SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छियासीवें समवाय का तृतीय सूत्र--'दोच्चाए पुढबीए... ...' है तो जीवाभिगम'१० में भी दूसरी पृथ्वी के मध्यभाग से दूसरे घनोदधि के नीचे के चरमान्त का अव्यवहित अंतर छियासी हजार योजन का कहा है। अठासीवें समवाय का पहला सूत्र--'एगमेगस्स पं चंदिमरियस्स' है तो जीवाभिगम११ में प्रत्येक चन्द्र सूर्य का अठासी-अठासी ग्रहों का परिवार बताया है। ___ इक्कानवेवें समवाय का दूसरे सूत्र—'कालोए णं समुद्दे' है तो जीवाभिगम५१२ के अनुसार भी कालोद समुद्र की परिधि कुछ अधिक इक्कानवे लाख योजन की है। पंचानवें समवाय का दूसरा मूत्र-'जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स ......' है तो जीवाभिगम५१3 में भी जम्बूद्वीप के चरमान्त से चारों दिशाओं में लवणसमुद्र में पचान-पंचानवें हजार योजन अन्दर जाने पर चार महापाताल कलश कहे हैं। सौवें समवाय का आठवां मूत्र-'सब्वेवि णं कंचणखपव्वया .......' है तो 'जीवाभिगम५१४ में भी सर्व कांचनक पर्वत सौ-मौ योजन ऊंचे हैं, सौ-सौ कोश पृथ्वी में गहरे हैं और उनके मूल का विष्कम्भ सौ-सौ योजन का कहा है। पांचसौवें समवाय का पाठवां सूत्र--सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा........' है तो जीवाभिगम५१५ में सौधर्म और ईशानकल्प में सभी विभान पांच सौ-पांच सौ योजन ऊंचे कहे हैं। छहसौवें समवाय का पहला सूत्र--'सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु........' है तो जीवाभिगम'१६ में भी सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में सभी विमान छह सो योजन ऊंचे कहे हैं। सातसौवें समवाय का प्रथम सूत्र-'बंभलंतयकप्पेसु......' है तो जीवा भिगम 10 में भी ब्रह्म और लान्तक कल्प के सभी विमान सात सौ योजन ऊंचे बतलाए हैं। आठसौवें समवाय का प्रथम सत्र--- 'महासुक्क-सहस्सारेसु.....' है तो जीवाभिगम" में भी यही है। नव सौवें समवाय का प्रथम मूत्र-'प्राणय-पाणय......' है हजारवें समवाय का प्रथम सूत्र है-सब्वेवि णं गेवेज्ज....."नौ ग्यारह सौवें समवाय का प्रथम सूत्र है-प्रण त्तरोववाइयाणे देवाणं-.."तीन हजारवें...समवाय काइमीसे रयणप्पहाए..."तो इन सूत्रों जैसा वर्णन जीवाभिगम५१६ में भी प्राप्त है। समवायांग सूत्र के सात हजारबें समवाय का प्रथम सूत्र-'इमोसे णं रयणप्पहाए पुढवीए... ..' है तो जीवाभिगम५२० में भी रत्नप्रभा पृथ्वी के रत्नकाण्ड के ऊपर के चरमान्त से पुलक काण्ड के नीचे के चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सात हजार योजन का बताया है। 510. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 79 511. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 194 512. जीवाभिगम---प्र. 3, उ, 2, सू. 175 513. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 156 514. जीवाभिगम---प्र. 3, उ. 2, सू. 150 515. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 516. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 517. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 518. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211 519. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 1, सू. 211, 195 520. जीवाभिगम-प्र. 3 [ 84 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy