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________________ दो लाख वें समवाय का प्रथम सूत्र-'लवणे णं समुद्दे... ...' है तो जीवाभिगम५२ ' में भी लवण समुद्र का चक्रबाल-विष्कम्भ दो लाख योजन का बताया है। - चार लाख समवाय का प्रथम सूत्र-'धायइखंडे गं दीवे........' है तो जीवाभिमम५ 2 2 में भी धातकीखण्ड का चक्रवाल-विष्कम्भ चार लाख योजन का बताया है। पाँच लाख वें ममवाय का प्रथम सूत्र—'लवणस्स णं समुदस्स......' है तो जीवाभिगम५२3 में भी लवण समुद्र के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पांच लाख योजन का बतलाया है। इस तरह जीवाभिगम में, समवायांग में आये अनेक विषयों की प्रतिध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। समवायांग और प्रज्ञापना प्रज्ञापना चतुर्थ उपांग है / प्रज्ञापना का अर्थ है -जीव, अजीव का निरूपण करने वाला शास्त्र। प्राचार्य मलय गिरि प्रज्ञापना को समवाय का उपांग मानते हैं। प्रज्ञापना का समवायांग के साथ कब से सम्बन्ध स्थापित हुग्रा, यह अनुसन्धान का विषय है। स्वयं श्मामाचार्य प्रज्ञापना को दृष्टिवाद से लिया सूचित करते हैं। किन्तु आज दृष्टिवाद अनुपलब्ध है। इसलिए स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि दृष्टिवाद में से कितनी सामग्री इसमें ली गई है। दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दृष्टि याने दर्शन का ही वर्णन है। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव अजीव आदि तत्त्वों का प्रतिपादन है। तो प्रज्ञापना में भी वही निरूपण है। अतः प्रज्ञापना को समवायांग उपांग मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है / अतएव समवायांग में आये हुये विषयों की तुलना प्रज्ञापना के साथ सहज रूप से की जा सकती है। प्रथम समवाय का पांचवा सूत्र है----'एगा किरिया' तो प्रज्ञापना५२४ में भी क्रिया का निरूपण हआ है। प्रथम समवाय का बीसवां सूत्र-'अप्पइठाणे नरए.......' है तो प्रज्ञापना५२५ में भी अप्रतिष्ठान नरक का प्रायाम विष्कम्भ प्रतिपादित है। प्रथम समवाय का बावीसवाँ सूत्र--'सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे........' है तो प्रज्ञापना५२६ में भी सर्वार्थसिद्ध विमान का आयाम विष्कम्भ एक लाख योजन का बताया है। प्रथम समवाय का छब्बीसवाँ सूत्र-'इमीसे णं रयणपहाए णं........' है तो प्रज्ञापना५२ में भी रत्नप्रभा के कुछ नारकों की स्थिति एक पल्योपम की बतायी है। प्रथम समवाय के सत्तावीसवें सूत्र से लेकर चालीसवें सूत्र तक जो वर्णन है वह प्रज्ञापना२८ के चतुर्थ पद में उसी तरह से प्राप्त होता है। 521. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 173 522. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 174 523. जीवाभिगम-प्र. 3, उ. 2, सू. 154 524. प्रज्ञापना---पद 22 525. प्रज्ञापना--पद 2 526. प्रज्ञापना—पद 2 527. प्रज्ञापना- पद 4, सु. 94 528. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र-९४, 95, 98, 99, 100, 101, 102, 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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