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________________ जाथे, वह भावना है। प्राचार्य पतंजलि ने भावना और जप में अभेद माना है। 166 भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा है१८७ कि जिसकी भावना शुद्ध है, वह जल में नौका के सदृश है। वह तट को प्राप्त कर सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। भावना के अनेक प्रकार हो सकते हैं-ज्ञान, दर्शन और चारित्र, भक्ति प्रभृति ! जितनी भी श्रेष्ठ चेष्टाओं से प्रात्मा को भावित किया जाये वे सभी भावनाएँ हैं। तथापि भावना के अनेक वर्गीकरण मिलते हैं। पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं।८८ जो महाव्रतों की स्थिरता के लिए हैं। 186 प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएँ हैं। प्रागम साहित्य प्राचारांग तथा प्रश्नव्याकरण में भावनाओं के जो नाम आये हैं, वे नाम समवायांग में कुछ पृथकता लिये हये हैं। प्राचारांग१६० में (1) ईर्यासमिति (2) मनपरिज्ञा (3) वचन परिज्ञा (4) आदान निक्षेपण समिति (5) अलोकित पानभोजन, ये अहिंसा महाव्रत की पांच भावनाएँ हैं। प्रश्नव्याकरण 161 में अहिंसा महाव्रत की (1) ईर्यासमिति (2) अपापमन (3) अपापवचन (4) एषणा समिति (5) पादान निक्षेपण समिति , जब कि प्रस्तुत समवाय में अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार पायी हैं- (1) ईर्यासमिति (2) मनोगुप्ति (3) वचनगुप्ति (4) आलोक भाजन भोजन, (5) आदान भाण्डमात्र निक्षेपण समिति / प्राचार्य कुन्दकुन्द 162 ने अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ इसी प्रकार बतायी हैं। तत्वार्थाधिगम भाष्य में भी (1) ईर्यासमिति (2) मनोगुप्ति (3) एषणा समिति (4) प्रादान निक्षेपण समिति (5) आलोकित पान भोजन समिति, तत्त्वार्थ राजवार्तिक 16 3 और सर्वार्थ सिद्धि में 164 एषणा समिति के स्थान पर वाक् गुप्ति बतायी है / इसी तरह सत्यमहाव्रत की पांच भावनाएँ आचारांग 165 में इस प्रकार हैं--(१) अनुवीचि भाषण (2) क्रोध प्रत्याख्यान (3) लोभ प्रत्याख्यान (4) भय प्रत्याख्यान (5) हास्य प्रत्याख्यान, प्रश्नव्याकरण में ये ही नाम मिलते हैं। समवायांग में (1) अनुवीचिभाषण (2) क्रोधविवेक (3) लोभविवेक (4) भयविवेक, और (5) हास्यविवेक है। प्राचारांग१६६ और प्रश्नव्याकरण१६७ में क्रोध आदि का प्रत्याख्यान बताया है। जबकि समवायांग में विवेक शब्द का उल्लेख है। विवेक से तात्पर्य क्रोध आदि के परिहार से ही है। प्राचार्य कुन्दकुन्द 168 ने सत्य महाव्रत की पांच भावनाएँ इस प्रकार बतायी हैं (1) अक्रोध (2) अभय (3) अहास्य (4) अलोभ (5) अमोह / उन्होंने श्वेताम्बर परम्परा में पाये हुए अनुवीचि भाषण के स्थान पर अमोह भावना का उल्लेख किया 185. पासनाहचरियं पृष्ठ 460 186. तज्जपस्तदर्थभाबनम्---पातंजलयोगसूत्रम् 1/28 187. सूत्रकृतांग 1/15/5 188. उत्तराध्ययन, अ. 31 गा. 17 189. तत्त्वार्थ सूत्र 7/3 190. प्राचारांग सूत्र 2/3/15/402 191. प्रश्नव्याकरण---संवरद्वार 192. षट्प्राभृत में चारित्रप्राभूत गा. 31 193. तत्त्वार्थराजवातिक 7/4-5, 537 194. सर्वार्थसिद्धि-७/४ पृ. 345 195. प्राचारांग 1/3/15/402 196. वही 197. प्रश्नव्याकरण संवरद्वार 198. चारित्रप्राभूत 32 [ 47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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