________________ द्वादशाङ्ग गणिपिटक ] [175 वे हैं-१. क्रियावादो, 2. प्रक्रियावादी, 3. अज्ञानिक और 4. वैनयिक / इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है 1. जो पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष को, तथा उनकी साधक-क्रियाओं को मानते हुए भी एकान्त पक्ष को पकड़े हुए हैं, वे क्रियावादी कहलाते हैं। उनकी संख्या एक सौ अस्सी है / वह इस प्रकार है--क्रियावादी जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, पुण्य, पाप और मोक्ष इन नौ पदार्थों को मानते हैं / पुनः प्रत्येक पदार्थ को कोई स्वतः भी मानते हैं और कोई परतः भी मानते हैं / अतः नौ पदार्थों के अट्ठारह भेद हो जाते हैं / पुनः इन अट्ठारहों ही भेदों को कोई नित्यरूप मानते हैं और कोई अनित्य रूप मानते हैं, अतः अट्ठारह को दो से गुणित करने पर छत्तीस भेद हो जाते हैं / पुनः वे इन छत्तीसों भेदों को कोई कालकृत मानता है, कोई ईश्वरकृत मानता है, कोई आत्मकृत मानता है, कोई नियति-कृत मानता है और कोई स्वभावकृत मानता है। इस प्रकार इन पाँच मान्यताओं से उक्त छत्तीस भेदों को गुणित करने पर (3645-- 180) एक सौ अस्सी क्रियावादिया के भेद हो जाते हैं। 2. अक्रियावादी पुण्य और पाप को नहीं मानते हैं, केवल जीवादि सात पदार्थों को ही मानते हैं और उन्हें कोई स्वतः मानता है और कोई परत: मानता है। अतः सात को इन दो भेदों से गुणित करने पर चौदह भेद हो जाते हैं / पुनः इन चौदह भेदों को कोई कालकृत मानता है, कोई ईश्वरकृत मानता है, कोई प्रात्मकृत मानता है, कोई नियतिकृत मानता है, कोई स्वभावकृत मानता है और कोई यदृच्छा-जनित मानता है। इस प्रकार उक्त चौदह-पदार्थों को इन छह मान्यताओं से गुणित करने पर (1446-84) चौरासी भेद प्रक्रियावादियों के हो जाते हैं। 3. अज्ञानवादियों को मान्यता है कि कौन जानता है कि जीव है, या नहीं? अजीव है, या नहीं ? इत्यादि प्रकार से ये जीवादि पदार्थों को अज्ञान के झमेले में डालते हैं। तथा जिन देव ने इन नौ पदार्थों का (1) स्यादस्ति, (2) स्यानास्ति, (3) स्यादस्तिनास्ति, (4) स्यादवक्तव्य, (5) स्यादस्ति-प्रवक्तव्य, (6) स्यान्नास्ति-प्रवक्तव्य और (7) स्यादस्ति-नास्तिप्रवक्तव्य' इन सात भंगों के द्वारा निरूपण किया है, उनके विषय में भी अज्ञान को प्रकट करते हैं। इस प्रकार जीवादि नौ पदार्थों के विषय में उक्त सात भंग रूप अज्ञानता के कारण (947 = 63) तिरेसठ भेद हो जात हैं। तथा नौ पदार्थों के अतिरिक्त दशवीं उत्पत्ति के विषय में भी उक्त सात भंगों में से आदि के चार भंगों के द्वारा अजानकारी प्रकट करते हैं / इस प्रकार उक्त 63 में इन चार भेदों को जोड़ देने पर 67 भेद अज्ञानवादियों के हो जाते हैं। 4. विनयवादी सबका विनय करने को ही धर्म मानते हैं। उनके मतानुसार 1. देव, 2. नृपति, 3. ज्ञाति, 4. यति, 5. स्थविर (वृद्ध), 6. अधम, 7. माता और 8. पिता इन आठों की मन से, वचन से और काय से विनय करना और इनको दान देना धर्म है। इस प्रकार उक्त आठ को मन, वचन, काय और दान इन चार से गुणित करने पर बत्तीस (844= 32) भेद विनयवादियों के हो जाते हैं। उक्त चारों प्रकार के एकान्तवादियों के तीन सौ तिरेसठ मतों का स्याद्वाद की दृष्टि से निराकरण कर यथार्थ वस्तु-स्वरूप का निर्णय इस दूसरे सूत्रकृत अंग में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org