SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सठसठवें समवाय का तृतीय सत्र-'मंदरस्स णं पव्वयस्स........' है तो जीवाभिगम४.६ में भी मेरुपर्वत के चरमान्त से गौतमद्वीप के पूर्वी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सड़सठ हजार योजन का कहा है। . उनहत्तरवें समवाय का प्रथम सत्र-समयखित्ते णं मंदरवज्जा... ...' है तो जीवाभिगम०० में भी लिखा है 'समयक्षेत्र में मेरु को छोड़कर उनहत्तर वर्ष और बर्षधर पर्वत हैं, जैसे-पैतीस वर्ष, तीस वर्षधर पर्वत और चार इपुकार पर्वत / बहत्तरवें समवाय का दूसरा सूत्र-'बाबरि सुवन्नकुमारावास.......' है तो जीवाभिगम५०' में भी सुवर्ण कुमाराबास बहत्तर लाख बताये हैं __ बहत्तरवें समवाय का पांचवां सूत्र--'अभितरपुक्खरद्धे गं........' है तो जीवाभिगम०२ में भी बहत्तर चन्द्र और सूर्य का वर्णन प्राप्त है। उनासीवें समवाय का पहला सत्र---'वलयामुहस्स.....' दूसरा सत्र ‘एवं के उस्मवि......' तृतीय सत्र छठ्ठीए पुढवीए..."और चतुर्थ सूत्र---'जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स ........' है तो जीवाभिगम'०3 में भी वडवामूख पातालकलश का एवं केतुक यूपक आदि पाताल कलशों का छठी पृथ्वी के मध्यभाग से छठे घनोदधि तक का वर्णन और जम्बूद्वीप के प्रत्येक द्वार का अव्यवहित अन्तर उन्नासी हजार योजन का है, यह वर्णन मिलता है। अस्सीवें समवाय का पांचवा सूत्र-'जम्बुद्दीवे णं दीवे.......' है तो जीवाभिगम५०४ में भी जम्बूद्वीप में एक मो अस्सी योजन जाने पर सर्वप्रथम आभ्यंतर मण्डल में सर्योदय होता है, यह वर्णन है। चौरासीदें समवाय का पहला सूत्र ...'चउरासीइ निरयावास........' है तो जीवाभिगम०५ में भी नारकावास चौरासी लाख बताये हैं। चौरासीबें समवाय का सातवां सत्र—'सब्वेवि णं अजंणगपव्यया......' है तो जीवाभिगम०६ में भी सर्व प्रजनग पर्वतों की ऊंचाई चौरासी-चौरासी हजार योजन की है। चौरासीदें समवाय' का आठवां सत्र-'हरिवास-रम्यवासियाणं........' है तो जीवाभिगम५२७ में भी 'सर्व अंजनगपर्वतों की ऊंचाई चौरासी हजार योजन की कही है। चौरासीवें समवाय का दसवां सूत्र-'विवाहपन्नतीए णं भगवतीए......' है तो जीवाभिगम५०८ में भी विवाहप्रज्ञप्ति के चौरासी हजार पद हैं। पचासौवें समवाय का दूसरा सूत्र-'धायइसंडस्स णं मंदरा.......' है तो जीवाभिगम०६ में भी धातकी खण्ड के मेरुपर्वत पंचासी हजार योजन ऊंचे हैं, यह वर्णन है। 492. जीवाभिगम-प्र. 3, सूत्र 161 500, जीवाभिगम--प्र. 3, सूत्र 177 501. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 2, सूत्र 176 502. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 2, सूत्र 158 503. जीवाभिगम--प्र. 3, उद्दे. 2, मूत्र 156, उद्दे. 1, मूत्र. 76, उद्दे. 2, सूत्र 145 504. जीवाभिगम----प्र. 3, उद्दे. 1, सूत्र 72 505. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 1, सूत्र 81 506. जीवाभिगम---प्र. 3, उद्दे. 2 507. जीवाभिगम--प्र. 3, उद्दे. 2, सूत्र 183 508. जीवाभिगम-प्र. 3, उद्दे. 1, मूत्र 79 509. जीवाभिगम-प्र.३ [ 83 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy