________________ समवायांग के नौवें समवाय में दर्शनावरण की नौ प्रकृत्तियाँ कही हैं तो जीवाभिगम४७६ में भी दर्शनावरण कर्म की नौ प्रकृतियां कही हैं। . समवायांग के बारहवें समवाय का चौथा सूत्र-'विजया णं रायहाणी दुवालस........' है तो जीवाभिगम 77 में भी विजया राजधानी का आयाम विष्कम्भ बारह लाख योजन का प्रतिपादन किया है। ___ समवायांग के तेरहवें ममवाय का पांचवां सुत्र—'जलयर-पंचिदियतिरिक्खजोणिआणं".....' हैं तो जीवाभिगम४७८ में भी जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय की साढे तेरह लाख कुलकोटियां कही हैं / सत्तरहवें समवाय का तृतीय सूत्र-'माणसुत्तरे पव्वए मत्तरस ... ... ' है तो जीवाभिगम४७६ में भी मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई सत्तरह सो इक्कीस योजन की कही है। सत्तरहवें समवाय का चौथा सूत्र--'मवेसि पिणं वेलंधर...... ' है तो जीवाभिगम४५० में भी सर्व बेलंधर और अणवेलंधर नागराजों के प्रावासपर्वतों की ऊंचाई सत्तरह सौ इक्कीस योजन की बतायी है। समवायांग के सत्तरहवें समवाय का पांचवां सूत्र-'लवणे गं समुद्दे ......' है तो जीवाभिगम ' में भी लवणसमुद्र के पेंदे से ऊपर की सतह की ऊंचाई सत्तर हजार योजन की बताई है। अठारहवें ममवाय का सातवां सूत्र-धमपहाए णं.......' है तो जीवाभिगम८२ में भी धमप्रभा पृथ्वी का विस्तार एक लाख अठारह योजन का बताया है। पच्चीसवें समवाय का चौथा सुत्र---'दोच्चाए णं पुढवीए........' है तो जीवाभिगम:53 में भी शर्कराप्रभा पृथ्वी में पच्चीस लाख नारकादास बताये हैं। सत्तावीसवें समवाय का चौथा स्त्र--'मोहम्मीसास कप्पेम्......' है तो जीवाभिगम४८४ में भी सौधर्म और ईशान कल्प में सत्ताईस पल्योपम स्थिति बताई है। चौतीसवें समवाय का छठा सुत्र- 'पढम-पंचम...' है तो जीवाभिगम४८५ में भी पहली, पांचवी, छठी और सातवीं इन चार पृथ्बियों में चौंतीस लाख नारकावाम बताये हैं। पैतीसवें समवाय का छठा सूत्र--'बितिय-च उत्थीमु ......' है तो जीवाभिगम४८६ में भी दूसरी और चौथीइन दो वृध्वियों में पैतीस लाख नारकाबास बताये हैं। संतीसवें समवाय का तीसरा सूत्र-'सव्वासु णं विजय ......' है तो जीवाभिगम४८७ में भी विजयवैजयन्त और अपराजिता इन सब राजधानियों के प्राकारों की ऊंचाई सैतीस योजन को बतायी है। 476. जीवाभिगम---प्र. 3, सू. 132 477. जीवाभिगम -प्र. 3, सू. 135 476. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 97 479. जीवाभिगम-प्र. 3, मू. 178 480, जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 159 451. जीवाभिगम-प्र. 3, मू. 173 482. जीवाभिगम--प्र. 3, सू. 68 483. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 70 484. जीवाभिगम-प्र. 2, सू. 210 485. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 51 486. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 81 487. जीवाभिगम-प्र. 3, सू. 135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org