद्धि आहरेमाणे तत्थ सेहे खद्धं-खद्धं डाय-डायं ऊसढं-ऊसढं रसितं-रसितं मणुण्णं-मणुण्णं मणाम-मणामं निद्धं-निद्धं लुक्खं-लुक्खं आहरेत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स / 19. सेहे रायणियस्स वाहरमाणस्स अपडिसुणेत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स। 20. सेहे रायणियस्त खद्धं-खद्धं वत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स / 21. सेहे रायणियस्स 'क' ति वइत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स। 22. सेहे रायणियं 'तुम' ति वत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स। 23. सेहे रायणियं तज्जाएण-तज्जाएण पडिभणित्ता भवइ, आसायणा सेहस्स / 24. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स 'इति एवं' ति वत्ता न भवति, आसायणा सेहस्स। 25. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स 'नो सुमरसी' ति वत्ता त भवति, आसायणा सेहस्स। 26. सेहे रायणियस्स कहं कहेमाणस्स कहं अच्छिदित्ता भवति, प्रासायणा सेहस्स / 27. सेहे रायणियस्स कहं कमाणस्स परिसं भेत्ता भवइ, आसायणा सेहस्स। 28. सेहे रायणियस्स कहं कमाणस्स तीसे परिसाए अणुट्ठिताए अभिन्नाए अवुच्छिन्नाए अव्वोगडाए दोच्चं पि तमेव कहं कहिता भवति, आसायणा सेहस्स / 29. सेहे रायणियस्स सेज्जा-संथारगं पाएणं संघट्टित्ता, हत्थेणं अणणुण्णवित्ता गच्छति, आसायणा सेहस्स। 30. सेहे रायणियस्स सेज्जा-संथारए चिट्टित्ता वा निसीइत्ता वा तुट्टित्ता वा भवइ, आसायणा सेहस्स। 31. सेहे रायणियस्स उच्चासणे चिट्ठित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवति, आसायणा सेहस्स। 32. सेहे रायणियस्स समासणे चिट्टित्ता वा निसीइत्ता वा तुयट्टित्ता वा भवति, आसायणा सेहस्स। 33. सेहे रायणियस्स आलवमाणस्स तत्थगए चेव पडिसुणित्ता भवइ प्रासायणा सेहस्स / सम्यग्दर्शनादि धर्म की विराधनारूप अाशातनाएं तेतीस कही गई हैं। जैसे१. शैक्ष (नवदीक्षित या अल्प दीक्षा-पर्यायवाला) साधु रात्निक (अधिक दीक्षा पर्याय ___वाले) साधु के प्रति निकट होकर गमन करे / यह शैक्ष की पहली प्राशातना है। 2. शैक्ष साधु रात्निक साधु से आगे गमन करे। यह शैक्ष की दूसरी आशातना है / 3. शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बराबरी से चले / यह शैक्ष की तीसरी आशातना है। 4. शैक्ष साधु रात्निक साधु के आगे खड़ा हो, यह शैक्ष की चौथी पाशातना है। 5. शैक्ष साधु रानिक साधु के साथ बराबरी से खड़ा हो। यह शैक्ष की पाँचवीं पाशातना है। 6. शैक्ष साधु रात्निक साधु के प्रतिनिकट खड़ा हो। यह शैक्ष की छठी पाशातना है। 7. शैक्ष साधु रात्निक साधु के आगे बैठे। यह शैक्ष को सातवीं पाशातना है। 8. शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बराबरी से बैठे। यह शैक्ष की आठवीं पाशातना है। 9. शैक्ष साधु रात्निक साधु के अति समीप बैठे / यह शैक्ष की नवीं पाशातना है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [ समवायाङ्गसूत्र 10. शैक्ष साधु रानिक साधु के साथ बाहर विचारभूमि को निकलता हुआ यदि शैक्ष रानिक साधु से पहले आचमन (शौच-शुद्धि) करे तो यह शैक्ष की दसवीं आशातना है। 11. शैक्ष साधु रात्निक साधु के साथ बाहर विचारभूमि को या विहारभूमि को निकलता हुअा यदि शैक्ष रानिक साधु से पहले आलोचना करे और रात्निक पीछे करे तो यह शैक्ष की ग्यारहवीं पाशातना है। 12. कोई साधु रात्निक साधु के साथ पहले से बात कर रहा हो, तब शैक्ष साधु रानिक साधु से पहिले ही बोले और रात्निक साधू पीछे बोल पावें। यह शैक्ष की बारहवीं प्राशातना है। 13. रात्निक साधु रात्रि में या विकाल में शैक्ष से पूछे कि आर्य ! कौन सो रहे हैं और कौन - जाग रहे हैं ? यह सुनकर भी यदि शैक्ष अनसुनी करके कोई उत्तर न दे, तो यह शैक्ष की तेरहवीं आशातना है। 14. शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम या स्वादिम लाकर पहिले किसी अन्य शैक्ष के सामने आलोचना करे पीछे रात्निक साधु के सामने, तो यह शैक्ष की चौदहवीं अाशातना है / 15. शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम या स्वादिम को लाकर पहले किसी अन्य शैक्ष को दिखलावे, पीछे रात्निक साधु को दिखावे, तो यह शैक्ष की पन्द्रहवीं पाशातना है। 16. शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम या स्वादिम-पाहार लाकर पहले किसी अन्य शैक्ष को भोजन के लिए निमंत्रण दे और पीछे रानिक साधु को निमंत्रण दे, तो यह शैक्ष को सोलहवीं आशातना है।। 17. शैक्ष साधु रानिक साधु के साथ अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार को लाकर रानिक साधु से बिना पूछे जिस किसी को दे, तो यह शैक्ष की सत्तरहवीं पाशातना है। 18. शैक्ष साधु अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार लाकर रात्निक साधु के साथ भोजन __ करता हा यदि उत्तम भोज्य पदार्थों को जल्दी-जल्दी बड़े-बड़े कवलों से खाता है, तो यह शैक्ष की अठारहवीं पाशातना है / 19. रात्निक साधु के द्वारा कुछ कहे जाने पर यदि शैक्ष उसे अनसुनी करता है, तो यह शैक्ष की उन्नीसवीं पाशातना है। 20. रात्निक साधु के द्वारा कुछ कहे जाने पर यदि शैक्ष अपने स्थान पर ही बैठे हुए सुनता है तो यह शैक्ष की बीसवीं पाशातना है / 21. रात्निक साधु के द्वारा कुछ कहे जाने पर 'क्या कहा ?' इस प्रकार से यदि शैक्ष कहे तो यह शैक्ष की इक्कीसवीं पाशातना है / 22. शैक्ष रात्निक साधु को 'तुम' कह कर (तुच्छ शब्द से) बोले तो यह शैक्ष की बाईसवीं आशातना है। 23. शैक्ष रानिक साधु से यदि चप-चप करता हुआ उदंडता से बोले तो यह शैक्ष की तेईसवीं आशातना है। 24. शैक्ष, रानिक साधु के कथा करते हुए की 'जी हाँ' आदि शब्दों से अनुमोदना न करे तो यह शैक्ष की चौबीसवीं पाशातना है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रयस्त्रिशस्थानक समवाय] 25. शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय 'तुम्हें स्मरण नहीं' इस प्रकार से बोले तो यह शैक्ष की पच्चीसवीं पाशातना है। 26. शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय 'बस करो' इत्यादि कहे तो यह शैक्ष की छब्बीसवीं पाशातना है। 27. शैक्ष, रात्निक के द्वारा धर्मकथा कहते समय यदि परिषद् को भेदन करे तो यह शैक्ष की सत्ताईसवीं पाशातना है। 28. शैक्ष, रात्निक साधु के धर्मकथा कहते हुए उस सभा के नहीं उठने पर दूसरी या तीसरी वार भी उसी कथा को कहे तो यह शैक्ष की अट्ठाईसवीं आशातना है। 29. शैक्ष, रात्निक साधु के धर्मकथा कहते हुए यदि कथा की काट करे तो यह शैक्ष की उनतीसवीं आशातना है। 29. शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या-संस्तारक को पैर से ठुकरावे तो यह शैक्ष की उनतीसवीं अाशातना है। 30. शैक्ष यदि रात्निक साधु के शय्या या आसन पर खड़ा होता, बैठता-सोता है, तो यह शैक्ष की तीसवीं आशातना है। 31-32. शैक्ष यदि रात्निक साधु से ऊंचे या समान आसन पर बैठता है तो यह शैक्ष की आशातना है। 33. रानिक के कुछ कहने पर शैक्ष अपने आसन पर बैठा-बैठा उत्तर दे, यह शैक्ष की तेतीसवीं पाशातना है। विवेचन--नवीन दीक्षित साधु का कर्तव्य है कि वह अपने प्राचार्य, उपाध्याय और दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ साधु का चलते, उठते, बैठते समय उनके द्वारा कुछ पूछने पर, गोचरी करते समय सदा हो उनके विनय-सम्मान का ध्यान रखे / यदि वह अपने इस कर्तव्य में चूकता है, तो उनकी अाशातना करता है और अपने मोक्ष के साधनों को खंडित करता है। इसी बात को ध्यान में रख कर ये तेतीस पाशातनाएं कही गई हैं। प्रकृत सूत्र में चार पाशातनामों का निर्देश कर शेष की यावत् पद से सूचना की गई है / उनका दशाश्रुत के अनुसार स्वरूप-निरूपण किया गया है / २१६-चमरस्स सं असुरिंदस्त णं असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एक्कमेक्कवाराए तेत्तीसंतेत्तीसं भोमा पण्णता / महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं जोयणसहस्साइं साइरेगाई विक्खंभेणं पण्णत्ते / जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोयणसहस्सेहि किंचि विसेसूणेहिं चक्खुप्फासं हन्वमागच्छइ / असुरेन्द्र असुरराज चमर की राजधानी चमरचंचा नगरी में प्रत्येक द्वार के बाहर तेतीसतेतीस भौम (नगर के आकार वाले विशिष्ट स्थान) कहे गये हैं। महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) कुछ अधिक तेतीस हजार योजन विस्तार वाला है / जब सूर्य सर्वबाह्य मंडल से भीतर की ओर तीसरे मंडल पर पाकर संचार करता है, तब वह इस भरतक्षेत्र-गत मनुष्य के कुछ विशेष कम तेतीस हजार योजन की दूरी से दृष्टिगोचर होता है। २१७-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं मेरइयाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णता / अहेसत्तमाए पुढवीए काल-महाकाल-रोरुय-महारोरुएसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] [समवायाङ्गसूत्र वमाइं ठिई पण्णत्ता। अप्पइट्ठाणनरए नेरइयाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। असुरकुमाराणं प्रत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। ___ इस रत्नप्रभा पृथिवी के कितनेक नारकों को स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है। अधस्तन सातवीं पृथिवी के काल, महाकाल, रोरुक और महारौरुक नारकावासों के नारकों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम कही गई है / उसी सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नरक में नारकों की अजघन्यअनुत्कृष्ट (जधन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित पूरी) तेतीस सागरोपम स्थिति कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है। सौधर्म-ईशान कल्पों में कितनेक देवों की स्थिति तेतीस पल्योपम कही गई है। २१८-विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिएसु विमाणेसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / जे देवा सब्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उबवण्णा, तेसि णं देवाणं अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णता / ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहि आणमंति वा, पाणमंति वा, उस्ससंति वा, निस्ससंति वा / तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं पाहार? समुप्पज्जइ / संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तेत्तीसं भवग्गणेहि सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्सति / विजय-वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोषम कही गई है / जो देव सर्वार्थसिद्ध नामक पाँचवें अनुत्तर महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, उन देवों की अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति पूरे तेतीस सागरोपम कही गई है। वे देव तेतीस अर्धमासों (साढ़े सोलह मासों) के बाद आन-प्राण अथवा उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं / उन देवों के तेतीस हजार वर्षों के बाद आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक भव्यसिद्धिक जीव तेतीस भव ग्रहण करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे, कर्मों से मुक्त होंगे, परम निर्वाण को प्राप्त होंगे और सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। - यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्ध महाविमान के देव तो नियम से एक भव ग्रहण करके मुक्त होते हैं और विजयादि शेष चार विमानों के देवों में से कोई एक भव ग्रहण करके मुक्त होता है और कोई दो मनुष्यभव ग्रहण करके मुक्त होता है / // त्रयस्त्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त / / चतुरिंत्रशत्स्थानक-समवाय 219 –चोत्तीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ता। तं जहा-अवट्ठिए केस-मंसु-रोम-नहे 1, निरामया निरुवलेवा गायलट्ठी, गोक्खीरपंडुरे मंससोणिए 3, पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे 4, पच्छन्ने आहार-नीहारे अदिस्से मंसचक्खुणा 5, आगासगयं चक्कं 6, आगासगयं छत्तं 7, आगासगयाओ सेयवरचामराओ 7, प्रागासफालिग्रामयं सपायपीढं सीहासणं 9, आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडि Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुस्त्रिशत्स्थानक समवाय] [101 आभिराओ इंदज्झओ पुरओ गच्छइ 10, जत्थ जत्थ वि य णं अरहंता भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति स्थ तत्थ वियणं जक्खा देवा संछन्नापत्त-परफ-पल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झम्रो सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ 11, ईसि पिढओ मउडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजाइ, अंधकारे वि य णं दस दिसाओ पभासेइ 12, बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे 13, अहोसिरा कंटया भवंति 14, उउविवरीया सुहफासा भवंति 15, सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सवओ समंतासंपमज्जिज्जइ 16, जुत्तफुसिएणं मेहेण य निहयरयरेणूयं किज्जइ 17, जल-थलभासुरपभूतेणं विट्ठाइणा दसद्धवण्णणं कुसुमेणं जाणुस्सेहप्पमाणमित्ते पुष्फोवयारे किज्जइ 18, अमणुण्णाणं सद्दफरिस-रस-रूव-गंधाणं अवकरिसो भवइ 19, मणुण्णाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं पाउम्भावो भवइ 20, पच्चाहरओ वि य णं हिययगमणीम्रो जोयणनीहारी सरो 21, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ 22. सा वियणं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसि सम्वेसि आरियमणारियाणं दुप्पय-च उप-मिय-पसु-पक्खि-सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहय-भासत्ताए परिणमइ २३,पुधबद्धवेरा वि य णं देवासुर-नाग-सुवण्ण-जक्ख-रक्खस-किनर-किंपुरिस-गरुल-गंधव्व-महोरगा अरहो पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति 24, अण्णउत्थियपावयणिया वि य णं प्रागया बंदंति 25, आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति 26, जओ जओ वि य गं अरहंतो भगवंतो विहरंति तओ तओ वि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ 27, मारी न भवइ 28, सचक्कं न भवइ 29, परचक्कं न भवइ 30, अइवुट्ठी न भवइ 31, अणावुट्ठी न भवइ 32, दुबिभक्खं न भवई 33, पुवुप्पण्णा वि य णं उप्पाइया वाहीओ खिप्पमेव उवसमति 34 / बुद्धों के अर्थात् तीर्थंकर भगवन्तों के चौतीस अतिशय कहे गये हैं / जैसे-- 1. अवस्थित केश, श्मश्रु, रोम, नख होना, अर्थात् नख और केश आदि का नहीं बढ़ना / 2. निरामय-रोगादि से रहित, निरुपलेप-मल रहित निर्मल देह-लता होना / 3. रक्त और मांस का गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण होना। 4. पद्म-कमल के समान सुगन्धित उच्छ्वास निःश्वास होना। 5. मांस-चक्षु से अदृश्य प्रच्छन्न पाहार और नीहार होना / 6. आकाश में धर्मचक्र का चलना / 7. अाकाश में तीन छत्रों का घूमते हुए रहना / 8. आकाश में उत्तम श्वेत चामरों का ढोला जाना / 9. आकाश के समान निर्मल स्फटिकमय पादपीठयुक्त सिंहासन का होना। 10. आकाश में हजार लघु पताकाओं से युक्त इन्द्रध्वज का आगे-आगे चलना। 11. जहाँ-जहाँ भी अरहन्त भगवन्त ठहरते या बैठते हैं, वहाँ-वहाँ यक्ष देवों के द्वारा पत्र, पुष्प, पल्लवों से व्याप्त, छत्र, ध्वजा, घंटा और पताका से युक्त श्रेष्ठ अशोक वृक्ष का निर्मित होना। 12. मस्तक के कुछ पीछे तेजमंडल (भामंडल) का होना, जो अन्धकार में भी (रात्रि के समय भी) दशों दिशानों को प्रकाशित करता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 // [समवायाङ्गसूत्र 13. जहाँ भी तीर्थंकरों का विहार हो, उस भूमिभाग का बहुसम (एकदम समतल) और रमणीय होना। 14. विहार-स्थल के कांटों का अधोमुख हो जाना। 15. सभी ऋतुओं का शरीर के अनुकूल सुखद स्पर्श वाली होना।। 16. जहाँ तीर्थकर विराजते हैं, वहाँ की एक योजन भूमि का शीतल, सुखस्पर्शयुक्त सुगन्धित पावन से सर्व अोर संप्रमार्जन होना। 17. मन्द, सुगन्धित जल-बिन्दुओं से मेघ के द्वारा भूमि का धुलि-रहित होना। 18. जल और स्थल में खिलने वाले पांच वर्ण के पुष्पों से घुटने प्रमाण भूमिभाग का पुष्पोपचार होना, अर्थात् आच्छादित किया जाना / 19. अमनोज्ञ (अप्रिय) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अभाव होना / 20. मनोज्ञ (प्रिय) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का प्रादुर्भाव होना। 21. धर्मोपदेश के समय हृदय को प्रिय लगनेवाला और एक योजन तक फैलनेवाला स्वर होना। 22. अर्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्मोपदेश देना / 23. वह अर्धमगधी भाषा बोली जाती हुई सभी आर्य अनार्य पुरुषों के लिए तथा द्विपद पक्षी और चतुष्पद मृग, पशु आदि जानवरों के लिए और पेट के बल रेंगने वाले सर्पादि के लिए अपनी-अपनी हितकर, शिवकर सुखद भाषारूप से परिणत हो जाती है / 24. पूर्वबद्ध वैर वाले भो [मनुष्य] देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड, गन्धर्व और महोरग भी अरहन्तों के पादमूल में (परस्पर वैर भूलकर) प्रशान्त चित्त होकर हर्षित मन से धर्म श्रवण करते हैं। 25. अन्य तीथिक (परमतावलम्बी) प्रावचनिक (व्याख्यानदाता) पुरुष भी आकर भगवान् की वन्दना करते हैं। 26. वे वादी लोग भी अरहन्त के पादमूल में वचन-रहित (निरुत्तर) हो जाते हैं / 27. जहाँ-जहाँ से भी अरहन्त भगवन्त विहार करते हैं, वहाँ-वहाँ पच्चीस योजन तक ईति भीति नहीं होती है।। 28. मनुष्यों को मारने वाली मारी (हैजा-प्लेग आदि भयंकर बीमारी) नहीं होती है। 29. स्वचक्र (अपने राज्य की सेना) का भय नहीं होता। 30. परचक्र (शत्रु की सेना) का भय नहीं होता। 31. अतिवृष्टि (भारी जलवर्षा) नहीं होती। 32. अनावृष्टि नहीं होती, अर्थात् सूखा नहीं पड़ता। 33. दुर्भिक्ष (दुष्काल) नहीं होता। 34. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई व्याधियाँ भी शीघ्र ही शान्त हो जाती हैं और रक्त-वर्षा आदि उत्पात नहीं होते हैं। विवेचन उपर्युक्त चौतीस अतिशयों में से द्वितीय प्रादि चार अतिशय तीर्थंकरों के जन्म से हो होते हैं। छठे आकाश-गत चक्र से लेकर बीस तक के अतिशय घातिकर्म चतुष्क के क्षय होने पर Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चत्रिशस्थानक समवाय] होते हैं और शेष देवकृत अतिशय जानना चाहिए। दिगम्बर परम्परा में प्रायः ये ही अतिशय कुछ पाठ-भेद से मिलते हैं, वहाँ जन्म-जात दश अतिशय, केवलज्ञान-जनित दश अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय कहे गये हैं। २२०-जम्बुद्दीवेणं दीवे चउत्तीसं चक्कट्टिविजया पण्णता / तं जहा-बत्तीसं महाविदेहे, दो भरहे एरवए / जम्बुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दोहवेयड्डा पण्णत्ता / जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसपए चोत्तीस तित्थंकरा समुपज्जति। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र चौतीस कहे गये हैं। जैसे-महाविदेह में बत्तीस, भारत क्षेत्र एक और ऐरवत क्षेत्र एक / [इसी प्रकार] जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्य कहे गये हैं / जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्कृष्ट रूप से चौतीस तीर्थंकर [एक साथ] उत्पन्न होते हैं। २२१-चमरस्स णं प्रसुरिंवस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता / पढमपंचम-छट्ठी-सत्तमासु चउसु पुढयोसु चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। असुरेन्द्र असुरराज चमर के चौतीस लाख भवनावास कहे गये हैं / पहिली, पाँचवीं, छठी और सातवीं, इन चार पृथिवियों में चौंतीस लाख (३०+३+पाँच कम एक लाख और 5= 34) नारकावास कहे गये हैं। // चतुस्त्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त / पञ्चत्रिशत्स्थानक-समवाय 222 -पणतीस सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता। पैतीस सत्यवचन के अतिशय कहे गये हैं। विवेचन-मूल सूत्र में इन पैतीस वचनातिशयों के नामों का उल्लेख नहीं है और संस्कृत टोकाकार लिखते हैं कि ये पागम में भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुए हैं। उन्होंने ग्रन्थान्तरों में प्रतिपादित वचन के पैंतीस गुणों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं 1. संस्कारवत्व-वचनों का व्याकरण-संस्कार से युक्त होना। 2. उदात्तत्व-उच्च स्वर से परिपूर्ण होना। 3. उपचारोपेतत्व-ग्रामीणता से रहित होना। 4. गम्भीरशब्दत्व-मेघ के समान गम्भीर शब्दों से युक्त होना। 5. अनुनादित्व-प्रत्येक शब्द के यथार्थ उच्चारण से युक्त होना / 6. दक्षिणत्व-वचनों का सरलता-युक्त होना। 7. उपनीतरागत्व-यथोचित राग-रागिणी से युक्त होना। ये सात अतिशय शब्द-सौन्दर्य की अपेक्षा से जानना चाहिए। आगे कहे जाने वाले अतिशय अर्थ-गौरव की अपेक्षा रखते हैं। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [समवायाङ्गसूत्र 8. महार्थत्व-वचनों का महान् अर्थवाला होना। 9. अव्याहतपौर्वापर्यत्व–पूर्वापर अविरोधी वाक्य वाला होना। 10. शिष्टत्व-वक्ता की शिष्टता के सूचक होना। 11. असन्दिग्धत्व-सन्देह-रहित निश्चित अर्थ के प्रतिपादक होना। 12. अपहृतान्योत्तरत्व—अन्य पुरुष के दूषणों को दूर करने वाला होना / 13. हृदयग्राहित्व--श्रोता के हृदय-ग्राही–मनोहर वचन होना। 14. देश-कालाव्ययीतत्व-देश-काल के अनुकूल अवसरोचित वचन होना / 15. तत्त्वानुरूपत्व-विवक्षित वस्तुस्वरूप के अनुरूप वचन होना / 16. अप्रकीर्ण प्रसृतत्व-निरर्थक विस्तार से रहित सुसम्बद्ध वचन होना / 17. अन्योन्य प्रगृहीत--परस्पर अपेक्षा रखने वाले पदों और वाक्यों से युक्त होना ! 18. अभिजातत्व-वक्ता की कुलीनता और शालीनता के सूचक होना। 19. अतिस्निग्ध मधुरत्व-अत्यन्त स्नेह से भरे हुए मधुरता-मिष्टता युक्त होना / 20. अपरमर्मवेधित्व--दूसरे के मर्म-वेधी न होना। 11. अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व–अर्थ और धर्म के अनुकूल होना। 22. उदारत्व-तुच्छता-रहित और उदारता-युक्त होना / 23. परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व- पराई-निन्दा और अपनी प्रशंसा से रहित होना ! 24. उपगतश्लाघत्व-जिन्हें सुन कर लोग प्रशंसा करें, ऐसे वचन होना / 25. अनपनीतत्व-काल, कारक, लिंग-व्यत्यय प्रादि व्याकरण के दोषों से रहित होना / 26. उत्पादिताच्छिन्न कौतूहलत्व-अपने विषय में श्रोताजनों को लगातार कौतूहल उत्पन्न करने वाले होना। 27. अद्भुतत्व-~पाश्चर्यकारक अद्भुत नवीनता-प्रदर्शक वचन होना / 28. अनतिविलम्बित्व-अतिविलम्ब से रहित धाराप्रवाही बोलना। 29. विभ्रम, विक्षेप--किलिकिञ्चितादि विमुक्तत्व-मन की भ्रान्ति, विक्षेप और रोष, भयादि से रहित होना। 30. अनेक जातिसंश्रयाद्विचित्रत्व--अनेक प्रकार से वर्णनीय वस्तु-स्वरूप के वर्णन करने वाले वचन होना। 31. माहितविशेषत्व सामान्य वचनों से कुछ विशेषता-युक्त वचन होना। 32. साकारत्व-पृथक्-पृथक् वर्ण, पद, वाक्य के प्राकार से युक्त वचन होना। 33. सत्वपरिगृहीतत्व-साहस से परिपूर्ण वचन होना / 34. अपरिखेदित्व-खेद-खिन्नता से रहित वचन होना। 35. अव्युच्छेदित्व--विवक्षित अर्थ की सम्यक् सिद्धि करने वाले वचन होना / बोले जाने वाले वचन उक्त पैंतीस गुणों से युक्त होने चाहिए। २२३-कुथू णं अरहा पणत्तीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। दत्ते णं वासुदेवे पणतोसं धणई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षत्रिंशत्स्थानक समवाय] [105 - कुन्थु अर्हन् पैतीस धनुष ऊंचे थे। दत्त वासुदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे / नन्दन बलदेव पैंतीस धनुष ऊंचे थे। २२४-सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे हेटा उरिं च अद्धतेरस जोयणाणि वज्जेत्ता मज्झे पण्णतीसं जोयणेसु वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएस जिणसकहानो पण्णत्ताओ। सौधर्म कल्प में सुधर्मा सभा के माणवक चैत्यस्तम्भ में नीचे और ऊपर साढ़े बारह-साढ़े बारह योजन छोड़ कर मध्यवर्ती पैंतीस योजनों में, वज्रमय, गोल वर्तुलाकार पेटियों में जिनों की मनुष्यलोक में मुक्त हुए तीर्थंकरों की अस्थियां रखी हुई हैं। २२५–बितिय-चउत्योसु दोसु पुढवीए पणतीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। दूसरी और चौथी पृथिवियों में (दोनों के मिला कर) पैतीस (25-+ 10 = 35) लाख नारकावास कहे गये हैं। // पंचत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त / / षत्रिंशत्स्थानक-समवाय २२६-छत्तीसं उत्तरज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा--विणयस्यं 1, परीसहो 2, चाउरंगिज्जं 3, असंखयं 4, अकाममरणिज्जं 5, पुरिसविज्जा 6, उरभिज्ज 7, काविलियं 8, नमिपवज्जा 9, दुमपत्तयं 10, बहुसुयपूजा 11, हरिएसिज्ज 12, चित्तसंभूयं 13, उसुयारिज्जं 14, सभिक्खुगं 15, सामाहिठाणाई 16, पावसमणिज्ज 17, संजइज्ज 18, मियचारिया 19, अणाहपव्वज्जा 20, समुद्दपालिज्ज 21, रहनेमिज्जं 22, गोयम-केसिज्ज 23, समितीनो 24, जन्नतिजं 25, सामायारी 26, खलुकिज्ज 27, मोक्खमग्गगई 28, अप्पमानो 29, तवोमग्गो 30, चरणविही 31, पमायठाणाई 32, कम्मपयडी 33, लेसज्झयणं 34, अणगारमग्गे 35, जीवाजीवविभत्ती य 36 / उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययन हैं / जैसे-१. विनयश्रुत अध्ययन 2. परीषह अध्ययन, 3. चातुरङ्गीय अध्ययन, 4. असंस्कृत अध्ययन, 5, अकाममरणीय अध्ययन, 6. पुरुष विद्या अध्ययन (क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय अध्ययन) 7. औरभ्रीय अध्ययन 8. कापिलीय अध्ययन, 9. नमिप्रव्रज्या अध्ययन, 10. द्रमपत्रक अध्ययन, 11. बहश्रतपूजा अध्ययन, 12. हरिकेशीय अध्ययन, 13. चित्तसंभूतीय अध्ययन, 14. इषुकारोय अध्ययन, 15. सभिक्षु अध्ययन, 16. समाधिस्थान अध्ययन, 17. पापश्रमणीय अध्ययन, 18. संयतीय अध्ययन, 19. मृगापुत्रीय अध्ययन, 20. अनाथ प्रव्रज्या अध्ययन, 21. समुद्रपालीय अध्ययन, 22. रथनेमीय अध्ययन, 23. गौतमकेशीय अध्ययन, 24. समिति अध्ययन, 25. यज्ञीय अध्ययन, 26. सामाचारी अध्ययन, 27. खलुकीय अध्ययन, 28. मोक्षमार्गगति अध्ययन, 29. अप्रमाद अध्ययन, (सम्यक्त्व पराक्रम) 30. तपोमार्ग अध्ययन, 31. चरण विधि अध्ययन, 32. प्रमादस्थान अध्ययन, 33. कर्मप्रकृति अध्ययन, 34. लेश्या अध्ययन, 35. अनगारमार्ग अध्ययन और 36. जीवाजीवविभक्ति अध्ययन / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र 227- चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाणि उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। असुरेन्द्र असुरराज चमर की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन ऊंची है। २२८-समणस्स णं भगवनो महावीरस्स छत्तीसं अज्जाणं साहस्सीओ होत्था / श्रमण भगवान् महावीर के संघ में छत्तीस हजार प्रायिकाएं थीं। २२९-चेतासोएसु णं मासेसु सइ छत्तीसंगुलियं सूरिए पोरिसीछायं निव्वत्तइ / चैत्र और आसोज मास में सूर्य एक बार छत्तीस अंगुल की पौरुषी छाया करता है / ॥षत्रिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // सप्तत्रिंशत्स्थानक-समवाय २३०--कुथुस्स णं अरहओ सत्ततीसं गणा, सत्तत्तीसं गणहरा होत्था / कुन्थु अर्हन के संतीस गण और सैंतीस गणधर थे। 231- हेमवय-हेरण्णवइयाओ णं जीवाओ सत्ततीसं जोयणसहस्साइं छच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलसयएगूणवीसइभाए जोयणस्स किचिविसेसूणाओ आयामेणं पण्णत्ताओ। सन्यासु णं विजय-वैजयंतजयंत-अपरजियासु रायहाणीसु पागारा सत्ततोसं सत्ततीसं जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र की जीवाएं संतीस हजार छह सौ चौहत्तर योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से कुछ कम सोलह भाग (3767411) लम्बी कही गई हैं / २३२-खुड्डियाए विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता / क्षुद्रिका विमानप्रविभक्तिनामक कालिक श्रुत के प्रथम वर्ग में सैंतीस उद्देशन काल कहे गये हैं। २३३–कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततोसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरह। ___ कात्तिक कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्य सैंतीस अंगुल की पौरुषी छाया करता हुआ संचार करता है। सप्तत्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त / / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनत्रिशत्स्थानक समवाय] 107 अष्टत्रिंशत्स्थानक-समवाय २३४-पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अट्टत्तीसं अज्जिआसाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था। पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् के संघ में अड़तोस हजार प्रायिकाओं की उत्कृष्ट प्रायिकासम्पदा थी। २३५~-हेमवय-एरण्णवइयाणं जीवाणं धणुपिट्ठ अट्टत्तीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दसएगूणवीसइभागे जोयणस्स किंचि विसेसूणा परिक्खेवेणं पण्णत्ते। अत्थस्स णं पव्ययरणो बितिए कंडे अट्टत्तीसं जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। हैमवत और ऐरण्यवत क्षेत्रों की जीवाओं का धनुःपृष्ठ अड़तीस हजार सात सौ चालीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दश भाग से कुछ कम (387404) परिक्षेप वाला कहा गया है / जहाँ सूर्य अस्त होता है, उस पर्वतराज मेरु का दूसरा कांड अड़तीस हजार योजन ऊंचा है। 236- खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए बग्गे अत्तीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। - क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति नामक कालिक श्रुत के द्वितीय वर्ग में अड़तीस उद्देशन काल कहे गये हैं। ॥अष्टत्रिशत्स्थानक समवाय समाप्त। एकोनचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २३७-नमिस्स णं अरहनो एगूणचत्तालीसं आहोहियसया होत्था / समयखेत्ते एगूणचत्तालीसं कुलपम्वया पण्णता। तं जहा-तीसं वासहरा, पंच मंदरा, चत्तारि उसुकारा / दोच्च-चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एगूणचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। नमि अर्हत के उनतालीस सौ (3900) नियत (परिमित) क्षेत्र को जानने वाले अवधिज्ञानी मुनि थे। समय क्षेत्र (पढ़ाई द्वीप) में उनतालीस कुलपर्वत कहे गये हैं। जैसे--तीस वर्षधर पर्वत, पांच मन्दर (मेरु) और चार इषुकार पर्वत। दूसरी, चौथी, पांचवीं, छठी और सातवीं, इन पांच पृथिवियों में उनतालोस (२५+१०+३+पांच कम एक लाख और 5= 39) लाख नारकावास कहे गये हैं। २३८-नाणावरणिज्जस्स मोहणिज्जस्स गोत्तस्स पाउयस्स एयासि णं चउण्हं कम्मपगडोणं एगणचत्तालीसं उत्तरपगडीओ पण्णताओ। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [समवायाङ्गसूत्र ज्ञानावरणीय, मोहनीय, गोत्र और प्रायुकर्म, इन चारों कर्मों की उनतालीस (5+28+ 2+4= 39) उत्तर प्रकृतियां कही गई हैं। // एकोनचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // चत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २३९-अरहओ णं अरिद्वनेमिस्स चत्तालीसं अज्जिया साहस्सीयो होत्था। अरिष्टनेमि अर्हन् के संघ में चालीस हजार प्रायिकाएं थीं। २४०.-मंदरचलिया णं चत्तालीसं जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। संती अरहा चतालीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / मन्दर चूलिकाएं चालीस योजन ऊंची कही गई हैं। शान्ति अर्हन् चालीस धनुष ऊंचे थे। २४१-भूयाणंदस्स गं नागकुमारस्स नागरन्नो चत्तालीसं भवणावासयसहस्सा पण्णत्ता / खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। नागकुमार, नागराज भूतानन्द के चालीस लाख भवनावास कहे गये हैं। क्षुद्रिका विमानप्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में चालीस उद्देशन काल कहे गये हैं। २४२-फग्गुणपुण्णिमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वट्टइत्ता णं चारं चरइ / एवं कत्तियाए वि पुण्णिमाए। फाल्गुण पूर्णमासी के दिन सूर्य चालीस अंगुल की पौरुषी छाया करके संचार करता है / इसी प्रकार कात्तिको पूर्णिमा को भी चालीस अंगुल की पौरुषो छाया करके संचार करता है। २४३–महासुक्के कप्पे चत्तालोसं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। महाशुक्र कल्प में चालीस हजार विमानावास कहे गये हैं। ॥चत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त / / एकचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २४४–नमिस्स णं अरहो एकचत्तालीसं अज्जियासाहस्सीलो होत्था / नमि अर्हत् के संघ में इकतालीस हजार आर्थिकाएं थीं। २४५-चउसु पुढवीसु एक्कचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता / तं जहा–रयणप्पाभाए पंकप्पभाए तमाए तमतमाए। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विचत्वारिंशस्थानक समवाय] [109 चार पृथिवियों में इकतालीस लाख नारकवास कहे गये हैं। जैसे-- रत्नप्रभा में 30 लाख, पंकप्रभा में 10 लाख, तमःप्रभा में 5 कम एक लाख और महातमःप्रभा में 5 / २४६–महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एक्कचत्तालोसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। महालिका (महती) विमानप्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में इकतालीस उद्देशनकाल कहे गये हैं / // एकचत्वारिंशस्थानक समवाय समाप्त // द्विचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २४७–समणे भगवं महावीरे वायालीसं वासाई साहियाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्ध जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। श्रमण भगवान् महावीर कुछ अधिक बयालीस वर्ष श्रमण पर्याय पालकर सिद्ध, बुद्ध, यावत् (कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और) सर्व दुःखों से रहित हुए / २४८–जंबद्दोवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथभस्स णं आवासपब्वयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमते एस णं वायालीसं जोयणसहस्साइं अबाहातो अंतरं पन्नत्तं / एवं चउद्दिसि पि दोभासे, संखे दयसोमे य / जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप को जगती की बाहरी परिधि के पूर्वी चरमान्त भाग से लेकर वेलन्धर नागराज के गोस्तुभनामक प्रावास पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग तक मध्यवर्ती क्षेत्र का विना किसी बाधा या व्यवधान के अन्तर बयालीस हजार योजन कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में भी उदकभास शंख और उदकसीम का अन्तर जानना चाहिए। २४९--कालोए णं समुद्दे वायालीसं चंदा जोइंसु वा, जोइंति वा, जोइस्संति वा। वायालीसं सूरिया पभासिसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा। कालोद समुद्र में बयालीस चन्द्र उद्योत करते थे उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे। इसी प्रकार बयालीस सूर्य प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे। २५०-सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं वायालीसं वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। सम्मूच्छिम भुजपरिसों की उत्कृष्ट स्थिति बयालीस हजार वर्ष कही गई है। २५१..--नामकम्मे वायालीसविहे पण्णत्ते। तं जहा---गइनामे 1, जाइनामे 2, सरीरनामे 3, सरीरंगोवंगनामे 4, सरीरबंधणनामे 5, सरीरसंघायणनामे 6, संघयणनामे 7, संठाणनामे 8, यण्णनामे 9, गंधनामे 10, रसनामे 11, फासनामे 12, प्रगुरुलहुयनामे 13, अवघायनामे 14, पराघायनामे 15, आणुपुव्वीनामे 16, उस्सासनामे 17, आयवनामे 18, उज्जोयनामे 19, विहगगइनामे 20, तसनामे 21, थावरनामे 22, सुहुमनामे 23, बायरनामे 24, पज्जत्तनामे 25, अपज्जत्त Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [समवायाङ्गसूत्र नामे 26, साहारणसरीरनामे 27, पत्तेयसरीरनामे 28, थिरनामे 29, अथिरनामे 30, सुभनामे 31, असुभनामे 32, सुभगनामे 33, दुब्भगनामे 34, सुस्सरनामे 35, दुस्सरनामे 36, प्राएज्जनामे 37, अणाएज्जनामे 38, जसोकित्तिनामे 39, अजसोकित्तिनामे 40, निम्माणनामे 41, तित्थकरनामे 42 / __ नामकर्म बयालीस प्रकार का कहा गया है / जैसे-१. गतिनाम, 2. जातिनाम, 3. शरीरनाम, 4. शरीराङ्गोपाङ्गनाम, 5. शरीरबन्धननाम, 6. शरीरसंघातननाम, 7. संहनननाम, 8. संस्थाननाम, 9. वर्णनाम, 10. गन्धनाम, 11. रसनाम, 12. स्पर्शनाम, 13. अगुरुलघुनाम, 14. उपघातनाम, 15. पराघातनाम, 16. आनुपूर्वीनाम, 17. उच्छ्वासनाम, 18. प्रातपनाम, 19. उद्योतनाम, 20. विहायोगतिनाम, 21, बसनाम, 22. स्थावरनाम, 23. सूक्ष्मनाम, 24. बादरनाम, 25. पर्याप्तनाम, 26. अपर्याप्तनाम, 27. साधारणशरीरनाम, 28. प्रत्येकशरीरनाम, 29. स्थिरनाम, 30. अस्थिरनाम, 31. शुभनाम, 32. अशुभनाम, 33. सुभगनाम, 34. दुर्भगनाम, 35. सुस्वरनाम, रनाम, 37. प्रादेयनाम, 38. अनादेयनाम, 39. यशस्कोत्तिनाम, 40. अयशस्कात्तिनाम, 41. निर्माणनाम और 42. तीर्थकरनाम / 252- लवणे णं समुद्दे वायालीसं नागसाहस्सोओ अभितरियं वेलं धारंति / लवण समुद्र की भीतरी वेला को बयालीस हजार नाग धारण करते हैं / २५३---महालियाए णं विमाणपविभत्तीए वितिए वग्गे वायालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता। महालिका विमानप्रविभक्ति के दूसरे वर्ग में बयालीस उद्देशन काल कहे गये हैं। 254-- एगमेगाए ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठीओ समाओ बायालीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्ताओ। एगमेगाए उस्सप्पिणीए पढम-बीयाओ समाओ वायालीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्तायो। प्रत्येक अवसर्पिणी काल का पाँचवा छठा पारा (दोनों मिल कर) बयालीस हजार वर्ष का कहा गया है / प्रत्येक उत्सर्पिणी काल का पहिला-दूसरा पारा बयालीस हजार वर्ष का कहा गया है। ॥द्विचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त / त्रिचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २५५-तेयालीसं कम्मविवागज्झयणा पण्णत्ता। कर्मविपाक सूत्र (कर्मों का शुभाशुभ फल बतलानेवाले अध्ययन) के तेयालीस अध्ययन कहे गये हैं। २५६-पढम-चउत्थ-पंचमासु पुढवीसु तेयालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ! जंबुद्दीवस्स णं दोवस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स णं प्रावासपव्वयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउद्दिसि पि दगभासे संखे दयसीमे / Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चचत्वारिंशत्स्थानक समवाय] [111 पहिली, चौथी और पाँचवी पृथिवी में तेयालीस (30+10+3= 43) लाख नारकावास कहे गये हैं / जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप के पूर्वी जगती के चरमान्त से गोस्तुभ प्रावास पर्वत का पश्चिमी चरमान्त का विना किसी बाधा या व्यवधान के तेयालीस हजार योजन अन्तर कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि दक्षिण में दकभास, पश्चिम दिशा म शख आवास पर्वत है और उत्तर दिशा में दकसीम आवास पर्वत है। २५७–महालियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए वग्गे तेयालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता / महालिका विमान प्रविभक्ति के तीसरे वर्ग में तेयालीस उद्देशन काल कहे गये हैं। ॥त्रिचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // चतुश्चत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २५८-चोयालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुया भासिया पण्णता। चवालीस ऋषिभासित अध्ययन कहे गये हैं, जिन्हें देवलोक से च्युत हुए ऋषियों ने कहा है / 259 -विमलस्स णं अरहओ णं चउआलीसं पुरिसजुगाई अणुपिट्टि सिद्धाई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई। विमल अर्हत् के बाद चवालीस पुरुषयुग (पीढी) अनुक्रम से एक के पीछे एक सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए / २६०–धरणस्स णं नागिदस्स नागरण्णो चोयालीसं भवणावाससयहस्सा पण्णत्ता / नागेन्द्र, नागराज, धरण के चवालीस लाख भवनावास कहे गये हैं। 261- -महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता / महालिका विमानप्रविभक्ति के चतुर्थ वर्ग में चवालीस उद्देशन काल कहे गये हैं। // चतुश्चत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त / / पञ्चचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २६२--समयक्खेत्ते णं पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / सोमंतए णं नरए पणयालीसं जोयणसयसहस्साई पायामविक्खंभेणं पण्णत्ते / एवं उडुविमाणे वि। ईसिपम्भारा णं पुढवी एवं चेव / समय क्षेत्र (अढाई द्वीप) पैंतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा कहा गया है। इसी प्रकार ऋतु (उडु) (सौधर्म-ईशान देव लोक में प्रथम पाथड़े में चार विमानावलिकाओं के मध्यभाग में रहा हुआ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [समवायाङ्गसूत्र गोल विमान) और ईषत्प्राग्भारा पृथिवी (सिद्धिस्थान) भी पैतालीस-पंतालीस लाख योजन विस्तृत जानना चाहिए। २६३-धम्मे णं अरहा पणयालीसं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / धर्म अर्हत् पैंतालीस धनुष ऊंचे थे। २६४-मंदरस्स णं पव्वयस्स चउद्दिसि पि पणयालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। मन्दर पर्वत की चारों ही दिशाओं में लवणसमुद्र की भीतरी परिधि की अपेक्षा पैंतालीस हजार योजन अन्तर बिना किसी बाधा के कहा गया है। विवेचन-जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तृत है। तथा मन्दर पर्वत धरणीतल पर दश हजार योजन विस्तृत है / एक लाख में से दश हजार योजन घटाने पर नव्वे हजार योजन शेष रहते हैं। उसके आधे पैंतालीस हजार होते हैं / अतः मन्दर पर्वत से चारों ही दिशाओं में लवण समुद्र की वेदिका पैंतालीस हजार योजन के अन्तराल पर पाई जाती है / २६५-सब्वे वि णं दिवडखेत्तिया नक्खत्ता पणयालीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोइंसु वा, जोइंति वा, जोइस्संति वा। तिन्नेव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य / एए छ नक्खत्ता पणयालमुहत्तसंजोगा // 1 // सभी द्वयर्ध क्षेत्रीय नक्षत्रों ने पैतालीस मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग किया है, योग करते हैं और योग करेंगे। तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा ये छह नक्षत्र पैतालीस मुहूर्त तक चन्द्र के साथ संयोग वाले कहे गये हैं। विवरण-चन्द्रमा का तीस मुहूर्त भोग्य क्षेत्र समक्षेत्र कहलाता है / उसके ड्योढे पैंतालीस मुहूर्त भोग्य क्षेत्र को द्वयर्धक्षेत्रीय कहते हैं। २६६–महालियाए विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणयालीसं उद्देसणकाला पण्णत्ता / महालिका विमानप्रविभक्ति सूत्र के पाँचवें वर्ग में पैंतालीस उद्देशन कहे गये हैं / ॥पंचचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तचत्वारिंशत्स्थानक समवाय) [113 षट्चत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २६७-दिदिवायस्त णं छायालोसं माउयापया पणता। बंभोए णं लिवीए छायालोसं माउयक्खरा पण्णत्ता। बारहवें दृष्टिवाद अंग के छियालीस मातृकापद कहे गये हैं। ब्राह्मी लिपि के छियालीस मातृ-अक्षर कहे गये हैं। विवेचन–सोलह स्वरों में से ऋ ऋ ल ल इन चार को छोड़ कर शेष बारह स्वर, कवर्गादि पच्चीस व्यंजन, य र ल व ये चार अन्तःस्थ, श, ष, स, ह ये चार ऊष्म वर्ण और ह ये छियालीस हो / अक्षर ब्राह्मी लिपि में होते हैं। २६८–पभंजणस्स णं वाउकुमारिदस्स छायालीसं भवणावाससयसहस्सा पण्णत्ता / वायुकुमारेन्द्र प्रभंजन के छियालीस लाख भवनावास कहे गये हैं। ॥षट्चत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // सप्तचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २६९---जया णं सूरिए सब्भितरमंडलं उवसंकमित्ता णं चारं चरइ तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स सत्तचत्तालोसं जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढहि जोयणसहि एक्कवीसाए य सट्ठिभागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छइ / जब सूर्य सबसे भीतरी मण्डल में प्राकर संचार करता है, तब इस भरतक्षेत्रगत मनुष्य को सैंतालीस हजार दो सो तिरेसठ योजन और एक योजन के साठ भागों में इक्कीस भाग की दूरी से सूर्य दृष्टिगोचर होता है। २७०-थेरे णं अग्गभूई सत्तचत्तालोसं वासाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। अग्निभूति स्थविर संतालीस वर्ष गृहवास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। // सप्तचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त // Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] [ समवायाङ्गसूत्र अष्टचत्वारिंशत्स्थानक-समवाय २७१-एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा पण्णत्ता। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के अड़तालीस हजार पट्टण कहे गये हैं। २७२–धम्मस्स णं अरहनो अडयालीसं गणा, प्रडयालीसं गणहरा होत्था / धर्म अर्हत् के अड़तालीस गण और अड़तालीस गणधर थे। २७३–सूरमंडले ण अडयालीसं एकसविभागे जोयणस्स विक्खेभेणं पण्णते। सूर्यमण्डल एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग-प्रमाण विस्तार वाला कहा गया है। // अष्टचत्वारिंशत्स्थानक समवाय समाप्त / एकोनपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २७४-सत्त-सत्तमियाए गं भिक्खुपडिमाए एगणपन्नाए राइदिएहि छन्नउइभिक्खासएणं अहासुत्तं जाव [अहाकप्पं अहातच्चं सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता सोहित्ता तीरित्ता किट्टित्ता प्राणाए अणुपालित्ता] आराहिया भवइ। सप्त-सप्तमिका भिक्षप्रतिमा उनचास रात्रि-दिवसों से और एक सौ छियानवे भिक्षाओं से यथासूत्र यथामार्ग से [यथाकल्प से, यथातत्त्व से, सम्यक् प्रकार काय से स्पर्श कर पालकर, शोधन कर, पार कर, कीर्तन कर प्राज्ञा से अनुपालन कर] पाराधित होती है।। विवेचन-सात-सात दिन के सात सप्ताह जिस अभिग्रह- विशेष की आराधना में लगते हैं. उसे सप्त-सप्तमिका भिक्षु प्रतिमा कहते हैं / उसकी विधि संस्कृतटीकाकार ने दो प्रकार से कही है। प्रथम प्रकार के अनुसार प्रथम सप्ताह में प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति की वृद्धि से अट्ठाईस भिक्षाएं होती हैं / इसो प्रकार द्वितीयादि सप्ताह में भी प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति की वृद्धि से सब एक सौ छियानवे भिक्षाएं होती हैं / अथवा प्रथम सप्ताह के सातों दिनों में एक-एक भिक्षा दत्ति ग्रहण करते हैं / दूसरे सप्ताह के सातों दिनों में दो-दो भिक्षा दत्ति ग्रहण करते हैं / इस प्रकार प्रतिसप्ताह एक-एक भिक्षा दत्ति के बढ़ने से सातों सप्ताहों को समस्त भिक्षाएं एक सौ छियानवे (7--14-+ 21+2+3+42+49 = 196) हो जाती हैं। २७५–देवकुरु-उत्तरकुरुएसु णं मणुया एगूणपण्णास-राईदिएहि संपन्नजोवणा भवंति / देवकुरु और उत्तरकुरु में मनुष्य उनचास रात-दिनों में पूर्ण यौवन से सम्पन्न हो जाते हैं / २७६-तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगणपण्णं राइंदिया ठिई। त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति उनचास रात-दिन की कही गई है। // एकोनपंचाशत्स्थानक समवाय समाप्त // Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकपञ्चाशत्स्थानक समवाय] [115 पञ्चाशत्स्थानक-समवाय 277- मुणिसुव्वयस्स गं अरहयो पंचासं अज्जियासाहस्सीयो होत्था। अणंते णं अरहा पन्नासं धणूइं उड्ड उच्च तेणं होत्था / पुरिसुत्तमे णं वासुदेवे पन्नासं धणूई उड्ड उच्चत्तेणं होत्था / मुनिसुव्रत अर्हत् के संघ में पचास हजार प्रायिकाएं थीं। अनन्तनाथ अर्हत् पचास धनुष ऊंचे थे। पुरुषोत्तम वासुदेव पचास धनुष ऊंचे थे। २७८-सवे वि णं दोहवेयड्डा मूले पन्नासं पन्नासं जोयणाणि विक्खंभेणं पण्णत्ता। सभी दीर्घ वैताढय पर्वत मूल में पचास योजन विस्तार वाले कहे गये हैं। २७९-लंतए कप्पे पन्नासं विमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। सव्वानो णं तिमिस्सगुहा-खंडगप्पवायगुहारो पन्नासं पन्नासं जोयणाई आयामेणं पण्णत्ताओ। सव्वे वि णं कंचणगपव्वया सिहरतले पन्नासं पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। __ लान्तक कल्प में पचास हजार विमानावास कहे गये हैं। सभी तिमिस्र गुफाएं और खण्डप्रपात गुफाएं पचास-पचास योजन लम्बी कही गई हैं / सभी कांचन पर्वत शिखरतल पर पचास-पचास योजन विस्तार वाले कहे गये हैं / ॥पञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त। एकपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २८०-नवण्हं बंभचेराणं एकावन्न उद्देसणकाला पण्णत्ता। नवों ब्रह्मचर्यों के इक्यावन उद्देशन काल कहे गये हैं / विवेचन---प्राचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के शस्त्रपरिज्ञा आदि अध्ययन ब्रह्मचर्य के नाम से प्रख्यात हैं, उनके अध्ययन उनचास हैं, अतः उनके उद्देशनकाल भी उनचास ही कहे गये हैं। २८१-चमरस्स णं असुरिदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावन्नखंभसयसंनिविट्ठा पण्णता / एवं चेव बलिस्स वि। असुरेन्द्र असुरराज चमर को सुधर्मा सभा इक्यावन सौ (5100) खम्भों से रचित है। इसी प्रकार बलि की सभा भी जानना चाहिए / २८२--सुप्पभे णं बलदेवे एकावन्न वाससयसहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। सुप्रभ बलदेव इक्यावन हजार वर्ष की परमायु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [समवायाङ्गसूत्र २८३-दसणावरण-नामाणं दोण्हं कम्माणं एकावन्न उत्तरकम्मपगडीओ पण्णत्तानो। दर्शनावरण और नाम कर्म इन दोनों कर्मों की (9-42=51) इक्यावन उत्तर कर्मप्रकृतियां कही गई हैं। // एकपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त // द्विपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २८४-मोहणिज्जस्स गं कम्मस्स वावन्न नामधेज्जा पण्णत्ता / तं जहा--कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के भंडणे विवाए 10, माणे मदे दप्पे थंभे अत्तक्कोसे गवे परपरिवाए अवक्कोसे [परिभवे] उन्नए 20, उन्नामे माया उवही नियडी वलए गहणे णमे कक्के करुए दंभे 30. कूडे जिम्हे किदिवसे अणायरणया गृहणया वंचणया पलिकुचणया सातिजोगे लोभे इच्छा 40; मुच्छा कंखा गेहो तिण्हा भिज्जा अभिज्जा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा 50, नन्दी रागे 52 / __ मोहनीय कर्म के वावन नाम कहे गये हैं। जैसे-१. क्रोध, 2. कोप, 3. रोष, 4. द्वेष, 5. अक्षमा, 6. संज्वलन, 7. कलह, 8. चंडिक्य, 9. भंडन, 10. विवाद, ये दश क्रोधकषाय के नाम हैं। 11. मान, 12. मद, 13. दर्प, 14. स्तम्भ, 15. आत्मोकर्ष, 16. गर्व, 17. परपरिवाद, 18. अपकर्ष, [19. परिभव] 20. उन्नत, 21. उन्नाम ; ये ग्यारह नाम मान कषाय के हैं / 22. माया, 23. उपधि, 24. निकृति, 25. वलय, 26. गहन, 27. न्यवम, 28. कल्क, 29. कुरुक, 30. दंभ, 31. कूट, 32. जिम्ह 33. किल्विष, 34. अनाचरणता, 35. गृहनता, 36. वंचनता, 37. पलिकुचनता, 38. सातियोग; ये सत्तरह नाम मायाकषाय के हैं। 39. लोभ, 40. इच्छा, 41. मूर्छा, 42. कांक्षा, 43. गृद्धि, 44. तृष्णा, 45. भिध्या, 46. अभिध्या, 47. कामाशा, 48. भोगाशा, 49. जीविताशा, 50. मरणाशा, 51. नन्दी, 52. राग; ये चौदह नाम लोभ-कषाय के हैं। इसी प्रकार चारों कषायों के नाम मिल कर [1011+17-14 = 52] बावन मोहनीय कर्म के नाम हो जाते हैं। 285-- गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्लायो चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स पच्चच्छिल्ले चरमंते, एस णं वावन्न जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं दगभागस्स णं केउगस्स संखस्स जूयगस्स दगसीमस्स ईसरस्स / गोस्तुभ आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से वडवामुख महापाताल का पश्चिमी चरमान्त बाधा के विना बावन हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है। इसी प्रकार लवण समुद्र के भीतर अवस्थित दकभास केतुक का, शंख नामक जूपक का और दकसीम नामक ईश्वर का, इन चारों महापाताल कलशों का भी अन्तर जानना चाहिए। विवेचन-लवण समुद्र दो लाख योजन विस्तृत है / उसमें पंचानवे हजार योजन आगे जाकर पूर्वादि चारों दिशाओं में चार महापाताल कलश हैं, उनके नाम क्रम से बड़वामुख, केतुक, जूपक और ईश्वर हैं / जम्बूद्वीप की बेदिका के अन्त से बयालीस हजार योजन भीतर जाकर एक हजार योजन के विस्तार वाले गोस्तुभ आदि वेलन्धर नागराजों के चार आवास पर्वत हैं। इसलिए पंचानवे हजार Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपञ्चाशत्स्थानक समवाय ] [117 में से बयालीस हजार योजन कम कर देने पर उनके बीच में बावन हजार योजनों का अन्तर रह जाता है। यही बात इस सूत्र में कही गई है / २८६-माणावरणिज्जस्स नामस्स अंतरायस्स एतेसि णं तिण्हं कम्मपगडीणं वावन्नं उत्तरपयडीओ पण्णत्ताओ। ज्ञानावरणीय, नाम और अन्तराय इन तीनों कर्मप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियां बावन (5+42+5= 52) कही गई हैं। 287- सोहम्म-सणंकुमार-माहिदेसु तिसु कप्पेसु वावन्नं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। सौधर्म, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन तीन कल्पों में (32- 12+8=52) बावन लाख विमानावास कहे गये हैं। द्विपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त / त्रिपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २८८--देवकुरु-उत्तरकुरुयाओ णं जीवाओ तेवन्नं तेवन्न जोयणसहस्साई साइरेगाई आयामेणं पण्णत्ताओ। महाहिमवंत-रुप्पोणं वासहरपव्वयाणं जीवाओ तेवन्नं तेवन्नं जोयणसहस्साई नव य एगत्तीसे जोयणसए छच्च एगूणवीसईभागे जोयणस्स आयामेणं पण्णताओ / देवकुरु और उत्तरकुरु की जीवाएं तिरेपन-तिरेपन हजार योजन से कुछ अधिक लम्बी कही गई हैं। महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वतों की जीवाएं तिरेपन-तिरेपन हजार नौ सौ इकत्तीस योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से छह भाग प्रमाण (539311) लम्बी कही गई हैं। २८९-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तेवन्तं अणगारा संवच्छरपरियाया पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसु महाविमाणेसु देवत्ताए उववन्ना। श्रमण भगवान महावीर के तिरेपन अनगार एक वर्ष श्रमणपर्याय पालकर महान-विस्तीर्ण एवं अत्यन्त सुखमय पाँच अनुत्तर महाविमानों में देवरूप में उत्पन्न हुए / २९०-संमुच्छिमउरपरिसप्पाणं उक्कोसेणं तेवन्नं वाससहस्सा ठिई पण्णता। सम्मूच्छिम उरपरिसर्प जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तिरेपन हजार वर्ष कही गई है / // त्रिपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त // Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [समवायानसूत्र चतुःपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २९१--भरहेरवाएसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए ओसप्पिणीए चउवन्नं चउवन्न उत्तमपुरिसा उप्पंजिसु वा, उप्पज्जति वा, उप्पज्जिसंति वा / तं जहा-चउवीसं तित्थकरा, बारस चक्कवट्टी, नव बलदेवा, नव वासुदेवा / भरत और ऐरवत क्षेत्रों में एक एक उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल में चौपन चौपन उत्तम पुरुष उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। जैसे–चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवती, नौ बलदेव और नौ वासुदेव / (24+12+9+9= 54) / २९२-अरहा गं अरिटुनेमी चउधन्न राइंदियाई छउमत्थपरियायं पाउणित्ता जिणे जाए केवली सवन्न सव्वभावदरिसी। समणे णं भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसिज्जाए चाउप्पन्नाई वागरणाई वागरित्था / अणंतस्स णं अरहओ चउपन्नं [गणा चउपन्नं] गणहरा होत्था / अरिष्टनेमि ग्रहन चौपन रात-दिन छद्मस्थ श्रमणपर्याय पाल कर केबली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी जिन हुए। श्रमण भगवान् महावीर को एक दिन में एक प्रासन से बैठे हुए चौपन प्रश्नों के उत्तररूप व्याख्यान दिये थे। अनन्त अर्हन के चौपन गण और चौपन गणधर थे। // चतुःपञ्चात्स्थानक समवाय समाप्त / / पञ्चपञ्चाशत्स्थानक-समवाय २९३-मल्लिस्स णं अरहओ [मल्ली णं अरहा] पणवणं वाससहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खपहीणे। मल्ली अर्हन् पचपन हजार वर्ष की परमायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। २९४---मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लानो चरमंताओ विजयदारस पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं पणवण्णं जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चाउद्दिसि पि विजय-वेजयंतजयंत-अपराजियं ति। मन्दर पर्वत के पश्चिम चरमान्त भाग से पूर्वी विजयद्वार के पश्चिमी चरमान्त भाग का अन्तर पचपन हजार योजन का कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित द्वारों का अन्तर जानना चाहिए। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तपञ्चाशत्स्थानक समवाय] [119 295. समणे णं भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणवणं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणवणं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / श्रमण भगवान् महावीर अन्तिम रात्रि में पुण्य-फल विपाकवाले पचपन और पाप-फल विपाकवाले पचपन अध्ययनों का प्रतिपादन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। 296. पढम-बिइयासु दोसु पुढवीसु पणवण्णं निरयावाससयसहस्सा पण्णता / पहिली और दूसरी इन दो पृथिवियों में पचपन (30+ 25= 55) लाख नारकावास कहे गये हैं। 297. दसणावरणिज्ज-नामाउयाणं तिण्हं कम्मपगडीणं पणवणं उत्तरपगडीओ पण्णत्तायो। दर्शनावरणीय, नाम और प्रायु इन तीन कर्मप्रकृतियों को मिलाकर पचपन उत्तर प्रकृतियां ( 9 42+4=55) कही गई हैं। ॥पञ्चपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त / / षट्पञ्चाशत्स्थानक-समवाय 298. जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पन्नं नक्खत्ता चंदेण सद्धि जोगं जोइंसु बा, जोइंति वा, जोइस्संति वा। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में दो चन्द्रमानों के परिवारवाले (28+28-56) छप्पन नक्षत्र चन्द्र के साथ योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे। 299. विमलस्स गं अरहयो छप्पन्नं गणा छप्पन्नं गणहरा होत्था / विमल अर्हत् के छप्पन गण और छप्पन गणधर थे। // षट्पञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त / / सप्तपञ्चाशत्स्थानक-समवाय 300. तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा--- आयारे सूयगडे ठाणे। प्राचारचलिका को छोड़ कर तीन गणिपिटकों के सत्तावन अध्ययन कहे गये हैं। जैसे आचाराङ्ग के अन्तिम निशीथ अध्ययन को छोड़ कर प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ, द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्राचारचूलिका को छोड़कर पन्द्रह, दूसरे सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह, द्वितीय श्रुतस्कन्ध Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [समवायाङ्गसूत्र के सात और स्थानाङ्ग के दश, इस प्रकार सर्व (9+ 15'--'16+7+10 = 57) सत्तावन अध्ययन कहे गये हैं। 301. गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं सत्तावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। एवं दगभागस्स के उयस्स य संखस्स य जूयस्स य दयसोमस्स ईसरस्स य / गोस्तुभ आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त से बड़वामुख महापाताल के बहु मध्य देशभाग का विना किसी बाधा के सत्तावन हजार योजन अन्तर कहा है। इसी प्रकार दकभास और केतुक का, संख और यूपक का और दकसीम तथा ईश्वर नामक महापाताल का अन्तर जानना चाहिये। विवेचन-पहले बतला आये हैं कि जम्बूद्वीप की वेदिका से गोस्तुभ पर्वत का अन्तर अड़तालोस हजार योजन है। गोस्तुभ का विस्तार एक हजार योजन है। तथा गोस्तुभ और बड़वामुख का अन्तर बावन हजार योजन है और बड़वामुख का विस्तार दश हजार योजन है, उसके आधे पाँच हजार योजन को बावन हजार योजन में मिला देने पर सत्तावन हजार योजन का अन्तर गोस्तभ के पूर्वी चरमान्त से बड़वामुख के मध्यभाग तक का सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार से शेष तीनों महापाताल कलशों का भी अन्तर निकल आता है। 302. मल्लिस्स णं अरहओ सत्तावन्न मणपज्जवनाणिसया होत्था / महाहिमवंत-रुप्पीणं वासहरपव्ययाणं जीवाणं धणुपिठं सत्तावन्नं सत्तावन्नं जोयणसहस्साई दोन्नि य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्तं / मल्लि अर्हत् के संघ में सत्तावन सौ (5700) मनःपर्यवज्ञानी मुनि थे। महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत की जीवात्रों का धन:पृष्ठ सत्तावन हजार दो सौ तेरानवे योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से दशभाग प्रमाण परिक्षेप (परिधि) रूप से कहा गया है। // सप्तपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त // अष्टपञ्चाशत्स्थानक-समवाय 303. पढम-दोच्च-पंचमासु तिसु पुढवीसु अट्ठावन्न निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। पहली, दूसरी और पांचवी इन तीन पृथिवियों में अट्ठावन (30+25+3=58) लाख नारकावास कहे गये हैं। 304. नाणावरणिज्जस्स वेयणिय-आउय-नाम-अंतराइयस्स एएसि णं पंचण्हं कम्मपगडीणं अट्ठावन्नं उत्तरपगडीओ पण्णत्ताओ। ज्ञानावरणीय, वेदनीय, आयु, नाम और अन्तराय इन पाँच कर्मप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठावन (5+2+4+42+5= 58) कही गई हैं। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टिस्थानक समवाय [121 - ३०५-गोथूभस्स णं आवासपव्ययस्स पच्चथिमिल्लामो चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउद्दिसं पि नेयव्वं। गोस्तुभ प्रावासपर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से बड़वामुख महापाताल के बहुमध्य देशभाग का अन्तर अट्ठावन हजार विना किसी बाधा के कहा गया है / इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए। विवेचन--ऊपर गोस्तुभ आवासपर्वत से बड़वामुख महापाताल के मध्य भाग का सत्तावन हजार योजन अन्तर जिस प्रकार से बतलाया गया है उसमें एक हजार योजन और आगे तक का माप मिलाने पर अट्ठावन हजार योजन का सिद्ध हो जाता है / इसी प्रकार शेष तीन महापातालों का भी अन्तर जानना चाहिए। / / अष्टपञ्चाशत्स्थानक समवाय समाप्त // एकोनषष्टिस्थानक-समवाय ३०६-चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे उऊ एगूणट्टि राईदियाई राइंदियग्गेणं पण्णत्ते / चन्द्रसंवत्सर (चन्द्रमा की गति की अपेक्षा से माने जाने वाले संवत्सर) की एक-एक ऋतु रात-दिन की गणना से उनसठ रात्रि-दिन की कही गई है। ३०७--संभवे णं अरहा एगूणसटुिं पुव्वसयसहस्साई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पन्दइए। संभव बहन् उनसठ लाख पूर्व वर्ष अगार के मध्य (गृहस्थावस्था) में रहकर मुडित हो अगार त्याग कर अनगारिता में प्रवजित हुए। ३०८-मल्लिस्स णं अरहओ एगूणट्टि ओहिनाणिसया होत्था / मल्लि अर्हन के संध में उनसठ सौ (5900) अवधिज्ञानी थे। // एकोनषष्टिस्थानक सूत्र समाप्त / / षष्टिस्थानक-समवाय ३०९--एगमेगे णं मंडले सूरिए सट्ठिए सट्ठिए मुहुत्तेहि संधाएइ / सूर्य एक एक मण्डल को साठ-साठ मुहूर्तों से पूर्ण करता है। विवेचन--सूर्य को सुमेरु की एक वार प्रदक्षिणा करने में साठ मुहूर्त या दो दिन-रात लगते हैं / यतः सूर्य के धूमने के मंडल एक सौ चौरासी हैं, अतः उसको दो से गुणित करने पर (1844 2368) तीन सौ अड़सठ दिन-रात आते हैं। सूर्य संवत्सर में इतने ही दिन-रात होते हैं / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [समवायाङ्गसूत्र ३१०-लवणस्स णं समुदस्स ट्ठि नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारंति / लवण समुद्र के अग्रोदक (सोलह हजार ऊंची वेला के ऊपर वाले जल) को साठ हजार नागराज धारण करते हैं। ३११—विमले णं अरहा सटुिं धणूई उड्ढं उच्चत्तणं होत्था / विमल अहंन साठ धनुष ऊंचे थे। ३१२–बलिस्स णं वइरोणिवस्स ट्रि सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। बंभस्स णं देविदस्स देवरन्नो सट्टि सामाणियसाहस्सोमो पण्णत्ताओ। बलि वैरोचनेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं / ब्रह्म देवेन्द्र देवराज के साठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं। ३१३-सोहम्मीसाणेसु दोसु कय्येसु सढि विमाणा वाससयहस्सा पण्णत्ता। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में साठ (32 / 28-60) लाख विमानावास कहे गये हैं / ॥षष्टिस्थानक समवाय समाप्त / एकषष्टिस्थानक-समवाय ३१४–पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिउमासेणं मिज्जमाणस्स इगट्टि उउमासा पण्णता। पंचसंवत्सर वाले युग के ऋतु-मासों से गिनने पर इकसठ ऋतु मास होते हैं। ३१५–मंदरस्स णं पव्वयस्स पढमे कंडे एगसटिजोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते / मन्दर पर्वत का प्रथम काण्ड इकसठ हजार योजन ऊंचा कहा गया है / ३१६-चंदमंडले णं एगसटिविभागविभाइए समसे पण्णत्ते / एवं सूरस्स वि। चन्द्रमंडल विमान एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर पूरे छप्पन भाग प्रमाण सम-अंश कहा गया है / इसी प्रकार सूर्य भी एक योजन के इकसठ भागों से विभाजित करने पर परे अड़तालीस भाग प्रमाण सम-अंश कहा गया है। अर्थात इन दोनों के विस्तार का प्रमाण 56 और 48 इस सम संख्या रूप ही है, विषम संख्या रूप नहीं है और न एक भाग के भी अन्य कुछ अंश अधिक या हीन भाग प्रमाण ही उनका विस्तार है। // एकषष्टिस्थानक समवाय समाप्त / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टिस्थानक समवाय] [123 द्विषष्टिस्थानक-समवाय ३१७--पंच संवच्छरिए णं जुगे वाढि पुन्निमाओ वाढि अमावसाओ पण्णताओ। पंचसांवत्सरिक युग में बासठ पूर्णिमाएं और बासठ अमावस्याएं कही गई हैं / विवेचन-चन्द्रमास के अनुसार पाँच वर्ष के काल को युग कहते हैं / इस एक युग में दो मास अधिक होते हैं। इसलिए दो पूर्णिमा और अमावस्या भी अधिक होती हैं। इसे ही ध्यान में रखकर एक युग में वासठ पूर्णिमाएं और वासठ अमावस्याएं कही गई हैं। 318 -वासुपुज्जस्स णं अरहो वाढि गणा, वाढि गणहरा होत्था। वासुपूज्य अर्हन् के बासठ गण और वासठ गणधर कहे गये हैं। ___319 -सुक्कपक्खस्स णं चंदे वाट्टि भागे दिवसे दिवसे परिवडइ। ते चेव बहुलपक्खे दियसेदिवसे परिहाय शुक्लपक्ष में चन्द्रमा दिवस-दिवस (प्रतिदिन) बासठवें भाग प्रमाण एक-एक कला से बढ़ता और कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन इतना ही घटता है / 320 –सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए वाट्टि विमाणा पण्णता / सव्वे वेमाणियाणं वासट्टि विमाणपत्थडा पत्थडग्गेणं पण्णत्ता। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पों में पहले प्रस्तट में पहली प्रावलिका (श्रेणी) में एक-एक दिशा में वासठ-वासठ विमानावास कहे गये हैं। सभी वैमानिक विमान-प्रस्तट प्रस्तटों की गणना से वासठ कहे गये हैं। द्विषष्टिस्थानक समवाय समाप्त।। त्रिषष्टिस्थानक-समवाय ३२१–उसभे णं अरहा कोसलिए तेसट्टि पुब्वसयसहस्साई महारायमझे वसित्ता मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। कौलिक ऋषभ अर्हन तिरेसठ लाख पूर्व वर्ष तक महाराज के मध्य में रहकर अर्थात् राजा के पद पर आसीन रहकर फिर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए / 322- हरिवास-रम्मयवासेसु मणुस्सा तेवढ़िए राइदिएहि संपत्तजोव्वणा भवंति / हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष में मनुष्य तिरेसठ रात-दिनों में पूर्ण यौवन को प्राप्त हो जाते हैं, अर्थात् उन्हें माता-पिता द्वारा पालन की अपेक्षा नहीं रहती। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [समवायाङ्गसूत्र ३२३--निसढे णं पचए तेट्ठि सूरोदया पण्णत्ता / एवं नीलवंते वि। निषध पर्वत पर तिरेसठ सूर्योदय कहे गये हैं। इसी प्रकार नीलवन्त पर्वत पर भी तिरेसठ सूर्योदय कहे गये हैं। विवेचन-सूर्य जब उत्तरायण होता है, तब उसका उदय तिरेसठ वार निषधपर्वत के ऊपर से होता है और भरत क्षेत्र में दिन होता है। पुनः दक्षिणायन होते हुए जम्बूद्वीप की वेदिका के ऊपर से उदय होता है। तत्पश्चात् उसका उदय लवण समुद्र के ऊपर से होता है। इसी प्रकार परिभ्रमण करते हुए जब वह नीलवन्त पर्वत पर से उदित होता है, तब ऐरवत क्षेत्र में दिन होता है। वहाँ भी तिरेसठ वार नीलवन्त पर्वत के ऊपर से उदय होता है, पुन: जम्बूद्वीप की वेदिका के ऊपर से उदय होता है और अन्त में लवण समुद्र के ऊपर से उदय होता है / यतः एक सूर्य दो दिन में मेरु की एक प्रदक्षिणा करता है, अतः तिरेसठ वार निषधपर्वत से उदय होकर भरत क्षेत्र को प्रकाशित करता है। और इसी प्रकार नीलवन्त पर्वत से तिरेसठ वार उदय होकर ऐरवत क्षेत्र को प्रकाशित करता है। ॥त्रिषष्टिस्थानक समवाय समाप्त // चतुःषष्टिस्थानक-समवाय __ 324 --अहमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहि दोहि य अट्ठासीएहि भिक्खासएहिप्रहासुत्तं जाव [अहाकप्पं प्रहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारण फासित्ता पालित्ता सोहित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालित्ता] भवइ। अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा चौसठ रात-दिनों में, दो सौ अठासी भिक्षाओं से सूत्रानुसार, यथातथ्य, सम्यक प्रकार काय से स्पर्श कर, पाल कर, शोधन कर, पार कर, कीर्तन कर, आज्ञा के अनुसार अनुपालन कर पाराधित होती है। विवेचन-जिस अभिग्रह-विशेष की प्राराधना में आठ आठ दिन के आठ दिनाष्टक लगते हैं, उसे अष्टाष्टमिका भिक्षुप्रतिमा कहते हैं / इसकी आराधना करते हुए प्रथम के आठ दिनों में एक-एक भिक्षा ग्रहण की जाती है / पुनः दूसरे आठ दिनों में दो-दो भिक्षाएं ग्रहण की जाती हैं। इसी प्रकार तीसरे आदि आठ-आठ दिनों में एक-एक भिक्षा बढ़ाते हुए अन्तिम आठ दिनों में प्रतिदिन आठ-आठ क्षाएं ग्रहण की जाती हैं। इस प्रकार चौसठ दिनों में सर्व भिक्षाएं दो सौ अठासी (8+16+24 +32+40+48+56+ 64 = 288) हो जाती हैं। ३२५–चउट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। चमरस्स णं रन्नो चउसद्धि सामाणियसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। असुरकुमार देवों के चौसठ लाख प्रावास (भवन) कहे गये हैं। चमरराज के चौसठ हजार सामानिक देव कहे गये हैं। ३२६.--सव्वे वि दधिमुहा पच्क्या पल्लासंठाणसंठिया सव्वत्थ समा विक्खंभमुस्सेहेणं चउट्टि जोयणसहस्साई पण्णत्ता। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्पटिस्थानक समवाय] [125 सभी दधिमुख पर्वत पल्य (ढोल) के आकार से अवस्थित हैं, नीचे ऊपर सर्वत्र समान विस्तार वाले हैं और चौंसठ हजार योजन ऊंचे हैं। 327- सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य तिसु कप्पेसु चउष्टुिं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। सौधर्म, ईशान और ब्रह्मकल्प इन तीनों कल्पों में चौसठ (32+282-4 = 64) लाख विमानावास हैं। ३२८-सव्वस्स वि य णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चउसट्टिलट्ठीए महग्घे मुत्तामणिहारे पण्णत्ते। ___ सभी चातुरन्त चक्रवर्ती राजाओं के चौसठ लड़ी वाला बहुमूल्य मुक्ता-मणियों का हार कहा गया है ॥चतुःषष्टिस्थानक समवाय समाप्त // पञ्चषष्टिस्थानक-समवाय ३२९---जंबुद्दीवे णं दीवे पणढेि सूरमंडला पण्णत्ता। जम्बूद्वीप नामक इस द्वीप में पैंसठ सूर्यमण्डल (सूर्य के परिभ्रमण के मार्ग) कहे गये हैं। ३३०--थेरे णं मोरियपुत्ते पणसट्ठिवासाई अगारमज्झे वसित्ता मुडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइए। स्थविर मौर्यपुत्र पैंसठ वर्ष अगारवास में रहकर मुडित हो अगार त्याग कर अनगारिता में प्रवजित हुए। ३३१-सोहम्मडिसियस्स गं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणट्टि पणट्टि भोमा पण्णत्ता। सौधर्मावतंसक विमान की एक-एक दिशा में पैंसठ-पैंसठ भवन कहे गये हैं। ॥पञ्चषष्टिस्थानक समवाय समाप्त // षट्षष्टिस्थानक-समवाय 332-- दाहिणडमाणुस्सखेत्ताणं छाटुं चंदा पभासिसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा। छाट्ठि सूरिया तविसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा / उत्तरमाणुस्सखेत्ताणं छावट्टि चंदा पभासिसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति बा, छावद्धि सूरिया विसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा। दक्षिणार्ध मानुष क्षेत्र को छियासठ चन्द्र प्रकाशित करते थे, प्रकाशित करते हैं और प्रकाशित करेंगे। इसी प्रकार छियासठ सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे / उत्तरार्ध मानुष क्षेत्र को छियासठ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [समवायाङ्गसूत्र चन्द्र प्रकाशित करते थे, प्रकाशित करते हैं और प्रकाशित करेंगे / इसी प्रकार छियासठ सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। विवेचन—जम्बूद्वीप में दो चन्द्र, दो सूर्य हैं, लवण समुद्र में चार-चार चन्द्र और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं। कालोदधि समुद्र में बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य हैं / पुष्करार्ध में बहत्तर चन्द्र और बहत्तर सूर्य हैं। उक्त दो समुद्रों तथा आधे पुष्करद्वीप को अढ़ाई द्वीप कहा जाता है / क्योंकि पुष्करवर द्वीप के ठीक मध्य भाग में गोलाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उस द्वीप के दो भाग हो जाते हैं। इस द्वीप के भीतरी भाग तक का क्षेत्र मानुष क्षेत्र कहलाता है, क्योंकि मनुष्यों की उत्पत्ति यहीं तक होती है / इस पुष्कर द्वीपार्ध में भी पूर्व तथा पश्चिम दिशा में एक एक इषुकार पर्वत के होने से दो भाग हो जाते हैं। उनमें से दक्षिणी भाग दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्र कहलाता है और उत्तरी भाग उत्तरार्ध मनुष्य क्षेत्र कहा जाता है / यतः मनुष्य क्षेत्र के भीतर ऊपर बताई गई गणना के अनुसार (2+4+12+42+72 = 132) सर्व चन्द्र और सूर्य एक सौ बत्तीस होते हैं। उनके ग्राधे छियासठ चन्द्र और सूर्य दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्र में प्रकाश करते हैं और छियासठ चन्द्र-सूर्य उत्तरार्धमनुष्य क्षेत्र में प्रकाश करते हैं। जब उत्तर दिशा की पंक्ति के चन्द्र-सूर्य परिभ्रमण करते हुए पूर्व दिशा में जाते हैं, तब दक्षिण दिशा की पंक्ति के चन्द्र-सर्य पश्चिम दिशा में परिभ्र करने लगते हैं / इस प्रकार छियासठ चन्द्र-सूर्य दक्षिणी पुष्करार्ध में तथा छियासठ चन्द्र-सूर्य उत्तरी पुष्करार्ध में परिभ्रमण करते हुए अपने-अपने क्षेत्र को प्रकाशित करते रहते हैं / यह व्यवस्था सनातन है, अतः भूतकाल में ये प्रकाश करते रहे हैं, वर्तमानकाल में प्रकाश कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी प्रकाश करते रहेंगे। ३३३-सेज्जंसस्स णं अरहओ छा४ि गणा छावद्धि गणहरा होत्था। श्रेयांस अर्हत् के छयासठ गण और छयासठ गणधर थे। 334 --आभिणिबोहियणाणस्स णं उक्कोसेणं छाट्ठि सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। प्राभिनिबोधिक (मति) ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम कही गई है। (जो तीन वार अच्युत स्वर्ग में या दो वार विजयादि अनुत्तर विमानों में जाने पर प्राप्त होती है।) ॥षट्षष्टिस्थानक समवाय समाप्त / / सप्तषष्टिस्थानक-समवाय ३३५–पंचसंवच्छरियस्स गं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिज्जमाणस्स सत्तढि नक्खत्तमासा पण्णत्ता। पंचसांवत्सरिक युग में नक्षत्र मास से गिरने पर सड़सठ नक्षत्रमास कहे गये हैं / 336 हेमवय-एरन्नवयाओ णं बाहाम्रो सत्तट्टि सत्तट्टि जोयणसयाई पणपन्नाई तिण्णि य भागा जोयणस्स प्रायामेणं पण्णत्तायो। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टषष्टिस्थानक समवाय ] [ 127 हैमवत और एरवत क्षेत्र की भुजाएं सड़सठ-सड़सठ सौ पचपन योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से तीन भाग प्रमाण कही गई हैं / ३३७--मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाप्रो चरमंताओ गोयमदीवस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तट्टि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्तभाग से गौतम द्वीप के पूर्वी चरमान्तभाग का सड़सठ हजार योजन विना किसी व्यवधान के अन्तर कहा गया है / विवेचन--जम्बूद्वीप-सम्बन्धी मेरुपर्वत के पूर्वी भाग से जम्बूद्वीप का पश्चिमी भाग पचपन हजार योजन दूर है / तथा वहाँ से बारह हजार योजन पश्चिम में लवणसमुद्र के भीतर जाकर गौतम द्वीप अवस्थित है / अत: मेरु के पूर्वीभाग से गौतम द्वीप का पूर्वी भाग (55+12 = 67) सड़सठ हजार योजन पर अवस्थित होने से उक्त अन्तर सिद्ध होता है। 338 --सव्वेसि पि णं णक्खत्ताणं सीमाविक्खंभेणं सट्टि भाग भइए समंसे पण्णत्ते / ___ सभी नक्षत्रों का सीमा-विष्कम्भ |दिन-रात में चन्द्र-द्वारा भोगने योग्य क्षेत्र] सड़सठ भागों से विभाजित करने पर सम अंशवाला कहा गया है। // सप्तषष्टिस्थानक समवाय समाप्त // अष्टषष्टिस्थानक-समवाय 339 -धायइसंडे णं दोवे अडसद्धि चक्कट्टिविजया, अडसटि रायहाणीनो पण्णत्तानो। उक्कोसपए अडसट्ठि अरहंता समुपज्जिसुवा, समुप्पज्जति वा, समुप्पज्जिस्संति वा। एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा / धातकीखण्ड द्वीप में अड़सठ चक्रवत्तियों के अड़सठ विजय (प्रदेश) और अड़सठ राजधानियां कही गई हैं / उत्कृष्ट पद की अपेक्षा धातकीखण्ड में सड़सठ अरहंत उत्पन्न होते रहे हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी जानना चाहिए। ३४०-पुक्खरवरदोधड्ढे णं अडट्टि विजया, अडसढि रायहाणीओ पण्णत्ताओ / उक्कोसपए अडसद्धि प्ररहतास मुपज्जिसु वा, समुप्पज्जति वा, समुप्पज्जिस्संति वा। एवं चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा। पुष्करवर द्वीपार्ध में अड़सठ विजय और अड़सठ राजधानियां कही गई हैं। वहाँ उत्कृष्ट रूप से अड़सठ परहन्त उत्पन्न होते रहे हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार चक्रवर्ती, बलदेव.और वासुदेव भी जानना चाहिए। विवेचन–मेरुपर्वत मध्य में अवस्थित होने से जम्बूद्वीप का महाविदेह क्षेत्र दो भागों में बँट जाता है-पूर्वी महाविदेह और पश्चिमी महाविदेह / फिर पूर्व में सीता नदी के बहने से तथा पश्चिम में सीतोदा नदी के बहने से उनके भी दो-दो भाग हो जाते हैं। साधारण रूप से उक्त चारों क्षेत्रों में Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [समवायाङ्गसूत्र एक-एक तीर्थकर चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव उत्पन्न होते हैं / अतः एक समय में चार ही तीर्थंकर, चार ही चक्रवर्ती, चार ही बलदेव और चार ही वासूदेव उत्पन्न होते हैं। उक्त चारों खण्डों के तीन तीन अन्तर्नदियों और चार चार पर्वतों से विभाजित होने पर बत्तीस खण्ड हो जाते हैं / इनको चक्रवर्तीविजय करता है, अतः वे विजयदेश कहलाते हैं और उनमें चक्रवर्ती रहता है, अतः उन्हें राजधानी कहते हैं। इस प्रकार जम्बूद्वीप के महाविदेह में सर्व मिला कर बत्तीस विजयक्षेत्र और राजधानियाँ होती हैं / भरत और ऐरवत क्षेत्र ये दो विजय और दो राजधानियों के मिलाने से उनकी संख्या चौतीस हो जाती है / जम्बूद्वीप से दूनी रचना धातकीखंडद्वीप में और पुष्करवरद्वीपार्ध में है, अतः (344 2-68) उनकी संख्या अड़सठ हो जाती है। इसी बात को ध्यान में रखकर उक्त सूत्र में अड़सठ विजय, अड़सठ राजधानी, अड़सठ तीर्थंकर, अड़सठ चक्रवर्ती, अड़सठ बलदेव और अड़सठ वासुदेवों के होने का निरूपण किया गया है। पाँचों महाविदेह क्षेत्रों में कम से कम बोस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं और अधिक से अधिक एक सौ साठ तक तीर्थंकर उत्पन्न हो जाते हैं। वे अपने अपने क्षेत्र में ही विहार करते हैं / यही बात चक्रवर्ती आदि के विषय में भी जानना चाहिए। उक्त संख्या में पांचों मेरु सम्बन्धी दो-दो भरत और दो दो ऐरवत क्षेत्रों के मिलाने से (160+10 = 170) एक सौ सत्तर तीर्थंकरादि एक साथ उत्पन्न हो सकते हैं / यह विशेष जानना चाहिए। ३४१-विमलस्स णं अरहनो अडट्टि समणसाहस्सीमो उक्कोसिया समयसंपया होत्था। विमलनाथ अर्हन् के संघ में श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमणसम्पदा अड़सठ हजार थी। // अष्टषष्टिस्थानक समवाय समाप्त / एकोनसप्ततिस्थानक-समवाय ३४२-समयखित्ते णं मंदरवज्जा एगूणसरि वासा वासधरपव्वया पण्णता / तं जहा--- पणत्तीसं वासा, तीसं, वासहरा, चत्तारि उसुयारा / समयक्षेत्र (मनुष्य क्षेत्र या अढाई द्वीप) में मन्दर पर्वत को छोड़कर उनहत्तर वर्ष और वर्षधर पर्वत कहे गये हैं। जैसे ---पैंतीस वर्ष (क्षेत्र), तीस वर्षधर (पर्वत) और चार इषुकार पर्वत / विवेचन—एक मेरुसम्बन्धी भरत आदि सात क्षेत्र होते हैं। अतः अढ़ाई द्वीपों के पाँचों मेरु सम्बन्धी पैतीस क्षेत्र हो जाते हैं। इसी प्रकार एक मेरुसम्बन्धी हिमवन्त आदि छह-छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत होते हैं, अतः पाँचों मेरुसम्बन्धी तीस वर्षधर पर्वत हो जाते हैं। तथा धातकीखण्ड के दो और पुष्करवर द्वीपार्ध के दो इस प्रकार चार इषुकार पर्वत हैं। इन सबको मिलाने पर (35+ 30+4= 69) उनहत्तर वर्ष और वर्षधर हो जाते हैं।। ३४३-मंदरस्स पव्वयस्स पच्चस्थिमिल्लाप्रो चरमंताओ गोयमदीवस्स पच्चस्थिमिल्ले चरमंते एस णं एगूणसरि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से मौतम द्वीप का पश्चिम चरमान्त भाग उनहत्तर हजार योजन अन्तरवाला विना किसी व्यवधान के कहा गया है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिस्थानक समवाय] [129 ३४४-मोहणिज्जवज्जाणं सत्तण्हं कम्मपगडीणं एगूणसत्तरि उत्तरपगडीनो पण्णत्ताओ। मोहनीय कर्म को छोड़ कर शेष सातों कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ उनहत्तर (5+9+ 2+4+42+2+5= 69) कही गई हैं। // एकोनसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त / / सप्ततिस्थानक-समवाय ___३४५-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसराईए मासे वइक्कते सत्तरिएहि राइंदिरहि सेसेहि वासावासं पज्जोसवेइ। श्रमण भगवान् महावीर चतुर्मास प्रमाण वर्षाकाल के बीस दिन अधिक एक मास (पचास दिन) व्यतीत हो जाने पर और सत्तर दिनों के शेष रहने पर वर्षावास करते थे। विवेचन-श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से लेकर पचास दिन बीतने पर भाद्रपद शुक्ला पंचमी को वर्षावास नियम से एक स्थान पर स्थापित करते थे। उसके पूर्व वसति प्रादि योग्य प्रावास के प्रभाव में दूसरे स्थान का भी आश्रय ले लेते थे। ___३४६-पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तर वासाई बहुपडिपुन्नाइं सामनपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सम्वदुक्खप्पहीणे / पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् परिपूर्ण सत्तर वर्ष तक श्रमण-पर्याय का पालन करके सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्वदुःखों से रहित हुए। 347 -वासुपुज्जे णं अरहा सरि धणूइं उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / वासुपूज्य अर्हत् सत्तर धनुष ऊंचे थे। ३४८--मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स सरि सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया कम्मदिई कम्मनिसेगे पण्णत्ते। मोहनीय कर्म की अबाधाकाल से रहित सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम-प्रमाण कर्मस्थिति और कर्म-निषेक कहे गये हैं। विवेचन-मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपमों का होता है। जब तक बंधा हुआ कर्म उदय में आकर बाधा न देवे, उसे अबाधाकाल कहते हैं। अबाधाकाल का सामान्य नियम यह है कि एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम स्थिति के बंधनेवाले कर्म का अबाधाकाल एक सौ वर्ष का होता है / इस नियम के अनुसार सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम स्थिति का बन्ध होने पर उसका अबाधाकाल सत्तर सौ अर्थात् सात हजार वर्ष का होता है। इतने अबाधाकाल को छोड़ कर शेष रही स्थिति में कर्मपरमाणुओं की फल देने के योग्य निषेक-रचना होती है। उसका क्रम यह है कि अबाधाकाल पूर्ण होने के अनन्तर प्रथम समय में बहुत कर्म-दलिक निषिक्त होते हैं, दूसरे समय में उससे कम, तीसरे समय में उससे कम निषिक्त होते हैं। इस प्रकार से उत्तरोत्तर कम-कम होते हुए Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [समवायाङ्गसूत्र स्थिति के अन्तिम समय में सबसे कम कर्म-दलिक निषिक्त होते हैं। ये निषिक्त कर्म-दलिक अपनाअपना समय आने पर फल देते हुए झड़ जाते हैं। यह व्वयस्था कर्मशास्त्रों के अनुसार है / किन्तु कुछ आचार्यों का मत है कि जिस कर्म की जितनी स्थिति बंधती है, उसका अबाधाकाल उससे अतिरिक्त होता है, अत: बंधी हुई पूरी स्थिति के समयों में कर्म-दलिकों का निषेक होता है / ३४९---माहिदस्स णं देविदस्स देवरन्नो सत्तरि सामाणियसाहस्सीनो पण्णत्ताओ। देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र के सामानिक देव सत्तर हजार कहे गये हैं। सप्ततिस्थानक समवाय समाप्त / एकसप्ततिस्थानक-समवाय ३५०-चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एक्कसत्तरीए राइदिएहि वीइक्कतेहिं सव्वबाहिराओ मंडलाओ सूरिए पाउट्टि करेइ / - [पंच सांवत्सरिक युग के चतुर्थ चन्द्र संवत्सर की हेमन्त ऋतु के इकहत्तर रात्रि-दिन व्यतीत होने पर सूर्य सबसे बाहरी मण्डल (चार क्षेत्र) से आवृत्ति करता है। अर्थात् दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर गमन करना प्रारम्भ करता है। 351 ---वीरियप्पवायस्स णं पुवस्स एक्कसरि पाहुडा पण्णत्ता। वीर्यप्रवाद पूर्व के इकहत्तर प्राभृत (अधिकार) कहे गये हैं। ३५२-अजिते णं अरहा एक्कसरि पुवसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुडे भविता जाव पव्वइए। एवं सगरो वि राया चाउरंतचक्कवट्टी एक्कसरि पुच [सयसहस्साई] जाव [अगारमझे वसित्ता मुडे भवित्ता] पव्वइए। अजित अर्हन् इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रहकर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। इसी प्रकार चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी इकहत्तर लाख पूर्व वर्ष अगार-वास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। // एकसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // द्विसप्ततिस्थानक-समवाय ३५३--वावर सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। लवणस्स समुदस्स वावरि नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारंति / सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गये हैं। लवण समुद्र की बाहरी वेला को बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विसप्ततिस्थानक समवाय] [131 ३५४---समणे भगवं महावीरे वावरि वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सबदुक्खप्पहीणे / थेरे णं अयलभाया बावत्तरि वासाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / श्रमण भगवान् महावीर बहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कमों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो कर सर्व दुःखों से रहित हुए / स्थविर अचलभ्राता 72 वर्ष की प्रायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। ३५५--अभितयुक्खरद्धे णं वावरि चंदा पभासिसु वा, पभासंति वा, पभासिस्संति वा। [एवं] वावरि सूरिया विसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा / एगमेगस्स णं रन्नो चाउरतचक्कट्टिस्स वावत्तरिपुरवरसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। प्राभ्यन्तर पुष्करार्ध द्वीप में बहत्तर चन्द्र प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और आगे प्रकाश करेंगे। इसी प्रकार बहत्तर सूर्य तपते थे, तपते हैं और आगे तपेंगे। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के बहत्तर हजार उत्तम पुर (नगर) कहे गये हैं। ३५६–वावत्तरि कलाप्रो पण्णतायो / तं जहा-लेहं 1, गणियं 2, रूवं, 3, नटें 4, गोयं 5, वाइयं 6, सरगयं 7, पुक्खरगयं 8, समतालं 9, जूयं 10, जणवायं 11, पोरेकच्चं 12, अट्ठावयं 13, दगमट्टियं 14, अन्नविही 15, पाणविही 16, वत्यविही 17, सयणविही 18, अज्जं 19, पहेलियं 20, माहियं 21, गाहं 22, सिलोगं 23, गंधजुत्ति 24, मधुसित्थं 25, आभरणविही 26, तरुणीपडिकम्म क्खिणं 28, पुरिसलक्खणं 29, हयलक्खणं 30, गयलक्खणं 31, गोणलक्खणं 32, कुक्कुडलक्खणं 33, मिढयलक्खणं 34, चक्कलक्खणं 35, छत्तलक्खणं 36, दंडलक्खणं 37, असिलक्खणं 38, मणिलक्खणं 39, कागणिलक्खणं 40, चम्मलक्खणं 41, चंदचरियं 42, सूरचरियं 43, राहुचरियं 44, गहचरियं 45, सोभागकरं 46, दोभागकरं 47, विज्जागयं 48, मंतगयं 49, रहस्सगयं 50, सभासं 51, चारं 52, पडिचारं 53, बूहं 54, पडिबूहं 55, खंधावारमाणं 56, नगरमाणं 57, वत्थुमाणं 58, खंधावारनिवेसं 59, वत्थुनिवेसं 60, नगरनिवेसं 61, ईसत्थं 62, छरुष्पवायं 63, आससिक्खं 64, हत्थिसिक्खं 65, धणुव्वेयं 66, हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धातुपागं 67, बाहुजुद्धं दंडजुद्धं मुट्ठिजुद्धं अट्ठिजुद्धं जुद्धं निजुद्धं जुद्धाइजुद्धं 68, सुत्तखेडं नालियाखेडं बट्टखेडं धम्मखेडं चम्मखेड 69, पत्तछेज्ज कडगच्छेज्ज 70, सजीवं विज्जीवं 71, सउणिरुयं 72 / बहत्तर कलाएं कही गई हैं। जैसे१. लेखकला-लिखने की कला, ब्राह्मी प्रादि अट्ठारह प्रकार की लिपियों के लिखने का विज्ञान / 2. गणितकला-- गणना, संख्या जोड़ बाकी आदि का ज्ञान / 3. रूपकला-वस्त्र, भित्ति, रजत, सुवर्णपट्टादि पर रूप (चित्र) निर्माण का ज्ञान / 4. नाट्यकला--नाचने और अभिनय करने का ज्ञान / 5. गीतकला-गाने का चातुर्य / 6. वाद्यकला--अनेक प्रकार के बाजे बजाने की कला। 7. स्वरगतकला-अनेक प्रकार के राग-रागिनियों में स्वर निकालने की कला / 8. पुष्करगतकला-पुष्कर नामक वाद्य-विशेष का ज्ञान / 9. समतालकला-समान ताल से बजाने की कला / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समवायाङ्गसंत्र 10. द्यूतकला-जुआ खेलने की कला / 11. जनवादकला-जनश्रुति और किंवदन्तियों को जानना / 12. पूष्करगतकला-वाद्य-विशेष का ज्ञान / 13. अष्टापदकला-शतरंज, चौसर आदि खेलने की कला। 14. दकमृत्तिकाकला--जल के संयोग से मिट्टी के खिलौने आदि बनाने की कला / 15. अन्नविधिकला-अनेक प्रकार के भोजन बनाने की कला / 16. पानविधिकला--अनेक प्रकार के पेय पदार्थ बनाने की कला / 17. वस्त्रविधिकला-अनेक प्रकार के वस्त्र-निर्माण की कला। 18. शयनविधि-सोने की कला / अथवा सदनविधि-गृह-निर्माण की कला / 19. आर्याविधि-आर्या छन्द बनाने की कला / 20. प्रहेलिका–पहेलियों को जानने की कला / गूढ अर्थ वाली कविता करना / 21. मागधिका--स्तुति-पाठ करने वाले चारण-भाटों को कला। 22. गाथाकला-प्राकृत प्रादि भाषाओं में गाथाएं रचने की कला / 23. श्लोककला-संस्कृतभाषा में श्लोक रचने की कला / 24. गन्धयुति-अनेक प्रकार के गन्धों और द्रव्यों को मिलाकर सुगन्धित पदार्थ बनाने की कला। 25. मधुसिक्थ---स्त्रियों के पैरों में लगाया जाने वाला माहुर बनाने की कला / 26. आभरणविधि-आभूषण बनाने की कला। 27. तरुणोप्रतिकर्म-युवती स्त्रियों के अनुरंजन की कला। 28. स्त्रीलक्षण—स्त्रियों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानने की कला / 29. पुरुषलक्षण--पुरुषों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानने की कला। 30. हयलक्षण-घोड़ों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानने की कला / 31. गजलक्षण हाथियों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 32. गोणलक्षण-बैलों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 33. कुक्कुटलक्षण-मुर्गों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 34. मेढलक्षण—मेषों--मेढ़ों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 35. चक्रलक्षण—चक आयुध के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 36. छत्रलक्षण-छत्र के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना। 37. दंडलक्षण-हाथ में लेने के दंड, लकडी आदि के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना। 38. असिलक्षण-खड्ग, तलवार, वी आदि के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 39. मणिलक्षण-मणियों के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 40. काकणीलक्षण -काकणी नामक रत्न के शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / 41. चर्मलक्षण--चमड़े की परीक्षा करने की कला / अथवा चर्मरल में शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना / Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विसप्ततिस्थानक समवाय] 42. चन्द्रचर्या-चन्द्र के संचार और समकोण, वक्रकोण आदि से उदय हुए चन्द्र के निमित्त से शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना। 43. सूर्यचर्या--सूर्य संचार-जनित उपरागों के शुभ-अशुभ फल को जानना / 44. राहुचर्या-राहु की गति और उसके द्वारा चन्द्र आदि ग्रहण का फल जानना। 45. ग्रहचर्या-...ग्रहों के संचार के शुभ-अशुभ फलों को जानना। 46. सौभाग्यकर-सौभाग्य बढ़ाने वाले उपायों को जानना / 47. दौर्भाग्यकर--दौर्भाग्य बढ़ाने वाले उपायों को जानना। 48. विद्यागत-अनेक प्रकार की मंत्र-विद्याओं को जानना 49. मन्त्रगत--अनेक प्रकार के मन्त्रों को जानना। 50. रहस्यगत अनेक प्रकार के गुप्त रहस्यों को जानना / 51. सभास-प्रत्येक वस्तु के वृत का ज्ञान / 52. चारकला-गुप्तचर, जासूसी को कला / 53. प्रतिचारकला--ग्रह आदि के संचार का ज्ञान / रोगी आदि की सेवा शुश्रूषा का ज्ञान / 54. व्यूहकला-युद्ध में सेना की गरुड आदि आकार की रचना करने का ज्ञान / 55. प्रतिव्यूहकला-शत्रु की सेना के प्रतिपक्ष रूप में सेना की रचना करने का ज्ञान / 56. स्कन्धावारमान-सेना के शिविर, पड़ाव आदि के प्रमाण का जानना / 57. नगरमान-नगर की रचना का जानना। 58. वास्तूमान-मकानों के मान-प्रमाण का जानना। 59. स्कन्धावारनिवेश सेना को युद्ध के योग्य खड़े करने या पड़ाव का ज्ञान / 60. वस्तुनिवेश -वस्तुओं को यथोचित स्थान पर रखने की कला / 61. नगरनिवेश नगर को यथोचित स्थान पर बसाने की कला / 62. इण्वस्त्रकला-बाण चलाने की कला। 63. छरुप्प्रवाद कला-तलवार की मूठ आदि बनाना / 64. अश्वशिक्षा-घोड़ों के वाहनों में जोतने और युद्ध में लड़ने की शिक्षा देने का ज्ञान / 65. हस्तिशिक्षा हाथियों के संचालन करने की शिक्षा देने का ज्ञान / 66. धनुर्वेद-शब्दवेधी आदि धनुर्विद्या का विशिष्ट ज्ञान होना। 67. हिरण्यपाक-सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक--चांदी, सोना, मणि और लोह आदि धातुओं को गलाने, पकाने और उनकी भस्म आदि बनाने की विधि जानना। 68. बाहुयुद्ध, दंडयुद्ध, मुष्टि युद्ध, यष्टियुद्ध, सामान्य युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध आदि नाना प्रकार के युद्धों को जानना।। 69. सूत्रखेड, नालिकाखेड, वर्त्तखेड, धर्मखेड चर्मखेड, आदि अनेक प्रकार के खेलों का जानना / 70. पत्रच्छेद्य, कटकछेद्य-पत्रों और काष्ठों के छेदन-भेदन की कला जानना / 71. सजीव-निर्जीव-सजीव को निर्जीव और निर्जीव को सजीव जैसा दिखाना / 72. शकुनिरुत- पक्षियों की बोली जानना / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | समवायाङ्गसूत्र 72 कलाओं के नामों और अर्थों में भिन्नता पाई जाती है। टीकाकार के समक्ष भी यह भिन्नता थी। अतएव उन्होंने लौकिक शास्त्रों से जान लेने का निर्देश किया है। किसी कला में किसी का अन्तर्भाव भी हो जाता है / सर्वत्र एकरूपता नहीं है। 357-- समुच्छिम-खयरपंचिदियतिरिक्ख-जोणियाणं उक्कोसेणं वावतरि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता। सम्मूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यम्योनिक जीवों की उत्कृष्ट स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की कही गई है। // द्रिसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त। त्रिसप्ततिस्थानक-समवाय ३५८-हरिवास-रम्मयवासयाओ णं जीवाओ तेवतरि तेवरि जोयणसहस्साई नव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरसय-एगूणवीसहभागे जोयणस्स अद्धभागं च पायामेणं पण्णत्ताभो। हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवाएं तेहत्तर-तेहत्तर हजार नौ सौ एक योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से साढ़े सत्तरह भाग प्रमाण (7390375 ) लम्बी कही गई है। ३५९-विजए णं बलदेवे तेवतरि वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। विजय बलदेव तेहत्तर लाख वर्ष की सर्व प्रायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। // त्रिसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // चतुःसप्ततिस्थानक-समवाय ३६०-थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोवरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सम्वदुक्खप्पहीणे। स्थविर अग्निभूति गणधर चौहत्तर वर्ष की सर्व प्रायु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। ३६१---निसहाम्रो णं वासहरपव्वयाओ तिगिञ्छिदहाओ सीतोया महानदी चोवतरि जोयणसयाई साहियाई उत्तराहिमुही पहित्ता वइरामयाए जिभियाए चउजोयणायामाए पन्नासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुडे मया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठाणसंठिएणं पवाहेणं महया सद्देणं पबडइ / एवं सीता वि दक्खिणाहिमुही भाणियव्वा / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चसप्ततिस्थानक समवाय] [135 निषध वर्षधर पर्वत के तिगिंछ द्रह से सीतोदा महानदी कुछ अधिक चौहत्तर सौ (7400) योजन उत्तराभिमुखी बह कर महान् घटमुख से प्रवेश कर वज्रमयी, चार योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ो जिह्विका से निकल कर मुक्तावलिहार के प्राकारवाले प्रवाह से भारी शब्द के साथ वज्रतल वाले कुण्ड में गिरती है। ___ इसी प्रकार सीता नदी भी नीलवन्त वर्षधर पर्वत के केशरी द्रह से कुछ अधिक चौहत्तर सौ (7400) योजन दक्षिणाभिमुखी बह कर महान् घटमुख से प्रवेश कर वज्रमयी चार योजन लम्बी पचास योजन चौड़ी जिविका से निकल कर मुक्तावलिहार के प्राकारवाले प्रवाह से भारी शब्द के साथ वज्रतल वाले कुण्ड में गिरती है। ३६२-चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोवरि निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। चौथी को छोड़कर शेष छह पृथिवियों में चौहत्तर (30+25+ 15+3+1-74) लाख नारकावास कहे गये हैं। // चतुःसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // पञ्चसप्ततिस्थानक-समवाय ३६३---सुविहिस्स णं पुष्पदंतस्स अरहओ पन्नत्तरि जिणसया होत्था / सोतले णं अरहा पन्नत्तरि पुदवसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइए। संती णं अरहा पन्नतरिवाससहस्साई अगारवासमझे बसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए / सुविधि पुष्पदन्त अर्हन् के संघ में पचहत्तर सौ (7500) केवलिजिन थे। शीतल अर्हन् पहचत्तर हजार पूर्व वर्ष अगारवास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। शान्ति अर्हन् पचहत्तर हजार वर्ष अगारवास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रजित हुए। ॥पञ्चसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र षट्सप्ततिस्थानक-समवाय ३६४–छावरि विज्जुकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता / एवं दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-णियमग्गोणं, छण्हं पि जुगलयाणं छावरि सयसहस्साई। विद्युत्कुमार देवों के छिहत्तर लाख प्रावास (भवन) कहे गये हैं। इसी प्रकार द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, और अग्निकुमार, इन दक्षिण-उत्तर दोनों युगलवाले छहों देवों के भी छिहत्तर लाख आवास (भवन) कहे गये हैं। // षट्सप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // सप्तसप्ततिस्थानक-समवाय ३६५--भरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी सत्तहरि पुव्वसयसहस्साई कुमारावासमझे वसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते / चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा सतहत्तर लाख पूर्व कोटि वर्ष कुमार अवस्था में रह कर महाराजपद को प्राप्त हुए-राजा हुए। ३६६-अंगवंसाओ णं सत्तहत्तरि रायाणो मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया। अंगवंश की परम्परा में उत्पन्न हुए सतहत्तर राजा मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। ३६७-गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्तहरि देवसहस्सपरिवारा पण्णत्ता। गर्दतोय और तुषित लोकान्तिक देवों का परिवार सतहत्तर हजार (77000) देवोंवाला कहा गया है। ३६८--एगमेगे णं मुहुत्ते सत्तहरि लवे लवग्गेणं पण्णत्ते / प्रत्येक मुहूर्त में लवों की गणना से सतहत्तर लव कहे गये हैं। विवेचन-काल के मान-विशेष को लव कहते हैं। एक हृष्ट-पुष्ट नीरोग और संक्लेश-रहित मनुष्य के एक बार श्वास-उच्छ्वास लेने को एक प्राण कहते हैं / सात प्राणों का एक स्तोक होता है। सात स्तोकों का एक लव होता है और सतहत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है / इस प्रकार एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तेहत्तर(७४ 74 77 - 3773) श्वासोच्छ्वास या प्राण होते हैं / // सप्तसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकोनाशीतिस्थानक समवाय] [137 अष्टसप्ततिस्थानक-समवाय ३६९--सक्कस्स णं देविदस्स देवरन्नो वेसमणे महाराया अट्ठहत्तरीए सुवन्नकुमार-वीवकुमारावाससयसहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महारायत्तं प्राणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ। देवेन्द्र देवराज शक्र का वैश्रमण नामक चौथा लोकपाल सुपर्णकुमारों और द्वीपकुमारों के (38+40 =78) अठहत्तर लाख आवासों (भवनों) का आधिपत्य, अग्रस्वामित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व (पोषकत्व) महाराजत्व, सेनानायकत्व करता और उनका शासन एवं प्रतिपालन करता है। (भवनों से अभिप्राय उनमें रहने वाले देव-देवियों से भी है / वैश्रमण उन सब का लोकपाल है।) ३७०--थेरे णं अकंपिए अट्ठहरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / स्थविर अकम्पित अठहत्तर वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए / ३७१--उत्तरायणनिय? गं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालोसइमे मंडले अट्ठहरि एगसट्ठिभाए दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता णं चारं चरइ। एवं दक्खिणायणनियट्ट वि। उत्तरायण से लौटता हुआ सूर्य प्रथम मंडल से उनचालीसवें मण्डल तक एक मुहूर्त के इकसठिए अठहत्तर भाग प्रमाण दिन को कम करके और रजनी क्षेत्र (रात्रि) को बढ़ा कर संचार करता है। इसी प्रकार दक्षिणायन से लौटता हा भी रात्रि और दिन के प्रमाण को घटाता और बढ़ाता हुग्रा संचार करता है। ॥अष्टसप्ततिस्थानक समवाय समाप्त / / एकोनाशीतिस्थानक-समवाय ३७२-वलयामुहस्स णं पायालस्स हिडिल्लाओ चरमंतानो इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं एगणासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं के उस्स वि, जयस्स वि, ईसरस्स वि। बड़वामुख नामक महापातालकलश के अधस्तन चरमान्त भाग से इस रत्नप्रभा पृथिवी का निचला चरमान्त भाग उन्यासी हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है / इसी प्रकार केतुक, यूपक और ईश्वर नामक महापातलों का अन्तर भी जानना चाहिए। विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। उसमें लवण समुद्र एक हजार योजन गहरा है / उस गहराई से एक लाख योजन गहरा बड़वामुख पाताल कलश है / उसके Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [समवायाङ्गसूत्र अन्तिम भाग से रत्नप्रभा पृथिवी का अन्तिम भाग उन्यासी हजार योजन है / क्योंकि रत्नप्रभा पृथिव की एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई में से एक लाख एक हजार योजन घटाने पर (180000101000 = 79000) उन्यासी हजार योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार शेष तीनों पाताल कलशा का भाअन्तर उनके अधस्तन अन्तिम भाग से रत्नप्रभा प्रथिवी के अधस्तन अन्तिम भाग का उन्यासी-उन्यासी हजार योजन जानना चाहिए। __३७३--छट्ठीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छट्ठस्स घणोदहिस्स हेद्विस्ले चरमंते एस गं एगणासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / छठी पृथिवी के बहुमध्यदेशभाग से छठे धनोदधिवात का अधस्तल चरमान्त भाग उन्यासी हजार योजन के अन्तर-व्यवधान वाला कहा गया है। विवेचन-छठी तमःप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन है। उसके नीचे घनोदधिवात को यदि इस ग्रन्थ के मत से इक्कीस हजार योजन मोटा माना जावे तो उक्त पृथिवी की मध्यभाग रूप आधी मोटाई अठावन हजार और घनोदधिवात की मोटाई इक्कीस हजार इन दोनों को जोड़ने पर (58000+21000 = 79000) उन्यासी हजार योजन का अन्तर सिद्ध होता है। परन्तु अन्य ग्रन्थों के मत से सभी पृथिवियों के नीचे के घनोदधिवात की मोटाई बीस-बीस हजार योजन ही कही गई है, अतः उनके अनुसार उक्त अन्तर पाँचवी पृथिवी के मध्यभाग से वहाँ के घनोदधिवात के अन्त तक का जानना चाहिए / क्योंकि पाँचवी पृथिवी एक लाख अठारह हजार योजन मोटी है। उसका मध्यभाग उनसठ हजार और घनोदधि की मोटाई बीस हजार ये दोनों मिल कर उन्यासी हजार योजन हो जाते हैं / संस्कृतटीकाकार ने यह भी संभावना व्यक्त की है कि 'बहु' शब्द से एक हजार अधिक अर्थात् उनसठ हजार योजन प्रमाण मध्यभाग लेना चाहिए। ३७४-जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स वारस्स य वारस्स य एस णं एगणासीइं जोयणसहस्साई साइरेणाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। ___जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कुछ अधिक उन्यासी हजार योजन कहा गया है। विवेचन--जम्बूद्वीप की पूर्व आदि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के चार द्वार हैं / जम्बूद्वीप की परिधि 316227 योजन 3 कोश 128 धनुष और 133 अंगुल प्रमाण है / प्रत्येक द्वार की चौड़ाई चार-चार योजन है / चारों की चौड़ाई सोलह योजनों को उक्त परिधि के प्रमाण में से घटा देने और शेष में चार का भाग देने पर एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कुछ अधिक उन्यासी हजार योजन सिद्ध हो जाता है। // एकोनाशीतिस्थानक समवाय समाप्त // Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकाशीतिस्थानक समवाय] [139 अशीतिस्थानक-समवाय ३७५---सेजसे णं अरहा असीइं धणूई उड्ढे उच्चतेणं होत्था / तिविट्ठ णं वासुदेवे असीई धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। अयले णं बलदेवे असीई धणई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था / तिविठे णं वासुदेवे असीइ वाससयसहस्साई महाराया होत्था / श्रेयान्स अर्हन अस्सी धनुष ऊंचे थे। त्रिपृष्ठ वासुदेव अस्सी धनुष ऊंचे थे। अचल बलदेव अस्सो धनुष ऊंचे थे। त्रिपृष्ठ वासुदेव अस्सी लाख वर्ष महाराज पद पर आसीन रहे। ३७६---आउबहुले णं कंडे असोइ जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते / रत्नप्रभा पृथिवी का तीसरा अब्बहुल कांड (भाग) अस्सी हजार योजन मोटा कहा गया है / ३७७-ईसाणस्स देविदस्स देवरन्नो असीई सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ता। देवेन्द्र देवराज ईशान के अस्सी हजार सामानिक देव कहे गये हैं। 378 जंबुद्दीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसयं ओगाहेत्ता सूरिए उत्तरकट्टोवगए पढमं उदयं करे। जम्बूद्वीप के भीतर एक सौ अस्सी योजन भीतर प्रवेश कर सूर्य उत्तर दिशा को प्राप्त हो प्रथम बार (प्रथम मंडल में) उदित होता है। विवेचन--सूर्य का सर्व संचारक्षेत्र पांच सौ दश योजन है। इसमें से तीन सौ तीस योजन लवण समुद्र के ऊपर है और शेष एक सौ अस्सी योजन जम्बूद्वीप के भीतर है, जह वहाँ उत्तर दिशा की ओर से उदित होता है। // अशीतिस्थानक समवाय समाप्त / एकाशीतिस्थानक-समवाय ३७९---नवनवमिया भिक्खुपडिमा एक्कासीइ राइदिएहि चउहि य पंचुत्तरेहि [भिक्खासएहि] पाहासुत्तं जाव पाराहिया [भवइ] / नवनवमिका नामक भिक्षप्रतिमा इक्यासी रात दिनों में चार सौ पाँच भिक्षादत्तियों द्वारा यथासूत्र, यथामार्ग, यथातत्त्व स्पृष्ट, पालित, शोभित, तीरित, कीत्तित और पाराधित होती है / विवेचन-इस भिक्षुप्रतिमा के पालन करने में नौ-नौ दिन के नव-नवक अर्थात् इक्यासी दिन लगते हैं। प्रथम नौ दिनों में प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति ग्रहण की जाती है। दूसरे नौ दिनों में प्रतिदिन दो-दो भिक्षादत्तियां ग्रहण की जाती हैं। इस प्रकार प्रत्येक नौ-नौ दिनों में एक-एक भिक्षादत्ति को बढ़ाते हुए नवें नौ दिनों में प्रतिदिन नौ-नौ भिक्षादत्तियाँ ग्रहण की जाती हैं। उन सब का Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [समवायाङ्गसूत्र योग (9-/-18 / 27 ---36-1-45-- 54+62+72+ 81 = 405) चार सौ पाँच होता है / गोचरीकाल के सिवाय शेष समय मौनपूर्वक आगम की प्राज्ञानुसार प्रात्माराधन में व्यतीत किया जाता है। ३८०--कुथुस्स णं अरहयो एक्कासीति मणपज्जवनाणिसया होत्था। विवाह-पन्नत्तीए एकासीति महाजुम्मसया पण्णत्ता। कुन्थु अर्हत के संघ में इक्यासी सौ (8100) मनःपर्यय ज्ञानी थे / व्याख्या-प्रज्ञप्ति में इक्यासी महायुग्मशत कहे गये हैं। विवेचन यहाँ 'शत' शब्द से अध्ययन का ग्रहण करना चाहिए। वे कृत युग्म, द्वापरयुग्म आदि अनेक राशि के विचार रूप अन्तराध्ययनरूप आगम से जानना चाहिए। ॥एकाशीतिस्थानक समवाय समाप्त / / द्वि-अशीतिस्थानक-समवाय ३८१--जंबुद्दीवे [f] दोवे वासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चार चरइ / तं जहा–निक्खममाणे य पविसमाणे य।। इस जम्बूद्वीप में सूर्य एक सौ व्यासीवें मंडल को दो बार संक्रमण कर संचार करता है। जैसे-एक बार निकलते समय और दूसरी बार प्रवेश करते समय / विवेचन--सूर्य के संचार करने के मंडल (184) एक सौ चौरासी हैं। इनमें से सबसे भीतर जम्बूद्वीप वाले मंडल पर और सबसे बाहरी लवण समुद्र के मंडल पर तो वह एक-एक बार ही संचार करता है। शेष सभी मंडलों पर दो-दो बार संचार करता है--एक बार उत्तरायण के समय प्रवेश करते हुए और दूसरी बार दक्षिणायन के समय निष्क्रमण करते हुए / इस सूत्र में व्यासीवें स्थानक की अपेक्षा इसका निरूपण किया गया है। दूसरी बात यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि जम्बूद्वीप के ऊपर सूर्य के केवल पैसठ ही मंडल होते हैं. फिर भी यहाँ धातकीखंड प्रादि के निराकरण करने के लिए तथा इसी द्वीप-सम्बन्धी सूर्य के संचार-क्षेत्र की विवक्षा से उन सभी मंडलों को 'जम्बूद्वीप' पद से उपलक्षित किया गया है। 382- समणे णं भगवं महावीरे वासोए राईदिएहि वोइक्कतेहिं गभानो गन्भं साहरिए। श्रमण भगवान् महावीर व्यासी रात-दिन बीतने के पश्चात् देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ में संहृत किये गये। ३८३-महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ चरमंतानो सोगंधियस्स कंडस्स हेट्रिल्ले चरमंते एस णं वासीइं जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं रुप्पिस्स वि। महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत के ऊपरी चरमान्त भाग से सौगन्धिक कांड का अधस्तन चरमान्त भाग व्यासी सौ (8200) योजन के अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार रुक्मी का भी अन्तर जानना चाहिए। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यशीतिस्थानक समवाय [141 विवेचन-रत्नप्रभा पृथिवी के तीन काण्ड या विभाग हैं-खरकांड, पंककांड और अब्बहुल काण्ड / इनमें से खरकांड के सोलह भाग हैं-१ रत्नकांड, 2 वज्रकांड, 3 वैडूर्यकांड, 4 लोहिताक्ष कांड, 5 मसारगल्ल, 6 हंसगर्भ, 7 पूलक, 8 सौगन्धिक, 9 ज्योतीरस, 10 अंजन, 11 , 11 अजनपुलक, 12 रजत, 13 जातरूप, 14 अंक, 15 स्फटिक और 16 रिष्टकांड। ये प्रत्येक कांड एक एक हजार योजन मोटे हैं / प्रकृत में आठवें सौगन्धिक कांड का अधस्तन तलभाग विवक्षित है, जो रत्नप्रभा पृथिवी के उपरिम तल से आठ हजार योजन है / तथा रत्नप्रभापृथिवी के उपरिमतल से महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत का उपरिमतल भाग दो सौ योजन है। इस प्रकार दोनों को मिलाकर (8000 +200 = 8200) व्यासी सौ या पाठ हजार दो सौ योजन का अन्तर महाहिमवन्त के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड के अधस्तन तल भाग का सिद्ध हो जाता है। रुक्मी वर्षधर पर्वत भी दो सौ योजन ऊंचा है, उसके ऊपरी भाग से उक्त सौगन्धिक काण्ड का अधस्तन तल भी व्यासी सौ (8200) योजन के अन्तरवाला है। // यशोतिस्थानक समवाय समाप्त / त्रि-अशीतिस्थानक समवाय ३८४—समणे [f] भगवं महावीरं वासीइ राइदिएहि बोइक्कतेहि तेयासोइमे राइदिए वट्टामणे गब्भानो गन्भं साहरिए। श्रमण भगवान महावीर व्यासी रात-दिनों के बीत जाने पर तियासीवें रात-दिन के वर्तमान होने पर देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला के गर्भ में संहृत हुए। ३८५.-सीयलस्स णं अरहो तेसोई गणा, तेसीई गणहरा होत्था। थेरे णं मंडियपुत्ते तेसोई वासाइं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / शीतल अर्हत् के संघ में तियासी गण और तियासी गणधर थे / स्थविर मंडितपुत्र तियासी वर्ष की सर्व प्रायु का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए। ३८६-उसभे णं अरहा कोसलिए तेसीइं पुथ्वसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराम्रो अणगारियं पव्वइए। भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसोइं पुश्वसयसहस्साई अगारमज्झे वसित्ता जिणे जाए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी। कौशलिक ऋषभ अर्हत् तियासी लाख पूर्व वर्ष अगारवास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा तियासी लाख पूर्व वर्ष अगारवास में रह कर सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी केवली जिन हुए। ॥ज्यशीतिस्थानक समवाय समाप्त // Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [समवायाङ्गसूत्र पानक-समवाय ३८७--चउरासीइ निरयावाससयसहस्सा / चौरासी लाख नारकावास कहे गये हैं। 388 --उसभे णं अरहा कोसलिए चउरासीइं पुव्वसयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सम्वदुक्खप्पहीणे / एवं भरहो बाहुबली बंभी सुंदरी। कौशलिक ऋषभ अर्हत् चौरासी लाख पूर्व वर्ष की सम्पूर्ण आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मों से मुक्त और परिनिर्वाण को प्राप्त होकर सर्व दुःखों से रहित हुए। इसी प्रकार भरत, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी भी चौरासी-चौरासी लाख पूर्व वर्ष की पूरी प्रायु पाल कर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए / ३८९–सिज्जसे णं अरहा चउरासीई वाससयसहस्साई सब्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीण। श्रेयान्स अर्हत् चौरासी लाख वर्ष की आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्मभुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। ३९०-तिविढे णं वासुदेवे चउरासीइं वाससयसहस्साई सब्वाउथं पालइत्ता अप्पइट्टाणे नरए नेरइयत्ताए उववन्ने / त्रिपृष्ट वासुदेव चौरासी लाख वर्ष की सर्व प्रायु भोग कर सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामक नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुए। 391 –सक्कस्स णं देविंदस्स देवरनो चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। देवेन्द्र, देवराज शक के चौरासी हजार सामानिक देव हैं। 392 --सव्वे विगं बाहिरया मंदरा चउरासीइं चउरासीइं जोषणसहस्साई उडढं उच्चत्तणं पण्णत्ता / सम्वे वि णं अंजणगपव्वया चउरासीई चउरासोइं जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णता। जम्बूद्वीप से बाहर के सभी (चारों) मन्दराचल चौरासी चौरासी हजार योजन ऊंचे कहे गये हैं। नन्दीश्वर द्वीप के सभी (चारों) अंजनक पर्वत चौरासी-चौरासी हजार योजन ऊंचे कहे गये हैं। 393 हरिवास-रम्मयवासियाणं जीवाणं धणपिट्टा चउरासीइं जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ता। हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की जीवाओं के धनु:पृष्ठ का परिक्षेप (परिधि) चौरासी हजार सोलह योजन और एक योजन के उन्नीस भागों में से चार भाग प्रमाण (8401631) हैं। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुरशोतिस्थानक समवाय] [143 ३९४–पंकबहुलस्स णं कण्डस्स उवरिल्लानो चरमंतानो हेढिल्ले चरमते एस णं चोरासीई जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / पंकबहुल भाग के ऊपरी चरमान्त भाग से उसी का अधस्तन-नीचे का चरमान्त भाग चौरासी लाख योजन के अन्तर वाला कहा गया है / भावार्थ-रत्नप्रभा पृथिवी का दूसरा पंकबहुल कांड चौरासी लाख योजन मोटा है। ३९५--विवाहपन्नत्तीए णं भगवतीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक भगवतीसूत्र के पद-गणना की अपेक्षा चौरासी हजार पद (अवान्तर अध्ययन) कहे गये हैं। विवेचन-पाचारांग के 18 हजार पद हैं और अगले अगले अंगों के इससे दुगुने पद होने से भगवती के दो लाख अठासी हजार पद मतान्तर से सिद्ध होते हैं। ३९६---चोरासीई नागकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। चोरासोइं पन्नगसहस्साइं पण्णत्ता। चोरासीई जोणिप्पमुहसयसहस्सा पण्णत्ता। नागकुमार देवों के चौरासी लाख ग्रावास (भवन) हैं। चौरासी हजार प्रकीर्णक कहे गये हैं। चौरासी लाख जीव-योनियां कही गई हैं। विवेचन--जीवों के उत्पत्ति-स्थान को योनि कहते हैं / इसी को जन्म का आधार कहा जाता हैं / वे चौरासी लाख होती हैं। उनका विवरण इस प्रकार है (1) पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चारों की सात-सात लाख योनियाँ (2800000) (2) प्रत्येक और साधारण वनस्पतिकाय की क्रमशः दश और चौदह लाख योनियां (2400000) (3) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों में प्रत्येक की दो-दो लाख योनियाँ (600000) (4) देवों की चार लाख योनियाँ (400000) .) नारकों की चार लाख योनियाँ (400000) तिर्यंच पंचेन्द्रियों की चार लाख योनियाँ (400000) (7) मनुष्यों की चौदह लाख योनियाँ (1400000) सर्वयोग 8400000 यद्यपि जीवों के उत्पत्ति स्थान असंख्यात प्रकार के होते हैं, तथापि जिन योनियों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श समान गुणवाले होते हैं, उनको समानता की विवक्षा से यहाँ एक योनि कहा गया है। ३९७–पुन्वाइयाणं सीसपहेलियापज्जवसाणाणं सट्ठाणढाणंतराणं चोरासीए गुणकारे पण्णते। पूर्व की संख्या से लेकर शीर्षप्रहेलिका नाम की अन्तिम महासंख्या तक स्वस्थान और स्थानान्तर चौरासी (लाख) के गुणकार बाले कहे गये हैं। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन-जैनशास्त्रों के अनुसार संख्या के शत (सी) सहस्र (हजार) शतसहस्र (लाख) आदि से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक जो संख्या-स्थान होते हैं, उनमें जहाँ से प्रथम बार चौरासी से गुणाकार प्रारम्भ होता है, उसे स्वस्थान और उससे आगे के स्थान को स्थानान्तर कहा गया है। जैसे-चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग होता है। यह स्वस्थान है और इसे चौरासी लाख से गुणाकार करने पर जो पूर्व नाम का दूसरा स्थान होता है, वह स्थानान्तर है। इसी प्रकार आगे पूर्व की संख्या को चौरासी लाख से गुणा करने पर श्रुटिताङ्ग नाम का जो स्थान प्राप्त होता है, वह स्वस्थान है और उसे चौरासी लाख से गुणा करने पर त्रुटित नाम का जो स्थान प्राता है, वह स्थानान्तर है। इस प्रकार पूर्व से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक चौदह स्वस्थान और चौदह ही स्थानान्तर चौरासीचौरासी लाख के गुणाकारवाले जानना चाहिए। ३९८--उसभस्स णं अरहओ कोसलियस्स चउरासीइंगणा चउरासीइंगणहराहोत्था। उसभस्स गं अरहओ कोसलियस्स चउरासोई समणसाहस्सीमो होत्था / ऋषभ अर्हत् के संघ में चौरासी गण, चौरासी गणधर और चौरासी हजार श्रमण (साधु) थे। ३९९-सव्वे वि चउरासोइं विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउइं च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खायं / सभी वैमानिक देवों के विमानावास चौरासी लाख, सत्तानवे हजार और तेईस विमान होते हैं, ऐसा भगवान् ने कहा है। // चतुरशीतिस्थानक समवाय समाप्त // पञ्चाशीतिस्थानक समवाय ४००-प्रायारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स पंचासीइं उद्देसणकाला पण्णत्ता। चूलिका सहित भगवद् प्राचाराङ्ग सूत्र के पचासी उद्देशन काल कहे गये हैं। विवेचन–प्राचाराङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में सात, दूसरे में छह, तीसरे में चार, चौथे में चार, पाँचवें में छह, छठे में पाँच, सातवें में आठ, आठवें में चार और नवें अध्ययन में सात उद्देश हैं। दूसरे श्रुतस्कन्ध में चूलिका नामक पाँच अधिकार हैं, उनमें पांचवीं निशीथ नाम की चलिका प्रायश्चित्त रूप है, अतः उसका यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है। सात अध्ययनों में से प्रथम में शेष चार चूलिकानों में से प्रथम चूलिका में सात अध्ययन हैं, उनमें क्रम स ग्यारह, तीन, तीन, दो, दो, दो, और दो उद्देश हैं। दूसरी चूलिका में सात उद्देश हैं। तीसरी और चौथी चूलिका में एक-एक उद्देश है। इन सब का योग (7-6+4+4+6+5+8+4++ 11+3+-3-+2+2+2+2-7-1+1=85) पचासी होता है। एक उद्देश का पठन-पाठनकाल एक ही माना गया है और एक पठन-पाठन-काल को एक उद्देशन-काल कहा जाता है / इस प्रकार चूलिका सहित प्राचाराङ्गसूत्र के पचासी उद्देशन-काल कहे गये हैं / ४०१-धायइसण्डस्स णं मंदरा पंचासोई जोयणसहस्साई सन्नग्गेणं पण्णत्ता। रुयए णं मंडलियपव्वए पंचासीइं जोयणसहस्साई सव्वग्गेणं पण्णत्ते / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिस्थानक समवाय। 1145 धातकीखंड के दोनों मन्दराचल भूमिगत अवगाढ तल से लेकर सर्वाग्न भाग (अंतिम ऊंचाई) तक पचासी हजार योजन कहे गये हैं। इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपार्ध के दोनों मन्दराचल भी जानना चाहिए। रुचक नामक तेरहवें द्वीप का अन्तर्वर्ती गोलाकार मंडलिक पर्वत भूमिगत अवगाढ़ तल से लेकर सर्वाग्र भाग तक पचासी हजार योजन कहा गया है। अर्थात् इन सब पर्वतों की ऊंचाई पचासी हजार योजन की है। ४०२--नंदणवणस्स णं हेछिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेछिल्ले चरमंते एस णं पंचासीइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। नन्दनवन के अधस्तन चरमान्त भाग से लेकर सौगन्धिक काण्ड का अधस्तन चरमान्त भाग पचासी सौ (8500) योजन अन्तरवाला कहा गया है / विवेचन--मेरु पर्वत के भूमितल से नीचे सौगन्धिक काण्ड का तलभाग आठ हजार योजन है और नन्दनवन मेरु के भूमितल से पाँच सौ योजन की ऊंचाई पर अवस्थित है / अत: उसके अधस्तन तल से सौगन्धिक काण्ड का अधस्तन तल भाग (8000-500-8500) पचासी सौ योजन के अन्तरवाला सिद्ध हो जाता है। // पञ्चाशीतिस्थानक समवाय समाप्त / / षडशीतिस्थानक-समवाय 403 सुविहिस्स णं पुष्पदंतस्स अरहो छलसोई गणा छलसोई गणहरा होत्था। सुपासस्स णं अरहनो छलसोई वाइसया होत्था / सुविधि पुष्पदन्त अर्हत् के छयासी गण और छयासी गणधर थे। सुपार्श्व अर्हत् के छयासी सौ (8600) वादी मुनि थे। ४०४-दोच्चाए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागानो दोच्चस्स घणोदहिस्स हेढिल्ले चरमंते एस णं छलसीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। दूसरी पृथिवी के मध्य भाग से दूसरे घनोदधिवात का अधस्तन चरमान्त भाग छयासी हजार योजन के अन्तरवाला कहा गया है / विवेचन --दूसरी शर्करा पृथिवी एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी है, उसका आधा भाग छयासठ हजार योजन-प्रमाण है तथा उसी पृथिवी के नीचे का घनोदधिवात बीस हजार योजन मोटा है। इसलिए दूसरी पृथिवी के ठीक मध्य भाग से दूसरे घनोदधिवात का अन्तिम भाग (66+ 20 =86) छयासी हजार योजन के अन्तरवाला सिद्ध हो जाता है / // षडशीतिस्थानक समवाय समाप्त / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [समवायाङ्गसूत्र सप्ताशीतिस्थानक-समवाय ४०५–मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स आवासपव्ययस्स पच्चस्थिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मंदरस्स गं पव्ययस्स दक्खिणिल्लाओ चरमंतानो दगभासस्स आवासपब्वयस्स उत्तरिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं मंदरस्स पच्चस्थिमिल्लाओ चरमंताओ संखस्सावासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले चरमंते। एवं चेव मंदरस्स उत्तरिल्लाओ चरमंताओ दगसीमस्स आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले चरमंते एस णं सत्तासोइं जोयणसहस्साहिं आबाहाए अंतरे पण्णत्ते / मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से गोस्तूप आवास पर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग सतासी हजार योजन के अन्तर वाला है। मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त भाग से दकभास आवास पर्वत का उत्तरी चरमान्त सतासी हजार योजन के अन्तरवाला है। इसी प्रकार मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवास पर्वत का दक्षिणी चरमान्त भाग सतासी हजार योजन के अन्तर वाला है / और इसी प्रकार मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवास पर्वत का दक्षिणी चरमान्त भाग सतासी हजार योजन के अन्तरवाला है। विवेचन--मन्दर पर्वत जम्बूद्वीप के ठीक मध्य भाग में अवस्थित है और वह भूमितल पर दश हजार योजन विस्तार वाला है / मेरु या मन्दर पर्वत के इस विस्तार को जम्बूद्वीप के एक लाख योजन में से घटा देने पर नव्वै हजार योजन शेष रहते हैं / उसके आधे पैंतालीस हजार योजन पर जम्बूद्वीप का पूर्वी भाग, दक्षिणी भाग, पश्चिमी भाग और उत्तरी भाग प्राप्त होता है। इस से आगे लवण समुद्र के भीतर बियालीस हजार योजन की दूरी पर वेलन्धर नागराज का पूर्व में गोस्तूप आवास पर्वत अवस्थित है। इसी प्रकार जम्बूद्वीप के दक्षिणी भाग से उतनी ही दूरी पर दकभास आवास पर्वत है, पश्चिमी भाग से उतनी ही दूरी पर शंख प्रावास पर्वत है और उत्तरी भाग से उतनी ही दूरी पर दकसीम नाम का आवास पर्वत अवस्थित है / अतः मन्दर पर्वत के पूर्वी, पश्चिमी, दक्षिणी और उत्तरी अन्तिम भाग से उपयुक्त दोनों दूरियों को जोड़ने पर (45+42 = 87) सतासी हजार योजन के सूत्रोक्त चारों अन्तर सिद्ध हो जाते हैं / ४०६-छण्हं कम्मपगडीणं प्राइम-उवरिल्लवज्जाणं सत्तासीई उत्तरपगडीओ पण्णत्तानो। प्राद्य ज्ञानावरण और अन्तिम (अन्तराय) कर्म को छोड़ कर शेष छहों कर्म प्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ (9+2+2+4+42+2=87) सतासी कही गई हैं। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टाशीतिस्थानक समवाय] [147 . ४०७--महाहिमवंत कूडस्स णं उवरिमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरमंते एस णं सत्तासोई जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं रुपिकूडस्स वि / महाहिमवन्त कट के उपरिम अन्त भाग से सौगन्धिक कांड का अधस्तन चरमान्त भाग सतासी सौ (8700) योजन अन्तरवाला है / / सा (8700) योजन अन्तरवाला है। इसी प्रकार रुक्मी कट के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड के अधोभाग का अन्तर भी सतासी सौ योजन है। विवेचन-पहले बताया जा चुका है कि रत्नप्रभा के समतल भाग से सौगन्धिक कांड पाठ हजार योजन नीचे है / तथा रत्नप्रभा के समतल से दो सौ योजन ऊंचा महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत हैं, उसके ऊपर महाहिमवन्त कूट है, उसकी ऊंचाई पाँच सौ योजन है / इन तीनों को जोड़ने पर (8000+200+500 = 8700) सूत्रोक्त सतासी सौ योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार रुक्मी वर्षधर पर्वत दो सौ योजन और उसके ऊपर का रुक्मी कट पाँच सौ योजन ऊंचे हैं। प्रतः रुक्मी कट के ऊपरी भाग से सौगन्धिक कांड के नीचे तक का सतासी सौ योजन का अन्तर भी सिद्ध है। // सप्ताशीतिस्थानक समवाय समाप्त। अष्टाशीतिस्थानक-समवाय ४०८-एगमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ महागहा परिवारो पण्णत्तो। प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के परिवार में अठासी-प्रठासी महाग्रह कहे गये हैं। ४०९-दिदिवायस्स णं अट्ठासीइ सुत्ताई पण्णत्ताई / तं जहा-उज्जसुयं परिणयापरिणयं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियब्वाणि जहा नंदीए। दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के सूत्रनामक दूसरे भेद में अठासी सूत्र कहे गये हैं। जैसे ऋजुसूत्र, परिणता-परिणता सूत्र, इस प्रकार नन्दीसूत्र के अनुसार अठासी सूत्र कहना चाहिए। (इनका विशेष वर्णन ग्रागे 147 वें स्थानक में किया गया है)। ४१०-मंदरस्स णं पन्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपब्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठासोइं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वं / मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त भाग से गोस्तूप आवास पर्वत का पूर्वी चरमान्त भाग अठासी सौ (8800) योजन अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं में आवास पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 ] [ समवायाङ्गसूत्र विवेचन--सतासीवें स्थानक में आवास पर्वतों का मेरु पर्वत से सतासी हजार योजन का अन्तर बताया गया है, उसमें गोस्तूप आदि चारों आवास पर्वतों के एक-एक हजार योजन विस्तार को जोड़ देने पर अठासी हजार योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है। 411 –बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम छम्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति इगभट्ठिभागे मुहत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्डत्ता सूरिए चारं चरइ। दक्खिणकट्टाओ णं सूरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे चोयालीसतिमे मंडलगते अट्ठासोई इगसटिठभागे मुहत्तस्स रयणीखेत्तस्स निवुड्डत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुट्टित्ता णं सूरिए चारं चर। बाहरी उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा को जाता हुआ सूर्य प्रथम छह मास में चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर मुहूर्त के इकसठिये अठासी भाग दिवस क्षेत्र (दिन) को घटाकर और रजनीक्षेत्र (रात) को बढ़ा कर संचार करता है। [इसी प्रकार] दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा को जाता हुआ सूर्य दूसरे छह मास पूरे करके चवालीसवें मण्डल में पहुंचने पर मुहूर्त के इकसठिये अठासी भाग रजनी क्षेत्र (रात) के घटाकर और दिवस क्षेत्र (दिन) के बढ़ा कर संचार करता है। विवेचन --सूर्य छह मास दक्षिणायन और छह मास उत्तरायण रहता है। जब वह उत्तर दिशा के सबसे बाहरी मंडल से लौटता हुया दक्षिणायन होता है उस समय वह प्रतिमंडल पर एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग प्रमाण (31) दिन का प्रमाण घटाता हुआ और इतना ही (35) रात का प्रमाण बढ़ाता हुआ परिभ्रमण करता है / इस प्रकार जब वह चवालीसवें मंडल पर परिभ्रमण करता है, तब वह (3.444-5) मुहर्त के अठासी इकसठ भाग प्रमाण दिन को घटा देता है और रात को उतना ही बढ़ा देता है / इसी प्रकार दक्षिणायन से उत्तरायण जाने पर चवालीसवें मंडल में अठासी इकसठ भाग रात को घटा कर और उतना ही दिन को बढ़ाकर परिभ्रमण करता है। इस वर्तमान मिनिट से किण्ड के अनुसार सूर्य अपने दक्षिणायन काल में प्रतिदिन 1 मिनिट 5:34 सेकिण्ड दिन की हानि और रात की वृद्धि करता है / तथा उत्तरायण काल के प्रतिदिन 1 मी०५१३४ से० दिन को वृद्धि और रात की हानि करता हुआ परिभ्रमण करता है। उक्त व्यवस्था के अनुसार दक्षिणायन के अन्तिम मंडल में परिभ्रमण करने पर दिन 12 मुहूर्त का होता है और रात 18 मुहूर्त की होती है। तथा उत्तरायण के अन्तिम मंडल में परिभ्रमण करने पर दिन 18 मुहूर्त का होता है और रात 12 मुहूर्त की होती है / अष्टाशीतिस्थानक समवाय समाप्त। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवतिस्थानक समवाय ] [ 149 एकोननवलिस्थानक-समवाय ४१२-उसभे णं अरहा कोसलिए इमोसे ओसप्पिणीए ततियाए सुसमदूसमाए पच्छिमे भागे एगणणउइए अद्धमासेहि [सेसेहि] कालगए नाव सम्वदुक्खप्पहीणे / समणे णं भगवं महावीरे इमोसे ओसप्पिणीए चउत्थाए दूसमसुसमाए समाए पच्छिमे भागे एगणनउइए अद्धमासेहि सेसेहि कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। कौलिक ऋषभ अर्हत् इसी अवसर्पिणी के तीसरे सुषमदुषमा पारे के पश्चिम भाग में नवासी अर्धमासों (3 वर्ष 8 मास 15 दिन) के शेष रहने पर कालगत होकर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। श्रमण भगवान महावीर इसी अवसर्पिणी के चौथे दु:षमसुषमा काल के अन्तिम भाग में नवासी अर्धमासों (3 वर्ष 8 मास 15 दिन) के शेष रहने पर कालगत होकर सिद्ध, बुद्ध, कर्ममुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्वदुःखों से रहित हुए। ४१३-हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी एगूणनउई वाससयाहं महाराया होत्था। चातुरन्त चक्रवर्ती हरिषेणराजा नवासी सौ (8900) वर्ष महासाम्राज्य पद पर आसीन रहे। .414 –संतिस्स णं अरहओ एगणनउई अज्जासाहस्सीओ उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था। शान्तिनाथ अर्हत् के संघ में नवासी हजार प्रायिकाओं की उत्कृष्ट प्रायिकासम्पदा थी। ॥एकोननवतिस्थानक समवाय समाप्त / / . नवतिस्थानक-समवाय 415-- सोयले णं अरहा नउई धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / अजियस्स णं अरहओ नउई गणा नउई गणहरा होत्था / एवं संतिस्स वि। शीतल अर्हत् नव्वै धनुष ऊंचे थे। अजित अर्हत् के नव्वै गण और नव्वै गणधर थे / इसी प्रकार शान्ति जिन के नव्वै गण और नब्वै गणधर थे। 416 सयंभुस्स णं वासुदेवस्स णउइवासाइं विजए होत्था / स्वयम्भू वासुदेव ने नव्वै वर्ष में पृथिवी को विजय किया था / ४१७-सव्वेसि णं वट्टवेयपव्ययाणं उरिल्लायो सिहरतलामो सोगंधियकण्डस्स हेटिल्ले चरमंते एस णं नउइजोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] / समवायाङ्गसूत्र सभी वृत्त वैताढ्य पर्वतों के ऊपरी शिखर से सौगन्धिककाण्ड का नीचे का चरमान्त भाग नव्वै सौ (9000) योजन अन्तरवाला है। विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी के समतल से सौगन्धिककाण्ड आठ हजार योजन है और सभी वृत्त-वैताढय पर्वत एक हजार योजन ऊंचे हैं। अतः दोनों का अन्तर नव्वै सौ (80000+1000 = 9000) योजन सिद्ध है। ॥नवतिस्थानक समवाय समाप्त / / एकनवतिस्थानक-समवाय ४१८-एकाणउई परवेयावच्चकम्मपडिमाओ पण्णत्तानो। पर-वैयावृत्यकर्म प्रतिमाएं इक्यानवै कही गई हैं / विवेचन-दूसरे रोगी साधु और प्राचार्य आदि का भक्त-पान, सेवा-शुश्रूषा एवं विनयादि करने के अभिग्रह विशेष को यहाँ प्रतिमा पद से कहा गया है। वैयावृत्य के उन इक्कानवै प्रकारों का विवरण इस प्रकार है 1 दर्शन, ज्ञान चारित्रादि से गुणाधिक पुरुषों का सत्कार करना, 2 उनके आने पर खड़ा होना, 3 वस्त्रादि देकर सन्मान करना, 4 उनके बैठते हुए आसन लाकर बैठने के लिए प्रार्थना करना 5 पासनानुप्रदान करना-उन के ग्रासन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, 6 कृतिकर्म करना, 7 अंजली करना, 8 गुरुजनों के आने पर आगे जाकर उनका स्वागत करना, 9 गुरुजनों के गमन करने पर उनके पीछे चलना, 10 उन के बैठने पर बैठना। यह दश प्रकार का शुश्रुषा-विनय है। तथा 1 तीर्थंकर, 2 केवलिप्रज्ञप्त धर्म, 3 आचार्य, 4 वाचक (उपाध्याय) 5 स्थविर, 6 कुल, 7 गण, 8 संघ 9 साम्भोगिक, 10 क्रिया (प्राचार) विशिष्ट, 11 विशिष्ट मतिज्ञानी. 12 श्रुतज्ञानी, 13 अवधिज्ञानी, 14 मन:पर्यवज्ञानी और 15 केवलज्ञानी इन पन्द्रह विशिष्ट पुरुषों की 1 अाशातना नहीं करना, 2 भक्ति करना, 3 बहुमान करना, और 4 वर्णवाद (गुण-गान) करना, ये चार कर्तव्य उक्त पन्द्रह पदवालों के करने पर (154 4 = 60) साठ भेद हो जाते हैं। ___ सात प्रकार का औपचारिक विनय कहा गया है ---1 अभ्यासन-वैयावृत्य के योग्य व्यक्ति के पास बैठना, 2 छन्दोऽनुवर्तन- उसके अभिप्राय के अनुकूल कार्य करना, 3 कृतिप्रतिकृति-'प्रसन्न हुए आचार्य हमें सूत्रादि देंगे' इस भाव से उनको आहारादि देना, 4 कारितनिमित्तकरण-पढ़े हुए शास्त्रपदों का विशेष रूप से विनय करना और उनके अर्थ का अनुष्ठान करना, 5 दुःख से पीड़ित की गवेषणा करना, 6 देश-काल को जान कर तदनुकूल वैयावृत्य करना, 7 रोगी के स्वास्थ्य के अनुकूल अनुमति देना। पाँच प्रकार के प्राचारों के प्राचरण कराने वाले आचार्य पाँच प्रकार के होते हैं / उनके सिवाय उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्य करने से वैयावृत्त के 14 भेद होते हैं। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विनवतिस्थानक समवाय] [151 इस प्रकार शुश्रूषा विनय के 10 भेद, तीर्थकरादि के अनाशातनादि 60 भेद, औपचारिक विनय के 7 भेद और प्राचार्य आदि के वैयावृत्य के 14 भेद मिलाने पर (10+60+7+14 = 91) इक्यानवें भेद हो जाते हैं। ४१९–कालोए णं समुद्दे एकाणउई जोयणसयसहस्साई साहियाइं परिक्खेवेणं पण्णत्ते / कालोद समुद्र परिक्षेप (परिधि) की अपेक्षा कुछ अधिक इक्यानवे लाख योजन कहा गया है / विवेचन -जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तृत है, लवण समुद्र दो लाख योजन विस्तृत है, धातकीखण्ड चार लाख योजन विस्तृत है और उसे सर्व ओर से घेरने वाला कालोद समुद्र पाठ योजन विस्तृत है। इन सबकी विष्कम्भ सूची 29 लाख योजन होती है। इतनी विष्कम्भ सूची वाले कालोद समुद्र की सूक्ष्म परिधि करणसूत्र के अनुसार 9177605 योजन, 715 धनुष और कुछ अधिक 87 अंगुल सिद्ध होती है। उसे स्थूल रूप से सूत्र में कुछ अधिक इक्यानवे लाख योजन कहा गया है। 420 - कुथुस्स णं अरहो एकाणइई आहोहियसया होत्था / कुन्थु अर्हत् के संघ में इक्कानवै सौ (9100) नियत क्षेत्र को विषय करने वाले अवधिज्ञानी थे। ४२१--आउय-गोयवज्जाणं छण्हं कम्मपगडीणं एकाणउई उत्तरपडीओ पण्णतायो। आयु और गोत्र कर्म को छोड़ कर शेष छह कर्मप्रकृतियों की उत्तर प्रकृतियाँ (5-+-9--2+ 28+-42+5= 91) इक्यानवै कही गई हैं। // एकनवतिस्थानक समवाय समाप्त // द्विनवतिस्थानक-समवाय ४२२--बाणउई पडिमाओ पण्णत्ताओ। प्रतिमाएं वानवै कही गई हैं। विवेचन- मूलसूत्र में इन प्रतिमाओं के नाम-निर्देश नहीं हैं, अत: दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति के अनुसार उनका कुछ विवरण किया जाता है--मूल में प्रतिमाएं पाँच कही गई है--समाधिप्रतिमा, उपधानप्रतिमा, विवेकप्रतिमा, प्रतिसंलीनताप्रतिमा और एकाकी विहारप्रतिमा / इनमें समाधिप्रतिमा दो प्रकार की है --श्रुतसमाधिप्रतिमा और चारित्रसमाधिप्रतिमा। दर्शनप्रतिमा को भिन्न नहीं कहा, क्योंकि उसका ज्ञान में अन्तर्भाव हो जाता है। श्रतसमाधिप्रतिमा के बासठ भेद हैं-प्राचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध-गत पाँच, द्वितीय श्रुतस्कन्धगत सैतीस, स्थानाङ्गसूत्र-गत सोलह और व्यवहारसूत्रगत चार / ये सब मिलकर (5+ 37+16+4= 62) वासठ हैं / यद्यपि ये सभी प्रतिमाएं चारित्रस्वरूपात्मक हैं, तथापि ये विशिष्ट श्रुतशालियों के ही होती हैं, अतः श्रुत की प्रधानता से इन्हें श्रुत समाधिप्रतिमा के रूप में कहा ITE Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [समवायाङ्गसूत्र सामायिक, छेदीपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात चारित्र की अपेक्षा चारित्रसमाधिप्रतिमा के पाँच भेद हैं। उपधानप्रतिमा के दो भेद हैं-भिक्षुप्रतिमा और उपासकप्रतिमा / इनमें भिक्षुप्रतिमा के मासिकी भिक्षुप्रतिमा आदि बारह भेद हैं और उपासकप्रतिमा के दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा अादि ग्यारह भेद हैं / इस प्रकार उपधान प्रतिमा के (12+11-23) तेईस भेद होते हैं। विवेकप्रतिमा के क्रोधादि भीतरी विकारों और उपधि, भक्त-पानादि बाहरी वस्तुओं के त्याग की अपेक्षा अनेक भेद संभव होने पर भी त्याग सामान्य की अपेक्षा विवेकप्रतिमा एक ही कही गई है। प्रतिसलीनताप्रतिमा भी एक ही कही गई है, क्योंकि इन्द्रियसलीनता आदि तीनों प्रकार को संलीनतानों का एक ही में समावेश हो जाता है / पाँचवी एकाकीविहारप्रतिमा है, किन्तु उसका भिक्षुप्रतिमाओं में अन्तर्भाव हो जाने से उसे पृथक् नहीं गिना है। इस प्रकार श्रुतसमाधिप्रतिमा बासठ, चारित्रसमाधिप्रतिमा पाँच, उपधान-प्रतिमा तेईस, विवेकप्रतिमा एक और प्रतिसंलीनताप्रतिमा एक, ये सब मिलाकर प्रतिमा के (62+ 5-! 23-: 1+1= 92) बानवै भेद हो जाते हैं। ___४२३-थेरे णं इंदभूती वाणउइ वासाइं सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे [जाव सव्वदुक्खप्पहीणे] / 'स्थविर इन्द्रभूति बानवे वर्ष की सर्व आयु भोगकर सिद्ध, बुद्ध, [कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित] हुए / ४२४--मन्दरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पच्चत्थिमिल्ले चरमंते एस णं वाणउई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउण्हं पि प्रावासपव्वयाणं। मन्दर पर्वत के बहुमध्य देश भाग से गोस्तूप प्रावासपर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग वानवै हजार योजन के अन्तरवाला है। इसी प्रकार चारों ही आवासपर्वतों का अन्तर जानना चाहिये। विवेचन---मेरु पर्वत के मध्य भाग से चारों ही दिशानों में जम्बूद्वीप की सीमा पचास हजार योजन है और वहाँ से चारों ही दिशाओं में लवण समुद्र के भीतर वियालीस हजार योजन की दूरी पर गोस्तूप आदि चारों ग्रावासपर्वत अवस्थित हैं, अतः मेरुमध्य से प्रत्येक आवासपर्वत का अन्तर बानवै हजार योजन सिद्ध हो जाता है। ॥द्विनवतिस्थानक समवाय समाप्त / / Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्नवतिस्थानक समवाय] [153 त्रिनवतिस्थानक-समवाय ४२५-चंदप्पहस्स णं अरहो तेणउई गणा तेणउइं गणहरा होत्था / संतिस्स णं अरहओ तेणउई चउद्दस पुध्वसया होत्था / चन्द्रप्रभ अर्हत् के तेरानवे गण और तेरानवे गणधर थे / शान्ति अर्हत् के संघ में तेरानवे सौ (9300) चतुर्दशपूर्वी थे। 426 तेणउई मंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमाणे वा समं अहोरतं विसमं करेइ / दक्षिणायन से उत्तरायण को जाते हुए, अथवा उत्तरायण से दक्षिणायन को लौटते हुए तेरानवे मण्डल पर परिभ्रमण करता हुआ सूर्य सम अहोरात्र को विषम करता है। विवेचन -सूर्य के परिभ्रमण के संचारमण्डल 184 हैं। उनमें से जब सूर्य जम्बूद्वीप के ऊपर सबसे भीतरी भण्डल पर संचार करता है, तब दिन अठारह मुहर्त का होता है और रात बारह मुहर्त की होती है। इसी प्रकार जब सूर्य लवणसमुद्र के ऊपर सबसे बाहरी मण्डल पर परिभ्रमण करता है, तब दिन बारह मुहूर्त का होता है और रात अठारह मुहूर्त की होती है। इसी प्रकार सूर्य के उत्तरायण को जाते या दक्षिणायन को लौटते हुए तेरानवैवें मण्डल पर परिभ्रमण करते समय दिन और रात दोनों ही समान अर्थात् पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त के होते हैं / इससे आगे यदि वह उत्तर की ओर संचार करता है तो दिन बढ़ने लगता है और रात घटने लगती है। और यदि वह दक्षिण की ओर संचार करता है तो रात बढ़ने लगती है और दिन घटने लगता है। इसी व्यवस्था को ध्यान में रख कर कहा गया है कि तेरानवें मण्डलगत सूर्य आगे जाता या लौटता हुआ सम अहोरात्र को विषम करता है। ॥त्रिनवतिस्थानक समवाय समाप्त / चतुर्नवतिस्थानक-समवाय ४२७–निसह-नीलवंतियाओ णं जीवाप्रो चउणउई चउणउई जोयणसहस्साई एक्कं छप्पन्न जोयणसयं दोन्नि य एगूणवीसहभागे जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ताओ। निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वतों की जीवाएं चौरान हजार एक सौ छप्पन योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में से दो भाग प्रमाण (94156:1) लम्बी कही गई है। ४२८-अजियस्स गं अरहओ चउणउई प्रोहिनाणिसया होत्था / अजित अर्हत् के संघ में चौरान सौ (9400) अवधिज्ञानी थे। // चतुर्नवतिस्थानक समवाय समाप्त // Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [समवायाङ्गसूत्र पञ्चनवतिस्थानक-समवाय ४२९-सुपासस्स णं अरहओ पंचाण उइगणा पंचाणउइं गणहरा होत्था / सुपार्श्व अर्हत् के पंचानवै गण और पंचानवै गणधर थे। ४३०--जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चरमंतानो चउद्दिस लवणसमुदं पंचाणउई पंचाणउई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चत्तारि महापायालकलसा पण्णत्ता / तं जहा-वलयामुहे केऊए जूयए ईसरे / लवणसमुदस्स उभो पास पि पंचाणउयं पंचाणउयं पदेसानो उन्वेहुस्सेहपरिहाणीए पण्णत्ता / इस जम्बूद्वीप के चरमान्त भाग से चारों दिशाओं में लवण समुद्र के भीतरी पंचानव-पंचानवे हजार योजन अवगाहन करने पर चार महापाताल हैं। जैसे-१. वड़वामुख, 2. केतुक, 3. यूपक और 4. ईश्वर / __ लवण समुद्र के उभय पार्श्व पंचानवै-पचानवै प्रदेश पर उद्वेध (गहराई) और उत्सेध (उंचाई) वाले कहे गये हैं। विवेचन-लवण समुद्र के मध्य में दश हजार योजन-प्रमाण क्षेत्र समधरणीतल की अपेक्षा एक हजार योजन गहरा है। तदनन्तर जम्बूद्वीप की वेदिका की ओर पंचानवै प्रदेश आगे आने पर गहराई एक प्रदेश कम हो जाती है। उससे भी आगे पंचानवै प्रदेश आने पर गहराई और भी एक प्रदेश कम हो जाती है / इस गणितक्रम के अनुसार पंचानवै हाथ जाने पर एक हाथ, पंचानवै योजन जाने पर एक योजन और पंचानवै हजार योजन जाने पर एक हजार योजन गहराई कम हो जाती है। अर्थात् जम्बूद्वीप की वेदिका के समीप लवणसमुद्र का तलभाग भूमि के समानतल वाला हो जाता है। इस प्रकार लवण समुद्र के मध्य भाग के एक हजार योजन की गहराई की अपेक्षा लवण समुद्र का तट भाग एक हजार योजन ऊंचा है। जब इसी बात को समुद्रतट की ओर से देखते हैं, तब यह अर्थ निकलता है कि तट भाग से लवण समुद्र के भीतर पंचानवै प्रदेश जाने पर तट के जल की ऊंचाई एक प्रदेश कम हो जाती है, आगे पंचानवै प्रदेश जाने पर तट के जल की ऊंचाई एक प्रदेश और कम हो जाती है। इसी गणित के अनुसार पंचानवै हाथ जाने पर एक हाथ, पंचानवै योजन जाने पर एक योजन और पंचानवे हजार योजन आगे जाने पर एक हजार योजन समुद्र तटवर्ती जल की ऊंचाई कम हो जाती है। दोनों प्रकार के कथन का अर्थ एक ही है समुद्र के मध्य भाग की अपेक्षा जिसे उद्वेध या गहराई कहा गया है उसे ही समुद्र के तट भाग की अपेक्षा उत्सेध या ऊंचाई कहा गया है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकला कि लवण समुद्र के तट से पंचानवै हजार योजन आगे जाने पर दश हजार योजन के विस्तार वाला मध्यवर्ती भाग सर्वत्र एक हजार योजन गहरा है / और उसके पहिले सर्व पोर का जलभाग समुद्रतट तक उत्तरोत्तर हीन है। 431 - कुथू गं अरहा पंचाणउइं वाससहस्साई परमाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। थेरे णं मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाई सवाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्धे जाव सम्बदुक्खप्पहीणे / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षण्णवतिस्थानक समवाय] [155 कुन्थु अर्हत् पंचानवै हजार वर्ष की परमायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए / स्थविर मौर्यपुत्र पंचानवै वर्ष की सर्व आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। ॥पञ्चनवतिस्थानक समवाय समाप्त / / षण्णवतिस्थानक-समवाय ४३२-एगमेगस्स णं रन्नो चाउरतचक्कवट्टिस्स छण्णउई छण्णउई गामकोडीनो होत्था। प्रत्येक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा के (राज्य में) छयानवै-छयानवै करोड़ ग्राम थे। ४३३--वायुकुमाराणं छण्णउई भवणावाससयसहस्सा पण्णता। वायुकुमार देवों के छयानवै लाख प्रावास (भवन) कहे गये हैं। ४३४–ववहारिए णं दंडे छण्णउई अंगुलाई अंगुलमाणेणं / एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसले व्यावहारिक दण्ड अंगुल के माप से छयानवे अंगुल-प्रमाण होता है। इसी प्रकार धनुष, नालिका, युग, अक्ष और मूशल भी जानना चाहिए। विवेचन-अंगुल दो प्रकार का है-व्यावहारिक और अव्यावहारिक / जिससे हस्त, धनुष, गव्यूति ग्रादि के नापने का व्यवहार किया जाता है, वह व्यावहारिक अंगुल कहा जाता है। अव्यावहारिक अंगुल प्रत्येक मनुष्य के अंगुल-मान की अपेक्षा छोटा-बड़ा भी होता है। उसको यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। चौबीस अंगुल का एक हाथ होता है और चार हाथ का एक दण्ड होता है। इस प्रकार (24 4 4 = 96) एक दण्ड छयानवै अंगुल प्रमाण होता है। इसी प्रकार धनुष आदि भी छयानवै-छयानवै अंगुल प्रमाण होते हैं। ४३५.--अभितरओ प्राइमुहुत्ते छण्णउइ अंगुलच्छाए पण्णत्ते / आभ्यन्तर मण्डल पर सूर्य के संचार करते समय आदि (प्रथम) मुहूर्त छयानवै अंगुल की छाया वाला कहा गया है। ॥षण्णवतिस्थानक समवाय समाप्त / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [समवायाङ्गसूत्र सप्तनवतिस्थानक-समवाय ४३६-मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथभस्स णं आवासपब्वयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्ताणउइ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउदिसि पि। मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त भाग से गोस्तुभ आवास-पर्वत का पश्चिमी चरमान्त भाग सत्तानव हजार योजन अन्तर वाला कहा गया है / इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में जानना चाहिए। विवेचन-मेरु पर्वत के पश्चिमी भाग से जम्बूद्वीप का पूर्वी भाग पचपन हजार योजन है और उससे गोस्तुभ पर्वत का पश्चिमी भाग वियालीस हजार योजन दूर है। अतः चारों आवास पर्वतों का सूत्रोक्त सत्तानवै हजार योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है / ४३७–अढण्हं कम्मपगडीणं सत्ताणउई उत्तरपगडीग्रो पण्णत्ताओ। आठों कर्मों की उत्तर प्रकृतियां सत्तानवै (5+9+2+2+4+42+2+5= 97) कही गई हैं। ४३८-हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउई वाससयाई प्रगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराम्रो अणगारियं पव्वइए। चातुरन्तचक्रवर्ती हरिषेण राजा कुछ कम सत्तानवै सौ (9700) वर्ष अगार-वास में रहकर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। // सप्तनवतिस्थानक समवाय समाप्त / अष्टानवतिस्थानक-समवाय ४३९--नंदणवणस्स णं उरिल्लाप्रो चरमंताओ, पंडुयवणस्स हेढिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउइजोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। नन्दनवन के ऊपरी चरमान्त भाग से पांडुक वन के निचले चरमान्त भाग का अन्तर अट्ठानवे हजार योजन है। विवेचन-नन्दन वन समभूमि तल से पांच सौ योजन ऊंचाई पर अवस्थित है और उसकी आठों दिशाओं में अवस्थित कूट भी पाँच पाँच सौ योजन ऊंचे हैं, अत: दोनों मिलकर एक हजार योजन ऊंचाई नन्दनवन की हो जाती है / मेरु की ऊंचाई समभूमि भाग से निन्यानवै हजार योजन है, उसमें से उक्त एक हजार के घटा देने पर सूत्रोक्त अट्ठान वै हजार का अन्तर सिद्ध हो जाता है। ४४०-मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउइ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं चउदिसि पि / Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टानवसिस्थानक समवाय] [ 157 मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्तभाग से गोस्तुभ आवास पर्वत का पूर्वी चरमान्त भाग अट्ठानवै हजार योजन अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार चारों ही दिशाओं में अवस्थित आवास पर्वतों का अन्तर जानना चाहिए। विवेचन-सत्तानवै वें स्थान के सूत्र में प्रतिपादित अन्तर में गोस्तुभ प्रावास-पर्वत के एक हजार योजन विष्कम्भ को मिला देने पर अट्ठानवै हजार योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। ४४१--दाहिणभरहस्स गंधणुपिठे अट्टाणउइ जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं पण्णते / दक्षिण भरतक्षेत्र का धनु :पृष्ठ कुछ कम अट्ठानवै सौ (9800) योजन अायाम (लम्बाई) की अपेक्षा कहा गया है। ४४२-उत्तराओ कट्ठाओ सरिए पढम छम्मासं अयमाणे एगूणपन्नासतिमे मंडलगते अट्ठाणउइ एकसटिठभागे महत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवडढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवद्भित्ता णं सरिए चार चरइ दक्खिणाश्रो णं कट्ठामो सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे एगणपन्नासइमे मंडलगते अट्ठाणउइ एकसट्ठिभाए मुहुत्तस्स रयणिखित्तस्स निवुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्वेत्ता णं सूरिए चारं चरइ। उत्तर दिशा से सूर्य प्रथम छह मास दक्षिण की ओर आता हुआ उनपचासवें मंडल के ऊपर आकर मुहूर्त के इकसठिये अट्ठान भाग (1) दिवस क्षेत्र (दिन) के घटाकर और रजनी क्षेत्र (रात) के बढ़ाकर संचार करता है / इसी प्रकार दक्षिण दिशा से सूर्य दूसरे छह मास उत्तर की ओर जाता हुया उनपचासवें मंडल के ऊपर आकर मुहूर्त के अट्ठानवे इकसठ भाग (FF) रजनी क्षेत्र (रात) के घटाकर और दिवस क्षेत्र (दिन) के बढ़ाकर संचार करता है / विवेचनसूर्य के एक एक मंडल में संचार करने पर मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग प्रमाण दिन की वद्धि या रात की हानि होती है। अत: उनपचासवें मंडल में सूर्य के संचार करने पर मुहूर्त के (4942%D85) अट्ठानवै इकसठ भाग की वृद्धि और हानि सिद्ध हो जाती है। सूर्य चाहे उत्तर से दक्षिण की ओर संचार करे और चाहे दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर संचार करे, परन्तु उनपचासवें मंडल पर परिभ्रमण के समय दिन या रात की उक्त वृद्धि या हानि ही रहेगी। ४४३-रेवई-पढमजेट्टापज्जवसाणाणं एगूणवीसाए नक्खत्ताणं अट्ठाणउइ ताराओ तारग्गेणं पण्णत्तायो। रेवती से लेकर ज्येष्ठा तक के उन्नीस नक्षत्रों के तारे अट्ठानवे हैं / विवेचन--ज्योतिषशास्त्र के अनुसार रेवती नक्षत्र बत्तीस तारावाला है, अश्विनी तीन तारा वाला है, भरणी तीन तारा वाला है, कृत्तिका छह तारा वाला है, रोहिणी पाँच तारावाला है, मृगशिर तीन तारावाला है, पार्दा एक तारावाला है, पुनर्वसु पाँच तारावाला है, पुष्य तीन तारा वाला है, अश्लेषा छह तारावाला है, मघा सात तारावाला है, पूर्वाफाल्गुनी दो तारावाला है, उत्तराफाल्गुनी दो तारा वाला है, हस्त पाँच तारावाला है, चित्रा एक तारा वाला है, स्वाति एक तारावाला है, विशाखा एक तारावाला है. अनुराधा चार तारा वाला है, और ज्येष्ठा नक्षत्र Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15] [समवायाङ्गसूत्र तीन तारावाला है / इन उन्नीसों नक्षत्रों के ताराओं को जोड़ने पर (32+3+3+6+5+3+ 1+5+3+6-7+2--2+5.1-1-1+5+4+3= 97) अन्य ग्रन्थों के अनुसार सत्तानवै संख्या ही होती है। किन्तु प्रस्तुत सूत्र में उन्नीस नक्षत्रों के ताराओं की संख्या अट्टानवे (98) बताई गई है, अतः उक्त नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के ताराओं की संख्या एक अधिक होनी चाहिए। तभी सूत्रोक्त अट्ठानवै संख्या सिद्ध होगी, ऐसा टीकाकार का अभिप्राय है। // अष्टानवतिस्थानक समवाय समाप्त // नवनवतिस्थानक-समवाय ४४४-मंदरे गं पब्वए गवणउइ जोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते / नंदणवणस्स णं पुरच्छिमिल्लाप्रो चरमंतानो पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाइं प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ उत्तरिल्ले चरमते एस णं गवणउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। मन्दर पर्वत निन्यानवे हजार योजन ऊंचा कहा गया है। नन्दनवन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त निन्यानवै सौ (9900) योजन अन्तरवाला कहा गया है। इसी प्रकार नन्दन वन के दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त निन्यानवै सौ (9900) योजन अन्तर वाला है। विवेचन-मेरु पर्वत भूतल पर दश हजार योजन विस्तारवाला है और पांच सौ योजन की ऊंचाई पर अवस्थित नन्दवन के स्थान पर नौ हजार नौ सौ चौपन योजन, तथा एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग-प्रमाण (995461) मेरु का बाह्य विस्तार है। और भीतरी विस्तार उन्यासी सौ चौपन योजन और एक योजन के ग्यारह भागों में से छह भाग-प्रमाण है (795465) / पाँच सौ योजन नन्दनवन की चौड़ाई है / इस प्रकार मेरु का आभ्यन्तर विस्तार और दोनों ओर के नन्दनवन का पाँच पाँच सौ योजन का विस्तार ये सब मिलकर (79546 +500+500 = 895461) प्रायः सूत्रोक्त अन्तर हो जाता है। ४४५-उत्तरे पढमे सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साइं साइरेगाइं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / दोच्चे सरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साई साहियाई आयामविक्खंभेणं पण्णते। तइयसूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साई साहियाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / उत्तर दिशा में सूर्य का प्रथम मंडल अायाम-विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवै हजार योजन कहा गया है / दूसरा सूर्य-मंडल भी आयाम-विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। तीसरा सूर्यमंडल भी पायाम-विष्कम्भ की अपेक्षा कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन कहा गया है। विवेचन-सूर्य जिस आकाश-मार्ग से मेरु के चारों ओर परिभ्रमण करता है उसे सूर्य-मंडल कहते हैं / जब वह उत्तर दिशा के सबसे पहिले मंडल पर परिभ्रमण करता है, तब उस मंडल की गोलाकार रूप में लम्बाई निन्यानवे हजार छह सौ चालीस योजन (99640) होती है / जब सूर्य Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतस्थानक समवाय ] [159 दूसरे मंडल पर परिभ्रमण करता है, तब उसकी लम्बाई निन्यानवै हजार छह सौ पैंतालीस योजन और एक योजन इकसठ भागों में से पैतीस भाग-प्रमाण (9964531) होती है। प्रथम मंडल से इस दूसरे मंडल की पाँच योजन और पैतीस भाग इकसठ वृद्धि का कारण यह है कि एक मंडल से दूसरे मंडल का अन्तर दो-दो योजन का है / तथा सूर्य के विमान का विष्कम्भ एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग-प्रमाण है। इसे (24) दुगुना कर देने पर (266x2=531) पाँच योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से पैंतीस भाग-प्रमाण वृद्धि प्रथम मंडल से दूसरे मंडल की सिद्ध हो जाती है। इसी प्रकार दूसरे मंडल के विष्कम्भ में 535 के मिला देने पर (9964515 53 -- 996516) निन्यानवै हजार छह सौ इकावन योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से नौ भाग-प्रमाण विष्कम्भ तीसरे मंडल का निकल पाता है। निन्यानवै हजार में ऊपर जो प्रथम मंडल में 640 योजन की, दूसरे मंडल में 64535 योजन की और तीसरे मंडल में 6516 योजन की वृद्धि होती है, उसे सूत्र में 'सातिरेक' और 'साधिक' पद से सूचित किया गया है, जिसका अर्थ निन्यानवै हजार योजन से कुछ अधिक होता है। 446- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेछिल्लाओ चरमंतानो वाणमंतरभोमेज्जविहाराणं उरिमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। इस रत्नप्रभा पृथिवी के अंजन कांड के अधस्तन चरमान्त भाग से वान-व्यन्तर भौमेयक देवों के विहारों (आवासों) का उपरिम अन्तभाग निन्यानवै सौ (9900) योजन अन्तरवाला कहा गया है। विवेचन–रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम खरकाण्ड के सोलह कांडों में अंजनकांड दशवां है। उसका अधस्तन भाग यहां से दश हजार योजन दूर है। प्रथम रत्न-कांड के प्रथम सौ योजनों के (बाद) व्यन्तर देवों के नगर हैं / इन सौ को दश हजार में से (10,000-100 = 9900) घटा देने पर सूत्रोक्त निन्यानवे सौ (9900) योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। // नवनवतिस्थानक समवाय समाप्त // शतस्थानक-समवाय ४४७–दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछोहि भिक्खासतेहि अहासुत्तं जाव प्राराहिया यावि भवइ / दशदशमिका भिक्षुप्रतिभा एक सौ रात-दिनों में और साढ़े पांच सौ भिक्षा-दत्तियों से यथासूत्र, यथामार्ग, यथातत्व से स्पृष्ट, पालित, शोभित, तीरित, कीर्तित और पाराधित होती है। विवेचन----इस भिक्षप्रतिमा की आराधना दश दश दिन के दिनदशक अर्थात् सौ दिनों के द्वारा की जाती है। पूर्व वर्णित भिक्षुप्रतिमाओं के समान इसमें भी प्रथम दश दिनों से लेकर दशवें दिनदशक तक प्रतिदिन एक-एक भिक्षादत्ति अधिक ग्रहण की जाती है / तदनुसार सर्वभिक्षादत्तियों की संख्या (10-203040 / -50+60-70.80+90-100-550) पाँचसौ पचास हो जाती है / शेष आराधना-विधि पूर्व प्रतिमाओं के समान ही जानना चाहिए। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [समवायाङ्गसूत्र ४४८—सयभिसया नक्खत्ते एक्कसयतारे पण्णत्ते। शतभिषक् नक्षत्र के एक सौ तारे होते हैं / ४४९-सुविही पुप्फदंते णं अरहा एगं धणुसयं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था। पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वाससयं सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खपहीणे / एवं थेरे वि अज्जसुहम्मे / ___सुविधि पुष्पदन्त अर्हत् सौ धनुष ऊंचे थे। पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् एक सौ वर्ष की समग्र प्रायु भोग कर सिद्ध, बुद, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए। इसी प्रकार स्थविर आर्य सुधर्मा भी सौ वर्ष की सर्व प्रायु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित हुए। 450 सव्वे वि णं दोहवेयपव्वया एगमेगं गाउयसयं उड्ड उच्चत्तेणं पण्णता। सब्वेविणं चुल्लहिमवंत-सिहरीवासहरपब्वया एगमेगं जोयणसयं उड्डे उच्चत्तणं पण्णत्ता। एगमेगं गाउयसयं उध्वेहेणं पण्णत्ता / सव्वे वि णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णता। एगमेगं गाउयसयं उन्वेहेणं पण्णत्ता। एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खंभेणं पण्णत्ता। सभी दीर्घ वैताढय पर्वत एक-एक सौ गव्यूति (कोश) ऊंचे कहे गये हैं। सभी क्षुल्लक हिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वत एक-एक सौ योजन ऊंचे हैं। तथा ये सभी वर्षधर पर्वत सौ-सौ गव्यूति उद्वेध (भूमि में अवगाह) वाले हैं। सभी कांचनक पर्वत एक-एक सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं / तथा वे सौ-सौ गव्यूति उद्वेध वाले और मूल में एक-एक सौ योजन विष्कम्भवाले हैं। // शतस्थानक समवाय समाप्त // Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकोतरिका-वृद्धि-समवाय [सार्धशत से कोटाकोटि पर्यन्त] ४५१-चंदप्पभे गं अरहा दिवड्ढं धणुस्सयं उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। प्रारणकप्पे दिवड्ढे विमाणावाससयं पण्णत्तं / एवं अच्चुए वि 150 / चन्द्रप्रभ अर्हत डेढ़ सौ धनुष ऊंचे थे / पारण कल्प में डेढ़ सौ विमानावास कहे गये हैं। अच्युत कल्प भी डेढ़ सौ (150) विमानावास वाला कहा गया है / ४५२-सुपासे णं अरहा दो धणुसया उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / सुपार्श्व अर्हत् दो सौ धनुष ऊंचे थे। ४५३-सव्वे वि णं महाहिमवंत-रुप्पीवासहरपन्वया दो दो जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। दो दो गाउयसयाइं उव्वेहेणं पण्णत्ता। सभी महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत दो-दो सौ योजन ऊंचे हैं और वे सभी दो-दो गव्यूति उद्वेध वाले (गहरे) हैं / ४५४-जंबुद्दोवे णं दीवे दो कंचणपन्वयसया पण्णत्ता 200 / इस जम्बूद्वीप में दो सौ कांचनक पर्वत कहे गये हैं 200 / ४५५-पउमप्पभे णं अरहा अड्डाइज्जाई धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। पद्मप्रभ ग्रहत् अढाई सौ धनुष ऊंचे थे। ४५६-असुरकुमाराणं देवाणं पासायडिसगा अड्डाइज्जाइं जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता 250 / असुरकुमार देवों के प्रासादावतंसक अढाई सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं 250 / ४५७–सुमई णं अरहा तिणि धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / अरिटुनेमी णं अरहा तिण्णि वाससयाई कुमारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। सुमति अर्हत् तीन सौ धनुष ऊंचे थे / अरिष्टनेमि अर्हन् तीन सौ वर्ष कुमारवास में रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। ४५८.-वेमाणियाणं देवाणं विमाणपागारा तिणि तिष्णि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। वैमानिक देवों के विमान-प्राकार (परकोटा) तीन-तीन सौ योजन ऊंचे हैं / ४५९-समणस्स [णं] भगवओ महावीरस्स तिन्नि सयाणि चोद्दसपुटवीणं होत्था। पंचधणुसइयस्स णं अंतिमसारीरियस्स सिद्धिगयस्स सातिरेगाणि तिण्णि-धणसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा पण्णत्ता 300 / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [समवायाङ्गसूत्र श्रमण भगवान् महावीर के संघ में तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे। पाँच सौ धनुष की अवगाहनावाले चरमशरीरी सिद्धि को प्राप्त पुरुषों (सिद्धों) के जीवप्रदेशों की अवगाहना कुछ अधिक तीन सौ धनुष की होती है। ४६०-पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अद्ध टुसयाई चोदसपुटवीणं संपया होत्था / अभिनंदणे णं अरहा अधुढाई धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था 350 / पुरुषादानीय पार्श्व अर्हन के साढ़े तीन सौ चतुर्दशपूत्रियों की सम्पदा थी। अभिनन्दन अर्हन् साढ़े तीन सौ धनुष ऊंचे थे। ४६१–संभवे णं अरहा चत्तारि धणुसपाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। संभव अर्हत् चार सौ धनुष ऊंचे थे। 462 –सव्वे वि णं निसढनीलवंता वासहरपध्वया चत्तारि-चत्तारि जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं [पण्णता]। चत्तारि चत्तारि गाउयसयाई उन्हेणं पण्णत्ता ! सव्वे वि णं वक्खारपव्वया 'णिसढनीलवंतवासहरपव्वयंतेणं' चत्तारि चत्तारि जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसयाइं उन्हेणं पण्णता।। सभी निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत चार-चार सौ योजन ऊंचे तथा चार-चार सौ गव्यूति उद्वेध (गहराई) वाले हैं। सभी वक्षार पर्वत निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वतों के समीप चार-चार सौ योजन ऊंचे और चार-चार सौ गव्यूति उद्वेध वाले कहे गये हैं। ४६३–प्राणय-पाणएसु दोसु कप्पेसु चत्तारि विमाणसया पण्णत्ता। अानत और प्राणत इन दो कल्पों में दोनों के मिलाकर चार सौ विमान कहे गये हैं। ४६४–समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेव-मणुयासुरंमि लोगमिवाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्था 400 / श्रमण भगवान महावीर के चार सौ अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा थी। वे वादी देव, मनुष्य और असुरों में से भी बाद में पराजित होने वाले नहीं थे। ४६५--अजिते णं अरहा अद्धपंचमाइं धणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था। सगरे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी अद्धपंचमाई धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था 450 / अजित अईत साढ़े चार सौ धनुष ऊंचे थे। चातुरन्त चक्रवर्ती सगर राजा भी साढ़े चार सौ धनुष ऊंचे थे। ४६६--सब्वे वि णं वक्खारपव्वया सीधा-सीप्रोग्रामो महानईओ मंदरपव्वयंते णं पंच पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसयाई उब्वहेणं पण्णताओ। सव्वे वि णं वासहरकडा पंच पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / भूले पंच पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णता। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकोत्तरिका-वृद्धि-समवाय] [163 सभी वक्षार पर्वत सीता-सीतोदा महानदियों के और मन्दर पर्वत के समीप पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे और पाँच-पाँच सौ गभूति उद्वेध वाले कहे गये हैं। सभी वर्षधर कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे और मूल में पाँच-पाँच सौ योजन विष्कम्भ वाले कहे गये हैं / 467 --उसमे णं अरहा कोसलिए पंच धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था। भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी पंचधणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / कौशलिक ऋषभ अर्हत् पाँच सौ धनुष ऊंचे थे। चातुरन्तचक्रवर्ती राजा भरत पाँच सौ धनुष ऊंचे थे। 468. सोमणस-गंधमादण-विज्जप्पभ-मालवंताणं वक्खारपव्वयाणं मंदरपव्वयंतेणं पंच पंच जोयणसयाई उडढं उच्चत्तेणं, पंच पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं पण्णता। सब्वे विणं वक्खारपध्वयकडा हरि-हरिस्सहकडवज्जा पंच पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता। सव्वे वि णं णंदणकूडा बलकूडवज्जा पंच पंच जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले पंच पंच जोयणसयाई प्रायामविक्खंभेणं पण्णता / सौमनस, गन्धमादन, विद्युत्प्रभ और मालवन्त ये चारों वक्षार पर्वत मन्दर पर्वत के समीप पाँच-पांच सौ योजन ऊंचे और पाँच-पाँच सौ गव्यूति उद्वेधवाले हैं / हरि और हरिस्सह कूट को छोड़ कर शेष सभी बक्षार पर्वतकूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे और मूल में पाँच-पाँच सौ योजन पायाम-विष्कम्भ वाले कहे गये हैं / बलकूट को छोड़ कर सभी नन्दनवन के कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे और मूल में पाँच-पाँच सौ योजन अायाम-विष्कम्भ वाले कहे गये हैं। 469- सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा पंच पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता / 500 / सौधर्म और ईशान इन दोनों कल्पों में सभी विमान पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। 470 -सणंकुमार-माहिदेसु कप्पेसु विमाणा छजोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। चुल्लाहमवंतकूडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ चुल्लाहिमवंतस्स वासहरपन्वयस्स समधरणितले एस गं छजोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं सिहरोकूडस्स वि / सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों में विमान छह सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। क्षुल्लक हिमवन्त कूट के उपरिम चरमान्त से क्षुल्लक हिमवन्त वर्षधर पर्वत का समधरणोतल छह सो योजन अन्तर वाला है / इसी प्रकार शिखरी कूट का भो अन्तर जानना चाहिए। विवेचन --समभूमि तल से क्षुल्लक हिमवन्त और शिखरो वर्षधर पर्वत सौ-सौ योजन ऊंचे हैं और उनके हिमकट और शिखरी कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं, अत: उक्त कूटों के ऊपरी भाग से उक्त दोनों ही वर्षधर पर्वतों के समभूमि का सूत्रोक्त छह-छह सौ योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। 471- पासस्स णं अरहनो छसया वाईणं सदेवमणुयासुरे लोए वाए अपराजिआणं उक्कोसिया वाइसंपया होत्था / अभिचंदे णं कुलगरे छत्रणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था / वासुपुज्जे णं अरिहा छहिं पुरिससएहिं सद्धि मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए। 600 / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [समवायाङ्गसूत्र पार्श्व अर्हत् के छह सौ अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा थी जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे। अभिचन्द्र कुलकर छह सौ धनुष ऊंचे थे / वासुपूज्य अर्हत् छह सौ पुरुषों के साथ मुडित होकर अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए थे। 600 / ४७२-बंभ-लंतएसु [दोसु] कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसयाई उड्ढे उच्चतेणं पण्णत्ता। ब्रह्म और लान्तक इन दो कल्पों में विमान सात-सात सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। ४७३–समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसया होत्था। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त वेउब्वियसया होत्था। अरिटुणेमो णं अरहा सत्त वाससयाई देसूणाई केवलपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / श्रमण भगवान् महावीर के संघ में सात सौ केवली थे। श्रमण भगवान् महावीर के संघ में पलब्धिधारी साधु थे। अरिष्टनेमि अर्हत कुछ (54 दिन) कम सात सौ वर्ष केवलिपर्याय में रह कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए। ४७४-महाहिमवंतफूडस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स समधरणितले एस णं सत्त जोयणसयाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं रुप्पिकूडस्स वि 700 / महाहिमवन्त कुट के ऊपरी चरमान्त भाग से महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत का समधरणी तल सात सौ योजन अन्तर वाला कहा गया है / इसी प्रकार रुक्मी कूट का भी अन्तर जानना चाहिए / विवेचन- समभूमि तल से महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत दो-दो सौ योजन ऊंचे है और उनके महाहिमवन्तकूट और रुक्मीकूट पांच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं। अत: उक्त कूटों के ऊपरी भाग से उक्त दोनों ही वर्षधर पर्वतों के समभूमि का अन्तर सात-सात सौ योजन का सिद्ध हो जाता है / ४७५–महासुक्क-सहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ठजोयणसयाई उड्ढं उच्चतेणं पण्णता। महाशुक्र और सहस्रार इन दो कल्पों में विमान पाठ सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। ४७६-इमोसे णं रयणप्पमाए [पुढवीए] पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसएसु वाणमंतरभोमेज्जविहारा पण्णत्ता। इस रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम कांड के मध्यवर्ती आठ सौ योजनों में वानव्यन्तर भौमेयक देवों के विहार कहे गये हैं। विवेचन–वनों में वृक्षादि पर उत्पन्न होने से व्यन्तरों को 'वान' कहा जाता है / तथा उनके विहार, नगर या आवासस्थान भूमि निर्मित हैं इसलिए उनको 'भौमेयक' कहा जाता है / दशवें अंजनकांड का उपरिम भाग समभूमि भाग से नौ सौ योजन नीचे है / उसमें से प्रथम रत्न कांड के सौ योजन कम कर देने पर वानव्यन्तरों के प्रावास अंजनकांड के उपरिम भाग तक मध्यवर्ती पाठ सौ योजनों में पाये जाते हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकोतरिका-वृद्धि-समवाय ] [ 165 ४७७-समणस्स णं भगवो महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिआ अणुत्तरोववाइयसंपया होत्था / श्रमण भगवान महावीर के कल्याणमय गति और स्थिति वाले तथा भविष्य में मुक्ति प्राप्त करने वाले अनुत्तरोपपातिक मुनियों की उत्कृष्ट सम्पदा आठ सौ थी। ४७८-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अहिं जोयणसहि सूरिए चारं चरति / इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से पाठ सौ योजन की ऊंचाई पर सूर्य परिभ्रमण करता है। ___४७९-अरहओ णं रिट्ठनेमिस्स अट्ठसयाई वाईणं सदेवमणुयासुरंमि लोगमि वाए अपराजिआणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्था / 500 / अरिष्टनेमि अर्हत् के अपराजित वादियों की उत्कृष्ट वादिसम्पदा आठ सौ थी, जो देव, मनुष्य और असुरों में से किसी से भी वाद में पराजित होने वाले नहीं थे / 480- प्राणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु कप्पेसु विमाणा नव-नव जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता / निसढकूडस्स णं उवरिल्लानो सिहरतलाओ णिसढस्स वासहरपब्वयस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसयाई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते / एवं णोलवंतकडस्स वि। अानत, प्राणत, पारण और अच्युत इन चार कल्पों में विमान नौ-नौ सौ योजन ऊंचे हैं। निषध कूट के उपरिम शिखरतल से निषध वर्षधर पर्वत का सम धरणीतल नौ सौ योजन अन्तरवाला है। इसी प्रकार नीलवन्त कूट का भी अन्तर जानना चाहिए। विवेचन—समभूमि तल से निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत चार-चार सौ योजन ऊंचे हैं / और उनके निषध कूट और नीलवन्त कूट पाँच-पाँच सौ योजन ऊंचे हैं / अत: उक्त कूटों के ऊपरी भाग से दोनों ही वर्षधर पर्वतों के समभूमि का सूत्रोक्त नौ-नौ सौ योजन का अन्तर सिद्ध हो जाता है। ४८१.-विमलवाहणे णं कुलगरे णं नव धणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं होत्था / इमोसे णं रयणप्पभाए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ नहिं जोयणसएहि सव्वुवरिमे तारारूवे चारं चरइ। विमलवाहन कुलकर नौ सौ धनुष ऊंचे थे। इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसमरमणीय भूमि भाग से नौ सौ योजन की सबसे ऊपरी ऊंचाई पर तारा-मंडल संचार करता है / ४८२-निसढस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ सिहरतलाओ इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णते। एवं भीलवंतस्स वि / 900 / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [समवायाङ्गसत्र निषध वर्षधर पर्वत के उपरिम शिखरतल से इस रत्नप्रभा पृथिवी के प्रथम कांड के बहुमध्य देश भाग का अन्तर नौ सौ योजन है। इसी प्रकार कीलवन्त पर्वत का भी अन्तर नौ सौ योजन का समझना चाहिए। वर्षधर पर्वतों में निषध पर्वत तीसरा और नीलवन्त पर्वत चौथा है। दोनों का अन्तर समान है। ४८३--सव्वे वि णं गेवेज्जविमाणे दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ते / सव्वे वि णं जमगपव्वया दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। दस-दस गाउय. सयाई उब्वेहेणं पण्णत्ता / मूले दस-दस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता / एवं चित्त-विचित्तकडा विभाणियव्वा / सभी ग्रैवेयक विमान दश-दश सौ (1000) योजन ऊंचे कहे गये हैं। सभी यमक पर्वत दश-दश सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। तथा वे दश-दश सौ गव्यूति (1000 कोश) उद्वेध वाले कहे गये हैं / वे मूल में दश-दश सौ योजन आयाम-विष्कम्भ वाले हैं। इसी प्रकार चित्र-विचित्र कूट भी कहना चाहिए। विवेचन-नीलवन्त वर्षधर पर्वत के उत्तर में सीता महानदी के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु में यमक नाम के दो पर्वत हैं / इसी प्रकार देवकुरु में सोतोदा नदी के दोनों किनारों पर निषध पर्वत के दक्षिण में चित्र-विचित्र नाम के दो पर्वत हैं / यतः अढ़ाई दीप में पाँच-पाँच सीता और सीतोदा नदियां हैं, अत: उनके दश-दश यमक कूटों का निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया गया है। वे सभी एक-एक हजार योजन ऊंचे, एक-एक हजार कोश भूमि में गहरे और गोलाकार होने से सर्वत्र एक-एक हजार योजन पायाम-विष्कम्भ वाले अर्था 484 - सव्वे वि णं वट्टवेयड्ढपव्वया दस-दस जोयणसयाई उड्ढे उच्चतेणं पण्णता / दस-दस गाउयसयाई उध्वेहेणं पण्णत्ता।मूले दस-दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता / सम्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया पण्णत्ता। सभी वृत्त वैताढ्य पर्वत दश-दश सौ योजन ऊंचे हैं। उनका उदध दश-दश सौ गव्यूति है। वे मूल में दश-दश सौ योजन विष्कम्भ वाले हैं। उनका आकार ऊपर-नीचे सर्वत्र पत्यक (ढोल) के समान गोल है। 485 –सव्वे वि णं हरि-हरिस्तहकडा वक्खारकडवज्जा दस-दस जोयणसयाई उड़द उच्चत्तेणं पण्णत्ता / मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं [पण्णत्ता] / एवं बलकूडा वि नंदणकूडवज्जा। वक्षार कूट को छोड़ कर सभी हरि और हरिस्सह कट दश-दश सौ योजन ऊंचे हैं और मूल में दश सौ योजन विष्कम्भ वाले हैं। इसी प्रकार नन्दन-कूट को छोड़ कर सभी वलकूट भी दश सौ योजन विस्तार वाले जानना चाहिए। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकोत्तरिका-वृद्धि-समवाय] ४८६-अरहा णं अरिटुनेमी दस वाससयाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्ध बुद्ध जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / पासस्स णं अरहओ दस सयाई जिणाणं होत्था। पासस्स णं अरहओ दस अंतेवासीसयाई कालगयाइं जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई। अरिष्टनेमि अर्हत् दश सौ वर्ष (1000) की समग्र आयु भोग कर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए / पार्श्व अर्हत् के दश सौ अन्तेवासी (शिष्य) कालगत होकर सिद्ध, बुद्ध, कर्म-मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त और सर्व दुःखों से रहित हुए / ४८७-पउमद्दह-पुडरोयद्दहा य दस दस जोयणसथाई आयामेणं पण्णत्ता / 1000 / पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह दश-दश सौ (1000) योजन लम्बे कहे गये हैं / ४८८--अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता। अनुत्तरौपपातिक देवों के विमान ग्यारह सौ (1100) योजन ऊंचे कहे गये हैं। ४८९-पासस्स णं अरहओ इक्कारस सयाई वेउम्बियाणं होत्था / 1100 / पार्श्व अर्हत् के संघ में ग्यारह सौ (1100) वैक्रिय लब्धि से सम्पन्न साधु थे। ४९०-महापउभ-महापुडरीयदहाणं दो-दो जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता / 2000 / महापद्म और महापुडरीकद्रह दो-दो हजार योजन लम्बे हैं / 491-- इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ लोहियवखकंडस्स हेटिल्ले चरमंते एस णं तिन्नि जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / 3000 / इस रत्नप्रभा पृथिवी के वज्रकांड के ऊपरी चरमान्त भाग से लोहिताक्ष कांड का निचला चरमान्त भाग तीन हजार योजन के अन्तरवाला है। विवेचन--क्योंकि वज्रकांड दूसरा और लोहिताक्ष कांड चौथा है, और प्रत्येक कांड एक-एक हजार योजन मोटा है, अतः दूसरे कांड के उपरिम भाग से चौथे कांड का अधस्तन भाग तीन हजार योजन के अन्तरवाला स्वयं सिद्ध है। ४९२--तिगिछ-केसरिदहा णं चत्तारि-चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता / 4000 / तिगिछ और केशरी द्रह चार-चार हजार योजन लम्बे हैं / 493 -धरणितले मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभाए रुयगनाभोओ चउदिसि पंच-पंच जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे मंदरपवए पण्णत्ते / 5000 / धरणीतल पर मन्दर पर्वत के ठीक बीचों बीच रुचकनाभि से चारों ही दिशाओं में मन्दर पर्वत पाँच-पाँच हजार योजन के अन्तरवाला है / 5000 / विवेचन-समभूमि भाग पर दश हजार योजन के विस्तार वाले मन्दर पर्वत के ठीक मध्य Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [समवायाङ्गसूत्र भाग में आठ रुचक प्रदेश अवस्थित हैं / उनसे चारों ओर पाँच-पाँच हजार योजन तक मन्दर पर्वत की सीमा है। उसी का प्रस्तुत सूत्र में उल्लेख किया गया है। ४९४--सहस्सारे णं कप्पे छविमाणावाससहस्सा पण्णत्ता। 6000 / सहस्रार कल्प में छह हजार विमानावास कहे गये हैं। ४९५-इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लाप्रो चरमंताओ पुलगस्स फंडस्स हेट्ठिले चरमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / 7000 / रत्नप्रभा पृथिवी के रत्नकांड के ऊपरी चरमान्त भाग से पुलककांड का निचला चरमान्त भाग सात हजार योजन के अन्तरवाला है। विवेचन--रत्नप्रभा पृथिवी का रत्नकांड पहला है और पुलककांड सातवाँ है / प्रत्येक कांड एक-एक हजार योजन मोटा है / अत: प्रथम कांड के ऊपरी भाग से सातवें कांड का अधोभाग सात हजार योजन के अन्तर पर सिद्ध हो जाता है। ४९६-हरिवास-रम्मया णं वासा अट्ट जोयणसहस्साई साइरेगाई वित्थरेण पण्णत्ता / 8000 / हरिवर्ष और रम्यकवर्ष कुछ अधिक आठ हजार योजन विस्तारवाले हैं। ४९७–दाहिणड्ढ भरहस्स णं जीवा पाईण-पडीणायया दुहनो समुदं पुट्ठा नव जोयणसहस्साई आयामेणं पण्णत्ता / 9000 / [अजियस्स अरहनो साइरेगाई नव ओहिनाणसहस्साई होत्या।] पूर्व और पश्चिम में समुद्र को स्पर्श करने वाली दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र की जीवा नौ हजार योजन लम्बी है। [अजित अर्हत् के संघ में कुछ अधिक नौ हजार अवधिज्ञानी थे ] ४९८-मंदरे णं पवए धरणितले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते / 10000 / मन्दर पर्वत धरणीतल पर दश हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है / 499 -जम्बूदीवे णं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते / 100000 / जम्बूद्वीप एक लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला कहा गया है / ५००-लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कबालविक्खंभेणं पण्णत्ते / 200000 / लवण समुद्र चक्रवाल विष्कम्भ से दो लाख योजन चौड़ा कहा गया है। विवेचन-जैसे रथ के चक्र के मध्य भाग को छोड़कर उसके प्रारों की चौड़ाई चारों ओर एक सी होती है, उसी प्रकार जम्बद्वीप लवणसमद्र के मध्य भाग में अवस्थित होने से भाग जैसा है लवण समुद्र की चौड़ाई सभी अोर दो-दो लाख योजन है अत: उसे चक्रवालविष्कम्भ कहा गया है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकोत्तरिक-वृद्धि-समवाय] [169 ५०१-पासस्स अरहनो णं तिन्नि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपया होत्था / 327000 / पार्श्व अर्हत् के संघ तीन लाख सत्ताईस हजार श्राविकाओं की उत्कृष्ट सम्पदा थी। 502 --धायइखंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते / 400000 / धातकीखण्ड द्वीप चक्रवालविष्कम्भ की अपेक्षा चार लाख योजन चौड़ा कहा गया है। 503 -लवणस्स णं समुद्दस्स पुरच्छिमिल्लाप्रो चरमंताओ पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं पंच जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / 500000 / लवणसमुद्र के पूर्वी चरमान्त भाग से पश्चिमी चरमान्त भाग का अन्तर पाँच लाख योजन है। विवेचन -जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तृत है। उसके सभी ओर लवणसमुद्र दो-दो लाख योजन विस्तृत है / अतः जम्बूद्वीप का एक लाख तथा पूर्वी और पश्चिमी लवण समुद्र का विस्तार दो-दो लाख ये सब मिलाकर (1-2+2=5) पाँच लाख योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है। ५०४---भरहे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी छपुचसयसहस्साई रायमज्झे वसित्ता मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए। 600000 / ____ चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा छह लाख पूर्व वर्ष राजपद पर आसीन रह कर मुडित हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हुए। 505 --जंबूदीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ वेइयंताओ धायइखंडचक्कवालस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते सत्त जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / 700000 / इस जम्बूद्वीप की पूर्वी वेदिका के अन्त से धातकोखण्ड के चक्रवाल विष्कम्भ का पश्चिमी चरमान्त भाग सात लाख योजन के अन्तर वाला है। विवेचन--जम्बुद्वीप का एक लाख योजन, लवण समुद्र के पश्चिमी चक्रवाल का दो लाख योजन और धातकीखण्ड के पश्चिमी भाग का चक्रवाल विष्काम चार लाख योजन ये स (1+2-4 = 7) सात लाख योजन का सूत्रोक्त अन्तर सिद्ध हो जाता है। ५०६--माहिदे णं कप्पे अट्ठ विमाणावाससयसहस्साइपण्णत्ताइ / 800000 / माहेन्द्र कल्प में पाठ लाख विमानावास कहे गये हैं। 507 ---अजियस्स णं अरहओ साइरेगाईनव ओहिनाणिसहस्साइहोत्था / 9000 / अजित अर्हन के संघ में कुछ अधिक नौ हजार अवधि ज्ञानी थे।' 1. संस्कृत टीकाकार ने इस सूत्र पर पाश्चर्य प्रकट किया है कि लाखों की संख्या-वर्णन के मध्य में यह सहस्र संख्या वाला सूत्र कैसे पा गया ! उन्होंने यह भी लिखा है कि यह प्रतिलेखक का भी दोष हो सकता है। अथवा 'सहर' शब्द की समानता से यह सूत्र 'शतसहस्र संख्याओं के मध्य में दे दिया गया हो। वस्तुतः इमका स्थान नौ हजार की संख्या में होना चाहिए / अतएव वहाँ मूल पाठ और उसके अनुवाद को [ खड़े कोष्टक के भीतर दे दिया है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [समवायाङ्गसूत्र ५०८-पुरिससोहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता पंचमाए पुढवीए नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / 100000 / पुरुषसिंह वासुदेव दश लाख वर्ष की कुल आयु को भोग कर पाँचवीं नारकपृथिवी में नारक रूप से उत्पन्न हुए। ५०९-समणेणं भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गणाओ छ? पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडि सामनपरियागं पाउणित्ता सहस्सारे कप्पे सव्वट्टविमाणे देवत्ताए उववन्ने / 10000000 / श्रमण भगवान् महावीर तीर्थकर भव ग्रहण करने से पूर्व छठे पोट्टिल के भव में एक कोटि वर्ष श्रमण-पर्याय पाल कर सहस्रार कल्प के सर्वार्थ विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए थे। ५१०-उसभसिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोवमकोडाकोडी अबाहाए अंतरे पण्णत्त / 100000000000000 सा० / भगवान् श्री ऋषभदेव का और अन्तिम भगवान महावीर वर्धमान का अन्तर एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम कहा गया है / 100000000000000 सा० / Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांग गणि-पिटक ५११-दुवालसंगे गणिपिडगे पणत्त / तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विवाहपन्नत्ती गायाधम्मकहाओ उवासगदसाम्रो अंतगडदसामो अणुत्तरोववाइयवसामो पण्हावागरणाई विवागसुए दिट्टिवाए। गणि-पिटक द्वादश अंगस्वरूप कहा गया है। वे अंग इस प्रकार हैं-१ आचाराङ्ग, 2. सूत्रकृताङ्ग, 3. स्थानाङ्ग, 4. समवायाङ्ग, 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञाताधर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृत्दशा, 9. अनुत्तरोपपातिक दशा, 10. प्रश्नव्याकरण, 11. विपाकसूत्र और 12. दृष्टिवाद अंग। विवेचन-गुणों के गण या समूह के धारक आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ मंजूषा, पेटी या पिटारी है। प्राचार्यों के सर्वस्वरूप श्रुतरत्नों की मंजूषा को गणि-पिटक कहा है / जैसे मनुष्य के आठ अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रुतरूप परमपुरुष के बारह अंग होते हैं, उन्हें ही द्वादशाङ्ग श्रुत कहा जाता है। ५१२--से कि तं पायारे ? अायारे णं समणाणं णिगंथाणं आयार-गोयर-विणय-वेणइय-ठाणगमण-चंकमण-पमाण-जोगज़ जण-भासासमिति-गुत्ती-सेज्जो-वहि--भत्त-पाण--उग्गम--उप्पायण-एसणाविसोहि-सुद्धासुद्धग्गहण-वय-णियम-तवोवहाण-सुप्पसस्थमाहिज्जइ / यह आचाराङ्ग क्या है इसमें क्या वर्णन किया गया है ? आचाराङ्ग में श्रमण निर्ग्रन्थों के प्राचार, गोचरी, विनय, वैनयिक (विनय-फल) स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्त, पान, उद्गम, उत्पादन, एषणाविशुद्धि, शुद्ध-ग्रहण, अशुद्ध-ग्रहण, व्रत, नियम और तप उपधान, इन सबका सुप्रशस्त रूप से कथन किया गया है। विवेचन-जो सर्व प्रकार के प्रारम्भ और परिग्रह से रहित होकर निरन्तर श्रुत-अभ्यास और संयम-परिपालन करने में श्रम करते हैं, ऐसे श्रमण-निर्ग्रन्थ साधुओं का प्राचरण कैसा हो, गोचरी कैसी करें, विनय किसका और किस प्रकार करें, कैसे खड़े हों, कैसे गमन करें, कैसे उपाश्रय के भीतर शरीर-श्रम दूर करने के लिए इधर-उधर संचरण करें, उनकी उपधि का क्या प्रमाण हो, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि में किस प्रकार से अपने को तथा दूसरों को नियुक्त करें, किस प्रकार की भाषा बोलें, पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का किस प्रकार से पालन करें, शय्या, उपधि, भोजन, पान आदि की उद्गम और उत्पादन आदि दोषों का परिहार करते हुए किस प्रकार से गवेषणा करें, उसमें लगे दोषों की किस प्रकार से शुद्धि करें, कौन-कौन से व्रतों (मूल गुण) नियमों (उत्तरगुण) और तप उपधान (बारह प्रकार के तप) का किस प्रकार से पालन करें, इन सब कर्तव्यों का आचाराङ्ग में उत्तम प्रकार से वर्णन किया गया है। ५१३-से समासो पंचविहे पण्णते / तं जहा-णाणायारे दंसणायारे चरित्तायारे तवायारे विरियायारे / प्रायारस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीओ। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [समवायाङ्गसूत्र आचार संक्षेप से पाँच प्रकार का कहा गया है। जैसे—ज्ञानाचार, दर्शनाचार चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार / इस पाँच प्रकार के प्राचार का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र भी आचार कहलाता है। प्राचारांग की परिमित सूत्रार्थप्रदान रूप वाचनाएं हैं, संख्यात उपक्रम आदि अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेष्टक हैं, संख्यात श्लोक हैं, और संख्यात नियुक्तियाँ हैं / विवेचन--ज्ञान का विनय करना, स्वाध्याय-काल में पठन-पाठन करना, गुरु का नाम नहीं छिपाना, आदि पाठ प्रकार के व्यवहार को ज्ञानाचार कहते हैं। जिन-भाषित तत्त्वों में शंका नहीं करना, सांसारिक सुख-भोगों को प्राकांक्षा नहीं करना, विचिकित्सा नहीं करना आदि आठ प्रकार के सम्यक्त्वी व्यवहार के पालन करने को दर्शनाचार कहते हैं। पाँच महाव्रतों का, पाँच aa रूप चारित्र का निर्दोष पालन करना चारित्राचार है / बहिरंग और अन्तरंग तपों का सेवन करना तपाचार है। अपने आवश्यक कर्तव्यों के पालन करने में शक्ति को नहीं छिपा कर यथाशक्ति उनका भली-भांति से पालन करना वीर्याचार है। उक्त पाँच प्रकार के प्राचार की वाचनाएं परीत (सीमित) है / आचार्य-द्वारा आगमसूत्र और सूत्रों का अर्थ शिष्य को देना 'वाचना' कहलाती है। प्राचाराङ्ग की ऐसी वाचनाएं असंख्यात या अनन्त नहीं होती हैं, किन्तु परिगणित ही होती हैं, अतः उन्हें 'परीत' कहा गया है / ये वाचनाएं उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के कर्मभूमि के समय में ही दी जाती हैं, अकर्मभूमि या भोगभूमि के युग में नहीं दी जाती हैं। उपक्रम, नय, निक्षेप और अनुगम के द्वारा वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन किया जाता है, प्रत एव उन्हें अनुयोग-द्वार कहते हैं। आचाराङ्ग के ये अनुयोगद्वार भी संख्यात ही हैं / वस्तु-स्वरूप प्रज्ञापक वचनों को प्रतिपत्ति कहते हैं / विभिन्न मत वालों ने पदार्थों का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार से माना है, ऐसे मतान्तर भी संख्यात ही होते हैं / विशेष—एक विशेष प्रकार के छन्द को वेढ या वेष्टक कहते हैं / मतान्तर से एक विषय का प्रतिपादन करनेवाली शब्दसंकलना को वेढ (वेष्टक) कहते हैं। आचाराङ्ग के ऐसे छन्दोविशेष भी संख्यात ही हैं। जिस छन्द के एक चरण या पाद में आठ अक्षर निबद्ध हों, ऐसे चार चरणवाले अनुष्टुप् छन्द को श्लोक कहते हैं। आचाराङ्ग में प्राचारधर्म के प्रतिपादन करनेवाले श्लोक भी संख्यात ही हैं। सूत्र-प्रतिपादित संक्षिप्त अर्थ को शब्द की व्युत्पत्तिपूर्वक युक्ति के साथ प्रतिपादन करना नियुक्ति कहलाती है। ऐसी नियुक्तियाँ भी प्राचाराङ्ग की संख्यात हो हैं। ५१४-से गं अंगट्ठयाए पढमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीइं उद्देसणकाला, पंचासोई समृदेसणकाला, अद्वारस यदसहस्साई, पदम्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अिणंत पदसहस्साई, पदग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, [अणंता गमा] अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अजंता थावरा सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति सिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं गाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति दंसिज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति / से तं पायारे।। गणि-पिटक के द्वादशाङ्ग में अंगकी (स्थापना की) अपेक्षा 'आचार' प्रथम अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं, पचासी उद्देशन-काल हैं, पचासी समुद्देशन-काल हैं / पद-गणना की Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [173 अपेक्षा इसमें अट्ठारह हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, अत: उनके जानने रूप ज्ञान के द्वार भी अनन्त ही होते हैं पर्याय भी अनन्त हैं, क्योंकि वस्तु के धर्म अनन्त हैं। स जीव परीत (सीमित) हैं। स्थावर जीव अनन्त हैं। सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा शाश्वत (नित्य) हैं, पर्यायाथिक नय की अपेक्षा कृत (अनित्य) हैं, सर्व पदार्थ सूत्रों में निबद्ध (ग्रथित) हैं और निकाचित हैं अर्थात् नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि से प्रतिष्ठित हैं / इस प्राचाराङ्ग में जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रज्ञप्त (उपदिष्ट) भाव सामान्य रूप से कहे जाते हैं, विशेष रूप से प्ररूपण किये जाते हैं, हेतु, दृष्टान्त आदि के द्वारा दर्शाये जाते हैं, विशेष रूप से निर्दिष्ट किये जाते हैं, और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किये जाते हैं। प्राचाराङ्ग के अध्ययन से प्रात्मा वस्तु-स्वरूप का एवं आचार-धर्म का ज्ञाता होता है, गुणपर्यायों का विशिष्ट ज्ञाता होता है तथा अन्य मतों का भी विज्ञाता होता है। इस प्रकार प्राचारगोचरी आदि चरणधर्मो की, तथा पिण्डशुद्धि आदि करणधर्मों की प्ररूपणा-इसमें संक्षेप से की जाती है, विस्तार से की जाती है, हेतु-दृष्टान्त से उसे दिखाया जाता है, विशेष रूप से निर्दिष्ट किया जाता और उपनय-निगमन के द्वारा उपदर्शित किया जाता है / / 1 / / ५१५-से कि तं सूअगडे ? सूयगडे णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जति, ससमयपरसमया सूइज्जति, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जति, जीवाजीवा सूइज्जंति, लोगो सूइज्जति, अलोगो सूइज्जति लोगालोगो सूइज्जति / सूत्रकृत क्या है उसमें क्या वर्णन है ? सूत्रकृत के द्वारा स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, स्वसमय और पर-समय सूचित किये जाते हैं, जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, जीव और अजीव सूचित किये जाते हैं, लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। 516 --सयगडे णं जीवाजीव-पुण्ण-पावासव-संवर-निज्जरण-बंध-मोक्खावसाणा पयत्था सूइज्जति / समणाणं अचिरकालपब्वइयाणं कुसमयमोह-मोहमइ-मोहियाणं संदेहजायसहजबुद्धि परिणामसंसइयाणं पावकर-मलिनमइ-गुण-विसोहणत्थं असीअस्स किरियावाइयसयस्स, चउरासीए अकिरियवाईणं, सत्तट्ठीए अण्णाणियवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्हं तेवढीणं अण्णदिट्टियसयाणं बूहं किच्चा सममए ठाविज्जति / णाणादिद्वैत-वयण-णिस्सारं सुट्ट दरिसयंता विविहवित्थाराणुगमपरमसम्भावगुणविसिट्ठा मोहपहोयारगा उदारा अण्णाण-तमंधकारदुग्गेसु दीवभूआ सोवाणा चेव सिद्धिसुगइगिहुत्तमस्स शिक्खोभ-निष्पकंपा सुत्तत्था / सूत्रकृत के द्वारा जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष तक के सभी पदार्थ सचित किये जाते हैं / जो श्रमण अल्पकाल से ही प्रवजित हैं जिनकी बुद्धि खोटे समयों या सिद्धान्तों के सुनने से मोहित है, जिनके हृदय तत्त्व के विषय में सन्देह के उत्पन्न होने से आन्दोलित हो रहे हैं और सहज बुद्धि का परिणमन संशय को प्राप्त हो रहा है, उनकी पाप उपार्जन करनेवाली मलिन मति के दुर्गुणों के शोधन करने के लिए क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, प्रक्रियावादियों के Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [समवायाङ्गसूत्र चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवादियों के बत्तीस, इन सब (180+84-5-67+ 32 = 363) तीत सौ तिरेसठ अन्य वादियों का व्यूह अर्थात् निराकरण करके स्व-समय (जैन सिद्धान्त) स्थापित किया जाता है / नाना प्रकार के दृष्टान्तपूर्ण युक्ति-युक्त वचनों के द्वारा पर-मत के वचनों की भली भाँति से निःसारता दिखलाते हुए, तथा सत्पद-प्ररूपणा आदि अनेक अनुयोग द्वारों के द्वारा जीवादि तत्वों को विविध प्रकार से विस्तारानुगम कर परम सद्भावगुण-विशिष्ट, मोक्षमार्ग के अवतारक, सम्यग्दर्शनादि में प्राणियों के प्रवर्तक, सकलसूत्र-अर्थसम्बन्धी दोषों से रहित, समस्त सद्गुणों से सहित, उदार, प्रगाढ अन्धकारमयी दुर्गों में दीपकस्वरूप, सिद्धि और सुगति रूपी उत्तम गह के लिए सोपान के समान, प्रवादियों के विक्षोभ से रहित निष्प्रकम्प सूत्र और अर्थ सूचित किये जाते हैं। 517. - सूयगडस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ। सूत्रकृतांग की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियां संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं. श्लोक संख्यात हैं, और निर्यक्तियां संख्यात हैं। ५१८-से णं अंगट्ठायाए दोच्चे अंगे, दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेतीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पदसहस्साई पयम्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणताथावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आविज्जति विज्जंति परूविज्जति निर्वसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं आया, एवं विष्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति / से तं सुअगडे 2 / अंगों की अपेक्षा यह दूसरा अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, तेईस अध्ययन हैं, तेतीस उद्देशनकाल हैं, तेतीस समुद्देशनकाल हैं, पद-परिमाण से छत्तीस हजार पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्तगम और अनन्त पर्याय हैं। परिमित बस और अनन्त स्थावर जीवों का तथा नित्य, अनित्य सूत्र में साक्षात् कथित एवं नियुक्ति प्रादि द्वारा सिद्ध जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित पदार्थों का सामान्य-विशेष रूप में कथन किया गया है; नाम, स्थापना आदि भेद करके प्रज्ञापन किया है, नामादि के स्वरूप का कथन करके प्ररूपण किया गया है, उपमाओं द्वारा दर्शित किया गया है, हेतु दृष्टान्त आदि देकर निशित किया गया है और उपनय-निगमन द्वारा उपदर्शित किा इस अंग का अध्ययन करके अध्येता ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है / इस अंग में चरण (मूल गुणों) तथा करण (उत्तर गुणों) का कथन किया गया है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की गई है। उनका निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है / यह सूत्रकृतांग का परिचय है / / 2 / / विवेचन-जिन-भाषित सिद्धान्त को स्वसमय कहते हैं, कुतीथियों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त को परसमय कहते हैं / और दोनों के सिद्धान्तों को स्वसमय-परसमय कहा जाता है। दूसरे सूत्रकृतांग अंग में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है / तथा जीव-अजीव, लोक-अलोक, पुण्य-पाप आदि पदार्थों का विशद विवेचन किया है। यद्यपि अपनी-अपनी कल्पनाओं के अनुसार तत्त्वों का निरूपण करने वाले मत-मतान्तर अगणित हैं, फिर भी स्थूल रूप से उनको चार वर्गों में विभाजित किया गया है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक ] [175 वे हैं-१. क्रियावादो, 2. प्रक्रियावादी, 3. अज्ञानिक और 4. वैनयिक / इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 1. जो पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष को, तथा उनकी साधक-क्रियाओं को मानते हुए भी एकान्त पक्ष को पकड़े हुए हैं, वे क्रियावादी कहलाते हैं। उनकी संख्या एक सौ अस्सी है / वह इस प्रकार है--क्रियावादी जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप और मोक्ष इन नौ पदार्थों को मानते हैं / पुनः प्रत्येक पदार्थ को कोई स्वतः भी मानते हैं और कोई परतः भी मानते हैं / अतः नौ पदार्थों के अट्ठारह भेद हो जाते हैं / पुनः इन अट्ठारहों ही भेदों को कोई नित्यरूप मानते हैं और कोई अनित्य रूप मानते हैं, अतः अट्ठारह को दो से गुणित करने पर छत्तीस भेद हो जाते हैं / पुनः वे इन छत्तीसों भेदों को कोई कालकृत मानता है, कोई ईश्वरकृत मानता है, कोई आत्मकृत मानता है, कोई नियति-कृत मानता है और कोई स्वभावकृत मानता है। इस प्रकार इन पाँच मान्यताओं से उक्त छत्तीस भेदों को गुणित करने पर (3645-- 180) एक सौ अस्सी क्रियावादिया के भेद हो जाते हैं। 2. अक्रियावादी पुण्य और पाप को नहीं मानते हैं, केवल जीवादि सात पदार्थों को ही मानते हैं और उन्हें कोई स्वतः मानता है और कोई परत: मानता है। अतः सात को इन दो भेदों से गुणित करने पर चौदह भेद हो जाते हैं / पुनः इन चौदह भेदों को कोई कालकृत मानता है, कोई ईश्वरकृत मानता है, कोई प्रात्मकृत मानता है, कोई नियतिकृत मानता है, कोई स्वभावकृत मानता है और कोई यदृच्छा-जनित मानता है। इस प्रकार उक्त चौदह-पदार्थों को इन छह मान्यताओं से गुणित करने पर (1446-84) चौरासी भेद प्रक्रियावादियों के हो जाते हैं। 3. अज्ञानवादियों को मान्यता है कि कौन जानता है कि जीव है, या नहीं? अजीव है, या नहीं ? इत्यादि प्रकार से ये जीवादि पदार्थों को अज्ञान के झमेले में डालते हैं। तथा जिन देव ने इन नौ पदार्थों का (1) स्यादस्ति, (2) स्यानास्ति, (3) स्यादस्तिनास्ति, (4) स्यादवक्तव्य, (5) स्यादस्ति-प्रवक्तव्य, (6) स्यान्नास्ति-प्रवक्तव्य और (7) स्यादस्ति-नास्तिप्रवक्तव्य' इन सात भंगों के द्वारा निरूपण किया है, उनके विषय में भी अज्ञान को प्रकट करते हैं। इस प्रकार जीवादि नौ पदार्थों के विषय में उक्त सात भंग रूप अज्ञानता के कारण (947 = 63) तिरेसठ भेद हो जात हैं। तथा नौ पदार्थों के अतिरिक्त दशवीं उत्पत्ति के विषय में भी उक्त सात भंगों में से आदि के चार भंगों के द्वारा अजानकारी प्रकट करते हैं / इस प्रकार उक्त 63 में इन चार भेदों को जोड़ देने पर 67 भेद अज्ञानवादियों के हो जाते हैं। 4. विनयवादी सबका विनय करने को ही धर्म मानते हैं। उनके मतानुसार 1. देव, 2. नृपति, 3. ज्ञाति, 4. यति, 5. स्थविर (वृद्ध), 6. अधम, 7. माता और 8. पिता इन आठों की मन से, वचन से और काय से विनय करना और इनको दान देना धर्म है। इस प्रकार उक्त आठ को मन, वचन, काय और दान इन चार से गुणित करने पर बत्तीस (844= 32) भेद विनयवादियों के हो जाते हैं। उक्त चारों प्रकार के एकान्तवादियों के तीन सौ तिरेसठ मतों का स्याद्वाद की दृष्टि से निराकरण कर यथार्थ वस्तु-स्वरूप का निर्णय इस दूसरे सूत्रकृत अंग में किया गया है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [समवायाङ्गसूत्र ५१९-से कि तं ठाणे ?ठाणेणं ससमया ठाविज्जति, परसमया ठाविज्जंति, ससमय-परसमया ठाविज्जति, जीवा ठाविज्जंति, अजीवा ठाविज्जंति, जीवा-जीवा ठाविज्जति, लोगे ठाविज्जति, अलोगे ठाविज्जति, लोगालोगे ठाविज्जति / ठाणेणं दव-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पयत्थाणं सेला सलिला य समुद्दा सूर-भवण-विमाण-आगर-णदीयो। __ णिहिओ पुरिसज्जाया सरा य गोत्ता य जोइसंचाला // 1 // -एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवतव्वयं जाव दसविहवत्तध्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाई च णं परूवणया प्राविज्जति / स्थानाङ्ग क्या है—इसमें क्या वर्णन है ? जिसमें जीवादि पदार्थ प्रतिपाद्य रूप से स्थान प्राप्त करते हैं, वह स्थानाङ्ग है। इसके द्वारा स्वसमय स्थापित-सिद्ध किये जाते हैं, पर-समय स्थापित किये जाते हैं, स्वसमय-परसमय स्थापित किये जाते हैं। जीव स्थापित किये जाते हैं. अजीव स्थापित किये जाते हैं, जीव-अजीव स्थापित किये जाते हैं / लोक स्थापित किया जाता है, अलोक स्थापित किया जाता है, और लोक-प्रलोक दोनों स्थापित किये जाते हैं। स्थानाङ्ग में जीव आदि पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यायों का निरूपण किया गया है। तथा शैलों (पर्वतों) का, गंगा प्रादि महानदियों का, समुद्रों, सूर्यो, भवनों, विमानों, आकरों (स्वर्ण आदि की खानों) सामान्य नदियों, चक्रवर्ती की निधियों एवं पुरुषों की अनेक जातियों का स्वरों के भेदों, गोत्रों और ज्योतिष्क देवों के संचार का वर्णन किया गया है। तथा एक-एक प्रकार के पदार्थों का दो-दो प्रकार के पदार्थों का यावत दश-दश प्रकार के पदार्थों का कथन किया गया है। जीवों का, पुद्गलों का तथा लोक में अवस्थित अर्धास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी प्ररूपण किया गया है // 1 // ५२०-ठाणस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाम्रो संगहणीओ। स्थानाङ्ग की वाचनाएं परीत (सीमित) हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ (छन्दोविशेष) संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और संग्रहणियाँ संख्यात हैं। ५२१–से गं अंगट्ठयाए तइए अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, एक्कवीसं उद्देसणकाला, [एक्कवीसं समुद्दे सणकाला] वावरि पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता [गमा, अणंता] पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्रायविज्जति पण्णविज्जंति, परूविज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिर्जति / से एवं पाया, एवं णाया एवं विष्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति० / से तं ठाणे 3 / यह स्थानाङ्ग अंग की अपेक्षा तीसरा अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, इक्कीस उद्देशन-काल हैं, [इक्कीस समुद्देशन काल हैं। पद-गणना की अपेक्षा इसमें बहत्तर हजार पद हैं / संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं / अनन्त स्थावर हैं। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्गगणिपिटक] [177 द्रव्य-दृष्टि से सर्व भाव शाश्वत हैं, पर्याय-दृष्टि से अनित्य हैं, निबद्ध हैं, निकाचित (दृढ़ किये गये) हैं, जिन-प्रज्ञप्त हैं। इन सब भावों का इस अंग में कथन किया जाता है, प्रज्ञापन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, निदर्शन किया जाता है और उपदर्शन किया जाता है। इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है / इस प्रकार चरण और करण प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह तीसरे स्थानाङ्ग का परिचय है // 3 // ५२२-से कि तं समवाए ? समवाए णं ससमया सूइज्जंति, परसमया सूइज्जंति, ससमयपरसमया सूइज्जति / जीवा सूइज्जंति, अजीवा सूइज्जंति, जीवाजीवा सूइज्जति, लोगे सूइज्जति, अलोगे सुइज्जति, लोगालोगे सूइज्जति / समवायाङ्ग क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? समवायाङ्ग में स्वसमय सूचित किये जाते हैं, पर-समय सूचित किये जाते हैं, और स्वसमयपर-समय सूचित किये जाते हैं। जीव सूचित किये जाते हैं, अजीव सूचित किये जाते हैं, और जीवअजीव सूचित किये जाते हैं / लोक सूचित किया जाता है, अलोक सूचित किया जाता है और लोकअलोक सूचित किया जाता है। ५२३–समवाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिवुड्ढीए दुवालसंगस्स वि गणिपडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ, ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासेणं समोयारे आहिज्जति / तत्थ य णाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वणिया, वित्थरेण अवरे वि य बहुविहा विसेसा नरम-तिरिय-मणुअ-सुरगणाणं पाहारुस्सास-लेसा-आवास-संख-आययप्पमाण-उववायचवण-उम्गहणोवहि-वेयणविहाण-उपओग-जोग-इंदिय-कसाया विविहा य जीवजोणी विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुलगर-तित्थगर-गणहराणं सम्मत्त-भरहाहिवाण चक्कोणं चेव चक्कहर-हलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ एस्थ वित्थरेणं अस्था समाहिज्जति / समवायाङ्ग के द्वारा एक, दो, तीन को प्रादि लेकर एक-एक स्थान की परिवद्धि करते हुए शत, सहस्र और कोटाकोटी तक के कितने ही पदार्थों का और द्वादशाङ्ग गणिपिटक के पल्लवानों (पर्यायों के प्रमाण) का कथन किया जाता है। सौ तक के स्थानों का, तथा बारह अंगरूप में विस्तार को प्राप्त, जगत् के जीवों के हितकारक भगवान् श्रुतज्ञान का संक्षेप से समवतार किया जाता है / इस समवायाङ्ग में नाना प्रकार के भेद-प्रभेद वाले जीव और अजीव पदार्थ वर्णित हैं। तथा विस्तार से अन्य भी बहुत प्रकार के विशेष तत्वों का नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गणों के हार, उच्छवास. लेश्या. प्रावास-संख्या. उनके आयाम-विष्कम्भ का प्रमाण उपपात (जन्म) च्यवन (मरण) अवगाहना, उपधि, वेदना, विधान (भेद), उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, नाना प्रकार की जीव-योनियाँ, पर्वत-कूट ग्रादि के विष्कम्भ (चौड़ाई) उत्सेध (ऊंचाई) परिरय (परिधि) के प्रमाण, मन्दर आदि महीधरों (पर्वतों) के विधि-(भेद) विशेष, कुलकरों, तीर्थंकरों, गणधरों, समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी चक्रवर्तियों का, चक्रधर-वासुदेवों और हलधरों (बलदेवों) का, क्षेत्रों का, निर्गमों का Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [समवायाङ्गसूत्र अर्थात् पूर्व-पूर्व क्षेत्रों से उत्तर के (आगे के) क्षेत्रों के अधिक विस्तार का, तथा इसी प्रकार के अन्य भी पदार्थों का इस समवायाङ्ग में विस्तार से वर्णन किया गया है। ५२४–समवायस्स गं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगवारा, संखेज्जानो पडिवत्तीनो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीओ। समवायाङ्ग को वाचनाएं परीत हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियों संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और नियुक्तियां संख्यात हैं। ५२५-से णं अंगट्ठयाए चउत्थे अंगे, एगे अज्झयणे, एगे सुयक्खंधे, एगे उद्देसणकाले [एगे समुद्देसणकाले] / चउयाले पदसयसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ते / संखेज्जाणि अक्खराणि, अणंता गमा, अगंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासया कडा निबद्धा निकाइया जिणपण्णत्ता भाषा आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण परूवणया आघविज्जति से तं समवाए 4 / अंग की अपेक्षा यह चौथा अंग है, इसमें एक अध्ययन है, एक श्रुतस्कन्ध है, एक उद्देशन काल है, [एक समुद्देशन-काल है,] पद-गणना की अपेक्षा इसके एक लाख चवालीस हजार पद हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत प्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत, कृत (अनित्य), निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निशित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं / इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह चौथा समवायाङ्ग है 4 / ५२६-से कि तं विवाहे ? विवाहेणं ससमया विआहिज्जति, परसमया विआहिज्जति, ससमयपरसमया विआहिज्जति, जीवा विनाहिज्जंति, अजीवा विआहिज्जति, जीवाजीवा विआहिज्जंति, लोगे विआहिज्जइ, अलोए विवाहिज्जइ, लोगालोगे विवाहिज्जइ / व्याख्याप्रज्ञप्ति क्या है इसमें क्या वर्णन है ? व्याख्याप्रज्ञप्ति के द्वारा स्वसमय का व्याख्यान किया जाता है, पर-समय का व्याख्यान किया जाता है, तथा स्वसमय-परसमय का व्याख्यान किया जाता है। जीव ख्याख्यात किये जाते हैं, अजीव व्याख्यात किये जाते हैं, तथा जीव और अजीव व्याख्यात किये जाते हैं। लोक व्याख्यात किया जाता है, अलोक व्याख्यात किया जाता है / तथा लोक और अलोक व्याख्यात किये जाते हैं / ५२७–विवाहे णं नाणाविहसुर-नरिंद-रायरिसि-विविहसंसइन-पुच्छिआणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं दव्व-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पदेस-परिणाम-जहत्थिभाव-अणुगम-निक्खेव-णयप्पमाणसुनिउणोरक्कम-विविहप्पकार-पगडपयासियाणं लोगालोगपयासियाणं संसारसमुद्द-रुंद-उत्तरण-समत्थाणं सुरवइ-संपूजियाणं भवियजण-पय-हिययाभिनंदियाणं तमरय-विद्धंसणाणं सुदिट्ठदीवभूय-ईहामति Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिफ्टिक] 179 बुद्धि-बद्धणाणं छत्तीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दंसणाओ सुयस्थबहुविहप्पगारा सोसहियत्था य गुणमहत्था। व्याख्याप्रज्ञप्ति में नाना प्रकार के देवों, नरेन्द्रों, राषियों और अनेक प्रकार के संशयों में पड़े हुए जनों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का और जिनेन्द्र देव के द्वारा भाषित उत्तरों का वर्णन किया गया है। तथा द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल, पर्याय, प्रदेश-परिमाण, यथास्थित भाव, अनुगम, निक्षेप, नय, प्रमाण, सुनिपुण-उपक्रमो के विविध प्रकारों के द्वारा प्रकट रूप से प्रकाशित करने वाले, लो प्रकाशक, विस्तृत संसार-समुद्र से पार उतारने में समर्थ, इन्द्रों द्वारा संपूजित, भव्य जन प्रजा के, अथवा भव्य जन-पदों के हृदयों को अभिनन्दित करने वाले, तमोरज का विध्वंसन करने वाले, सुदृष्ट (सुनिर्णीत) दीपक स्वरूप, ईहा, मति और बुद्धि को बढ़ाने वाले ऐसे अन्यून (पूरे) छत्तीस हजार व्याकरणों (प्रश्नों के उत्तरों) को दिखाने से यह ब्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रार्थ के अनेक प्रकारों का प्रकाशक है, शिष्यों का हित-कारक है और गुणों से महान् अर्थ से परिपूर्ण है। ५२८-वियाहस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीग्रो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ। ___ व्याख्याप्रज्ञति की वाचनाएं परीत हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियां संख्यात हैं, वेढ (छन्दोविशेष) संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं और नियुक्तियाँ संख्यात हैं। ५२९-से गं अंगट्टयाए पंचमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, एगे साइरेगे अज्झयणसते, दस उद्देसगसहस्साई, दस समुद्देसगसहस्साई, छत्तीसं वागरणसहस्साई चउरासीइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। संखेज्जाइं अक्खराइं, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परिता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जति, परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया प्राधविज्जति०। से तं वियाहे 5 / यह व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग रूप से पाँचवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, सौ से कुछ अधिक अध्ययन हैं, दश हजार उद्देशक हैं, दश हजार समुद्देशक हैं, छत्तीस हजार प्रश्नों के उत्तर हैं। पद-गणना की अपेक्षा चौरासी हजार पद हैं। संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त-भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु के स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह पांचवें व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग का परिचय है 5 / विवेचन-प्राचारांग से लेकर समवायांग तक पदों का परिमाण दुगुना-दुगुना है किन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति के पदों में द्विगुणता का आश्रय नहीं लिया गया है / किन्तु यहाँ चौरासी हजार पदों का उल्लेख स्पष्ट है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180) [समवायाङ्गसूत्र ५३०-से कि तं णायाधम्मकहाओ ! णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराई उज्जाणाई चेइआई वणखंडा रायाणो 5, अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइअइड्ढोविसेसा 10, भोयपरिच्चाया पव्वज्जापो सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई परियागा 15, सलेहणाम्रो तपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायायाइं 20, पुणबोहिलाभा अंतकिरियानो 22 य आघविज्जंति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति / ज्ञाताधर्मकथा क्या है इसमें क्या वर्णन है ? ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञात अर्थात् उदाहरणरूप मेघकुमार आदि पुरुषों के 1 नगर, 2 उद्यान, 3 चैत्य, 4 वनखण्ड, 5 राजा, 6 माता-पिता, 7 समवसरण, 8 धर्माचार्य, 9 धर्मकथा, 10 इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, 11 भोग-परित्याग, 12 प्रव्रज्या, 13 श्रुतपरिग्रह, 14 तप-उपधान, 15 दीक्षापर्याय, 16 संलेखना, 17 भक्तप्रत्याख्यान, 18 पादपोपगमन, 19 देवलोक-गमन, 20 सुकुल में पुनर्जन्म, 21 पुनः बोधिलाभ और 22 अन्तक्रियाएं कही जाती हैं। इनकी प्ररूपणा की गई हैं, दर्शायी गई हैं, निदर्शित की गई हैं और उपदर्शित की गई हैं। ५३१–नायाधम्मकहासु णं पन्वइयाणं विणय-करण-जिणसामिसासणवरे संजमपइष्णपालणधिइ-मइ-ववसायदुब्बलाणं 1, तवनियम-तवोवहाण-रण-दुद्धर-भर-भग्गा-णिसहय-णिसिटाणं 2, घोरपरोसह-पराजियाणंऽसहपारद्ध-रुद्धसिद्धालय-महग्गा-निग्गयाणं 3, विसयसुह-तुच्छ-पासावस-दोसमुच्छियाणं 4, विराहिय-चरित्त-नाण-दसण-अइगुण-विविहप्पयार-निस्सारसुन्नयाणं 5, संसार-अपार-दुक्खदुग्गइ-भवविविह-परंपरापवंचा 6. धीराण य जियपरिसह-कसाय-सेण्ण-धिइ-धणिय-संजम-उच्छाहनिच्छियाणं 7, पाराहियनाण-दसण-चरित्तजोग-निस्सल्ल-सुद्धसिद्धालय-मग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसुक्खाई अणोवमाई भुत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिव्वाणि महरिहाणि / ततो य कालक्कमचुयाण जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया। चलियाण य सदेव-माणुस्सधीर-करणकारणाणि बोधण अणुसासणाणि गुण-दोस दरिसणाणि / विद्रुते पच्चये य सोऊण लोगमुणिणो जह य ठियासासणम्मि जर-मरण-नासणकरे पाराहिअसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता प्रोवेन्ति जह सासयं सिवं सव्वदुक्खमोक्खं, एए अण्णे य एवमाइअत्था वित्थरेण य / ज्ञाताधर्मकथा में प्रव्रजित पुरुषों के विनय-करण-प्रधान, प्रवर जिन-भगवान् के शासन की संयम-प्रतिज्ञा के पालन करने में जिनकी धृति (धीरता), मति (बुद्धि) और व्यवसाय (पुरुषार्थ) दुर्बल है, तपश्चरण का नियम और तप का परिपालन करनेरूप रण (युद्ध) के दुर्धर भार को वहन करने से भग्न हैं-पराङ मुख हो गये हैं, अत एव अत्यन्त अशक्त होकर संयम-पालन करने का संकल्प छोड़कर बैठ गये हैं, घोर परीषहों से पराजित हो चुके हैं इसलिए संयम के साथ प्रारम्भ किये गये मोक्ष-मार्ग के अवरुद्ध हो जाने से जो सिद्धालय के कारणभूत महामूल्य ज्ञानादि से पतित हैं, जो इन्द्रियों के तुच्छ विषय-सुखों की प्राशा के वश होकर रागादि दोषों से मूच्छित हो रहे हैं, चारित्र, ज्ञान, दर्शन स्वरूप यात-गुणों से और उनके विविध प्रकारों के प्रभाव से जो सर्वथा नि:सार और शून्य हैं, जो संसार के अपार दुःखों की ओर नरक, तिर्यंचादि नाना दुर्गतियों की भव-परम्परा से प्रपंच में पड़े हुए हैं, ऐसे पतित पुरुषों की कथाएं हैं। तथा जो धीर वीर हैं, परीषहों और कषायों की सेना को जीतने वाले हैं, धैर्य के धनी हैं, संयम में उत्साह रखने और बल-वीर्य के प्रकट करने में Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्गगणिपिटक] [181 दृढ़ निश्चय वाले हैं, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और समाधि-योग की जो पाराधना करने वाले हैं, मिथ्यादर्शन, माया और निदानादि शल्यों से रहित होकर शुद्ध निर्दोष सिद्धालय के मार्ग की ओर अभिमुख हैं, ऐसे महापुरुषों की कथाएं इस अंग में कही गई हैं। तथा जो संयम-परिपालन कर देवलोक में उत्पन्न हो देव-भवनों और देव-विमानों के अनुपम सुखों को और दिव्य, महामूल्य, उत्तम, भोगउपभोगों को चिर-काल तक भोग कर कालक्रम के अनुसार वहाँ से च्युत हो पुन: यथायोग्य मुक्ति के मार्ग को प्राप्त कर अन्तक्रिया से समाधिमरण के समय कर्म-वश विचलित हो गये हैं, उनको देवों और मनुष्यों के द्वारा धैर्य धारण कराने में कारणभूत, संबोधनों और अनुशासनों को, संयम के गुण और संयम से पतित होने के दोष-दर्शक दष्टान्तों को, तथा प्रत्ययों को, अर्थान बोधि के कारणभूत वाक्यों को सुनकर शुकपरिव्राजक आदि लौकिक मुनि जन भी जरा-मरण का नाश करने वाले जिन-शासन में जिस प्रकार से स्थित हुए, उन्होंने जिस प्रकार से संयम की आराधना की, पुनः देवलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ से आकर मनुष्य हो जिस प्रकार शाश्वत सुख को और सर्वदुःख-विमोक्ष को प्राप्त किया उनकी, तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक महापुरुषों की कथाएं इस अंग में विस्तार से कही गई हैं। ५३२–णायाधम्मकहासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीनो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाप्रो संगहणीओ। ज्ञाताधर्मकथा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५३३-से गं अंगट्ठयाए छठे अंगे, दो सुअक्खंधा, एगूणवीसं अज्झयणा / ते समासओ दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-चरिता य कप्पिया य / दस धम्मकहाणं वग्गा। तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई, एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइय-उवक्खाइयासयाई, एवमेव सप्पुवावरेणं अधुटाम्रो अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ। यह ज्ञाताधर्मकथा अंगरूप से छठा अंग है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं उनमें से प्रथम श्रुतस्कन्ध (ज्ञात) के उन्नीस अध्ययन हैं। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं चरित और कल्पित / (इनमें से प्रादि के दस अध्ययनों में आख्यायिका आदिरूप अवान्तर भेद नहीं हैं। शेष नौ अध्ययनों में से प्रत्येक में 540 आख्यायिकाएं प्रत्येक आख्यायिका में 500 उपाख्यायिकाएं और प्रत्येक उपाख्यायिका 500 आख्यायिका उपाख्यायिकाएं हैं। इन का कुल जोड (54045004 5004 9 = 1215000000) एक सौ इक्कीस करोड़ पचास लाख होता है।) धर्मकथानों के दश वर्ग हैं। उनमें से एक-एक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं, एक-एक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उपाख्यायिकाएं हैं, एक-एक उपाख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिका-उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार ये सब पूर्वापर से गुणित होकर [(5004 5004 500 = 125000000) बारह करोड़, पचास लाख होती हैं। धर्मकथा विभाग के दश वर्ग कहे गये हैं। अतः उक्त राशि को दश से गुणित करने पर (1250000004 10 = 1250000000) एक सौ पच्चीस करोड़ संख्या होती है। उसमें समान लक्षणवाली ऊपर कही पुनरुक्त (1215000000) कथानों को घटा देने पर (1250000000-1215000000 = 35000000) साढ़े तीन करोड़ अपुनरुक्त कथाएं हैं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] | समवायाङ्गसूत्र 534 - एगूणतीसं उद्देसणकाला, एगूणतीसं समुद्देसणकाला, संज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा निबद्ध निकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पाणविज्जति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति / से एवं प्राया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया प्राधविज्जंतिः / से तं णायाधम्मकहाओ 6 / ज्ञाताधर्मकथा में उनतीस उद्देशन काल हैं, उनतीस समूद्देशन-काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनंत गम हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस ज्ञाताधर्मकथा में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, निदर्शित किये गए हैं, और उशित किये गए हैं / इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा (कथाओं के माध्यम से) वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है / यह छठे ज्ञाताधर्मकथा अंग का परिचय ५३५-से कि तं उवासगदसाओ? उवासगदसासु उवासयाणं जगराई उज्जाणाई चेइआइं वणखडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइय-इडिविसेसा, उवासयाणं सीलव्वय-वेरमण-गुण-पच्चक्खाण-पोसहोववासपडिवज्जणयानो सुपरिग्गहा तवोवहाणा पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपचायाई पणो बोहिलाभा अंतकिरियाम्रो प्राविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / उपासकदशा क्या है-उसमें क्या वर्णन है ? उपासकदशा में उपासकों के 1 नगर, 2 उद्यान, 3 चैत्य, 4 वनखण्ड, 5 राजा, 6 माता-पिता, 7 समवसरण, 8 धर्माचार्य, 9 धर्मकथाएं, 10 इहलौकिक-पारलौकिक ऋषि-विशेष, 11 उपासकों के शीलव्रत, पाप-विरमण, गुण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास-प्रतिपत्ति, 12 श्रुत-परिग्रह, 13 तप-उपधान, 14 ग्यारह प्रतिमा, 15 उपसर्ग, 16 संलेखना, 17 भक्तप्रत्याख्यान, 18 पादपोपगमन, 19 देवलोक गमन, 20 सुकुल-प्रत्यागमन, 21 पुनः बोधिलाभ और 22 अन्तक्रिया का कथन किया गया है, प्ररूपणा की गई है, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। ५३६--उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसा वित्थरधम्मसवणाणि बोहिलाभअभिगम-सम्मत्तविसुद्धया थिरतं मूलगुण-उत्तरगुणाइयारा ठिईविसेसा पडिमाभिग्गहरगहणपालणा उक्सग्गाहियासणा णिरुवसग्गा य तवा य विचित्ता सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासा अपच्छिममारणंतियाऽ य संलेहणा-झोसणाहि अप्पाणं जह य भावइत्ता बहूणि भत्ताणि अणसणाए य छेअइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुत्तसेसु जह अणुभवंति सुरवर-विमाणवर-पोंडरीएसु सोक्खाई अणोवमाइं कमेण भुत्तूण उत्तमाइं तओ आउक्खएणं चुया समाणा जह जिणमयम्मि बोहि लक्ष्ण य संजमुत्तमं तमरयोपविष्पमुक्का उति जह अक्खयं सव्वदुक्खमोक्खं / एते अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण य। उपासकदशांग में उपासकों (श्रावकों) की ऋद्धि-विशेष, परिषद् (परिवार), विस्तृत धर्म-श्रमण बोधिलाभ, धर्माचार्य के समीप अभिगमन, सम्यक्त्व की विशुद्धता, व्रत की स्थिरता, मूलगुण और उत्तर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [183 गुणों का धारण, उनके अतिचार, स्थिति-विशेष (उपासक-पर्याय का काल-प्रमाण), प्रतिमाओं का ग्रहण, उनका पालन, उपसर्गों का सहन, या निरुपसर्ग-परिपालन, अनेक प्रकार के तप, शील, व्रत, गुण, वेरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास और अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना जोषमणा (सेवना) से आत्मा को यथाविधि भावित कर, बहुत से भक्तों (भोजनों) को अनशन तप से छेदन कर, उत्तम श्रेष्ठ देव-विमानों में उत्पन्न होकर, जिस प्रकार वे उन उत्तम विमानों में अनुपम उत्तम सुखों का अनुभव करते हैं, उन्हें भोग कर फिर आयु का क्षय होने पर च्युत होकर (मनुष्यों में उत्पन्न होकर) और जिनमत में बोधि को प्राप्त कर तथा उत्तम संयम धारण कर तमोरज (अज्ञान-अन्धकार रूप पाप-धूलि) के समूह से विप्रमुक्त होकर जिस प्रकार अक्षय शिव-सुख को प्राप्त हो सर्व दुःखों से रहित होते हैं. इन सबका और इसी प्रकार के अन्य भी अर्थों का इस उपासकदशा में विस्तार से वर्णन किया गया है। ५३७-उवासगदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीनो, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीओ। उपासकदशा अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। 538 -से गं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जाई अक्खराइं, अणंत प्रणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्राविज्जति पण्णविज्जति, परूविज्जंति, निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं आया से एवं गाया, एवं विष्णाया, एवं चरइ-करण परूवणया प्राधविज्जति / से तं उबासगदसाओ 7 / यह उपासकदशा अंग की अपेक्षा सातवां अंग है / इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं। पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं, संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सब शाश्वत, अशाश्वत, निबद्ध निकाचित जिनप्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे गए हैं, प्रज्ञापित किये गए हैं, प्ररूपित किये गए हैं, निदर्शित और उपदर्शित किये गए हैं / इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह सातवें उपासकदशा अंग का विवरण है। ५३९-से कि तं अंतगडदसायो ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं जगराइं उज्जाणाई चेइयाई वणाइ (वणखण्डा) राया अम्मा-पियरो समोसरणा धम्मायरिया धम्मकहा इहलोइअ-परलोइअ-इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाम्रो सयपरिग्गडा तवोवहाणाई पडिमानो बहुविद्वानो खम महवं च सोअंच सच्चसहियं सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बंभं आकिंचणया तवो चियानो समिइगुत्तीओ चेव / तह अप्पमायजोगो सज्झायज्झाणाण य उत्तमाणं दोण्हं पि लक्खणाई। पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसहाणं चउन्विहकम्मक्खयम्मि जह केवलस्स लंभो परियाओ जत्तिओ य जह पालियो मुहिं पायोवगयो य, जो जहि जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडो मुनिवरो तमरयोघ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [समवायाङ्गसूत्र विष्पमुक्को मोक्खसुहमणुत्तरं पत्ता / एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेणं परवेई / अन्तकृद्दशा क्या है इसमें क्या वर्णन है ? अन्तकृत्दशाओं में कर्मों का अन्त करने वाले महापुरुषों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि-विशेष, भोग परित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, अनेक प्रकार की प्रतिमाएं, क्षमा, प्रार्जव, मार्दव, सत्य, शौच, सत्तरह प्रकार का संयम, उत्तम ब्रह्मचर्य, आकिंचन्य, तप, त्याग का तथा समितियों और का वर्णन है। अप्रमाद-योग और स्वाध्याय-ध्यान योग, इन दोनों उत्तम मूक्ति-साधनों का स्वरूप, उत्तम संयम को प्राप्त करके परीषहों को सहन करने वालों को चार प्रकार के घातिकर्मों के क्षय होने पर जिस प्रकार केवलज्ञान का लाभ हुआ, जितने काल तक श्रमण-पर्याय और केवलि-पर्याय का पालन किया, जिन मुनियों ने जहाँ पादपोपगमसंन्यास किया, जो जहाँ जितने भक्तों का छेदन कर अन्तकृत मुनिवर अज्ञानान्धकार रूप रज के पुंज से विप्रमुक्त हो अनुत्तर मोक्ष-सुख को प्राप्त हुए, उनका और इसी प्रकार के अन्य अनेक अर्थों का इस अंग में विस्तार से प्ररूपण किया गया है। ५४०-अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जग्ओ संगहणीओ। अन्तकृत्दशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ और श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। ५४१-से णं अंगठ्ठयाए अट्टमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, सत्त वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अवखरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति, पण्णविज्जति, परूविज्जति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति / से एवं पाया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति / से तं अंतगडदसाओ८ / अंग की अपेक्षा यह आठवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है। दश अध्ययन हैं, सात वर्ग हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं, पदगणना की अपेक्षा संख्यात हजार पद हैं / संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं। ये सभी शाश्वत, अशाश्वत निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग के द्वारा कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं. निशित किये जाते हैं और उपशित किये जाते हैं। इस अंग का अध्येता आत्मा ज्ञाता हो जाता है, विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। यह पाठवें अन्तकृत्दशा अंग का परिचय है। ५४२--से कि तं अणत्तरोववाइयदसाम्रो ? अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोग-परलोग-इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पवज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहणाइं परियागो Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक ] [195 पडिमाओ संलेहणाओ भतपाणपच्चक्खाणाइं पाओवगमणाई अणुत्तरोवबानो सुकुलपच्चायाई, पुणो बोहिलाभो अंतकिरियायो य आघविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति / अनुत्तरोपपातिकदशा क्या है ? इसमें क्या वर्णन है ? अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले महा अनगारों के नगर, उद्यान चैत्य, वनखंड, राजगण, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धियां, भोग-परित्याग. प्रव्रज्या. श्रत का परिग्रहण, तप-उपधान, पर्याय, प्रतिमा, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, अनुत्तर विमानों में उत्पाद, फिर सूकूल में जन्म, पूनः बोधि-लाभ और अन्तक्रियाएं कही गई हैं, उनकी प्ररूपणा की गई है, उनका दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है। ५४३---अणुत्तरोववाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाइं परममंगल-जगहियाणि जिणातिसेसाय बहुविसेसा जिणसोसाणं चेव समणगण-पवर-गंधहत्थोणं थिरजसाणं परीसहसेण्ण-रिउबल-पमद्दणाणं तव दित्त चरित्त-णाण-सम्मत्तसार-विविहप्पगार-वित्थर-पसत्थगुणसंजुयाणं अणगारमहरिणीणं अणगारगुणाण वण्णओ, उत्तमवरतव-विसिटणाण-जोगजुत्ताणं, जह य जगहियं भगवनो जारिसा इडिविसेसा देवाप्नुर-माणुसाणं परिसाणं पाउडभावा य जिणसमीवं, जह य उवासंति, जिणवरं जह य परिकहंति धम्मं लोगगुरू अमर-नर-सुर-गणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अन्भवेति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरिता आराहियनाणदंसण-चरित्त-जोगा जिणवयणमणुगयमहियं भासिया जिणवराण हिययेणमणुण्णेत्ता जे य हिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लद्धण य समाहिमुत्तमज्झाणजोगजुत्ता उववन्ना मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं / तओ य चुप्रा कमेण काहिंति संजया जहा य अंत किरियं एए अन्न य एबमाइअत्था वित्थरेण। अनुत्तरोपपातिकदशा में परम मंगलकारी, जगत-हितकारी तीर्थंकरों के समवसरण और बहुत प्रकार के जिन-अतिशयों का वर्णन है। तथा जो श्रमणजनों में प्रवरगन्धहस्ती के समान श्रेष्ठ हैं, स्थिर यशवाले हैं, परीषह-सेना रूपी शत्रु-बल के मर्दन करने वाले हैं, तप से दीप्त हैं, जो चारित्र, ज्ञान, सम्यक्त्वरूप सारवाले अनेक प्रकार के विशाल प्रशस्त गुणों से संयुक्त हैं, ऐसे अनगार महर्षियों के अनगार-गुणों का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन है। अतीव, श्रेष्ठ तपोविशेष से और विशिष्ट ज्ञान-योग से युक्त हैं, जिन्होंने जगत् हितकारी भगवान् तीर्थंकरों की जैसी परम आश्चर्यकारिणी ऋद्धियों को विशेषताओं को और देव, असुर, मनुष्यों को सभाओं के प्रादुर्भाव को देखा है, वे महापुरुष जिस प्रकार जिनवर के समीप जाकर उनकी जिस प्रकार से उपासना करते हैं, तथा अमर, नर, सुरगणों के लोकगुरु वे जिनवर जिस प्रकार से उनको धर्म का उपदेश देते हैं वे क्षीणकर्मा महापुरुष उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म को सुनकर के अपने समस्त काम-भोगों से और इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर जिस प्रकार से उदार धर्म को और विविध प्रकार से संयम और तप को स्वीकार करते हैं, तथा जिस प्रकार से बहुत वर्षों तक उनका आचरण करके, ज्ञान, दर्शन, चारित्र योग की आराधना कर जिन-वचन के अनुगत (अनुकूल) पूजित धर्म का दूसरे भव्य जीवों को उपदेश देकर और अपने शिष्यों को अध्ययन करवा तथा जिनवरों की हृदय से आराधना कर वे उत्तम मुनिवर जहां पर जितने भक्तों का अनशन के द्वारा छेदन कर, समाधि को प्राप्त कर और उत्तम ध्यान योग से नि योग से युक्त होते Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [ समवायाङ्गसूत्र हुए जिस प्रकार से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं और वहां जैसे अनुपम विषय-सौख्य को भोगते हैं, उस सब का अनुत्तरोपपातिकदशा में वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् वहां से च्युत होकर वे जिस प्रकार से संयम को धारण कर अन्तक्रिया करेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे, इन सब का, तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थों का विस्तार से इस अंग में वर्णन किया गया है। ५४४-अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेज्जाम्रो संगहणोओ। अनुत्तरोपपातिकदशा में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५४५--से गं अंगठ्ठयाए नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं, पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जाणि अक्खराणि, अजंता गमा, प्रणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आविज्जंति पण्णविज्जंति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति। से एवं प्राया, से एवं गाया एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति० / से तं अणुत्तरोववाइयदसानो 9 / ___ यह अनुत्तरोपपातिकदशा अंगरूप से नौवां अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, तीन वर्ग हैं, दश उद्देशन-काल हैं, दश समुद्देशन-काल हैं, तथा पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं।' इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परिमित त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं / ये सब शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित, जिन-प्रज्ञप्त भाव इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदर्शित किये जाते हैं / इस अग के द्वारा प्रात्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह नवें अनुत्तरोपपातिकदशा अंग का परिचय है। ५४६-से कि तं पण्हावागरणाणि ? पण्हावागरणेसु अठुत्तरं पसिणसयं अठ्ठत्तरं अपसिणसयं अठ्ठत्तरं पसिणापसिणसयं विज्जाइसया नाग-सुवन्न हि सद्धि दिवा संवाया आविज्जति / प्रश्नव्याकरण अंग क्या है— इस में क्या वर्णन है ? प्रश्नव्याकरण अंग में एक सौ आठ प्रश्नों, एक सौ आठ अप्रश्नों और एक सौ पाठ प्रश्नाप्रश्नों को, विद्यानों के अतिशयों को तथा नागों-सुपर्णों के साथ दिव्य संवादों को कहा गया है। विवेचन-अंगुष्ठप्रश्न आदि मंत्रविद्याएं प्रश्न कहलाती हैं / जो विद्याएं जिज्ञासु के द्वारा पूछे 1. टीकाकार का कथन है-वर्ग अध्ययनों का समूह कहलाता है। वर्ग में अध्यबन दस हैं और एक वर्ग का उद्देशन एक साथ होता है। अतएव इसके उद्देशनकाल तीन ही होने चाहिए / नन्दीसूत्र में भी तीन का ही उल्लेख है। किन्तु यहाँ दश उद्देशनकाल कहने का अभिप्राय क्या है, समझ में नहीं पाता / —सम्पादक Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाक्ष गणिपिटक] [187 जाने पर शुभाशुभ फल बतलाती हैं, वे प्रश्न-विद्याएं कहलाती हैं। जो विद्याएं मंत्र-विधि से जाप किये जाने पर बिना पूछे ही शुभाशुभ फल को कहती हैं, वे अप्रश्न-विद्याएं कहलाती हैं। तथा जो विद्याएं कुछ प्रश्नों के पूछे जाने पर और कुछ के नहीं पूछे जाने पर भी शुभाशुभ फल को कहती हैं, वे प्रश्नाप्रश्न विद्याएं कहलाती हैं / इन तीनों प्रकार की विद्याओं का प्रश्नव्याकरण अंग में वर्णन किया गया है / तथा स्तंभन, वशीकरण, उच्चाटन आदि विद्याएं विद्यातिशय कहलाती हैं / एवं विद्यानों के साधनकाल में नागकुमार, सुपर्ण कुमार तथा यक्षादिकों के साथ साधक का जो दिव्य तात्त्विक वार्तालाप होता है वह दिव्यसंवाद कहा गया है। इन सबका इस अंग में निरूपण किया गया है। ५४७---पण्हावागरणदसासु णं ससमय-परसमय पण्णवय-पत्तेप्रबद्ध-विविहत्थभासाभासियागं अइसय गुण-उवसम-णाणप्पगार-आयरियभासियागं वित्थरेणं विरमहेसीहि विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं अदागंगुट्ठ-बाहु-असि-मणि-खोम-प्राइच्चभासियाणं विविहमहापसिणविज्जा-मणपसिणविज्जा-देवयफ्योग-पहाण-गुणप्पगासियाणं सब्भूयदुगुणप्पभाव-नरगणमइविम्हयकराणं अइसयमईयकालसमय-दम-सम-तित्थकरुत्तमस्म ठिइकरणकारणाणं दुरहिगम-दुरवगाहस्स सव्वसध्वन्नुसम्मअस्स अबुहजण-विबोहण करस्स पच्चक्खयपच्चयकराणं पव्हाणं विविहगुणमहत्था जिणवरप्पणीया आघविज्जति / प्रश्नव्याकरणदशा में स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक प्रत्येकबुद्धों के विविध अर्थों वाली भाषानों द्वारा कथित वचनों का प्रामों षधि आदि अतिशयों, ज्ञानादि गुणों और उपशम भाव के प्रतिपादक नाना प्रकार के प्राचार्यभाषितों का, विस्तार से कहे गये वीर महर्षियों के जगत् हितकारी अनेक प्रकार के विस्तृत सुभाषितों का, आदर्श (दर्पण) अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) और सूर्य आदि के आश्रय से दिये गये विद्या-देवताओं के उत्तरों का इस अंग में वर्णन है। अनेक महाप्रश्नविद्याएं वचन से ही प्रश्न करने पर उत्तर देती हैं, अनेक विद्याएं मन से चिन्तित प्रश्नों का उत्तर देती हैं, अनेक विद्याएं अनेक अधिष्ठाता देवताओं के प्रयोग-विशेष की प्रधानता से अनेक अर्थों के संवादक गुणों को प्रकाशित करती हैं, और अपने सद्भूत (वास्तविक) द्विगुण प्रभावक उत्तरों के द्वारा जन समुदाय को विस्मित करती हैं। उन विद्याओं के चमत्कारों और सत्य वचनों से लोगों के हृदयों में यह दृढ़ विश्वास उत्पन्न होता है कि अतीत काल के समय में दम और शम के धारक, अन्य मतों के शास्तानों से विशिष्ट जिन तीर्थकर हुए हैं और वे यथार्थवादी थे, अन्यथा इस प्रकार के सत्य विद्यामंत्र संभव नहीं थे, इस प्रकार संशयशोल मनुष्यों के स्थिरीकरण के कारणभूत दुरभिगम (गम्भीर) और दुरवगाह (कठिनता से अवगाहन-करने के योग्य) सभी सर्वज्ञों के द्वारा सम्मत, अबुध (अज्ञ) जनों को प्रबोध करने वाले, प्रत्यक्ष प्रतीति-कारक प्रश्नों के विविध गुण और महान् अर्थ वाले जिनवर-प्रणीत उत्तर इस अंग में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदर्शित किये जाते हैं। ५४८–पण्हावागरणेसु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीग्रो, संखेज्जाओ संगहणीओ। प्रश्नव्याकरण अंग में परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [समवायाङ्गसूत्र ५४९-से णं अंगट्टयाए दसमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संज्खेजाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताई / संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जति पण्णविज्जसि परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिर्जति / से एवं आया, से एवं णाया, एवं विणाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति० से तं पण्हावागरणाई१०। प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दशवां अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, पैतालीस उद्देशन-काल हैं, पैंतालिस समुद्देशन-काल हैं। पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं अनन्त गम है, अनन्त पर्याय हैं, परीत स हैं, अनन्त स्थावर है, इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं, और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा प्रात्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह दशवें प्रश्नव्याकरण अंग का परिचय है 10 / ५५०–से कि तं विवागसुयं? विवागसुए णं सुक्कड-दुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे प्राघविज्जति / से समासओ दुबिहे पण्णते। तं जहा-दुहविवागे चेव, सुहविवागे चेव, तत्थ गं दस दुहविवागाणि, दस सुहविवागाणि / विपाकसूत्र क्या है ---इसमें क्या वर्णन है ? विपाकसूत्र में सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) कर्मों का फल-विपाक कहा गया है। यह विपाक संक्षेप से दो प्रकार का है-दुःख-विपाक और सुख-विपाक। इनमें दुःख-विपाक में दश अध्ययन हैं और सुख-विपाक में भी दश अध्ययन हैं। ५५१-से कि तं दुहविवागाणि ? दुहविवागेसु गं दुहविवागाणं नगराई उज्जाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ नगरगमणाई संसारपबंधे दुहपरंपरानो य आघविज्जति / से त्तं दुहविवागाणि / यह दुःख विपाक क्या है इसमें क्या वर्णन है ? दुःख-विपाक में दुष्कृतों के दुःखरूप फलों को भोगनेवालों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, (गौतम स्वामी का भिक्षा के लिए) नगर-गमन, (पाप के फल से) संसार-प्रबन्ध में पड़ कर दु:ख परम्पराओं को भोगने का वर्णन किया जाता है। यह दुःख-विपाक है। ५५२–से कि तं सुहविवागाणि ? सुहविवागेसु सुहविवागाणं णगराई उज्जाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो अम्मा-पियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहानो इहलोइय-परलोइय-इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाइं परियागा पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाइं पायोवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाई पुणबोहिलाहा अंतकिरियाओ य आघविज्जंति। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [189 सुख-विपाक क्या है इसमें क्या वर्णन है ? सुख-विपाक में सुकृतों के सुखरूप फलों को भोगनेवालों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता-पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथाएं, इहलौकिक-पारलौकिक ऋद्धि विशेष, भोगपरित्याग, प्रव्रज्या, श्रुत-परिग्रह, तप-उपधान, दीक्षा पर्याय, प्रतिमाएं, संलेखनाएं, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक-गमन, सुकुल-प्रत्यागमन, पुन: बोधिलाभ और उनकी अन्तक्रियाएं कही ५५३-दुहविवागेसु णं पाणाइवाय-अलियवयण-चोरिक्करण-परदारमेहुण-ससंगयाए महतिव्वकसाय-इंदियप्पमाय-पावप्पओय-असुहन्झवसाणसंचियाणं कम्माणं पावगाणं पाव अणुभागफलविवागा णिरयगति-तिरिक्खजोणि-बहुविहवसण-सय-परंपरापबद्धाणं मणुयत्ते वि आगयाणं जहा पावकम्मसेसेण पावमा होति फलविवागा वह-वसण-विणास-नासा-कन्नुटगुट-कर-चरण-नहच्छयण जिम्भ-च्छेअण अंजणकडग्गिदाह-गयचलण-मलण-फालण-उल्लंवण-सूललया-लउड-लट्ठि-भंजण-तउसीसगतत्ततेल्ल-कलकल-अहिसिचण-कुभिपाग-कंपण-थिरबंधण-वेह-वज्झ-कत्तण-पतिभय-कर-करपलीवणादिदारुणाणि दुक्खाणि अणोवमाणि बहुविविहपरंपराणुबद्धा ण मुच्चंति पावकम्मवल्लीए। अवेयइत्ता हु णत्थि मोक्खो तवेण धिइधणियबद्धकच्छेण सोहणं तस्स वावि हुज्जा / दु:ख-विपाक के प्राणातिपात, असत्य वचन, स्तेय, पर-दार-मैथुन, ससंगता (परिग्रह-संचय) हातीव्र कषाय, इन्द्रिय-विषय-सेवन, प्रमाद, पाप-प्रयोग और अशुभ अध्यवसानों (परिणामों) से संचित पापकर्मों के उन पापरूप अनुभाग-फल-विपाकों का वर्णन किया गया है जिन्हें नरकगति, और तिर्यग-योनि में बहुत प्रकार के सैकड़ों संकटों की परम्परा में पड़कर भोगना पड़ता है। वहाँ से निकल कर मनुष्य भव में आने पर भी जीवों को पाप-कर्मों के शेष रहने से अनेक पापरूप अशुभफलविपाक भोगने पड़ते हैं, जैसे-वध (दण्ड आदि से ताड़न, वृषण-विनाश (नपुसकीकरण), नासा-कर्तन, कर्ण-कर्तन, प्रोष्ठ-छेदन, अंगुष्ठ-छेदन, हस्त-कर्तन, चरण-छेदन, नख-छेदन, जिह्वा-छेदन-अंजन-दाह (उष्ण लोहशलाका से प्रांखों को आंजना-फोड़ना), केटाग्निदाह (वांस से बनी चटाई से शरीर को सर्व ओर से लपेट कर जलाना), हाथी के पैरों के नीचे डालकर शरीर को कुचलवाना, फरसे आदि से शरीर को फाडना, रस्सियों से बांधकर वक्षों पर लटकाना. त्रिशल-लता. लकट (मठ वाला डंडा) और लकड़ी से शरीर को भग्न करना, तपे हुए कड़कड़ाते रांगा, सीसा एवं तेल से शरीर का अभिसिंचन करना, कुम्भी (लोह-भट्टी) में पकाना, शीतकाल में शरीर पर कंपकंपी पैदा करने वाला अतिशीतल जल डालना, काष्ठ आदि में पैर फंसाकर स्थिर (दृढ़) बाँधना, भाले आदि शस्त्रों से छेदन-भेदन करना, वर्द्धकर्तन (शरीर की खाल उधेड़ना) अति भय-कारक कर-प्रदीपन (वस्त्र लपेटकर और शरीर पर तेल डालकर दोनों हाथों में अग्नि लगाना) अादि अति दारुण, अनुपम दुःख भोगने पड़ते हैं / अनेक भव-परम्परा में बंधे हुए पापी जीव पाप कर्मरूपी वल्ली के दुःख-रूप फलों को भोगे बिना नहीं छूटते हैं / क्योंकि कर्मों के फलों को भोगे विना उनसे छुटकारा नहीं मिलता / हाँ, चित्त-समाधिरूप धैर्य के साथ जिन्होंने अपनी कमर कस ली है उनके तप-द्वारा उन पाप-कर्मों का भी शोधन हो जाता है। ५५४–एतो य सुहविवागेसु णं सोल-संजम-नियम-गुण-तवोवहाणेसु साहूसु सुविहिएसु अणुकंपासयप्पओग-तिकालमइविसुद्ध-भत्त-पाणाई पययमणसा हिय-सुह-नीसेस-तिवपरिणाम-निच्छिय For Private & Personal use only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [समवायाङ्गसूत्र मई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाई जह य नित्तिति उ बोहिलाभं जह य परित्तीकरेंति नर-नरय-तिरियसुरगमण-विपुलपरियट्ट-अरति-भय-विसाय-सोग-मिच्छत्तसेलसंकडं अण्णाणतमंधकार-चिक्खिल्लसुदुत्तारं जर-मरण-जोणिसंखुभियचवकवालं सोलसकसाय-सावय-पयंडचंडं अणाइअं अणवदग्गं संसारसागरमिणं जह य णिबंधति पाउगं सुरगणेसु, जह ग अणुभवंति सुरगणविमाणसोक्खाणि अणोवमाणि / ततो य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोगमागयाणं आउ-वयु-पुण्ण-रूख-जाति-कुल-जम्म-आरोग्ग-बुद्धि-मेहाविसेसा मित्त-जण-सयण-धण-धण्ण-विभव-समिद्धसार-समुदयविसेसा बहुविहकामभोगुब्भवाण सोक्खाण सुहविवागोत्तमेसु अणुवरय-परंपराणुबद्धा। असुभाणं सुभाणं चेव कम्माणं भासिआ बहुविहा विवागा विवागसुयम्भि भगवया जिणवरेण संवेगकरणत्था, अन्नवि य एवमाइया बहुविहा वित्थरेणं अत्थपरूवणया आधविज्जति / अब सुख-विपाकों का वर्णन किया जाता है जो शील, (ब्रह्मचर्य या समाधि) संयम, नियम (अभिग्रह-विशेष), गुण (मूल गुण और उत्तर गुण) और तप (अन्तरंग-बहिरंग) के अनुष्ठान में संलग्न हैं, जो अपने प्राचार का भली-भांति से पालन करते हैं, ऐसे साधुजनों में अनेक प्रकार की अनुकम्पा का प्रयोग करते हैं, उनके प्रति तीनों ही कालों में विशुद्ध बुद्धि रखते हैं अर्थात् यतिजनों को आहार दूगा, यह विचार करके जो हर्षानुभव करते हैं, देते समय और देने के पश्चात् भी हर्ष मानते हैं, उनको अति सावधान मन से हितकारक, सुखकारक, निःश्रेयसकारक उत्तम शुभ परिणामों से प्रयोग-शुद्ध (उद्गमादि दोषों से रहित) भक्त-पान देते हैं, वे मनुष्य जिस प्रकार पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं, बोधि-लाभ को प्राप्त होते हैं और नर, नारक, तिर्यंच एवं देवगति-गमन सम्बन्धी अनेक परावर्तनों को परीत (सीमित अल्प) करते हैं, तथा जो अरति, भय, विस्मय, शोक और मिथ्यात्वरूप शैल (पर्वत) से संकट (संकीर्ण) है, गहन अज्ञान-अन्धकार रूप कीचड़ से परिपूर्ण होने से जिसका पार उतरना अति कठिन है, जिसका चक्रवाल (जल-परिमंडल) जरा, मरण योनिरूप मगर-मच्छों से क्षोभित हो रहा है, जो अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषायरूप श्वापदों (खूखार हिंसक प्राणियों) से अति प्रचण्ड अतएव भयंकर है, ऐसे अनादि अनन्त इस संसार-सागर को वे जिस प्रकार पार करते हैं, और जिस प्रकार देव-गणों में आयु बांधते-देवायु का बंध करते हैं, तथा जिस प्रकार सुर-गणों के अनुपम विमानोत्पन्न सुखों का अनुभव करते हैं, तत्पश्चात कालान्तर में वहाँ से च्यूत होकर इसी मनुष्यलोक में आकर दीर्घ आयु, परिपूर्ण शरीर, उत्तम रूप, जाति कुल में जन्म लेकर आरोग्य, बुद्धि, मेधा-विशेष से सम्पन्न होते हैं, मित्रजन, स्वजन, धन, धान्य और वैभव से समृद्ध, एवं सारभूत सुखसम्पदा के समूह से संयुक्त होकर बहुत प्रकार के काम-भोग-जनित, सुख-विपाक से प्राप्त उत्तम सुखों की अनुपरत (अविच्छिन्न) परम्परा से परिपूर्ण रहते हुए सुखों को भोगते हैं, ऐसे पुण्यशाली जोवों का इस सुख-विपाक में वर्णन किया गया है। इस प्रकार अशुभ और शुभ कर्मों के बहुत प्रकार के विपाक (फल) इस विपाकसूत्र में भगवान् जिनेन्द्र देव ने संसारी जनों को संवेग उत्पन्न करने के लिए कहे हैं। इसी प्रकार से अन्य भी बहुत प्रकार की अर्थ-प्ररूपणा विस्तार से इस अंग में की गई है। 555. -विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जानो पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जायो निज्जुत्तीओ संखेज्जारो संगहणीयो। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक] [191 विपाकसूत्र की परीत वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोग द्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक हैं / संख्यात नियुक्तियाँ हैं और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। __ 556 –से णं अंगठ्ठयाए एक्कारसमे अंगे, वीसं अज्झयणा, वोसं उद्देसणकाला, वीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जाणि, अक्खराणि, अजंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविज्जंति, पण्णविज्जति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं आया, से एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया प्राघविज्जति० / से तं विवायसुए 11 / यह विपाकसूत्र अंगरूप से ग्यारहवां अंग है। बीस अध्ययन हैं, बीस उद्देशन-काल हैं, बीस समुद्देशन-काल हैं, पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद हैं। संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं 1 इसमें शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किए जाते हैं, निर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं / इस अंग के द्वारा प्रात्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है। इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तुस्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है। यह ग्यारहवें विपाक सूत्र अंग का परिचय है 11 / ५५७–से कि तं दिट्टिवाए ? दिट्टिवाए णं सब्वभावपरूवणया आघविज्जति / से समासओ पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-परिकम्म सुताइं पुधगयं अणुओगो चूलिया। यह दृष्टिवाद अंग क्या है--इस में क्या वर्णन है ? दृष्टिवाद अंग में सर्व भावों की प्ररूपणा की जाती है। वह संक्षेप से पाँच प्रकार का कहा गया है / जैसे-१. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. पूर्वगत, 4. अनुयोग और 5. चूलिका। ५५८-.-से कि तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते / तं जहा-सिद्धसेणियापरिकम्मे मणुस्ससेणियापरिकम्मे पुट्ठसेणियापरिकम्मे प्रोगाहणसेणियापरिकम्मे उवसंपज्जसेणियापरिकम्मे विप्पजहसेणियापरिकम्मे चुआचुग्रसेणियापरिकम्मे। परिकर्म क्या है ? परिकर्म सात प्रकार का कहा गया है। जैसे--१ सिद्धश्रेणिका-परिकर्म, 2 मनुष्यश्रेणिका परिकर्म, 3 पुष्टश्रेणिका परिकर्म, 4 अवगाहनश्रेणिका परिकर्म, 5 उपसंपर पाहनश्रणिका परिकर्म, 5 उपसंपद्यश्रेणिका परिकर्म, 6 विप्रजहतश्रेणिका परिकर्म और 7 च्युताच्युतश्रेणिका-परिकर्म / 559- से कि तं सिद्धसेणियापरिकम्मे ? सिद्धसेणिआपरिकम्मे चोहसविहे पण्णत्ते / तं जहामाउयापयाणि एगट्टियपयाणि पाढोढपयाणि अागासपयाणि केउभूयं रासिबद्धं एगगुणं दुगुणं तिगुणं केउभूयपडिग्गहो संसारपडिग्गही नंदावत्तं सिद्धबद्धं / से तं सिद्धसेणियापरिकम्मे / सिद्धश्रेणिका परिकर्म क्या है ? सिद्धश्रेणिका परिकर्म चौदह प्रकार का कहा गया है। जैसे -1 मातृकापद, 2 एकार्थकपद, 3 अर्थपद, 4 पाठ, 5 आकाशपद, 6 केतुभूत, 7 राशिबद्ध, 8 एकगुण, 9 द्विगुण, 10 त्रिगुण, 11 केतुभूतप्रतिग्रह, 12 संसार-प्रतिग्रह, 13 नन्द्यावर्त, और सिद्धबद्ध / यह सब सिद्धश्रेणिका परिकर्म हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [समवायाङ्गसूत्र ५६०-से कि तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे ? मणस्ससेणियापरिकम्मे चोदसविहे पण्णत्ते / तं जहा- ताई चेव माउप्रापयाणि जाव नंदावत्तं मणुस्सबद्धं / से तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे / मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म क्या है ? मनुष्यश्रेणिका-परिकर्म चौदह प्रकार का कहा गया है। जैसे--मातृकापद से लेकर वे ही पूर्वोक्त नन्द्यावर्त तक और मनुष्यबद्ध। यह सब मनुष्यश्रेणिका परिकर्म है। ५६१-अवसेसा परिकम्माई पुट्ठाइयाइं एक्कारसबिहाइं पन्नत्ताई। इच्चेयाई सत्त परिकम्माइं ससमइयाई, सत्त आजीवियाई, छ चउक्कणइयाइं, सत्त तेरासियाई। एवामेव सपुवावरेणं सत्त परिकम्माई तेसोति भवंतीतिमक्खायाई / से तं परिकम्माई। पृष्ठश्रेणिका परिकर्म से लेकर शेष परिकर्म ग्यारह-ग्यारह प्रकार के कहे गये हैं। पूर्वोक्त सातों परिकर्म स्वसामयिक (जैनमतानुसारी) हैं, सात आजीविकमतानुसारी हैं, छह परिकर्म चतुष्कनय वालों के मतानुसारी हैं और सात राशिक मतानुसारी हैं। इस प्रकार ये सातों परिकर्म पूर्वापर भेदों की अपेक्षा तिरासी होते हैं, यह सब परिकर्म हैं। विवेचन-संस्कृत टीकाकार लिखते हैं कि परिकर्म सूत्र और अर्थ से विच्छिन्न हो गये हैं। इन सातों परिकर्मों में से आदि के छह परिकर्म स्वसामयिक हैं। तथा गोशालक-द्वारा प्रवत्तित आजीविकापाखण्डिक मत के साथ परिकर्म में सात भेद कहे जाते हैं। दिगम्बर-परम्परा के शास्त्रों के अनुसार परिकर्म में गणित के करणसूत्रों का वर्णन किया गया है। इसके वहां पाँच भेद बतलाये गये हैं-चन्द्र-प्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति / चन्द्र-प्रज्ञप्ति में चन्द्रमा-सम्बन्धी मिवान, आयु, परिवार, ऋद्धि, गमन, हानि-वृद्धि, पूर्ण ग्रहण, अर्धग्रहण, चतुर्थांश ग्रहण आदि का वर्णन किया गया है। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य-सम्बन्धी आयु, परिवार, ऋद्धि-गमन, ग्रहण आदि का वर्णन किया गया है / जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप-सम्बन्धी मेरु, कुलाचल, महाह्रद, क्षेत्र, कुड, वेदिका , वन आदि का वर्णन किया गया है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में असंख्यात द्वीप और समुद्रों का स्वरूप, नन्दीश्वर द्वीपादि का विशिष्ट वर्णन किया गया है / व्याख्या-प्रज्ञप्ति में भव्य, अभव्य जीवों के भेद, प्रमाण, लक्षण, रूपो, अरूपी, जीव-अजीव द्रव्यादिकों की विस्तृत व्याख्या की गई है। 562 –से कि तं सुत्ताइं? सुत्ताई अट्ठासीति भवंतीति मक्खायाई। तं जहा- उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विप्पच्चइयं [विन (ज) यचरियं] अणंतरं परंपरं समाणं संजुहं [मासाणं] संभिन्नं पाहच्चायं [अहव्वायं] सोवस्थि (वत्त)यं णंदावत्तं बहुलं पुढापुढें वियावत्तं एवंभूयं दुआवत्तं वत्तमाणप्पयं समभिरूढं सव्वओ भदं पणासं [पण्णासं] दुपडिग्गहं इच्चेयाई बावीसं सुत्ताई छिण्णछेअणइआई ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेप्राइं बावीसं सुत्ताई अछिन्नछेयनइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई वावीसं सुत्ताई तिकणइयाई तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेसाई वावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए / एवामेव सपुवावरेण अट्ठासोति सुत्ताई भवंतीतिमक्खयाई / से त्तं सुत्ताई। सूत्र का स्वरूप क्या है ? सूत्र अठासी होते हैं, ऐसा कहा गया है। जैसे-१ ऋजुक, 2 परिणतापरिणत, 3 बहुभंगिक, 4 विजयचर्चा, 5 अनन्तर, 6 परम्पर, 7 समान (समानस), Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्गगणिपिटक] [193 8 संजूह-संयूथ (जूह), 9 संभिन्न, 10 ग्रहाच्चय, 11 सौवस्तिक, 12 नन्द्यावर्त, 13 बहुल, 14 पृष्टापृष्ट, 15 व्यावृत्त, 16 एवंभूत, 17 द्वचावत, 18 वर्तमानात्मक, 19 समभिरूढ, 20 सर्वतोभद्र, 21 पणाम (पण्णास) और 22 दुष्प्रतिग्रह / ये बाईस सूत्र स्वसमयसूत्र परिपाटी से छिन्नच्छेद-नयिक हैं। ये हो बाईस सूत्र प्राजोविकसूत्रपरिपाटी से अच्छिन्नच्छेदनयिक हैं। ये ही बाईस सूत्र त्रैराशिकसूत्रपरिपाटी से त्रिकनयिक हैं और ये हो बाईस सूत्र स्वसमय सूत्रपरिपाटी से चतुष्कनयिक हैं / इस प्रकार ये सब पूर्वापर भेद मिलकर अठासी सूत्र होते हैं, ऐसा कहा गया है / यह सूत्र नाम का दूसरा भेद है / विवेचन--जो नय सूत्र को छिन्न अर्थात् भेद से स्वीकार करे, वह छिन्नच्छेदनय कहलाता है। जैसे---'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' इत्यादि श्लोक सूत्र और अर्थ की अपेक्षा अपने अर्थ के प्रतिपादन करने में किसी दूसरे श्लोक को अपेक्षा नहीं रखता है। किन्तु जो श्लोक अपने अर्थ के प्रतिपादन में ग्रागे या पीछे के श्लोक की अपेक्षा रखता है, वह अच्छिन्नच्छेदनयिक कहलाता है / गोशालक आदि द्रव्याथिक, पर्यायाथिक और उभयाथिक इन तीन नयों को मानते हैं, अतः उन्हें त्रिकनयिक कहा गया है। किन्तु जो संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द नय इन चार नयों को मानते हैं, उन्हें चतुष्कनयिक कहते हैं / त्रिकनयिक वाले सभी पदार्थों का निरूपण सत्, असत् और उभयात्मक रूप से करते हैं। किन्तु चतुष्कनयिक वाले उक्त चार नयों से सर्व पदार्थों का निरूपण करते हैं। 563 –से कि तं पुवयं ? पुब्वगयं चउद्दसविहं पन्नत्तं / तं जहा उप्पायपुव्वं अग्गेणीयं वीरियं अस्थिनस्थिप्पवायं नाणप्पवायं सच्चप्पवायं प्रायप्पवायं कम्मप्पवायं पच्चवखाणप्पवायं विज्जाणुप्पवायं अबंझं पाणाऊ किरियाविसालं लोग बिन्दुसारं 14 / यह पूर्वगत क्या है इसमें क्या वर्णन है ? पूर्वगत चौदह प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-१ उत्पादपूर्व, 2 अग्रायणीयपूर्व, 3 वीर्यप्रवादपूर्व, 4 अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, 5 ज्ञानप्रवादपूर्व, 6 सत्यप्रवादपूर्व, 7 अात्मप्रवादपूर्व, 8 कर्मप्रवादपूर्व, 9 प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, 10 विद्यानुप्रवादपूर्व, 11 प्रबन्ध्यपूर्व, 12 प्राणायुपूर्व, 13 क्रियाविशाल पूर्व और 14 लोकविन्दुसारपूर्व / 564 --उप्पायपुवस्स णं दस वत्थू पण्णत्ता। चत्तारि चूलियावत्थू पण्णत्ता। अम्गेणियस्स णं पुवस्स चोद्दस पत्थू , वारस चूलियावत्थू पण्णत्ता। वीरियप्पवायस्स णं पुवस्स अट्ठ वत्थू अट्ठ चुलियावत्थू पण्णत्ता। अस्थिणस्थिप्पवायस्स णं पुन्बस्स अट्ठारस वत्यू दस चूलियावत्थू पण्णत्ता / पवायस्स णं पृथ्वस्स बारस वत्थ पण्णत्ता। सच्चप्पवायस्स णं पृब्वस्स दो बत्थ पण्णत्ता / आयप्पवायस्स णं पुवस्स सोलस वत्थू पण्णत्ता। कम्मप्पवायपुवस्स णं तीसं वत्थू पण्णत्ता। पच्चक्खाणस्स णं पुचस्स वीसं वत्थू पण्णत्ता। विज्जाणुष्पवायस्स णं पुवस्स पन्नरस वत्थू पण्णत्ता। अबंझस्स णं पुवस्स बारस वत्थू पण्णत्ता। पाणाउस्स गं पुव्वस्स तेरस वत्थू पण्णत्ता। किरियाविसालस्स णं पुवस्स तीसं बत्थू पण्णता / लोगबिन्दुसारस्स णं पुष्वस्स पणवीसं वत्थू पण्णत्ता। उत्पादपूर्व की दश वस्तु (अधिकार) हैं और चार चूलिकावस्तु है / अग्रायणीय पूर्व की चौदह वस्तु और बारह चूलिकावस्तु हैं / वीर्यप्रवादपूर्व की आठ वस्तु और पाठ चूलिकावस्तु हैं। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [समवायाङ्गसूत्र अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व की अठारह वस्तु और दश चूलिकावस्तु हैं। ज्ञानप्रवाद पूर्व की बारह वस्तु हैं / सत्यप्रवादपूर्व की दो वस्तु हैं। प्रात्मप्रवाद पूर्व की सोलह वस्तु हैं। कर्मप्रवाद पूर्व की तीस वस्तु हैं। प्रत्याख्यान पूर्व की बीस वस्तु हैं। विद्यानुप्रसादपूर्व की पन्द्रह वस्तु हैं। अबन्ध्यपूर्व की बारह वस्तु हैं / प्राणायुपूर्व की तेरह वस्तु हैं / क्रिया विशाल पूर्व की तीस वस्तु हैं / लोकबिन्दुसार पूर्व की पच्चीस वस्तु कही गई हैं। 565- दस चोद्दस अट्ठारसे व बारस दुवे य वत्थूणि / सोलस तीसा वीसा पन्नरस अणुप्पवाययंमि // 1 // बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि / तीसा पुण तेरसमे चउदसमे पन्नवीसाओ // 2 // चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि / पाइल्लाण चउण्हं सेसाणं चूलिया पत्थि // 3 // से तं पुव्वगयं / उपर्युक्त वस्तुओं की संख्या-प्रतिपादक संग्रहणी गाथाएं इस प्रकार हैं प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चौदह, तीसरे में आठ, चौथे में अठारह, पाँचवें में बारह, छठे में दो, सातवें में सोलह, आठवें में तीस, नवें में बीस, दशवें विद्यानुप्रवाद में पन्द्रह, ग्यारहवें में बारह, बारहवें में तेरह, तेरहवें में तीस और चौदहवें में पच्चीस वस्तु नामक महाधिकार हैं। आदि के चार पूर्त में क्रम से चार, बारह, आठ और दश चूलिकावस्तु नामक अधिकार हैं। शेष दश पूर्वो में चूलिका नामक अधिकार नहीं हैं / यह पूर्वगत है। विवेचन-दिगम्बर ग्रन्थों में पूर्वगत वस्तुनों की संख्या में कुछ अन्तर है। जो इस प्रकार है-प्रथम पूर्व में दश, दूसरे में चौदह, तीसरे में पाठ, चौथे में अठारह, पांचवें में वारह, छटे में वारह, सातवें में सोलह, आठवें में बीस, नवमें में तीस, दशवें के पन्द्रह, ग्यारहवें में दश, बारहवें में दश, तेरहवें में दश और चौदहवें पूर्व में दश वस्तुनामक अधिकार बताये गये हैं। दि० शास्त्रों में आदि के चार पूर्वो की चूलिकानों का कोई उल्लेख नहीं है। __५६६--से कि तं अणुओगे? अणुओगे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा—मूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य / से कि तं मूलपढमाणुओगे ? एत्थ णं अरहताणं भगवंताणं पुत्वभवा देवलोगगमणाणि आउंचवणाणि जम्मणाणि अ अभिसेया रायवरसिरीओ सीयाओ पवज्जावो तवा य भत्ता केवलजाणच्याया अतित्थपवत्तणाणि अ संघयणं संठाणं उच्चत्तं पाउं वनविभागो सीसा गणा गणहरा य अज्जा पवत्तणीग्रो संघस्स चउव्विहस्स जं वावि परिणामं जिण-मणपज्जव-प्रोहिनाण-सम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अणुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पायोवगआ य जे हि जत्तियाई छेअइत्ता अंतगडा मुणिवरुत्तमा तम-रओघविप्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एए अन्ने य एवमाइया भावा मूलपढमाणुओगे कहिआ आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / से त्तं मूलपढमाणुओगे। वह अनुयोग क्या है-उसमें क्या वर्णन है ? Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक [195 अनुयोग दो प्रकार का कहा गया है। जैसे—मूलप्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग। मूलप्रथमानुयोग में क्या है ? मूलप्रथमानुयोग में अरहन्त भगवन्तों के पूर्वभव, देवलोक-गमन, देवभव सम्बन्धी आयु, च्यवन, जन्म, जन्माभिषेक, राज्यवरश्री, शिविका, प्रवज्या, तप, भक्त (आहार) केवलज्ञानोत्पत्ति, वर्ण, तीर्थ-प्रवर्तन, संहनन, संस्थान, शरीर-उच्चता, आयु, शिष्य, गण, गणधर, आर्या, प्रवर्तिनी, चतुविध संघ का परिमाण, केवलि-जिन, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी सम्यक् मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले साधु, सिद्ध, पादपोपगत, जो जहाँ जितने भक्तों का छेदन कर उत्तम मुनिवर अन्तकृत हुए, तमोरज-समूह से विप्रमुक्त हए, अनुत्तर सिद्धिपथ को प्राप्त हुए, इन महापुरुषों का, तथा इसी प्रकार के अन्य भाव मूलप्रथमानुयोग में कहे गये हैं, वणित किये गए हैं, प्रज्ञापति किये गए हैं, प्ररूपित किये गए हैं, निर्दाशत किये गए हैं और उपदशित किये गए हैं। यह मूलप्रथमानुयोग है / 567- से कि तं गंडियाणुओगे ? [गंडियाणुओगे] अणेगविहे पण्णत्ते / तं जहा--कुलगर. गंडियानो तित्थगरगंडियाओ गणहरगंडियानो चक्कहरगंडियाओ दसारगडियानो बलदेवगंडियानो वासुदेवगंडियाओ हरिवंसगंडियानो भद्दबाहगंडियाओ तवोकम्मगंडियाओ चित्तंतरगडियाओ उस्सप्पिणीगंडियाओ ओसप्पिणीगंडियानो अमर-नर-तिरिय-निरयगइगमण-विविहपरियट्टणाणुप्रोगे, एवमाइयायो गडियाओ प्राधविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति से तं गंडियाणुओगे। गंडिकानुयोग में क्या है ? गंडिकानुयोग अनेक प्रकार का है / जैसे--कुलकरगंडिका, तीर्थकरगंडिका, गणधरगंडिका, चक्रवर्तीगंडिका, दशा रगडिका, बलदेवगंडिका, वासुदेवगंडिका, हरिवंशगंडिका, भद्रबाहुगंडिका, तपःकर्मगंडिका, चित्रान्तरगडिका, उत्सपिणोगडिका, अवसर्पिणी गंडिका, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक गतियों में गमन, तथा विविध योनियों में परिवर्तनानुयोग, इत्यादि गंडिकाएँ इस गंडिकानुयोग में कहो जाती हैं, प्रज्ञापित की जाती हैं, प्ररूपित की जाती हैं, निदर्शित की जाती हैं और उपदर्शित को जातो हैं / यह गंडिकानुयोग है / ५६८-से कि तं चूलियारो ? जण्णं आइल्लाणं चउण्हं पुन्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुवाई अचूलियाई / से तं चूलियानो / यह चूलिका क्या है ? __ प्रादि के चार पूर्वो में चूलिका नामक अधिकार है। शेष दश पूर्वो में चूलिकाएँ नहीं हैं / यह चूलिका है। विवेचन -दि० शास्त्रों में दृष्टिवाद का चूलिका नामक पाँचवा भेद कहा गया है और उसके पाँच भेद बतलाए गए हैं –जलगता चूलिका, स्थलगता चूलिका, मायागता चूलिका, प्राकाशगता चूलिका और रूपगत। चूलिका / जलगता में जल-गमन, अग्निस्तम्भन, अग्निभक्षण, अग्नि-प्रवेश और अग्निपर बैठने आदि के मन्त्र-तन्त्र और तपश्चरण अादि का वर्णन है। स्थलगता में मेरु, कुलाचल, Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [समवायानसूत्र भूमि आदि में प्रवेश करने आदि के मन्त्र-तन्त्रादि का वर्णन है। मायागता में इन्द्रजाल-सम्बन्धी मन्त्रादि का वर्णन है। आकाशगता में आकाश-गमन के कारणभूत मन्त्रादि का वर्णन है / रूपगता में सिंह आदि के अनेक प्रकार रूपादि बनाने के कारणभूत मन्त्रादि का वर्णन है / ५६९-दिदिवायस्स णं परिता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ संगहणीयो। दृष्टिवाद की परीत वाचनाएँ हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं। संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात नियुक्तियां हैं, संख्यात श्लोक हैं, और संख्यात संग्रहणियां हैं। ५७०–से गं अंगट्ठयाए बारसमे अंगे, एगे सुमक्खंधे, चउद्दस पुव्वाइं संखेज्जा वत्थू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुड-पाहुडा, संखेज्जाओ पाहुडियाओ, संखेज्जानो पाहुडपाहुडियानो, संखेज्जाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पण्णत्ताई / संखेज्जा अवखरा, अणंता गमा, प्रणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्राधविज्जति पण्णविज्जति पविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, एवं णाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जंति / से तं दिट्टिवाएं / से तं दुवालसंगे गणिपिडगे। यह दृष्टिवाद अंगरूप से बारहवाँ अंग है। इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, चौदह पूर्व हैं, संख्यात वस्तु हैं, संख्यात चूलिका वस्तु हैं, संख्यात प्राभृत हैं, संख्यात प्राभूत-प्राभृत हैं, संख्यात प्राभतिकाएं हैं, संख्यात प्राभृत-प्राभृति काएं हैं। पद गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। संख्यात अक्षर हैं / अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं / ये सब शाश्वत, कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव इस दृष्टिवाद में कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते और उपदर्शित किये जाते हैं। इस अंग के द्वारा आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है / इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तुस्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता है / यह बारहवाँ दृष्टिवाद अंग है। यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन है 12 / ५७१-इच्चेइयं दुबालसंग गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा प्राणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरिट्टिसु / इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णे काले परित्ता जीवा प्राणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियति / इच्चेइयं दुबालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं अशुपरियट्टरसंति। इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र रूप, अर्थरूप और उभय रूप प्राज्ञा का विराधन करके अर्थात दुराग्रह के वशीभूत होकर अन्यथा सुत्रपाठ करके, अन्यथा अर्थकथन करके सूत्रार्थ उभय की प्ररूपणा करके अनन्त जीवों ने भूतकाल में चतुतिरूप संसार-कान्तार (गहन वन) में परिभ्रमण किया है, इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप आज्ञा का विराधन करके वर्तमान काल में परीत (परिमित) जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण कर रहे हैं और इसी द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप आज्ञा का विराधन कर भविष्यकाल में अनन्त जीव चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार में परिभ्रमण करेंगे। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक ] [ 197 ५७२-इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अतीतकाले अणंता जीवा प्राणाए आराहिता चाउरंतसंसारकतारं वोईवइंसु / एवं पडुप्पण्णेऽवि [परित्ता जोधा प्राणाए पाराहित्ता चाउरतसंसारकतारं वोईवंति] एवं अणागए वि [अणंता जीवा प्राणाए प्रारहित्ता चाउरंतसंसारकतारं वीईवइस्संति] / __ इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभयरूप प्राज्ञा का पाराधन करके अनन्त जोवों ने भूतकाल में चतुर्गति रूप संसार-कान्तार को पार किया है (मुक्ति को प्राप्त किया है)। वर्तमान काल में भी (परिमित) जीव इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप प्राज्ञा का पाराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार कर रहे हैं और भविष्यकाल में भी अनन्त जीव इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की सूत्र, अर्थ और उभय रूप प्राज्ञा का पाराधन करके चतुर्गतिरूप संसार-कान्तार को पार करेंगे। 573-- दुवालसंगे गं गणिपिडगे ण कयाइ णासी, ण कयावि णस्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ / भुवि च, भवति य, भविस्सति य। धुवे नितिए सासए अक्खए अब्बए अवट्ठिए णिच्चे / से जहा णामए पंच अस्थिकाया ण कयाइ ण प्रासि, ण कयाइ पत्थि, णकयाइण भविस्स भविंच, भवति य, भविस्संति य, धुवा णितिया सासया अक्खया अन्वया अवट्ठिया णिच्चा / एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे ण कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ / भुवि च, भवति य, भविस्सइ य। धुवे जाव अवट्ठिए णिच्चे / यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूतकाल में कभी नहीं था. ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा, भी नहीं है। किन्तु भूतकाल में भी यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा। क्योंकि यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना देने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण अक्षय है, गंगा-सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है, जम्बूद्वीपादि के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है / जिस प्रकार पाँच अस्ति काय द्रव्य भूतकाल में कभी नहीं थे ऐसा नहीं, वर्तमान काल में कभी नहीं हैं, ऐसा भी नहीं है और भविष्य काल में कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं है। किन्तु ये पाँचों अस्तिकाय द्रव्य भूतकाल में भो थे, वर्तमानकाल में भी हैं और भविष्यकाल में भी रहेंगे। अतएव ये ध्रव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं. अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, और नित्य हैं। इसी प्रकार यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक भूतकाल में कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, वर्तमान काल में कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और भविष्यकाल में कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है। किन्तु भूतकाल में भी यह था, वर्तमान काल में भी यह है और भविष्य काल में भी रहेगा। अतएव यह ध्र व है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। 574 - एत्थ णं दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा, अणंता अभावा, अणता हेऊ, अणंता अहेऊ, अणंता कारणा, प्रणंता अकारणा अणंता जीवा, अणंता अजीवा, अणंता भवसिद्धिया, प्रणता अभवसिद्धिया, अजंता सिद्धा, अणंता असिद्धा अघाविज्जति पणविज्जति परूविज्जति दंसिज्जति निदंसिज्जति उवदंसिज्जति / एवं दुवालसंगं गणिपिडगं ति / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 ] [ समवायाङ्गसूत्र इस द्वादशाङ्ग गणि-पिटक में अनन्त भाव (जीवादि स्वरूप से सत् पदार्थ) और अनन्त अभाव (पररूप से असत् जीवादि वही पदार्थ) अनन्त हेतु, उनके प्रतिपक्षी अनन्त अहेतु; इसी प्रकार अनन्त कारण, अनन्त अकारण; अनन्त जीव, अनन्त अजोव; अनन्त भव्य सिद्धिक, अनन्त अभव्यसिद्धिक ; अनन्त सिद्ध तथा अनन्त प्रसिद्ध कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपति किये जाते हैं, दर्शित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं। विवेचन-जैन सिद्धान्त में प्रत्येक वस्तु में जिस प्रकार अनन्त धर्म स्वरूप को अपेक्षा सत्तारूप में पाये जाते हैं, उसी प्रकार पररूप की अपेक्षा अनन्त अभावात्मक धर्म भी पाये जाते हैं। इसी कारण सूत्र में स्वरूप की अपेक्षा भावात्मक धर्मों का और पररूप की अपेक्षा प्रभावात्मक धर्मों का निरूपण किया गया है। पदार्थ के धर्म-विशेषों को सिद्ध करने वाली युक्तियों को हेतु कहते हैं / पदार्थों के उपादान और निमित्त कारणों को कारण कहते हैं। जिनमें चेतना पाई जाती है, वे जीव और जिनमें चेतना नहीं पाई जाती है, वे अजीव कहलाते हैं। जिनमें मुक्ति जाने की योग्यता है वे भव्यसिद्धिक और जिनमें वह योग्यता नहीं पाई जाती उन्हें भव्य सिद्धिक कहते हैं। कर्म-मुक्त जोवों को सिद्ध और कर्म-बद्ध संसारी जीवों को प्रसिद्ध कहते हैं। इस प्रकार से यह द्वादशाङ्ग गणि-पिटक संसार में विद्यमान सभी तत्त्वों, भावों और पदार्थों का वर्णन करता है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग गणि-पिटक का वर्णन समाप्त हुआ / उपसंहार-द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान का विषय बहुत विशाल है। श्रुतज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए प्राचार्यों ने 'भेदः साक्षादसाक्षाच्च श्रुत-केवलयोर्मतः' कह कर श्रुतज्ञान की महत्ता प्रकट की है, अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष का भेद कहा है। जहाँ केवलज्ञान त्रैलोक्यत्रिकालवर्ती, द्रव्यों, उनके गुणों और पर्यायों को साक्षात् हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है, वहां श्रुतज्ञान उन सबको परोक्ष रूप से जानता है। अतः संसार का कोई भी तत्व द्वादशाङ्ग श्रुत से बाहर नहीं है / सभी तत्त्व इस द्वादशाङ्ग गणपिटक में समाहित हैं। प्राचाराङ्ग आदि ग्यारह अंगों में आचार आदि प्रधान रूप से एक-एक विषय का वर्णन किया गया है, किन्तु बारहवें दृष्टिवाद अंग में तो संसार के सभी तत्त्वों का वर्णन किया गया है। उसके पूर्वगत भेद में से जहाँ प्रारम्भ के उत्पादपूर्व आदि अनेक पूर्व वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वरूप का वर्णन करते हैं, वहाँ वीर्य प्रवादपूर्व द्रव्य की शक्तियों का, अस्तिनास्ति-प्रवाद पूर्व अनेक धर्मात्मकता का, ज्ञानप्रवाद और प्रात्मप्रवाद पूर्व प्रात्मस्वरूप का, कर्मप्रवाद पूर्व कर्मों की दशानों का निरूपण करते हैं / प्रत्याख्यानपूर्व अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों का, विद्यानुवाद पूर्व मंत्र-तंत्रों का, प्राणावाय पूर्व आयुर्वेद के अष्टाङ्गों का, अन्तरिक्ष, भौम, अंग स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और छिन्न इन पाठ महानिमित्तों का एवं ज्योतिषशास्त्र के रहस्यों का वर्णन करता है। अबन्ध्य पूर्व कभी निष्फल नहीं जाने वाली कल्याणकारिणी क्रियाओं का वर्णन करता है। क्रियाविशालपूर्व क्रियाओं का, स्त्रियों की चौसठ और पुरुषों की बहत्तर कलात्रों का, तथा काव्य-रचना, छन्द, अलंकार आदि का वर्णन करता है / लोकबिन्दुसार पूर्व अवशिष्ट सर्वश्रुत सम्पदा का वर्णन करता है। इस प्रकार ऐसा कोई भी जीवनोपयोगी एवं प्रात्मोपयोगी विषय नहीं है, जिसका वर्णन इन चौदह पूर्वो में न किया गया हो / कथानुयोग, गणित आदि विषयों का वर्णन दृष्टिवाद के शेष चार भेदों में किया गया है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग श्रुत का विषय बहुत विशाल है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण ५७६-दुवे रासी पन्नत्ता / तं जहा- जीवरासी अजीवरासी य / अजीवरासी दुविहा पन्नत्ता। तं जहा-रूवो अजीवरासो अरूबी अजोवरासी य / ___ दो राशियां कही गई हैं. ---जीवराशि और अजीव राशि / अजीवराशि दो प्रकार की कही गई है / रूपी अजोवराशि और अरूपी अजीवराशि / ५७७-से कि तं अस्वी अजीवरासी ? अरूवी अजीवरासी दसविहा पन्नत्ता / तं जहा--- धम्मस्थिकाए जाव [धम्मत्थिकायदेसा, धम्मस्थिकायपदेसा, अधम्मस्थिकाए, अधम्मस्थिकायदेसा, अधम्मत्थिकायपदेसा, प्रागासस्थिकाए, पागासस्थिकायदेसा, पागासस्थिकायपदेसा] श्रद्धासमए / अरूपी अजीवराशि क्या है ? अरूपी अजीवराशि दश प्रकार की कही गई है। जैसे-धर्मास्तिकाय यावत् (धर्मास्तिकाय देश, धर्मास्तिकायप्रदेश, अधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय देश, अधर्मास्तिकाय प्रदेश, आकाशास्तिकाय, आकाशास्तिकाय देश, आकाशास्तिकाय प्रदेश) और अद्धासमय / ५७८-रूपी अजीवरासी अणेगविहा पन्नत्ता जाव............... [रूपी अजीवराशि क्या है ? ] रूपी अजीवराशि अनेक प्रकार की कही गई है यावत् विवेचन--रूपी ग्रजीवराशि का तथा जीवराशि का विवरण यहाँ नहीं दिया गया है, केवल जाव शब्द का प्रयोग करके यह सूचित कर दिया गया है कि प्रज्ञापनासूत्र के पहले प्रज्ञापना नामक पद के अनुसार इसका निरूपण समझ लेना चाहिए। दोनों स्थलों में अन्तर, मात्र एक शब्द का है / प्रज्ञापनासूत्र में जहाँ 'प्रज्ञापना' शब्द का प्रयोग है, वहां इस स्थान पर राशि शब्द का प्रयोग करना चाहिए। शेष कथन दोनों जगह समान है / टीका के अनुसार संक्षिप्त कथन इस प्रकार है-- रूपी अजीवरूप अर्थात् पुद्गल राशि चार प्रकार की है स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु / अनन्त परमाणों के सम्पूर्ण पिंड को स्कन्ध कहते हैं। स्कन्ध के उसमें मिले हए भाग को देश कहते हैं और स्कन्ध के साथ जुड़े अविभागी अंश को प्रदेश कहते हैं / पुद्गल के सबसे छोटे अविभागी अंश को, जो पृथक् है, परमाणु कहते हैं / ' पुनः यह पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के भेद से पाँच प्रकार का है / पुनः संस्थान भी पुद्गल-परमाणुओं के संयोग से अनेक प्रकार का होता है / यह पुद्गल शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, भेद, तम, (अन्धकार) छाया, उद्योत (चन्द्र-प्रकाश) और प्रातप (सूर्य-प्रकाश) आदि के भेद से भी अनेक प्रकार का है। 1. पंचास्तिकाय में देश और प्रदेश का स्वरूप भिन्न प्रकार से बतलाया गया है खधं सयलसमत्थं, तस्स य अद्ध भणति देसोत्ति / तस्स य अद्ध पदेशं जं अविभागी वियाण परमाणु त्ति / / -पंचास्तिकाय, गाथा 95 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [ समवायाङ्गसूत्र ५७९-[जीवरासी दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य / तत्थ असंसारसमावन्नगा दुविहा पण्णत्ता...''जाव..] जीव-राशि क्या है ? [जीव-राशि दो प्रकार की कही गई है--संसारसमापन्नक (संसारी जीव) और असंसार समापन्नक (मुक्त जीव) / इस प्रकार दोनों राशियों के भेद-प्रभेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार अनुत्तरोपपातिकसूत्र तक जानना चाहिए। ५८०-से कि तं अगुत्तरोववाइया? अणुत्तरोववाइया पंचविहा पन्नता। तं जहा-विजयवेजयंत-जयंत-अपराजित-सव्वट्ठसिद्धिआ। से तं अणुत्तरोववाइया। से तं चिदियसंसारसमावण्णजीवरासी। वे अनुत्तरोपपातिक देव क्या हैं ? अनुत्तरोपपातिक देव पाँच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-विजय-अनुत्तरोपपातिक, वैजयन्तअनुत्तरोपपातिक, जयन्त-अनुत्तरोपपातिक, अपराजित-अनुत्तरोपपातिक और सर्वार्थसिद्धिक अनुत्तरोपपातिक / ये सब अनुत्तरोपपातिक संसार-समापन्नक जीवराशि हैं / यह सब पंचेन्द्रियसंसार-समापन्न-जीवराशि हैं / ५८१-दुविहा जेरइया पण्णत्ता / तं जहा--पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / एवं दंडओ भाणियच्चो जाव वेमाणिय त्ति। नारक जीव दो प्रकार के हैं -पर्याप्त और अपर्याप्त / यहां पर भी [प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार] वैमानिक देवों तक अर्थात् नारक, असुरकुमार, स्थावरकाय, द्वीन्द्रिय प्रादि, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक का सूत्र-दंडक कहना चाहिए, अर्थात् वर्णन समझ लेना चाहिए। ५८२-इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं प्रोगाहेत्ता केवइया णिरयावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अटुसत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पृढवोए रइयाणं तीसं णिरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया। ते णं गिरयावासा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा जाव असुभा णिरया, असुभाओ णिरएसु वेयणायो / एवं सत्त वि भाणियव्याओ जं जासु जुज्जइ [भगवन् ] इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकावास कहे गये हैं ? __गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथिवी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर, तथा सबसे नीचे के एक हजार योजन क्षेत्र को छोडकर मध्यवर्ती एक लाख अठहत्तर हजार योजन वाले रत्नप्रभा पृथिवी के भाग में तीस लाख नारकावास हैं। वे नारकावास भीतर की ओर गोल और बाहर की अोर चौकोर हैं यावत् वे नरक अशुभ हैं और उन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। इसी प्रकार सातों ही पृथिवियों का वर्णन जिनमें जो युक्त हो, करना चाहिए। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [201 विवेचन-आगे दी गई गाथा संख्या एक के अनुसार दूसरी पृथिवी एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी है। उसके एक हजार योजन ऊपर का और एक हजार नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख तीस हजार योजन भू-भाग में पच्चीस लाख नारकावास हैं। तीसरी पृथिवी एक लाख अट्ठाईस हजार योजन मोटी है। उसके एक हजार योजन ऊपर का और एक हजार योजन नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख छब्बीस हजार योजन भू-भाग में पन्द्रह लाख नारकावास हैं। चौथी पृथिवी एक लाख बीस हजार योजन मोटी है / उसके ऊपर तथा नीचे की एक एक हजार योजन भूमि को छोड़कर शेष एक लाख अठारह हजार योजन भू-भाग में दश लाख नारकावास हैं। पांचवीं पृथिवी एक लाख अठारह हजार योजन मोटी है। उसके एक एक हजार योजन ऊपरी वा नीचे का भाग छोड़कर शेष मध्यवर्ती एक लाख सोलह हजार योजन भू-भाग में तीन लाख नारकावास हैं / छठी पृथिवी एक लाख सोलह हजार योजन मोटी है, उसके एक-एक हजार योजन ऊपरी और नीचे का भाग छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख चौदह हजार योजन भू-भाग में पांच कम एक लाख (99995) नारकावास हैं / सातवीं पृथिवी एक लाख आठ हजार योजन मोटी है। उसके 521, 523 हजार योजन ऊपरी तथा नीचे के भाग को छोड़कर मध्य में पांच नारकावास हैं। उसमें अप्रतिष्ठान नाम का नारकावास ठीक चारों नारकावासों के मध्य में है और शेष काल, महाकाल, रोरुक और महारौरुक नारकावास उसकी चारों दिशाओं में अवस्थित हैं। सभी पृथिवियों में नारकावास तीन प्रकार के हैं--इन्द्रक, श्रेणीबद्ध (पावलिकाप्रविष्ट) और पुष्पप्रकीर्णक (प्रावलिकाबाह्य)। इन्द्रक नारकावास सबके बीच में होता है और श्रेणीबद्ध नारकावास उसकी आठों दिशाओं में अवस्थित हैं। पुष्पप्रकीर्णक या पावलिकाबाह्य नारकावास श्रेणिबद्ध नारकावासों के मध्य में अवस्थित हैं / इन्द्रक नारकावास गोल होते हैं और शेष नारकावास त्रिकोण चतुष्कोण आदि नाना आकार वाले कहे गये हैं। तथा नीचे की ओर सभी नारकावास क्षुरप्र (खुरपा) के आकार वाले हैं। ५८३–आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च / अट्ठारस सोलसगं अछुत्तरमेव बाहल्लं // 1 // तीसा य पण्णवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई। तिण्णगं पंचणं पंचेव अणत्तरा नरगा // 2 // चउसट्ठी असुराणं चउरासीइंच होइ नागाणं / वावत्तरि सुवन्नाणं वाउकुमाराण छण्णउई // 3 // दीव-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-थणियमग्गोणं / छण्ड पि जवलयाणं छावत्तरिमो य सयसहस्सा // 4 // बत्तीसट्ठावीसा वारस अड चउरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच्च सया सहस्सारे // 5 // आणय-पाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिन्नि / सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएस कप्पेसु // 6 // एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु सत्त्त्तरं च मज्झिमए / सय मेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तर विमाणा // 7 // Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [ समवायाङ्गसूत्र रत्नप्रभा पृथिवी का बाहल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हजार योजन है। शर्करा पृथिवी का बाहल्य एक लाख बत्तीस हजार योजन है। वालुका पृथिवी का बाहल्य एक लाख अट्ठाईस हजार योजन है / पंकप्रभा पृथिवी का बाहल्य एक लाख वीस हजार योजन है। धूमप्रभा पृथिवी का बाहल्य एक लाख अट्ठारह हजार योजन है। तमःप्रभा पृथिवी का बाहल्य एक लाख सोलह हजार योजन है और महातमःप्रभा पृथिवी का बाहल्य एक लाख आठ हजार योजन है / / 1 / / रत्नप्रभा पृथिवी में तीस लाख नारकावास हैं / शर्करा पृथिवी में पच्चीस लाख नारकावास हैं / वालुका पृथिवी में पन्द्रह लाख नारकावास हैं। पंकप्रभा पृथिवी में दश लाख नारकावास हैं। धूमप्रभा पृथिवी में तीन लाख नारकावास हैं / तमःप्रभा पृथिवी में पांच कम एक लाख नारकावास हैं। महातमः पृथिवी में (केवल) पांच अनुत्तर नारकावास हैं / / 2 / / असुरकुमारों के चौसठ लाख भवन हैं / नागकुमारों के चौरासी लाख भवन हैं। सुपर्णकुमारों के बहत्तर लाख भवन हैं / वायुकुमारों के छयानवै लाख भवन हैं / / 3 / / द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार, अग्निकुमार इन छहों युगलों के छियत्तर (76) लाख भवन हैं // 4 // सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमान हैं / सनत्कुमारकल्प में बारह लाख विमान हैं। माहेन्द्रकल्प में पाठ लाख विमान हैं / ब्रह्मकल्प में चार लाख विमान हैं। लान्तककल्प में पचास हजार विमान हैं। महाशुक्र विमान में चालीस हजार विमान हैं / सहस्रारकल्प में छह हजार विमान हैं // 5 // अानत, प्राणत कल्प में चार सौ विमान हैं। प्रारण और अच्युत कल्प में तीन सौ विमान हैं। इस प्रकार इन चारों ही कल्पों में विमानों की संख्या सात सौ जानना चाहिए // 6 // अधस्तन-नीचे के तीनों ही ग्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह विमान हैं। मध्यम तीनों ही वेयकों में एक सौ सात विमान हैं / उपरिम तीनों ही ग्रंवेयकों में एक सौ विमान हैं। अनुत्तर विमान पांच ही हैं // 7 // ५८४–दोच्चाए णं पुढवीए, तच्चाए णं पुढवीए, चउत्थीए पुढवीए, पंचमीए पुढवीए, छट्ठीए पुढवीए, सत्तमीए पुढवीए गाहाहि भाणियन्वा / [. .........] इसी प्रकार ऊपर की गाथाओं के अनुसार दूसरी पृथिवी में, तीसरी पृथिवी में, चौथी प्रथिवी में, पांचवीं पृथिवी में, छठी पृथिवी में और सातवीं पृथिवी में नरक बिलों- नारवावासों की संख्या कहना चाहिए। इसी प्रकार उक्त गाथाओं के अनुसार दशों प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों की, बारह कल्पवासी देवों के विमानों की, तथा गैवेयक और अनुत्तर देवों के विमानों की भी संख्या जानना चाहिए। 585 --सत्तमाए पुढवीए पुच्छा। गोयमा ! सत्तमाए पुढवीए अठुत्तरजोयणसयसहस्साई बाहल्लाए उवरि अद्धतेवन्नं जोयणसहस्सा ओगाहेत्ता हेट्ठा वि अद्धतेवन्नं जोयणसहस्साई वज्जित्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महानिरया Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [203 पण्णत्ता / तं जहा काले महाकाले रोरुए महारोरुए अपइट्ठाणे नामं पंचमे / ते णं निरया बट्टे य तंसा य / अहे खुरप्पसंठाणसंठिया जाव असुभा, नरगा, असुभाम्रो नरएस वेयणाओ। सातवीं पृथिवी में पृच्छा--[भगवन् ! सातवीं पृथिवी में कितना क्षेत्र अवगाहन कर कितने नारकावास हैं ? गौतम ! एक लाख साठ हजार योजन बाहल्यवाली सातवीं पृथिवी में ऊपर से साढ़े बावन हजार योजन अवगाहन कर और नीचे भी साढ़े बावन हजार योजन छोड़कर मध्यवर्ती तीन हजार योजनों में सातवीं पृथिवी के नारकियों के पांच अनुत्तर, बहुत विशाल महानरक कहे गये हैं / जैसे—काल, महाकाल, रोरुक, महारोरुक और पांचवां अप्रतिष्ठान नाम का नरक है / ये नरक वृत्त (गोल) और त्र्यन हैं, अर्थात् मध्यवर्ती अप्रतिष्ठान नरक गोल आकार वाला है और शेष चारों दिशावर्ती चारों नरक त्रिकोण आकार वाले हैं। नीचे तल भाग में वे नरक क्षुरप्र (खुरपा) के प्राकार वाले हैं।..."यावत् ये नरक अशुभ हैं और इन नरकों में अशुभ वेदनाएं हैं। 586 -केवइया णं भंते ! असुरकुमारावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्यभाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अट्ठहत्तरि जोयणसयसहस्से एत्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए चउट्टि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता / ते णं भवणा बाहिं बट्टा, अंतो चउरंसा, अहे पोक्खरकण्णिमासंठाणसंठिया उक्किण्णंतर विउल-गंभीर-खाय-फलिहा अट्टालय-चरिय-दार-गोउर-कवाड-तोरणपडिदुवार-देसभागा जंत-मुसल-भुसंढि-सयग्घि-परिवारिया अउज्झा अडयालकोटरइया अडयालकयवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीस-सरस-रत्तचंदण-दद्दर-दिण्णपंचंगुलितला कालागुरु-पवरकुदुरुक्क तुरुक्क उज्झंत-धूवमधमघेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / एवं जं जस्स कमती तं तस्स, जं जं गाहाहि भणियं तह चेव वण्णो / भगवन् ! असुरकुमारों के प्रावास (भवन) कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्यवाली रत्नप्रभा पृथिवी में ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन कर और नीचे एक हजार योजन छोड़कर मध्यवर्ती एक लाख अठहत्तर हजार योजन में रत्नप्रभा पृथिवी के भीतर असुरकुमारों के चौसठ लाख भवनावास कहे गये हैं। वे भवन बाहर गोल हैं, भीतर चौकोण हैं और नीचे कमल की कणिका के आकार से स्थित हैं। उनके चारों ओर खाई और परिखा' खुदी हुई हैं जो बहुत गहरी हैं / खाई और परिखा के मध्य में पाल बंधी हुई है। तथा वे भवन अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, कपाट, तोरण, प्रतिद्वार, देश रूप भाग वाले हैं, यंत्र, मूसल, भुसुढी, शतघ्नी, इन शस्त्रों से संयुक्त हैं। शत्रुओं की सेनाओं से अजेय हैं। अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वन-मालाओं से शोभित हैं। उनके भूमिभाग और भित्तियाँ उत्तम लेपों से लिपी और चिकनी हैं, गोशीर्षचन्दन और लालचन्दन के सरस सुगन्धित लेप से उन भवनों की भित्तियों पर पांचों अंगुलियों युक्त हस्ततल (हाथ) अंकित हैं / इसी 1. जो ऊपर-नीचे समान विस्तार वाली हो वह खाई, जो ऊपर चौड़ी और नीचे संकड़ी हो वह परिखा। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [ समवायाङ्गसूत्र प्रकार भवनों की सीढ़ियों पर भी गोशीर्षचन्दन और लालचन्दन के रस से पांचों अंगुलियों के हस्ततल अंकित हैं। वे भवन कालागुरु, प्रधान कुन्दरु और तुरुष्क (लोभान) युक्त धूप के जलते रहने से मघमघायमान, सुगन्धित और सुन्दरता से अभिराम (मनोहर) हैं। वहां सुगन्धित अगर ल रही हैं। वे भवन प्राकाश के समान स्वच्छ हैं, स्फटिक के समान कान्तियुक्त हैं, अत्यन्त चिकने हैं, घिसे हुए हैं, पालिश किये हुए हैं, नीरज (रज-धूलि से रहित) हैं निर्मल हैं, अन्धकार-रहित हैं, विशुद्ध (निष्कलंक) हैं, प्रभा-युक्त हैं. मरीचियों (किरणों) से युक्त हैं, उद्योत (शीतल प्रकाश) से युक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं। दर्शनीय (देखने के योग्य) हैं, अभिरूप (कान्त, सुन्दर) हैं और प्रतिरूप (रमणीय) हैं। जिस प्रकार से असुरकुमारों के भवनों का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि शेष भवनवासी देवों के भवनों का भी वर्णन जहां जैसा घटित और उपयुक्त हो, वैसा करना चाहिए / तथा ऊपर कही गई गाथाओं से जिसके जितने भवन बताये गये हैं, उनका वैसा ही वर्णन करना चाहिए। ५८७-केवइया णं भंते ! पुढविकाइयावासा पण्णता ? गोयमा! असंखेज्जा पुढविकाइयावासा पण्णत्ता / एवं जाव मणुस्स त्ति / भगवन् ! पृथिवीकायिक जीवों के प्रावास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! पृथिवीका थिक जीवों के असंख्यात प्रावास कहे गये हैं। इसी प्रकार जलकायिक जीवों से लेकर यावत् मनुष्यों तक के जानना चाहिए। विवेचन–गर्भज मनुष्यों के आवास तो संख्यात ही होते हैं / तथा सम्मूच्छिम मनुष्यों के आवास नहीं होते हैं किन्तु प्रत्येक शरीर में एक एक जीव होने से वे असंख्यात हैं, इतना विशेष जानना चाहिए। ५८८--केवइया णं भंते वाणमंतरावासा पण्णत्ता ? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स-जोयणसहस्स-बाहल्लस्स उरि एग जोयणसयं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठस जोयणसएस एत्थ णं बाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जा नगरावाससयसहस्सा पण्णत्ता। ते णं भोमेज्जा नगरा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा। एवं जहा भवणवासोणं तहेव णेयव्वा / णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा। भगवन् ! वानव्यन्तरों के आवास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय कांड के एक सौ योजन ऊपर से अवगाहन कर और एक सौ योजन नीचे के भाग को छोड़ कर मध्यके आठ सौ योजनों में यानव्यन्तर देवों के तिरछे फैले हुए असंख्यात लाख भौमेयक नगरावास कहे गये हैं। वे भौमेयक नगर बाहर गोल और भीतर चौकोर हैं। इस प्रकार जैसा भवनवासो देवों के भवनों का वर्णन किया गया है, वैसा ही वर्णन वानव्यन्तर देवों के भवनों का जानना चाहिए। केवल इतनी विशेषता है कि ये पताका-मालाओं से व्याप्त हैं / यावत् सुरम्य हैं, मनः को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [205 ५८९-केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा पण्णत्ता ? गोयमा! इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जायो भूमिभागानो सत्तनउयाई जोयणसयाई उड्ढे उप्पइत्ता एस्थ णं दसुत्तरजोयणसयबाहल्ले तिरियं जोइसविसए जोइसियाणं देवाणं असंखेज्जा जोइसियविमाणावासा पण्णत्ता / ते णं जोइसियविमाणावासा अब्भुग्गयभूसियपहसिया विविहमणिरयणभत्तिचित्ता विजय-वेजयंती-पडाग-छत्ताइछत्तकलिया तंगा गगणतलमणलिहंतसिहरा जालंतर-रयणपंजरुम्मिलियन्व मणिकणगर्थभियागा वियसिय-सयपत्त-पुण्डरीय तिलय-रयणद्धचंदचित्ता अंतो वाहिं च सण्हा तवणिज्ज-बालुआ पत्थडा सुहकासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा। भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमानावास कितने कहे गये हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से सात सौ नव्व योजन ऊपर जाकर एक सौ दश योजन बाहल्य वाले तिरछे ज्योतिष्क-विषयक प्राकाशभाग में ज्योतिष्क देवों के असंख्यात विमानावास कहे गये हैं / वे अपने में से निकलती हुई और सर्व दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से उज्ज्वल हैं, अनेक प्रकार के मणि और रत्नों की चित्रकारी से युक्त हैं, वायु से उड़ती हुई विजय-वैजयन्ती पताकारों से और छत्रातिछत्रों से युक्त हैं, गगनतल को स्पर्श करने वाले ऊंचे शिखर वाले हैं, उनको जालियों के भीतर रत्न लगे हुए हैं। जैसे पंजर (प्रच्छादन) से तत्काल निकाली वस्तु सश्रीक-चमचमाती है वैसे ही वे सश्रीक हैं / मणि और सुवर्ण की स्तूपिकाओं से युक्त हैं, विकसित शतपत्रों एवं पुण्डरीकों (श्वेत कमलों) से, तिलकों से, रत्नों के अर्धचन्द्राकार चित्रों से व्याप्त हैं, भीतर और बाहर अत्यन्त चिकने हैं, तपाये हुए सुवर्ण के समान वालुकामयी प्रस्तटों या प्रस्तारों वाले हैं / सुखद स्पर्श वाले हैं, शोभायुक्त हैं, मन को प्रसन्न करने वाले और दर्शनीय हैं / _५९०-केवइया गं भंते ! वेमाणियावासा पण्णता ? गोयमा ! इमीमे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागानो उड्ढं चंदिम-सूरिय-गहमण-नक्खत्त-तारारूवाणं बीइवइत्ता बहणि जोयणाणि बहूणि जोयणसयाणि बहुणि जोयणसहस्साणि [बहूणि जोयणसयसहस्साणि] बहूइओ जोयणकोडोप्रो बहुइओ जोयणकोडाकोडीआ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीमो उड्ढं दूरं वीइवइत्ता एस्थ णं वेमाणियाणं देवाणं सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणयपारण-अच्चुएस गेवेज्जमणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खाया। भगवन् ! वैमानिक देवों के कितने प्रावास कहे गये हैं ? गौतम ! इसी रत्नप्रभा पृथिवी के बहुसम रमणीय भूमिभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारकाओं को उल्लंघन कर, अनेक योजन, अनेक शत योजन, अनेक सहस्र योजन [अनेक शत-सहस्र योजन अनेक कोटि योजन, अनेक कोटाकोटी योजन, और असंख्यात कोटा-कोटी योजन ऊपर बहुत दूर तक आकाश का उल्लंघन कर सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, पारण, अच्युत कल्पों में, अवेयकों में और अनुत्तरों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवै हजार और तेईस विमान हैं, ऐसा कहा गया है। 591 ते णं विमाणा अच्चिमालिप्पभा भासरासिवण्णाभा अरया निरया हिम्मला Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र वितिमिरा विसुद्धा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा घट्टा मट्ठा णिप्पंका णिक्कंक-डच्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। वे विमान सूर्य की प्रभा के समान प्रभावाले हैं, प्रकाशों की राशियों (जों) के समान भासुर हैं, अरज (स्वाभाविक रज से रहित) हैं, नीरज (आगन्तुक रज से विहीन) हैं, निर्मल हैं, अन्धकाररहित हैं, विशुद्ध हैं, मरीचि-युक्त हैं, उद्योत-सहित हैं, मन को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। ५९२–सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता। एवं ईसाणाइसु अट्ठावीस वारस अट्ठ चत्तारि एयाई सयसहस्साई पण्णासं चत्तालीसं छ-एयाई सहस्साई प्राणए पाणए चत्तारि आरणच्चुए तिन्नि एयाणि सयाणि एवं गाहाहि भाणियब्वं / भगवन् ! सौधर्म कल्प में कितने विमानावास कहे गये हैं ? गौतम ! सौधर्म कल्प में बत्तीस लाख विमानावास कहे गये हैं / इसी प्रकार ईशानादि शेष कल्पों में सहस्रार तक क्रमशः पूर्वोक्त गाथाओं के अनुसार अट्ठाईस लाख, बारह लाख, आठ लाख चार लाख, पचास हजार, छह सौ, तथा प्रानत प्राणत कल्प में चार सौ और प्रारण-अच्युत कल्प में तीन सौ विमान कहना चाहिए। [वेयक और अनुत्तर देवों के विमान भी पूर्वोक्त गाथाङ्क 7 पृष्ठ 201 के अनुसार जानना चाहिए। ५९३---नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेफ तेत्तीसं सागरोबमाई ठिई पन्नत्ता। अपज्जत्तगाणं नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? जहन्नेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं / पज्जत्तगाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहतूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तणाई / इमीसे णं रणयप्पभाए पुढवीए एवं जाव। भगवन् ! नारकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य स्थिति दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की कही भगवन् ! अपर्याप्तक नरकों की कितने काल तक स्थिति कही गई है ? [गौतम ! ] जघन्य भी अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट भी स्थिति अन्तर्मुहर्त की कही गई है। पर्याप्तक नारकियों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दश हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है। इसी प्रकार इस रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर महातमः प्रभा पृथिवी तक अपर्याप्तक नारकियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की तथा पर्याप्तकों की स्थिति वहाँ की सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति से अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त कम जानना चाहिए। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण [207 [इसी प्रकार भवनवासियों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों, कल्पवासियों और ग्रेवेयकवासी देवों की पर्याप्तक-अपर्याप्तक काल-भावी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना चाहिए। 594- विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? गोयमा! जहन्नेणं बत्तीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। सम्बट्टे अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित विमानवासी देवों की स्थिति कितने काल कही गई है ? गौतम ! जघन्य स्थिति बत्तीस सागरोफ्न और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम कही गई है। सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमानों में अजघन्य-अनुत्कृष्ट (उत्कृष्ट और जघन्य के भेद से रहित) सब देवों को तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। विवेचन पाँचों अनुत्तर विमानों में भी वहाँ की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम पर्याप्तक देवों को स्थिति जानना चाहिए / तथा सभी देवों की अपर्याप्त काल सम्बन्धी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त जाननी चाहिए। 595 -कति णं भंते ! सरीरा पन्नत्ता? गोयमा ! पंच सरीरा पन्नत्ता / तं जहा-ओरालिए वेउविए आहारए तेथए कम्मए। भगवन् ! शरीर कितने कहे गये हैं ? गौतम ! शरीर पांच कहे गये हैं --औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, पाहारक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर। ५९६–ओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नते। तं जहाएगिदिय-ओरालियसरीरे जाव गम्भवक्कं तिय मणुस्स-पंचिदिय-ओरालियसरीरे य। भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं। गौतम ! पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे—एकेन्द्रिय औदारिकशरीर, यावत् [द्वीन्द्रिय औदारिकशरीर, त्रीन्द्रिय प्रौदारिकशरीर, चतुरिन्द्रिय प्रौदारिकशरीर और पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर / इत्यादि प्रज्ञापनोक्त] गर्भजमनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर तक जानना चाहिए। ५९७--ओरालियसरीरस्स णं भंते ? केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलप्रसंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं एवं जहा ओगाहण-संठाणे ओरालियपमाणं तह निरवसेसं [भाणियन्वं] / एवं जाव मणुस्से ति उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। भगवन् ! औदारिकशरीर बाले जीव की उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना कितनी कही गई है ? Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [समवायाङ्गसूत्र __ गौतम ! [पृथिवीकायिक प्रादि की अपेक्षा जघन्य शरीर-अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना [बादर वनस्पतिकायिक की अपेक्षा] कुछ अधिक एक हजार योजन कही गई है। इस प्रकार जैसे अवगाहना संस्थान नामक प्रज्ञपना-पद में औदारिकशरीर की अवगाहना का प्रमाण कहा गया है, वैसा ही यहाँ सम्पूर्ण रूप से कहना चाहिए। इस प्रकार यावत् मनुष्य की उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना तीन गव्यूति (कोश) कही गई है। ५९८-कइविहे गं भंते ! वेउब्वियसरीरे पन्नत्ते ? गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते-एगिदियदेउव्वियसरीरे य पंचिदिय-वेउब्वियसरीरे अ / एवं जाव सणंकुमारे आढत्तं जाव अनुत्तराणं भवधारणिज्जा जाव तेसि रयणी परिहायइ / भगवन् ! वैक्रियिकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वैक्रियिकशरीर दो प्रकार का कहा गया है—एकेन्द्रिय वैक्रियिक शरीर और पंचेन्द्रिय वैऋियिकशरीर / इस प्रकार यावत् सनत्कुमार-कल्प से लेकर अनुत्तर विमानों तक के देवों का वैक्रियिक भवधारणीय शरीर कहना / वह क्रमशः एक-एक रत्नि कम होता है / विवेचन-वैक्रियिकशरीर एकेन्द्रियों में केवल वायुकायिक जीवों के ही होता है / विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम तिर्यचों के वह नहीं होता है। नारकों में, भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क देवों में, सौधर्म ईशान कल्पों के देवों में और सनत्कुमारकल्प से लेकर अनुत्तर विमानवासी देवों तक वैक्रियिक शरीर होता है / नारकों का भवधारणीय शरीर सातवें नरक में पांच सौ धनुष से लेकर घटता हुआ प्रथम नरक में सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल होता है / भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान कल्पवासी देवों का भवधारणीय शरीर सात रत्नि या हाथ होता है। सनत्कुमार-माहेन्द्र देवों का भवधारणीय शरीर छह हाथ होता है। ब्रह्म-लान्तक देवों का पाँच हाथ, महाशुक्र-सहस्रार देवों का चार हाथ, आनत-प्राणत, पारण-अच्युत देवों का तीन हाथ, ग्रंवेयक देवों का दो हाथ और अनुत्तर विमानवासी देवों का भवधारणीय शरीर एक हाथ होता है / जो तिर्यंच गर्भज हैं, और जो मनुष्य गर्भज हैं, उनके भवधारणीय वैक्रियिक शरीर नहीं होता है, किन्तु लब्धिप्रत्यय-जनित वैक्रियिक शरीर ही किसी-किसी के होता है। सबमें नहीं। उनमें भी वह कर्मभूमिज, संख्यातवर्षायुक्त और पर्याप्तक जीवों के ही होता है। उत्तर-वैक्रियिक शरीर मनुष्य के उत्कृष्ट कुछ अधिक एक लाख योजन की अवगाहनावाला होता है और देवों के एक लाख योजन अवगाहना वाला / तिर्यंचों के उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व योजन अवगाहना वाला हो सकता है। ५९९–आहारयसरीरे णं भंते ! कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा! एगाकारे पन्नत्ते / जइ एगाकारे पन्नते, कि मणुस्स-पाहार यसरीरे अमणुस्स-आहारयसरीरे ? गोयमा! मणुस्स-पाहारगसरीरे, णो अमणुस्स-आहारगसरीरे। एवं जइ मणुस्स-पाहारगसरीरे, कि गब्भवक्कंतियमणुस्स-आहारगसरीरे, संमुच्छिममणुस्सपाहारगसरीरे? Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [109 गोयमा ! गम्भवक्कंतिय-मणुस्स-आहारयसरीरे नो समुच्छिम-मणुस्स-आहारयसरीरे। जइ गमवक्कंतिय-मणुस्स-आहारयसरीरे, कि कम्मभूमिग० अकम्मभूमिग ? गोयमा ! कम्मभूमिग, नो अकम्मभूमिग०।। जइ कम्मभूमिग०, कि संखेज्जवासाउय असंखेज्जवासाउय.? गोयमा ! संखेज्जवासाउय०, नो असंखेज्जवासाउय ? जइ संखेज्जवासाउय०, कि पज्जत्तय० अपज्जत्तय? गोयमा ! पज्जत्तय०, नो अपज्जत्तय० / जइ पज्जत्तय० किं सम्मट्टिी० मिच्छदिट्टी० सम्मामिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! सम्मट्ठिी / नो मिच्छदिट्ठी नो सम्मामिच्छविट्ठी। जइ सम्मदिट्ठी० कि संजय० असंजय० संजयासंजय० ? गोयमा ! संजय०, नो प्रसंजय० नो असंजयासंजय० / जइ संजय० कि पमत्तसंजय०, अप्पमत्तसंजय०? गोयमा ! पमत्तसंजय०, नो अपमत्तसंजय० / जइ पमत्तसंजय०, कि इडिपत्त० प्रणिडिपत्त० ? गोयमा ! इडिपत्त०, नो प्रणिडिपत्त० / वयणा वि भाणियव्वा / भगवन् ! आहारकशरीर कितने प्रकार का होता है ? गौतम ! आहारक शरीर एक ही प्रकार का कहा गया है। भगवन् ! यदि एक ही प्रकार का कहा गया है तो क्या वह मनुष्य आहारकशरीर है, अथवा अमनुष्य-आहारक शरीर है। गौतम ! मनुष्य-ग्राहारकशरीर है, अमनुष्य-प्राहारक शरीर नहीं है। भगवन् ! यदि वह मनुष्य-ग्राहारक शरीर है तो क्या वह गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-प्राहारक शरीर है, अथवा सम्मूर्छिम मनुष्य-याहारकशरीर है ? गौतम ! वह गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-प्राहारक शरीर है, सम्मूर्छिम मनुष्य-आहारक शरीर नहीं है। भगवन् ! यदि वह गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारक शरीर है, तो क्या वह कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर है, अथवा अकर्मभूमिज-गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर है ? गौतम ! कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर है, अकर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर नहीं है। भगवन् ! यदि कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-प्राहारकशरीर है, तो क्या वह संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारकशरीर है, अथवा असंख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारक शरीर है ? गौतम ! संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है, असंख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर नहीं है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [समवायाङ्गसूत्र भगवन् ! यदि संख्यात-वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य पाहार कशरीर है, तो क्या वह पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारकशरीर है, अथवा अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है ? गौतम ! पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-प्राहारकशरीर है, अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर नहीं है / भगवन् ! यदि वह पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य आहारक शरीर है. तो क्या वह सम्यग्दष्टि पर्याप्तक सर भमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यआहारकशरीर है, अथवा मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यपाहारकशरीर है, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यात वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है ? गौतम ! वह सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारक शरीर है, न मिथ्यादष्टि पर्याप्तक संख्यात-वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-प्राहारकशरीर है और न सम्यग्मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यात-वर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारक शरीर है। भगवन् ! यदि वह सम्यग्दष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यपाहारकशरीर है, तो क्या वह संयत सम्यग्दष्टि पर्याप्तक संख्यात वषोयुष्क कमभामा गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-याहारकशरीर है, अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपकान्तिक मनुष्य-माहारकशरीर है, अथवा संयतासंयत पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-आहारकशरीर है ? गौतम ! वह संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गपक्रान्तिक मनुष्यआहारकशरीर है, न असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यआहारकशरीर है और न संयतासंयत पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यग्राहारकशरीर है। भगवन् ! यदि वह संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है, तो क्या प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है, अथवा अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-प्राहारकशरीर है ? गौतम ! वह प्रमत्तसंयत सम्यग्दष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायूष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है, अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य प्राहारक-शरीर नहीं है। भगवन् ! यदि वह प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है, तो क्या वह ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारक शरीर है, अथवा अनृद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-पाहारकशरीर है ? Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण [ 211 गौतम ! यह ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारक शरीर है, अनृद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य-ग्राहारक शरीर नहीं है। उपसंहार--यह आहारकशरीर ऋद्धिप्राप्त छठे गुणस्थानवत्ती प्रमत्तसंयत मुनि को होता है। इस स्थल पर मूलसूत्र में वयणा वि भाणियब्वा' पाठ है, उसका अभिप्राय यह है कि मूल पाठ में आहारकशरीर किसके होता है ? इससे संबद्ध गौतम स्वामी द्वारा किये गये प्रश्नों के भ० महावीर ने जो उत्तर दिये हैं उन्हें मूल में 'कम्मभूमिग' आदि पदों के आगे गोल बिन्दु (0) दिये गये हैं, उनसे सूचित वचनों को कहने के लिए संकेत किया गया है, जिसे ऊपर अनुवाद में पूरा दिया हो गया है। ६००–आहारयसरीरे समचउरंससंठाणसंठिए / यह पाहारक शरीर समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है। विवेचन- जब किसी चतुर्दश पूर्वधर अप्रमत्त संयत ऋद्धिप्राप्त मुनि को ध्यानावस्था में किसी गहन सूक्ष्म तत्त्व के विषय में कोई शंका हो और उस समय उस क्षेत्र में केवली भगवान का अभाव हो तब वे अाहारकशरीर नामकर्म का उपार्जन करते हैं और प्रमत्तसंयत होते ही उनके मस्तक से रक्त-मांस, हड्डी आदि से रहित एक हाथ का धवल वर्ण वाला मनुष्य के प्राकार का सर्वाङ्ग-सम्पूर्ण पुतला निकलता है और जहां भी केवली भगवान् विराजते हों, वहां जाकर उनके चरण-कमलों का स्पर्श करता है / और स्पर्श करते ही वह वहां से वापिस आकर महामुनि के मस्तक में प्रवेश करता है और उनकी शंका का समाधान हो जाता है। इस प्राहारकशरीर के अर्जन, निर्गमन और प्रवेश की क्रिया एक अन्तर्मुहूर्त में सम्पन्न हो जाती है। विशेषता यही है कि इसका बन्ध उपार्जन तो सातवें गणस्थान में होता है और उदय या निर्गमन और प्रवेश ग्रादि की क्रिया छठे गुणस्थान में होती है। ६०१–आहारयसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नता? गोयमा! जहण्णेणं देसूणा रयणी, उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी। भगवन् ! पाहारकशरीर की कितनी बड़ी शरीर-अवगाहना कही गई है ? गौतम ! जघन्य अवगाहना कुछ कम एक रत्लि (हाथ) और उत्कृष्ट अवगाहना परिपूर्ण एक रत्लि कही गई है। ६०२-तेआसरीरे गं भंते कतिविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पन्नत्तेएगिदिय तेयसरीरे, वि-ति-चउ-पंच० / एवं जाव० / भगवन् ! तैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है--एकेन्द्रियतैजस शरीर, द्वोन्द्रियतैजसशरीर, त्रीन्द्रिय तेजसशरीर, चतुरिन्द्रियतैजसशरीर और पंचेन्द्रियतैजसशरीर। इस प्रकार प्रारण-अच्युत कल्प तक जानना चाहिए। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [समवायानसूत्र विवेचन-- इस सूत्र में एकेन्द्रियादि की अपेक्षा तेजसशरीर के पांच भेद कहकर शेष तेजस शरीर की वक्तव्यता को प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानने की सूचना की है, उसके अनुसार यहां दी जाती है-- [भगवन् ! एकेन्द्रियतैजस शरीर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? गौतम ! पांच प्रकार के कहे गये हैं। जैसे-पृथ्विीकाय एकेन्द्रियतैजसशरीर, अप्कायिक एकेन्द्रिक तेजसशरीर, तेजस्कायिक एकेन्द्रिय तेजसशरीर, वायुकायिक एकेन्द्रिय तैजसशरीर और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तेजसशरीर / इसी प्रकार यावत् अवेयक देवों के मारणान्तिक समुद्धातगत अवगाहना तक जानना चाहिए / यहां सूत्रकार ने शेष जीवों के तेजसशरीर का वर्णन न करके यावत् पद से प्रज्ञापनासूत्र में प्ररूपित जीवराशि की प्ररूपणा के अनुसार सूत्रार्थ को जानने की सूचना की है। प्रकृत में यह अभिप्राय है कि जिस जीव के शरीर की स्वाभाविक दशा में या समुद्धात आदि विशिष्ट अवस्था में जितनी अवगाहना होती है, उतनी ही तैजसशरीर की तथा कार्मणशरीर की अवगाहना जानना चाहिए। किस किस गति के जीव की शारीरिक अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट कितनी होती है, तथा कौन कौन से जीव समुद्धात दशा में कितने पायाम-विस्तार को धारण करते हैं, यह प्रज्ञापना सूत्र से जानना चाहिए। 603 ---गेवेज्जस्स णं भंते ! देवस्स णं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स समाणस्स केमहालिया सरोरोगाहणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभबाहल्लेणं, पायामेणं जहन्नेणं अहे जाव विज्जाहरसेढीयो / उक्कोसेणं जाव अहोलोइयग्गामाओ। उड्ढं जाव सयाई विमाणाई, तिरियं जाव मणुस्सखेत्तं / एवं जाव अणुत्तरोववाइया / एवं कम्मयसरीरं भाणियत्वं / भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त हुए |वेयक देव की शरीर-अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? गौतम ! विष्कम्भ-बाहल्य की अपेक्षा शरीर-प्रमाणमात्र कही गई है और आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा नीचे जघन्य यावत् विद्याधर-श्रेणी तक उत्कृष्ट यावत् अधोलोक के ग्रामों तक, तथा ऊपर अपने विमानों तक और तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक कही गई है। ___ इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिक देवों की जानना चाहिए / इसी प्रकार कार्मण शरीर का भी वर्णन कहना चाहिए। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में मारणान्तिक समुद्घातगत ग्रैवेयक देव की शारीरिक अवगाहना का वर्णन कर अनुत्तर विमानवासी देवों की शरीर-अवगाहना और कार्मणशरीर-अवगाहना को जानने की सूचना की गई है। यह सूत्र मध्यदीपक है, अत: एकेन्द्रियों से लेकर पंचेन्द्रियों तक के तिर्यग्गति के तथा नारक, मनुष्य और देवगति के ग्रैवेयक देवों के पूर्ववर्ती सभी जीवों की स्वाभाविक शरीरअवगाहना, तथा मारणान्तिक समुद्धातगत-अवगाहना का वर्णन प्रज्ञापना सत्र के अनसार जानना चाहिए / यहां संक्षेप से कुछ लिखा जाता है पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के शरीरों की जो जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवधिविषयनिरूपण] [213 बताई गई है, उतनी ही उनके तेजस और कार्मण शरीर की अवगाहना होती है। किन्तु मारणान्तिक समुद्घात या मरकर उत्पत्ति की अपेक्षा एकेन्द्रियों के प्रदेशों की लम्बाई जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कर्ष से ऊपर और नीचे लोकान्त तक होती है, क्योंकि एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक आदि जीव मर कर नीचे सातवीं पृथिवी में और ऊपर ईषत्प्राग्भार नामक पृथिवी में उत्पन्न हो सकते हैं। द्वीन्द्रियादि जीव उत्कर्ष से तिर्यग्लोक के अन्त तक मर कर उत्पन्न हो सकते हैं, अतः उनके तं जस-कार्मण शरीर की अवगाहना उतनी ही जाननी चाहिए। नारक को मरण की अपेक्षा जघन्य अवगाहना एक हजार योजन कही गई है, क्योंकि प्रथम नरक का नारकी मरकर हजार योजन झाझेरी विस्तृत पाताल कलश की भित्ति को भेदकर उसमें मत्स्यरूप से उत्पन्न हो जाता है। उत्कर्ष से सातवें नरक का नारकी मरकर ऊपर लबण समुद्रादि में मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकता है। तिर्यक् स्वयम्भूरमण समुद्र तक, तथा ऊपर पंडक वन की पुष्करिणी में भी मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकता है। मनुष्य मरकर सर्व ओर लोकान्त तक उत्पन्न हो सकता है, अतः उसके तैजस और कार्मणशरीर की अवगाहना उतनी लम्बी जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ईशानकरूप के देवों के दोनों शरीरों की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है, क्योंकि ये देव मर कर अपने ही विमानों में वहीं के वहीं एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक जीवों में उत्पन्न हो सकते हैं / उनकी उत्कृष्ट अवगाहना नीचे तीसरी पृथिवी तक, तिरछी स्वयम्भूरमण समुद्र की बाहिरी वेदिका के अन्त तक और ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी के अन्त तक लम्बी जानना चाहिए / सनत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों के तेजस-कार्मण शरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कही गई है. क्योंकि ये देव पंडक वनादि की पुष्करिणियों में स्नान करते समय मरण हो जाने से वहीं मत्स्यरूप से उत्पन्न हो जाते हैं। उत्कृष्ट अवगाहना नीचे महापाताल कलशों के द्वितीय त्रिभाग तक जानना चाहिए, क्योंकि वहां जल का सद्भाव होने से वे मरकर मत्स्यरूप से उत्पन्न हो सकते हैं / तिरछे स्वयम्भूरमण समुद्र के अन्त तक अवगाहना जाननी चाहिए। ऊपर अच्युत स्वर्ग तक अवगाहना कही गई है, क्योंकि सनत्कुमारादि स्वर्गों के देव किसी सांगतिक देव के प्राश्रय से अच्युत स्वर्ग तक जा सकते हैं, और प्रायु पूर्ण हो जाने पर वहां से मरकर यहां मध्य लोक में उत्पन्न हो सकते हैं। पानत यादि चार स्वर्गों के देवों की जघन्य अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग कही गई है, क्योंकि वहां का देव यदि यहां मध्य लोक में आया हो और यहीं मरण हो जाय तो वह यहीं किसी मनुष्यनी के गर्भ में उत्पन्न हो सकता है। उक्त देवों की उत्कृष्ट अवगाहना नीचे मनुष्य लोक तक जानना चाहिए, क्योंकि अन्तिम चार स्वों के देव मरकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / वेयक और अनुत्तर विमानवासी देवों की जघन्य अवगाहना विजया पर्वत की विद्याधर श्रेणी तक जानना चाहिए। उत्कृष्ट अवगाहना नीचे अधोलोक के ग्रामों तक, तिरछी मनुष्य लोक और ऊपर अपनेअपने विमानों तक कही गई है। ६०४--कइविहे गं भंते ! प्रोही पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नता-भवपच्चइए य खओवसमिए य / एवं सव्वं ओहिपदं भाणियव्वं / भगवन् ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? / गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्यय अवधिज्ञान और क्षायोपशमिक अवधिज्ञान / इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र का सम्पूर्ण अवधिज्ञान पद कह लेना चाहिए। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [समवायाङ्गसूत्र विवेचन--सूत्रकार ने जिस अवधिज्ञान-पद के जानने की सूचना की है, वह इस प्रकार हैअवधिज्ञान का भेद, विषय, संस्थान, पाभ्यन्तर, बाह्य, देशावधि, वृद्धि, हानि, प्रतिपाति और अप्रतिपाति इन दश द्वारों से वर्णन किया गया है। सूत्रकार ने अवधिज्ञान के दो भेद कहे हैं, उनमें से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों और नारकों को होता है, तथा क्षायोपश मिक– गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यंचों को होता है / अवधिज्ञान का विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है। इनमें से द्रव्य की अपेक्षा अवधिज्ञान जघन्यरूप से तेजस वर्गणा और भाषा वर्गणा के अग्रहण-प्रायोग्य (दोनों के बीच के) द्रव्यों को जानता है, तथा उत्कृष्ट रूप से सर्व रूपी द्रव्यों को जानता है। क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को (क्षेत्र में स्थित रूपी द्रव्यों को) जानता है और उत्कृष्ट लोकप्रमाण अलोक के असंख्यात खंडों को जानता है। काल की अपेक्षा प्रावलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतीत और अनागत काल को (कालवर्ती रूपी द्रव्यों को जानता है। तथा उत्कृष्ट रूप से असंख्यात उत्सपिणी प्रमाण अतीत अनागत काल को जानता है। भाव की अपेक्षा जघन्यरूप से प्रत्येक पुद्गल द्रव्य के रूपादि चार गुणों को जानता है और उत्कृष्ट रूप से प्रत्येक रूपी द्रव्य के असंख्यात गुणों को, तथा सर्वरूपी द्रव्यों की अपेक्षा अनन्त गुणों को जानता है। ___ संस्थान की अपेक्षा नारकों के अवधिज्ञान का प्राकार तप्र (डोंगी) के समान आकार वाला, भवनवासी देवों का पल्य के प्राकार का, व्यन्तर देवों का पटह के आकार का. ज्योतिष्य झालर के प्राकार, कल्पोपन्न देवों का मृदंग के आकार, ग्रेवेयक देवों का पुष्पावली-रचित शिखर वाली चंगेरी के समान, तथा अनुत्तर देवों का कन्याचोलक के समान होता है / तिर्यंचों और मनुष्यों के अवधिज्ञान का आकार अनेक प्रकार का होता है। ग्राभ्यन्तर द्वार की अपेक्षा कौन-कौन से जीव अपने अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के भीतर रहते हैं, इसका विचार किया जाता है। बाह्य द्वार की अपेक्षा कौन-कौन से जीव अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र के बाहर रहते हैं, इसका विचार किया जाता है। जैसे-नारक देव और तीर्थकर अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र भीतर होते हैं। शेष जीव बाह्य अवधिज्ञानवाले भी होते हैं और प्राभ्यन्तर अवधिज्ञान वाले भी होते हैं। देशावधि द्वार की अपेक्षा देवों, नारकों और तिर्यंचों को देशावधिज्ञान ही होता है, क्योंकि वे अवधिज्ञान के विषयभूत द्रव्यों के एक देश को ही जानते हैं / किन्तु मनुष्यों को देशावधि भी होता और सर्वावधिज्ञान भी होता है। यहां इतना विशेष ज्ञातव्य है कि सर्वावधिज्ञान तद्भव मोक्षगामी परम संयत के ही होता है, अन्य के नहीं / वृद्धि-हानि द्वार की अपेक्षा मनुष्यों और तिर्यचों का अवधिज्ञान परिणामों की विशुद्धि के समय बढ़ता है और संक्लेश के समय घटता भी है। वृद्धिरूप अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग से बढ़कर लोकाकाशप्रमित क्षेत्र तक बढ़ता जाता है / इसी प्रकार संक्लेश को वृद्धि होने पर उत्तरोत्तर घटता जाता है। किन्तु देवों और नारकों का अवधिज्ञान जिस परिमाण में उत्पन्न होता है, उतने ही परिमाण में प्रवस्थित रहता है, घटता-बढ़ता नहीं है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [215 प्रतिपाति-अप्रतिपाति द्वार की अपेक्षा देशावधिज्ञान प्रतिपाति है और सर्वावधिज्ञान अप्रतिपाति है / भवप्रत्यय अवधिज्ञान भव-पर्यन्त अप्रतिपाति है और भव छूटने के साथ प्रतिपाति है / क्षायोपशमिक गुणप्रत्यय अवधिज्ञान प्रतिपाति भी होता है और अप्रतिपाति भी होता है। ६०५-सीया य दव्व सारीर साया तह वेयणा भवे दुक्खा / अब्भुवगमुवक्कमिया जीयाए चेव अणियाए // 1 // वेदना के विषय के शोत, द्रव्य, शारीर, साता, दुःखा, प्राभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी, निदा और अनिदा इतने द्वार ज्ञातव्य हैं / / 1 / / ६०६--नेरइया णं भंते ! कि सीतं वेयणं वेयंति, उसिणं वेयणं वेयंति, सोतोसिणं वेयणं धेयंति ? गोयमा! नेरइया० एवं चेव वेयणापदं भाणियध्वं / भगवन् ! नारकी क्या शीत वेदना वेदन करते हैं, उष्णवेदना वेदन करते हैं, अथवा शीतोष्ण वेदना वेदन करते हैं ? गौतम ! नारकी शोत वेदना वेदन करते हैं, इस प्रकार से वेदना पद कहना चाहिए। विवेचन–वेदना के विषय में शीत आदि द्वार जानने के योग्य हैं। मूल में शीत पद के आगे पठित 'च' शब्द से नहीं कही गई प्रतिपक्षी वेदनाओं की सूचना दी गई है। तदनुसार वेदना तीन प्रकार की है-शीत वेदना, उष्ण वेदना और शीतोष्ण वेदना / नीचे की पृथिवियों के नारकी केवल शीत वेदना का ही अनुभव करते हैं और ऊपर की पृथिवियों के नारकी केवल उष्ण वेदना का ही अनुभव करते हैं / शेष तीन गति के जीव शीत वेदना का भी, उष्ण वेदना का भी, और शीतोष्ण वेदना का भी बेदन करते हैं। 'द्रव्य' द्वार में द्रव्य पद से साथ, क्षेत्र, काल और भाव भी सूचित किये गये हैं। अर्थात् वेदना चार प्रकार की है --द्रव्यवेदना-जो पुद्गल द्रव्य के सम्बन्ध से वेदन की जाती है, क्षेत्रवेदना---जो नारक आदि उपपात क्षेत्र के सम्बन्ध से वेदन की जाती है, कालवेदना-जो नारक आदि के ग्रायु-काल के सम्बन्ध से नियत काल तक भोगी जाती है। जो वेदनीय कर्म के उदय से वेदना भोगी जाती है, उसे भाव-वेदना कहते हैं। नारकों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी जीव चारों प्रकार की बेदनाओं को वेदन करते हैं। 'शारोर' द्वार की अपेक्षा वेदना तीन प्रकार की कही गई हैं---शारीरी, मानसी और शारीर. मानसी / कोई वेदना केवल शारीरिक होती है, कोई केवल मानसिक होती है और कोई दोनों से सम्बद्ध होती है / सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय चारों गति के जीव तीनों ही प्रकार की वेदनाओं को भोगते हैं। किन्तु एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव केवल शारीरी वेदना को ही भोगते हैं। 'साता' द्वार की अपेक्षा वेदना तीन प्रकार की है-साता वेदना, असाता वेदना और साता-असाता वेदना / सभी संसारी जीव तीनों ही प्रकार की वेदनाओं को भोगते हैं। 'दुःख' पद से तीन प्रकार की बेदना सूचित की गई है---सुखवेदना, दुःखवेदना और सुखदुःख वेटना / सभी चतुर्गति के जीव इन तीनों ही प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करते हैं / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [समवायाङ्गसूत्र प्रश्न-पूर्व द्वार में कही सातासात वेदना और इस द्वार में कही सुख-दुःख वेदना में क्या अन्तर है ? उत्तर -साता-असाता वेदनाएं तो साता-प्रासाता वेदनीय कर्म के उदय होने पर होती हैं। किन्तु सुख-दुःख वेदनाएं वेदनीय कर्म की दूसरे के द्वारा उदीरणा कराये जाने पर होती हैं / अतः इन दोनों में उदय और उदीरणा जनित होने के कारण अन्तर है। जो वेदना स्वयं स्वीकार की जाती है, उसे प्राभ्युपगमिकी वेदना कहते हैं। जैसे--स्वयं केश-लुचन करना, आतापना लेना, उपवास करना आदि / जो वेदना वेदनीय कर्म के स्वयं उदय पाने पर या उदीरणाकरण के द्वारा प्राप्त होने पर भोगी जाती है, उसे औपक्रमिकी वेदना कहते हैं / इन दोनों हो वेदनाओं को पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य भोगते हैं / किन्तु देव, नारक और एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव केवल औपक्रमिकी वेदना को ही भोगते हैं। बुद्धिपूर्वक स्वेच्छा से भोगी जाने वाली वेदना को निदा वेदना कहते हैं और अबुद्धिपूर्वक या अनिच्छा से भोगी जाने वाली वेदना को अनिदा वेदना कहते हैं। संज्ञी जीव इन दोनों ही प्रकार की वेदनाओं को भोगते हैं। किन्तु असंज्ञी जीव केवल अनिदा वेदना को ही भोगते हैं / इस विषय में प्रज्ञापनासूत्र के पैतीसवें वेदना पद का अध्ययन करना चाहिए / 607 -कई णं भंते ! लेसानो पन्नत्ताओ? गोयमा ! छ लेसाओ पन्नतायो / तं जहाकिण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा सुक्का / लेसापयं भाणियध्वं / भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? गौतम ! लेश्याएं छह कही गई हैं। जैसे-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या, और शुक्ललेश्या / इस प्रकार लेश्यापद कहना चाहिए। विवेचन-इस स्थल पर संस्कृतटीकाकार ने प्रज्ञापना सूत्र के सत्तरहवें लेश्या पद को जानने की सूचना की है। अतिविस्तृत होने से यहां उसका निरूपण नहीं किया गया है / ६०८--अणंतरा य आहारे आहाराभोगणा इ य / पोग्गला नेव जाणंति अज्झवसाणे य सम्मत्ते // 1 // पाहार के विषय में अनन्तर-आहारी, प्राभोग-प्राहारी, अनाभोग-आहारी, आहार-पुद्गलों के नहीं जानने-देखने वाले और जानने-देखने वाले प्रादि चतुभंगी, प्रशस्त-अप्रशस्त, अध्यवसान वाले और अप्रशस्त अध्यवसान वाले तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को प्राप्त जीव ज्ञातव्य हैं / / 1 / / विवेचन–उपपात क्षेत्र में उत्पन्न होने के साथ ही शरीर के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने को अनन्तराहार कहते हैं। सभी जीव उत्पन्न होते ही अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। बुद्धिपूर्वक आहार ग्रहण करने को प्राभोग निर्वतित और अबुद्धिपूर्वक आहार ग्रहण करने को अनाभोगनिर्वतित कहते हैं। नारकी दोनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार सभी जीवों का जानना चाहिए। केवल एकेन्द्रिय जीव अनाभोगनिर्वतित आहार करते हैं / नारकी जीव जिन Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [217 पुद्गलों को प्राहार रूप से ग्रहण करते हैं , उन्हें अपने अवधिज्ञान से भी नहीं जानते हैं और न देखते हैं, इसी प्रकार असुरों से लेकर त्रोन्द्रिय तक के जोव भी अपने ग्रहण किये गये आहारपुद्गलों को नहीं जानते-देखते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव अांख के होने पर भी मत्यज्ञानी होने से नहीं देखते और जानते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य जो अवधिज्ञानी हैं, वे पाहारपुद्गलों को जानते और देखते हैं / शेष जीव प्रक्षेपाहार को जानते हैं, लोमाहार को नहीं जानते देखते हैं। व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अपने ग्रहण किये गये आहार-पुद्गलों को न जानते हैं और न देखते हैं। वैमानिक देवों में जो सम्यग्दृष्टि हैं वे अपने-अपने विशिष्टज्ञान से प्राहार-पुद्गलों को जानते और देखते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि वैमानिक देव नहीं जानते-देखते हैं। अध्यवसान द्वार की अपेक्षा नारक आदि जीवों के प्रशस्त और अप्रशस्त अध्यवसायस्थान असंख्यात होते हैं। सम्यक्त्व-मिथ्यात्व द्वार की अपेक्षा एकेन्द्रियों से लगाकर असंज्ञो पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव मिथ्यात्वी ही होते हैं, शेष जीवों में कितने ही सम्यक्त्वी होते हैं, कितने ही मिथ्यात्वी होते हैं और कितने ही सम्यग्मिथ्यात्वी भी होते हैं / यह सब जानने की सूचना सूत्रकार ने गाथा संख्या एक से की है। ६०९-नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा तओ निव्वत्तणया तओ परियाइयणया तओ परिणामणया तो परियारणया तो पच्छा विकुठवणया? हंता गोयमा ! एवं / आहारपदं भाणियव्वं / भगवन् ! नारक अनन्तराहारी हैं ? (उपपात क्षेत्र में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही क्या अपने शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं ? ) तत्पश्चात् निर्वर्तनता (शरीर की रचना) करते हैं ? तत्पश्चात् पर्यादानता (अंग-प्रत्यंगों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण) करते हैं ? तत्पश्चात् परिणामनता (गृहीत पुद्गलों का शब्दादि विषय के रूप में उपभोग) करते हैं ? तत्पश्चात् परिचारणा (प्रवीचार) करते हैं ? और तत्पश्चात् विकुर्वणा (नाना प्रकार की विक्रिया) करते हैं ? (क्या यह सत्य है ?) हां गौतम ! ऐसा ही है / (यह कथन सत्य है / ) यहां पर (प्रज्ञापना सूत्रोक्त) पाहार पद कह लेना चाहिए। ६१०-कइविहे णं भंते ! पाउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! छविहे आउगबंधे पन्नत्ते / तं जहा–जाइनामनिहत्ताउए गतिनामनिहत्ताउए ठिइनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभागनामनिहत्ताउए ओगाहणानामनिहत्ताउए / भगवन् ! आयुकर्म का बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है। गौतम ! अायुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है / जैसे-जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामनिधत्तायुष्क / विवेचन-प्रत्येक प्राणी जिस समय आगामी भव की आयु का बन्ध करता है, उसी समय उस Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [समवायाङ्गसूत्र गति के योग्य जातिनाम कर्म का बन्ध करता है, गतिनाम कर्म का भी बन्ध करता है, इसी प्रकार उसके योग्य स्थिति, प्रदेश, अनुभाग और अवगाहना (शरीर नामकर्म) का भी बन्ध करता है / जैसे -कोई जीव इस समय देवायु का बन्ध कर रहा है तो वह इसी समय उसके साथ पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म का भी बन्ध कर रहा है, देवगति नामकर्म का भी बन्ध कर रहा है. प्रायु की नियत कालवाली स्थिति का भी बन्ध कर रहा है, उसके नियत परिमाण वाले कर्मप्रदेशों का भी बन्ध कर रहा है, नियत रस-विपाक या तीव्र-मन्द फल देने वाले अनुभाग का भी बन्ध कर रहा है और देवगति में होने वाले वैक्रियिक अवगाहना अर्थात् शरीर का भी बन्ध कर रहा है / इन सब अपेक्षाओं से प्रायुकर्म का बन्ध छह प्रकार का कहा गया है / ६११–नेरइयाणं भंते ! कइविहे आउगबंधे पन्नत्ते ? गोयमा ! छबिहे पन्नत्ते / तं जहाजातिनाम० गइनाम० ठिइनाम० पएसनाम० अणुभागनाम० प्रोगाहणानाम० / एवं जाव वेमाणियाणं। भगवन् ! नारकों का आयुबन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! छह प्रकार का कहा गया है। जैसे-जातिनामनिधत्तायुष्क, गतिनामनिधत्तायुष्क, स्थितिनामनिधत्तायुष्क, प्रदेशनामनिधत्तायुष्क, अनुभागनामनिधत्तायुष्क और अवगाहनानामधित्तायुष्क। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक देवों तक सभी दंडकों में छह-छह प्रकार का आयुबन्ध जानना चाहिए। ६१२–निरयगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नता? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ते / भगवन् ! नरकगति में कितने विरह-(अन्तर-) काल के पश्चात् नारकों का उपपात (जन्म) कहा गया है ? _ गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त नारकों का विरहकाल कहा गया है। विवेचन-जितने समय तक विवक्षित गति में किसी भी जीव का जन्म न हो, उतने समय को विरह या अन्तरकाल कहते हैं / यदि नरक में कोई जीव उत्पन्न न हो, तो कम से कम एक समय तक नहीं उत्पन्न होगा / यह जघन्य विरहकाल है / अधिक से अधिक बारह मुहूर्त तक नरक में कोई जीव उत्पन्न नहीं होगा, यह उत्कृष्टकाल है। (बारह मुहूर्त के बाद कोई न कोई जीव नरक में उत्पन्न होता ही है।) ६१३–एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई। इसी प्रकार तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिए। विवेचन--ऊपर जो उत्कृष्ट अन्तर या विरहकाल बारह मुहूर्त प्रतिपादन किया गया है, वह Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [219 सामान्य कथन है। विशेष कथन को अपेक्षा प्रागम में नरक की सातों ही पृथिवियों में नारकों का विरहकाल भिन्न-भिन्न बताया गया है / जैसा कि टोका में उद्धृत निम्न गाथा से स्पष्ट है-- चउवीसई मुहुत्ता सत्त अहोरत्त तह य पन्नरसा / मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालो त्ति / / 1 // अर्थात्-उत्कृष्ट विरहकाल पहिली पृथिवी में चौबीस मुहूर्त, दूसरी में सात अहोरात्र, तीसरी में पन्द्रह ग्रहोरात्र, चौथी में एक मास, पांचवीं में दो मास, छठी में चार मा प्रथिवी में छह मास का होता है। इसी प्रकार सभी भवनवासियों का उत्कृष्ट विरहकाल चौबीस मुहूर्त का है। पृथिवीकायिक आदि पांचों स्थावरकायिक जीवों की उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है, अत: उनकी उत्पत्ति का विरहकाल नहीं है। द्वीन्द्रिय जीवों का विरहकाल अन्तर्मुहूर्त है / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यचों का भी विरहकाल अन्तर्मुहूर्त है। गर्भज तिर्यंचों और मनुष्यों का विरहकाल बारह मुहूर्त है / सम्मूच्छिम मनुष्यों का विरहकाल चौबीस मुहूर्त है / व्यन्तर, ज्योतिष्क और सोधर्म-ईशान कल्प के देवों का विरहकाल भो चौबीस मुहूर्त है / सनत्कुमार कल्प में देवों का विरहकाल नौ दिन और बीस मुहूर्त है। माहेन्द्रकल्प में देवों का विरहकाल बारह दिन अौर दश मुहूर्त है। ब्रह्मलोक में देवों का विरहकाल साढ़े बाईस रात-दिन है। लान्तक कल्प में देवों का विरहकाल पंतालीस दिन-रात अर्थात डेढ़ मास है। महाशुक्रकल्प में देवो का विरहकाल अस्सी दिन (दो मास बीस दिन) है / सहस्रारकल्प में देवों का विरहकाल सौ दिन (तीन माह दश दिन) है / अानत-प्राणत कल्प में देवों का विरहकाल संख्यात मास है। प्रारण-अच्युत कल्प में देवों का विरहकाल संख्यात वर्ष है। अधस्तन तीनों ग्रैवेयकों में विरहकाल संख्यात शत वर्ष है। मध्यम तीनों ग्रेवेयकों में विरहकाल संख्यात सहस्र वर्ष है। उपरिम तीनों अवेयकों में विरहकाल संख्यात शत-महस्र (लाख) वर्ष है। विजयादि चार अनत्तर विमानों में विरहकाल असंख्या मथिसिद्ध ग्रनत्तर विमान में विरहकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। ६१४-सिद्धगई णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया सिझणयाए पन्नत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासे / एवं सिद्धिवज्जा उब्वट्टणा / भगवन् ! सिद्धगति कितने काल तक विरहित रहती है ? अर्थात् कितने समय तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से छह मास सिद्धि प्राप्त करने वालों से विरहित रहती है। अर्थात् सिद्धगति का विरह काल छह मास है। इसी प्रकार सिद्धगति को छोड़कर शेष सब जीवों को उद्वर्तना (मरण) का विरह भी जानना चाहिए। विवेचन-विवक्षित गति को छोड़कर उससे बाहर निकलने को उद्वर्तना कहते हैं / सिद्वगति को प्राप्त जीव वहाँ से कभी भी नहीं निकलते हैं, अतः उनको उद्वर्तना का निषेध किया गया है / शेष चारों ही गतियों से जीव अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर निकलते हैं और नवीन पर्याय को धारण करते हैं, अतः उन सबकी उद्वर्तना आगम में कही गई है / उसे पागम से जानना चाहिए / Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [समवायाङ्गसूत्र ६१५-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पन्नत्ता ? एवं उववायदंडगो भाणियन्वो उव्वट्टणादंडओ य / - भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नारक कितने विरह-काल के बाद उपपात वाले कहे गये हैं ? उक्त प्रश्न के उत्तर में यहाँ पर (प्रज्ञापनासूत्रोक्त) उपपात-दंडक कहना चाहिए / इसी प्रकार उद्वर्तना-दंडक भी कहना चाहिए। विवेचन--सूत्र में जिस उपपात-दण्डक के जानने की सूचना की है, वह इस प्रकार हैरत्नप्रभा पृथिवी के नारकी जीवों का उपपात-विरहकाल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से चौबीस मुहूर्त है / शर्करा पृथिवी के नारकों का उत्कृष्ट उपपात-विरहकाल सात रात-दिन है। वालुका पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल अर्ध मास (15 रात-दिन) है। पंकप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल एक मास है। धूमप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल दो मास है। तमःप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल चार मास है। महातमःप्रभा पृथिवी में नारकों का उत्कृष्ट विरहकाल छह मास है। असुर कुमारों का उत्कृष्ट उपपात-विरहकाल चौबीस मुहर्त है। इसी प्रकार शेष सभी भवनवासियों का जानना चाहिए / पृथिवीकायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय जीवों का विरहकाल नहीं है, क्योंकि वे सदा ही उत्पन्न होते रहते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों का विरहकाल अन्तमुहूर्त है / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का विरहकाल जानना चाहिए। गर्भोपक्रान्तिक मनुष्यों का विरहकाल बारह मुहूर्त है। सम्मूच्छिम मनुष्यों का विरहकाल चौबीस मुहूर्त है। व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देवों का दिरहकाल भी चौबीस-चौबीस मुहूर्त है। सनत्कुमार देवों का विरहकाल नौ दिन और बीस महत्तं है। माहेन्द्र देवों का विरहकाल बारह दिन और दश मुहूर्त है। ब्रह्मलोक के देवों का विरहकाल साढ़े बाईस दिन-रात है। लान्तक देवों का विरहकाल पैंतालीस रात-दिन है / महाशुक्र देवों का विरहकाल अस्सी दिन है। सहस्रार देवों का विरहकाल एक सौ दिन है। प्रानत देवों का विरहकाल संख्यात मास है। इसी प्रकार प्राणत देवों का भी जानना चाहिए। प्रारण और अच्युत देवों का विरहकाल संख्यात वर्ष है / अधस्तन ग्रेवेयक त्रिक के देवों का विरहकाल संख्यात शत वर्ष है। मध्यम ग्रैवेयक त्रिक के देवों का विरहकाल त सहस्र वर्ष है। उपरितन ग्रंवेयक त्रिक के देवों का विरहकाल संख्यात शतसहस्र वर्ष है। विजयादि चार अनुत्तर विमानों के देवों का विरहकाल असंख्यात वर्ष है और सर्वार्थ सिद्ध देवों का विरहकाल पल्यापम का असख्यातवा भाग प्रमाण है। यह सब उपपात के विरह का काल है। विवक्षित नरक, स्वर्ग आदि से निकलने को अर्थात् उस पर्याय को छोड़कर अन्य पर्याय में जन्म लेने को उद्वर्तना कहते हैं। जिस गति का जितना विरहकाल बताया गया है, उसका उतना ही उद्वर्तनाकाल जानना चाहिए। ६१६–नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउगं कति आगरिसेहि पगरंति ? गोयमा! सिघ एक्केणं, सिय दोहि, सिय तोहि, सिय चहि, सिय पंचहि, सिय छहि, सिय सहि, सिय अहिं [आगरिसेहि पगरंति] नो चेव णं नहिं / Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण] [221 99 / एवं सेसाण वि पाउगाणि जाव वेमाणिय ति। भगवन् ! नारक जीव जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का कितने आकर्षों से बन्ध करते हैं। गौतम ! स्यात् (कदाचित्) एक आकर्ष से, स्यात् दो अाकर्षों से, स्यात् तीन आकर्षों से, स्यातू चार पाकर्षों से, स्यात् पाँच आकर्षों से, स्यात् छह आकर्षों से, स्यात् सात प्राकर्षों से और स्यात् पाठ आकर्षों से जातिनामनिधत्तायुष्क कर्म का बन्ध करते हैं। किन्तु नौ आकर्षों से बन्ध नहीं करते हैं। इसी प्रकार शेष आयुष्क कर्मों का बन्ध जानना चाहिए। इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिक कल्प तक सभी दंडकों में आयुबन्ध के अाकर्ष जानना चाहिए। विवेचन सामान्यतया आकर्ष का अर्थ है-कर्मपुद्गलों का ग्रहण / किन्तु यहाँ जीव के आगामी भव की आयु के बंधने के अवसरों को आकर्षकाल कहा है / यह प्राकर्ष-जीव के अध्यवसायों को तीव्रता और मन्दता पर निर्भर हैं / तीव्र अध्यवसाय हों तो एक ही बार में जीव आयु के दलिकों को ग्रहण कर लेता है / अध्यवसाय मंद हों तो दो आकर्षों से, मन्दतर हों तो तीन से और मन्दतम अध्यवसाय हों तो चार-पांच-छह-सात या आठ आकर्षों से प्रायू का बन्ध होता है। इससे अधिक अाकर्ष कदापि नहीं होते। ६१७--कइविहे णं भत्ते ! संघयणे पन्नत्ते ? गोयमा ! छब्बिहे संघयणे पन्नत्ते / तं जहावइरोसभनारायसंघयणे 1, रिसभनारायसंघयणे 2, नारायसंघयणे 3, अद्धनारायसंघयणे 4, कोलिया. संघयणे 5, छेवट्टसंघयणे 6 / भगवन् ! संहनन कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संहनन छह प्रकार का कहा गया है / जैसे—१. वज्रर्षभ नाराच संहनन, 2. ऋषभनाराच संहनन, 3. नाराच संहनन, 4. अर्ध नाराच संहनन, 5. कीलिका संहनन और 6. सेवार्त संहनन / विवेचन--शरीर के भीतर हड्डियों के बन्धन विशेष को संहनन कहते हैं। उसके छह भेद प्रस्तुत सूत्र में बताये गये हैं / वज्र का अर्थ कीलिका है, ऋषभ का अर्थ पट्ट है और मर्कट स्थानीय दोनों पावों की हड्डी को नाराच कहते हैं। जिस शरीर की दोनों पार्ववर्ती हड्डियाँ पट्ट से बंधी हों और बीच में कोली लगी हुई हो, उसे वज्र ऋषभनाराच संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियों में कीली न लगी हों, किन्तु दोनों पावों की हड्डियाँ पट्टे से बन्धी हों, उसे ऋषभनाराच संहनन कहते हैं / जिस शरीर की हड्डियों पर पट्ट भी न हो उसे नाराच संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियाँ एक ओर ही मर्कट बन्ध से युक्त हों, दूसरी ओर की नहीं हों, उसे अर्धनाराच संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियों में केवल कीली लगी हो उसे कीलिका संहनन कहते हैं। जिस शरीर की हड्डियाँ परस्पर मिली और चर्म से लिपटी हुई हों उसे सेवात संहनन कहते हैं / देवों और नारकी जीवों के शरीरों में हड्डियाँ नहीं होती हैं, अतः उनके संहनन का अभाव बताया गया है। मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव छहों संहनन वाले होते हैं / एकेन्द्रियादि शेष तिर्यंचों के संहननों का वर्णन आगे के सूत्र में किया है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [समवायाङ्गसूत्र 618- नेरइया णं भंते ! किसंघयणी [पन्नत्ता] ? गोयमा! छहं संघयणाणं असंघयणी। णेच अट्ठी व सिरा व हारू / जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया अणाएज्जा असुभा अमणुण्णा अमणामा अमणाभिरामा, ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति / भगवन् ! नारक किस संहनन वाले कहे गये हैं ? गौतम ! नारकों के छहों संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है / वे असंहननी होते हैं, क्योंकि उनके शरीर में हड्डी नहीं है, नहीं शिराएं (धमनियां) हैं और नहीं स्नायु (प्रांतें) हैं / वहाँ जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अनादेय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम और अमनोभिराम हैं, उनसे नारकों का शरीर संहनन-रहित ही बनता है। ६१९---असुरकुमारा णं भंते ! किसंघयणा पन्नता ? गोयमा ! छण्ह संघयणाणं असंघयणी। वट्ठो नेव छिरा व हारू / जे पोग्गला इट्ठा कंता पिया [आएज्जा] मणुण्णा [सुभा] मणामा मणाभिरामा, ते तेसि असंघयणताए परिणमंति / एवं जाव थणियकुमाराणं / भगवन् ! असुरकुमार देव किस संहनन वाले कहे गये हैं ? गौतम ! असुरकुमार देवों के छहों संहननों में से कोई भी संहनन नहीं होता है / वे असंहननी होते हैं, क्योंकि उनके शरीर में हड्डी नहीं होती है, नहीं शिराएं होती हैं, और नहीं स्नायु होती हैं / जो पुगद्ल इष्ट, कान्त, प्रिय, [पादेय, शुभ | मनोज्ञ, मनाम और मनोभिराम होते हैं, उनसे उनका शरीर संहनन-रहित ही परिणत होता है / / ___इस प्रकार नागकुमारों से लेकर स्तनितकुमार देवों तक जानना चाहिए अर्थात् उनके कोई संहनन नहीं होता। 620 ---पुढवीकाइया णं भंते ! किसंघयणी पन्नता ? गोयमा ! छेवट्टसंघयणी पन्नता / एवं जाव संमुच्छिम-पंचिदियतिरिक्खजोणिय त्ति / गभवतिया छव्विहसंघयणी / समुच्छिममणुस्सा छेवट्टसंघयणी। गम्भवक्कंतियमणुस्सा छविहसंघयणी / जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया य। भगवन् ! पृथिवीकायिक जीव किस संहनन वाले कहे गये हैं ? गौतम ! पृथिवीकायिक जीव सेवार्तसंहनन वाले कहे गये हैं। इसी प्रकार अप्कायिक से लेकर सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक तक के सब जीव सेवात संहननवाले होते हैं / गर्भोपक्रान्तिक तिर्यंच छहों प्रकार के संहननवाले होते हैं। सम्मूच्छिम मनुष्य सेवार्त संहनन वाले होते हैं / गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य छहों प्रकार के संहननवाले होते हैं / जिस प्रकार असुरकुमार देव संहनन-रहित हैं, उसी प्रकार वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव भी संहनन-रहित होते हैं / ६२१-कइविहे गं भंते ! संठाणे पन्नते ? गोयमा ! छविहे संठाणे पन्नते। तं जहा-- समचउरंसे 1, णिग्गोहपरिमंडले 2, साइए 3, बामणे 4, खुज्जे 5, हुंडे 6 / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधविषयनिरूपण ] [ 223 भगवन् ! संस्थान कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! संस्थान छह प्रकार का है—१. समचतुरस्रसंस्थान, 2. न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, 3. सादि या स्वातिसंस्थान, 4. वामनसंस्थान, 5. कुब्जकसंस्थान, 6 हुडकसंस्थान / / विवेचन शरीर के प्राकार को संस्थान कहते हैं / जिस शरीर के अंग और उपांग न्यूनता और अधिकता से रहित शास्त्रोक्त मान-उन्मान-प्रमाण वाले होते हैं, उसे समचतरत्र है / जिस शरीर में नाभि से ऊपर के अवयव तो शरीर-शास्त्र के अनुसार ठीक ठीक प्रमाणवाले हों किन्तु नाभि से नीचे के अवयव होन प्रमाण वाले हों, उसे न्यग्रोधसंस्थान कहते हैं। जिस शरीर में नाभि से नीचे के अवयव तो शरीर-शास्त्र के अनुरूप हों, किन्तु नाभि से ऊपर के अवयव उसके प्रतिकूल हों उसे सादिसंस्थान करते हैं / जिस शरीर के अवयव लक्षणयुक्त होते हुए भी विकृत और छोटे हों, तथा मध्यभाग में पीठ या छाती की ओर कूबड़ निकली हो, उसे कुब्जकसंस्थान कहते हैं। जिस शरीर में सभी अंग लक्षणशास्त्र के अनुरूप हों, पर शरीर बौना हो, उसे वामनसंस्थान कहते हैं। जिस शरीर में हाथ पैर आदि सभी अवयव शरीर-शास्त्र के प्रमाण से विपरीत हों उसे हुण्डसंस्थान कहते हैं / सभी नारकी जीव हुण्डसंस्थान वाले और सभी देव समचतुरस्र संस्थानवाले कहे गये हैं। शेष मनुष्य और तिर्यच छहों संस्थान वाले होते हैं / ६२२–णेरइया णं भंते ! किंसंठाणी पन्नत्ता / गोयमा ! हुंडसंठाणी पन्नत्ता / असुरकुमारा किसंठाणी पन्नत्ता ? गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिया पन्नत्ता / एवं जाव थणियकुमारा। भगवन् ! नारकी जीव किस संस्थानवाले कहे गये हैं ? गौतम ! नारक जीव हुंडकसंस्थान वाले कहे गये हैं। भगवन् ! असुरकुमार देव किस संस्थानवाले होते हैं ? गौतम ! असुरकुमार देव समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं / इसी प्रकार स्तनितकुमार तक के सभी भवनवासी देव समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं / ६२३–पुढवी मसूरसंठाणा पन्नत्ता। प्राऊ थिबुयसंठाणा पन्नत्ता। तेऊ सूईकलावसंठाणा पण्णत्ता / वाऊ पडागासंठाणा पन्नत्ता / वणस्सई नाणासंठाणसंठिया पन्नत्ता। पृथिवीकायिक जीव मसूरसंस्थान वाले कहे गये हैं। अप्कायिक जीव स्तिबुक (बिन्दु) संस्थानवाले कहे गये हैं / तेजस्कायिक जीव सूचीकलाप संस्थानवाले (सुइयों के पुज के समान आकार वाले) कहे गये हैं / वायुकायिक जीव पताका-(ध्वजा-) संस्थानवाले कहे गये हैं। वनस्पति कायिक जीव नाना प्रकार के संस्थानवाले कहे गये हैं। ६२४-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिय-सम्मुच्छिम-पंचेंदियतिरिक्खा हुडसंठाणा पन्नत्ता। गम्भवक्कंतिया छव्विहसंठाणा [पन्नत्ता] / संमुच्छिममणुस्सा हुंडसंठाणसंठिया पन्नत्ता। गन्भवतियाणं मणुस्साणं छब्बिा संठाणा पन्नत्ता / जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया वि / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिथंच जीव हुंडक संस्थानवाले और गर्भोपक्रान्तिक तिर्यंच छहों संस्थानवाले कहे गये हैं। सम्मूच्छिम मनुष्य हुंडक संस्थानवाले तथा गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य छहों संस्थानवाले कहे गये हैं। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [समवायाङ्गसूत्र जिस प्रकार असुरकुमार देव समचतुरस्र संस्थान वाले होते हैं, उसी प्रकार वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव भी समचतुरस्र संस्थानवाले होते हैं / ६२५---कइविहे णं भंते ! वेए पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे वेए पन्नत्ते। तं जहा-इत्थीवेए पुरिसवेए नपुसवेए। भगवन् ! वेद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! वेद तीन हैं-स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुसक वेद / ६२६–नेरइया णं भंते ! कि इत्थीवेया पुरिसवेया णपुसगवेया पन्नत्ता? गोयमा ! णो इत्थीवेया, णो पुवेया, गपु सगवेया पण्णत्ता। भगवन् ! नारक जीव क्या स्त्री वेदवाले हैं, अथवा नपुसक वेदवाले हैं ? गौतम ! नारक जीव न स्त्री वेदवाले हैं, न पुरुषवेद वाले हैं, किन्तु नपुसक वेदवाले होते हैं / र ६२७-असुरकुमारा णं भंते ! कि इत्थोवेया पुरिसवेया णपुसगवेया ? गोयमा ! इत्थीवेया, पुरिसवेया। णो णपुसगवेया। जाव थणियकुमारा। भगवन् ! असुरकुमार देव स्त्रीवेदवाले हैं, पुरुषवेद वाले हैं, अथवा नपुसक वेदवाले हैं ? गौतम ! असुरकुमार देव स्त्री वेदवाले हैं, पुरुषवेद वाले हैं, किन्तु नपुसक वेदवाले नहीं होते हैं / इसी प्रकार स्तनितकुमार देवों तक जानना चाहिए / ६२८-पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वणस्सई वि-ति-चरिदिय-समुच्छिमचिदियतिरिक्खसंमुच्छिममणुस्सा णपुंसगवेया। गब्भवक्कंतियमणुस्सा पंचिदियतिरिया य तिवेया। जहा असुरकुमारा, तहा वाणमंतरा जोइसिय-वेमाणिया वि। पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिमपंचेन्द्रिय तिथंच और सम्मूच्छिम मनुष्य नपुंसक वेदवाले होते हैं / गर्भोपक्रान्तिक मनुष्य और गर्भोपक्रान्तिक तिर्यच तीनों वेदों वाले होते हैं / जैसे-असुकुमार देव स्त्री वेद और पुरुष वेदवाले होते हैं, उसी प्रकार वानव्यन्तर, ज्योतिष्क वैमानिक देव भी स्त्रीवेद और पुरुष वेद वाले होते हैं। [विशेष बात यह है कि ग्रेवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव, तथा लौकान्तिक देव केवल पुरुष वेदी होते हैं / Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष ६२९--तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जाव गणहरा सावच्चा निरवच्चा वोच्छिण्णा। उस दुःषम-सुषमा काल में और उस विशिष्ट समय में [जब भगवान महावीर धर्मोपदेश करते हुए विहार कर रहे थे, तब] कल्पभाष्य के अनुसार समवसरण का वर्णन वहाँ तक करना चाहिए, जब तक कि सापत्य (शिष्य-सन्तान-युक्त) सुधर्मास्वामी और निरपत्य (शिष्य-सन्तान-रहित शेष सभी) गणधर देव व्युच्छिन्न हो गये, अर्थात् सिद्ध हो गये। ६३०–जंबुद्दोवे गं दीवे भारहे वासे तोयाए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्या / तं जहा मित्तदामे सुदामे य सुपासे य सयंपभे / विमलघोसे सुघोसे य महाघोसे य सत्तमे // 1 // इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अतीतकाल की उत्सपिणी में सात कुलकर उत्पन्न हुए थे। जैसे-- 1. मित्रदाम, 2. सुदाम, 3. सुपार्श्व, 4. स्वयम्प्रभ, 5. विमलघोष, 6. सुघोष और 7. महाघोष / / 1 // ६३१-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए ओसप्पिणीए दस कुलगरा होत्या / तं जहा सयंजले सयाऊ य प्रजियसेणे अणंतसेणे य / कज्जसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे य सत्तमे // 2 // दढरहे दसरहे सयरहे। इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अतीतकाल की अवसर्पिणी में दश कुलकर हुए थे। जैसे 1. शतंजल, 2. शतायु, 3. अजितसेन, 4. अनन्तसेन, 5. कार्यसेन, 6. भीमसेन, 7. महाभोमसेन, 8. दृढ़रथ, 9. दशरथ और 10. शतरथ / / 2 / / 632. जंबुद्दीने णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाए सत्त कुलगरा होत्था / तं जहा-- पढमेत्य विमलवाहण [चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे। तत्तो पसेणइए मरुदेवे चेव नाभी य // 3 // ] एतेसि णं सत्तण्हं कुलगराण सत्त भारिआ होत्था / तं जहा-- चंदजसा चंदकता [सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य। सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई // 4 // ] Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [समवायाङ्गसूत्र इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इस अवपिणी काल में सात कुलकर हुए / जैसे--- 1. विमलवाहन, 2. चक्षुष्मान् 3. यशष्मान् 4. अभिचन्द्र, 5. प्रसेनजित, 6. मरुदेव, 7. नाभिराय / / 3 / / इन सातों ही कुलकरों की सात भार्याएं थीं / जैसे-. 1. चन्द्रयशा, 2. चन्द्रकान्ता, 3. सुरूपा, 4. प्रतिरूपा, 5. चक्षुष्कान्ता, 6. श्रीकान्ता और 7. मरुदेवो / ये कुलकरों को पत्नियों के नाम हैं / / 4 // ६३३–जंबुद्दीवे णं वीवे भारहे वासे इमोसे णं प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं पियरो होत्था / तं जहा णाभी य जियसत्तू य [जियारी संवरे इय / मेहे धरे पइठे य महसेणे य खत्तिए // 5 // सुग्गोवे दढरहे विण्हू वसुपुज्जे य खत्तिए / कयवम्मा सोहसेणे भाणू विस्ससणे इय // 6 // सूरे सुदंसणे कुभे सुमित्तविजए समुद्दविजये य / राया य आससेणे य सिद्धत्थे च्चिय खत्तिए // 7 // ] उदितोदिय कलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया। तित्थप्पबत्तयाणं एए पियरो जिणवराणं // 8 // इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में चौवीस तीर्थंकरों के चौवीस पिता हुए। जैसे 1. नाभिराय, 2. जितशत्रु, 3. जितारि, 4. संवर, 5. मेघ, 6. धर, 7. प्रतिष्ठ, 8. महासेन, 9. सुग्रोव, 10. दृढ़रथ, 11. विष्णु, 12. वसुपूज्य, 13. कृतवर्मा, 14. सिंहसेन, 15. भानु, 16. विश्वसेन 17. सूरसेन, 18. सुदर्शन, 19. कुम्भराज, 20. सुमित्र, 21. विजय, 22. समुद्रविजय, 23. अश्वसेन और 24. सिद्धार्थ क्षत्रिय // 5-7 / / तीर्थ के प्रवर्तक जिनवरों के ये पिता उच्च कुल और उच्च विशुद्ध वंश वाले तथा उत्तम गुणों से संयुक्त थे / / 8 / / ६३४-जंबद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्थगराणं मायरो होत्था / तं जहा मरदेवी विजया सेणा [सिद्धस्था मंगला सुसीमा य / पुहवी लक्खणा रामा नंदा विण्हू जया सामा // 9 // सुजसा सुब्वय अइरा सिरिया देवी पभावई पउमा / वप्पा सिवा य वामा य तिसलादेवी य जिणमाया // 10 // ] इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी में चौवीस तीर्थंकरों की चौवीस माताएं हुई 1. मरुदेवी, 2. विजया, 3. सेना, 4. सिद्धार्था, 5. मंगला, 6. सुसीमा, 7. पृथिवी, 8. लक्ष्मणा, 9. रामा, 10. नन्दा, 11. विष्णु, 12 जया, 13. श्यामा, 14. सुयशा, 15. सुव्रता, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष] [227 16. अचिरा, 17. श्री, 18. देवी, 19. प्रभावती, 20. पद्मा, 21. वप्रा, 22. शिवा, 23. वामा और 24. त्रिशला देवी / ये चौबीस जिन-माताएं हैं / / 9-10 // ६३५-जंबद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे प्रोसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था। तं जहा.---उसभे 1, अजिये 2, संभवे 3, अभिणंदणे 4, सुमई 5, पउमप्यहे 6, सुपासे 7, चंदप्पभे 8, सुविहि-पुप्फदंते 9, सीयले 10, सिज्जंसे 11, वासुपुज्जे 12, विमले 13, अणते 14, धम्मे 15, संती 16, कु) 17, अरे 18, मल्ली 19, मुणिसुव्वए 20, णमो 21, मी 22, पासे 23, वड्डमाणो 24 य। इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल में चौवीस तीर्थंकर हुए। जैसे१. ऋषभ, 2. अजित, 3. संभव, 4. अभिनन्दन, 5. सुमति, 6. पद्मप्रभ, 7. सुपार्श्व, 8. चन्द्रप्रभ, 9. सुविधि-पुष्पदन्त, 10. शीतल, 11. श्रेयान्स, 12. वासुपूज्य, 13. विमल, 14. अनन्त, 15. धर्म 16. शान्ति, 17. कुन्थु, 18. अर, 19. मल्ली, 20. मुनिसुव्रत, 21. नमि, 22. नेमि 23. पार्श्व और 24. वर्धमान / ६३६–एएसि चउवोसाए तित्थगराणं चउन्बीसं पुटवभवया णामधेया होत्था / तं जहा पढमेत्य वइरणाभे विमले तह विमलवाहणे चेव / तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य // 11 // सुदरबाहु तह दोहबाहू जुगबाहू लट्ठबाहू य / दिण्णे य इंददत्ते सुदर माहिदरे चेव // 12 // सोहरहे मेहरहे रुप्पी अ सुदंसणे य बोद्धव्वे / तत्तो य णंदणे खलु सोहगिरी चेव वीसइमे // 13 // अदीणसत्तु संखे सुदंसणे नंदणे य बोद्धव्वे / [इमीसे] अोसप्पिणीए एए तिस्थकराणं तु पुन्वभवा // 14 // इन चौवीस तीर्थंकरों के पूर्वभव के चौवीस नाम थे / जैसे 1. उनमें प्रथम नाम वज्रनाभ, 2. विमल, 3. विमलवाहन, 4. धर्मसिंह, 5. सुमित्र, 6. धर्ममित्र, 7. सुन्दरबाहु, 8. दीर्घबाहु, 9. युगबाहु, 10. लष्ठबाहु, 11. दत्त, 12. इन्द्रदत्त, 13. सुन्दर, 14. माहेन्द्र, 15. सिंहरथ, 16. मेघरथ, 17. रुक्मी, 18. सुदर्शन, 19. नन्दन, 20. सिंहगिरि, 21. अदीनशत्रु, 22. शंख. 23. सुदर्शन और 24. नन्दन / ये इसी अवसर्पिणी के तीर्थंकरों के पूर्वभव के नाम जानना चाहिए / / 11-14 / / 637 -एएसि चउन्वीसाए तित्थकराणं चउब्दीसं सीयानो होत्था / तं जहा-. सीया सुदंसणा' सुप्पभा' य सिद्धाथ सुप्पसिद्धा' य। विजया' य वेजयंती जयंती अपराजिआ चेव // 15 // अरुणपभ चंदप्पभ० सूरप्पह'' अग्गि'२ सुप्पभा' चेव / विमला 4 य पंचवण्णा' 5 सागरदत्ता'६ णागदत्ता" य // 16 // अभयकर 8 णिन्वुइकरामणोरमा तह मणोहरा चेव / देवकुरू२२ उत्तराकुरा२३ विसाल चंदप्पभा२४ सीया // 17 // Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [समवायाङ्गसूत्र एयाओ सीआप्रो सब्वेसि चेव जिणवरिदाणं / सव्वजगवच्छलाणं सव्वोउयसुभाए छायाए // 18 // इन चौवीस तीर्थंकरों की चौवीस शिविकाएं (पालकियां) थीं। (जिन पर विराजमान होकर तीर्थकर प्रव्रज्या के लिए वन में गए। जैसे 1. सुदर्शना शिविका, 2. सुप्रभा, 3. सिद्धार्था, 4. सुप्रसिद्धा, 5. विजया, 6. वैजयन्ती, 7. जयन्ती, 8. अपराजिता, 9. अरुणप्रभा, 10. चन्द्रप्रभा, 11. सूर्यप्रभा, 12. अग्निप्रभा, 13. सुप्रभा, 14. विमला, 15. पंचवर्णा, 16. सागरदत्ता, 17. नागदत्ता, 18. अभयकरा, 19. नितिकारा, 20. मनोरमा, 21. मनोहरा, 22. देवकुरा, 23. उत्तरकुरा और 24. चन्द्रप्रभा / ये सभी शिविकाएं विशाल थीं / / 15-17 || सर्वजगत-वत्सल सभी जिनवरेन्द्रों की ये शिविकाएं सर्व ऋतुओं में सूखदायिनी उत्तम और शुभ कान्ति से युक्त होती हैं / / 18 / / ६३८-पुब्वि प्रोक्खित्ता माणुसेहि सा हट्ट (4) रोमकूवेहि / पच्छा वहंति सीयं असुरिंद-सुरिद-नागिदा // 19 // चल-चवल-कुडलधरा सच्छंदविउवियाभरणधारी। सुर-असुर-वंदित्राणं वहंति सी जिणिदाणं // 20 // पुरो वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि / पच्चच्छिमेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे // 21 // जिन-दीक्षा ग्रहण करने से लिए जाते समय तीर्थंकरों की इन शिविकाओं को सबसे पहिले हर्ष से रोमाञ्चित मनुष्य अपने कन्धों पर उठाकर ले जाते हैं। पीछे असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उन शिविकाओं को लेकर चलते हैं / / 19 / / चंचल चपल कुण्डलों के धारक और अपनी इच्छानुसार विक्रियामय आभूषणों को धारण करने वाले वे देवगण सुर-असुरों से वन्दित जिनेन्द्रों की शिविकाओं को वहन करते हैं / / 20 / / इन शिविकाओं को पूर्व की ओर [वैमानिक] देव, दक्षिण पार्श्व में नागकुमार, पश्चिम पार्श्व में असुरकुमार और उत्तर पार्श्व में गरुड़कुमार देव वहन करते हैं // 21 // ६३९-उसभो य विणीयाए बारवईए अरिटवरणेमी। अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु // 22 // ऋषभदेव विनीता नगरी से, अरिष्टनेमि द्वारावती से और शेष सर्व तीर्थंकर अपनी-अपनी जन्मभूमियों से दीक्षा-ग्रहण करने के लिए निकले थे / / 22 // ६४०-सव्वे वि एगदूसेण [णिग्गया जिणवरा चउव्वीसं / ___ण य णाम अण्णलिगे ण य गिहिलिगे कुलिगे व // 23 // ] सभी चौबीसों जिनवर एक दूष्य (इन्द्र-समर्पित दिव्य वस्त्र) से दीक्षा ग्रहण करने के लिए निकले थे / न कोई अन्य पाखंडी लिंग से दीक्षित हुआ, न गृहिलिंग से और न कुलिंग से दीक्षित हुआ। (किन्तु सभी जिन-लिंग से ही दीक्षित हुए थे।) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष ] [229 ६४१-एक्को भगवं वीरो [पासो मल्ली य तिहि तिहि सएहि / भगवं पि वासुपुज्जो हिं पुरिससहि निक्खंतो॥२४॥] उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं [च खत्तियाणं च / चउहिं सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्स-परिवारा // 25 // ] दीक्षा ग्रहण करने के लिए भगवान् महावीर अकेले ही घर से निकले थे / पार्श्वनाथ और मल्ली जिन तीन-तीन सौ पुरुषों के साथ निकले। तथा भगवान् वासुपूज्य छह सौ पुरुषों के साथ निकले थे।। 24 / / भगवान् ऋषभदेव चार हजार उग्र, भोग राजन्य और क्षत्रिय जनों के परिवार के साथ दीक्षा ग्रहण करने के लिए घर से निकले थे। शेष उन्नीस तीर्थंकर एक-एक हजार पुरुषों के साथ निकले थे।॥ 25 // ६४२-सुमइत्थ णिच्चभत्तण [णिग्गओ वासुपुज्ज चोत्थेणं / पासो मल्ली य अट्ठमेण सेसा उ छठेणं // 26 // ] सुमति देव नित्य भक्त के साथ, वासुपूज्य चतुर्थ भक्त के साथ, पाव और मल्ली अष्टमभक्त के साथ और शेष बीस तीर्थंकर षष्ठभक्त के नियम के साथ दीक्षित हुए थे / / 26 / / ६४३--एएसि णं चउवीसाए तित्थगराण चउव्वीसं पढमभिक्खादायारो होत्था / तं जहा सिज्जंस बंभदत्ते सुरिंददत्ते य इंददत्ते य / पउमे य सोमदेवे माहिदे तह य सोमदत्ते य // 27 // पुस्से पुणव्वसू पुण्णणंद सुगंदे जये य विजये य / तत्तो य धम्मसोहे सुमित्त तह वग्गसीहे अ॥२८॥ अवराजिय विस्ससेणे वीसइमे होइ उसभसेणे य / दिण्णे वरदत्ते धणे बहुले य प्राणपुवीए // 29 // एए विसद्धलेसा जिणवरभत्तीड पंजलिउडाउ। तं कालं तं समयं पडिलाभेई जिणवारदे // 30 // इन चौवीसों तीर्थंकरों को प्रथम वार भिक्षा देने वाले चौवीस महापुरुष हुए हैं / जैसे 1 श्रेयान्स, 2 ब्रह्मदत्त, 3 सुरेन्द्रदत्त, 4 इन्द्रदत्त, 5 पद्म, 6 सोमदेव, 7 माहेन्द्र, 8 सोमदत्त, 9 पुष्य, 10 पुनर्वसु, 11 पूर्णनन्द, 12 सुलन्द, 13 जय, 14 विजय, 15 धर्मसिंह, 16 सुमित्र, 17 वर्ग (वग्ग) सिंह, 18 अपराजित, 19 विश्वसेन, 20 वृषभसेन, 21 दत्त, 22 वरदत्त, 23 धनदत्त और 24 बहुल, ये क्रम से चौवीस तीर्थंकरों के पहिली वार आहारदान करने वाले जानना चाहिए / इन सभी विशुद्ध लेश्यावाले और जिनवरों की भक्ति से प्रेरित होकर अंजलिपुट से उस काल और उस समय में जिनवरेन्द्र तीर्थकरों को आहार वा प्रतिलाभ कराया // 27-30 / / ६४४--संबच्दरेण जिला [लद्धा उसमेण लोगणाहेण / सेसेहि वीदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ // 31 // ] लोकनाथ भगवान ऋषभदेव को.एक वर्ष के बाद प्रथम भिक्षा प्राप्त हुई। शेष सब तीर्थकरों को प्रथम भिक्षा दुगरे दिन प्राप्त हुई / / 31 // Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] [ समवायाङ्गसूत्र विवेचन- शेष तीर्थंकरों के दूसरे दिन भिक्षा-प्राप्त करने के उल्लेख का यह अर्थ है कि जो जितने भक्त के नियम के साथ दीक्षित हुए, उसके दूसरे दिन उन्हें भिक्षा प्राप्त हुई / ६४५---उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो प्रासि लोगणाहस्स / सेसाणं परमण्णं अमियरसरसोवमं आसि // 32 // सम्वेसि पि जिणाणं जहियं लद्धाउ पढमभिक्खाउ। तहियं वसुधाराम्रो सरोरमेत्तीओ वुढायो // 33 // लोकनाथ ऋषभदेव को प्रथम भिक्षा में इक्षुरस प्राप्त हुआ। शेष सभी तीर्थंकरों को प्रथम भिक्षा में अमृत-रस के समान परम-अन्न (खीर) प्राप्त हुप्रा / / 32 / / सभी तीर्थकर जिनों ने जहाँ जहाँ प्रथम भिक्षा प्राप्त की, वहाँ वहाँ शरीरप्रमाण ऊंचो वसुधारा को वर्षा हुई / / 33 / / ६४६-एएसि चउव्वीसाए तिस्थगराणं चउवीसं चेइयरुक्खा होत्था / तं जहा जग्गोह सत्तिवण्ण साले पियए पियंगु छत्ताहे। सिरिसे य जागरुक्खे साली य पिलंखुरुक्खे य // 34 // तिदुग पाडल जंबू आसत्थे खलु तहेव दहिवण्णे / गंदीरक्खे तिलए अंबयरक्खे य असोगे य॥३५॥ चंपय वउले य तहा वेडसरुक्खे य धायईरुक्खे / साले य वड्डमाणस्स चेइयरुक्खा जिणवराणं // 36 / / इन चौवीस तीर्थंकरों के चौवीस चैत्यवृक्ष थे / जैसे 1. न्यग्रोध (वट), 2. सप्तपर्ण, 3. शाल, 4. प्रियाल, 5. प्रियंगु, 6. छत्राह, 7. शिरीष, 8. नागवृक्ष, 9. साली, 10. पिलखुवृक्ष, 11. तिन्दुक. 12. पाटल, 13. जम्बु, 14. अश्वत्थ (पीपल) 15, दधिपर्ण, 16. नन्दीवृक्ष, 17. तिलक, 18. आम्रवृक्ष, 19. अशोक, 20. चम्पक, 21. बकुल, 22. वेत्रसवृक्ष, 23. धातकीवृक्ष और 24. वर्धमान का शालवृक्ष / ये चौवीस तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष हैं / / 34-36 / / ६४७-बत्तीसं धणुयाई चेइयरुक्खो य वद्धमाणस्स / णिच्चोउगो प्रसोगे श्रोच्छपणो सालरुक्खेणं // 37 // तिण्णेव गाउपाइंचेइयरक्खो जिणस्स उसभस्स। सेणाणं पुण रुक्खा सरीरओ वारसगुणा उ // 38 // सच्छता सपडागा सवेइया तोरणेहि उववेया / सुर-असुर-गरुलमहिआ चेइयरुक्खा जिणवराणं // 39 // वर्धमान भगवान् का चैत्यवृक्ष बत्तीस धनुष ऊंचा था, वह नित्य-ऋतुक था अर्थात् प्रत्येक ऋतु में उसमें पत्र-पुष्प आदि समृद्धि विद्यमान रहती थी। अशोकवृक्ष सालवृक्ष से आच्छन्न (ढंका हुआ) था, / / 37 / / ऋषभ जिन का चैत्यवृक्ष तीन गव्यूति (कोश) ऊंचा था। शेष तीर्थंकरों के चैत्यवृक्ष उनके शरीर को ऊंचाई से बारह गुणे ऊंचे थे।। 38 // जिनवरों के ये सभी चैत्यवृक्ष छत्र-युक्त, ध्वजा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष ] [ 231 पताका-सहित, वेदिका-सहित, तोरणों से सुशोभित तथा सुरों, असुरों और गरुडदेवों से पूजित थे / / 39 / / विवेचन--जिस वृक्ष के नीचे तीर्थंकरों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उसे चैत्यवृक्ष कहते हैं। कुछ के मतानुसार तीर्थकर जिस वृक्ष के नीचे जिन-दीक्षा ग्रहण करते हैं, उसे चैत्यवृक्ष कहा जाता है। कुबेर समवसरण में तीर्थंकर के बैठने के स्थान पर उसी वृक्ष की स्थापना करता है और उसे ध्वजा-पताका, वेदिका और तोरण द्वारों से सुसज्जित करता है। समवसरण-स्थित इन वट, शाल आदि सभी वृक्षों को 'अशोकवृक्ष' कहा जाता है, क्योंकि इनकी छाया में पहुंचते ही शोक-सन्तप्त प्राणी का भी शोक दूर होता है और वह अशोक (शोक-रहित) हो जाता है / ६४८-एएसि चउव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमसीसा होत्था / जहा पढमेत्थ उसभसेणे बीइए पुण होई सीहसेणे य / चारू य वज्जणाभे चमरे तह सुब्धय विदब्भे // 40 // दिण्णे य वराहे पुण आणंदे गोथुभे सुहम्मे य / मंदर जसे अरिठे चक्काह सयंभु कुभे य // 41 // इंदे कुभे य सुभे वरदत्ते दिण्ण इंदभूई य / उदितोदित कुलवंसा विसुद्धवंसा गुहिं उववेया // 42 // तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं / इन चौबीस तीर्थंकरों के चौवीस प्रथम शिष्य थे। जैसे 1. ऋषभदेव के प्रथम शिष्य ऋषभसेन, और दूसरे अजित जिनके प्रथम शिष्य सिंहसेन थे। पुनः क्रम से 3. चारु, 4. वज्रनाभ, 5. चमर, 6. सुव्रत, 7. विदर्भ, 8. दत्त, 9. वराह, 10. आनन्द, 11. गोस्तुभ, 12. सुधर्म, 13. मन्दर, 14. यश, 15. अरिष्ट, 16. चक्ररथ, 17. स्वयम्भू, 18. कुम्भ, 19. इन्द्र, 20. कुम्भ, 21. शुभ, 22. वरदत्त, 23. दत्त और 24. इन्द्रभूति प्रथम शिष्य हुए। ये सभी त्तम उच्चकल वाले, विशद्धवंश वाले और गणों से संयुक्त थे और तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों के प्रथम शिष्य थे / / 40-423 / / ६४९--एएसि णं चउवीसाए तित्थगराणं चउवीसं पढमसिस्सणी होत्था / तं जहा बंभी य फग्गु सामा अजिया कासवी रई सोमा / सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिधरा // 43 // पउमा सिवा सुई तह अंजुया भावियप्पा य। रक्खी य बंधुवती पुष्फवती अज्जा अमिला य अहिया // 44 // जस्सिणी पुष्फचूला य चंदणज्जा प्राहिया उ। उदितोदियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया / / 4 / / तित्थप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं / इन चौवीस तीर्थंकरों की चौवीस प्रथम शिष्याएं थीं। जैसे१. ब्राह्मी, 2. फल्गु, 3. श्यामा, 4. अजिता, 5. काश्यपी, 6. रति, 7. सोमा, 8. सुमना, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [समवायाङ्गसूत्र 9. वारुणी, 10. सुलसा, 11. धारिणी, 12. धरणी, 13. धरणिधरा, 14. पद्मा, 15. शिवा, 16. शुचि, 17. अंजुका, 18. भावितात्मा, 19. बन्धुमती, 20. पुष्पवती, 21. आर्या अमिला, 22. यशस्विनी, 23. पुष्पचूला और 24. आर्या चन्दना / ये सब उत्तम उन्नत कुलवाली, विशुद्धवाली, गुणों से संयुक्त थीं और तीर्थ-प्रवर्तक जिनवरों की प्रथम शिष्याएं हुईं // 43-453 / / 650 --जंबुद्दीवे णं [दोवे] भारहे वासे इमोसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिपियरो होत्मा। तं जहा उसभे सुमित्ते विजए समुद्दविजए य आससेणे य / विस्ससेणे य सूरे सुदंसणे कत्तवीरिए चेव // 46 // पउमुत्तरे महाहरी विजए राया तहेव य। बंभे बारसमे उत्ते पिउनामा चक्कवट्टोणं // 47 // इस जम्बूद्वीप के इसी भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में उत्पन्न हुए चक्रवतियों के बारह पिता थे। जैसे 1. ऋषभजिन, 2. सुमित्र, 3. विजय, 4. समुद्रविजय, 5 अश्वसेन, 6 विश्वसेन, 7. सूरसेन, 8. कार्तवीर्य, 9. पद्मोत्तर, 10. महाहरि, 11. विजय और 12. ब्रह्म। ये बारह चक्रवत्तियों के पितानों के नाम हैं / / 46-47 / / ६५१-जंबुद्दीवे [णं दीवे] भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए बारस चक्कट्टिमायरो होत्था / तं जहा-सुमंगला जसवती भद्दा सहदेवी अइरा सिरिदेवी तारा जाला मेरा वप्पा चुल्लिणि अपच्छिमा। __इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में बारह चक्रवर्तियों की बारह माताएं हुई / जैसे 1. सुमंगला, 2. यशस्वती, 3. भद्रा, 4. सहदेवी, 5. अचिरा, 6. श्री, 7. देवी, 8. तारा, 9. ज्वाला, 10. मेरा, 11. वप्रा, और 12. बारहवीं चुल्लिनी। 652 --जंबुद्दीवे [णं दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए] बारस चक्कवट्टी होत्था / तं जहा भरहो सगरो मघवं [ सणंकुमारो य रायसदूलो। संती कुयू य अरो हवइ सुभूमो य कोरवो // 48 // नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसदूलो। जयनामो य नरवई बारसमो बंभदत्तो य॥४९॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में बारह चक्रवर्ती हुए / जैसे 1. भरत, 2. सगर, 3. मघवा, 4. राजशार्दूल सनत्कुमार, 5. शान्ति, 6. कुन्थु, 7. पर, 8. कौरव-वंशी सुभूम, 9. महापद्म, 10. राजशार्दूल हरिषेण, 11. जय और 12. बारहवां नरपति ब्रह्मदत्त / / 48-49 / / Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष [233 .. ६५३-एएसि बारसण्हं चक्कवट्टीणं बारस इत्थिरयणा होस्था / तं जहा पढमा होइ सुभद्दा भद्द सुणंदा जया य विजया य / किण्हसिरी सूरसिरी पउमसिरी वसुधरा देवी // 50 // लच्छिमई कुरुमई इत्थीरयणाण नामाई। इन बारह चक्रवतियों के बारह स्त्रीरत्न थे / जैसे 1. प्रथम सुभद्रा, 2. भद्रा, 3. सुनन्दा, 4. जया, 5. विजया, 6. कृष्णश्री, 7. सूर्यश्री, 8. पद्मश्री, 9. बसुन्धरा, 10. देवो, 11. लक्ष्मीमती और 12. कुरुमती। ये स्त्रीरत्नों के नाम हैं / / (50-503) // ६५४--जंबुद्दीवे [णं दीवे भारहे वासे इमीसे अोसप्पिणीए] नवबलदेव-नववासुदेव-पितरो होत्था / तं जहा पथावई य बंभो [सोमो रुद्दो सिवो महसिवो य।। अग्गिसिहो य दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो // 51 // ] ___इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी में नौ बलदेवों और नौ वासुदेवों के नौ पिता हुए। जैसे 1. प्रजापति, 2. ब्रह्म, 3. सोम, 4. रुद्र, 5. शिव, 6. महाशिव, 7. अग्निशिख, 8. दशरथ और 9. वसुदेव / / 51 / / ६५५–जंबुद्दीवे णं [दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए] णव वासुदेवमायरो होत्था / तं जहा--- मियावई उमा चेव पुहवी सोया य अम्मया। लच्छिमई सेसमई केकई देवई तहा // 52 // इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में नौ वासुदेवों की नौ माताएं हुई / जैसे--- 1. मृगावती, 2. उमा, 3. पृथिवी, 4. सीता, 5. अमृता, 6. लक्ष्मीमती, 7. शेषमती, 8. केकयी और 9. देवकी / / 52 / / ६५६-जंबुद्दीवे णं [दीवे भारहे वासे इमीमे ओसप्पिणीए] णव बलदेवमायरो होत्था। तं जहा भद्दा तह सुभद्दा य सप्पभा य सुदंसणा। विजया वेजयंती य जयंती अपराजिया // 53 // णवमीया रोहिणी य बलदेवाण मायरो। इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में नौ बलदेवों की नौ माताएं हुईं। जैसे 1. भद्रा, 2. सुभद्रा, 3. सुप्रभा, 4. सुदर्शना, 5. विजया, 6. वैजयन्ती, 7. जयन्ती, 8. अपराजिता और 9. रोहिणी / ये नौ बलदेवों की माताएं थीं / / 53 // Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [समवायाङ्गसूत्र 657 ---जंबद्दीवेणं [दीवे भारहे वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए नव दसारमंडला होत्था / तं जहा–उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा ओयंसी तेयंसी बच्चसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूबा सुहसीला सुहाभिगमा सय्वजणणयणकंता ओहबला अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमहणा साणुक्कोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मियमंजुलपलावहसिया गंभीरमधुर-पडिपुण्णसच्चवयणा अब्भुवयवच्छला सरण्णा लवखण-बंजणगुणोववेप्रा माणम्माणपमाणपडिपुण्ण-सुजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोमागार-कंत-फ्यिदंसणा अमरिसण पयंडदंडप्पभारा गंभीरदरिसणिज्जा तालद्धओविद्ध-गरुलकेऊ, महाधणुविकड्या महासत्तसारा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकितिपुरिसा विउलकुलसमुन्भवा महारयणविहाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहा हल-मुसल-कणक-पाणी संख-चक्क-गय-सत्ति-नंदगधरा पवरुज्जल-सुक्कत-विमल-गोत्थुभ-तिरीडधारी कुडल-उज्जोइयाणणा पुडरीयणयणा एकावलि-कण्ठलइयवच्छा सिरिवच्छ-सुलंछणा वरजसा सव्वोउयसुरभि-कुसुम-रचित-पलंब-सोभंत-कंत-विकसंतविचित्तवर-मालरइय-वच्छा अट्ठसय-विभत्त-लक्खण-पसत्थ-सुबर-विरइयंगमंगा मत्तगयरिद-ललियविषकम-विलसियगई सारय-नवथणिय-महर-गंभीर-कोंच-निग्घोस-दभिसरा कडिसत्तग-नील-पीयकोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया नरस्सोहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अब्भहियरायतेयलच्छीए दिप्पमाणा नीलग-पीयगवसणा दुवे दुवे राम-केसवा भायरो होत्था / तं जहा इस जम्बूद्वीप में इस भारतवर्ष के इस अवसर्पिणीकाल में नौ दशारमंडल (बलदेव और वासुदेव समुदाय) हुए हैं। सूत्रकार उनका वर्णन करते हैं--- वे सभी बलदेव और वासुदेव उत्तम कुल में उत्पन्न हुए श्रेष्ठ पुरुष थे, तीर्थकरादि शलाका-पुरुषों के मध्यवर्ती होने से मध्यम पुरुष थे, अथवा तीर्थंकरों के बल की अपेक्षा कम और सामान्य जनों के बल की अपेक्षा अधिक बलशाली होने से वे मध्यम पुरुष थे। अपने समय के पुरुषों के शौर्यादि गुणों की प्रधानता की अपेक्षा वे प्रधान पुरुष थे। मानसिक बल से सम्पन्न होने के कारण प्रोजस्वी थे। देदीप्यमान शरीरों के धारक होने से तेजस्वी थे। शारीरिक बल से संयुक्त होने के कारण वर्चस्वी थे, पराक्रम के द्वारा प्रसिद्धि को प्राप्त करने से यशस्वी थे। शरीर की छाया (प्रभा) से युक्त होने के कारण वे छायावन्त थे। शरीर की कान्ति से युक्त होने से कान्त थे, चन्द्र के समान सौम्य मुद्रा के धारक थे, सर्वजनों के वल्लभ होने से वे सुभग या सौभाग्यशाली थे। नेत्रों को अतिप्रिय होने से वे प्रियदर्शन थे। समचतुरस्र संस्थान के धारक होने से वे सुरूप थे। शुभ स्वभाव होने से वे शुभशील थे / सुखपूर्वक सरलता से प्रत्येक जन उनसे मिल सकता था, अतः वे सुखाभिगम्य थे। सर्व जनों के नयनों के प्यारे थे। कभी नहीं थकनेवाले अविच्छिन्न प्रवाहयुक्त बलशाली होने से वे अोघबली थे, अपने समय के सभी पुरुषों के बल का अतिक्रमण करने से अतिबली थे, और महान् प्रशस्त या श्रेष्ठ बलशाली होने से वे महाबली थे। निरुपक्रम आयुष्य के धारक होने से अनिहत अर्थात् दूसरे के द्वारा होने वाले घात या मरण से रहित थे, अथवा मल्ल-युद्ध में कोई उनको पराजित नहीं कर सकता था, इसी कारण वे अपराजित थे। बड़े-बड़े युद्धों में शत्रुओं का मर्दन करने से वे शत्रु-मर्दन थे, सहस्रों शत्रुओं के मान का मथन करने वाले थे। आज्ञा या सेवा स्वीकार करने वालों पर द्रोह छोड़कर कृपा करने वाले थे। वे मात्सर्य-रहित थे, क्योंकि दूसरों के लेश मात्र भी गुणों के ग्राहक थे। मन वचन काय की स्थिर प्रवृत्ति के कारण वे अचपल (चपलता-रहित) थे। निष्कारण Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष] [235 प्रचण्ड क्रोध से रहित थे, परिमित मंजुल वचनालाप और मृदु हास्य से युक्त थे। गम्भीर, मधुर और परिपूर्ण सत्य वचन बोलते थे। अधीनता स्वीकार करने वालों पर वात्सल्य भाव रखते थे। शरण में आनेवाले के रक्षक थे। वज्र, स्वस्तिक, चक्र आदि लक्षणों से और तिल, मशा आदि व्यंजनों के गुणों से संयुक्त थे। शरीर के' मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण थे, वे जन्म-जात सर्वाङ्ग सुन्दर शरीर के धारक थे। चन्द्र के सौम्य आकार वाले, कान्त और प्रियदर्शन थे। 'अमसण' अर्थात् कर्तव्य-पालन में प्रालस्य-रहित थे अथवा 'अमर्षण' अर्थात् अपराध करनेवालों पर भी क्षमाशील थे। उदंड पृरुषों पर प्रचण्ड दण्डनीति के धारक थे। गम्भीर और दर्शनीय थे। बलदेव ताल वृक्ष के चिह्नवाली ध्वजा के और वासुदेव गरुड के चिह्नवाली ध्वजा के धारक थे / वे दशारमण्डल कर्ण-पर्यन्त महाधनुषों को खींचनेवाले, महासत्त्व (बल) के सागर थे। रण-भूमि में उनके प्रहार का सामना करना अशक्य था। वे महान् धनुषों के धारक थे, पुरुषों में धोर-वीर थे, युद्धों में प्राप्त कीति के धारक पुरुष थे, विशाल कुलों में उत्पन्न हुए थे, महारत्न वज्र (हीरा) को भी अंगूठे और तर्जनी दो अंगति गों से चर्ण कर देते थे। प्राधे भरत क्षेत्र के अर्थात तीन खण्ड के स्वामी थे। सौम्यस्वभावी थे। राज-कुलों और राजवंशों के तिलक थे। अजित थे (किसी से भी नहीं जीते जाते थे), और अजितरथ (अजेय रथ वाले) थे। बलदेव हल और मूशल रूप शस्त्रों के धारक थे, तथा वासुदेव शाङ्ग धनुष, पाञ्चजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, शक्ति और नन्दकनामा खङ्ग के धारक थे। प्रवर, उज्ज्वल, सुकान्त, विमल कौस्तुभ मणि युक्त मुकुट के धारी थे। उनका मुख कुण्डलों में लगे मणियों के प्रकाश से युक्त रहता था / कमल के समान नेत्र वाले थे / एकावली हार कण्ठ से लेकर वक्षःस्थल तक शोभित रहता था। उनका वक्षःस्थल श्रीवत्स के सुलक्षण से चिह्नित था। वे विश्वविख्यात यश वाले थे। सभी ऋतूम्रों में उत्पन्न होने वाले, सुगन्धित पृष्पों से रची गई. लंबी. शोभायक्त, विकसित, पंचवर्णी श्रेष्ठ माला से उनका वक्षःस्थल सदा शोभायमान रहता था। उनके सुन्दर अंग-प्रत्यंग एक सौ आठ प्रशस्त लक्षणों से सम्पन्न थे। वे मद-मत्त गजराज के समान ललित, विक्रम और विलास-युक्त गति वाले थे। शरद ऋतु के नव-उदित मेघ के समान मधूर, गम्भीर, क्रौंच पक्षी के निर्घोष और दुन्दुभि के समान स्वर वाले थे। बलदेव कटिसूत्र वाले नील कौशेयक वस्त्र से तथा वासुदेव कटिसूत्र वाले पीत कौशेयक वस्त्र से युक्त रहते थे (बलदेवों की कमर पर नीले रंग का और वासुदेवों की कमर पर पीले रंग का दुपट्टा बंधा रहता था)। वे प्रकृष्ट दीप्ति और तेज से युक्त थे, प्रबल बलशाली होने से वे मनुष्यों में सिंह के समान होने से नरसिंह, मनुष्यों के पति होने से नरपति, परम ऐश्वर्यशाली होने से नरेन्द्र, तथा सर्वश्रेष्ठ होने से नर-बृषभ कहलाते थे। अपने कार्य-भार का पूर्ण रूप से निर्वाह करने से वे मरुद्-वृषभकल्प अर्थात् देवराज की उपमा को धारण करते थे। अन्य राजा-महाराजाओं से अधिक राजतेज रूप लक्ष्मी से देदीप्यमान थे। इस प्रकार नीलवसनवाले नौ राम (बलदेव) और नव पोत-वसनवाले केशव (वासुदेव) दोनों भाई-भाई हुए हैं। 1. जल से भरी द्रोणी (नाव) में बैठने पर उससे बाहर निकाला जल' यदि द्रोण (माप-विशेष) प्रमाण हो तो वह पुरुष 'मान-प्राप्त' कहलाता है। तुला (तराजू ) पर बैठे पुरुष का वजन यदि अर्धभार प्रमाण हो तो वह उन्मान-प्राप्त कहलाता है। शरीर की ऊंचाई उसके अंगुल से यदि एक सौ पाठ अंगुल हो तो वह प्रमाणप्राप्त कहलाता है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र ६५८-तिविठे य [दुविठे य सयंभू पुरिसुत्तमे पुरिससोहे / तह पुरिसपुंडरीए दत्ते नारायणे कण्हे / / 54 / / अयले बिजये भद्दे सुप्पभे ये सुदंसणे / प्रानंदे नंदणे पउमे रामे यावि] अपच्छिमे / / 55 / / उनमें वासुदेवों के नाम इस प्रकार हैं-..-१. त्रिपृष्ठ, 2. द्विपृष्ठ, 3. स्वयम्भू, 4. पुरुषोत्तम, 5. पुरुषसिंह, 6. पुरुषपुंडरीक, 7. दत्त, 8. नारायण (लक्ष्मण) और 9. कृष्ण // 54 / / बलदेवों के नाम इस प्रकार हैं---१. अचल, 2. विजय, 3. भद्र, 4. सुप्रभ, 5. सुदर्शन, 6. आनन्द, 7. नन्दन, 8. पद्म और अन्तिम बलदेव राम / / 55 / / ६५९--एएसि णं णवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुव्वभविया नव नामधेज्जा होत्था। तं जहा विस्सभूई पम्वयए धणदत्त समुद्ददत्त इसिवाले। पियमित्त ललियमिते पुणव्वसू गंगदत्ते य // 56 // एयाइं नामाइं पुन्वभवे प्रासि वासुदेवाणं / एत्तो बलदेवाणं जहक्कम कित्तइस्सामि / / 57 // विसनन्दो य सुबन्धू सागरदत्ते असोगललिए य / वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य // 58 / / इन नव बलदेवों और वासुदेवों के पूर्व भव के नौ नाम इस प्रकार थे--. 1. विश्वभूति, 2. पर्वत, 3. धनदत्त, 4. समुद्रदत्त, 5. ऋषिपाल, 6. प्रियमित्र, 7. ललितमित्र, 8. पुनर्वसु, 9. और गंगदत्त / ये वासुदेवों के पूर्व भव में नाम थे। इससे आगे यथाक्रम से बलदेवों के नाम कहूंगा / / 56-57 / / 1. विश्वनन्दी, 2. सुबन्धु, 3. सागरदत्त, 4. अशोक, 5. ललित, 6. वाराह, 7. धर्मसेन, 8. अपराजित और 9. राजललित // 5 // ६६०–एएसि नवण्हं बलदेव-वासुदेवागं पुव्वभविया नव धम्मायरिया होत्था। तं जहा-- संभूय सुभद्द सदसणे य सेयंस कण्ह गंगदत्ते य / सागर समुदनामे दुमसेणे य णवमए / / 59 // एए धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं / पुब्वभवे एयासि जत्थ नियाणाई कासी य // 60 // इन नव बलदेवों और वासुदेवों के पूर्वभव में नौ धर्माचार्य थे 1. संभूत, 2. सुभद्र, 3. सुदर्शन, 4. श्रेयान्स, 5. कृष्ण, 6. गंगदत्त, 7. सागर, 8. समुद्र और 9 द्रुमसेन / / 59 / / ये नवों ही प्राचार्य कीर्तिपुरुष वासुदेवों के पूर्वभव में धर्माचार्य थे। जहाँ वासुदेवों ने पूर्व भव में निदान किया था उन नगरों के नाम आगे कहते हैं-- // 6 // ६६१-एएसि नवण्हं वासुदेवाणं पुश्वभवे नव नियाणभूमीओ होत्था / तं जहा-- महरा य [कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च रायगिहं। कायंदी कोसम्बी मिहिलपुरी] हत्थिणाउरं च // 61 // Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुप [237 इन नवों वासुदेवों की पूर्व भव में नौ निदान-भूमियाँ थीं। (जहाँ पर उन्होंने निदान (नियाणा) किया था।) जैसे-- 1. मथुरा, 2. कनकवस्तु, 3. श्रावस्ती, 4. पोदनपुर, 5. राजगृह, 6. काकन्दी, 7. कौशाम्बी, 8. मिथिलापुरी और 9. हस्तिनापुर // 62 / / ६६२–एतेसि णं नवण्हं वासुदेवाणं नव नियाणकारणा होत्था / तं जहा गावि जुवे [संगामे तह इत्थी पराइओ रंगे। भज्जाणुराग गोट्ठी परइड्ढी माउआ इय // 62 // ] इन नवों वासुदेवों के निदान करने के नौ कारण थे 1. गावी (गाय), 2. यूपस्तम्भ, 3. संग्राम, 4. स्त्री, 5. युद्ध में पराजय, 6. स्त्री-अनुराग 7. गोष्ठी, 8. पर-ऋद्धि और 9. मातृका (माता) // 63 // ६६३---एएसि नवण्हं वासुदेवाणं नव पडिसत्तू होत्था / तं जहा अस्सग्गीवे [तारए मेरए महुकेढवे निसुभे य। बलिपहराए तह रावणे य नवमे] जरासंधे // 63 // एए खलु पडिसत्त [कित्ती परिसाण वासदेवाणं। सब्वे वि चक्कजोही सव्वे वि हया] सचक्केहि // 64 // एक्को य सत्तमीए पंच य छट्ठीए पंचमी एक्को / एक्को य चउत्थीए कण्हो पुण तच्च पुढवीए // 65 // अणिदाणकडा रामा [सवे वि य केसवा नियाणकडा / उड्ढंगामी रामा केसव सम्वे अहोगामी // 66 // अळंतकडा रामा एगो पुण बंभलोयकप्पंमि / एक्कस्स गन्भवसही सिज्झिस्सइ आगमिस्सेणं // 67 // इन नवों वासुदेवों के नौ प्रतिशत्रु (प्रतिवासुदेव) थे। जैसे - 1. अश्वग्रीव, 2. तारक, 3. मेरक, 4. मधु-कैटभ, 5. निशुम्भ 6. बलि, 7. प्रभराज (प्रह्लाद), 8. रावण और 9. जरासन्ध / / 63 / / ये कीर्तिपुरुष वासुदेवों के नौ प्रतिशत्रु थे / ये सभी चक्रयोधी थे और सभी अपने ही चक्रों से युद्ध में मारे गये / / 64 / / उक्त नौ वासुदेवों में से एक मर कर सातवीं पृथिवी में, पांच वासुदेव छठी पृथिवी में, एक पांचवीं में एक चौथी में और कृष्ण तीसरी पृथिवी में गये // 65 / / ___सभी राम (बलदेव) अनिदानकृत होते हैं और सभी वासुदेव पूर्व भव में निदान करते हैं। सभी राम मरण कर ऊर्ध्वगामी होते हैं और सभी वासुदेव अधोगामी होते हैं // 66 // आठ राम (बलदेव) अन्तकृत् अर्थात् कर्मों का क्षय करके संसार का अन्त करने वाले हुए। एक अन्तिम बलदेव ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। जो आगामी भव में एक गर्भ-वास लेकर सिद्ध होंगे // 67 / / 664 -जंबुद्दीवे [णं दोवे] एरवए वासे इमोसे प्रोसप्पिणीए चउव्वीसं तित्थयरा होत्था / तं जहा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [समवायाङ्गसूत्र चंदाणणं सुचंदं अग्गीसेणं च नंदिसणं च / इसिदिण्णं वयहारि वंदिमो सोमचंदं च // 6 // वंदामि जुत्तिसेणं अजियसेणं तहेव सिवसेणं / बुद्धं च देवसम्म सययं निक्खित्तसत्थं च // 69 // प्रसंजलं जिणवसहं वंदे य अणंतयं अमियणाणि / उबसंतं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च // 7 // अतिपासं च सुपासं देवेसरवंदियं च मरुदेवं / निव्वाणगयं च धरं खीणदुहं साभकोठं च // 7 // जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरयमग्गिउत्तं च। वोक्कसियपिज्जदोसं वारिसेणं गयं सिद्धि // 72 / / इसी जम्बूद्वीप के ऐरवत वर्ष में इसी अवसर्पिणी काल में चौवीस तीर्थकर हुए हैं 1. चन्द्र के समान मुख वाले सुचन्द्र, 2. अग्निसेन, 3. नन्दिसेन, 4. व्रतधारी ऋषिदत्त और 5. सोमचन्द्र की मैं वन्दना करता हं // 67 // 6. युक्तिसेन, 7. अजितसे 9. बुद्ध, 10. देवशर्म, 11. निक्षिप्तशस्त्र (श्रेयान्स) की मैं सदा वन्दना करता हूं।।६९।। 12. असंज्वल, 13. जिनवृषभ और 14. अमितज्ञानी अनन्त जिन की मैं वन्दना करता हूं। 15. कर्मरज-रहित उपशान्त और 16. गुप्तिसेन की भी मैं वन्दना करता हूं // 70 // 17. अतिपार्श्व, 18. सुपार्श्व, तथा 19. देवेश्वरों से वन्दित मरुदेव, 20. निर्वाण को प्राप्त धर और 21. प्रक्षीण दुःख वाले श्यामकोष्ठ, 22. रागविजेता अग्निसेन, 23. क्षीणरागी अग्निपुत्र और राग-द्वेष का क्षय करने वाले, सिद्धि को प्राप्त चौवीसवें वारिषेण की मैं वन्दना करता हूं (कहीं-कहीं नामों के क्रम में भिन्नता भी देखी जाती है / ) // 71-72 / / ६६५–जंबुद्दीवे [णं दोवे ] आगमिस्साए उस्सप्पिणीए भारहे वासे सत्त कुलगारा भविस्संति / तं जहा - मियबाहणे सुभूमे य सुप्पभे य सयंपभे / दत्ते सुहुमे सुबंधू य आगमिस्साण होक्खंति // 73 // इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी काल में सात कुलकर होंगे / जैसे— 1. मितवाहन, 2. सुभूम, 3. सुप्रभ, 4. स्वयम्प्रभ, 5. दत्त, 6. सूक्ष्म और 7. सुबन्धु ये अागामी उत्सर्पिणी में सात कुलकर होंगे / / 73 / / ६६६-जंबुद्दीवे णं दीवे प्रागमिस्साए उस्सप्पिणीए एरवए वासे दस कुलगरा भविस्संति / तं जहा- विमलवाहणे सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दढधणू दसधणू सयधणू पडिसूई सुमइ ति / इसी जम्बूद्वीप के ऐरवत वर्ष में आगामी उर्पिणी काल में दश कुलकर होंगे 1. विमलवाहन, 2. सीमकर, 3. सीमंधर, 4. क्षेमकर, 5. क्षेमंघर, 6. दृढधनु, 7. दशधनु, 8. शतधनु, 9. प्रतिश्रुति और 10. सुमति / Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष ] [239 ६६७–जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउवासं तिस्थगरा भविस्संति / तं जहा महापउमे सूरदेवे सूपासे य सयंपों। सव्वाणुभूई अरहा देवस्सुए य होक्खइ / / 74 // उदए पेढालपुत्ते य पोट्टिले सत्तकित्ति य / मुणिसुब्वए य अरहा सव्वभावविऊ जिणे / / 75 // अममे णिक्कसाए य निप्पुलाए य निम्ममे। चित्तउत्ते समाही य आगमिस्सेण होक्खइ // 76 // संवरे अणियट्टी य विजए विमले ति य / देवोववाए अरहा अणंतविजए इ य // 77 // एए वुत्ता चउव्वीसं भरहे वासम्मि केवली। आगमिस्सेण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा / / 78 // इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अागामी उत्सपिणी काल में चौवीस तीर्थकर होंगे / जैसे-- 1. महापा, 2. सूरदेव, 3. सुपार्श्व, 4. स्वयम्प्रभ, 5. सर्वानुभूति, 6. देवश्रुत, 7. उदय, 8. पेढालपुत्र, 9. प्रोष्ठिल, 10. शतकीति, 11. मुनिसुव्रत, 12. सर्वभाववित्, 13. अमम, 14. निष्कषाय, 15. निष्पलाक, 16. निर्मम, 17. चित्रगुप्त, 18. समाधिगुप्त, 19. संवर, 20. अनिवत्ति, 21. विजय, 22. विमल, 23. देवोपपात और 24. अनन्तविजय / ये चौवीस तीर्थंकर भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी काल में धर्मतीर्थ की देशना करने वाले होंगे / / 74-78 / / ६६८-एएसिणं चउव्वीसाए तित्थकराणं पुव्वभविया चउव्वीसं नामधेज्जा भविस्संति (?) (होत्था / ) सेणिय सुपास उदए पोट्टिल्ल तह दढाऊ य / कत्तिय संखे य तहा नंद सुनन्दे य सतए य // 79 // बोधव्वा देवई य सच्चइ तह वासुदेव बलदेवे।। रोहिणि सुलसा चेव तत्तो खलु रेवई चेव / / 80 // तत्तोहबइ सयाली बोधब्वे खलुतहा भयालीय। दीवायणे य कण्हे तत्तो खलु नारए चेव // 81 // अंबड दारुमडे य साई बुद्धे य होइ बोद्धव्वे / भावी तित्थगराणं णामाई पुव्ववियाई // 2 // इन भविष्यकालीन चौवीस तीर्थंकरों के पूर्व भव के चौवीस नाम इस प्रकार हैं--- 1. श्रेणिक, 2. सुपार्श्व, 3. उदय, 4. प्रोष्ठिल अनगार, 5. दृढायु, 6. कार्तिक, 7. शंख, 8. नन्द, 9. सुनन्द, 10. शतक, 11. देवकी, 12. सात्यकि, 13. वासुदेव, 14. बलदेव, 15. रोहिणी, 16. सुलसा, 17. रेवती, 18. शताली, 19. भयाली, 20. द्वीपायन, 21. नारद, 22. अंबड, 23. स्वाति, 24. बुद्ध / ये भावी तीर्थकरों के पूर्व भव के नाम जानना चाहिए / 179-82 // Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [समवायाङ्गसूत्र ६६९-एएसि णं चउध्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पियरो भविस्संति, चउव्वीसं मायरो भविस्संति, चउव्वीसं पढमसीसा भविस्संति, चउव्वीसं पढमसिस्सणीओ भविस्संति, चउन्धीसं पढमभिक्खादायगा भविस्संति, चउव्वीसं चेइयरुक्खा भविस्संति / उक्त चौवीस तीर्थंकरों के चौवीस पिता होंगे, चौवीस माताएं होंगी, चौवीस प्रथम शिष्य होंगे, चौवीस प्रथम शिष्याएं होंगी, चौवीस प्रथम भिक्षा-दाता होंगे और चौवीस चैत्य वृक्ष होंगे। ६७०-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए बारस चक्कवट्टिणो भविस्संति / तं जहा भरहे य दोहदंते गूढदंते य सुद्धदंते य / सिरिउत्ते सिरिभूई सिरिसोमे य सत्तमे // 83 // पउमे य महापउमे विमलवाहणे [लेतह] विपुलवाहणे चेव / रि? बारसमे वुत्ते आगमिस्सा भरहाहिवा // 84 // इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी में बारह चक्रवर्ती होंगे / जैसे 1. भरत, 2. दीर्घदन्त, 3. गूढदन्त, 4. शुद्धदन्त, 5. श्रीपुत्र. 6. श्रीभूति, 7. श्रीसोम, 8. पद्म, 9. महापद्म, 10. विमलवाहन, 11. विपुलवाहन और बारहवाँ रिष्ट, ये बारह चक्रवर्ती आगामी उत्सर्पिणी काल में भरत क्षेत्र के स्वामी होंगे / / 83-84 // ६७१-एएसि णं बारसण्हं चक्कवट्टीणं बारस पियरो, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति / इन बारह चक्रवत्तियों के बारह पिता, बारह माता और बारह स्त्रीरत्न होंगे। ६७२-जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे प्रागमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेव-वासुदेव-पियरो भविस्संति, नव वासुदेवमायरो भविस्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति, नव दसारमंडला भविस्संति / तं जहा---उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा प्रोयंसी तेयंसी। एवं सो चेव वण्णओ भाणियचो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे राम-केसवा भायरो भविस्संति / तं जहा नंदे य नंदमित्ते दोहबाहू तहा महाबाहू। अइबले महाबले बलभद्दे य सत्तमे // 5 // दुविट्ठ य तिवट्ठ य आगमिस्साण वण्हिणो। जयंते विजए भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे / / 86 // आणंदे नंदणे पउमे संकरिसणे अपच्छिमे। इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सपिणी काल में नौ बलदेवों और नौ वासुदेवों के पिता होंगे, नौ वासुदेवों की माताएं होंगी, नौ बलदेवों की माताएं होंगी, नौ दशार-मंडल होंगे। वे उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, प्रधान पुरुष, प्रोजस्वी तेजस्वी प्रादि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त होंगे। पूर्व में जो दशार-मंडल का विस्तृत वर्णन किया है, वह सब यहाँ पर भी यावत् बलदेव नील वसनवाले और वासुदेव पीत वसनवाले होंगे, यहाँ तक ज्यों का त्यों कहना चाहिए। इस प्रकार भविष्यकाल में दो-दो राम और केशव भाई होंगे। उनके नाम इस प्रकार होंगे Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष] [241 1. नन्द, 2. नन्दमित्र, 3. दीर्घबाहु, 4. महाबाहु, 5. अतिबल, 6. महाबल 7. बलभद्र, 8. द्विपृष्ठ और 9. त्रिपृष्ठ ये नो आगामी उत्सर्पिणो काल में नौ वृष्णी या वासुदेव होंगे। तथा 1. जयन्त, 2. विजय, 3. भद्र, 4. सुप्रभ, 5. सुदर्शन, 6. आनन्द, 7. नन्दन, 8. पद्म, और अन्तिम 9. संकर्षण ये नौ बलदेव होंगे // 85-86 // ६७३–एएसि णं नवण्हं बलदेव-वासुदेवाणं पुष्वविया णव नामधेज्जा भविस्संति, गव धम्मायरिया भविस्संति, नव नियाणभूमीओ भविस्संति, नव नियाणकारणाभविस्संति, नव पडिसत्त भविस्संति / तं जहा तिलए य लोहजंघे वहरजंघे य केसरी पहराए / अपराइए य भोमे महाभीमे य सुग्गोवे // 87 // एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं। सब्बे वि चक्कजोही हम्महिंति सचवकेहिं // 8 // इन नवों बलदेवों और वासुदेवों के पूर्वभव के नौ नाम होंगे, नौ धर्माचार्य होंगे, नौ निदानभूमियाँ होंगी, नौ निदान-कारण होंगे और नौ प्रतिशत्रु होंगे / जैसे 1. तिलक, 2. लोहजंघ, 3. वज्रजंघ, 4. केशरी, 5. प्रभराज, 6. अपराजित, 7. भीम, 8. महाभीम, और 9. सुग्रीव / कीर्तिपुरुष वासुदेवों के ये नौ प्रतिशत्रु होंगे। सभी चक्रयोधी होंगे और युद्ध में अपने चक्रों से मारे जायेंगे // 87-88 / / __६७४–जंबुद्दोवे [णं दोवे] एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउव्वीसं तित्थकरा भविस्संति / तं जहा-- सुमंगले य सिद्धत्थे णिव्वाणे य महाजसे / धम्मज्झए य अरहा आगमिस्साण होक्खई / / 89 // सिरिचंदे पुप्फकेऊ महाचंदे य केवली। सुयसागरे य अरहा आगमिस्साण होक्खई // 9 // सिद्धत्थे पुण्णघोसे य महाघोसे य केवली / सच्चसेणे य अरहा आगमिस्साण होक्खई // 11 // सूरसेणे य अरहा महासेणे य केवली। सव्वाणंदे य अरहा देवउत्ते य होक्खई // 92 // सुपासे सुव्वए अरहा रहे य सुकोसले / अरहा प्रणंतविजए आगमिस्साण होक्खइ // 93 // विमले उत्तरे अरहा अरहा य महाबले। देवाणंदे य अरहा आगमिस्साण होक्खई // 94 // एए वुत्ता चउव्वीसं एरवयम्मि केवलो। आगमिस्साण होक्खंति धम्मतित्थस्स देसगा // 9 // इसी जम्बूद्वीप के ऐरवत वर्ष में आगामी उत्सर्पिणी काल में चौवीस तीर्थकर होंगे। जैसे१. सुमंगल, 2. सिद्धार्थ, 3. निर्वाण, 4. महायश, 5. धर्मध्वज, ये अरहन्त भगवन्त Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [ समवायाङ्गसूत्र आगामी काल में होंगे // 89 / / पुनः 6. श्रीचन्द्र, 7. पुष्पकेतु, 8. महाचन्द्र केवली और 9. श्रुतसागर अर्हन् होंगे / / 90 / / पुनः 10. सिद्धार्थ 11. पूर्णघोष, 12. महाघोष केवली और 13. सत्यसेन अर्हन् होंगे / / 91 // तत्पश्चात् 14. सूरसेन अर्हन् 15. महासेन केवली, 16. सर्वानन्द और 17. देवपुत्र अर्हन् होंगे / / 92 // तदनन्तर, 18. सुपार्श्व, 19. सुव्रत अर्हन, 20. सुकोशल अर्हन्, और 21. अनन्तविजय अर्हन् आगामी काल में होंगे // 93 // तदनन्तर, 22. विमल अर्हन, उनके पश्चात् 23. महाबल अर्हन और फिर 24. देवानन्द अर्हन् अागामी काल में होंगे / / 94 / / ये ऊपर कहे हुए चौवीस तीर्थंकर केवली ऐरक्त वर्ष में आगामी उत्सर्पिणी काल में धर्म-तीर्थ की देशना करने वाले होंगे // 95 / / ६७५-[जंबुद्दीवे णं दीवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए] बारस चक्कट्टिको भविस्संति, बारस चक्कवट्टिपियरो भविस्संति, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति / नव बलदेव-वासदेवपियरो भविस्संति, नव वासुदेवमायरो भविस्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति / नव दसारमंडला भविस्संति, उत्तिमा पुरिसा मज्झिमपुरिसा पहाणपुरिसा जाव दुवे दुवे राम-केसवा भायरो, भविस्संति, णव पडिसत्तू भविस्संति, नव पुव्वभवनामधेज्जा, णव धम्मायरिया, णव णियाणभूमीग्रो, गव णियाणकारणा आयाए एरवए आगमिस्साए भाणियन्वा / [इसी जम्बूद्वीप के ऐरवत वर्ष में आगामी उत्सपिणी काल में] बारह चक्रवर्ती होंगे, बारह चक्रवतियों के पिता होंगे, उनकी बारह माताएं होंगी, उनके बारह स्त्रीरत्न होंगे। नौ बलदेव और वासुदेवों के पिता होंगे, नौ वासुदेवों की माताएं होंगी, नौ बलदेवों की माताएं होंगी। नौ दशार मंडल होंगे, जो उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष, प्रधान पुरुष यावत् सर्वाधिक राजतेज रूप लक्ष्मी से देदीप्यमान दो-दो राम-केशव (बलदेव-वासुदेव) भाई-भाई होंगे। उनके नौ प्रतिशत्रु होंगे, उनके नौ पूर्व भव के नाम होंगे, उनके नौ धर्माचार्य होंगे, उनकी नौ निदान-भूमियां होंगी, निदान के नौ कारण होंगे। इसी प्रकार से आगामी उत्सर्पिणी काल में ऐरवत क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले बलदेवादि का मुक्ति-गमन, स्वर्ग से आगमन, मनुष्यों में उत्पत्ति और मुक्ति का भी कथन करना चाहिए। ६७६--एवं दोसु वि आगमिस्साए भाणियन्वा / इसी प्रकार भरत और ऐरवत इन दोनों क्षेत्रों में आगामी उत्सर्पिणी काल में होने वाले वासुदेव आदि का कथन करना चाहिए। ६७७-इच्चेयं एवमाहिज्जति / तं जहा-कुलगरवंसेइ य, एवं तित्थगरवंसेइ य, चक्कबट्टिवंसेइ य दसारवंसेइ वा गणधरवंसेइ य, इसिवंसेइ य, जइवंसेइ य, मुणिवंसेइ य, सुएइ वा, सुअंगेइ वा सुयसमासेइ वा, सुयखंधेइ वा समवाएइ वा, संखेइ वा समत्तमंगमक्खायं अज्झयणं ति वेमि / इस प्रकार यह अधिकृत समवायाङ्ग सूत्र अनेक प्रकार के भावों और पदार्थो का वर्णन करने के रूप से कहा गया है। जैसे—इसमें कुलकरों के वंशों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार तीर्थंकरों के वंशों का, चक्रवतियों के वंशों का, दशार-मंडलों का, गणधरों के वंशों का, ऋषियों के वंशों का यतियों के वंशों का और मुनियों के वंशों का भी वर्णन किया गया है / परोक्षरूप से त्रिकालवर्ती समस्त अर्थों का परिज्ञान कराने से यह श्रुतज्ञान है, श्रुतरूप प्रवचन-पुरुष का अंग होने से यह Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत-अनागतकालिक महापुरुष] [243 श्रुताङ्ग है, इसमें समस्त सूत्रों का अर्थ संक्षेप से कहा गया है, अतः यह श्रुतसमास है, श्रुत का समुदाय रूप वर्णन करने से यह 'श्रुतस्कन्ध' है, समस्त जोवादि पदार्थों का समुदायरूप कथन करने से यह 'समवाय' कहलाता है, एक दो तीन ग्रादि की संख्या के रूप से संख्यान का वर्णन करने से यह ‘संख्या' नाम से भी कहा जाता है। इसमें प्राचारादि अंगों के समान श्रुतस्कन्ध आदि का विभाग न होने से यह अंग 'समस्त' अर्थात् परिपूर्ण अंग कहलाता है / तथा इसमें उद्देश आदि का विभाग न होने से इसे 'अध्ययन' भी कहते हैं / इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी को लक्ष्य करके कहते हैं कि इस अंग को भगवान् महावीर के समीप जैसा मैंने सुना, उसी प्रकार से मैंने तुम्हें कहा है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त तीर्थंकरादि के वंश से अभिप्राय उनकी परम्परा से है। ऋषि, यति आदि शब्द साधारणतः साधुओं के वाचक हैं, तो भी ऋद्धि-धारक साधुओं को ऋषि, उपशम या क्षपकश्रेणी पर चढ़ने वालों को यति, अवधि, मनःपर्यय ज्ञान वालों को मुनि और गृहत्यागी सामान्य साधुओं को अनगार कहते हैं। संस्कृत टीका में गणधरों के सिवाय जिनेन्द्र के शेष शिष्यों को ऋषि कहा है। निरुक्ति के अनुसार कर्म-क्लेशों के निवारण करने वाले को ऋषि, आत्मविद्या में मान्य ज्ञानियों को मुनि, पापों के नाश करने को उद्यत साधुओं को यति और देह में भी निःस्पृह को अनगार कहते हैं।' यह समवायाङ्ग यद्यपि द्वादशाङ्गों में चौथा है, तथापि इसमें संक्षेप में सभी अंगों का वर्णन किया गया है, अत: इसका महत्त्व विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। // समवायाङ्ग सूत्र समाप्त // रेषणात्क्लेशराशीनामषिमाहर्मनीषिणः / मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः की|ते मुनिः // 829 // यः पापपाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् / योऽनीहो देह-गेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः / / 830 // .-- [यशस्तिलकचम्पू Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (1) ग्रन्थगतगाथानुक्रमणिका 239 226 231 231 85 ट 33 230 232 अकुमारभूए जे केई अळंतकडा रामा प्रणागयस्स नयवं अणियाणकडा रामा अणंतरा य पहारे अण्णाणया अलोभे प्रतवस्सी य जे केई अतिपासं च सुपासं अत्थे य सूरियावत्ते अदीणसत्तु संखे अपस्समाणो पासामि अप्पणो अहिए बाले अबहुस्सुए य जे केई प्रबंभयारी जे केई अभयकर णिव्वुइकरा अममे णिक्कसाए य अयले विजए भद्दे अरुणप्पभ चंदप्पभ असिपत्ते धणुकुभे असंजलं जिणवसहं अस्सग्गोवे तारए आणय-पाणय कप्पे पायरिय-उवज्झाएहिं आयरिय-उवझायाणं आलोयण निरवलावे आसीयं बत्तीसं अट्ठावीस अंबड दारुमडे य अंबे अंबरिसी चेव इड्ढी जुई जसो वण्णो 85 ईसरेण अदुवा गामेण 227 ईसादोसेण प्राविट्ठे 85 उक्खित्तणाए संघाडे 237 उदए पेढालपुत्ते य 216 उदितोदितकुलवंसा 93 उदितोदितकुलवंसा उदितोदितकुलवंसा 238 उवगसंतं पि झंपित्ता 50 उवट्टियं पडिविरयं 227 उवही-सुअ-भत्तपाणे 87 उसभस्स पढमभिक्खा 86 उसभे सुमित्त विजए 86 एए खलु पडिसत्तू 86 एए खलु पडिसत्तू 227 एए धम्मायरिया 239 एए वुत्ता चउव्वीसं 236 एए वुत्ता चउव्वीसं 227 एक्कारसुत्तरं हेडिमेसु 46 एक्को य सत्तमीसु 238 एयाई नामाई 237 किइकम्मस्स य करणे 201 किण्हसिरी सूरसिरी 86 गावि जुवे संगामे 86 गूढायारी निगूहिज्जा 93 घंसेइ जो अभूएण 201 चंदजसा चंदकता 239 चंदाणणं सुचंद 46 चंपग बउले य तहा 87 चउवीसई मुहुत्ता 249 236 201 237 236 له سه McCGM ر 230 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट -प्रन्थगतगाथानुक्रमणिका] [245 231 HNNY KcWRG للہ اس و 15 و و م ه له لم له سه لرم لم 00000 242 27 له m m 50 चउसट्ठी असुराणं चत्तारि दुवालस अट्ठ जं निस्सिए उवहणइ जस्सिणी पुप्फचूला य जाणमाणे परिसग्रो जायतेयं समारब्भ जियरागमग्गिसेणं जे प्रमाणुस्सए भोए जे कहाहिगरणाई जे नायगं च रटुस्स जे य पाहम्मिए लोए जे यावि तसे पाणे णग्गोह सत्तिवण्णे णाभी य जियसत्तू य तत्तो हवइ सयाली तहेवाणंतनाणीणं तिदुग पाडल जंबू तिण्णेव गाउयाई तिलए य लोहजंधे तिविठे य दुविठे य तीसा य पण्णवीसा दस चोद्दस अट्ठारसेव दावद्दवे उदगणाए दिण्णे य वराहे पुण दीव-दिसा-उदहीणं दुविठू य तिविठू य धिइ-मई य संवेग नंदी य नन्दिमित्त नवमो य महापउमो नेयाउयस्स मगस्स पउमा सिवासुई तह पउमुत्तरे महाहरी पउमे य महापउमे पच्चक्खाणे विउस्सग्गे पढमा होई सुभद्दा पढमेत्थ उसभसेणे 201 पढमेत्थ उसभसेणे 194 पढमेत्थ वइरनाभे 86 पढमेत्थ विमलवाहण 231 पयावई य बंभे पाणिणा संपिहित्ताणं 85 पुणो पुणो पणिधिए 238 बंभी य फग्गु सामा 87 बत्तीसं धणुयाई 86 बत्तीसट्टा वीसा 86 बहुजणस्स नेयारं 87 बारस एक्कारसमे 85 बोधव्वा देवई य 230 भद्दा तह सुभद्दा य 226 भरहे य दीहदंते 39 भरहो सगरो मघवं 86 मत्तंगया य भिंगा 230 मंदर जसे अरिठे 230 मंदर मेरु मणोरम 241 मरुदेवी विजया सेणा 236 महाप उमे सूरदेवे 201 महुरा य कणगवत्थू 194 मिगसिर अद्दा पुस्से 59 मित्तदामे सुदामे य 231 मियवाहणे सुभूमे य 201 मियवई उमा चेव 240 वदामि जुत्तिसेणं 93 वयछक्कं कायछक्कं 240 विमले उत्तरे अरहा 232 विसनन्दी य सुबन्धू 86 विस्सभूई पव्वयए 231 संगाणं च परिण्णाया 232 संभूय सुभद्द सुदंसणे 240 संवरे अणियट्टी य 93 सच्छत्ता सपडागा 233 सढे नियडीपण्णाणे 227 सतभिसय भरणि अद्दा 226 239 له له له 233 238 236 م لله لله لله و Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र सत्थपरिणा लोगविजयो सप्पी जहा अंडउड सयंजले सयए य सब्वेसि पि जिणाण साहारणट्ठा जे केई सिद्धत्थे पुण्णघोसे य सिरिचंदे पुप्फकेऊ सिस्संमि चे पहणइ सीमा सुदंसणा सुप्पभा सीसावेढेण जे केई 23,73 सीहरहे मेहरहे 86 सुदरबाहु तह दोहबाहू 225 सुग्गोवे दढरहे 230 सुजसा सुव्वय अइरा 86 सुपासे सुव्वए अरहा 241 सुभे य सुभघोसे य 241 सुमंगले य सिद्धत्थे 85 सूरसेणे य अरहा 227 सूरे सुदंसणे कुभे 85 सेणिय सुपास उदए 227 227 226 226 241 21 241 241 226 239 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (2) व्यक्तिनामानुक्रम 246 237 226,262 238 231 239 231,236,240 231 227,229 ممر له نلم م انه و अतिबल 227 ऋषभ अकम्पित 137 अशोक अग्निपुत्र 238 अश्वग्रीव अग्निभूति 113,134 अश्वसेन अग्निशिख 223 असंज्वल अग्निसेन 238 अंजुका अचल 139, 236 अंबड अचलभ्राता 131 आनन्द अचिरा 226,232 अजित 68,130,149,153,162,227 इन्द्रदत्त अजितसेन 23,225 इन्द्रभूति अजिता 231 उदय अतिपाव 238 उपशान्त 240 उमा अदोनशत्रु अनन्त 69,115,118,168,169,227 अनन्तविजय 239,241 अनन्तसेन 225,238 अनिवृत्ति 239 ऋषभसेन अपराजित 229,236,241 ऋषिदत्त अपराजिता 256 ऋषिपाल अभिचन्द्र 163,225 कार्तवीर्य अभिनन्दन 68,69,162,227 कार्तिक अमम 239 कार्यसेन अमितज्ञानी 238 काश्यपी अमिता कुन्थु अमृता कुम्भ 69,90,227,232 कुरुमती अरिष्ट केकयी अरिष्टनेमि 56,108,118,164,165,167,282 केसरी 233 68,69,123,141, 142,144,149,163, 170,227,228,229, 230,232 229,231 الله الله الله الله له الله 433 231 69,95,140,151,154,227,232 226,231 233 233 241 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समवायाङ्गसूत्र 248] 227,241 238 225,226 239 233,239 241 mmmm 1 225 239 241 232,233 225 239 236 236,240 ال 229 क्षेमंकर क्षेमंधर गुप्तिसेन गूढदन्त गोस्तूप गंगदत्त चक्ररथ चन्दना चन्द्रकान्ता चन्द्रप्रभ चन्द्रयशा चन्द्रानन चमर चक्षुष्कान्ता चक्षुष्मान चार चित्रगुप्त चुल्लिनी जय जयन्त जयन्ती जया जरासन्ध जितशत्रु जितारि जिनवृषभ ज्वाला तारक तारा तिलक त्रिपृष्ठ त्रिशलादेवी दत्त दशधनु दशरथ दीर्घदन्त 238 दीर्घबाह 238 दृढधनु 238 दृढ रथ 240 दृढायु 231 देवकी 236,236 देवपुत्र देवशम देवश्रुत देवानन्द 69,153,161,227 देवी देवोपपात 238 द्रमसेन 52.231 द्विपृष्ठ द्वीपायन 225 धन 231 धनदत्त 239 धर 232 धरणी 229,232 धरणीधरा 240 धर्म धर्मध्वज धर्मसिंह धर्मसेन धारिणी 226 नन्दन नन्दमित्र नन्दा नन्दिसेन नमि 139,142,236, 240 नरपति 226 नाभि 227,229,231,232,236,338 नारद 238 नारायण 225,233 निक्षिप्तशस्त्र निर्भय 226,238 231 231 69,114,227 241 227,229 236 Gww. ir rrrrrrr innan "mmmm 159 mm 239,241 227,236,240 238 226 238 46.69,107,108,225,226 232 225,226 239 Mmmm 240 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २-व्यक्तिनामानुक्रम ] [ 249 239 निर्वाण निशुम्भ निष्कषाय निष्पुलाक नेमि पद्य पद्मप्रभ पद्मश्री पद्मा पद्मोत्तर पर्वत पाव 231 231 239 240 237 52,122 229 142 238,239 232,233 241 प्रोष्ठिल 237 फल्गु 239 बन्धुमती 239 बलदेव 69,227 बलभद्र 209,236,240,241 बलि 69,161,227 बली 233 बहुल 226,231 बाहुबली 232 बुद्ध 236 ब्रह्म 21,23,50,68,69 ब्रह्मचारी 91,107,129,160 ब्रह्मदत्त 162,167,169 ब्राह्मी 227,229 भद्र 229,236 भद्रा भयाली 226 भरत 241 115,136 भानु 241 231 भावितात्मा 135.145,160,227 भीम भीमसेन 231 229 मघवा 226,233 मधु-कैटभ 241 मरुदेव पुनर्वसु पुरुषपुण्डरीक पुरुषसिंह पुरुषोत्तम पुष्पकेतु पुष्पचूला पुष्पदन्त पुष्पवती 229 142,231 236,240 262,223,233 239 136,141,142,163,169 232,240 226 سه >> به سه GMcom पुष्य 229 मरुदेवी 239 मल्ली पृथ्वी पूर्णघोष पूर्णनन्द पेढालपुत्र प्रजापति प्रतिरूपा प्रतिश्रुति प्रतिष्ठ प्रभराज प्रभावती प्रसेनजित प्रियमित्र 233 225 महसेन 238 महाघोष 226 महाचन्द्र 237,241 महापद्म 226 महाबल 225 महाबाहु 236 महाभीम 237 225,238 225,226 69,73,118,120,121 141,227,229,229 226 225,241 231 232,239,240 240,241 240 241 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] [समवायाङ्गसूत्र महाभीमसेन महायश महावीर 239 233,239 226 233,233 महाशिव महासेन महाहरि माहेन्द्र मितवाहन मित्रदास मुनिसुव्रत मृगावती 225 रेवती 241 रोहिणी 1,18,91,106,109, लक्षणा 117,118,120,129, लक्ष्मीमती 131,140,141,149, ललित 161,162,164,165,170 ललितमित्र 233 लष्टबाहु 241 लोहजंघ 232 वज्रजंघ 227 वज्रनाभ 218 वसिंह 225 वर्धमान 61,69,115,227,229 वप्रा 233 वरदत्त 226 वराह 227 वशिष्ठ 236 227 241 241 227,231 229 68,69,227,230 226,232 229,231 मेघ 231 मेघरथ 21 237 वसुदेव ل كلمه سه मेरक मेरा मौर्यपुत्र मंगला मंडितपुत्र له mm www له د الله मंदर الله 238 الله 231 232 225 الله الله 239 الله यश यशष्मान यशस्वती यशस्विनी युक्तिसेन युगबाहु रति राजललित राम रामा रावण रिष्ट रुक्मि रुद्र 232 वसुन्धरा 125,154 वसुपूज्य 226 वामा वाराह वारिषेण वासुदेव वासुपूज्य 232 231 विजय 238 विजया 227 विदर्भ 231 विपुलवाहन विमल 236 विमल (अर्हत्) AWKWWWWW 69,123,129,163,227 228,229 134,229,232,236,239 229,233 231 240 227,239,241 69,111,119,122 128,227 225 135,225 236 236 237 विमलघोष 240 विमलवाहन विश्वनन्दी 232 विश्वभूति 233 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २--व्यक्तिनामानुक्रम] [251 विश्वसेन विष्णु 162,232 241 232 239 236 236 226,232 वीर वीरभद्र वैजयन्तो शतक शतकोत्ति शतञ्जल शतधनु शतायु शताली शान्ति و به سر به س بي س शिव शिवसेन शिवा शीतल शुचि शुद्धदन्त 226,229,232 सगर 226 सत्यसेन 229 सनत्कुमार 21 समाधिगुप्त 233 समुद्र 239 समुद्रदत्त 239 समुद्रविजय 225 सर्वभाववित् 238 सर्वानन्द 225 सर्वानुभूति 239 सहदेवी 69,108,135,149,153, सागर 227,232 सागरदत्त 232 सात्यकी 238 सिंहगिरि 226,231 सिहरथ 69,165,141,149,227 सिहसेन 231 सिद्धार्थ 240 सिद्धार्था 21,231 सोता 21 सीमकर 226 सीमंधर 233 सुकोशल 227,229 सुग्रीव 238 सुघोष 226,261 सुदर्शन 226,233 सुदर्शना 225 सुदाम 241 सुधर्म 21 सुनन्द 240 सुनन्दा 240 सुन्दर 240 सुन्दबाहु 239 सुन्दरी 69.126,139,142,227 सुपार्श्व (अर्हत्) 229,236 226,227 226,241,242 226 शुभ الله शुभघोष الله الله 241 226,241 225 226,227,236,237,240 शूर शेषमती शंख श्यामकोष्ठ श्यामा श्री श्रीकान्ता श्रीचन्द्र श्रीधर श्रीपुत्र श्रीभूति श्रीसोम श्रेणिक श्रेयांस (अर्हत) श्रेयांस 229,239 GWww 227 142 67,145,154,161, 227,239 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [ समवायाङ्गसूत्र सुपाव सुप्रभ सुप्रभा सुबन्धु सुभद्र सुभद्रा सुभूम सुमंगल सुमगला 233 232, 241 226 21, 233 115, 225, 236, 238, 241 सुसीमा 240 सूक्ष्म 233 सूरदेव 236, 238 सूर्यश्री 236 सूरसेना सेना 232, 238 सोम 241 सोमदत्त 232 सोमदेव 68,69,161,227,229, 238 सोमसेन 231 संकर्षण 229, 232 संभव 226 संभूत 225 संवर 229 स्वयंप्रभ 231, 241 स्वयंभू 226 स्वाति 69,135,145,160,227 हरिषेण in सुमति सुमना 340 सुमित्र सुयशा सुरूपा सुरेन्द्रदत्त 68,69,221,162,127 266 226, 239 225, 238, 239 149, 231, 236 सुव्रत 239 सुव्रता सुविधि 149, 322 30 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री प्रात्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। मनुस्मृति प्रादि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि--- दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा—उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा—अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे , उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते। कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुवण्हे, अवरण्हे, पनोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गये हैं / जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे--- आकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में प्राग-सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254] [अनध्यायकाल ३-४.--गजित-विद्युत्-गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है / अतः पार्दा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर या बादलों सहित प्राकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्यायकाल है / 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7 . यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः अाकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है , स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डी मांस और रुधिर-पंचेद्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएं उठाई न जाएँ जब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार पास पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है / विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का प्रस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमश: सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि--मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण—चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / ण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है / Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] [255 18. पतन---किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए / 19. राजव्यद्ग्रह-समीपस्थ राजारों में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28 चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-ग्राषाढपूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं / इसमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि--प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागमप्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम-सत्र नाम अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र [दो भाग] श्रीचन्द सुराना 'सरस' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम.ए., पी-एच. डी.) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्तकृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) अनुत्तरोववाइयसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्रीचन्द सुराना 'सरस' / विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. पोपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्र. भाग] श्री राजेन्द्रमुनि निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री तिलोकमुनि शीघ्र प्रकाश्य जीवाजीवाभिगमसूत्र [द्वि. भा.] श्रीणिछेदसूत्राणि विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, व्यावर-३०५९०१ www.jalnelibratore