________________ समवायांग के प्रथम समवाय का इकतालीसवां सूत्र-'ते णं देवा........' है तो प्रज्ञापना५२१ में भी सागर यावत् लोकहितविमानों में जो देव उत्पन्न होते हैं, वे एक पक्ष से श्वासोच्छवास लेते कहे हैं। प्रथम समवाय का बयालीसा सूत्र---'तेसि ण देवाणं........' है तो प्रज्ञापना 5.3 deg में उन देवों की प्राहार लेने की इच्छा एक हजार वर्ष से होती है / दूसरे समवाय का दूसरा सूत्र-'दुविहा रासी पण्णत्ता... ...' है तो प्रज्ञापना५३१ में भी दो राशियों का उल्लेख है। दूसरे समवाय के आठवें सूत्र से लेकर बाईसवें सूत्र तक का वर्णन प्रज्ञापना५३२ में भी इसी तरह प्राप्त है। तृतीय समवाय के तेरहवें सूत्र से तेवीसवें सूत्र तक का वर्णन प्रज्ञापना४३३ में भी इसी तरह संप्राप्त है / चतुर्थ समवाय के दशवें सूत्र से सत्तरहवें सूत्र तक का विषय प्रजापना 34 में भी इसी तरह उपलब्ध होता है। पाँचवें समवाय के चौदहवें सूत्र से इक्कीसवें सूत्र तक जिस विषय का प्रतिपादन हुअा है वह प्रज्ञापना५३५ में भी निहारा जा सकता है / छठे समवाय का पहला मूत्र--'छ लेसानो पत्ताओ.......' है तो प्रज्ञापना३६ में भी छह लेश्याओं का वर्णन प्राप्त है। छठे समवाय का दूसरा सूत्र-'छ जीवनिकाया पण्णत्ता........' है तो प्रज्ञापना 30 में भी वह वर्णन उपलब्ध होता है। छठे समवाय का पांचवां सूत्र--'छ छाउपस्यिया समुग्धाया पण्णसा........' है तो प्रज्ञापना५८ में भी छाद्मस्थिक समुद्घात के छह प्रकार बताये हैं। छठे समवाय के दशवें सूत्र से सत्तरहवें सूत्र तक का वर्णन प्रज्ञापना५३६ में भी प्राप्त है। सातवें समवाय का द्वितीय मूत्र--सत्त समुग्घाया पण्णत्ता".....' है तो प्रज्ञापना५४० में भी सात समुद्घात का उल्लेख हुआ है। 529. प्रज्ञापना—पद 7, सूत्र 146 530. प्रज्ञापता-पद 28, सू. 304 531. प्रज्ञापना-पद 1, सू. 1 532. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 98, 99, 102, 103; पद 7, मूत्र 146; पद 28, मूत्र 303 533. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 98, 99, 102, पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 534. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 102; पद 7, सूत्र 146 ; पद 28, सूत्र 306 535. प्रज्ञापना--पद 4, सूत्र 94, 95, 102, पद 7, सूत्र 146; पद 28, सूत्र 306 536. प्रज्ञापना--पद 17, सूत्र 214 537. प्रज्ञापना--पद 1, सूत्र 12 538. प्रजापना ----पद 36, सूत्र 331 539. प्रज्ञापना-पद 4, सूत्र 94, 102, 103; पद 7; सूत्र 146, पद 28, मू. 306 540. प्रज्ञापना-पद 36, मू. 331 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org