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________________ है। चारित्र प्राभृत की टीका 16 में अमोह का अर्थ अनुवीचि भाषण कुशलता किया है। अनुवीचि भाषणता से तात्पर्य है कि वोचि वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीचिभाषा जिनसूत्रानुसारिणी भाषा अनुवोचिभाषा पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमनुल्लंध्य भाषणीयमित्यर्थः / श्वेताम्बर परम्परा में अनुवीचि भाषण का अर्थ "अनुविचित्य भाषणम् अर्थात् चिन्तनपूर्वक बोलना" किया है / तत्त्वार्थराजवार्तिक 200 में दोनों ही अर्थों को ग्रहण किया है / अचौर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं-(१) अनुवीचिमितावग्रह याचन (2) अनुज्ञापित पान-भोजन (3) अवग्रह का अवधारण (4) अभीक्ष्ण अवग्रह याचन (5) साधर्मिक से अवग्रह याचन प्रश्नव्याकरण में (1) विविक्त वासवसति (2) अभीक्ष्ण अवग्रह याचन (3) शय्या समिति (4) साधारण पिण्डमात्र लाभ (5) विनय प्रयोग, समवायांग सूत्र में ये नाम हैं—(१) अवग्रहानुज्ञापना (2) अवग्रह सीमापरिज्ञान (3) स्वयं ही अवग्रह अनुग्रहणता (4) सार्मिक अवग्रह अनुज्ञापनता (5) साधारण भक्तपान अनुज्ञाप्य परिभुञ्जनता / आचार्य कुन्दकुन्द ने अचौर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ इस प्रकार दी हैं-(१) शून्यागारनिवास (2) विमोचितावास (3) परउपरोध न करना (4) एषणाशुद्धि (5) सार्मिक-अविसंवाद / प्राचार्य महाव्रत की पांचों भावनाएँ दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों से भिन्न है। जिस प्रकार प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भावनामों का निरूपण किया है वैसी ही सर्वार्थ सिद्धि में भी बतायी गयी हैं। . प्राचारांग में ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं----(१) स्त्रीकथावर्जन (2) स्त्री के अंगप्रत्यंग अवलोकन का वर्जन (3) पूर्वभक्त भोग स्मृति का वर्जन (4) अतिमात्र और प्रणीत पान भोजन का परिवर्जन (5) स्त्री आदि से संसक्त शयनासन का वर्जन / प्रश्नव्याकरण में (1) असंसक्त वास वसति, (2) स्त्रीजन कथा-वर्जन (3) स्त्री के अंग प्रत्यंगों और चेष्टाओं के अवलोकन का वर्जन (4) पूर्व भुक्त भोगों की स्मृति का वर्जन, (5) प्रणीत रस भोजन का वर्जन / समवायांग में (१)स्त्री-पशु और नपुसक से संसक्त शयन, प्रासन का वर्जन (2) स्त्रीकथाविवर्जनता (3) स्त्रियों की इन्द्रियों के अवलोकन का वर्जन (4) पूर्व भुक्त और पूर्व क्रीडित का अस्मरण (5) प्रणीत आहार का विवर्जन / आचार्य कुन्दकुन्द 201 ने ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं ये बताई हैं—(१) महिला अवलोकन विरति (2) पूर्वभुक्त का स्मरण न करना (3) संसक्त वसति विरति (4) स्त्री रागकथा-विरति, (5) पौष्टिक रसविरति / आचार्य उमास्वाति२०२ ने और सर्वार्थ सिद्धि में ब्रह्मचर्य की भावनाएं इस प्रकार हैं- (1) स्त्रीरागकथावर्जन (2) मनोहर अंग निरीक्षण विरति (3) पूर्वरतानुस्मरणपरित्याग (4) वृष्येष्टरस-परित्याग (5) स्वशरीरसंस्कारपरित्याग / / अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं आचारांग में इस प्रकार हैं-(१) मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव (2) मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव / (2) मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव / (4) मनोज्ञ और अनमोज्ञ रस में समभाव। (5) मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव और यही नाम प्रश्नव्याकरण में ज्यों के त्यों मिलते हैं / समवायांग में इस प्रकार है-(१) श्रोत्रेन्द्रिय रागोपरति (2) चक्षुरिन्द्रियरागोपरति (3) घ्राणेन्द्रियरागोपरति (4) रसनेन्द्रियरागोपरति और (5) स्पर्शेन्द्रियरामोपरति / आचार्य कुन्दकुन्द ने अपरिग्रह महावत की भावनाओं में प्राचारांग और प्रश्नव्याकरण काही अनुसरण किया है / इस प्रकार पंच महाव्रतों 199. चारित्रप्राभृत 22 की टीका 200. तत्त्वार्थराजवार्तिक 7/5 201. चारित्रप्राभृत-गाथा 34 202. तत्त्वार्थ सूत्र-७/७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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