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________________ 174] [समवायाङ्गसूत्र चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवादियों के बत्तीस, इन सब (180+84-5-67+ 32 = 363) तीत सौ तिरेसठ अन्य वादियों का व्यूह अर्थात् निराकरण करके स्व-समय (जैन सिद्धान्त) स्थापित किया जाता है / नाना प्रकार के दृष्टान्तपूर्ण युक्ति-युक्त वचनों के द्वारा पर-मत के वचनों की भली भाँति से निःसारता दिखलाते हुए, तथा सत्पद-प्ररूपणा आदि अनेक अनुयोग द्वारों के द्वारा जीवादि तत्वों को विविध प्रकार से विस्तारानुगम कर परम सद्भावगुण-विशिष्ट, मोक्षमार्ग के अवतारक, सम्यग्दर्शनादि में प्राणियों के प्रवर्तक, सकलसूत्र-अर्थसम्बन्धी दोषों से रहित, समस्त सद्गुणों से सहित, उदार, प्रगाढ अन्धकारमयी दुर्गों में दीपकस्वरूप, सिद्धि और सुगति रूपी उत्तम गह के लिए सोपान के समान, प्रवादियों के विक्षोभ से रहित निष्प्रकम्प सूत्र और अर्थ सूचित किये जाते हैं। 517. - सूयगडस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुयोगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ। सूत्रकृतांग की वाचनाएँ परिमित हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियां संख्यात हैं, वेढ संख्यात हैं. श्लोक संख्यात हैं, और निर्यक्तियां संख्यात हैं। ५१८-से णं अंगट्ठायाए दोच्चे अंगे, दो सुयक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तेत्तीसं उद्देसणकाला, तेतीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पदसहस्साई पयम्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणताथावरा, सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आविज्जति विज्जंति परूविज्जति निर्वसिज्जति उवदंसिज्जति / से एवं आया, एवं विष्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति / से तं सुअगडे 2 / अंगों की अपेक्षा यह दूसरा अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, तेईस अध्ययन हैं, तेतीस उद्देशनकाल हैं, तेतीस समुद्देशनकाल हैं, पद-परिमाण से छत्तीस हजार पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्तगम और अनन्त पर्याय हैं। परिमित बस और अनन्त स्थावर जीवों का तथा नित्य, अनित्य सूत्र में साक्षात् कथित एवं नियुक्ति प्रादि द्वारा सिद्ध जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित पदार्थों का सामान्य-विशेष रूप में कथन किया गया है; नाम, स्थापना आदि भेद करके प्रज्ञापन किया है, नामादि के स्वरूप का कथन करके प्ररूपण किया गया है, उपमाओं द्वारा दर्शित किया गया है, हेतु दृष्टान्त आदि देकर निशित किया गया है और उपनय-निगमन द्वारा उपदर्शित किा इस अंग का अध्ययन करके अध्येता ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है / इस अंग में चरण (मूल गुणों) तथा करण (उत्तर गुणों) का कथन किया गया है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की गई है। उनका निदर्शन और उपदर्शन कराया गया है / यह सूत्रकृतांग का परिचय है / / 2 / / विवेचन-जिन-भाषित सिद्धान्त को स्वसमय कहते हैं, कुतीथियों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्त को परसमय कहते हैं / और दोनों के सिद्धान्तों को स्वसमय-परसमय कहा जाता है। दूसरे सूत्रकृतांग अंग में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है / तथा जीव-अजीव, लोक-अलोक, पुण्य-पाप आदि पदार्थों का विशद विवेचन किया है। यद्यपि अपनी-अपनी कल्पनाओं के अनुसार तत्त्वों का निरूपण करने वाले मत-मतान्तर अगणित हैं, फिर भी स्थूल रूप से उनको चार वर्गों में विभाजित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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