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________________ 176] [समवायाङ्गसूत्र ५१९-से कि तं ठाणे ?ठाणेणं ससमया ठाविज्जति, परसमया ठाविज्जंति, ससमय-परसमया ठाविज्जति, जीवा ठाविज्जंति, अजीवा ठाविज्जंति, जीवा-जीवा ठाविज्जति, लोगे ठाविज्जति, अलोगे ठाविज्जति, लोगालोगे ठाविज्जति / ठाणेणं दव-गुण-खेत्त-काल-पज्जव-पयत्थाणं सेला सलिला य समुद्दा सूर-भवण-विमाण-आगर-णदीयो। __ णिहिओ पुरिसज्जाया सरा य गोत्ता य जोइसंचाला // 1 // -एक्कविहवत्तव्वयं दुविहवतव्वयं जाव दसविहवत्तध्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगट्ठाई च णं परूवणया प्राविज्जति / स्थानाङ्ग क्या है—इसमें क्या वर्णन है ? जिसमें जीवादि पदार्थ प्रतिपाद्य रूप से स्थान प्राप्त करते हैं, वह स्थानाङ्ग है। इसके द्वारा स्वसमय स्थापित-सिद्ध किये जाते हैं, पर-समय स्थापित किये जाते हैं, स्वसमय-परसमय स्थापित किये जाते हैं। जीव स्थापित किये जाते हैं. अजीव स्थापित किये जाते हैं, जीव-अजीव स्थापित किये जाते हैं / लोक स्थापित किया जाता है, अलोक स्थापित किया जाता है, और लोक-प्रलोक दोनों स्थापित किये जाते हैं। स्थानाङ्ग में जीव आदि पदार्थों के द्रव्य, गुण, क्षेत्र, काल और पर्यायों का निरूपण किया गया है। तथा शैलों (पर्वतों) का, गंगा प्रादि महानदियों का, समुद्रों, सूर्यो, भवनों, विमानों, आकरों (स्वर्ण आदि की खानों) सामान्य नदियों, चक्रवर्ती की निधियों एवं पुरुषों की अनेक जातियों का स्वरों के भेदों, गोत्रों और ज्योतिष्क देवों के संचार का वर्णन किया गया है। तथा एक-एक प्रकार के पदार्थों का दो-दो प्रकार के पदार्थों का यावत दश-दश प्रकार के पदार्थों का कथन किया गया है। जीवों का, पुद्गलों का तथा लोक में अवस्थित अर्धास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का भी प्ररूपण किया गया है // 1 // ५२०-ठाणस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखेज्जाओ पडिवत्तीओ, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाम्रो संगहणीओ। स्थानाङ्ग की वाचनाएं परीत (सीमित) हैं, अनुयोगद्वार संख्यात हैं, प्रतिपत्तियाँ संख्यात हैं, वेढ (छन्दोविशेष) संख्यात हैं, श्लोक संख्यात हैं, और संग्रहणियाँ संख्यात हैं। ५२१–से गं अंगट्ठयाए तइए अंगे, एगे सुयक्खंधे, दस अज्झयणा, एक्कवीसं उद्देसणकाला, [एक्कवीसं समुद्दे सणकाला] वावरि पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ताई। संखेज्जा अक्खरा, अणंता [गमा, अणंता] पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्रायविज्जति पण्णविज्जंति, परूविज्जंति निदंसिज्जंति उवदंसिर्जति / से एवं पाया, एवं णाया एवं विष्णाया, एवं चरण-करणपरूवणया आघविज्जति० / से तं ठाणे 3 / यह स्थानाङ्ग अंग की अपेक्षा तीसरा अंग है, इसमें एक श्रुतस्कन्ध है, दश अध्ययन हैं, इक्कीस उद्देशन-काल हैं, [इक्कीस समुद्देशन काल हैं। पद-गणना की अपेक्षा इसमें बहत्तर हजार पद हैं / संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम (ज्ञान-प्रकार) हैं, अनन्त पर्याय हैं, परीत त्रस हैं / अनन्त स्थावर हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003472
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Hiralal Shastri
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages377
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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