________________ सैतीसवें समवाय का चतुर्थ सत्र-'खड्डियाए णं विमाणं........' है तो जीवाभिगम४८८ में भी क्षद्रिका विमान प्रविभक्ति के प्रथम वर्ग में संतीस उद्देशन काल कहे हैं। उनचालीसवें समवाय का तृतीय मूत्र-'दोच्च-चउत्थ......' है तो जीवाभिगम४८६ में भी दूसरी, चौथी पाँचमी, छठी और सातवीं इन पांच पृथ्वियों में उनचालीस लाख नारकावास बताये हैं। इकतालीसवें समवाय का द्वितीय सत्र-'चउसु-पुढवीसु.......' है तो जीवाभिगम * में भी चार पृथ्वियों में इकतालीस लाख नारकावास बताये हैं। बयालीसवें समवाय' का चौथा सूत्र ---'कालोए णं समुद्दे .......' है तो जीवाभिगम में भी कालोद समुद्र में बयालीस चन्द्र और बयालीस सयं बताये हैं। बयालीसवें समवाय का सातवां सूत्र-'लवणे णं समुद्दे.......' है तो जीवाभिगम 12 में भी लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को बयालीस हजार नागदेवता धारण करते बताये हैं। तयालीसवें समवाय का द्वितीय सत्र-'पढम-चउत्थ......' है तो जीवाभिगमः। 3 में भी पहली, चौथी और पांचमी इस तीन पृथ्वियों में तयालीस लाख नारकावास बताये हैं। पैतालीसवें समवाय का द्वितीय सूत्र--'सीमंतए णं नरए.......' है तो जोवाभिगम६४ में भी सीमान्तक नारकावास का आयाम-विष्कम्भ पंतालीस लाख योजन का बताया है। पचपनवें समवाय का द्वितीय सत्र-'मदरस्स ण पब्बयरस.......' है तो जीवाभिगम५ में भी मेरु पर्वत के पश्विमी चरमान्त से विजय द्वार के पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पचपन हजार योजन का बताया है। साठवें समवाय का द्वितीय सत्र-'लवणस्स समुहस्स... ...' है तो जीवाभिगम में भी लवण समुद्र के अग्रोदक को साठ हजार नागदेवता धारण करते हैं ऐसा उल्लेख है / चौसठवें समवाय का चौथा सूत्र-सवे विणं दहीमुहा पब्बया......' है तो जीवाभिगम४६७ में भी सभी दधिमुख पर्वत माला के प्राकार वाले हैं / अतः उन का विष्कम्भ सर्वत्र समान है, उन की उंचाई चौसठ हजार योजन की है। छासठवें समवाय का प्रथम सूत्र है-दाहिणड्ढ-माणुस्स-खेत्ताणं, द्वितीय सूत्र है-छाठि सूरिया तर्विसु, तृतीत सूत्र है--उत्तरड्ढ माणुस्स खेताणं...', 'चतुर्थसूत्र है-छावठि सूरिया तविसु वा 3, तो जीवाभिगम६८ में भी दक्षिणार्ध मनुष्य क्षेत्र में छासठ-छासठ चन्द्र और सर्य बताये हैं। 486. जीवाभिगम-प्र. 3, स. 137 489. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 81 490. जीवाभिगम---प्र. 3, स. 51 491. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 175 492. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 158 493. जीवाभिगम---प्र. 3, सू. 8 494. जीवाभिगम-प्र.३ 495. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 129 496. जीवाभिगम--प्र. 3, सू. 158 497. जीवाभिगम-प्र. 3, स. 183 498. जीवाभिगम-प्र. 3, स. 177 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org